जयपुर में ‘मुक्तिबोध का मुक्तिकामी स्वप्नद्रष्टा’ पर विचार-गोष्ठी (प्रस्तुति : संज्ञा उपाध्याय)
यह वर्ष हिन्दी के महत्वपूर्ण कवि
मुक्तिबोध का जन्म-शताब्दी वर्ष है। विभिन्न पत्रिकाओं ने मुक्तिबोध पर विशेषांक
निकाल कर उन्हें याद करने की कोशिश की है तो कुछ रचनाकारों ने मुक्तिबोध की रचनाओं
के हवाले से उनकी प्रासंगिकता को साबित करने की कोशिश किया है। प्रख्यात कहानीकार रमेश
उपाध्याय ने मुक्तिबोध की चर्चित कविता ‘अँधेरे में’ का पुनर्पाठ करने के क्रम में
‘मुक्तिबोध का मुक्तिकामी स्वप्नद्रष्टा’ नामक किताब लिखी है जो अभी हाल ही में प्रकाशित
हुई है। यह
मुक्तिबोध की कविता को समझने का एक बेहतर प्रयास है। रमेश उपाध्याय के 75वें
जन्मदिन के अवसर पर जयपुर में एक गोष्ठी का आयोजन किया गया जिसमें इस किताब पर
चर्चा की गयी। इस गोष्ठी की रपट हमें उपलब्ध कराया - संज्ञा उपाध्याय ने। देर से
ही सही रमेश जी को जन्मदिन की शुभकामनाएँ देते हुए हम पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे
हैं जयपुर गोष्ठी की यह जरुरी रपट।
‘‘मुक्तिबोध की कविता भारत में मार्क्सवाद की विफलता का महाकाव्य है।’’—ऋतुराज
(जयपुर में ‘मुक्तिबोध का मुक्तिकामी स्वप्नद्रष्टा’ पर विचार-गोष्ठी)
प्रस्तुति : संज्ञा उपाध्याय
प्रसिद्ध कथाकार, आलोचक एवं चिंतक रमेश उपाध्याय का
75वाँ जन्मदिन 1 मार्च, 2017
को राजस्थान के साहित्यकारों ने जयपुर में समारोहपूर्वक मनाया। भारतेंदु
हरिश्चंद्र साहित्य संस्थान तथा राजस्थान उर्दू अकादमी द्वारा संयुक्त रूप से
अकादमी के सभागार में आयोजित समारोह में रमेश उपाध्याय की नयी पुस्तक ‘मुक्तिबोध का मुक्तिकामी स्वप्नद्रष्टा’ पर चर्चा की गयी, जिसमें हिंदी के वरिष्ठ कवि ऋतुराज, हिंदी और राजस्थानी के
कवि-कथाकार-आलोचक नंद भारद्वाज, वरिष्ठ हिंदी कवि गोविंद माथुर, कथाकार लक्ष्मी शर्मा तथा चरण सिंह पथिक और आलोचक दुर्गा प्रसाद
अग्रवाल, राजाराम भादू तथा हिमांशु पंड्या ने
रमेश उपाध्याय के जीवन, कृतित्व और उनकी नयी पुस्तक पर अपने
विचार व्यक्त किये। तदुपरांत नंद भारद्वाज और रमेश उपाध्याय के बीच एक सार्थक
संवाद हुआ, जिसमें अनेक प्रासंगिक प्रश्नों पर
विचार-विमर्श सामने आया।
भारतेंदु हरिश्चंद्र साहित्य संस्थान
के अध्यक्ष कथाकार ईश मधु तलवार ने गोष्ठी का संचालन करते हुए सर्वप्रथम रमेश
उपाध्याय को उनके 75वें जन्मदिन पर बधाई दी और राजस्थान से उनके घनिष्ठ संबंध को
याद करते हुए उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के बारे में बताया। उनकी नयी पुस्तक की
चर्चा करते हुए उन्होंने कहा-- ‘‘मुक्तिबोध को अक्सर एक जटिल कवि माना जाता है और कहा जाता है कि उनकी
कविताएँ समझ में नहीं आतीं। रमेश जी ने मुक्तिबोध की कविताओं का कथा-पाठ इस पुस्तक
में प्रस्तुत किया है और वह इतना रोचक है कि पूरी पुस्तक एक लंबी कहानी की तरह पढ़ी
जाती है और अंत में हम पाते हैं कि मुक्तिबोध को हम सरलता से समझ पा रहे हैं। यह
इस पुस्तक की बहुत बड़ी उपलब्धि है।’’
राजस्थान उर्दू अकादमी के सचिव मोअज्जम
अली ने रमेश उपाध्याय को बधाई और शुभकामनाएँ देते हुए गोष्ठी के वक्ताओं तथा
श्रोताओं का स्वागत किया और कहा कि हम गंगा-जमुनी तहजीब की बात तो करते हैं, लेकिन उसे व्यवहार में ज्यादा लाते
नहीं हैं। मगर इस गोष्ठी में वह गंगा-जमुनी तहजीब दिखायी पड़ रही है और राजस्थान
उर्दू अकादमी की यह खुशबख्ती है कि इतने बडे़ साहित्यकार के 75वें जन्मदिन के
मुबारक मौके पर आप सब खवातीन और हजरात इस परिसर में तशरीफ लाये। मैं आप सबका
स्वागत और खैरमकदम करता हूँ।
इसके बाद जो वक्ता बोले, उनके विचार क्रमशः किंचित् संक्षिप्त
और संपादित रूप में प्रस्तुत हैं।
दुर्गा प्रसाद अग्रवाल
हम सबके लिए और हमारे शहर के लिए यह
बहुत खुशी की बात है कि हम हमारे समय के बड़े कथाकार, बड़े आलोचक, बड़े विचारक और निजी रूप से हम सबके
बहुत नजदीकी मित्र रमेश उपाध्याय के 75वें जन्मदिन पर उन्हें बधाई और शुभकामनाएँ
देने तथा उनकी पुस्तक ‘मुक्तिबोध
का मुक्तिकामी स्वप्नद्रष्टा’ पर विचार करने के लिए यहाँ इकट्ठे हुए हैं। रमेश उपाध्याय मेरे
पुराने मित्र हैं,
लेकिन
जब यह मित्रता शुरू हुई थी, मैंने साहित्य को ठीक से पढ़ना शुरू ही किया था, जबकि रमेश उपाध्याय हिंदी की बड़ी
पत्रिकाओं का एक चमकता हुआ नाम बन चुके थे। जब 1968-69 में इनका उपन्यास ‘दंडद्वीप’ धारावाहिक रूप से ‘धर्मयुग’ में प्रकाशित हो कर घर-घर में पहुँच
रहा था, मुझ जैसे बहुत-से लोग जिन लेखकों को पढ़
कर साहित्य की ओर आकर्षित हो रहे थे, उनमें से एक रमेश उपाध्याय भी थे। तब शायद मैंने सोचा भी नहीं होगा
कि कभी अपने मित्रों के माध्यम से, विशेष रूप से स्वयं प्रकाश और नंद भारद्वाज के माध्यम से, रमेश उपाध्याय से मेरी भी आत्मीयता हो जायेगी
और मैं भी उनके परिवार का एक अंतरंग सदस्य बन जाऊँगा।
बाद में मेरे गुरु डॉ. प्रकाश आतुर ने, जो उस समय राजस्थान साहित्य अकादमी के
अध्यक्ष थे, मुझे रमेश उपाध्याय पर एक मोनोग्राफ
लिखने का काम सौंपा। इस बहाने मुझे रमेश जी के तब तक के काम को गंभीरता से जानने, उसका अध्ययन करने और उस पर लिखने का
अवसर मिला। तभी से मेरी दिलचस्पी इनके काम में पैदा हुई, जो लगातार बढ़ती ही गयी है। आज इनके 75वें
जन्मदिन पर इनके द्वारा किये गये काम को देखता हूँ, तो चकित हो जाता हूँ। केवल संख्या की
बात करूँ, तो अब तक इनके अठारह कहानी संग्रह, चार उपन्यास, पाँच नाटक, आठ नुक्कड़ नाटक, चार आलोचना की किताबें, एक किताब साहित्यिक इतिहास की, एक किताब साक्षात्कारों की, दो निबंध संग्रह, एक लगभग आत्मकथा, एक भीष्म साहनी पर विनिबंध, चार अनुवाद अंग्रेजी किताबों के, पाँच अनुवाद गुजराती किताबों के और ऐसी
ढेरों रचनाएँ, जो अभी तक पत्र-पत्रिकाओं में ही छपी पड़ी हैं, संकलित नहीं हो सकी हैं, उनकी तो गिनती ही नहीं। फिर इनके द्वारा
संपादित ‘कथन’ पत्रिका के साठ अंक और ‘आज के सवाल’ नामक पुस्तक श्रृंखला की पैंतीस पुस्तकें अलग।
मुझे लगता है कि मैं मजाक में रमेश जी
से कहूँ कि आपने इतना काम कर लिया है कि अब और कुछ नहीं करना चाहिए, अब आपको विश्राम करना चाहिए। लेकिन वे विश्राम
नहीं करेंगे, यह हम सब लोग जानते हैं। और इसका सबूत
है उनकी ताजा किताब ‘मुक्तिबोध
का मुक्तिकामी स्वप्नद्रष्टा’। इस किताब पर कुछ कहने के पहले मैं दो बातें खास तौर से कहना
चाहूँगा। एक तो यह कि रमेश उपाध्याय एक जमाने में सेठाश्रित पत्रिकाओं के स्टार
लेखक हुआ करते थे। उसी जमाने में कुछ लेखकों ने यह निर्णय किया था कि अब हम
सेठाश्रित पत्रिकाओं में नहीं छपेंगे। यह निर्णय करने वालों में रमेश जी अग्रणी थे।
और उसके बाद इन्होंने अपनी एक अलग राह बनायी और अपने लेखन को पूरी तरह सोद्देश्य
और जन-पक्षधर लेखन बनाया। तब से अब तक किये गये इनके काम को मैं देखता हूँ, तो चकित और आह्लादित दोनों होता हूँ।
लेखन हो या पत्रिका और पुस्तकों का संपादन, सर्वत्र इन्होंने सोद्देश्यता और
जन-पक्षधरता के साथ बहुत ही गंभीरतापूर्वक सार्थक और महत्त्वपूर्ण काम किया है।
हमारे समय के ऐसे लेखकों में, जिन्होंने साहित्य में अपनी विचारधारा
और प्रतिबद्धता का दामन कभी नहीं छोड़ा है, मुझे रमेश जी का नाम बहुत ऊपर नजर आता
है। और मुझे इस बात पर गर्व भी होता है कि ऐसे रमेश उपाध्याय को हम राजस्थान के
लेखक अपना मित्र मानते हैं और वे भी हमें अपना मानते हैं।
अब थोड़ी-सी बात इस किताब की। मुक्तिबोध, कहने की जरूरत नहीं, हमारे जमाने के सबसे महत्त्वपूर्ण कवियों में
से एक हैं। लेकिन साथ ही यह भी सही है कि उनकी कविताओं को समझना बहुत सरल नहीं है।
लेकिन जब एक समर्थ कथाकार अपने समय के एक बहुत बड़े कवि से सर्जनात्मक स्तर पर
टकराता है, तो ‘मुक्तिबोध का मुक्तिकामी स्वप्नद्रष्टा’ जैसी रचना सामने आती है। इस किताब को पढ़ते हुए
मुझे लगा कि यह किताब मुक्तिबोध की कविताओं को समझने के लिए बहुत बड़ी कुंजी है। यह
किताब मुक्तिबोध की कविताओं को समझने में सहायक होने के साथ-साथ उन पर नये सिरे से
विचार करने को भी प्रेरित करती है। मुक्तिबोध की ‘अँधेरे में’ कविता मैंने कई बार पढ़ी है। उस पर बहुत लिखा
गया है। वह भी मैंने पढ़ा है। लेकिन रमेश भाई ने उस कविता का जो कथा-पाठ इस पुस्तक
में प्रस्तुत किया है, उसे पढ़ कर मैं मुक्तिबोध को नये रूप
में समझने के लिए तैयार हुआ हूँ।
अगर कोई रचनाकार अपनी कृति में इतना कर
देता है, तो इस बात के लिए हमें उसे बहुत-बहुत बधाई देनी
चाहिए, उसके प्रति आभार व्यक्त करना चाहिए। और जैसा कि
मैंने पहले कहा कि रमेश भाई रिटायर होकर विश्राम करने बैठ जाने वालों में से नहीं
हैं, इसलिए मेरी उनसे अपेक्षा और उम्मीद है कि वे
हिंदी की अन्य लंबी कविताओं का भी कथा-पाठ प्रस्तुत करें, ताकि हमारे सामने कहानी के जरिये कविताओं को
समझने का एक नया रास्ता खुले। अभी इतना ही। रमेश भाई को उनके 75वें जन्मदिन पर
बहुत-बहुत बधाई और यह शुभकामना भी कि उनका सौवाँ जन्मदिन भी हम लोग यहीं मनायें, क्योंकि राजस्थान से उनका गहरा आत्मीय
संबंध रहा है और उनकी बहुत बड़ी मित्र-मंडली भी यहीं पर है।
लक्ष्मी शर्मा
रमेश उपाध्याय जी का मुझ पर सदा से
अकृत्रिम स्नेह रहा है। मेरी पहली कहानी उन्होंने अपनी पत्रिका ‘कथन’ में प्रकाशित की। उसकी प्रशंसा छपी, तो उन्होंने उसकी कतरन मुझे भेजी। उसका
अनुवाद छपा, तो उसकी प्रति भी उन्होंने मुझे भेजी।
मुझे बहुत गर्व है कि प्रज्ञा-संज्ञा की बड़ी बहन के रूप में उनका स्नेह मुझे
प्राप्त है। अतः मेरे लिए व्यक्तिगत रूप से भी बहुत प्रसन्नता की बात है कि वे आज
हमारे साथ अपना जन्मदिन मना रहे हैं। उनके 75वें जन्मदिन पर उन्हें हार्दिक बधाई
और शुभकामनाएँ।
आज यहाँ उनकी जिस पुस्तक पर चर्चा हो
रही है, वह दिल्ली में उन्होंने स्वयं मुझे दी, तो मैं बहुत प्रसन्न हुई। हालाँकि मैं
कविता पढ़ती-पढ़ाती हूँ, मुक्तिबोध की ‘अँधेरे में’ कविता मैंने एम.ए. में पढ़ायी है, फिर भी मेरी रुचि कविता से अधिक कथा-साहित्य
में है। मुक्तिबोध को पढ़ते और पढ़ाते समय क्लिष्टता का जो अनुभव मुझे होता रहा है, वह इस पुस्तक को पढ़ते समय बिलकुल नहीं
हुआ। उपाध्याय जी ने मुक्तिबोध की कविताओं को जिस रोचकता, प्रांजलता और सरस अभिव्यंजना के साथ
मुक्तिबोध के मुक्तिकामी स्वप्नद्रष्टा की कहानी के रूप में प्रस्तुत किया है, उसने इस पुस्तक को अद्भुत बना दिया है।
उन्होंने ‘मुक्तिबोध का मुक्तिकामी स्वप्नद्रष्टा’ को संक्षिप्त कर के ‘मुकामुस्व’ नामक जिस कथा-पात्र या चरित्र का
निर्माण किया है, वह मुक्तिबोध की कविताओं से निर्मित
होते हुए भी उनकी मौलिक रचना है और बहुत प्रभावशाली है।
वह कोई आदर्श नायक नहीं, बल्कि अपनी सभी कमियों और कमजोरियों के
साथ किंतु दृढ़तापूर्वक अपने मार्ग पर चलते हुए उन पर विजय पाने वाला एक मानवीय
चरित्र है, जो यथार्थ से टकराते हुए गिरता है, उठता है, हाँफता है, छटपटाता है, लेकिन फिर उठ खड़ा होता है। वह अँधेरे
में घिरता है, पर फिर उससे बाहर आ कर चकमक की चिनगारियों की
तरह चमकता है।
‘मुकामुस्व’ के
माध्यम से उपाध्याय जी ने मुक्तिबोध के पूर्ण मनुष्य अथवा परिपूर्ण मनुष्यता के
स्वप्नद्रष्टा स्वरूप को साकार किया है। उसका आधार हैं मुक्तिबोध की कविताएँ, जिनके शब्दों में ही ‘मुकामुस्व’ की कथा कही गयी है। लेकिन कथा की शैली
उपाध्याय जी की अपनी है, जो मुक्तिबोध की कविताओं के इस नये और
अनूठे पुनर्पाठ को सहज और सरस बनाती है। यह पुनर्पाठ इस अर्थ में नितांत नया है कि
इससे वह यथार्थ सामने आता है, जो अखिल विश्व में क्रांति का स्वप्न ले कर चलने वाले भूमंडलीय यथार्थवाद
के जरिये मुक्तिबोध की कविताओं में व्यक्त हुआ है। पुस्तक की प्रस्तावना में
उपाध्याय जी ने लिखा है--‘‘आज
का भूमंडलीय यथार्थ मुक्तिबोध के भविष्य-स्वप्न में मानो पहले से ही शामिल था। मैं
जिसे भूमंडलीय यथार्थवाद कहता हूँ, वह मुक्तिबोध की कविताओं में पहले से ही मौजूद था।’’
उपाध्याय जी की यह पुस्तक मुक्तिबोध को
आज के समय में और भी प्रासंगिक बनाती है। अतः इसका महत्त्व गहरी रेखा में रेखांकित
किये जाने योग्य है। मैं इस अद्भुत पुस्तक के लिए उनका हार्दिक अभिनंदन करती हूँ।
राजाराम भादू
रमेश जी के 75वें जन्मदिन पर उनकी
पुस्तक ‘मुक्तिबोध का मुक्तिकामी स्वप्नद्रष्टा’ पर विचार-गोष्ठी आयोजित करके उन्हें
बधाई देने का विचार नंद भारद्वाज जी और ईश मधु तलवार जी के मन में आया, यह बहुत ही प्रशंसनीय है। मुझे पुस्तक
आज ही मिली है, इसलिए मैं उसे सरसरी तौर पर ही देख पाया हूँ।
लेकिन पिछले कुछ दिनों से इसकी चर्चा जयपुर के मित्रों से सुन रहा हूँ। उसके आधार
पर ही मैं कह सकता हूँ कि रमेश जी ने एक विचारोत्तेजक और महत्त्वपूर्ण पुस्तक लिखी
है। सरसरी तौर पर देखने से भी मैं कह सकता हूँ कि यह पुस्तक लिख कर रमेश जी ने जो
काम किया है, वह सबसे अलग हट कर किया गया एक मौलिक
और महत्त्वपूर्ण काम है। रमेश जी मेरे पुराने मित्र हैं और मैं उनकी रचनाधर्मिता
से परिचित हूँ। अतः मैं उनके जन्म-दिन पर और उनकी इस पुस्तक के प्रकाशन पर उन्हें
बधाई देता हूँ।
कुछ समय पहले ‘सामयिक सरस्वती’ का जो मुक्तिबोध विशेषांक निकला था, उसके संपादकीय में मुक्तिबोध को अज्ञेय की
दृष्टि से समझने की सिफारिश की गयी थी। इससे पता चलता है कि मुक्तिबोध के जन्मशती
वर्ष में उनको सही ढंग से, और ज्यादा अच्छी तरह से, समझने के प्रयासों के साथ-साथ गलत ढंग से और
गलत तरीकों से भी समझने-समझाने के प्रयास किये जायेंगे। मैंने रमेश जी की पुस्तक
की प्रस्तावना में देखा कि उन्होंने ‘सामयिक सरस्वती’ में व्यक्त किये गये विचार का खंडन
किया है और मुक्तिबोध को मुक्तिबोध की दृष्टि से ही देखने का प्रयास इस पुस्तक में
किया है। इस पुस्तक में उन्होंने एक नया प्रयोग किया है। वह यह कि उन्होंने
मुक्तिबोध की कविताओं का कथा-पाठ किया है, उन्हें कहानी की तरह पढ़ा है और इसके
लिए उन्होंने मुक्तिबोध का एक काव्य-नायक खड़ा किया है, जिसे मुक्तिबोध का मुक्तिकामी
स्वप्नद्रष्टा या संक्षेप में ‘मुकामुस्व’ कहा
है। यह काव्य-समीक्षा में एक नया प्रयोग है और मैं जानता हूँ कि रमेश जी अपने लेखन
में हमेशा प्रयोगशील रहे हैं, नये-नये प्रयोग करते रहे हैं।
रमेश जी ने इस पुस्तक में मुक्तिबोध के
सृजन और दर्शन को अंतर्ग्रथित रूप में प्रस्तुत किया है। अतः मैं कह सकता हूँ कि
रमेश जी की यह किताब बहुत ध्यान और धैर्य से पढ़ी जाने की चीज है। यहाँ जो मैंने
कहा है, वह मेरा शुरुआती इंप्रेशन है, बाकी पुस्तक को ध्यान से पढ़ने पर।
हिमांशु पंड्या
जब तक मैंने किताब नहीं देखी थी और
मित्रों से उसकी चर्चा सुनते समय मुक्तिबोध के काव्य-नायक ‘मुकामुस्व’ के बारे में सुना था, तो मैं चौंका था। मुझे लगा कि मैंने अब तक क्या
किया, जीवन क्या जिया! मुक्तिबोध को पढ़ते और
पढ़ाते इतने साल हो गये और मैं मुक्तिबोध के इस काव्य-नायक को जान ही नहीं पाया!
बाद में समझ में आया कि यह ‘मुक्तिबोध का मुक्तिकामी स्वप्नद्रष्टा’ का संक्षिप्तीकरण किया गया है। तब मुझे
याद आया कि यह तो रमेश जी पुरानी विशेषता है। याद आया कि ‘कथन’ के एक संपादकीय में उन्होंने एक
प्रसिद्ध पद का इसी तरह संक्षिप्तीकरण किया था। वह पद था ‘कोई विकल्प नहीं’। अंग्रेजी में There Is No Alternative का संक्षिप्तीकरण TINA किया गया था, रमेश जी ने ‘कोई विकल्प नहीं’ का संक्षिप्तीकरण किया ‘कोविन’। हिंदी में पहली बार ‘कोविन’ शब्द गढ़ने और प्रचलित करने का श्रेय रमेश जी को
जाता है। और मेरा खयाल है कि जैसे ‘कोविन’ चला, वैसे ही इनका ‘मुकामुस्व’ भी चल पड़ेगा।
यहाँ मैं रमेश जी की कहानियों की एक
विशेषता को रेखांकित करना चाहता हूँ। वह यह कि रमेश जी अपनी कहानियों में एक
सामान्य व्यक्ति के हीरोइज्म को सामने लाते हैं। यह विशेषता उनकी कहानी ‘देवीसिंह कौन?’ में मिलेगी, ‘सफाइयाँ’ में मिलेगी, ‘डॉक्यूड्रामा’ में मिलेगी, दूसरी कहानियों में भी मिलेगी। उनकी
कहानियों का नायक एक व्यक्ति नहीं, बल्कि प्रवृत्ति होता है, एक प्रतिनिधि चरित्र होता है। रमेश जी
की कई कहानियों के चरित्र ऐसे हैं, जिनका कोई नाम नहीं है। ऐसी कहानियों का इनका एक संग्रह ही है, जिसका नाम है ‘किसी देश के किसी शहर में’। उसमें हर कहानी किसी ‘एक आदमी’ की कहानी है, जिसका कोई नाम-पता कहानी में नहीं है, लेकिन वह एक ऐसे चरित्र के रूप में सामने आता
है, जो एक बड़े और व्यापक यथार्थ को सामने लाता है।
इस प्रकार रमेश जी कहानी के बने-बनाये ढाँचे को तोड़ते हैं, एक व्यक्ति के जीवन के विशेष घटना-क्रम से बनी
हुई कहानी को, उसकी नाटकीयता को नकारते हैं, ताकि आप उनकी कहानियों के पात्रों की व्यक्तिगत
विशेषताओं से ध्यान हटायें और उस चरित्र का साक्षात्कार करें, जो एक बड़े और व्यापक यथार्थ तक आपको ले
जाता है।
‘मुकामुस्व’ के
जरिये भी रमेश जी ने एक ऐसा ही नायक मुक्तिबोध की कविताओं में से खोजा है, जो एक सामान्य मध्यवर्गीय व्यक्ति है। वह ऐसा
नायक नहीं है, जिसके पास सारे हथियार पहले से मौजूद
हों। वह हमारी तरह मध्यवर्गीय चेतना वाला व्यक्ति है, जो वर्ग-चेतना को प्राप्त करने की दिशा
में सक्रिय है; जिसकी अपनी कमजोरियाँ हैं; जिसकी अपनी हताशाएँ हैं। यह कहना भी
बहुत ज्यादती होगी कि वह मुक्तिबोध स्वयं हैं। कुछ हद तक वह मुक्तिबोध स्वयं भी
हैं, वे बार-बार ‘मैं’ का प्रयोग करते हैं अपनी कविताओं में, लेकिन वह ‘मैं’ केवल उनसे नहीं बनता है। वह पूरे मध्यवर्गीय
मानस से मिल कर बनता है। रमेश जी ने उसी को खोजकर ‘मुकामुस्व’ की रचना की है।
रमेश जी खुद अपनी कहानियों में बार-बार
उसको ढूँढ़ने की कोशिश करते रहे हैं। ‘देवीसिंह कौन?’ कहानी में वह देवीसिंह कहीं है ही नहीं, जिस को सब जगह ढूँढ़ा जा रहा है। वह दरअसल कहीं
है ही नहीं। वह सिर्फ परेशान कर रहा है खलनायक को। उनकी कहानी ‘डॉक्यूड्रामा’ में एक वैज्ञानिक पर फिल्म बनाना चाहने
वाली लड़की उसके जीवन में कोई खास घटना ढूँढ़ती है। लेकिन घटनाप्रियता किसी जनवादी
लेखक की पहचान नहीं होती। वह आपके अंदर की विशिष्टताओं को नहीं, सामान्यताओं को ढूँढ़ने की कोशिश करता है।
यह सामान्यता ढूँढ़ने की कोशिश उनकी रचनाओं में हमेशा रही है। वही कोशिश ‘मुकामुस्व’ का चरित्र रचने में दिखायी देती है।
मुझे लगता है कि उनकी यह पुस्तक मुक्तिबोध की कविताओं को समझने के लिए तो एक नयी
खिड़की खोलेगी ही, उससे ज्यादा वह खुद रमेश उपाध्याय जी
के रचना-कर्म को समझने के लिए भी एक नयी खिड़की हो सकती है।
चरण सिंह पथिक
सबसे पहले तो मैं वरिष्ठ कहानीकार रमेश
जी को, जिनको पढ़कर हम जैसों ने कहानी लिखना
शुरू किया, उनके 75वें जन्मदिन पर हार्दिक
शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ। उनकी यह जो नयी किताब आयी है ‘मुक्तिबोध का मुक्तिकामी स्वप्नद्रष्टा’, उसे पढ़ना शुरू करते ही मुझे मुक्तिबोध
के कविता संग्रह ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’ याद आया, क्योंकि मुक्तिबोध को समझना मेरे लिए
बहुत टेढ़ा रहा है। लेकिन रमेश जी ने उनकी जटिल कविताओं को कथा में ढाल कर जो इस
किताब में प्रस्तुत किया है, वह कहानी की तरह इतना सहज, सरल और रोचक है कि हम जैसे पाठक भी
उसके जरिये मुक्तिबोध की कविताओं को समझ सकते हैं और उनके मर्म तक पहुँच सकते हैं।
जब मैंने लिखना शुरू किया था, हम नये लेखकों का एक ग्रुप हुआ करता था। उसमें
हम जिन कहानीकारों की सबसे अधिक चर्चा करते थे, वे होते थे ज्ञानरंजन, रमेश उपाध्याय और स्वयं प्रकाश। अभी
हिमांशु पंड्या ने रमेश जी की कहानी ‘देवीसिंह कौन?’ की चर्चा की। उस समय हम जितनी भी
पत्रिकाएँ पढ़ते थे,
सभी
में इस कहानी की चर्चा होती थी। उसने हमें इतना प्रभावित किया कि हम खोज-खोजकर
इनकी कहानियाँ पढ़ने लगे। तब से अब तक इनकी कहानियों की जिस खूबी से मैं प्रभावित
होता आ रहा हूँ, वह है जटिल से जटिल यथार्थ को पूरी
वैचारिकता के साथ कहानी के जरिये पाठकों के सामने लाना। यह बड़े कौशल का काम है, क्योंकि प्रगतिशील-जनवादी कहानी में कई
बार विचार इतना ज्यादा हावी हो जाता है, वैचारिकता कथ्य पर इस तरह लद जाती है, कि पता ही नहीं चलता कि यह कहानी है या
निबंध। रमेश जी की कहानियों की खूबसूरती इस बात में है कि वे बड़ी से बड़ी बात को एक
सामान्य मनुष्य की कहानी में ढाल कर ग्राह्य और प्रभावशाली बना देते हैं। उदाहरण
के लिए, उनकी कहानी ‘त्रासदी...माइ फुट!’ भोपाल गैस कांड से जुड़े भारतीय और
भूमंडलीय यथार्थ को पूरी व्यापकता और जटिलता के साथ सामने लाती है, लेकिन वह यथार्थ नूर मुहम्मद और उसके
परिवार की कहानी के रूप में सामने आता है और कहानी पूरी वैचारिकता के साथ पाठक के
मन को छूने वाली मार्मिक कहानी बन जाती है।
मैं जब कहानी लिखना सीख रहा था, यह देखा करता था कि मैं जिस वर्ग से आता हूँ, उस वर्ग के लोगों की, यानी गाँव में खेती-बाड़ी करने वाले दबे-कुचले
लोगों की, और उन्हीं में से शहर जा कर
मेहनत-मजदूरी के काम करने वाले लोगों की कहानी कौन लेखक लिख रहे हैं। उनमें सबसे
महत्त्वपूर्ण मुझे रमेश जी लगते थे, जो हमारी कहानी कह रहे थे, हम जैसों की कहानी कह रहे थे। मैं यह भी देखता था कि रमेश जी सिर्फ
कहानियाँ नहीं लिखते, निबंध भी लिखते हैं, नाटक भी लिखते हैं, उपन्यास भी लिखते हैं, आलोचना भी लिखते हैं, लेकिन इन तमाम विधाओं में लिखते हुए भी
अपनी मूल विधा कहानी को न सिर्फ बरकरार रखते हैं, बल्कि उसमें नये-नये प्रयोग करके उसे
आगे भी बढ़ाते हैं,
समृद्ध
भी करते हैं। यह बहुत कठिन काम है और यह कठिन काम रमेश जी ने लगातार किया है और आज
भी कर रहे हैं। यथार्थ को, आज के भूमंडलीय यथार्थ को, कहानी में स्वप्न और फैंटेसी के जरिये सामने
लाने का जो काम रमेश जी ने किया है, किसी और समकालीन कहानीकार ने नहीं किया
है।
रमेश जी के लेखन की इस विशेषता को आप
मुक्तिबोध पर लिखी गयी इस नयी पुस्तक में भी देख सकते हैं। मुक्तिबोध की कविताओं
का जैसा कथा-पाठ इस पुस्तक में किया गया है, वह रमेश जी ही कर सकते थे, क्योंकि मुक्तिबोध स्वप्न और फैंटेसी से जो काम अपनी कहानियों में
लेते हैं, वह काम रमेश जी अपनी कहानियों में करते
रहे हैं। रमेश जी की एक और बड़ी विशेषता, जिसकी चर्चा यहाँ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल जी कर चुके हैं, उनकी प्रयोगशीलता है। उन्होंने अपनी
रचनाओं में लगातार नये प्रयोग किये हैं। ‘मुक्तिबोध का मुक्तिकामी स्वप्नद्रष्टा’ भी एक नया प्रयोग है। सर्वथा नया
प्रयोग। एक सार्थक और महत्त्वपूर्ण प्रयोग। इसके लिए मैं रमेश जी को हार्दिक बधाई
देता हूँ।
गोविंद माथुर
सबसे पहले मैं भाई रमेश उपाध्याय जी को
उनके 75वें जन्मदिन पर बधाई देता हूँ। हमें इस बात की बड़ी प्रसन्नता है कि हम उनका
यह जन्मदिन जयपुर में मना रहे हैं। प्रसन्नता इस बात की भी है कि उनका यह जन्मदिन
हम उनकी पुस्तक पर चर्चा करके मना रहे हैं।
मैं कवि हूँ। कविता लिखने के साथ-साथ
कविता पढ़ता भी हूँ। लेकिन यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं है कि मुक्तिबोध की
कविता को समझ पाना मेरे लिए बहुत मुश्किल रहा है। मुक्तिबोध की कविता में उनकी जो
मानसिकता व्यक्त होती है, वह
इतनी जटिल है कि उसे समझ पाना वाकई बहुत मुश्किल है। फिर, उनकी कविताओं में उनके समय का जो
यथार्थ व्यक्त हुआ है, वह
भी इतना जटिल है कि वे उसे तरह-तरह से व्यक्त करते हैं, फिर भी वह पूरी तरह संप्रेषित नहीं हो
पाता है। हम समझ नहीं पाते हैं कि कवि ने क्या कहा है। रमेश जी ने इस किताब में
आख्यान के जरिये मुक्तिबोध की कविताओं को इस प्रकार प्रस्तुत किया है कि हमें जो
कविताएँ दुरूह लगती थीं, उन्हें हम समझ पाते हैं। मेरे विचार से
यह एक बहुत बड़ा काम है, बहुत
महत्त्वपूर्ण काम है। यह काम मुक्तिबोध की जन्मशती वर्ष के अवसर पर किया गया है, इसलिए इसका महत्त्व और भी बढ़ जाता है।
कुछ लोगों को लग सकता है कि एक कथाकार
को कविता पर लिखने का क्या अधिकार है। पुस्तक की भूमिका में उन्होंने लिखा भी है
कि वे कवि हैं न काव्य-समीक्षक और यह किताब उन्होंने एक कथाकार के रूप में लिखी
है। लेकिन मैं आपको बताता हूँ कि रमेश जी आरंभ में कविताएँ लिखते थे, कविता से कहानी के क्षेत्र में आये, जबकि मैं पहले कहानी लिखता था, कहानी से कविता के क्षेत्र में आया।
मैं कहानियाँ लिखता था और कहानियाँ पढ़ा करता था। रमेश जी की कहानियाँ भी पढ़ता था। ‘धर्मयुग’ में धारावाहिक रूप से प्रकाशित इनका
उपन्यास ‘दंडद्वीप’ भी मैंने पढ़ा था। मगर इनसे मित्रता हुई
तीन दशक पहले, जब राजेंद्र यादव ने ‘हंस’ निकाला और उसके एक अंक में मेरी तीन
कविताएँ छापीं। उन कविताओं पर ‘हंस’
के
अगले अंक में रमेश जी का एक बड़ा आलेख छपा। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि एक कथाकार
कविता पर कैसे लिख रहा है और कैसे कविता की इतनी अच्छी समझ के साथ लिख रहा है।
यह बात मैं दो कारणों से बता रहा हूँ।
एक तो यह बताने के लिए कि पिछले तीन दशकों से रमेश जी का प्रेम मुझे बराबर मिलता
रहा है। रमेश जी ‘कथन’ जैसी महत्त्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिका के संपादक
रहे हैं। उसमें मेरी कविताएँ उन्होंने छापी हैं और मुझ पर इनका प्रेम बढ़ता ही गया
है। दूसरे यह बताने के लिए कि मुक्तिबोध पर ऐसी पुस्तक काव्य-संवेदना वाला व्यक्ति
ही लिख सकता था। रमेश जी कथाकार के रूप में अधिक जाने जाते हैं, पर उनका साहित्य की सभी विधाओं में दखल
और अधिकार है। इसलिए मुक्तिबोध पर यह पुस्तक लिखना उनकी कोई अनधिकार चेष्टा नहीं, बल्कि साधिकार किया गया काम है और यह
इतना अच्छा और बड़ा काम उन्होंने कर डाला है कि मुक्तिबोध को समझने के लिए इस
पुस्तक की आवश्यकता और प्रासंगिकता हमेशा बनी रहेगी।
ऋतुराज
मुझे इस पुस्तक का एक पैरा सबसे ज्यादा
सटीक, सबसे ज्यादा प्रासंगिक लगा। अपनी बात
शुरू करने से पहले मैं उसे पढ़ता हूँ :
‘‘मुकामुस्व उन मध्यवर्गीय लोगों से घोर घृणा करता है, जो अवसरवादी पराक्रमों के घोर जंतु हो कर
भी वंदनीय हैं। महा-शोषकों के शोषण-अपराधों के सुसहायक हैं। या उनकी संस्थाओं के
दासानुदास हैं। यद्यपि वे अपनी शिकायतें बड़बड़ाते रहते हैं, तथापि शोषकों के ही फलसफे को बुदबुदाते
रहते हैं। राजनीति और साहित्य के क्षेत्र में भी इन्हीं महा असत्य-शूकरों का तमाशा
होता रहता है, गो कि उसमें मुँह से भारतीय संस्कृति
की भाषा बोली जाती है। ये नैतिक आत्मा का तार-तार हुआ कुरता उतारकर नये-नये
स्वार्थों का भयानक काला चोगा पहनते हैं और बुदबुदाते हैं कि अपने कपड़ों के अंदर
हर कोई नंगा है। अर्थात् सभी उनकी ही तरह स्वार्थी हैं।’’
यह पैरा रमेश जी ने मुक्तिबोध की कविता
‘हे प्रखर सत्य!’ के आधार पर लिखा है। मुक्तिबोध ने इस शीर्षक से
दो कविताएँ लिखी थीं। यह पैरा इस शीर्षक की दूसरी कविता पर आधारित है। शब्द
मुक्तिबोध के हैं,
पर
उनकी गद्य प्रस्तुति रमेश जी की है और वह ऐसी है कि अलग से कविता पर कुछ कहने, उस पर कोई टिप्पणी करने, या उसकी व्याख्या करने की आवश्यकता
नहीं। लेकिन मैंने यह पैरा आप लोगों के सामने यह दिखाने के लिए पढ़ा है कि बहुत
पहले लिखी गयी यह कविता आज भी कितनी प्रासंगिक है। इससे पता चलता है कि कोई कविता
अपने अर्थ को लेकर कैसे समय का अतिक्रमण करती है। कैसे वह भूत से भविष्य की तरफ
जाती है। और यह तो इस पुस्तक का शुरू का ही अंश है। आगे ऐसे अंश बहुत हैं, जहाँ हम ठहर कर सोचने लगते हैं।
मुझे इस पुस्तक का स्थापत्य बहुत अच्छा
लगा। इसकी संरचना बहुत पसंद आयी। मुक्तिबोध की सारी कविता को एक ही लंबी कविता कहा
जा सकता है। रमेश जी ने उसे इसी रूप में लिया है और इसी कारण उन्हें मुक्तिबोध की
कविताओं में आरंभ से अंत तक ‘मुकामुस्व’ दिखायी दिया है, जिसकी कथा उन्होंने अपनी पुस्तक में
कही है। अगर इस पुस्तक में से कविताओं के संदर्भ निकाल दें और उसको एक कथा की तरह
पढ़ें, तो लगेगा कि वह एक ही चरित्र-नायक की कथा है।
उन्होंने उसे मुक्तिबोध का मुक्तिकामी स्वप्नद्रष्टा कहा है, संक्षेप में मुकामुस्व, लेकिन मेरे विचार से वह स्वप्नद्रष्टा
ही नहीं, भविष्यद्रष्टा भी है, जिसका प्रमाण हैं वे पंक्तियाँ, जो अभी मैंने पढ़ीं, जो आज के समय में भी बहुत मौजूँ हैं, बहुत सटीक हैं।
मुक्तिबोध को हम एक बहुत बड़े कवि के
रूप में, किंतु एक विफल कवि के रूप में जानते हैं। कविता
में तो वे बहुत सफल हैं, पर जीवन में बहुत विफल हैं। जीवन की
सबसे बड़ी विफलता आर्थिक विफलता होती है और मुक्तिबोध आर्थिक रूप से बहुत विफल रहे।
मुक्तिबोध प्रसंग के अवसर पर मैं उनके परिवार से मिला। हम अगल-बगल ठहरे हुए थे।
शांता जी थीं, अविवाहित लड़की थी और दो लड़के थे, जिनको उस वक्त तक नौकरी भी नहीं मिली
थी। शांता जी से मेरी बातचीत हुई, तो उन्होंने कहा-- मैं उनको बहुत समझाती थी, पर वे मानते ही नहीं थे। राजनाँदगाँव आ
कर कुछ व्यवस्थित हुए, लेकिन बाकी जीवन उन्होंने अभावों और
कष्टों में ही खपा दिया। इसीलिए इतनी जल्दी चले गये। इतने कष्ट में, इतने अर्थाभाव में, बेकार ही उन्होंने अपना सारा जीवन
गुजार दिया। और अंत में मैंनिंजाइटिस से चल बसे और वह भी दिल्ली जाकर। बहुत लोगों
ने शास्त्री जी से अनुनय-विनय की, तब उनको इलाज के लिए दिल्ली ले जाया गया। लेकिन इलाज तो उनका होना ही
नहीं था।
मुक्तिबोध की कविता भी विफलता की कविता
है। मगर वह निजी विफलता की कविता नहीं, एक बहुत बड़ी विफलता की कविता है। जब हम
कहते हैं कि उन्होंने जीवन भर एक ही कविता लिखी है, तो वह कविता विफलता का महाकाव्य है। वह
भारत में मार्क्सवाद की विफलता की कथा है। इस अर्थ में कि हमने इस देश में
स्वतंत्रता से पहले जो स्वप्न देखा था, वह स्वतंत्रता के बाद बिखर गया और स्वतंत्रता के बाद जो यथार्थ हमने
भोगा, जो विफलता हमने भोगी, वह दरअसल हमारे मार्क्सवादी होने की
विफलता है। मैं मार्क्सवाद की विफलता की बात नहीं कर रहा हूँ। मार्क्सवाद तो
अपने-आप में दर्शन है, जो
दुनिया में और जगह सफल भी हुआ है, लेकिन भारत में वह विफल रहा। उस विफलता को मुक्तिबोध ने महसूस किया।
उस विफलता के अहसास से जो कविता रची गयी, वह मुक्तिबोध की कविता है। हालाँकि यह
अहसास और लोगों को भी था, जैसे
शमशेर और नेमिचंद्र जैन को, लेकिन उन्होंने उस अहसास को छुट-फुट
तरीके से लिखा, जबकि मुक्तिबोध ने उसे महाकाव्यात्मक
रूप में लिखा। उन्होंने एक महाकाव्यात्मक नायक की तरह उसका भाष्य किया। और उस
भाष्य का भाष्य रमेश जी की पुस्तक है। भाष्य का भाष्य कहना शायद गलत होगा। रमेश जी
ने उस भाष्य का विग्रह किया है और इस पुस्तक में उसी महाकाव्यात्मक विफलता की कथा
कही है।
मुक्तिबोध की कविता एक दस्तावेज है, जिसमें हम देखते हैं कि उनके समय की
परिस्थितियाँ कैसी थीं, लोगों
ने कौन-से सपने देखे थे और कैसे वे सपने एक-एक करके टूटे थे। उनकी कविता पूँजीवादी लोकतंत्र का एक सांस्कृतिक-ऐतिहासिक
दस्तावेज है, जो मार्क्सवादी दृष्टि से, क्रांतिकारी दृष्टि से लिखा गया है, लेकिन इस यथार्थ को देखते हुए लिखा गया
है कि देश की परिस्थितियाँ तो क्रांति की माँग कर रही हैं, किंतु कोई क्रांति हो नहीं रही है। मुक्तिबोध
की पूरी कविता का निचोड़ है परम अभिव्यक्ति की खोज। लेकिन वह परम अभिव्यक्ति आखिर
क्या है? परम अभिव्यक्ति है वह साहस, वह कूवत, वह तरीका, वह रणनीति, जिससे जन-क्रांति हो। वामपंथी लोग कहते तो रहे
कि क्रांति हो रही है, लेकिन वास्तव में वह हो नहीं रही थी और
हुई नहीं। जितनी भी वामपंथी पार्टियाँ थीं, उसमें विफल रहीं। जितने भी वामपंथी
आंदोलन हुए, सब धराशायी हुए और जिस तरफ उन्हें जाना था, उस तरफ जाने के बजाय दूसरी तरफ चले
गये। यह एक बड़ा राजनीतिक संकट था, सामाजिक संकट था कि हम अपनी मध्यवर्गीय सोच को बदल नहीं पाये और
अवसरवादी बन कर बार-बार गड्ढे में गिरते रहे।
मुक्तिबोध की कविता ‘अँधेरे में’ क्या कहती है? वह एक पूरी भयावह फिल्म है स्वतंत्रता
के बाद के पूरे देश की। वह स्वतंत्रता के बाद हुए मोहभंग का भयावह अनुभव है। वह एक
ऐसी विफलता है, जो आश्चर्यजनक तरीके से आपको एक
मध्यवर्गीय अवसरवाद की तरफ ले जाती है। मुक्तिबोध की यह कविता और उनकी पूरी ही
कविता इस मध्यवर्गीय चरित्र का ही आख्यान है। यह मध्य-वर्ग चाहता तो है कि
जन-क्रांति हो, रेडिकल चेंज हो, बुनियादी बदलाव आये और यथार्थ को लोग समझें, लेकिन उसके सोचने, चाहने और करने में इतना अंतर है, उसके बीच इतनी बड़ी खाई है कि वह उसमें
सफल नहीं हो पाता और अंततोगत्वा अवसरवादी हो जाता है, समझौता करने की स्थिति में आ जाता है, जैसा कि उस पैरे में दिखता है, जो मैंने आपको इस पुस्तक में से पढ़ कर
सुनाया।
क्रांति की बात करने वाला मध्य-वर्ग
किस तरह बदलता है,
किस
तरह पाखंड, छद्म और प्रपंच रचता है और किस तरह
अंततः पूँजीवाद से समझौता कर लेता है--इसका दस्तावेज है मुक्तिबोध की कविता।
मुक्तिबोध आर्थिक रूप से बहुत विपन्न थे। संघर्ष करते रहे। दर-ब-दर भटकते रहे।
परिवार के साथ, छोटे-छोटे बच्चों के साथ एक शहर से
दूसरे शहर भटकते रहे। यह उनके निजी जीवन की विफलता थी। इस विफलता का भी प्रतिबिंबन
उनकी कविता में होता है, लेकिन
इससे बड़ी विफलता है जन-क्रांति का न होना। उनकी कविता हमें आज भी आकर्षित करती है, उसे हम बार-बार पढ़ना चाहते हैं, वह हमें आज भी उतनी ही प्रासंगिक लगती
है, तो क्यों? वह प्रासंगिकता है क्या आखिर? वह प्रासंगिकता है भारत जैसे देश में
कोई परिवर्तन न होना। या भारत जैसे देश में क्षण-क्षण सांस्कृतिक पतन का होना। उस
पतन की महागाथा है मुक्तिबोध की कविता।
रमेश जी ने बड़े अद्भुत ढंग से उस पूरी
कविता को, उस पूरी महागाथा को, उसकी सारी कड़ियाँ जोड़कर हमारे सामने रख
दिया है। पूरी पुस्तक में एक ही कथा चलती रहती है और उसका क्लाइमेक्स देखिए कि वह
कहाँ पहुँचती है। क्लाइमेक्स अँधेरे में है, सब जानते हैं। इसीलिए मुक्तिबोध की ‘अँधेरे में’ कविता को पुस्तक के अंत में रखा गया है। इसीलिए
मैंने शुरू में कहा कि मुझे इस पुस्तक का स्थापत्य बहुत अच्छा लगा। इसकी संरचना
बहुत पसंद आयी।
नंद भारद्वाज और रमेश उपाध्याय का
संवाद
नंद भारद्वाज
मित्रो, सबसे पहले तो मैं आप सबके स्वर में
स्वर मिलाते हुए आदरणीय रमेश उपाध्याय जी को उनके 75वें जन्मदिन पर अपनी
शुभकामनाएँ देता हूँ और उनके प्रति आभार भी व्यक्त करता हूँ कि इस महत्त्वपूर्ण
दिन को उन्होंने हमारे साथ साझा करने का मन बनाया। रमेश जी से एक रचनाकार के रूप
में हमने बहुत कुछ सीखा है और मैं अपने को बहुत भाग्यशाली मानता हूँ कि मुझे रमेश
जी और उनकी पीढ़ी के तमाम रचनाकारों का स्नेह और मार्गदर्शन मिला है। यहाँ रमेश जी
के कई मित्र मौजूद हैं, क्योंकि
राजस्थान से रमेश जी का वर्षों तक गहरा आत्मीय संबंध रहा है। उनका जन्म अवश्य
उत्तर प्रदेश में हुआ, किंतु
उनके संघर्ष, विकास और निर्माण के वर्ष राजस्थान में रह कर
बीते हैं। वे जयपुर और जोधपुर भी रहे हैं, पर अजमेर अधिक रहे हैं। वहाँ उन्होंने प्रेसों में काम करने वाले
कंपोजीटर के रूप में अपना जीवन-संघर्ष शुरू किया, वहीं उन्होंने लिखना शुरू किया, वहीं उनकी पहली कहानी वहाँ से निकलने
वाली पत्रिका ‘लहर’ में छपी, वहीं से उन्होंने एम. ए. किया और उनका
विवाह भी वहीं पर हुआ। इसलिए हम राजस्थान के लोग तो उन्हें अपना मानते ही हैं, रमेश जी भी स्वयं को राजस्थान का मानते हैं।
आज हम यहाँ उनकी जिस पुस्तक की चर्चा
कर रहे हैं, वह एक कवि पर कथाकार द्वारा लिखी गयी पुस्तक
है। उसकी भूमिका में रमेश जी ने लिखा है कि मैं न तो कवि हूँ, न काव्य-समीक्षक और यह काम मैंने
कथाकार के रूप में किया है। लेकिन जानने वाले जानते हैं कि रमेश जी मूलतः कवि हैं।
आरंभ में वे कविताएँ ही लिखते थे। उन्होंने अपनी कविताओं का संग्रह भी तैयार किया
था, लेकिन वह एक दुर्घटना का शिकार हो कर
गायब हो गया और किसी और के नाम से छप गया। कैसे वह पांडुलिपि गायब हुई और कैसे वह
किसी और के नाम से छपी, यह सब रमेश जी अपने संस्मरण ‘अजमेर में पहली बार’ में लिख चुके हैं। वह संस्मरण उनकी
आत्मकथात्मक पुस्तक ‘मेरा
मुझ में कुछ नहीं’ में संकलित है। अगर वह हादसा न हुआ होता, तो रमेश जी आज जैसे मुख्य रूप से
कथाकार हैं, वैसे ही मुख्य रूप से कवि हुए होते।
मैं यह बात इस लिए कह रहा हूँ कि मुक्तिबोध की कविताओं पर लिखना उनकी कोई अनधिकार
चेष्टा नहीं है।
रमेश जी से मेरी मित्रता काफी पुरानी
है। हम 1974 के आसपास मित्र बने थे और इस बीच हमारी मित्रता प्रगाढ़ से प्रगाढ़तर ही
हुई है। गाढ़ी मित्रता के लिए समान सोच और समान रुचि का होना आवश्यक है। यहाँ इसका
एक उदाहरण मैं देना चाहूँगा कि मुक्तिबोध रमेश जी की तरह मेरे भी प्रिय कवि हैं और
जिस तरह उन्होंने ‘मुक्तिबोध का मुक्तिकामी स्वप्नद्रष्टा’ या ‘मुकामुस्व’ नामक चरित्र उनकी कविताओं के आधार पर
निर्मित किया है, उसी तरह मैंने भी कई वर्ष पहले ‘मुक्तिबोध का काव्य-नायक’ खोजा था और उस पर एक लंबा लेख लिखा था, जो ‘पांडुलिपि’ नामक पत्रिका में छपा था। मैंने उसे
मुक्तिकामी स्वप्नद्रष्टा बेशक न कहा हो, पर मुझे भी वह मुक्तिबोध की सारी
कविताओं में दिखायी दिया था। अंतर यह है कि मैंने उसे आलोचक की नजर से देखा था, रमेश जी ने उसे कथाकार की नजर से देखा
है।
तो, रमेश जी, मैं आपसे यह जानना चाहूँगा कि एक कथाकार के रूप
में यह पुस्तक लिखते हुए, या
मुक्तिबोध की कविताओं का कथा-पाठ करते हुए, आपकी कथा-चेतना प्रमुख रही या आपका वह काव्य-संस्कार प्रमुख रहा, जो शुरू से आपके भीतर था?
रमेश उपाध्याय |
रमेश उपाध्याय
भाई नंद भारद्वाज जी, आप के प्रश्न का उत्तर देने से पहले मैं अपनी
दिली खुशी जाहिर करना और आप सब मित्रों का, विशेष रूप से राजस्थान उर्दू अकादमी के सचिव मोअज्जम अली साहब का, भारतेंदु हरिश्चंद्र संस्थान के
अध्यक्ष ईश मधु तलवार जी का, आदरणीय ऋतुराज जी का, दुर्गाप्रसाद अग्रवाल जी का, गोविंद माथुर जी का, लक्ष्मी शर्मा जी का, राजाराम भादू जी का, हिमांशु पंड्या जी का, चरण सिंह पथिक जी का, आपका और सभागार में उपस्थित सभी
मित्रों का आभार व्यक्त करना चाहता हूँ कि आप सबने मेरे 75वें जन्मदिन पर मेरी नयी
पुस्तक पर चर्चा करने के लिए यह भव्य समारोह आयोजित किया। आज आप सबके बीच यहाँ
होना मुझे इतना अच्छा लग रहा है कि मैं स्वयं को धन्य मानते हुए अभिभूत-सा हो रहा
हूँ। आप सभी मेरा हार्दिक धन्यवाद और अभिनंदन स्वीकार करें।
भाई नंद जी, आपके प्रश्न के उत्तर में मुझे यह कहना
है कि इस पुस्तक को लिखते समय मुझे कभी यह खयाल ही नहीं आया कि मैं कथा-चेतना के
साथ लिख रहा हूँ या काव्य-संस्कार के साथ। यह पुस्तक ही क्यों, कुछ भी लिखते समय मेरे खयाल में कभी यह बात
नहीं आयी कि मैं मूलतः कवि हूँ या मुख्यतः कहानीकार हूँ, निबंधकार हूँ या नाटककार हूँ। आप जानते
हैं कि मैं साहित्य की प्रायः सभी विधाओं में लिखता हूँ और यह मानकर नहीं चलता कि
मैं किसी विधा का विशेषज्ञ हूँ। कहानियाँ मैंने अधिक लिखी हैं, उपन्यास भी लिखे हैं, इसलिए मुझे कथाकार कहा जाता है, लेकिन मैं यह मानता हूँ कि साहित्य की
विधाएँ अपनी बात को कहने के अलग-अलग रूप या तरीके हैं, लेकिन वे कोई ऐसे खाँचे या साँचे नहीं
हैं, जो सर्वथा अलग हों और उनके बीच कोई
आवाजाही न हो सके। एक लेखक एक साथ कवि, कथाकार, नाटककार, निबंधकार आदि सभी कुछ हो सकता है। आप
अपना ही उदाहरण ले लीजिए। आप हिंदी और राजस्थानी के कवि हैं, लेकिन साथ-साथ कथाकार भी हैं, आलोचक भी हैं। और, जिस तरह एक लेखक एक साथ कई विधाओं में
लिख सकता है, उसी तरह एक विधा में दूसरी विधाओं का
समावेश हो सकता है। मसलन, कविता
में कहानी हो सकती है, कहानी
में कविता हो सकती है और नाटक में तो नाटक के साथ-साथ आख्यान, व्याख्यान, गीत, संगीत, नृत्य आदि अनेक विधाएँ हो सकती हैं। मैं तो यह
मानता हूँ कि साहित्य की समस्त विधाएँ और कलाओं के विभिन्न रूप अभिव्यक्ति के
विभिन्न माध्यम या साधन हैं। देखना केवल यह होता है कि मैं जो बात कहना चाहता हूँ, उसे समय और परिस्थिति के मुताबिक अच्छे
से अच्छे ढंग से किस प्रकार, यानी किस रूप में या किस विधा में कहा जा सकता है। मैं मुख्य रूप से
कथाकार हूँ, लेकिन मुझे साहित्य की सभी विधाएँ
प्रिय हैं।
जहाँ तक मेरी इस पुस्तक का संबंध है, मैंने मुक्तिबोध की कविताओं को कहानी की तरह
पढ़ते हुए एक कथाकार की दृष्टि के साथ-साथ एक प्रकार की आलोचनात्मक दृष्टि भी
अपनायी है, लेकिन वह वैसी आलोचनात्मक दृष्टि नहीं है, जैसी आपने ‘मुक्तिबोध का काव्य-नायक’ लिखते हुए अपनायी होगी। मैंने आपका वह
लेख पढ़ा नहीं है, लेकिन मैं आपके आलोचक रूप को जानता हूँ, इसलिए कल्पना कर सकता हूँ कि आपका लेख
किस प्रकार का होगा। मैंने इस पुस्तक में मुक्तिबोध की कविताओं की व्याख्या और
विश्लेषण करने का काम नहीं किया है, बल्कि उनकी कविताओं में सर्वत्र जो एक चरित्र पाया जाता है, उसकी कहानी कहने का काम किया है। इस
प्रकार आप कह सकते हैं कि उस कहानी को कहने में मेरा कथाकार आगे है, मुख्य भूमिका में है, जबकि आलोचक पीछे है या नेपथ्य में है।
नंद भारद्वाज
इसी क्रम में एक प्रश्न यह बनता है कि
आपने मुक्तिबोध जैसे जटिल और संश्लिष्ट कवि को सरलता से समझने के लिए उनकी कविताओं
का कथा-पाठ किया है। उनकी कविताओं को एक आख्यान के रूप में, एक कहानी के रूप में प्रस्तुत किया है।
यह काव्य-समीक्षा में एक नया प्रयोग है। मुक्तिबोध जो बात कविता में कम शब्दों में, कसे हुए शिल्प में कहते हैं, उसे आप कथा के रूप में, विस्तार से और सरल शब्दों में समझाने
का काम करते हैं। तो यह बतायें कि मुक्तिबोध की कविता पर लिखने के लिए कथा का
शिल्प अपनाना आपको क्यों जरूरी लगा?
रमेश उपाध्याय
नंद जी, मैंने मुक्तिबोध की जटिल कविता को सरल कहानी
बना कर प्रस्तुत करने का या उनकी कठिन शब्दों में कही गयी बात को सरल शब्दों में
कहने का काम नहीं किया है। पुस्तक पढ़ते हुए आपने स्वयं देखा होगा कि मैंने
मुक्तिबोध की कविताओं को लगभग उन्हीं के शब्दों में प्रस्तुत किया है। आप जानते
हैं कि मैंने अंर्स्ट फिशर की पुस्तक ‘दि नेसेसिटी ऑफ आर्ट’ का अनुवाद ‘कला
की जरूरत’ नाम से किया है। उन्हीं अंर्स्ट फिशर
की एक और पुस्तक है ‘मार्क्स
इन हिज ओन वर्ड्स’,
जिसका
जिक्र मैंने अपनी पुस्तक की प्रस्तावना में किया है। उसी की तर्ज पर कहूँ, तो मेरी पुस्तक का नाम ‘मुक्तिबोध इन हिज ओन वर्ड्स’ भी हो सकता है। मैंने प्रस्तावना में अपने
द्वारा किये गये कथा-पाठ की प्रक्रिया के बारे में भी हल्का-सा संकेत किया है।
मैंने मुक्तिबोध की कविताओं में से उभरने वाले ‘मुकामुस्व’ को यथासंभव उनके ही शब्दों में
प्रस्तुत किया है। बस, उनके
शब्दों को मैंने एक तरतीब दी है, जिसमें यह तरकीब अपनायी गयी है कि उन शब्दों से मुक्तिबोध द्वारा देखे
और दिखाये गये स्वप्न और उनको देखने की उनकी दृष्टि स्वतः ही स्पष्ट होती चले और
साथ-साथ उन संदर्भों का भी कुछ संकेत मिलता जाये, जो कविताओं के मर्म तक पहुँचने के लिए
आवश्यक हैं।
मैंने पुस्तक के आरंभ में ही लिखा है
कि मुक्तिबोध मूलतः एक स्वप्नदर्शी कवि हैं। अँधेरे वर्तमान से असंतुष्ट और उजले
भविष्य के सुंदर स्वप्न देखने वाले कवि। मैंने लिखा है कि स्वप्न में एक आख्यान
होता है, इसीलिए स्वप्न एक कहानी की तरह सुनाया जा सकता
है। मुक्तिबोध की कविताओं में स्वप्न हैं, इसलिए उनकी कविताओं में प्रायः सर्वत्र
एक कहानी होती है,
जिसमें
एक खास चरित्र पाया जाता है। वही चरित्र ‘मुकामुस्व’ है।
मुक्तिबोध की कविताओं में इसी चरित्र की कहानी है, लेकिन वह टुकड़ों-टुकड़ों में है, जबकि कहानी की अपनी विशेषता यह है कि
वह मुकम्मल होने पर ही समझ में आती है। सो मैंने बस यह किया है कि टुकड़ों-टुकड़ों
में कही गयी उस कहानी को जोड़कर एक मुकम्मल कहानी बना दिया है। इसीलिए वह आसानी से
समझ में आ जाती है।
नंद भारद्वाज
मित्रो, रमेश जी एक प्रयोगशील लेखक हैं और उनकी
प्रयोगशीलता उनकी आरंभिक रचनाओं में ही, बल्कि उनकी पहली कहानी में ही नजर आने लगती है। उनकी पहली कहानी थी ‘एक घर की डायरी’, जो 1962 में ‘लहर’ में छपी थी। उस कहानी में रमेश जी ने
एक अद्भुत प्रयोग किया था कि एक परिवार के सभी सदस्यों की डायरियों से एक-एक अंश
लेकर कहानी बनायी थी और इस तरह कि कहानीकार का उस परिवार में आना-जाना है और वह
सबकी डायरियाँ चोरी-चोरी पढ़ा करता है। कहानी में सब पात्रों की डायरी के बाद अंत
में ‘डायरी-चोर कहानीकार’ की डायरी भी है। इस प्रकार वह एक
अद्भुत प्रयोग था कहानी-लेखन में। रमेश जी ऐसे प्रयोग निरंतर करते रहे हैं और जिस
पुस्तक की चर्चा हम कर रहे हैं, वह भी एक नया प्रयोग है।
लेखन में नये प्रयोग करने के साथ-साथ
रमेश जी साहित्य के साथ-साथ समाज, राजनीति और इतिहास से संबंधित नये प्रश्न उठाने का, उन पर चिंतन और लेखन करने का काम भी
करते हैं। इस दिशा में इधर जो एक बड़ा काम रमेश जी ने किया है, वह है भूमंडलीय यथार्थ पर विचार करते
हुए भूमंडलीय यथार्थवाद की नयी अवधारणा को विकसित करने का काम। यह काम आज से लगभग
दो दशक पहले उन्होंने अपनी पत्रिका ‘कथन’
में
करना शुरू किया था और भूमंडलीकरण के विभिन्न पक्षों पर, उससे संबंधित विभिन्न प्रश्नों पर, ‘कथन’ के कई अंक निकाले थे। उसी दौरान
उन्होंने एक पुस्तक लिखी ‘साहित्य
और भूमंडलीय यथार्थ’
और
बाद में ‘कथन’ में प्रकाशित अपने लेखों का एक बृहद्
संकलन ‘भूमंडलीय यथार्थवाद की पृष्ठभूमि’ प्रकाशित किया। उसकी लंबी भूमिका बहुत
महत्त्वपूर्ण है। मैंने उसका अनुवाद राजस्थानी में कर के उसे अपनी पुस्तक ‘साहित्य-आलोचना री आधारभोम’ में शामिल किया है।
रमेश जी ने अपनी इस नयी पुस्तक में
मुक्तिबोध की कविता में भूमंडलीय यथार्थवाद देखा है। इस पुस्तक का एक अध्याय ही है
‘भूमंडलीय यथार्थ और यथार्थवाद’। आज वे हमारे बीच हैं और हम चाहेंगे
कि वे हमें बतायें कि आखिर मुक्तिबोध का भूमंडलीय यथार्थवाद क्या है। हम रमेश जी
से यह भी जानना चाहेंगे कि आज की गोष्ठी में आदरणीय ऋतुराज जी ने जो यह कहा कि
मुक्तिबोध की कविता भारत में मार्क्सवाद की विफलता का महाकाव्य है, उस पर आपको क्या कहना है?
रमेश उपाध्याय
मेरे प्रिय कवि आदरणीय ऋतुराज जी का यह
कहना कि मुक्तिबोध की कविता भारत में मार्क्सवाद की विफलता का महाकाव्य है, मेरे विचार से एक बहुत बड़ा, साहसपूर्ण और बहुत ही महत्त्वपूर्ण
वक्तव्य है। और मैं ऋतुराज जी से सहमत हूँ। मुक्तिबोध की कविता भारत के वाम आंदोलन
में रही मार्क्सवाद और यथार्थवाद की समझ पर प्रश्नचिह्न लगाती है। भारत में भारतीय
और भूमंडलीय यथार्थ को समझकर मार्क्सवाद को अपने मौलिक ढंग से अपनाने के बजाय
दूसरे देशों में और भिन्न परिस्थितियों में अपनाये गये तरीकों के अनुकरण के तौर पर
अपनाया गया। इसी कारण हमारे यहाँ रूसी रास्ते या चीनी रास्ते से क्रांति करने की
बातें की गयीं। इससे अपनी मौलिक सूझ-बूझ से काम लेने की जगह दूसरों से उधार ली गयी
समझ को अपना लेना ही काफी समझा गया, जबकि उस समझ में दो भयंकर गड़बड़ियाँ थीं। एक तो यह कि उस समझ के
अनुसार क्रांति का सही रास्ता एक ही हो सकता है और एक देश में एक ही क्रांतिकारी
दल सही हो सकता है। इससे हुआ यह कि स्वयं को ही सही मानने वाले वाम दल एक से दो और
दो से चार होते गये और क्रांति करने में लगने के बजाय स्वयं को सही और दूसरों को
गलत सिद्ध करने में ही लगे रहे। दूसरी गड़बड़ी यह कि भारतीय वाम मार्क्सवाद की इस
मूल बात को शायद समझ ही नहीं पाया कि जिस तरह पूँजीवाद एक विश्व-व्यवस्था है, उसी तरह समाजवाद भी एक विश्व-व्यवस्था ही है, इसलिए समाजवादी क्रांति किसी एक देश का मामला
नहीं, बल्कि पूरी दुनिया का मामला है, वैश्विक या भूमंडलीय मामला है। भारतीय
वाम ‘‘एक देश में समाजवाद’’ और ‘‘एक ही पार्टी सही हो सकती है’’ जैसी उधार की बातों से बनी समझ से ही
काम लेता रहा और विफल तथा विघटित होता रहा।
मुक्तिबोध ने अपनी भूमंडलीय यथार्थवादी
दृष्टि से देख लिया था कि भारतीय वाम का मध्यवर्गीय नेतृत्व समझौतापरस्त हो कर वाम
आंदोलन को विभाजन और विघटन की तरफ ले जा रहा है। वे इसी मध्यवर्गीय चरित्र की
आलोचना अपनी कविताओं में कर रहे थे। उनका परिप्रेक्ष्य वैश्विक क्रांति का था, जो उनकी कविताओं में यत्र-तत्र-सर्वत्र
सामने आ रहा था। वे केवल भारतीय क्रांति का नहीं, अखिल भूमंडलीय क्रांति का स्वप्न देख
रहे थे, जो हवाई नहीं, बल्कि भूमंडलीय यथार्थ पर आधारित
स्वप्न था। उनके समय में ‘भूमंडलीय’ शब्द नहीं था, लेकिन उनकी रचनाओं में जो यथार्थवाद है, वह भूमंडलीय यथार्थवाद है। मैंने उसे
अपनी इस पुस्तक में यथासंभव, अनेक उदाहरणों के साथ, स्पष्ट करने का प्रयास किया है।
नंद भारद्वाज
मित्रो, आज की इस विचार-गोष्ठी में आपने देखा
होगा कि बहुत-से बहसतलब सवाल और मुद्दे उठे हैं, जिन पर आगे बहस हो सकती है और होनी चाहिए। आपने
यह भी देखा होगा कि रमेश जी की यह छोटी-सी पुस्तक कितने बड़े सवालों और मुद्दों पर
विचार करने के लिए हमें प्रेरित करती है। मैं ऐसी महत्त्वपूर्ण, विचारोत्तेजक और आज के समय में अत्यंत
प्रासंगिक पुस्तक लिखने के लिए रमेश जी को अपनी ओर से तथा आपकी ओर से हार्दिक बधाई
देता हूँ और इस अविस्मरणीय विचार-गोष्ठी को संभव बनाने के लिए इसके आयोजकों का और
अपनी उपस्थिति से इसे गरिमामय बनाने के लिए आप सभी का आभार व्यक्त करता हूँ।
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संज्ञा उपाध्याय
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आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज गुरूवार (01-06-2017) को
जवाब देंहटाएं"देखो मेरा पागलपन" (चर्चा अंक-2637)
पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'