सुशान्त सुप्रिय की कविताएँ



सुशान्त सुप्रिय
दिल्ली ही भारत का वास्तविक चेहरा नहीं है. बल्कि भारत को देखने के लिए आप को उसके दूर-दराज के इलाकों में जाना पड़ेगा. दिल्ली से बहुत कुछ नहीं दिखता. सुशान्त सुप्रिय ने इसे महसूस करते हुए और इसे अपनी कविता में दर्ज करते हुए लिखा है - मज़दूरों-किसानों के/ भीतर भरा कोयला और/ माचिस की तीली से/ जीवन बुझाते उनके हाथ/ नहीं दिखते हैं दिल्ली से/ मगरमच्छ के आँसू ज़रूर हैं यहाँ/ किंतु लुटियन का टीला/ ओझल कर देता है आँखों से/ श्रम का ख़ून-पसीना और/ वास्तविक ग़रीबों का मरना-जीना/ चीख़ती हुई चिड़ियाँ/ नुचे हुए पंख/ टूटी हुई चूड़ियाँ और/ काँपता हुआ अँधेरा/ नहीं दिखते हैं दिल्ली से.' पहली बार पर आप पूर्व में सुशान्त सुप्रिय के अनुवाद पढ़ चुके हैं. आज पढ़िए सुशान्त सुप्रिय की कुछ नवीनतम कविताएँ. 

 आत्म-कथ्य
मुझ में कविता है , इसलिए मैं हूँ : सुशांत सुप्रिय


कविता मेरा आक्सीजन है। कविता मेरे रक्त में है, मज्जा में है।  यह मेरी धमनियों में बहती है। यह मेरी हर साँस में समायी है। यह मेरे जीवन को अर्थ देती है। यह मेरी आत्मा को ख़ुशी देती है। मुझमें कविता है, इसलिए मैं हूँ। मेरे लिए लेखन एक तड़प है, धुन है, जुनून है। कविता लिखना मेरे लिए व्यक्तिगत स्तर पर ख़ुद को टूटने, ढहने, बिखरने से बचाना है। लेकिन सामाजिक स्तर पर मेरे लिए कविता लिखना अपने समय के अँधेरों से जूझने का माध्यम है, हथियार है, मशाल है ताकि मैं प्रकाश की ओर जाने का कोई मार्ग ढूँढ़ सकूँ। मेरा मानना है कि श्रेष्ठ कविता शिल्प के आगे संवेदना के धरातल पर भी खरी उतरनी चाहिए। उसे मानवता का पक्षधर होना चाहिए। उसमें व्यंग्य के पुट के साथ करुणा और प्रेम भी होना चाहिए। वह सामाजिक यथार्थ से भी दीप्त होनी चाहिए। कवि जब लिखे तो लगे कि वह केवल अपनी बात नहीं कर रहा, सब की बात कर रहा है। यह बहुत ज़रूरी है कि कवि के अंदर एक  कभी न बुझने वाली आग हो जिससे वह काले दिनों में भी अपने हौसले और संकल्प  की मशाल जलाए रखे। उस के पास एक धड़कता हुआ 'रिसेप्टिव' दिल हो ।उसके पास एक 'विजन' हो, एक सुलझी हुई जीवन-दृष्टि हो। श्रेष्ठ कवि की कविता कभी अलाव होती है, कभी लौ होती है, कभी अंगारा होती है...  (2016 में प्रकाशित मेरे काव्य-संग्रह " अयोध्या से गुजरात तक" में से)


सुशान्त सुप्रिय की कविताएँ

इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं
                         
                                                                       
देह में फाँस-सा यह समय है
जब अपनी परछाईं भी संदिग्ध है
'
हमें बचाओ, हम त्रस्त हैं' --
घबराए हुए लोग चिल्ला रहे हैं
किंतु दूसरी ओर केवल एक
रेकाॅर्डेड आवाज़ उपलब्ध है --
'
इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं'

न कोई खिड़की, न दरवाज़ा, न रोशनदान है
काल-कोठरी-सा भयावह वर्तमान है
'
हमें बचाओ, हम त्रस्त हैं' --
डरे हुए लोग छटपटा रहे हैं
किंतु दूसरी ओर केवल एक
रेकाॅर्डेड आवाज़ उपलब्ध है --
'
इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं'

बच्चे गा रहे वयस्कों के गीत हैं
इस वनैले-तंत्र में मासूमियत अतीत है
बुद्ध बामियान की हिंसा से व्यथित हैं
राम छद्म-भक्तों से त्रस्त हैं
समकालीन अँधेरें में
प्रार्थनाएँ भी अशक्त हैं ...
इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं


मासूमियत
                                   
मैंने अपनी बालनी के गमले में
वयस्क आँखें बो दीं
वहाँ कोई फूल नहीं निकला
किंतु मेरे घर की सारी निजता
भंग हो गई

मैंने अपनी बालनी के गमले में
वयस्क हाथ बो दिए
वहाँ कोई फूल नहीं निकला
किंतु मेरे घर के सारे सामान
चोरी होने लगे

मैंने अपनी बालनी के गमले में
वयस्क जीभ बो दी
वहाँ कोई फूल नहीं निकला
किंतु मेरे घर की सारी शांति
खो गई

हार कर मैंने अपनी बालनी के गमले में
एक शिशु मन बो दिया
अब वहाँ एक सलोना सूरजमुखी
खिला हुआ है


जो नहीं दिखता दिल्ली से


बहुत कुछ है जो
नहीं दिखता दिल्ली से

आकाश को नीलाभ कर रहे पक्षी और
पानी को नम बना रही मछलियाँ
नहीं दिखती हैं दिल्ली से

विलुप्त हो रहे विश्वास
चेहरों से मिटती मुस्कानें
दुखों के सैलाब और
उम्मीदों की टूटती उल्काएँ
नहीं दिखती हैं दिल्ली से

राष्ट्रपति भवन के प्रांगण
संसद भवन के गलियारों और
मंत्रालयों की खिड़कियों से
कहाँ दिखता है सारा देश

मज़दूरों-किसानों के
भीतर भरा कोयला और
माचिस की तीली से
जीवन बुझाते उनके हाथ
नहीं दिखते हैं दिल्ली से

मगरमच्छ के आँसू ज़रूर हैं यहाँ
किंतु लुटियन का टीला
ओझल कर देता है आँखों से
श्रम का ख़ून-पसीना और
वास्तविक ग़रीबों का मरना-जीना

चीख़ती हुई चिड़ियाँ
नुचे हुए पंख
टूटी हुई चूड़ियाँ और
काँपता हुआ अँधेरा
नहीं दिखते हैं दिल्ली से

दिल्ली से दिखने के लिए
या तो मुँह में जयजयकार होनी चाहिए
या फिर आत्मा में धार होनी चाहिए


कठिन समय में

बिजली के नंगे तार को छूने पर
मुझे झटका लगा
क्योंकि तार में बिजली नहीं थी

मुझे झटका लगा इस बात से भी कि
जब रोना चाहा मैंने तो आ गई हँसी
पर जब हँसना चाहा तो आ गई रुलाई

बम-विस्फोट के मृतकों की सूची में
अपना नाम देख कर फिर से झटका लगा मुझे :
इतनी आसानी से कैसे मर सकता था मैं

इस भीषण दुर्व्यवस्था में
इस नहीं-बराबर जगह में
अभी होने को अभिशप्त था मैं ...
जब मदद करना चाहता था दूसरों की
लोग आशंकित होते थे यह जानकर
संदिग्ध निगाहों से देखते थे मेरी मदद को
गोया मैं उनकी मदद नहीं
उनकी हत्या करने जा रहा था

बिना किसी स्वार्थ के मैं किसी की मदद
कैसे और क्यों कर रहा था
यह सवाल उनके लिए मदद से भी बड़ा था

ग़लत जगह पर सही काम करने की ज़िद लिए
मैं किसी प्रहसन में विदूषक-सा खड़ा था

 

सम्पर्क –
           A-5001,
           
गौड़ ग्रीन सिटी,
           
वैभव खंड,
           
इंदिरापुरम,
           
ग़ाज़ियाबाद -201914

           (
उ. प्र.)
 
मो: 08512070086
 
ई-मेल: sushant1968@gmail.com

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