जवरी मल पारख का आलेख 'बोल्शेविक क्रान्ति के दर्पणः सर्गेइ एम. आईसेंस्टिन'
Sergei Eisenstein |
दूरदर्शी नेता ब्लादिमीर लेनिन तब लगभग नयी तकनीक सिनेमा के प्रभाव एवं विस्तार को अच्छी तरह समझ गए थे. इसके प्रभाव को देखते हुए ही उन्होंने सोवियत संघ में फिल्म निर्माण को प्रोत्साहित किया. इस क्रम में उभर कर आये फिल्मकारों में सर्गेइ एम. आईसेंस्टिन का नाम प्रमुख है. जवरी मल पारख ने सर्गेइ एम. आईसेंस्टिन के फ़िल्मी कृतित्व को केंद्र में रखते हुए यह महत्वपूर्ण आलेख लिखा है. आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं जबरी मल पारख का यह आलेख 'बोल्शेविक क्रांति के दर्पण : सर्गेइ एम. आईसेंस्टिन'.
बोल्शेविक क्रान्ति के दर्पणः सर्गेइ एम.
आईसेंस्टिन
जवरीमल्ल पारख
बोल्शेविक क्रान्ति के जनक ब्लादीमिर लेनिन फिल्म के प्रभाव और शक्ति को जानते थे, इसलिए क्रान्ति के आरंभिक वर्षों में ही उन्होंने सोवियत संघ में फिल्म निर्माण को प्रोत्साहन देना आरंभ कर दिया था। लेनिन के समय ही वहाँ फिल्म अकेदमी का गठन किया जा चुका था। इसके माध्यम से कई युवा फिल्मकार सामने आए जिनमें लेव कुलेशोव, सर्गेइ मिखाइलोविच आईसेंस्टिन, पुडवोव्किन, वर्तोव, डोवज़ेन्को आदि प्रमुख थे। इनमें निश्चय ही आईसेंस्टिन का सोवियत सिनेमा में ही नहीं बल्कि विश्व सिनेमा में एक खास मुकाम हासिल है। आज विश्व सिनेमा का इतिहास आईसेंस्टिन की फिल्मों के उल्लेख के बिना पूरा नहीं हो सकता विशेष रूप से उनकी आरंभिक फिल्मों ‘स्ट्राइक’ (1924), ‘दि बेटलशिप पोटेमकिन’ (1925), और ‘अक्टूबर’ (1927) की गणना विश्व की सर्वाधिक मौलिक और क्लासिकल फिल्मों में की जाती है। इन फिल्मों का निर्माण करते समय आईसेंस्टिन की उम्र सिर्फ 25-30 के बीच थी। आईसेंस्टिन ने न सिर्फ बोल्शेविक क्रान्ति को फिल्म के माध्यम से अमर बनाया बल्कि उन्होंने फिल्म की एक ऐसी शैली विकसित की जिसमें मार्क्सवाद के द्वंद्वात्मकता के सिद्धांत की सृजनात्मक परिणति दिखाई देती है। आईसेंस्टिन न सिर्फ एक श्रेष्ठ फिल्मकार थे बल्कि श्रेष्ठ फिल्म सिद्धांतकार भी थे। उन्होंने फिल्म के सिद्धांत पक्ष पर महत्त्वपूर्ण लेखन भी किया जो ‘दि फिल्म फॉर्म’, दि फिल्म सेंस’ और ‘नॉन-इनडिफरेंट नेचर’ नाम से पुस्तकों के रूप में उपलब्ध हैं। सिनेमा के अध्ययन में इन पुस्तकों, विशेष रूप से ‘दि फिल्म फॉर्म’ को क्लासिक का दर्जा हासिल हैं।
सर्गेइ आइसेंस्टिन की
जीवन यात्रा
सर्गेइ आइसेंस्टिन का जन्म 23 जनवरी 1898 को
लातविया में रिगा में हुआ था। आइसेंस्टिन के पिता मिखाइल ओसिपोविच आइसेंस्टिन
जर्मन मूल के यहूदी थे और माँ जूलिया इवानोव्ना कोनेत्स्काया रूढ़िवादी रूसी परिवार
से थी। सर्गेइ आइसेंस्टिन के पिता मध्यवर्गीय परिवार के थे और पेशे से आर्किटेक्ट
थे जबकि माता का सम्बन्ध एक संपन्न व्यापारी परिवार से था। 1905 में सर्गेइ की
माता ने रिगा छोड़ दिया था और अपने बेटे को ले कर सेंट पिटर्सबर्ग आ गयी थीं। 1910
में उसके पिता भी वहीं आ गये थे। बाद में उसके माता-पिता में तलाक हो गया था। माँ
रूस छोड़ कर पेरिस में रहने लगी थीं। सर्गेइ ने अपने पिता के पेशे का अनुकरण करते
हुए पेत्रोगार्द इंस्टिट्यूट ऑफ सिविल इंजीनियरिंग से इंजीनियरिंग और आर्किटेक्ट
की शिक्षा प्राप्त की। सर्गेइ के पिता क्रान्ति के विरुद्ध थे जबकि 1918 में बीस
साल की उम्र में सर्गेइ रेड आर्मी में भर्ती हो गये थे। सर्गेइ ने जापानी भाषा और
वहाँ के थियेटर के बारे में अध्ययन किया। इस अध्ययन ने रंगमंच और सिनेमा दोनों
क्षेत्रों में काम करने में उनकी मदद की। विभिन्न स्थानों पर काम करते हुए सर्गेइ
1920 में मास्को आ गये। यहाँ सर्वहारा संस्कृति का विकास करने के मकसद से एक
चित्रकार और डिजाइनर के तौर पर उन्होंने थियेटर से जुड़ने का फैसला किया। क्रान्ति
के बाद के आरंभिक सालों में कला को सर्वहारा संस्कृति का विकास करने के उद्देश्य
से संचालित और संयोजित किया जाने लगा था। इसके लिए कई संस्थाओं का गठन भी हुआ। ‘प्रोलेत्कल्त’ का मकसद भी यही था। 1923 में सर्गेइ ने कला पर अपना लेखन भी शुरू
किया। उन्होंने इसी वर्ष मोंटाज के सम्बन्ध में एक लेख कला संबंधी वाम पत्रिका ‘लेफ’ (लेफ्ट फ्रंट ऑफ दि आर्ट्स) में लिखा।
1923 में ही उन्होंने पहली बार फिल्म का निर्देशन भी किया। ‘ग्लुमोव्ज़ डायरी’ नामक यह फिल्म जिसे उन्होंने ज़िगा वर्तोव के साथ मिल कर बनायी थी, दरअसल ‘वाइज़मेन’ नामक नाटक का भाग था जिससे कि सर्गेइ
जुड़े हुए थे। ‘वाइज़मेन’ अलेक्जेंद्र ऑस्त्रोव्स्की का पांच अंकों
का नाटक था जिसे पहली बार 1910 में खेला गया था। इस नाटक का निर्देशन
कॉन्स्टेन्टिन स्तानिस्लाव्स्की ने किया था जिन्होंने जनरल कृतिव्स्की की भूमिका
भी निभायी थी। नाटककार सर्गेइ त्रेत्याकोव ने इस नाटक का समसामयिक प्रहसन के रूप
में रूपांतरण किया। इसे ही आइसेंस्टिन ने ‘मोंटाज़
ऑफ एट्रेक्शंस’ नाम दिया था। आइसेंस्टिन और
त्रेत्याकोव की दृष्टि रूसी अवांगार्द भविष्यवादी आन्दोलन से प्रभावित थी।
आइसेंस्टिन की फिल्म ‘ग्लुमोव्ज़ डायरी’ का प्रदर्शन नाटक के अन्त में किया गया
था। 1928 में आइसेंस्टिन ने लिखा था कि उसका मकसद ऑस्त्रोव्स्की के नाटक का क्रान्तिकारी
आधुनिकीकरण में रूपांतरण करना था। वह उनके पात्रों को सामाजिक पुनर्विकास द्वारा
वैसा दिखाना चाहता था जैसे कि वे आज दिखते हैं।
Sergeï Eisenstein, 1910 |
फिल्मकार आइसेंस्टिनः
संघर्ष और निर्माण का दौर
जिस समय आइसेंस्टिन ने फिल्म निर्देशन के
क्षेत्र में कदम रखा वह मूक सिनेमा का दौर था। न तो सिनेमा को आवाज मिली थी और न
ही उसे रंग। अभी तक सिनेमा श्वेत-श्याम और मूक ही था। इसी सिनेमा को अमेरिकी
फिल्मकार डी. डब्ल्यू ग्रिफिथ और यूरोप के कुछ दूसरे फिल्मकारों ने रचनात्मक और
कलात्मक उत्कर्षता प्रदान की थी। सिनेमा सिर्फ मनोरंजन का नहीं बल्कि कला माध्यम
के रूप में भी स्वीकार किया जाने लगा था। सिनेमा की प्रकृति, स्वरूप और प्रक्रिया पर फिल्मकार विचार करने लगे थे। इसी पृष्ठभूमि
में आइसेंस्टिन ने इस क्षेत्र में प्रवेश किया था। ‘ग्लुमोव्ज़ डायरी’ के एक साल बाद 1924 में उन्होंने अपनी
पहली पूर्ण कथा फिल्म ‘स्ट्राइक’ का निर्माण किया। इसके एक साल बाद 1925
में उनकी विश्वविख्यात फिल्म ‘दि
बेटलशिप पोटेम्किन’ भी प्रदर्शित हुई। इसके दो साल बाद उनकी दूसरी महत्त्वपूर्ण फिल्म ‘अक्टूबर’ प्रदर्शित हुई। 25 अक्टूबर 1917 को हुई
बोल्शेविक क्रान्ति का एक दशक पूरा होने पर यह फिल्म बनायी गयी थी। इस फिल्म से
पहले वे अपनी एक अन्य फिल्म ‘दि
जनरल लाइन’ शुरू कर चुके थे लेकिन ‘अक्टूबर’ फिल्म के लिए उन्होंने इसे बीच में ही छोड़ दिया था। ‘अक्टूबर’ फिल्म पूरी होने के बाद ही उन्होंने इस
फिल्म पर दुबारा काम शुरू किया। ‘दि
जनरल लाइन’ सामूहिक खेती के उस विचार से प्रेरित थी जिसे ट्रॉटस्की ने पेश किया
था। लेकिन ट्रॉटस्की सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी में महत्त्वहीन होते जा रहे
थे इसलिए जब 1929 में इस फिल्म के प्रदर्शन का समय आया तो उन्होंने तत्कालीन
नेतृत्व के विचारों के अनुरूप फिल्म में काफी परिवर्तन किये। फिल्म भी एक नये नाम ‘ओल्ड एंड न्यू’ के साथ प्रदर्शित हुई। बाद में, इस फिल्म के वे हिस्से जो मूल रूप में
फिल्माये गये थे वे भी हासिल हो गये थे।
1924 से 1927 के बीच की तीन फिल्मों का सम्बन्ध
क्रान्ति की पृष्ठभूमि (स्ट्राइक), क्रान्ति
के दौर (दि बेटलशिप पोटेम्किन) और उसकी सफलता (अक्टूबर) की स्थितियों से है।
इन्हें बोल्शेविक क्रान्ति की फिल्म-त्रयी कहा जा सकता है। ‘स्ट्राइक’ फिल्म ज़ारशाही रूस में मजदूरों की विकट स्थिति का चित्रण करती है।
अपने शोषण के विरुद्ध जब वे आवाज़ उठाते हैं और संघर्ष करते हैं तो किस तरह उनकी
आवाज को बंद करने के लिए सत्ता उत्पीड़न का रास्ता अख्तियार करती है, यही इस फिल्म का विषय है। मजदूरों की हड़तालों और उनके दमन की ही
परिणति 1905 की क्रान्ति में होती है, जिस पर आइसेंस्टिन ने अपनी दूसरी फ़ीचर
फिल्म ‘दि बेटलशिप पोटेम्किन’ का निर्माण किया। 1905 की क्रान्ति
उससे पहले लगातार होने वाली हड़तालों और जनसंघर्षों की परिणति ही थी। 1905 में इन
हड़तालों ने राष्ट्रव्यापी विद्रोह का रूप धारण कर लिया था। कई स्थानों पर सैनिकों
ने भी मजदूरों का साथ दिया और इस क्रान्तिकारी उभार में शामिल हो गये। इस दौरान
सिर्फ हड़तालें ही नहीं हुईं। मजदूरों ने प्रदर्शन और धरने भी दिये। यह सही मायने
में एक व्यापक जन आन्दोलन था जिसमें मजदूरों और विद्रोही सैनिकों और क्रान्तिकारियों
ने राजशाही के दमन और उत्पीड़न का जबर्दस्त प्रतिरोध किया। ‘दि बेटलशिप पोटेम्किन’ इसी जनांदोलन, विद्रोह, संघर्ष और उसके दमन की कहानी बताती है। 1905 की क्रान्ति नाकामयाब
हुई। हजारों क्रान्तिकारी गिरफ्तार कर लिये गये और उनमें से 1400 को फांसी दे दी
गयी। 1905 की असफल क्रान्ति के बारह साल बाद ही अक्टूबर 1917 में रूस के मजदूरों
ने बोल्शेविक क्रान्तिकारियों के नेतृत्व में ज़ारशाही को उखाड़ फेंका और ब्लादिमीर
लेनिन के नेतृत्व में मेहनतकशों की सरकार स्थापित की। यह एक नये युग की शुरुआत थी।
अमरीकी लेखक जॉन रीड ने क्रान्ति के दस दिनों का जो विवरण अपनी पुस्तक ‘दस दिन जब दुनिया हिल उठी’ (1919) में प्रस्तुत किया था, उसे ही आधार बनाकर आइसेंस्टिन ने अपनी
अतिमहत्त्वाकांक्षी फिल्म ‘अक्टूबर’ का निर्माण किया। ‘दि बेटलशिप
पोटेम्किन’ का निर्माण 1905 की क्रान्ति की याद
में उसके बीस साल बाद किया गया था और ‘अक्टूबर’ का निर्माण क्रान्ति के पहले दशक की
समाप्ति पर 1927 में किया गया।
क्रान्ति की सफलता के बाद बनायी गयी फिल्म ‘ओल्ड एंड न्यू’ का सम्बन्ध सोवियत संघ के नवनिर्माण से है। सोवियत संघ की स्थापना के
कुछ सालों बाद ही 1923 में लेनिन की मृत्यु हो गयी थी और सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी
और सरकार का नेतृत्व जोसेफ स्टालिन के हाथ में आ गया था। इस फिल्म के निर्माण पर
स्टालिन और ट्रॉटस्की के बीच के मतभेदों का असर पड़ा। पहले यह फिल्म ट्रॉटस्की की
सोच के अनुसार बनायी जा रही थी और इसका नाम था, ‘दि जनरल लाइन’। लेकिन बाद में जब ट्रॉटस्की का
प्रभाव पार्टी में कम हो गया, तो
फिल्म की पटकथा में परिवर्तन किया गया और इसका नाम ‘ओल्ड एंड न्यू’ रखा गया। यह फिल्म इसी नाम से
प्रदर्शित भी हुई।
यूरोप और अमेरिका में
फिल्मकार आइसेंस्टिन
अपनी आरंभिक तीन फिल्मों के कारण आइसेंस्टिन की
ख्याति यूरोप और अमेरिका में फैल चुकी थी। उनकी फिल्मों को कम्युनिस्ट प्रोपेगैंडा
कह कर निंदित भी किया जा रहा था लेकिन उन्हें विश्व के महान फिल्मकारों में भी
परिगणित किया जा रहा था। इसी ख्याति की पृष्ठभूमि में उन्हें एक फिल्मकार के रूप
में यूरोप और अमेरिका की यात्रा के लिए आमंत्रित किया गया। 1928 में आइसेंस्टिन ने
अपने दो सहयोगियों- फिल्मकार ग्रिगोरी अलेक्सांद्रोव और सिनेमाटोग्राफर एडुआर्ड
तिस्से के साथ यूरोप के कई देशों की यात्रा की। इस यात्रा का उद्देश्य जहाँ सोवियत
फिल्मों से पश्चिम को परिचित कराना था, वहीं इसका उद्देश्य पश्चिम से सीखना भी
था। इस दौरान सर्गेइ आइसेंस्टिन ने पेरिस, लंदन, ज्युरिख और बर्लिन में कई व्याख्यान भी
दिये। 1929 में सर्गेइ आइसेंस्टिन ने गर्भपात पर एक शैक्षिक फिल्म का संचालन भी
किया। अप्रैल 1930 में अमरीकी फिल्म कंपनी पैरामाउंट पिक्चर्स की ओर से जेस्सी एल.
लास्की ने आइसेंस्टिन को अमरीका आकर फिल्म बनाने का प्रस्ताव दिया। आइसेंस्टिन और
पैरामाउंट के बीच एक लाख डॉलर का समझौता हुआ। आइसेंस्टिन अलेक्सांद्रोव और तेस्सी के साथ अमेरिका पहुंचे
लेकिन फिल्म बनाने का यह प्रस्ताव फलीभूत न हो सका। हॉलीवुड में जिस तरह की
फिल्में बन रही थीं वह आइसेंस्टिन के सोच के अनुरूप नहीं थी। हॉलीवुड में फिल्म
निर्माता पैसे कमाने के लिए फिल्म बनाते थे। इन फिल्मों का मकसद लोगों का मनोरंजन
करना था। उनके लिए यह कोई कला माध्यम नहीं था जबकि आइसेंस्टिन के लिए सिनेमा एक
कला माध्यम था। फिर भी, आइसेंस्टिन ने अमेरिका में फिल्म बनाने
के कुछ प्रस्तावों पर काम शुरू किया। उन्होने कुछ स्क्रिप्ट लिखे लेकिन वह फिल्म
निर्माताओं को उपयोगी नहीं लगे। इनमें अमेरिकी उपन्यासकार थ्योडोर ड्रायसर के
प्रख्यात उपन्यास ‘एन अमेरिकन ट्रेजेडी’ भी शामिल था। इस उपन्यास पर आइसेंस्टिन ने पटकथा भी लिखी लेकिन
पैरामाउंट के संचालकों को वह पसंद नहीं आयी। अमेरिका में आइसेंस्टिन को दूसरी तरह
की परेशानियों का भी सामना करना पड़ा। अमेरिकी संगठन ‘हॉलीवुड टेक्निकल डाइरेक्टर्स
इंस्टिट्यूट’ के तत्कालीन अध्यक्ष मेज़र फ्रेंक पीज़
जो घोर कम्युनिस्ट विरोधी था, उसने आइसेंस्टिन की अमेरिका में
मौजूदगी का विरोध किया और आइसेंस्टिन के विरुद्ध फिल्मकारों को भड़काया। आइसेस्टिन
पर कम्युनिस्ट प्रचारक होने का आरोप लगाया। नतीजतन आइसेंस्टिन को अमेरिका में
फिल्म बनाने का अपना इरादा त्यागना पड़ा।
अमेरिका में चार्ली चेप्लीन (1889-1977) और
अप्टॉन सिंक्लेयर (1878-1968) जैसे लोग भी थे, जो आइसेंस्टिन को पसंद करते थे।
सिंक्लेयर बीसवीं सदी के आरंभिक दशकों के एक लोकप्रिय लेखक थे और विचारों से
समाजवादी थे। उन्होंने अपनी पत्नी मेरी क्रेग सिंक्लेयर के साथ मिल कर मेक्सिको
में फिल्में बनाने का प्रस्ताव आइसेंस्टिन के सामने रखा। इस सम्बन्ध में एक समझौता
भी उनमें संपन्न हुआ। आइसेंस्टिन को फिल्म बनाने की पूरी आजादी दी गयी। लेकिन यह
शर्त भी रखी गयी कि फिल्म ‘अराजनीतिक’ हो। आइसेंस्टिन ने उत्साहित हो कर छह
भागों में बनने वाली फिल्म की एक परियोजना प्रस्तुत की। इस परियोजना को नाम दिया
गयाः 'Que Viva Mexico'। फिल्म के लिए आइसेंस्टिन ने पौने दो
लाख से ले कर ढाई लाख फुट लंबाई की शूटिंग संपन्न की। लेकिन इन पर भी आइसेंस्टिन
आगे काम न कर सके। उन्हें इस काम को बीच में ही छोड़ कर सोवियत संघ लौटना पड़ा।
अमेरिका में रुकने की उनके वीज़ा की अवधि समाप्त हो रही थी और दूसरी ओर अपने देश से
लगातार बाहर रहने के कारण उनको सोवियत संघ में कई तरह की आलोचनाओं का सामना करना
पड़ रहा था। फिल्मों के असंपादित फुटेज को संपादित करने की अनुमति न तो अमेरिका ने
दी और न ही उन्हें सोवियत संघ भेजा जा सका। उनकी गैरमौजूदगी में ही उन फुटेज से दो
छोटी फ़ीचर फिल्में ‘थंडर ओवर मेक्सिको’ और ‘आइसेंस्टिन इन मेक्सिको’ और
एक छोटी फिल्म ‘डेथ डे’ का निर्माण किया गया जो 1933-34 के
दौरान प्रदर्शित की गयीं। बहुत बाद में ग्रिगोरी अलेक्सांद्रोव ने 'Que Viva Mexico' नाम का इस्तेमाल एक फिल्म के लिए किया
जो 1979 में प्रदर्शित हो सकी।
सोवियत संघ वापसी और
फिल्म निर्देशन का दूसरा चरण
अमेरिका से लौटने के बाद आइसेंस्टिन को
मेक्सिको में फिल्मायी गयी फिल्मों को सोवियत संघ में संपादन करने की मंजूरी नहीं
मिल सकी। फिल्म बनाने में आने वाली कठिनाइयों के चलते उन्होंने गेरासिमोव
इंस्टीट्यूट ऑफ सिनेमाटोग्राफी में 1933-34 में अध्यापन का कार्य किया। 1934 में
36 वर्ष की अवस्था में उन्होंने पेरा अताशेवा (1900-65) से विवाह किया। 1935 में
आइसेंस्टिन ने ‘बेज़िन मीडोव’ नामक फिल्म पर काम शुरू किया। लेकिन वह
फिल्म भी विवादों में घिर गयी और उसे न केवल पूरा न किया जा सका बल्कि उसे नष्ट भी
कर दिया गया। ‘बेज़िन मीडोव’ फिल्म का निर्माण कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। इस फिल्म का नाम
इवान तुर्गनेव की इसी शीर्षक की कहानी पर आधारित था जो किसान बच्चों के बारे में
थी। लेकिन इस फिल्म का तुर्गनेव की कहानी से कोई खास सम्बन्ध नहीं था। इसके विपरीत
यह एक वास्तविक किसान बालक पाविलिक मोरोज़ोव के जीवन पर आधारित थी जो अपने कुलाक
पिता द्वारा सामूहिक खेती के क्रान्तिकारी कदम का विरोध करने को उचित नहीं मानता
और अपने पिता के खिलाफ शिकायत करता है। उसके इस आचरण से उसके घर वाले नाराज़ हो
जाते हैं और स्वयं उसके पिता उसको मार देते हैं। मोरोज़ोव के बलिदान को सोवियत
सरकार और सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा महिमामंडित किया जाता है और उसे एक नायक
की तरह प्रस्तुत किया जाता है। मोरोज़ोव की यह घटना 1932 में घटित हुई थी। इसी
मोरोज़ोव पर फिल्म बनाने का प्रस्ताव कम्युनिस्ट यूथ लीग की ओर से आइसेंस्टिन को
मिलता है। फिल्म के लिए अलेक्सांद्र रेजे़शेव्स्की पटकथा तैयार करते हैं। फिल्म के
निर्माण का कार्य 1935 के मध्य में शुरू होता है और इसी साल अक्टूबर में फिल्म का
पहला भाग बन कर फिल्म की निर्माता कंपनी मोस्फिल्म को सौंप दिया जाता है।
मोस्फिल्म के संचालकों द्वारा फिल्म में कई परिवर्तन किये जाने के सुझाव दिये जाते
हैं। इन सुझावों की रोशनी में फिल्म में परिवर्तन किया जाता है और फिल्म का
निर्माण आगे बढ़ाया जाता है। अगस्त 1936 में फिल्म के मुख्य हिस्से निर्मित हो जाते
हैं लेकिन उसी समय फिल्म निर्माण कंपनी के मुखिया शुम्यातास्की फिल्म रोकने और
उसकी पटकथा दुबारा लिखने का आदेश देते हैं। पटकथा में फिर परिवर्तन किया जाता है
लेकिन उसे भी मंजूरी नहीं मिलती। इस तरह फिल्म विवादों में गिर कर अन्ततः रोक दी
जाती है।
फिल्म की पटकथा के अनुसार, फिल्म का नायक बालक स्तिपोक होता है जो एक ऐसे गांव का रहने वाला है
जो सामूहिक खेती की सोवियत परियोजना के लिए चुना जाता है। स्तिपोक युवा कम्युनिस्ट
लीग का सदस्य होता है। स्तिपोक के पिता सामोखिन सामूहिक खेती के विरुद्ध होता है
और वह खेती की उपज को नष्ट करने की कोशिश करता है। स्तिपोक उपज को बचाने के लिए
अन्य बच्चों के साथ मिल कर उपज की रखवाली करता है। अपने बेटे की इस कार्रवाई से
पिता बहुत नाराज़ होता है। दोनों के बीच विरोध इस हद तक बढ़ता है कि बेटा पिता के
विरुद्ध शिकायत कर देता है। पिता यह देख कर कि उनका अपना बेटा परिवार के विरुद्ध
काम कर रहा है, नाराज़ हो कर अपने ही बेटे की हत्या कर देता है। दूसरे युवा इससे
क्रोधित होकर चर्च में घुस जाते हैं और उसमें तोड़फोड़ करते हैं। इसी फिल्म के दूसरे
संपादित संस्करण में स्तिपोक की हत्या नहीं होती। यही नहीं वहाँ सामोखिन को अपनी
पत्नी को पीटते हुए दिखाया गया है। सामोखिन को मारपीट और आगजनी करने के लिए
गिरफ्तार किया जाता है। चर्च में तोड़फोड़ की घटना भी बाद के संस्करणों में या तो
हटा दी गयी या उसे अलग-अलग ढंग से पेश किया गया। लेकिन इन सारी कोशिशों के बाद भी
फिल्म पूरी नहीं बन पाती और उसे बीच में ही रोकना पड़ता है। फिल्म में धार्मिक बिम्बों
और प्रतीकों का इस्तेमाल काफी किया गया था। यहाँ तक कि विभिन्न पात्रों को भी
धार्मिक आइकन की तरह पेश किया गया। युवा स्तिपोक को युवा ईसा मसीह की छवि प्रदान
की गयी। फिल्म समाजवाद के निर्माण में आने वाली चुनौतियों को दिखाने से ज्यादा
अच्छाई और बुराई के बीच के संघर्ष पर केन्द्रित दिखायी देती थी। फिल्म के निर्माण
की दौरान जो आलोचना सामने आई उसमें यह आलोचना भी शामिल थी कि इसमें समाजवाद के
प्रति विरोध का रुख अपनाया गया है। इसी तरह यह भी कहा गया कि इसमें वर्ग-शत्रुओं
को सहानुभूति के साथ पेश किया गया। यह भी कहा गया कि प्रथम पंचवर्षीय योजना के
दौरान आइसेंस्टिन सोवियत संघ में थे ही नहीं इसलिए इस अवधि की राजनीति को समझने
में वे असफल रहे।
सोवियत फिल्म उद्योग के लिए आइसेंस्टिन एक बड़ा
नाम था। स्वयं स्टालिन आइसेंस्टिन के काम में निजी रुचि रखते थे। यही वजह है कि सोवियत
संघ से लगभग पांच साल तक बाहर रहने और इस दौरान उनको सन्देह की दृष्टि से देखे
जाने के बावजूद उन्हें उस तरह की प्रताड़ना से नहीं गुजरना पड़ा जिस तरह की प्रताड़ना
अन्य कई कलाकारों या कला संगठनों से जुड़े लोगों को झेलनी पड़ी। यहाँ बोरिस ज़खारोविच
शुम्यातास्की (1886-1938) का उदाहरण लिया जा सकता है। शुम्यातास्की का फिल्मों से
कोई सम्बन्ध नहीं था। वह कम्युनिस्ट कार्यकर्त्ता और नेता था। लेकिन स्टालिन ने
1930 के अन्त में उसे सोवियत फिल्म उद्योग को पुनर्गठित करने का दायित्व सौंप
दिया। तत्कालीन पार्टी लाइन की यांत्रिक समझ के अनुसार उसने उन सब फिल्मकारों को
अपनी आलोचना का निशाना बनाया जो उसके अनुसार रूपवादी और प्रयोगवादी सिनेमा के
समर्थक थे। इनमें आइसेंस्टिन का नाम सबसे ऊपर था। अपनी इस संकीर्णतावादी समझ के
कारण शुम्यातास्की सोवियत फिल्म उद्योग को कोई दिशा नहीं दे सका। 1933 में
शुम्यातास्की फिल्म उद्योग का एक ऐसा मुखिया बन गया था जिसके हाथ में फिल्म
निर्माण, वितरण, प्रदर्शन और उनके आयात-निर्यात का पूरा अधिकार था। लेकिन वह इन कामों
को सफलतापूर्वक नहीं निभा सका। फिल्म बनाने के जो भी लक्ष्य रखे गये वे कभी पूरे
नहीं हुए। आइसेंस्टिन की कड़ी आलोचना के बावजूद शुम्यातास्की ने ही ‘बेज़िन मीडोव’ फिल्म बनाने के उनके प्रस्ताव को
स्वीकृति दी। लेकिन जब फिल्म समय पर पूरी नहीं हो सकी और राजनीतिक हस्तक्षेप के
कारण उसे पूरा नहीं किया जा सका तो आइसेस्टिन की निंदा की गयी। लेकिन स्वयं
स्टालिन ने इसके लिए आइसेंस्टिन को जिम्मेदार मानने की बजाय शुम्यातास्की को
जिम्मेदार ठहराया। इसी दौरान शुम्यातास्की ने भी हॉलीवुड की यात्रा की और सोवियत
संघ में भी हॉलीवुड जैसा एक बड़ा फिल्म शहर बसाने की योजना प्रस्तुत की। लेकिन अब
तक शुम्यातास्की भी सोवियत सत्ता का कोपभाजन बन चुका था। उस पर देशद्रोह का आरोप
लगा और जनवरी 1938 में उसे गिरफ्तार कर लिया गया और छह महीने बाद सजा के तौर पर
उसे मृत्युदंड दे दिया गया।
स्टालिन का दौर, दूसरा विश्वयुद्ध और
आइसेंस्टिन का सिनेमा
‘बेज़िन
मीडोव’ मामले के बावजूद आइसेंस्टिन स्टालिन के
विश्वासपात्र बने रहे और यही कारण है कि उन्हें 1938 में द्मित्री वासिल्येव के
साथ मिल कर ‘अलेक्जांद्र नेव्स्की’ नामक ऐतिहासिक फिल्म बनाने का अवसर
प्राप्त हुआ। इस फिल्म की पटकथा उन्होंने प्योत्र पावलेंको के साथ मिल कर लिखी थी।
पावलेंको को यह जिम्मेदारी सौंपी गयी थी कि वह आइसेंस्टिन के रूपवादी झुकाव पर
अंकुश रखे। फिल्म का संगीत सर्गेइ प्रोकोफीव ने दिया था। सर्गेइ आइसेंस्टिन की इस
फिल्म को काफी लोकप्रियता मिली। इस फिल्म के लिए 1941 में उन्हें और उनके कुछ
सहयोगियों को स्टालिन पुरस्कार से सम्मानित किया गया। ऐतिहासिक कथानक पर आधारित यह
फिल्म दरअसल यूरोप में बढ़ते नाज़ीवाद के खतरे की ओर इंगित करने के लिए बनायी गयी
थी। इस दृष्टि से इस फिल्म को ऐतिहासिक रूपक कहा जा सकता है। ‘अलेक्जांद्र नेव्स्की’ कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण फिल्म
थी। लगभग एक दशक बाद यह आइसेंस्टिन की पहली फिल्म थी जिसे पूरा करने और प्रदर्शित
होने का अवसर प्राप्त हुआ। यह उनकी पहली सवाक फिल्म भी थी। लेकिन दूसरे विश्व युद्ध
की पृष्ठभूमि में जब सोवियत संघ और जर्मनी के बीच अगस्त 1939 में अनाक्रमण संधि
हुई, तो इस फिल्म के प्रदर्शन को भी रोक दिया गया। 1941 ई. में जब जर्मनी
ने सोवियत संघ पर हमला किया, तो यह संधि भी टूट गयी। इसके साथ ही इस
फिल्म की प्रासंगिकता और महत्त्व भी दुबारा स्वीकार किया गया। इसी महत्त्व के कारण
इस फिल्म के कलाकारों को स्टालिन पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
जर्मनी की सेनाओं के जब मॉस्को तक पहुंचने का
खतरा आसन्न दिखायी देने लगा तो दूसरे कई फिल्मकारों के साथ आइसेंस्टिन को भी
कज़ाकिस्तान के शहर अल्मा-अता भेज दिया गया। इस दौरान उन्होंने रूस के सम्राट इवान
चतुर्थ के जीवन पर फिल्म बनाने का फैसला किया। इस फिल्म के द्वारा वे इवान को
राष्ट्रीय नायक के रूप में पेश करना चाहते थे। ‘इवान, दि टेरिबल’ नामक यह फिल्म उन्होंने तीन भागों में
बनाने का निर्णय लिया। इस फिल्म का पहला भाग बनने में दो साल लगे। 1942 में इस
फिल्म का निर्माण शुरू हुआ और 1944 में इस फिल्म का प्रदर्शन किया गया। पहले भाग
को स्टालिन का अनुमोदन और अनुशंसा दोनों प्राप्त हुए। इस फिल्म को स्टालिन
पुरस्कार से सम्मानित किया गया। ‘इवान
दि टेरिबल’ का दूसरा भाग 1945 में पूरा हुआ। लेकिन इस फिल्म के प्रदर्शन को रोक
दिया गया। दरअसल, इस फिल्म का नायक इवान चतुर्थ और
स्टालिन में काफी समानता थी। पहले भाग में उसे राष्ट्रीय नायक के रूप में पेश किया
गया था लेकिन दूसरे भाग में उसे ऐसे नायक के रूप में पेश किया गया था जो अपने देश
को बचाने के नाम पर अपनी इच्छाओं को जबरन नागरिकों पर थोपता है और जो इसके लिए
किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार रहता है। स्पष्ट है कि इस दूसरे भाग के नायक में
भी स्टालिन की ही छवि दिखायी दे रही थी और यही कारण है कि स्वयं स्टालिन ने इस भाग
को पसंद नहीं किया। इसे सरकार की स्वीकृति नहीं मिली। स्टालिन की मृत्यु के बाद
1958 में ही यह फिल्म डिब्बों से बाहर निकल कर दर्शकों तक पहुंच सकी। ‘इवानः दि टेरिबल’ का तीसरा भाग 1946 में बनना शुरू हो
गया था। लेकिन इस पर भी सरकारी मशीनरी की कोप-दृष्टि पड़ चुकी थी। आइसेंस्टिन
अस्वस्थ होने के कारण इसे पूरा नहीं कर सके और जितनी फिल्म बनी उसे जब्त कर लिया
गया और उसका कुछ भाग नष्ट कर दिया गया। धीरे-धीरे आइसेंस्टिन का स्वास्थ्य बिगड़ने
लगा। 1948 में उन्हें दिल का दौरा पड़ा और थोड़े समय बाद पचास वर्ष की उम्र में उनका
देहाँत हो गया। इस तरह एक फिल्मकार के रूप में लगभग ढाई दशकों तक सक्रिय रह कर
सर्गेइ आइसेंस्टिन ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया।
आइसेंस्टिन की फिल्में
स्ट्राइक (1924)
आइसेंस्टिन ने पहली फिल्म ‘ग्लुमोव्ज डायरी’ का निर्माण 1923 में किया था। लेकिन इसे एक नाटक के हिस्से के तौर पर
बनाया गया था। उनकी पहली पूर्ण फ़ीचर अगले साल 1924 में निर्मित हुई। इस फिल्म का
नाम ‘स्ट्राइक’ था। एक माध्यम के रूप में फिल्म की
शुरुआत को अभी तीन दशक भी नहीं बीते थे। लेकिन इन तीन दशकों में सिनेमा ने
अभूतपूर्व प्रगति की थी। अमेरिका में डी. डब्ल्यू. ग्रिफिथ की फिल्मों विशेष रूप
से ‘दि बर्थ ऑफ ए नेशन’ (1915) और ‘इनटोलेरेंस’ (1916) ने विश्व सिनेमा को गहरे रूप से
प्रभावित किया था। सिनेमा को कला माध्यम के रूप में स्वीकृति दिलाने में इन
फिल्मों का विशेष योगदान था। लेनिन इन फिल्मों के प्रभाव से परिचित थे। उन्होंने
सोवियत संघ के युवा फिल्मकारों को अमेरिका और यूरोप की फिल्में देखने और यथार्थ की
अभिव्यक्ति का अपना रास्ता चुनने के लिए प्रेरित किया। विश्व सिनेमा में यह मूक
सिनेमा का दौर था। इस दौर में फिल्में ल्युमिए ब्रॉदर्स की आरंभिक कोशिशों से काफी
आगे जा चुकी थीं। लेकिन अभी सिनेमाई भाषा अपनी आरंभिक अवस्था में थी। केवल कैमरे
के कुशल प्रयोगों द्वारा फिल्माए गए दृश्यों के सामान्य संयोजन के बल पर सिनेमाई
भाषा को विकसित नहीं किया जा सकता था। इसके लिए फिल्म संपादन की कला को विकसित
करना आवश्यक था। यह जरूरी काम आईसेंस्टिन ने किया। उन्होंने के द्वारा दो विरोधी
शॉटों का मोंटाज निर्मित कर उन्होंने फिल्म की एक नयी भाषा निर्मित की। इसके
द्वारा उन्होंने दृश्यों में निहित द्वंद्वात्मकता द्वारा वर्ग संघर्ष को व्यक्त
करने की फिल्मी तकनीक का विकास किया। इस कला का सर्वोत्कृष्ट रूप हमें आईसेंस्टिन
की दूसरी फिल्म ‘दि बेटलशिप पोटेम्किन’ (1925) में दिखाई देता है।
सर्गेइ आइसेंस्टिन ने इंजीनियरी की शिक्षा
प्राप्त की थी। विज्ञान और तकनीक से उनका गहरा नाता था। उन्होंने फिल्म तकनीक का
गहरा अध्ययन किया था। 1924 में अपनी पहली फिल्म ‘स्ट्राइक’ के माध्यम से ही उन्होंने अपनी मौलिकता प्रदर्शित कर दी थी। यह फिल्म
मजदूर आन्दोलन से संबंधित है। इस फिल्म में एक फेक्ट्री में काम करने वाले मजदूर
अपने मालिक के शोषण और उत्पीड़न के विरुद्ध विद्रोह कर देते हैं। हड़ताल के कारण
मजदूरों को भयावह तकलीफों का सामना करना पड़ता है। मजदूरों की माँगों को मानने की
बजाए सरकार के उकसाने पर मिल मालिक फेक्ट्री में तालाबंदी कर देते हैं। मजदूरों का
दमन शुरू हो जाता है। फिल्म का अन्त एक लंबे दृश्य के साथ होता है जिसमें हड़ताली
मजदूर अपनी जान बचा कर भाग रहे हैं और उनके पीछे पुलिस भाग रही है और गोलियां चला
रही हैं। इस दृश्य के बीच एक कसाईखाना दिखाया जाता है जहाँ कुछ कसाई मवेशियों को
जिब्ह कर रहे हैं। इन दोनों दृश्यों को बारी-बारी से क्रॉस-कट द्वारा संपादित किया
गया है। इसका मकसद यह बताना है कि पुलिस और कसाइयों में कोई अन्तर नहीं है और
सत्ता की दृष्टि में मजदूर भी जानवर ही है जिन्हें वे जब चाहे जिब्ह कर सकते हैं।
संपादन की इसी शैली को ‘दि बेटलशिप पोटेम्किन’ में आइसेंस्टिन ने दो भिन्न शॉटों के
साथ प्रस्तुत किया है जिसे मोंटाज कहा जाता है। ‘स्ट्राइक’ का यह दृश्य भी एक तरह का मोंटाज ही है। इस तरह के मोंटाज को स्वयं
आईसेंस्टिन ने ‘बौद्धिक मोंटाज’ संज्ञा दी थी। दो भिन्न घटनाओं को जो दो अलग-अलग स्थानों पर लेकिन एक
ही समय घटित हो रही हैं उनको एक साथ प्रस्तुत कर उनसे एक नया अर्थ निकाला गया है।
यदि पशुओं को जिब्ह करने वाला दृश्य मजदूरों पर पुलिस की गोली के साथ-साथ नहीं
दिखाया जाता तो जो विचार निर्देशक दर्शकों तक संप्रेषित करना चाहता है वह
संप्रेषित नहीं होता। तब भी वह दृश्य प्रभावशाली होता लेकिन उसे वह बौद्धिक अर्थ
प्राप्त नहीं होता।
फिल्म निर्माण में इस तकनीक का उपयोग बाद में
भी होता रहा है। हिंदी फिल्म ‘बंदिनी’ में इसी तरह का मोंटाज वहाँ देखा जा सकता है जब फिल्म नायिका कल्याणी
(नूतन) अपने पूर्व प्रेमी बिकास घोष (अशोक कुमार) की बीमार पत्नी के दुर्व्यवहार
से तंग आ कर उसे जहर देकर मार डालती है। इस निर्णय पर पहुंचने से पहले वह जिस
मानसिक तनाव में से गुजरती है, उसे व्यक्त करने के लिए एक ओर कल्याणी
को स्टोव में हवा भरते हुए दिखाया है, तो
दूसरी ओर, अस्पताल के पिछवाड़े काम करते लुहार के हथौड़े की आवाज और वेल्डिंग की
चमक को दिखाया गया है। इस तरह दो परस्पर भिन्न बिंबों के मोंटाज द्वारा कल्याणी के
अन्तर्द्वंद्व को व्यक्त किया गया है। ध्यान देने की बात यह है कि ‘स्ट्राइक’ का दृश्य दरअसल सिर्फ मोंटाज नहीं है वह एक तरह का रूपक भी है।
कसाईखाने में पशुओं का वध दरअसल शासक वर्ग के मजदूरों के प्रति पूरे रवैए की
प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति भी है। आइसेंस्टिन ने इस फिल्म में सिर्फ मोंटाज का ही
प्रयोग नहीं किया था बल्कि अभिनय में भी नये प्रयोग किये थे। इस फिल्म में जो
मजदूर दिखाये गये थे वे इतने स्वाभाविक ढंग से पेश किये गये थे कि वे मजदूर ही लग
रहे थे जबकि मालिकों को ऐसी शैलीगत विशिष्टता के साथ पेश किया कि वे स्वाभाविक
नहीं लगते थे। आइसेंस्टिन ने अपनी सभी आरंभिक फिल्मों में व्यक्तियों की बजाय समूह
पर बल दिया। यही कारण है कि उनकी पूरी तकनीक में मजदूर, क्रान्तिकारी हमेशा जनसमूह के रूप में
आते हैं। उनका संघर्ष, साहस और बलिदान वैयक्तिक रूप में नहीं बल्कि सामूहिक रूप में सामने
आता है।
Battleship Potemkin, by Sergei M. Eisenstein |
‘दि बेटलशिप पोटेम्किन’ (1925)
‘स्ट्राइक’ के बाद अगले साल आईसेंस्टिन ने अपनी
प्रख्यात फिल्म ‘दि बेटलशिप पोटेम्किन’ बनाई थी। यह फिल्म 1905 की क्रान्ति की
याद में बनाई गई थी। 1925 में जब यह फिल्म प्रदर्शित हुई थी, तब इस क्रान्ति के बीस साल पूरे हुए थे। इसमें जिन क्रान्तिकारियों
ने अपना प्राणोत्सर्ग किया था, उनकी
याद में यह फिल्म बनाई गई थी। आईसेंस्टिन के सामने यह बहुत बड़ी चुनौती थी कि 1905
के घटनाक्रम को वे फिल्म के जरिए किस तरह प्रस्तुत करे। उन्होंने 1905 के पूरे
इतिहास को फिल्म में समेटने की बजाए, सिर्फ एक घटना को अपनी फिल्म का आधार
बनाया। पोटेम्किन नामक जहाज के नाविक अपने साथ किए जा रहे दुर्व्यवहार के प्रति
विद्रोह कर देते हैं। वे कीड़े पड़े भोजन को खाने से इन्कार कर देते हैं। उनका एक
लीडर वकुलिंचक इस दौरान मारा जाता है। जहाज की नाव पर उसके शव को ओडेस्सा बंदरगाह
पर लाया जाता है। शहीद को श्रद्धांजलि देने के लिए लोगों की भीड़ उमड़ पड़ती है।
विद्रोह की संभावना को देख कर वहाँ सेना भेजी जाती है। ओडेस्सा की सीढ़ियों पर लगी
भीड़ पर सेना गोलियां चलाना शुरू कर देती है। बूढ़े, बच्चे, औरतें, गोलियों की चपेट में आ जाते हैं। नरसंहार का यह दृश्य फिल्म का सबसे
प्रभावशाली दृश्य है। दौड़ते-पड़ते लोगों पर गोली चलाते सैनिक और उनकी बंदूकें, बच्चे की गाड़ी का सिढ़ियों पर से लुढ़कते जाना, लोगों के पैरों में से निकले जूतों का इधर-उधर छितरा होना सब मिल कर
ऐसा दृश्य पैदा करते हैं जिसकी दूसरी मिसाल आज भी मिलना मुश्किल है। इस दृश्य से
ज़ारशाही की दुर्दमनीयता अपने नग्न रूप में उभर आती है। पोटेम्किन के नाविक विद्रोह
कर देते हैं। वे सेना के जनरल के मुख्यालय पर धावा बोल देते हैं। पोटेम्किन पर
कब्जा करने के लिए नौ सेना को भेजा जाता है। पोटेम्किन के नाविक सैनिकों के सामने
समर्पण करने की बजाए उन्हें ही इस विद्रोह में शामिल होने का संदेश भेजते हैं।
थोड़ी हिचकिचाहट के बाद सैनिक भी नाविकों के साथ विद्रोह में शामिल हो जाते हैं।
इस फिल्म में कोई नायक नहीं होता। न इसकी कहानी
कुछ लोगों के इर्दगिर्द घुमती है। इसके विपरीत यह विद्रोह की कहानी है और जनता ही इस
फिल्म की नायक है। जनता में सैनिक, नाविक और साधारण जन हैं। इनमें आदमी, औरतें और बच्चे तक हैं। यह एक महाकाव्यात्मक फिल्म है। यदि एक ओर
ज़ारशाही का क्रूर दमन है,
तो दूसरी ओर है, इस दमन के विरुद्ध जनता का अदम्य संघर्ष। फिल्म बताती है कि किस तरह
रूस की जनता ज़ारशाही के विरुद्ध एक-एक कर खड़ी होती है। फिल्म के आरंभ में वकुलचिंक
का प्रतिरोध है। वह अपने प्रतिरोध में अकेला है। लेकिन उसका बलिदान उसके साथियों
को उसके मकसद के साथ जोड़ देता है और वे सामूहिक रूप से उठ खड़े होते हैं। उनके इस
खड़े होने के साथ ही ओडेस्सा की जनता भी धीरे-धीरे जुटने लगती है। अब तक उत्पीड़न और
दमन का शांतिपूर्वक प्रतिरोध ही है। लेकिन जब ओडेस्सा की सीढ़ियों पर ज़ार की सेनाओं
द्वारा निहत्थी जनता पर गोलियां चलाई जाती हैं, तो जनता का गुस्सा फट पड़ता है। इस
गुस्से की अभिव्यक्ति नाविकों द्वारा जनरल के मुख्यालय पर चलाई गई गोलियों से होती
है। इस विद्रोह की परिणति फिल्म के अन्त में नौसैनिकों के नाविकों के साथ आ मिलने
से होती है। इस तरह 1905 की क्रान्ति के महाकाव्य का एक सर्ग पूरे महाकाव्य की
अनुभूति कराने में कामयाब होता है।
इस फिल्म को आईसेंस्टिन ने ठीक उन स्थानों पर
फिल्माया था, जिस जगह पर पोटेम्किन के नाविकों ने विद्रोह किया था। उसी सीढ़ियों पर
जहाँ ज़ारशाही के सैनिकों ने निहत्थी जनता पर गोलियां चलाई थीं। यह फिल्म दर्शकों
को आज भी एक नये तरह के कला अनुभव से गुजरने का अवसर देती है। पूरी फिल्म विरोधी
बिंबों के ऐसे मोंटाज को पेश करती है जिसमें न केवल एक क्रमबद्धता है बल्कि उसमें
लयात्मकता भी नज़र आती है। लेकिन यह गीतिपरक और रूमानी लयात्मकता नहीं है बल्कि
संघर्षधर्मी लयात्मकता है। इसमें चीख है, तो
दहाड़ भी है। आंसू है, तो गुस्सा भी है। उत्पीड़न है, तो प्रतिरोध भी है। यथार्थ है, तो नाटकीयता भी है। इस तरह यह फिल्म एक नयी सिनेमाई भाषा का निर्माण
करती हुई अपनी क्लासिकल उत्कर्षता को हासिल करती है। किसी मूक फिल्म का इतना मुखर
और प्रखर होना स्वयं में एक चमत्कार है। यह एक फिल्म ही आईसेंस्टिन को अमर बनाने
के लिए पर्याप्त है।
‘दि
बेटलशिप पोटेम्किन’ फिल्म को सोवियत संघ और पश्चिम दोनों जगह काफी सराहा गया। लेकिन इसके
साथ ही इस फिल्म और आइसेंस्टिन की आलोचना भी शुरू हो गयी। पश्चिम ने इसे
कम्युनिस्ट प्रोपेगेंडा फिल्म करार दिया। इस फिल्म को प्रोपेगेंडा फिल्म का
श्रेष्ठ उदाहरण बताया गया। यह भी कहा गया कि यह राजनीतिक और ऐतिहासिक नज़रिये से
सही फिल्म नहीं है। इस फिल्म के सर्वाधिक प्रभावशाली दृश्य जिसमें ओडेस्सा की
सीढ़ियों पर ज़ार के सैनिकों द्वारा निहत्थी जनता पर गोलियां चलायी जाती हैं, यह कहकर नकार दिया गया कि ऐसी कोई घटना
घटी ही नहीं। इस फिल्म की यह कह कर भी निंदा की गयी कि इसमें भयावह हिंसा का
चित्रण किया गया है। स्पष्ट है कि फिल्म की आलोचना राजनीतिक पूर्वाग्रह के कारण भी
की जा रही थी। 1905 की क्रान्ति के दौरान जनविद्रोह को कुचलने के लिए ज़ारशाही ने
हिंसा का जो सहारा लिया था,
उसी की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति इस
फिल्म में की गयी है। 1905 की क्रान्ति के दौरान नौसैनिकों ने विद्रोह किया था, यह एक ऐतिहासिक तथ्य है और इसी तथ्य को
आइसेंस्टिन ने अपनी इस महाकाव्यात्मक फिल्म में पुनर्रचित करने का प्रयास किया था।
Sergei M Eisenstein October Ten Days That Shook the World |
‘अक्टूबर’ (1927)
सर्गेइ आईसेंस्टिन की इसी श्रृंखला की तीसरी
फिल्म ‘अक्टूबर’ है जो 1927 में प्रदर्शित हुई थी। ‘दि बेटलशिप पोटेम्किन’ के
प्रदर्शन के साथ ही आईसेंस्टिन की ख्याति अपने देश से बाहर पूरे यूरोप और अमेरिका
में फैल चुकी थी। 1927 का वर्ष अक्टूबर क्रान्ति की विजय के एक दशक पूरे होने का
वर्ष भी था। अक्टूबर क्रान्ति को सिनेमा के माध्यम से पर्दे पर उतारना एक
चुनौतीपूर्ण काम था। सर्गेइ आईसेंस्टिन ने इस चुनौती को स्वीकार किया और असंभव को
संभव कर दिखाया। अक्टूबर क्रान्ति के दस दिनों का आंखो देखा वर्णन करने वाली
अमरीकी लेखक जॉन रीड की पुस्तक ‘दस
दिन जब दुनिया हिल उठी’ क्रान्ति के दो वर्ष बाद ही प्रकाशित हो चुकी थी। यह फिल्म जॉन रीड
की इस पुस्तक से प्रेरित है। इस पुस्तक के अमरीकी संस्करण की भूमिका लिखते हुए
लेनिन ने लिखा था, “यह एक ऐसी किताब है, जिसके लिए मैं चाहूंगा कि वह
लाखों-करोड़ों प्रतियो में प्रकाशित हो तथा सभी भाषाओं में अनूदित हो। सर्वहारा क्रान्ति
तथा सर्वहारा अधिनायकत्व वास्तव में क्या हैं, इसको समझने के लिए जो घटनायें इतनी
महत्त्वपूर्ण हैं, उनका इस पुस्तक में सच्चा और जीता-जागता चित्र दिया गया है।” आईसेंस्टिन ने अपनी शैली के अनुसार इतिहास के घटनाक्रम को यथावत
फिल्म में पुनःसृजित करने का बीड़ा उठाया था। इसके लिए उन्होंने डॉक्यूमेंट्री की
शैली का उपयोग किया। लेकिन फिल्म के किसी भी दृश्य में उन्होंने पहले से उपलब्ध
डॉक्यूमेंट्री का उपयोग नहीं किया। इसके लिए उन्होंने उस पुनर्प्रदर्शन का सहारा
लिया जो 1920 में क्रान्ति की तीसरी वर्षगांठ पर किया गया था। इस पुनर्प्रदर्शन
में ज़ार के शाही निवास स्थान विंटर पेलेस पर क्रान्तिकारियों के अधिकार करने की
घटना को यथावत दुबारा पेश किया गया था। स्वयं लेनिन और दूसरे क्रान्तिकारियों ने
भी इस पुनर्प्रदर्शन में भाग लिया था। लाखों लोगों ने इसे देखा भी था। आइसेंस्टिन
को इस पुनर्प्रदर्शन से काफी प्रेरणा मिली। यह सही है कि कोई भी पुनर्प्रदर्शन
वास्तविक घटनाओं का स्थान नहीं ले सकता। आइसेंस्टिन ने सब कुछ नये सिरे से
फिल्माया था। आईसेंस्टिन की इस फिल्म के लिए उन महलों, सड़कों को खाली करवा दिया गया जहाँ सचमुच क्रान्ति घटित हुई थी ताकि
वे क्रान्ति को पूरी विश्वसनीयता और आवेग के साथ चित्रित कर सकें। इस फिल्म में
सिर्फ ज़ार की सेना और क्रान्तिकारियों के बीच हुए संघर्षों को ही चित्रित नहीं
किया गया था वरन् उस राजनीतिक उथल-पुथल को भी पेश किया गया था जो उस समय रूस में
चल रही थी। बोल्शेविकों और मेंशेविकों के बीच का संघर्ष, क्रान्ति के चरम में मेंशेविकों के नेतृत्व का ज़ारशाही के साथ पूरी
तरह गठजोड़ कर लेना और उनके समर्थकों का बोल्शेविकों के साथ मिल जाना, ज़ारशाही की सेना का धीरे-धीरे टूटकर क्रान्तिकारियों के साथ मिल जाना, आदि बहुत से पक्षों को इस फिल्म में शामिल किया गया है। आइसेंस्टिन क्रान्ति
की एक प्रतिनिधि और मुकम्मल तस्वीर पेश करने में काफी हद तक कामयाब रहे। हालांकि
अपने प्रभाव में यह फिल्म ‘दि बेटलशिप पोटेम्किन’ से कमजोर है। बहुत से सिने आलोचकों का
भी यही मानना है। लेकिन यह उनकी अपनी फिल्म की तुलना में ही कमजोर है अन्यथा यह भी
एक क्लासिकल और अद्वितीय फिल्म है। विश्व सिनेमा में इस फिल्म ने भी स्थायी जगह
बना ली है। ‘अक्टूबर’ के बारे में कोई भी टिप्पणी करते हुए
इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि आइसेंस्टिन ने एक असंभव काम को संभव करने का
बीड़ा उठाया था। क्रान्ति का पुनःसृजन एक अकल्पनीय कार्य है। इसके बावजूद वे एक
महान फिल्म बना सके यह कम बड़ी बात नहीं है।
‘ओल्ड एंड न्यू’ (1929)
सर्गेइ आईसेंस्टिन ने इन फिल्मों के बाद भी कई
फिल्में बनाईं लेकिन उस इतिहास को वह फिर न दोहरा सके। उनकी बाद की फिल्मों पर
सिनेमा में उनके योगदान की दृष्टि से कम विचार हुआ और राजनीतिक कारणों से अधिक
विचार हुआ। ‘दि जनरल लाइन’ के नाम से जो फिल्म उन्होंने शुरू की
जिसमें उन्होंने क्रान्ति के बाद के दौर में कृषि के क्षेत्र में सामूहिक खेती के
प्रयोगों को फिल्म का आधार बनाया था, वह
कम्युनिस्ट पार्टी के आंतरिक कलह का शिकार हुई। फिल्म तो आइसेंस्टिन ने ‘अक्टूबर’ से पहले ही पूरी कर ली थी, लेकिन
उसका संपादन का काम बाकी था जिसे उन्होंने ‘अक्टूबर’ के बाद ही वापस शुरू किया। फिल्म की
मूल पटकथा पर ट्रॉटस्की की नीतियों का प्रभाव था। लेकिन 1927 के बाद जब ट्रॉटस्की
का पराभव हुआ तो आइसेंस्टिन को भी अपनी फिल्म में परिवर्तन करना पड़ा। फिल्म तो
पूरी हो गयी और उसे उन्होंने एक नया नाम भी दिया, ‘ओल्ड एंड न्यू’ लेकिन
उसे वह ख्याति नहीं मिल सकी जो उससे पहले की फिल्मों को मिली थी। इस फिल्म से पहले
तक आइसेंस्टिन ने किसी एक या दो चरित्र को केन्द्र में नहीं रखा था, बल्कि समय और जनसमूह केन्द्र में होता
था। लेकिन इस फिल्म में आइसेंस्टिन ने एक नायिका को केन्द्र में रखा था और कहानी
उसी के इर्दगिर्द घूमती है।
‘अलेक्जांद्र नेवस्की’ (1938)
‘बेज़ि़न
मीदोव’ हादसे के बावजूद आइसेंस्टिन को फिल्म
बनाने का अवसर फिर मिला। उनकी अगली फिल्म ‘अलेक्जांद्र
नेव्स्की’ 13वीं सदी की ऐतिहासिक कथा पर आधारित
थी। यह फिल्म न सिर्फ पूरी बन सकी, उसे प्रदर्शित होने का अवसर भी मिला।
रोमन साम्राज्य के ट्युटोनिक नाइट्स द्वारा रूस के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र के शहर
नोवगोरोद पर हमला किया जाता है। हमलावर सेना एक देशद्रोही की मदद से शहर प्स्कोव
पर कब्जा कर लेती है और वहाँ के लोगों का कत्लेआम किया जाता है। नोवोगोरोद को खतरे
में जानकर प्रिंस अलेक्जांद्र नेवस्की जनता के साथ मिल कर दुश्मनों का मुकाबला
करता है। बर्फ से ढकी एक झील पर निर्णायक युद्ध होता है और अलेक्जांद्र नेवस्की
अपने राज्य को बचाने में कामयाब रहता है। यह फिल्म वैसे तो ऐतिहासिक कथानक पर
आधारित है लेकिन यह तत्कालीन राजनीतिक हालात से भी प्रेरित थी। 1938 में यह फिल्म
प्रदर्शित की गयी थी। सोवियत संघ और पूरे यूरोप के सामने हिटलर और नाज़ीवाद का खतरा
मौजूद था। यह फिल्म इसी खतरे से प्रेरित थी। यहाँ रोमन साम्राज्य के ट्युटोनिक
नाइट्स ही हिटलर और उसकी सेना का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। यही नहीं उनमें समानता
दिखाने के लिए ट्युटोनिक सैनिकों को भी वैसा ही हेल्मेट पहने दिखाया गया था जो उस
समय जर्मन के सैनिक पहनते थे। इस फिल्म की पटकथा के पहले प्रारूप में इन सैनिकों
को स्वस्तिक धारण किये हुए भी दिखाया गया था जैसा स्वस्तिक हिटलर के नाज़ी सैनिक
धारण करते थे। अलेक्जांद्र नेवस्की को एक लोक-नायक की तरह पेश किया गया था और
ट्युटोनिक सैनिकों के विरुद्ध लड़ाई में जनता की व्यापक भागीदारी भी सोवियत संघ के
राजनीतिक दृष्टिकोण के अनुरूप थी। एक और अन्तर जो दिखायी देता है वह यह है कि जहाँ
ट्युटोनिक सेना में धर्म,
चर्च और धर्माधिकारियों की अहम भूमिका
होती है वहाँ चर्च और धर्म को अलेकजांद्र नेवस्की के पक्ष में पृष्ठभूमि में ही
रखा गया है। यह फिल्म कलात्मक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं मानी जाती। फिल्म
में कहानी बहुत सीधे-सादे ढंग से कही गयी है। फिल्म के केन्द्र में मुख्य नायक ही
बना रहता है और कुछ उसके कमाँडर। फिल्म को प्रस्तुत करने में आइसेंस्टिन ने किसी
तरह का प्रयोग करने की कोई कोशिश नहीं की। शायद यही कारण है कि फिल्म को लेकर कोई
विवाद नहीं हुआ। दूसरे विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि में बनी यह फिल्म नाज़ीवाद और
फासीवाद के विरुद्ध सोवियत जनता को लामबंद करने में अहम भूमिका निभा सकती थी और इस
फिल्म के बनाये जाने के पीछे संभवतः यह उद्देश्य भी निहित था। लेकिन जब सोवियत संघ
और जर्मनी के बीच अनाक्रमण संधि हुई तो फिल्म को प्रदर्शन से हटा दिया गया। फिर, 1941 में जर्मनी ने सोवियत संघ पर हमला
किया तो फिल्म का महत्त्व दुबारा बढ़ गया और उसका प्रदर्शन वापस शुरू हो गया।
प्रख्यात अमरीकी फिल्मकार फ्रेंक कापरा की फिल्म श्रृंखला ‘व्हाई वी फाइट प्रोपेगैंडा फिल्म’ की पांचवीं फिल्म ‘दि बेटल ऑफ रसिया’ में इस फिल्म के अंशों का इस्तेमाल
किया गया था। फ्रेंक कापरा ने इस फिल्म को सकारात्मक रूप में प्रस्तुत किया था।
इसके माध्यम से राष्ट्र की रक्षा में जनता की भागीदारी को वे दिखाना चाहते थे।
NIKOLAI CHERKASOV ERIK PYRIEV SERGEI M. EISENSTEIN IVAN THE TERRIBLE PART ONE (1944) |
‘इवानः दि टेरिबल’, भाग-1 (1944)
‘अलेक्जांद्र
नेवस्की’ की कामयाबी के बाद सर्गेइ आइसेंस्टिन
ने ‘इवानः दि टेरिबल’ नाम की फिल्म की शुरुआत की। उनकी योजना
इसे तीन भागों में बनाने की थी। फिल्म का पहला भाग 1944 में प्रदर्शित हुआ। लेकिन
दूसरा भाग जो 1945 में बनकर तैयार हो गया था, उसे
सेंसर बोर्ड ने प्रदर्शन की अनुमति नहीं दी। इसे स्टालिन की मृत्यु के बाद 1958
में ही प्रदर्शन का अवसर प्राप्त हुआ। तीसरा भाग बीमारी की वजह से वे पूरा नहीं कर
सके। ‘इवानः दि टेरिबल’ फिल्म सोलहवीं सदी के सम्राट इवान
चतुर्थ (1530-84) के जीवन पर आधारित है। इस फिल्म की मुख्य कथा इवान के
राज्याभिषेक से शुरू होती है। रूसी साम्राज्य आंतरिक और बाहरी शत्रुओं से त्रस्त
है और बिखराव के कगार पर है। इवान यह चाहता है कि वह इन बाहरी और अंदरुनी शत्रुओं
पर विजय प्राप्त कर रूस को दुबारा एक-सूत्र में बांधे और उसकी रक्षा करे। इवान
अनास्तासिया रोमानोवा (सारिना) से शादी करता है। इस विवाह से उसके दो अभिन्न मित्र
आंद्रेइ कुर्बस्की और फ्योदोर कोल्यचेव से दोस्ती में दरार पड़ जाती है। इसी
कुर्बस्की के नेतृत्व में कज़ान का युद्ध होता है और इवान की विजय होती है। लेकिन
इवान कुर्बस्की द्वारा शत्रुओं के प्रति दिखायी गयी निर्दयता को उचित नहीं समझता
और इसके लिए कुर्बस्की को फटकार लगाता है। कज़ान से लौटने के बाद इवान गंभीर रूप से
बीमार पड़ जाता है। उसे अपने बचने की उम्मीद नहीं होती। वह अपने नजदीकी रिश्तेदारों
और अधिकारियों से अनुरोध करता है कि उसके बाद उसके बच्चे द्मित्रि को ही ज़ार के पद
पर बैठाया जाये ताकि रूस की एकता और अक्षुण्णता बनी रहे। लेकिन उसके नजदीकी लोग
जिनमें बोयार (एक अभिजात वर्ग) प्रमुख हैं इवान की बीमारी का लाभ उठा कर उसके शासन
को हड़पना चाहते हैं। इनमें उसकी आंटी इफ्रोसिनिया स्तारित्स्का प्रमुख होती है। वह
अपने मंदबुद्धि बेटे व्लादिमिर को ज़ार के पद पर बैठाना चाहती है। मरते हुए इवान को
यह महसूस हो जाता है कि कोई भी उसके पक्ष में नहीं है और सभी उसकी सत्ता हड़पना
चाहते हैं। ऐसे समय उसकी पत्नी ही उसके साथ खड़ी रहती है। इवान की आंटी कुर्बस्की
पर भी दबाव डालती है कि वह ब्लादिमिर को ज़ार बनाने के उसके प्रस्ताव का समर्थन
करे। वह असमंजस में होता है कि क्या करे लेकिन सारिना के यह कहने पर कि अभी इवान
मरा नहीं है, वह द्मित्रि के पक्ष में बोलता है।
इवान को लगता है कि सिर्फ कुर्बस्की ही उसके पक्ष में है। इवान स्वस्थ होने पर
इनाम के तौर पर कुर्बस्की को पश्चिमी सीमा की रक्षा के लिये भेज देता है। पश्चिमी
सीमा पर लिवोनियन और पोल्स से रूस की रक्षा का दायित्व उसे सौंपा जाता है। इसी के
साथ इवान अलेक्सई बास्मानोव को दक्षिणी सीमाँत की रक्षा के लिए भेज देता है। लेकिन
इवान को किसी भी क्षेत्र में कामयाबी नहीं मिलती। उसका मित्र कुर्बस्की उसे धोखा
देकर शत्रुओं से मिल जाता है। उसकी पत्नी सारिना बीमार पड़ जाती है और उसकी अपनी
आंटी इफ्रोसिनिया स्तारित्स्का उसकी पत्नी को धोखे से जहर देकर मार डालती है।
निराशा की स्थिति में इवान सोचता है कि वह शासन करने की योग्यता नहीं रखता।
अलेक्सई बास्मानोव उसे सख्ती से शासन करने की सलाह देता है और अपने बेटे फ्योदोर
को उसकी सेवा के लिए सौंप देता है। वह जनता के आग्रह पर मास्को लौट आता है और यही
निर्णय करता है कि वह सत्ता को पूरी तरह से अपने नियंत्रण में रखते हुए निरंकुशता
पूर्वक शासन करेगा। इसीके साथ पहला भाग समाप्त हो जाता है।
‘इवानः दि टेरिबल’, भाग-2 (1945)
दूसरे भाग की कहानी मुख्य रूप से इवान द्वारा
अपने आंतरिक दुश्मनों को समाप्त करने के इर्दगिर्द घूमती है। पहले भाग में इवान
कज़ाक लोगों के विरुद्ध कुर्बस्की की निर्दयता की आलोचना करता है लेकिन दूसरे भाग
में वह अपने शत्रुओं को इसी निर्दयता के साथ समाप्त करता है। फ्योदोर यह पता लगा
लेता है कि इवान की पत्नी को उसकी आंटी ने ही जहर दे कर मारा था। वह इस हत्या का
बदला लेने का फैसला करता है। उधर उसका मित्र कोल्यचेव अब मोंक फिलिप बन गया है और
इवान ने जिसे मॉस्को का धर्माधिकारी बनाया है। फिलिप इसी शर्त पर धर्माधिकारी बनने
के लिए तैयार होता है कि अपराधी ठहराये जाने वाले लोगों की तरफ से उसे मध्यस्थता
करने का अधिकार हो। बोयार जो शुरू से ही इवान को सत्ता से हटाना चाहते हैं, अपनी फरियाद फिलिप तक ले जाते हैं और
उसे इवान की निरंकुशता के विरुद्ध उकसाते हैं। एक केथड्रेल में फिलिप और इवान का
आमना-सामना होता है। फिलिप इवान पर आरोप लगाता है कि वह सत्ता का दुरुपयोग कर रहा
है। उन दोनों के बीच हो रही बहस में इवान मानता है कि बोयार उसे टेरिबल समझते हैं
तो वह सचमुच टेरिबल है। बोयार समझ जाते हैं कि इवान के रहते उनका कोई भविष्य नहीं
है। वे इवान को खत्म करने का निर्णय करते हैं और इसके लिए आंटी स्तारित्स्का
प्योत्र को चुनती है। उस केथड्रेल में मध्ययुगीन यूरोप में खेला जाने वाला मिरेकिल
प्ले खेला जा रहा है। इवान जिसे कि अब विश्वास हो गया है कि उसकी पत्नी की हत्या
करने में उसकी आंटी का हाथ रहा है, व्लादिमिर
को आमंत्रित करता है। आंटी यह सोचकर व्लादिमिर को भेज देती है कि इससे इवान की
हत्या करना आसान होगा। वहाँ इवान व्लादिमिर को शराब पिलाता है। शराब के नशे में
ब्लादिमिर इवान को बता देता है कि उसकी हत्या की कोशिश की जा रही है ताकि उसकी माँ
उसे ज़ार बना सके। इवान व्लादिमिर को ज़ार के कपड़े पहना देता है और उसे प्रार्थना के
लिए जाने वाले जलसे का नेतृत्व करने को कहता है क्योंकि ज़ार ही प्रार्थना के जलसे
का नेतृत्व करता है। व्लादिमिर मान जाता है। प्योत्र यह सोच कर कि ज़ार की वेशभूषा
में स्वयं इवान है, चाकू से व्लादिमिर की हत्या कर देता
है। आंटी इफ्रोसिनिया स्तारित्स्का यह सोच कर आह्लादित हो जाती है कि इवान मारा
गया है लेकिन जब वह देखती है कि इवान जिंदा है और ज़ार की वेशभूषा में दरअसल उसका
अपना बेटा मारा गया है, तो वह स्तब्ध रह जाती है। इवान अपनी
आंटी को गिरफ्तार करने का आदेश देता है। प्योत्र को यह कहते हुए छोड़ने का आदेश
देता है कि उसने इवान के शत्रु को मार कर देश की सेवा की है। इस तरह इवान अपने
आंतरिक शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर लेता है।
‘इवानः
दि टेरिबल’ को बनाते हुए आइसेंस्टिन के सामने क्या
उद्देश्य रहा होगा, यह कहना मुश्किल है लेकिन स्टालिन के दौर में यही समझा गया कि इवान
के बहाने स्टालिन को ही पेश किया गया है। यही कारण है कि इस फिल्म का पहला भाग
स्टालिन की सकारात्मक छवि के साथ मेल खाता है। देश और जनता के प्रति उसकी
प्रतिबद्धता और उसके लिए हर तरह का बलिदान करने का साहस इवान को सहज ही स्टालिन के
साथ जोड़ देता है। लेकिन दूसरे भाग में इवान जिस निर्दयतापूर्वक अपने अंदरुनी
शत्रुओं का सफाया करता है,
वह कई आलोचकों की दृष्टि में स्टालिन
के काम करने के ढंग का ही प्रतिबिंब नज़र आता है। इवान और स्टालिन में कितनी समानता
थी, यह उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है जितना कि
स्वयं स्टालिन और तत्कालीन सोवियत व्यवस्था ने भी दोनों के बीच समानता को महसूस
किया और यही कारण है कि सेंसर बोर्ड ने फिल्म के दूसरे भाग के प्रदर्शन को अनुमति
नहीं दी। ‘इवानः दि टेरिबल’ फिल्म के मंतव्य को समझने का यह एक
पैमाना ही बन गया। पश्चिमी आलोचकों के लिए स्टालिन दौर की निरंकुशता का प्रमाण भी।
लेकिन यह भी सच्चाई है कि इस फिल्म के कारण आइसेंस्टिन के विरुद्ध किसी तरह का
प्रतिबंध नहीं लगाया गया और न ही कोई सजा दी गयी। दूसरा भाग नष्ट भी नहीं किया
गया। यही वजह है कि 1958 में यह फिल्म दर्शकों तक पहुंच सकी।
‘इवानः
दि टेरिबल’ आइसेंस्टिन की महत्त्वपूर्ण फिल्में
हैं। 1935 के बाद उन्होंने सभी फिल्में सवाक बनायी थी। ये दोनो फिल्में भी सवाक
थी। अपनी आरंभिक फिल्मों में संपादन में जिस तरह के प्रयोग उन्होंने किये थे, वैसे प्रयोग इन फिल्मों में नहीं मिलते।
लेकिन इसके बावजूद ये फिल्में उनकी पहले दौर की फिल्मों से कम महत्त्वपूर्ण नहीं
है। ऐतिहासिक कथानक पर आधारित होने के बावजूद ये एक रूपक भी हैं। इसी तरह अपने
पहले दौर की फिल्मों के विपरीत अब वे पात्रों की चारित्रिक प्रस्तुति पर खास तौर
पर ध्यान देते हैं। यही कारण है कि इन फिल्मों में इवान, सारिना, आंटी इफ्रोसिनिया स्तारित्स्का, व्लादिमिर और दूसरे कई छोटे-बड़े
पात्रों को बहुत ही सावधानी से गढ़ा गया है। वे एक साथ टाइप पात्र भी हैं और उनकी
चारित्रिक विशिष्टता भी उभर कर आती है। वे पात्रों को प्रतीकात्मक रूप में भी पेश
करने में कामयाब रहे हैं। मसलन, इवान
की देह भाषा और वेशभूषा को इस ढंग से पेश किया गया है जैसे वह एक ऐसी चिड़िया है जो
शिकारियों से घिरी हुई है लेकिन धीरे-धीरे, खास तौर पर दूसरे भाग में यही चिड़िया
ऐसे बाज में बदल जाती है जो दूसरों का निर्दयतापूर्वक शिकार करता है। इसी तरह आंटी
स्तारित्स्का को सांप की तरह पेश किया गया है। उसके चेहरे के भाव, उसकी वेशभूषा और उसके चलने के ढंग में
इसकी स्पष्ट झलक मिलती है। फिल्म में आइसेंस्टिन ने प्रकाश और छाया का भी बहुत ही
रचनात्मक उपयोग किया है। मिरेकिल प्ले के दौरान पात्रों की घटती-बढ़ती छायाएं, उनका विशाल से विशालतर होते जाना और
दूसरे पात्रों को ढांप लेना, उन
छायाओं को विशाल डैनों वाले पक्षियों में बदल जाना इसी प्रतीकात्मकता की
अभिव्यक्ति के लिए है। इस प्ले में आइसेंस्टिन ने रंगों का भी उपयोग किया है
हालांकि पूरी फिल्म में यह मुश्किल से दस मिनट से ज्यादा नहीं है। आइसेंस्टिन की
फिल्म कला की शुरू से ही यह विशेषता रही है कि वे ऐसे प्रतीकों का उपयोग करते हैं
जिसे सामान्य दर्शक भी आसानी से ग्रहण कर सकें। उनके निहितार्थों को समझ सकें।
फिल्म कला में आइसेंस्टिन के प्रयोगों का बाद में आने वाले फिल्मकारों पर कितना
असर रहा, यह तो विवाद का विषय रहा है। लेकिन इस
बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि उन्होंने इस बात को रेखांकित किया कि यदि
फिल्म एक प्रोपेगेंडा है तो यह और भी जरूरी है कि वह बेहतर कला हो। आइसेंस्टिन ने
हमेशा कला को प्रचार के ऊपर स्थान दिया। शायद यही कारण है कि उनकी सोवियत संघ के
अंदर भी इतनी आलोचना हुई।
फिल्म सिद्धांतकार
आइसेंस्टिन
सर्गेइ एम. आइसेंस्टिन सिर्फ एक फिल्मकार ही
नहीं थे, वे फिल्म माध्यम के शिक्षक और
सिद्धांतकार भी थे। ढाई दशकों में फैले फिल्मकार के रूप में उनके जीवन का महत्त्व
उनके द्वारा बनायी फिल्मों के कारण तो है ही, साथ
ही उन्होंने फिल्म माध्यम के बारे में जो कहा और लिखा वह भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं
है। पुडोव्कीन और आइसेंस्टिन विश्व के पहले ऐसे फिल्मकार थे जिन्होंने फिल्में
बनाने के साथ-साथ इस बात पर भी विचार किया कि इस नये माध्यम का रचनात्मक और
कलात्मक उपयोग कैसे किया जा सकता है। वे इस बात से संतुष्ट नहीं थे कि सिनेमा के
माध्यम से यथार्थ की गतिशीलता को अभिव्यक्त किया जा सकता है। आइसेंस्टिन से पहले
अमरीकी फिल्मकार डी. डब्ल्यू ग्रिफिथ कैमरे में निहित संभावनाओं का अपनी कालजयी
फिल्मों ‘बर्थ ऑफ ए नेशन’ और ‘इनटोलेरेंस’
में उपयोग कर चुके थे। वे इससे आगे
जाना चाहते थे। इसी प्रक्रिया में आइसेंस्टिन ने मोंटाज का विचार सामने रखा।
मोंटाज की प्रेरणा निश्चय ही उन्हें मार्क्सवाद के द्वंद्वात्मक सिद्धांत से मिली
थी। दो भिन्न और विरोधी शॉटों का उपयोग एक साथ कर उनसे नये अर्थ की सृष्टि करने का
विचार ही मोंटाज का मूल आधार है। लेकिन यह सिर्फ दो दृश्यात्मक शॉटों तक ही सीमित
नहीं है। यह एक शॉट के अंदर और यहाँ तक कि एक फ्रेम में भी संभव है, ऐसा आइसेंस्टिन मानते थे।
आइसेंस्टिन का मानना था कि शॉट और मोंटाज
सिनेमा के मूलभूत तत्व हैं। लेकिन मोंटाज की उनकी परिभाषा दूसरे फिल्मकारों से अलग
थी। स्वयं उनके शब्दों में,
“सोवियत फिल्मों
ने मोंटाज को सिनेमा की तंत्रिका माना है। मोंटाज की प्रकृति के निर्धारण द्वारा
सिनेमा की विशिष्ट समस्या को हल किया जा सकता है। हमारे आरंभिक फिल्मकारों और
सिद्धांतकारों ने मोंटाज को विवरण के साधन के रूप में ग्रहण किया था। वे एक शॉट के
बाद दूसरे शॉट को इस तरह प्रस्तुत करते थे
जैसे ब्लॉक पर ब्लॉक रख कर इमारत खड़ी की जाती है। शॉट के एक-दूसरे के बाद इस तरह
रखे जाने से उनके अनुसार लय उत्पन्न होती है। यह एक मिथ्या धारणा है।... लंबाई के
ऐसे सम्बन्ध को हम लय के रूप में व्याख्यायित नहीं कर सकते। यह मापीय पद्धति तो हो
सकती है लेकिन लयात्मक नहीं।... इस परिभाषा के अनुसार, जिसे पुदोव्किन जैसा सिद्धांतकार भी
स्वीकार करता है, मोंटाज किसी विचार को व्यक्त करने का
साधन है। यह “महाकाव्य” सिद्धांत है। मेेरे विचार में मोंटाज
एक ऐसा विचार है जो स्वतंत्र शॉटों के टकराव से पैदा होता है। यहाँ तक कि ये शॉट
एक दूसरे के विपरीत होते हैं। यह मोंटाज का “नाटकीय” सिद्धांत है।”
आइसेंस्टिन का मानना था कि शॉटों की
द्वंद्वात्मकता यानी मोंटाज को फिल्म में कई तरह से प्रयुक्त किया जा सकता है।
उनमें निहित गति की भिन्नता (तीव्र और मंद), प्रकाश
की भिन्नता (उजाला और अंधेरा), भावों
की भिन्नता (दुख और सुख),
दिशा की भिन्नता (उत्तर से दक्षिण या
पूर्व से पश्चिम), दूरी की भिन्नता (नजदीक और दूर), आकार की भिन्नता (विशाल और लघु) यानी
कई तरह से इन शॉटों में द्वंद्वात्मकता द्वारा एक नये अर्थ की सृष्टि की जा सकती
है। यहाँ अर्थ का तात्पर्य सिर्फ अन्तर्वस्तु के अर्थ में नहीं बल्कि उससे ज्यादा
व्यापक है। दृश्यों को इस तरह से प्रस्तुत कर उनमें गति, मौलिकता और ऊर्जा की सृष्टि की जा सकती
है। आइसेंस्टिन स्वयं जिस तरह की फिल्में बना रहे थे, उसमें मोंटाज की उपयोगिता असंदिग्ध थी।
उनकी सभी फिल्मों में तनाव और संघर्ष के साथ-साथ भावनाओं के उतार-चढ़ाव के विभिन्न
स्तर देखने को मिलते हैं। उन्होंने अपनी फिल्मों में ऐसे ही कथानक चुने हैं जहाँ
दो वर्ग या समूह एक दूसरे के विरुद्ध संघर्षरत दिखाये गये हैं। चाहे ‘स्ट्राइक’ (मिल मालिक और मजदूर) हो, ‘दि
बेटलशिप पोटेम्किन’ (अभिजात वर्ग और उनके समर्थक तथा
विद्रोही मजदूर और सैनिक) हो या ‘अक्टूबर’ (सर्वहारा क्रान्तिकारी और ज़ारशाही सेना
और अधिकारी)। इनके संघर्ष के विभिन्न चरणों से ही इन फिल्मों की संरचना हुई है। इन
महाकाव्यात्मक संघर्षों को उन्होंने सिर्फ शॉटों के मोंटाज द्वारा नहीं बल्कि उससे
आगे जा कर पूरी फिल्म के विभिन्न दृश्यों (सीन) और दृश्य श्रृंखलाओं (सिक्वेंसेज)
में मोंटाज की सृष्टि द्वारा अभिव्यक्त किया है।
आइसेंस्टिन का मानना था कि प्रत्येक कलाकृति और
कला रूप के मूल में तनाव या संघर्ष अवश्य निहित होता है। कला का अर्थ ही है
संघर्ष। यह संघर्ष उसके सामाजिक ध्येय में निहित होता है। उसकी प्रकृति में निहित
होता है और उसकी पद्धति में निहित होता है। सामाजिक ध्येय में इसलिए कि कला का
कार्य जो है उसमें निहित अन्तर्विरोधों को उजागर करना है। दर्शक के मस्तिष्क में
निहित अन्तर्विरोधों को उत्तेजित कर कला में निहित अन्तर्विरोधों से उसका टकराव
कराना है और इस तरह उसे एक बौद्धिक संचेतना के लिए तैयार करना है। इसी तरह प्रकृति
में इसलिए कि कला के स्वाभाविक अस्तित्व और रचनात्मक प्रवृत्ति में संघर्ष निहित
होता है। इसी तरह कला की आंगिक जड़ता और सोद्देश्यपूर्ण पहलकदमी के बीच संघर्ष
निहित होता है। आइसेंस्टिन का मानना है कि कला इसी प्राकृतिक जड़ता और बौद्धिक
सक्रियता के बीच संघर्ष से ही उत्पन्न होती है। आइसेंस्टिन के इस कला सिद्धांत का
महत्त्व यह है कि यह यथास्थिति को अस्वीकार करता है और परिवर्तन को अपरिहार्य
मानता है।
सोवियत संघ में आइसेंस्टिन के काम को सराहना के
साथ-साथ लगातार आलोचना का भी सामना करना पड़ा। उनकी फिल्मों की कलात्मक विशेषताएं
ही उनकी आलोचना का आधार बनी। एक रचनात्मक और कल्पनाशील फिल्मकार के तौर पर
आइसेंस्टिन ने सिर्फ फिल्मों के कथ्य पर ही नहीं उसकी कलात्मक प्रस्तुति पर भी
ध्यान दिया था। मार्क्सवाद के बुनियादी सिद्धांत द्वंद्वात्मकता से ही प्रेरित
होकर उन्होंने मोंटाज़ का प्रयोग किया था। इसी तरह क्रान्ति में जनता की व्यापक
भागीदारी के कारण ही उनकी प्रायः सभी महत्त्वपूर्ण फिल्मों में जन समूह को और उनके
संघर्षों को फिल्माने पर विशेष ध्यान दिया गया था। यह बहुत ही चुनौतीपूर्ण काम था।
जनता को भीड़ के रूप में नहीं बल्कि संघर्षशील जनसमूह के रूप में फिल्माने के लिए
उन्होंने कैमरे का जो कलात्मक उपयोग किया, वह
फिल्मकला के उन आरंभिक वर्षों में चमत्कार की तरह था। लेकिन सोवियत फिल्मों से
जुड़े लोगों ने इसे कलावाद और रूपवाद कह कर आइसेंस्टिन की निंदा की। यह कहा गया कि
उनकी सिनेमा की समझ समाजवादी यथार्थवाद पर आधारित नहीं है। न केवल उनकी निंदा की
गयी बल्कि उन पर दबाव डाला गया कि वे अपनी गलती को मानते हुए उसमें सुधार करे।
स्पष्ट ही यह आइसेंस्टिन के कलाकार के लिए आघात ही था। विडंबना यह थी कि जिस
आइसेंस्टिन को अपने देश में आलोचना का शिकार होना पड़ा उसे यूरोप और अमेरिका में
कम्युनिस्ट प्रचारक कहा गया। उसकी फिल्म की कलात्मक उत्कर्षता की बजाय उसे
विचारधारात्मक प्रचार का हथियार माना गया। यदि सोवियत संघ में, विशेष रूप से स्टालिन के दौर में आइसेंस्टिन को फिल्में बनाने में
तत्कालीन नौकरशाही और पार्टी के उच्चासीन पदाधिकारियों की आलोचना का सामना करना
पड़ा। उनकी फिल्मों को प्रदर्शन से रोका गया। बनी हुई फिल्मों को नष्ट किया गया।
लेकिन इसके साथ यह भी सच्चाई है कि अमेरिका में भी फिल्म बनाना उनके लिए संभव नहीं
हो सका। फिल्म को मनोरंजन और मुनाफे का माध्यम मानने के कारण ही आइसेंस्टिन की
लिखी पटकथाओं पर कोई अमेरिकन फिल्म कंपनी फिल्म बनाने के लिए तैयार नहीं हुई। बाद
में उन्हें कम्युनिस्ट प्रचारक होने का आरोप लगा कर अमेरिका से निकाल बाहर किया
गया। इसलिए जो लोग स्टालिन दौर को कला विरोधी बताते हैं उन्हें अमेरिकी
साम्राज्यवाद की कला विरोधी और दमनकारी नीतियों पर पर्दा डालने का प्रयत्न नहीं
करना चाहिए। आखिर इस दमनकारी नीतियों के कारण ही चार्ली चेप्लीन जैसे महान फिल्मकार
और अभिनेता को अमेरिका छोड़ना पड़ा था।
इस बात को स्वीकार करते हुए भी कि स्टालिन के
दौर में कला के अन्य क्षेत्रों की तरह सिनेमा में भी कई तरह के विवादों और
प्रतिबंधों ने कलाकारों के सामने मुश्किलें खड़ी कीं। लेकिन यह भी सच्चाई है कि क्रान्ति
के आरंभिक दो दशकों में सोवियत सिनेमा ने जो महान फिल्में रचीं उतनी उत्कर्ष
फिल्में बाद में बहुत कम ही बन सकीं। आइसेंस्टिन की फिल्में एक युवा फिल्मकार की
मार्क्सवाद की गहरी समझ और उसे सिनेमा के सिद्धांत और व्यवहार में लागू कर सकने की
उसकी बौद्धिक और कलात्मक क्षमता का परिणाम थीं। पचास वर्ष की अल्पायु में
आइसेंस्टिन का देहाँत हो गया। लेकिन अपनी महान फिल्मों और सिनेमा के बारे में अपनी
मौलिक समझ के कारण वे सदैव याद रखे जाएंगे।
मोबाईल - 09810606751
अच्छी जानकारी से युक्त। कई फिल्मोम की जानकारी देने और आइसेन्स्तटिन के बारे में विस्तृत टिप्पणी ज्ञानवर्धक।बधाई
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