शैक्षिक दखल पर चिन्तामणि जोशी की टिप्पणी





शिक्षा किसी भी समाज के निर्माण में अग्रणी भूमिका निभाती है. दुर्भाग्यवश हमारी शिक्षा व्यवस्था न केवल राजनीतिज्ञों द्वारा बल्कि हमारे समय के बुद्धिजीवियों द्वारा भी नजरअंदाज की जाती रही है. इसका महत्व इसी से समझा जा सकता है कि स्वतंत्रता संग्राम के समय हमारे सेनानियों और साहित्यकारों के पास शिक्षा को ले कर एक सुचिन्तित सोच थी और अपने प्रयासों से उन्होंने इसे यथार्थ रूप में बदलने का भी महत्वपूर्ण प्रयास किया. वे जानते थे कि आजादी के बाद शिक्षा ही एक ऐसा माध्यम हो सकती है जो देश को सही राह दिखा सकती है. उत्तराखण्ड के कुछ शिक्षकों  द्वारा सामाजिक भूमिका निभाने के क्रम में 'शैक्षिक दखल' नामक एक महत्वपूर्ण पत्रिका निकाली जा रही है. इसका नया अंक अभी-अभी आया है जिसकी एक पड़ताल की है हमारे मित्र चिंतामणि जोशी ने.      

शैक्षिक दखल’  का नया अंक

चिन्तामणि जोशी 

माध्यम-भाषा विमर्श पर केन्द्रित शैक्षिक दखल’  का ताजा अंक वर्तमान शिक्षा व्यवस्था के अंतर्गत सीखने-सिखाने की प्रक्रिया की दुखती रग पर हाथ रखने में सफल हुआ है। परिचर्चा, आलेखों, शैक्षिक जीवन के अनुभवों एवं अन्य स्थायी स्तम्भों से होकर चिन्तन-मंथन के साथ चलते हुए सीखने की प्रक्रिया में परिवेशीय भाषा का महत्व शुद्ध, धवल एवं उपयोगी नवनीत की तरह उभर आता है।

      प्रारम्भ में जहाँ महेश पुनेठा ने विविध तथ्यों एवं अनुभवजनित सत्य के आलोक में इस बात का प्रभावशाली रेखांकन किया है कि बच्चे की सीखने की गति अपने परिवेश की भाषा में ही सबसे अधिक होती है और इस बात को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि परिवेश से दूर की भाषा शिक्षण का माध्यम होने पर उसका प्रभाव बच्चे के बौद्धिक विकास पर पड़ता है-एतदर्थ कम से कम प्रारम्भिक शिक्षा तो उसके परिवेश की भाषा में ही होनी चाहिए वहीं अंत में दिनेश कर्नाटक ने दूसरी भाषा को शिक्षण माध्यम बनाने के विचार की विवेचना आसान लगने वाले ऐसे रास्ते के रूप में किया है जिसमें भटकाव ही भटकाव है। वास्तव में भाषा सीखना और भाषा का सीखने का माध्यम होना दो अलग-अलग बातें हैं जिन पर वर्तमान में गहन विमर्श की आवश्यकता महसूस होती है।

      हमारी अपनी भाषा हमारे स्वाभिमान एवं आत्मसम्मान, हमारी संस्कृति के पोषण का एक सशक्त अभिकरण होती है। उसके प्रति हीन ग्रंथि का विकास हमें पतनोन्मुख करता है। जीवन सिंह ने अपने आलेख अंग्रेजी का राज एवं भारतीय भाषाएं’  में उपरोक्त तथ्य को पूर्ण व्यापकता के साथ उद्घाटित किया है।

      परिचर्चा’  स्तम्भ शैक्षिक दखल रूपी साझा मंच के अन्दर अपने आप में एक ऐसा महत्वपूर्ण मंच है जो देश भर से छात्रों, शिक्षकों, अभिभावकों, कवियों, लेखकों, विचारकों, पत्रकारों, कलाकारों के इतने बड़े जमावड़े को मुद्दा विशेष पर विचार-विमर्श एवं बहस के माध्यम से एक दूसरे को जानने समझने का सुअवसर प्रदान करता है। एक शिक्षक की दृष्टि से देखा जाय तो कक्षा शिक्षण में संबोध विशेष को प्रारम्भ करने से पूर्व ब्रेन स्टॉर्मिंग के लिए एक रोचक-महत्वपूर्ण गतिविधि।

      अनुभव अपने-अपने’  एक और उपयोगी स्तम्भ है अनुभवों एवं सरोकारों को साझा करने के लिए। अस्मुरारीनन्दन मिश्र, चिन्तामणि जोशी, दिनेश भट्ट, उमेश चमोला, हेमलता तिवारी के रोचक अनुभव परिवेशीय भाषा के महत्व को स्वीकारते ही नहीं साबित भी करते हैं यह बताते हुए कि भाषा सीखना तभी हो सकता है जब शब्दों को अर्थ मिले, जब शब्द अंतस को छू सकें। डॉ इसपाक अली का आलेख दक्षिण भारत में हिन्दी की विकास यात्रा’  हिन्दी की राष्ट्रीय स्थिति को समझने के लिए एक महत्वपूर्ण आलेख है।

      वरिष्ठ साहित्यकार बटरोही के उपन्यास गर्भगृह में नैनीताल’  से चयनित अंश भी प्रस्तुत अंक के उद्देश्यों को समझने में सटीक सहयोग प्रदान करता है। अपनी भाषा तथा संस्कृति के प्रति आत्महीनता से भरे और अंग्रेजी को सभी विषयों का निचोड़ मानने वाले ठुलदा अन्ततोगत्वा जब दर्द से कराहते हैं तो उनके गाँव की जीती-जागती परिवेशीय भाषा अनायास ही उनके अन्दर प्रवाहित होकर इस तथ्य को सिद्ध कर देती है कि बिन निज भाषा ज्ञान के मिटे न हिय को शूल।‘

      यात्रा, नजरिया, मिसाल, किताब के बहाने भी बेशक शिक्षा के क्षेत्र में गहरी दखल देने में समर्थ हुये हैं। दिनेश जोशी ने एक बार पुनः सन्दर्भ के अनुकूल अखबारों से ऐसी कतरनें एकत्र कीं हैं जिन पर चिन्तन एवं चिन्ता करना समय की मांग है। भाषा पर भगवत रावत, नरेश सक्सेना एवं राजेश जोशी की कविताओं का चयन सम्यक है। पत्रिका के कलेवर को सौन्दर्य प्रदान करने के साथ ही ये कविताएं फ्रांस के उपन्यासकार अलफांस डॉडेट द्वारा लिखित द लास्ट लेशन’  के कथ्य की यादें ताजा करतीं हैं।  फ्रेंच शिक्षक हमेल के पास अलसॉस प्रांत पर जर्मनों के अधिकार एवं जर्मन भाषा थोपने के बाद अपने अंतिम पाठ में अपने प्रांतवासियों के लिए ऐसा शब्द नहीं है जो उन्हें दे सके कि संकट के समय काम आयेगा फिर भी वह कहता है- फ्रेंच विश्व की सुन्दरतम भाषा है। उसे हमें अपने बीच संरक्षित रखना चाहिए क्योंकि जब देश गुलाम हो जाता है, जब तक उसके वासी अपनी भाषा से जुड़े रहते हैं उनके पास हर प्रकार के जेल की चाबी होती है। वाइव ला फ्रांस’  (फ्रांस जिन्दाबाद)।

      कुल मिलाकर वर्तमान अंक उपयोगी, पठनीय एवं अनुकरणीय है। लोकमंगल की कामना के साथ संकलित शैक्षिक साहित्य के रूप में संग्रहणीय है। श्रमसाध्य सामग्री संकलन, सम्यक् चयन एवं प्रकाशन हेतु सम्पादक द्वय एवं शैक्षिक दखल टीम को साधुवाद।

सम्पर्क-
ई-मेल : cmjoshi_pth@rediffmail.com                                            
                                         

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