हितेन्द्र पटेल के उपन्यास 'चिरकुट' पर रमाशंकर की समीक्षा




किसी भी रचनाकार के लिए इतिहास बोध का होना जरुरी होता है। और जब यह लेखन खुद एक इतिहासकार द्वारा किया जाय तो उसमें इतिहास-बोध स्वाभाविक रूप से आता है। हरबंस मुखिया, लाल बहादुर वर्मा और बद्रीनारायण के साथ-साथ हितेन्द्र पटेल भी एक ऐसा ही सुपरिचित नाम है जो इतिहास के साथ-साथ साहित्य में भी दखल के साथ लेखन कर रहे हैं। अभी हाल ही में हितेन्द्र पटेल का एक उपन्यास 'चिरकुट' नाम से प्रकाशित हुआ है। इस जरुरी उपन्यास की एक पड़ताल की है हमारे युवा साथी रमाशंकर ने। तो आईए पढ़ते हैं यह समीक्षा 'चिरकुट : एक उपन्यास के साथ-साथ आर्काइबल दस्तावेज भी।'         

चिरकुट : एक उपन्यास के साथ-साथ आर्काइबल दस्तावेज भी 

रमाशंकर

किसी रचना को कैसे पढ़ा जाय? उस दौर के बारे में एक लेखकीय अनुक्रिया के रूप में जिस दौर के बारे में वह लिखी गयी है या उन सारे राजनीतिक और सांस्कृतिक अनुभवों के साथ जिसमें लेखक और उसका पाठक जी रहे हैं। यह जीना केवल अपना चुनाव भर तो है नहीं, उसमें वे जीने के लिए अभिशप्त हैं। वे अपने युग की महत्वाकांक्षाओं और हताशाओं लादने के लिए बाध्य हैं। हितेन्द्र पटेल के उपन्यास चिरकुट का नायक दिलीप बलराज की भटकन, कुंठा और उसकी महत्वाकांक्षाओं को इस रूप में देखा जा सकता है।

हितेन्द्र पटेल इतिहास के एक बेहतरीन विद्यार्थी रहे हैं और उनके काम से परिचित लोग जानते हैं कि दक्षिण एशिया के औपनिवेेशिक अतीत पर उनका काम काफी बोलने वाला काम रहा है। इस उपन्यास का एक पात्र एक जगह कहता है कि यह बिहारी इंटलीजेंसिया का चरित्र है कि वह मौका पाते ही बिहार छोड़ कर चला जाता है। पहले इलाहाबाद और कलकत्ता जाता था, फिर दिल्ली जाने लगा है। बिहार के लोग बंगाली जैसा होना चाहते हैं। वास्तव में यह आंतरिक उपनिवेशन के चिन्ह हैं। जिन लोगों को भारत में लिखे जा रहे नेपाली साहित्य से थोड़ा बहुत परिचय है वे कवियित्री रेमिका थापा की कविताओं से परिचित होंगे। उन्होने बहुत ही खूबसूरत लेकिन उदास कर देनी वाली अपनी कविताओं में भारत में रह रहे नेपाली जनों या स्वयं सिक्किम या दार्जिलिंग में रह रहे नेपाली भाषी लोगों के आंतरिक उपनिवेशन के बारे में लिखा है कि वे किस प्रकार भारत के दिल्ली, बम्बई और कलकत्ता के शहरी भद्र जनों की तरह दिखना और बोलना चाहते हैं। कलकत्ता की फ्रीलांसिंग में वह अपने आपको आत्म सजग रूप से भले ही मीडियाकर कहता है लेकिन उसे भी एक अदद नौकरी की चाह है। यह उसे एन.जी.ओ. में ले जाती है। यहाँ हितेन्द्र एन. जी. ओ. की कार्यप्रणाली के बारे में थोड़ा-थोड़ा बताते हुए काफी बता जाते हैं कि किस प्रकार एन.जी.ओ. में एक उच्चता-क्रम है। बड़े-बड़े सामाजिक बदलाव के नारों के बावजूद किसी आब्जर्बर का काम वे रिपोर्टें तैयार करना है जो सरकार को पसंद आये। यहाँ यह बिल्कुल गैर सरकारी और गैर राजनीतिक नहीं है बल्कि राजनीतिक पहुँच उस समय भी जरूरी है जब उसमें काम करने वाले मानस घोष की हत्या हो जाती है। यह संगठन अपने उस सहकर्मी की मौत की जाँच से ज्यादा अपने अस्तित्व को जरूरी समझता है। यहीं पर आ कर इस उपन्यास की एक विदेशी पात्र लिंका का यह आश्चर्य समझ में आ जाता है कि कि भारत में लोग नौकरी करने को ही काम समझते हैं और एक पूरा का पूरा देश सरकारी नौकरी की आस में जी रहा है। और इस सरकारी नौकरपने की प्रप्ति की लिए उच्च शिक्षा प्राप्ति की पूरी जुगत की जाती है। नौकरपने की यह प्रवृत्ति 1980 के दशक की बाद एक सामान्य अभिवृत्ति बन गयी है।

 (उपन्यासकार : हितेन्द्र पटेल)
 
दिलीप बलराज के जीवन में तीन महिलाएँ आती हैं जिनसे वह कभी पूरी तरह से जुड़ नहीं पाता। श्यामली की ओर वह खिंचा हुआ महसूस करता है। बिल्कुल फिल्मी स्टाइल में। फिर उसे छोड़ कर भागता भी है। देह उसे आकर्षित करने लगी है लेकिन इतना नहीं कि वह किसी महिला के सामने स्वीकार कर ले। इसके बाद स्काटिश चर्च कालेज की प्रैक्टिकल बुद्धि वाली बीस वर्षीय स्वर्नाली से उसकी मुलाकात होती है जो कविताएँ तो बहुत अच्छी नहीं लिखती है लेकिन उसे पता है कि जो कुछ करना है उसे पचीस साल के अन्दर कर लेना है। वह एक मोटी तनख्वाह पर सरकारी सलाहकार भी हो जाती है। वह उसके प्रति एक आकर्षण सदैव महसूस करता रहता है लेकिन उसे वह उस रूप में स्वीकार नहीं कर पाता है जैसी वह है- अपनी राह अपनी समझ के अुनसार बनाती हुई। तीसरी महिला है सुचरिता- स्लीवलेस गाउन, खुले बालों में। सुचरिता से वह दैहिक सम्बन्धों की मजबूरियों को तो शांत कर लेता है, प्रायः पशुवत, लेकिन वह उसकी आत्मा में न तो उतर पाता है और न ही सुचरिता इसका उसे अवकाश देती है। यह सम्बन्ध ‘प्योर फिजीकल‘ ही बना रहा। वह ऐसा न बन सका इसके लिए सुच्चि ही जिम्मेदार थी। दिलीप ऐसी किसी भी स्त्री से कभी नहीं मिला था जो दैहिक रिश्ते को इतना महत्व देती हो। उसके लिए संभोग एक मुकम्मल काम था। कोई जिम्मेदारी नहीं। लेकिन यही सुच्चि अपने बच्चे के साथ बिन ब्याही माँ बनने को तैयार है। घोष बाबू कलकत्ता छोड़ कर चले जाते हैं लेकिन यह महिला पाठक की स्मृतियों का हिस्सा बन जाती है। 
 
इस उपन्यास में दिलीप का सामना एक ऐसे आश्रम और गुरू से होता है जो सुदूर गाँव में स्वावलम्बी जीवन जी रहा है लेकिन वह किसी प्रकार के सामाजिक बदलाव में हस्तक्षेप नहीं करता है। वहाँ के गुरू के अपने तर्क हैं कि आज के अर्थ में सामाजिक हो जाने का अर्थ बाजारू हो जाना ही है। तो क्या सामाजिक हो जाना इतना सीमित हो गया है? यह बात दिलीप को बुहत कुढ़ाती है उस दिलीप को जिसके मन में जयप्रकाश नारायण की कई छवियाँ चस्पा हैं। यहांँ किसान नेताओं की भी कई छवियाँ हैं जो अत्याचार के खिलाफ खड़ी हैं। कई की तो छवियाँ समय ने अपने साथ गढ़ ली हैं जिनमें राहुल सांकृत्यायन और स्वामी सहजानंद को मिला दिया गया है। छवियों के निर्माण की इस प्रक्रिया को हितेन्द्र का इतिहासकार बखूबी रेखंकित करता है। चिरकुट एक उपन्यास है लेकिन वह एक प्रकार आर्काइबल दस्तावेज भी है जिसमें कई समूहों की ऐतिहासिक स्मृतियाँ भी जुड़ी हैं। जयप्रकाश समाज और राजनीति को बदलना चाहते थे और यहाँ तो सामाजिक बदलाव के लिए एन जी ओ की फौज तैयार है यानि कि समाज को बदलने के लिए फुलटाइमर होना कतई जरूरी नहीं । पश्चिम बंगाल के जो माक्र्सवादी फुलटाइमर हैं वे रैलियों में अन्य जगहों में इतने असहिष्णु हैं कि किसी और को बर्दाश्त कर ही नहीं पाते। इस उपन्यास के अंत तक आते आते जनता उन्हें बर्दाश्त करने को इच्छुक नहीं हैं जहां एक महिला उनके खिलाफ धरने पर बैठी है। 

1980 के बाद के दशक के युवाओं में जो एक बेचैनी और कुछ भी करने की महत्वांकांक्षा और इसे न कर पाने की हताशा है, वह इस उपन्यास में हितेन्द्र हमारे सामने रखते जाते हैं। भाषा कहन का एक औजार है। हितेन्द्र इसे अच्छी तरह से जानते हैं। वे जो कुछ कहना चाह रहे हैं, उसे बहुत ही सरल भाषा में कह जाते हैं। कभी- कभी इस भाषा को बररतते हुए वे डरते हुए प्रतीत हो सकते हैं विशेषकर उन पाठकों के लिए जो कुछ खास स्थलों पर डिटेलिंग की अपेक्षा रखते हों। कलकत्ता की स्त्रियों के बारे में बिहार की स्त्रियों का डर है कि बंगाली स्त्रियाँ मर्दाें को भेड़ बना कर रख लेती हैं और रात में मनुष्य बना देती हैं। ‘कौन सा खेल है जो मनुष्य बनाए बिना नहीं खेला जा सके- इस प्रश्न का उत्तर उसे उस वक्त नहीं सूझा था।'  उपन्यास के अंतिम तीस पृष्ठ दिलीप को इसका उत्तर देते हैं। 

इस उपन्यास की एक कमजोरी यह है कि जब सह उपन्यास स्मृतियों ओर व्यक्तिगत दुश्चिंताओं से निकल कर एक पोलिटिकल टोन निर्मित करने की ओर अग्रसर होता है तो समाप्त हो जाता है। फिर भी यह समापन अपने आप में उद्देश्यपूर्ण है- पाठक को राजनीतिक बनाना।

चिरकुट (उपन्यास): हितेन्द्र पटेल 
नयी किताब, दिल्ली, 2013 
पृष्ठ-168, मूल्य 110 रूपये।




सम्पर्क-

रमाशंकर
शोध छात्र,
गोबिन्द बल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान,  
इलाहाबाद (उत्तर प्रदेश)

मोबाईल- 089534 79828

टिप्पणियाँ

  1. ये पुस्तक मुझे कहाँ से मिल सकती है ?

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  2. मैने हितेंद्र जी का उपन्यास तो पढ़ा नही लेकिन इस समीक्षा में उसकी पूरी झलक दिख रही है । बेहतरीन समीक्षा सर् !

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