हिंदी कहानी : यथार्थवादी नजरिया
चर्चित आलोचक आनन्द प्रकाश के सम्पादन में कथाकार मार्कण्डेय के वैचारिक लेखन की पुस्तक 'हिंदी कहानी : यथार्थवादी नजरिया’ प्रकाशित हुई है। 2 मई 1930 को जन्मे कथाकार मार्कण्डेय की जन्मतिथि (2 मई 2013) पर प्रस्तुत है इस पुस्तक की भूमिका-
1950 का दशक मार्कण्डेय के साहित्यिक व्यक्तित्व का निर्माणकाल कहा जा सकता है। इस दशक में मार्कण्डेय देशव्यापी परिवर्तनों के साक्षी बने जिनके दायरे में राजनीतिक मतों की टकराहट, सामाजिक उथल-पुथल, जाति-विभाजन की कड़वी सच्चाइयाँ, धर्म और संस्कृति की रूढ़ियों पर होनेवाले प्रहार तथा दूसरी तरफ परम्परा समर्थकों की एकबद्ध हिंसक प्रतिक्रिया आदि आते हैं। उस समय मार्कण्डेय युवा थे और अपने समवयस्कों से सहानुभूति और शक्ति ग्रहण करने के हामी थे, साथ ही, कुछ आदर्श और मूल्य भी अवश्य होंगे जिन्हें अपनाने और पाने का युवा मार्कण्डेय ने प्रयास किया, या कम-अज-कम सपना देखा। अचानक ही देश में ऐसा युवा वर्ग प्रकट हो गया था जो स्वतन्त्र विचार को तरजीह देता था और रूढ़ियों की काट करता था। असल में वैचारिक स्वतन्त्रता और रूढ़ि-विरोध मुख्य रूप से समाज-चिन्तन एवं साहित्य के विषय हैं और जो युवा वर्ग के माध्यम से जीवन में अपने लिये जगह बनाते हैं।
लेकिन युवा होने के साथ-साथ मार्कण्डेय अध्यवसायी थे। यह विचार और कथा की दुनिया में भूमिका-निर्वाह के लिए आवश्यक था। मार्कण्डेय न केवल अलग से विचारक और कथाकार थे, बल्कि विश्लेषण में प्रयोगशील भाषा और तर्कशीलता ले आते थे। यह जितना स्वयं मार्कण्डेय के लिए सही जान पड़ता है उतना ही उन पात्रों चरित्रों के बारे में भी कहा जा सकता है जिनका मार्कण्डेय ने अपनी रचनाओं में सृजन और गठन किया। उनके पात्र विचार में दिलचस्पी लेते हैं और अन्य के साथ बहस में उलझते हैं। फिर, जितना वे सहमत होना चाहते हैं, उतना ही असहमत होना भी जानते हैं। मार्कण्डेय का वैचारिक गद्य इस तथ्य का गवाह है। दूसरी ओर उनके यहाँ कहानी का गद्य बेहद तीखा, दिलचस्प, तर्कवान् और व्याख्यापरक है।
लेकिन हम पाते हैं कि मार्कण्डेय पचास के दशक में, जो आजादी के बहुत करीब था, स्वाधीनता आन्दोलन और भारत की वर्तमानता के बीच लकीर खींच रहे थे। इससे यह दिखता है कि चाहने पर अवश्य मार्कण्डेय स्वाधीनता आन्दोलन और सामाजिक संघर्ष का हवाला देते हैं, लेकिन सामान्य प्रवृत्ति के स्तर पर उससे बचते हैं। कहानी का सन्दर्भ लेकर कहें तो वह किस्सागोई, जिसके लिए प्रेमचन्द मशहूर थे, मार्कण्डेय में न के बराबर है। बल्कि मार्कण्डेय किस्सागोई की आलोचना करते हैं। मार्कण्डेय प्रस्तुति की बात करते हैं, क्षण को बाकी से ऊपर रखते हैं, पात्रों की मानसिकता को उकेरते हैं, उनकी भावनाओं और अनुभूतियों का आन्तरिक तर्क गढ़ते हैं, लेकिन घटनाओं को प्राय: कथा से बाहर एवं असंगत मानते हैं। क्या यह सही है और क्या अकारण ही मार्कण्डेय कथा की मूल गतिकी से अलग नहीं हो जाते? यह गम्भीर सवाल है। प्रस्तुत पुस्तक इस सवाल के बरक्स सक्रिय जिज्ञासा के तौर पर खड़ी नजर आती है।
पचास के दशक की पृष्ठभूमि में ब्रिटिश साम्राज्यवाद-विरोधी व्यापक आन्दोलन तो था ही जहाँ मनुष्य-मनुष्य के बीच बराबरी का रिश्ता, धर्म निरपेक्ष सोच एवं आधुनिक मानव-मूल्यों का महत्त्व प्रतिष्ठित था, लेकिन साथ ही निकट अतीत की साम्प्रदायिक हिंसा और विभाजन का गहरा अहसास भी था। दोनों चीजें परस्पर विपरीत थीं और इस विपरीत का सम्बन्ध भारतीय जीवन के अनेकानेक गलत-सही पक्षों से था। फिर भी जल्द ही, विशेषकर प्रथम आम चुनावों (1952) के बाद तत्कालीन समाज का ध्यान उन नीतियों की तरफ गया था जिनमें आर्थिक विकास का मुद्दा अहम् था। यह भी कहा जा सकता है कि आर्थिक विकास मात्र आर्थिक स्थिति को सम्बोधित न होकर अन्य वस्तुओं को जन्म देता है, या प्रभावित करता है। यह पचास के दशक में देखा जा सकता है—उस समय उत्साह का संचार था और विशेषकर देश का शहरी मध्यवर्ग प्रगति के सपने देखता था। लेकिन क्या उस समय प्रस्तावित प्रगति सामाजिक न्याय और बराबरी की अपेक्षा को उपयुक्त आधार देने में समर्थ थीं? मार्कण्डेय के विश्लेषण अथवा कथा-चित्रण इस सवाल पर निरन्तर रोशनी डालते हैं।
(1)
व्यक्ति और रचनाकार दोनों ही स्तरों पर मार्कण्डेय स्वतन्त्रता के मूल्यों को लेकर चिन्तित रहे। आजादी के बारे में उनका यह कथन दृष्टव्य है—परिवेश और सन्दर्भों के बहाने देश की आजादी पर बहस चल रही थी। कुछ लोग इसे आजादी मानने के लिए तैयार थे, कुछ लोग इसे राजनीतिक आजादी तो मानते थे लेकिन साम्राज्यवादी आर्थिक दबाव के रहते इसे जनता के लिए निर्थरक समझते थे। तरह-तरह की शंकाओं, विचारों और परिभाषाओं में तत्कालीन सामाजिक जीवन को उद्वेलित कर रखा था। लेकिन देश के पूँजीवादी नेतृत्व की असफलता पर लोगों के मन में व्यापक सहमति थी। अव्यवस्था और साम्प्रदायिक दंगों ने देश को जड़ से हिला दिया था। महात्मा गाँधी की राम-राज्य की परिकल्पना के चलते कायदे-आजम का मुस्लिम राज बन गया था। ऐसी संक्रान्ति काल में लेखकों को झूठे आदर्शों में उलझाये रखना अथवा देश की वर्तमान स्थितियों से अलग कोई वैचारिक पाठ पढ़ाना सम्भव नहीं रह गया था। इसलिए परिवेश ही सत्य बन गया था, और सब सत्याभास। (बल मेरा, मार्कण्डेय, पृ. 8)
इस वक्तव्य पर किंचित् विचार आवश्यक है। अपने वक्त में मौजूद ‘शंकाओं, विचारों और परिभाषाओं’ का गहरा एहसास मार्कण्डेय को था। कथित शंकाओं का ताल्लुक प्राय: मध्यवर्गीय मानसिकता से होता है जहाँ आत्मविश्वास इसलिए कम होता है कि मध्य वर्ग का व्यक्ति परिवेश में अपनी क्रियाविधि का पुख्ता आधार नहीं देखता—उसे लगता है कि समाज में उसके बिना भी काम चल सकता है। यह यद्यपि सही है कि जब शंकाएँ विचार की तरफ गतिशील होती हैं तो मध्यवर्ग को अपनी भूमिका उपलब्ध हो जाती है। फिर भी कठिनाई यह होती है कि विचार प्राय: सामान्य होता है जबकि निरन्तर विचार क्रिया के चलते वह कुछ स्थितियों में विशिष्ट हो जाता है। दिलचस्प है कि मार्कण्डेय का उक्त वक्तव्य नयी कहानी के सन्दर्भ में था और इस साहित्य-प्रवृत्ति से जुड़े अधिकतर लेखक या तो सामान्य विचार से काम चलाते थे, या किसी स्थिति में अनुभव की तीव्रता के कारण ‘स्टैण्ड’ भी लेते थे। नयी कहानी के चर्चित नाम उस समय मोहन राकेश, रेणु, राजेन्द्र यादव, ठाकुरप्रसाद सिंह, कमलेश्वर आदि थे जो या तो शंकाओं, उलझनों, मामूली सवालों से आगे न बढ़ते थे, और यदि बढ़ते थे तो विचार तक पहुँचकर रुक जाते थे। इन लेखकों की पंक्ति में अगल-बगल से कभी धर्मवीर भारती, द्विजेन्द्रनाथ मिश्र निर्गुण और नरेश मेहता भी प्रवेश कर जाते थे, जो मानते थे कि वे भी नयी प्रवृत्ति और समकालीनता के रचनाकार हैं। मैंने सुना कि एक समय नयी कहानी प्रवृत्ति में शामिल होने को वात्स्यायन अज्ञेय भी उतावले हुए थे और चाह रहे थे कि उनकी कोई रचना भैरवप्रसाद गुप्त द्वारा सम्पादित पत्रिका ‘नयी कहानियाँ’ में छपे। यह कितना सही-गलत था इसमें जाना यहाँ आवश्यक नहीं जान पड़ता, लेकिन प्राय: नहीं देखा गया कि लेखकों की इस पाँत ने मार्कण्डेय द्वारा प्रयुक्त शब्द ‘परिभाषा/ परिभाषाओं’ की बात गम्भीरता से की हो। परिभाषा के दौरान विचार पक्ष इतना प्रबल होता है कि वह शब्दों के उस आखिरी आयाम तक पहुँच जाता है जहाँ समाज के द्वन्द्व शुरू होते हैं। परिभाषा करने के दौरान आपको दूसरों के लिए और अपने तर्इं कहना होता है कि आप किस अन्य परिभाषा से स्वयं को अलग कर रहे हैं, बल्कि उसके विपरीत खड़े हैं। सम्भवत: कहानी की बात में मौजूद बहसें और विश्लेषण इसलिए लिखे गये थे कि उनके माध्यम से मार्कण्डेय और उनके प्रतिबद्ध साथियों, (मसलन अमरकान्त और शेखर जोशी) की वैचारिक और विचारधारात्मक स्थिति स्पष्ट हो।
असल में यह देखा, समझा और परखा जाना आवश्यक है कि कथा-रचना को किसके साथ खड़ा होना है, किससे स्वयं को अलग रखना है और किसका विरोध करना है। पचास के दशक में ऐसा तभी सम्भव था जब द्रष्टा की अपनी स्थिति यथार्थवादी हो और वह समाज की वर्ग सच्चाई से न केवल भली-भाँति वाकिफ हो, बल्कि शोषित मनुष्यता के साथ, उसके समर्थन में अपनी कार्यविधि को गतिमान करता हो। लेकिन यह स्थिति की बात है। जहाँ तक एक कालखण्ड की तात्कालिक जरूरतों का प्रश्न है, वहाँ व्यक्ति को ऐसी चुनौतियों से जूझना होता है जो उस समय की प्रभावी शक्तियों द्वारा अपने हितसाधन के लिए नीति के स्तर पर तैयार की जाती हैं। मसलन, यदि कोई चीज नये पैंतरे के तहत लायी जाय तो शोषित वर्ग द्वारा उसका तुरत-फुरत जवाब ढूँढ़ना होता है। ‘कहानी की बात’ में इस आकस्मिक सच का कमोबेश तीखा दबाव दिखता है।
उक्त उद्धरण में, जो अस्सी के दशक में लिखी टिप्पणी का हिस्सा है, मार्कण्डेय यह भी कहते हैं कि सामान्य जन को देश में पूँजीवादी नेतृत्व की असफलता देखने को मिली थी। इसकी व्याख्या यह हो सकती है कि उस समय देश का नेतृत्व लगभग पूरी तरह नेहरू के हाथों में था जो स्वप्नदर्शी और प्रयोगशील नेता थे। नेहरू का अपना अतीत भी समाजवादी था, तीस के दशक में नेहरू ने महात्मा गाँधी से असहमति जतलाते हुए सामाजिक न्याय का महत्त्वपूर्ण मुद्दा उठाया था और रामराज्य की परिकल्पना से अलग (जिसमें वर्गीय सह-अस्तित्व पर बल था) यह कहा था कि वर्गीय जद्दोजहद से ही वास्तविक समाज-संगति सम्भव है। मार्कण्डेय की पीढ़ी द्वारा पचास के दश में यह एहसास कर पाना कि देश के पूँजीवादी नेतृत्व की असफलता के कारण जीवन की गुणवत्ता का ह्रास हुआ है चिन्तन का ऐसा पक्ष था जिसके कारण तत्कालीन लेखकों की आलोचना-दृष्टि को ‘सुपरिभाषित’ दिशा मिली। कहानी की बात निबन्धों में यह चीज पूरी ताकत से उभरती है। फिर भी सवाल अपनी जगह बना है कि क्या इस विचार-बिन्दु पर ‘लोगों के मन में व्यापक सहमति थी’, जैसा कि मार्कण्डेय कहते हैं? इस सवाल की, और इससे जुड़े ऋणात्मक/धनात्मक भावरूपों की झलक कहानी की बात के समूचे तर्क में देखी जा सकती है। इस पर किंचित् विस्तार से आगे चर्चा की जायेगी।
यह सही है कि पचास का दशक संक्रान्ति का काल था। चीजें बदल रही थीं ओर उस प्रक्रिया में कई तरह की उलझनों का बोलबाला था। यह पूरी तरह नयी कहानी का, उसकी शंकाओं और अनिश्चितताओं का खाका है। इसके बरक्स लेखकों को, जैसा मार्कण्डेय ने कहा, ‘झूठे आदर्शों में उलझाये रखना’ तत्कालीन शासक वर्ग की ये नीति थी। फिर भी परिभाषा की दृष्टि से ‘झूठे आदर्शों’ पर विचारधारात्मक जिज्ञासा व्यक्त करना आवश्यक जान पड़ता है। स्वयं मार्कण्डेय भी इस दिक्कत से वाकिफ जान पड़ते हैं। इस कारण वह आगे कहते हैं कि ‘परिवेश ही सत्य बन गया था।‘ मुश्किल इसे लेकर है कि पचास के दशक को उसकी वर्तमानता में रखकर देखा जाय या उसके इतिहास की पड़ताल की जाय? मार्कण्डेय ठीक ही सुझाते हैं कि परिवेश के सत्य में ‘सत्याभास’ का खतरा है।
इस प्रकार मार्कण्डेय का उक्त कथन कुछ पक्षों का रूप निर्धारित करता है, लेकिन साथ ही ऐसे नये उभरे तत्त्वों को इंगित करता है जिन्हें समझने में पचास के दशक का रचनाकार पर्याप्त सक्षम न था। स्वयं नयी कहानी और साथ ही नयी कविता से जुड़े अनेक चिन्तकों ने उस समय अपने लिये नयी राहों के अन्वेषी जैसे शब्दों का प्रयोग किया। यह वात्स्यायनी एहसास था और इसकी गिरफ्त पचास के दशक की युवा पीढ़ी पर दिखती थी। क्या मार्कण्डेय का अपना चिन्तन भी इस आग्रह से कमोबेश प्रभावित था? फिर क्या मार्कण्डेय भी अपनी व्याख्याओं में इस सवाल से गम्भीरतापूर्वक उलझते हैं? संक्षेप में कहें कि पचास के दशक का माहौल अनेक नये सवालों से घिरा था और उस समय का रचनाकार पूरी शिद्दत से इन सवालों का बोझ अपने मन-मस्तिष्क पर महसूस करता था।
पचास के दशक की साहित्यिक स्थिति पर चक्रधर ने, जो स्वयं मार्कण्डेय थे, लिखा कि—
‘‘किसी भी वास्तविक पाठक को इस बात से विरोध नहीं होगा कि वास्तविक सृजनशील एवं सजग शक्तियाँ काव्य की रूपात्मक छवि के निखार में ही लगी हुई हैं। यद्यपि दुनिया की कतिपय संस्कृत भाषाओं की कविता, विचारों की इस संक्रान्ति से गुजर चुकी है, और उनके अनुभव हमारे आगे प्रत्यक्ष हैं, लेकिन क्या हिन्दी की नयी कविता भी टी. एस. इलियट की तर्जुमानी है—अथवा लेमार्ले या एजारा पाउण्ड का प्रतीकवादी नमूना? इस प्रश्न का उत्तर कई तरह से दिया जाता है, इसलिए आज के कवि को सामाजिक जीवन से तटस्थ मान लेना दुराग्रह के अतिरिक्त और क्या होगा। लेकिन उसमें व्यक्तिनिष्ठता के भाव स्पष्ट हैं। यह बात अलग है कि व्यक्तियों की समस्याएँ भिन्न हैं, विचार भिन्न हैं, और इसी अनुपात में उनके काव्य पर उसके प्रभाव भी। जहाँ कवि सारे सामाजिक बन्धनों से अलग ‘आत्म’ की कोठरी में आँख मूँदकर देखता है, वहीं वह अँधेरे में भटकनेवाले कीड़े की तरह हो जाता है, और नतीजे में उसके काव्य के कई दोष हमारे सामने प्रत्यक्ष हो उठते हैं। कहीं तो वह रूप के चमत्कार में बह जाता है और भाषा की रंगीनी उसका ध्येय बन जाती है और कहीं वह अ-रूपकता मोह में कुरूप हो जाता है। संगीत, लय, सभी का लोप ऐसी कविताओं में देखा जा सकता है। शायद यही कारण है कि कथित प्रयोगवाद किसी विशेष वाद की तरह स्वीकार नहीं किया जा सकता। आधारभूत विचारों का इतना वैपरीत्य, शायद ही किसी भी अन्य युग में रहा होगा। यहाँ तक कि कुछेक ऐसे भी नमूने मिल जाते हैं कि जीवन दर्शन सम्बन्धी विचारों का समानीकरण भी अभिव्यक्ति के माध्यमों को नितान्त विपरीत बनाये रखने में समर्थ हो जाता है।’’ (बलभद्र और दुर्गाप्रसाद, पृ. 41-42)
यह एक गम्भीर वक्तव्य है। यहाँ पचास के दशक में व्याप्त अनेक विचारों का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया गया है और उनके बीच उभरे सवालों पर सोचने की विवशता दिखती है। मार्कण्डेय की नजर में ‘काव्य की रूपात्मक छवि’ को निखारना एक साथ जरूरी और सन्देहास्पद बनता है, और ‘टी. एस. इलियट की तर्जुमानी’ पर सार्थक चिन्ता का आधार खड़ा होता है। फिर, अपनी ओर से जवाब न देकर मार्कण्डेय विषय को फैलाते हैं और उत्तर के बहाने से ‘कई तरह की पूर्वग्रही प्रवृत्तियों’ की तरफ पाठक का ध्यान खींचते हैं। यह भी सोचा जा सकता है कि क्या यह वक्तव्य अन्य साहित्यरूप, मसलन कहानी पर किंचित् बदलाव के साथ लागू हो सकता है या नहीं? प्रश्नों के अतिरिक्त यहाँ विशिष्ट साहित्यिक प्रवृत्ति ‘कथित प्रयोगवाद’ के बारे में कहा गया है कि उसे ‘किसी विशेष वाद की तरह स्वीकार नहीं किया जा सकता।’ क्यों? जवाब है कि यह समाज के ‘आधारभूत विचारों का…वैपरीत्य’ प्रकट करता है। अर्थात् प्रयोगवाद का मूल समाज की उन ताकतों में है जो मूल बदलाव के तर्क को पीछे फेंककर मात्र प्रयोग की चर्चा में रुचि लेते हैं, प्रयोग को ही प्रतिष्ठित करने पर बल देते हैं। इससे आगे जो है वह पूरी तरह स्पष्ट नहीं है, लेकिन लेखकीय मंशा यह है कि विपरीतों के टकराव की सच्चाई को समझा जाना जरूरी है। पता चलता है कि युवा मार्कण्डेय अपने वक्त के दबावों से रूबरू होने का साहस रखते हैं। यह तब है जब मार्कण्डेय के अनेक वरिष्ठ समकालीन इस तरह के सवालों पर निश्चित राय रखते थे और मार्कण्डेय की उनसे व्यापक सहमति थी। लेकिन केवल व्यापक, पूरी नहीं।
(2)
जहाँ तक परिवेश में व्याप्त वर्ग-सम्बन्धों की समझ और साहित्य-चिन्तन का प्रश्न है, मार्कण्डेय सिद्धान्त के भी गहरे जानकार मालूम पड़ते हैं, यद्यपि उन्होंने जीवन के मसलों पर तर्क अथवा विश्लेषण की भाषा में कम लिखा है। ‘कहानी की बात’ के निबन्ध और चक्रधर उपनाम के अन्तर्गत कल्पना में पचास के दशक में छपी सूचीनुमा संक्षिप्त टिप्पणियों के अतिरिक्त मार्कण्डेय ने वैचारिक गद्य लिखने की जहमत नहीं उठायी। अपने ढंग की अनूठी पत्रिका ‘कथा’ में जो सम्पादकीय छपते थे या कभी-कभी कहानी-संग्रहों की लघु भूमिकाएँ देखने को मिलती थीं, वहाँ भी मार्कण्डेय को अपनी राय कम शब्दों में मात्र काम चलाने की शैली में प्रस्तुत करने का शौक था। लेकिन उनके इस वैचारिक गद्य का समूचापन प्रभावित करता है, जहाँ उनकी सक्रिय सोच चुस्ती और तराश के साथ पाठक को उपलब्ध होती है। इससे भी आगे मार्कण्डेय वर्गीय संघर्ष के क्रम में अपना मन्तव्य प्रकट करते हैं। भैरवप्रसाद गुप्त ने एक निजी बातचीत के दौरान मुझसे कहा था कि स्वतन्त्रता पश्चात् की लेखक-पीढ़ी में जो लेखक स्पष्ट राजनीतिक दृष्टि से लैस है, वह अकेला मार्कण्डेय है। फिर उन्होंने अतिरिक्त बल देते हुए कहा—‘‘स्वयं मैं भी नहीं। मुझमें आप जब तब झुकाव की बेतरतीबी देख सकते हैं, लेकिन मार्कण्डेय अपनी विचारधारात्मक स्थिति पर हमेशा अडिग रहता है।’’ अपनी ओर से कहूँ कि जिस समझौताविहीन कड़े दृष्टिकोण की बात भैरव ने कही वह तर्क की उस बारीकी और लचीलेपन के बावजूद नजर आती है जो मार्वâण्डेय के कथनों, उनकी टिप्पणियों और व्याख्याओं में मिलती है। मार्कण्डेय एक साथ राजनीतिक चिन्तक हैं, साहित्य के व्याख्याकार हैं, मनुष्य मनोविज्ञान के विद्यार्थी हैं, नारी व्यवहार के समर्थक हैं और सूक्ष्म मानवीय अनुभूतियों में गहरी पैठ रखनेवाले रचनाकार हैं। यह कथाकार, सम्पादक और लेखक मार्कण्डेय का स्वाभाविक चरित्र है। इसका एक सामान्य उदाहरण देखें—हमारे देश में वैचारिक विवेचन द्वारा स्थापित यथार्थ के भीतर रचना के लिए अनेक यथार्थ हैं जो भौगोलिक सीमाओं के द्वारा ही, असम जन-जागरण के कारण एक-दूसरे के पूरक होते हुए भी परस्पर प्रतिरोध का भ्रम पैदा करते हैं। यथार्थवादी समीक्षा सन्दर्भों की व्याख्या द्वारा ही कहानियों के सही विश्लेषण का दायित्व पूरा कर सकती है। (मार्कण्डेय, पृ. 9)
‘यथार्थ के भीतर रचना के लिए अनेक यथार्थ’ का तात्पर्य जटिलता को रेखाँकित करना है। यह उस समय नयी कहानी के तर्क से मेल खाता था। नयी कहानी की व्याख्याओं में जटिलता का तर्क बार-बार इस्तेमाल होता था जिसका एक अर्थ यह था कि वह सामान्य पाठक के लिए बहुत उपयोगी नहीं है। फिर किसके लिए है? व्याख्याओं में यह भी निहित था कि यथार्थ को उसके सही अर्थात् वास्तविक रूप में ग्रहण करना सामान्य बुद्धिवाले व्यक्ति के बस की बात नहीं। तब क्या विशेषज्ञों को ही यथार्थ अपने रूप में नजर आ सकता है? इनका जवाब न मिलता था, कारण कि नयी कहानी के लेखक या आलोचक के लिए जीवन और विचार की विशेषज्ञता आकर्षक हो उठी थी। मार्कण्डेय इस पूर्वग्रह से इसलिए अंशत: मुक्त थे कि वह मसलन उक्त वक्तव्य में भी ‘असम जनजागरण’ का तर्क स्वीकार करते थे। क्या था यह असम जागरण? स्थापित अर्थ में इसका तात्पर्य था कि जागरण की जो अवस्था और स्तरीयता केरल-जैसे सर्वशिक्षित प्रदेश में मिलती है, वैसे राजस्थान और (अब) हरियाणा में नहीं मिलती—दोनों जगह जातिवादी सोच विश्वासी परम्परा का पिछड़ापन वहाँ के निवासियों को आधुनिकता आदि से दूर रखता है। इस तर्क में सोच का मार्क्सवादी पक्ष भी छिपा था कि असमता मात्र वैचारिक या सांस्कृतिक न होकर भौतिकीय और आर्थिक होती है। इस तरह केरल में भूमि सुधार हो चुके थे और अप्रतिम शिक्षा का प्रसार हुआ था, जबकि राजस्थान और बिहार-हरियाणा में ऐसा न हो पाया था। क्या मार्कण्डेय के सामने यह पचास के दशक में स्पष्ट था? मेरी अपनी राय है कि यदि यह होता तो वह नयी कहानी आन्दोलन में शामिल न होते, न नयी कहानी की विशिष्ट व्याख्या ही गढ़ते। फिर यह भी सच है कि कहानी की बात का वैचारिक चरित्र मार्कण्डेय के तर्इं पचास के दशक के दौरान पहलेवाला उत्साह न दिखता था। सत्तर के दशक में मार्कण्डेय ने ‘कथा’ निकाली थी और उनका रवैया पूरी तरह विचारधारात्मक-राजनीतिक हो गया था। (कथा का पहला अंक सत्तर-दशक के अति निकट सितम्बर, 1969 में आया था)।
लेकिन नयी कहानी की प्रवृत्ति और उसके बखान में मध्यवर्गीय सोच का असर देखा जा सकता था, जिसे परखना आवश्यक था। इसे सामान्य मार्क्सवादी लेखक-चिन्तक न समझते थे। मसलन आजादी अधूरी अवश्य थी, लेकिन वह झूठी न थी। साम्राज्यवादी ताकत का एकमुश्त पलायन सबको नजर आता था। अंग्रेजों ने भारत के समाज को तहस-नहस किया था, लेकिन वे भारत छोड़ने को विवश हुए थे। बदली स्थिति में नीति-निर्धारण का जिम्मा स्वयं भारत के वर्गों/वर्गसमूहों के कन्धों पर आ गया था। यह भी दिलचस्प है कि भारत के वर्गसमूहों में ऐसे शिक्षित युवजनों का भी समूह था जिन्होंने तीस के दशक की उथल-पुथल और चालीस के दशक की विकट संघर्षशीलता देखी थी। इस तरह मार्कण्डेय जैसे युवा चिन्तकों और रचनाकारों की भूमिका आवश्यक हो उठी थी। स्वयं मार्कण्डेय ने अपनी कहानियों और टिप्पणियों के माध्यम से वक्ती सच्चाई को पहचानने, उसके चरित्र को उभारने का काम किया था। नयी कहानी के तर्क को पहचानने और उसे आंशिक मंजूरी देते शिवकुमार मिश्र अपनी टिप्पणी में कहते हैं—
नयी कहानी के दौर में एक समय जब कहानी एक बार फिर से मध्यवर्गीय जीवन और मध्यवर्गीय चरित्रों की या फिर नगर जीवन की सीमित चौहद्दियों में, उनसे जुड़ी समस्याओं में ऊब-डूब करने लगी थी, मार्कण्डेय उन कहानीकारों की संगति में अपनी विशिष्ट पहचान को लेकर सामने आये जिन्होंने ग्राम्यजीवन तथा साधारण वंचित उपेक्षित जनों के जीवन सन्दर्भों को परिप्रेक्ष्य में उभारा और नयी कहानी के रचनावृत्त को विशद बनाया, उसे हिन्दुस्तान की प्रातिनिधिक ग्राम्यजीवन की वास्तविकता से जोड़े रखा, प्रेमचन्द की रचना-दृष्टि, उनकी कथा-परम्परा को न केवल संरक्षित किया, बदले समय सन्दर्भों में अनुभव तथा विचार की नयी जमीन में उसे कुछ और विकसित किया। (बल मेरा, त्रिपाठी, पृ. 311)
कुछ और क्यों? वास्तविकता से जोड़े रखना, कथा-परम्परा को संरक्षित करना, विचार की नयी जमीन को पहचानना, आदि में ‘कुछ और’ क्योंकर आया? आरम्भिक उत्साह के बाद मिश्र की जुबान कुछ दबती है, जो सही भी है। यह ऐसा मसला है जिस पर विचार की जरूरत है। मार्कण्डेय पचास, साठ, सत्तर और अस्सी दशकों के रचनाकार हैं, बाद में वह सम्पादक, विचारक, आयोजक और साहित्यिक नीति-निर्धारकों के गम्भीर परामर्शदाता की भूमिका में आते हैं। इस पुस्तक की वैचारिक सामग्री असल में एक बेहद कर्मशील, अन्वेषी तथा व्याख्याधर्मी रचनाकार के निबन्धों का संकलन है और यह रचनाकार यहाँ अपनी समझ के पूरे प्रवाह में मौजूद है।
(3)
यहाँ प्रस्तुत लेखों-टिप्पणियों का मूल तर्क यह है कि पचास के दशक की कहानी पूर्व से अलग और विशिष्ट थी और उसकी इस पहचान को रेखाँकित करना जरूरी है। इसमें निश्च्य ही कुछ खतरे भी हैं। सबसे बड़ा खतरा तो यह सोचने में है कि कहानी को उसके इतिहास से अलग करके तर्क प्रस्तुत करना नये भारत के सन्दर्भ में कितना सार्थक था? क्या पाठक से यह बात साझा करना कि अब वह साहित्य को पहले की भाँति अभियान का हिस्सा न समझे और केवल सामयिकता में ही रचना का आकलन करे, स्वयं साहित्य के लिए हानिकारक न होता? नयी कहानी एक उफान की तरह थी, उसमें आवेग की मात्रा अधिक थी और वह नयी घटनाओं को तात्कालिकता से अलग न करना चाहती थी। साठ के दशक में नयी कहानी का जो हश्र हुआ वह उस समय चौंकाता था, जबकि आज स्वाभाविक लगता है। लेकिन पचास के दशक में ही, जैसा कि ऊपर संकेतित है, मार्कण्डेय नयी कहानी को इतिहास से जोड़ने के कायल थे और चाहते थे कि वह यथार्थ के निकट आये, उसके विविध पक्षों का वास्तविक रूप उजागर करे। क्या यह सम्भव था, और यदि था तो कितना? अब इतिहास का हिस्सा बनी ‘आज की कहानी’ के बारे में मार्कण्डेय ने उस समय लिखा-आज की कहानी अपने बाह्य और आन्तरिक, दोनों उपकरणों में सचेत रूप से समाज के वस्तुगत सन्दर्भों की प्रतिलिपि है, लेकिन वह प्रकृतिवादी नहीं है। विकासशील विचार-परम्परा ने आज के लेखक को एक ऐसी जगह ला खड़ा किया है जहाँ से विमुख होने का अर्थ है उसकी रचना-शक्ति का ह्रास। बात आग्रह की तरह की है, लेकिन सन्दर्भ इतना भिन्न है कि कोई इसका प्रयोग आरोपित आग्रह के लिए नहीं करेगा। विज्ञान और दर्शन की प्रगति ने हमारी परम्परागत मान्यताओं को एक नये परिवेश में ला खड़ा किया है, जहाँ हर अनुभूति को कार्य-कारण की कसौटी पर खरा ही उतरना पड़ता है। तर्क और बुद्धि से परे, सिर्फ भावुकता के मानदण्ड पर रची जानेवाली मानव-अनुकृतियाँ आज की कहानी में पात्रता नहीं प्राप्त कर सकती। इसीलिए आज का कहानीकार कथानक को वस्तुपरक जीवन-सन्दर्भों से जोड़ने का मुख्य कार्यभार अपने कन्धों पर उठाये हुए है और रचनाश्रयी आलोचक तथा जागरूक पाठक की माँग करता है। (मार्कण्डेय, पृ. 13-14)
जिस टिप्पणी से यह उद्धरण है उस पर जनवरी, 1962 की तारीख छपी है। जाहिर है इसका सन्दर्भ पचास का दशक ही है। रोचक है कि मार्कण्डेय एक ही क्षण में कहानी को प्रतिलिपि भी कह रहे हैं और इनकार कर रहे हैं कि वह प्रकृतिवादी है। यहाँ दुहरी नकारात्मकता भी द्रष्टव्य है—उदाहरण के लिए ‘विमुख होने का अर्थ है…रचना-शक्ति का ह्रास।’ इसी तरह ‘तर्क और बुद्धि से परे’ और ‘सिर्फ भावुकता’ में भी आत्मरक्षात्मक पैंतरा है। पूरे वक्तव्य में अनिश्चितता का असर है, जो इसलिए है कि मार्कण्डेय की मार्क्सवादी चेतना उस व्याख्या की कमजोरी पहचान रही है जिसका लाभ नयी कहानी अभियान में शामिल बुर्जुआ रचनाकार उठा सकते हैं। असल में साठ का दशक शुरू होते-होते नयी कहानी सम्बन्धी बहस गर्म हो उठी थी। इस पर किंचित् बाद में सोचेंगे। यहाँ सिर्फ यह कहना है कि सावधानी से इधर-उधर देखकर चलनेवाले मार्कण्डेय नये सन्दर्भ पर इसलिए जोर दे रहे हैं ताकि वह ‘अतीत’ का विकल्प ढूँढ़ते हुए ‘आज’ को प्रतिष्ठित कर सकें। लेकिन साथ ही यहाँ ‘वस्तुपरक जीवन-सन्दर्भों से जोड़ने का मुख्य कार्यभार’ आया है। यह अत्यन्त सार्थक उक्ति है, चूँकि मार्कण्डेय अपने समय के रचनाकार से कार्यभार की शैली में गम्भीर भूमिका निर्वाह की अपेक्षा कर रहे हैं।
क्या नयी कहानी के अन्य व्याख्याकार भी इसी भाँति लेखक से भूमिका निर्वाह की अपेक्षा कर रहे थे? क्या वे सोचते थे कि रचना को अपने परिवेश के प्रति उस तरह जवाबदेह होना है, जिस तरह पूर्व दशकों की कथा, कविता आदि में देखने को मिला था? नयी कहानी में शामिल रचनाशीलता का रूप मिला-जुला था। उसमें कुछ मार्कण्डेय सरीखे निर्भीक और विवेकपूर्ण रचना-स्वर थे तो कुछ ऐसे भी थे जो मात्र उत्साह के बल पर संस्कृति में हस्तक्षेप कर रहे थे। यह सक्रिय हस्तक्षेप पाठकों का ध्यान उनकी ओर अतिरिक्त खींचता था और कई बार उत्साही लेखक बाकी की अपेक्षा पाठकों के बीच अधिक महत्त्वपूर्ण भी हो जाते थे। साहित्य में यह प्राय: होता है, जब शब्दावली का पैनापन और आवेग तर्क का स्थानापन्न बन जाता है। मसलन, उक्त गम्भीर सवाल पर राजेन्द्र यादव की प्रक्रिया मार्कण्डेय के निकट या उनके समर्थन में न होकर बिलकुल दूसरी है। यादव कहते हैं—
कथाकार ने खुद अपने-आपसे और दूसरों ने उससे पूछा है कि क्यों नहीं देश के नव-निर्माण, उत्थान और प्रगति में वह भी अपनी सामाजिक, नागरिक और तात्कालिक जिम्मेदारी निभाता? क्यों नहीं कर्म के इस उल्लास और आह्लाद को अपनी लेखनी सर्मिपत करता जो देश के हर खम और खामी को भर रहा है? स्वतन्त्र राष्ट्र का एक जीवन्त युवक क्यों नहीं उनकी पंक्तियों से झाँकता? क्यों नही कहीं कुछ भी उजला उसे दीखता, महान् और महत् उसकी निगाहों में आता? और अकसर उस पर आरोप लगाया गया है कि वह अपनी जिम्मेदारी से भगाता है। वह किसी मानसिक असन्तुलन और रोग का शिकार है कि हर उत्सव और त्योहार देखकर भीतर से कुढ़ता और गमगीन हो जाता है…वह गला फाड़कर यह भी नहीं चीख पाता कि यह सब झूठ है। नकली है! फरेब है!..असलियत जो है उसे मैं जानता हूँ, उसे मैं भोगता हूँ…(त्रिबिन्दु मूल में, यादव, पृ. 21)
मार्कण्डेय के तर्काधारित रवैये के विपरीत यादव का स्वर अतिरेकी है, कुछ-कुछ अराजक एवं अनर्गला इसके अलावा यादव का तर्क नयी कहानी के प्रचलित रचना-विचार के अधिक निकट है—इस प्रवृत्ति से जुड़े ज्यादातर लेखक अपनी रचना में मोहभंग लाते थे, जैसा यहाँ यादव ने किया है। इस कारण यादव कुछ भी स्पष्ट कहने से बचते हैं। प्रामाणिक को बार-बार या बलपूर्वक लाते हैं (‘कुढ़ता और गमगीन हो जाता है’, ‘यह सब झूठ है’, ‘उसे मैं जानता हूँ, उसे मैं भोगता हूँ’ आदि) और विचार-बिन्दु को अधूरा छोड़कर किसी अन्य दिशा में बढ़ते हैं। यादव का आग्रह अन्धाधुन्ध सवाल उठाने में प्रकट होता है। बल्कि रोचक है कि यादव स्वयं द्वारा उठाये जा रहे सवालों का उत्तर भी नहीं ढूँढ़ना चाहते, बल्कि सवालों को अन्तिम सत्य की भाँति प्रतिष्ठित करना चाहते हैं। यह नजरिया वास्तविक समस्याओं को शब्दजाल में फँसा देना चाहता है, ताकि उत्तर ढूँढ़ने या पाने की गुंजाइश ही न रहे। इससे गद्य की गुणवत्ता प्रभावित होती है—गद्य में बिखराव आने लगता है। इतना तो नहीं, लेकिन ऐसा ही गद्य उस समय कमलेश्वर ने भी लिखा। निराशाजनक, कटुतापूर्ण और बदहवास। नयी कहानी प्रवृत्ति की यह शक्ल अनेक बार बहसों में मुख्य हो जाती थी। इस शक्ल ने कुछ समय बाद ही अकहानी की ओर प्रस्थान किया। दूसरी ओर हम पाते हैं कि मार्कण्डेय की उक्त टिप्पणियाँ उद्गार, बलाघात से बचती हैं—उनमें वास्तव में समाज की गतिकी का तीखा एहसास है। रचनाकारों में यह आलोचकीय गम्भीरता मार्कण्डेय के अतिरिक्त कहीं नहीं मिलती। लेकिन रचनाकारों से बाहर, मसलन आलोचकों में? देवीशंकर अवस्थी के इस कथन पर गौर करें—
स्वातन्त्र्योत्तर दशक में तमाम राष्ट्रीय सजग बोध के समानान्तर नवलेखन का आन्दोलन जिस सतर्कता तथा साहित्यशास्त्र के बने-बनाये एकेडेमिक तन्त्र के प्रति अवज्ञा और विरोध को जन्म देता है उसी ने कहानी के महत्त्व को भी पहचाना था। …किस प्रकार के लेखक नये यथार्थ को अधिक शक्ति और दृष्टि के साथ ग्रहण कर पा रहे हैं यह समस्या लेखकों के सामने भी थी और आलोचकों के भी…(अवस्थी, पृ. 14-15)
यहाँ अवस्थी ने नवलेखन को अधिक तूल दिया है और कहा कि इसकी उत्पत्ति एकेडेमिक तन्त्र के बढ़ते असर के कारण हुई है। अवस्थी एकेडेमिक तन्त्र को सतर्कता से जोड़कर देखते हैं जो इतना ही सही है कि वहाँ सतर्कता का सरल आयाम मौजूद रहता है। साहित्य अध्ययन-संस्थानों में सतर्कता या फिर तर्कशीलता का सम्बन्ध तकनीक से रहता है, नजरिये के स्तर पर वह प्राय: गायब रहती है। बाद के दशकों में तो यह भी देखा गया कि अध्ययन-संस्थान ने अनेकानेक रचनाकारों और विचारकों को शासकीय सुविधाभोगी वृत्ति का लगभग गुलाम बना दिया और उनकी वैचारिक ऊर्जा एवं साहसिकता को समाप्तप्राय कर दिया। यदि नवलेखन में इसके लिए किंचित् अस्वीकार नजर आया तो इतना भर कि सम्बन्धित लेखकों ने इसे अपने सम्मान पर प्रहार समझा। इससे अधिक नहीं। लेकिन नवलेखन के माध्यम से पहचान बनानेवाले अधिकतर रचनाकारों ने बाद में संस्थान की सुविधाएँ और वहाँ के संसाधन स्वीकार किये और ऐसा करते हुए शासकीय मूल्यों की वर्चस्व-वृद्धि में सहयोग ही दिया। जैसे-जैसे नवलेखन स्थापित हुआ वह स्वयं प्रतिष्ठा केन्द्रों का हिस्सा बनते हुए उनका क्रीतदास होकर रह गया। फिर भी नये यथार्थ को ग्रहण करने के उक्त विचार की कुछ व्याख्या नामवर सिंह के इस कहानी-सम्बन्धी कथन से हो सकती है कि ‘‘जीवन सत्य… खण्ड के भीतर से, किन्तु उसे खण्डित करता हुआ पूर्ण से मिलता है, मुख्यार्थ को बाधित करके रसमय अर्थ को व्यंजित करता है, जीवन की हर छोटी घटना के भीतर से सम्पूर्ण जीवन की सार्थकता का अनुभव करता है।’’ (अवस्थी, पृ. 69) यहाँ सिंह कहानी-रूप को देखने की कोशिश में उसे व्यापक यथार्थ का वाहक बताते हैं। नयेपन के सन्दर्भ में सिंह कहानी को लेखक की वर्तमानता से जोड़ते हुए कहते हैं—
कहानीकार की सार्थकता इस बात में है कि वह अपने युग के मुख्य सामाजिक अन्तर्विरोध के सन्दर्भ में अपनी कहानियों की सामग्री चुनता है, ऐतिहासिक विकास के दौरान विरोधी शक्तियों के संघर्ष के फलस्वरूप जीवन के नये-नये क्षेत्र खुलते चलते हैं, पिछले युग की दबी हुई शक्तियाँ उभर आती हैं और उभरी हुई शक्तियाँ दब जाती हैं, गौण प्रधान हो जाता है और प्रधान गौण। इस प्रकार सामाजिक अन्तर्विरोध का रूप ही नहीं बदलता, बल्कि उसमें भाग लेनेवाली अथवा भाग न भी लेनेवाली किन्तु भाग होनेवाली, हर सामाजिक इकाई के भीतर अन्तर्विरोध के रूप में भी बदल जाते हैं। (अवस्थी, पृ. 71-72)
अन्य विशेष सन्दर्भ में सिंह बिम्बों और प्रतीकों की बात करते हैं और ‘‘इस दृष्टि से नयी कहानियों (को) बहुत समृद्ध’’ मानते हुए कहते हैं कि—
नये बिम्ब वस्तुत: नये कहानीकारों के विकसित ऐन्द्रियबोध के सूचक हैं और जो कहानीकार जितना ही संवेदनशील हैं उसकी कहानी का वातावरण उतना ही मार्मिक और सजीव हुआ है।…नयी कहानी में अभीष्ट भाव या विचार की अभिव्यंजना एक साथ ही अनेक स्तरों पर होती है और उसे समग्र रूप में प्राप्त करने के लिए पाठक को उतने स्तरों पर एक साथ संवरण कर सकने की क्षमता प्राप्त करनी होगी। नयी कहानी के प्रसंग में यदि ‘सम्प्रेषणीयता’ का कोई अर्थ हो सकता है, तो (वह) रस-बोध के विविध स्तरों की प्रेषणीयता (हो सकती है)। (सिंह, पृ. 34)
यहाँ सिंह नयी कहानी की प्रशंसा में तर्क गढ़ रहे हैं, इस कारण उसके लिए ‘विकसित ऐन्द्रियबोध’ जैसा शब्द चुनते हैं। जाने-अनजाने वह गैर-नयी कहानी अथवा पारम्परिक और विशेषकर पचास के दशक से पहले की कहानी को ऐन्द्रियबोध के नजरिये से पर्याप्त विकसित नहीं मान रहे हैं, जो आश्चर्य पैदा करता है। लेकिन साथ ही यह भी स्पष्ट हो जाता है कि सिंह नयी कहानी के विषय में गम्भीर या सार्थक चिन्तन से बचते हैं। ‘अनेक स्तरों पर’ का जिक्र आता है तो सिंह मार्कण्डेय का रवैया अख्तियार करते मालूम होते हैं लेकिन दोनों के मूलभूत नजरिये में गुणात्मक अन्तर है। जहाँ मार्कण्डेय राजनीतिक और आर्थिक सच्चाई को दिमाग में रखकर (‘असम विकास’) नयी कहानी को आजादी के बाद का वास्तविक सन्दर्भ दे रहे थे, वहाँ सिंह भाषा, संवेदना, प्रतीक और इन्द्रियबोध का हवाला देकर नयी कहानी को ‘सार्थक’ सिद्ध करने में दिलचस्पी दिखला रहे थे। क्या यह कारण नहीं है कि नयी कहानी से सम्बन्धित मार्कण्डेय का तर्क आज के प्रसंग में भी पहले की भाँति उपयोगी है, जबकि बाकी व्याख्याकारों की सोच सीमित और समयबद्ध चिन्तन का बायस बना है।
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मार्कण्डेय-नामवर संवादयहाँ मार्कण्डेय के कहानी चिन्तन की संक्षिप्त व्याख्या जरूरी जान पड़ती है, कारण कि यह चिन्तन एक साथ बीसवीं सदी में हुए कहानी के विकास को उसकी विभिन्न अवस्थाओं में समझने का इच्छुक है और उसे पचास के दशक से आगे लाकर सत्तर और अस्सी के दशकों की कथा-प्रवृत्तियों से जोड़ने में सक्षम है। छोटी टिप्पणियों, भूमिकाओं और बातचीत या साक्षात्कारों के दौरान उभरे अनेकानेक विचार-बिन्दु मार्कण्डेय को आज नये रचनाकार के लिए भी उपयोगी बनाते हैं।
हम अपनी बात एक विशेष जद्दोजहद से शुरू करें, जिसमें मार्कण्डेय के वैचारिक हस्तक्षेप के चलते रचना, रूप, यथार्थवाद और परिवर्तनधर्मी, दृष्टिकोण आदि के अनेकानेक पक्ष बहस के दायरे में आये। इस दौरान उस समय की कहानी-सम्बन्धी बहसों में नामवर सिंह और मार्कण्डेय के बीच तीखी भिड़न्त भी देखने को मिली, जिससे पूरी कथा आलोचना का चरित्र नये रूप में और नयी संभावनाओं के साथ उजागर हुआ। इस भिड़न्त के मध्य थी निर्मल वर्मा की कथा रचना। सिंह वर्मा के प्रशंसक और समर्थक थे और एक तरह वर्मा की प्रयोगशीलता को आलोचकीय आधार प्रदान करना चाहते थे। मसलन देवीशंकर अवस्थी ने एक उद्धरण के हवाले से कहा है कि नयी कहानी को आलोचक चाहिए था। (अवस्थी, पृ. 15) सिंह के रूप में नयी कहानी को आलोचक मिला हो या न मिला हो, लेकिन निर्मल वर्मा को अवश्य मिल गया था। सिंह का आलोचक-मन-निर्मल वर्मा की आशंसा-अनुशंसा से शुरू होता था और प्रशंसा तक पहुँचता था। बल्कि पूछने का मन होता है कि वर्मा न होते तो सिंह क्या करते? सिंह ने एक लेख में उन दिनों ‘सांकेतिकता’ को नयी कहानी के बीज शब्द के मानिन्द प्रस्तुत करते हुए कहा—
क्या प्रेमचन्द की ‘कफन’ और ‘पूस की रात’ कम सांकेतिक है? जैनेन्द्र, यशपाल, अज्ञेय आदि ने क्या सांकेतिक कहानियाँ नहीं लिखी हैं? फिर सांकेतिकता को आज की कहानी की विशेषता मानने का क्या मतलब है? सवाल जितना सीधा है, जवाब उतना सीधा नहीं है। भेद शायद मात्रा का ही हो। सांकेतिकता का सहारा पिछली पीढ़ी के लेखक कभी-कभी ही करते थे, जबकि आज का लेखक अकसर इसका सहारा लेता है। लेकिन इससे भी आगे बढ़कर कहा जा सकता है कि पहले की तरह आज की कहानी ‘आधारभूत विचार’ का केवल अन्त में संकेत नहीं करती; बल्कि नयी कहानी का समूचा रूप गठन (स्ट्रक्चर) और शब्द-गठन (टेक्सचर) ही सांकेतिक है। कहानी के दौरान लेखक जगह-जगह संकेत देता चलता है और ये सभी संकेत एक-दूसरे से इस तरह जुड़े होते हैं कि एक संकेत प्राय: किसी पूर्ववर्ती तथा परवर्ती संकेत की ओर संकेत करता जाता है, इस प्रकार आधारभूत विचार द्रवीभूत होकर कहानी के शरीर में भर उठता है कहीं एक जगह स्थिर नहीं रहता देह में जैसे रक्त अथवा प्राण…वास्तविकता यह है कि आधुनिक रचनाकारों ने इसे रचनाक्रिया द्वारा सिद्ध किया है और कहानी के क्षेत्र में इस रचनात्मक संगति की प्रतिष्ठा पहली बार इस युग में हुई है। (सिंह, पृ. 32-33)
यहाँ सिंह का ‘संकेत/सांकेतिकता’ से कुछ ज्यादा ही लगाव दिखता है। यह इस उद्धरण में नौ बार हुआ है। एक जगह तो ‘संकेत की ओर संकेत’ भी है। लेकिन असल चीज है नयी कहानी की पारिभाषिक व्याख्या और पहचान। सिंह के अनुसार संकेत पर आधारित ‘‘इस रचनात्मक संगति की प्रतिष्ठा पहली बार इस युग में हुई है।’’ यहाँ कई जटिल मसले एक साथ नजर आते हैं, जिन पर स्थानाभाव के कारण चर्चा सम्भव नहीं है, फिर भी ‘पहली बार’ और ‘इस युग’ पर गौर किया जा सकता है। यह आलोचकीय उत्साह है या रचनात्मक भावोद्रेक? (उद्धरण में दो बार विस्मयादिबोधक चिह्न मिलता है और रसायन-क्रिया तथा जैविक विज्ञान की शब्दावली का भरपूर प्रयोग है)। मूल प्रश्न समझ को लेकर है। क्या नयी कहानी का महत्त्व यही था कि वह ‘रचनात्मक संगति की प्रतिष्ठा’ करे? फिर तो नये युग में लेखक इसे सीखे बिना लिख भी न सकता था, चूँकि निहित है कि रचनात्मक संगति संरचनावादी नयी आलोचना को पढ़-गुनकर ही हासिल की जा सकती है। या फिर निर्मल वर्मा का कथा पाठ जानकर। रोचक है कि सिंह ‘इस युग’ शब्द का इस्तेमाल तो करते हैं लेकिन युग के मूल चरित्र पर अधिक ध्यान देना उचित नहीं मानते। इसके विपरीत सिंह वर्मा की कहानियों पर विचार के दौरान कहते हैं—
निर्मल की कहानियों में प्रभाव की गहराई इसीलिए है कि उनके यहाँ चरित्र, वातावरण, कथानक आदि का कलात्मक रचाव है। कलात्मक रचाव स्वयं रूप के विविध तत्त्वों के अन्तर्गत, फिर वस्तु और रूप के बीच तथा स्वयं वस्तु के अन्तर्गत। पात्र अलग इसलिए याद नहीं आते कि वे परिस्थितियों के अंग हैं। निर्मल के मानव चरित्र प्राकृतिक वातावरण में किसी पौधे, फूल या बादल की तरह अंकित होते हैं गोया वे प्रकृति के ही अंग हैं। ‘परिन्दे’ कहानी की छोटी-छोटी स्कूली लड़कियाँ तथा मीडोज, झरने, झाड़ियों, फूलों, चिड़ियों और लड़कियों के स्वर घुल-मिल गये हैं। निसर्ग एक है जिसमें सारे भेद सहज ही मिट जाते हैं। एक हृदय है जो तमाम चीजों को रागात्मक सम्बन्ध में जोड़ देता है। कलाकार का एक स्पर्श है जो सारे अनमेल तत्त्वों को एक ‘रूप’ में रच देता है। (सिंह, पृ. 56)
यह तो हुई सिंह द्वारा निर्मल-रचित कहानी/कहानियों की व्याख्या। अब एक अन्य सुचिन्तित टिप्पणी पर गौर करें—
निर्मल की कहानियों के प्रभाव के पीछे जीवन की गहरी समझ और कला का कठोर अनुशासन है। बारीकियाँ दिखायी नहीं पड़ती हैं तो प्रभाव की तीव्रता के कारण अथवा कला के सघन स्राव के कारण। एक बार दिशा-संकेत मिल जाने पर निरर्थक प्रतीत होनेवाली छोटी-छोटी बातें भी सार्थक हो उठती हैं, चाहे कहानी हो चाहे जीवन। कठिनाई यह है कि वह दिशा-संकेत निर्मल की कहानी में बड़ी सहजता से आता है और प्राय: ऐसी अप्रत्याशित जगह, जहाँ देखने के हम अभ्यस्त नहीं हैं। क्या जीवन में भी सत्य इसी प्रकार अप्रत्याशित रूप से यहीं कहीं साधारण से स्थल में निहित नहीं होता? (सिंह, पृ. 63-64)
मार्कण्डेय की कहानी समीक्षा में इन तथा सम्बन्धित पक्षों पर लगभग ब्यौरेवार टिप्पणी मिलती है—विशेषकर वहाँ जहाँ प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष सन्दर्भ नयी कहानी के सैद्धान्तिक चरित्र का है, या फिर वर्मा की चर्चित कहानी ‘परिन्दे’ का। साथ ही मार्कण्डेय का कहानी सम्बन्धी विश्लेषण असल में व्यापक समाज और संस्कृति के सरोकारों को सम्बोधित है, साहित्य से जुड़े हर मसले में उनका प्रस्थान-बिन्दु परिवेश का परिवर्तनधर्मी यथार्थ ही होता है। वर्मा पर मार्कण्डेय की सामान्य टिप्पणी यह है—
जहाँ तक मूल्यांकन का प्रश्न है, निर्मल अपने कहानी-लेखन के शुरुआत के दिनों छज्जे पर ही अटके रहते हैं, इसलिए ‘डायरी का खेल’ की ‘बिट्टो’ और ‘तीसरा गवाह’ की ‘नीरजा’ के स्थान-संकेत के लिए मकान की आखिरी मंजिल से अधिक रुचिकर स्थान उन्हें दूसरा नहीं जान पड़ता। शायद पात्रों को नीचे रखने से जनसम्पर्क का खतरा हो, शायद उनकी उदासी और उनके एकाकीपन की शुद्धता खण्डित हो, शायद नीचे के दु:खी जन-समुदाय में ऊपर की उदासी झूठी और बेमानी लगे, शायद ऊपर से दृश्याँकन की जो शैली लेखक ने अपना रखी है, उसे बदलना पड़े, शायद ऊपर उक्तियों के लिए ही जीवन हो, और अकेले में इन चमत्कृत करनेवाले वाक्यों के अर्थ-बोध से किसी का भी कोई मतलब न रहे, आदि कितने ही ऐसे कारण हो सकते हैं। और हो तो क्या हर्ज है, यदि वे कहानी के पाठ को उसके प्रासंगिक अभिप्राय के साथ आगे बढ़ाये, वे अर्थपूर्ण हों और आज की आधुनिकतम विचार-पद्धति में कुछ जोड़ सकें? लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं है। और है तो मात्र इतना कि लेखक जीवन की वास्तविकताओं से दूर किसी ऐसे रचना संसार में उड़ानें भरता है, जहाँ उसके भीतर का किशोर ही सब-कुछ है—जहाँ कल्पना का सिरजा हुआ दु:ख है, दु:ख की पुरानी लीक। (मार्कण्डेय, पृ. 17-18)
द्रष्टव्य है कि जिसे नामवर सिंह ‘सघन रचाव’ कहते हैं उसे मार्कण्डेय ‘जन सम्पर्क के खतरे से’ ग्रस्त मानसिकता कहकर पुकारते हैं। इसी तरह जिसे वर्मा ‘कलाकार का एक स्पर्श’ मानते हैं उसे मार्कण्डेय लेखक की उदासी और ‘एकाकीपन की शुद्धता’ कहकर पूरी तरह खारिज करना आवश्यक समझते हैं। सिंह की दृष्टि के केन्द्र में लेखक की निजी रचनाशीलता है तो मार्कण्डेय में लेखक नाम के उस व्यक्ति की सांस्कृतिक भूमिका है जो परिवेश को अपने ढंग से समझकर अपनी सामान्य प्रतीति को पाठक से साझा करना चाहता है। तभी मार्कण्डेय यह देख पाते हैं कि नयी कहानी का वर्मा-जैसा रचनाकार अपनी ‘शुद्धता’ बचाने में पूरी ताकत खर्च करता है, शुद्ध को खण्डित देखना रचनाकार को गवारा नहीं—जबकि सामाजिक सजगता का वाहक अन्य लेखक शुद्धता को ज्ञान के स्तर पर ले जाना चाहता है कि उसे निजता की शिक्षा का, उसके विकास का अवसर मिले। इस दूसरे लेखक की मंशा ‘प्रासंगिक अभिप्राय’ को आगे बढ़ाने की, अपने एहसास को ‘अर्थपूर्ण’ बनाने और इस तरह से ‘आज की आधुनिक विचार-पद्धति में कुछ जोड़ने’ के लिए सक्षम करने की है। ध्यान रहे कि मार्कण्डेय में निजता पर उतना बल नहीं है जितना ‘प्रासंगिक अभिप्राय’ पर, इस कारण वह अभिप्राय को वर्तमान की सच्चाई, उसकी सम्भावनाओं तक ले जाना अभीष्ट समझते हैं। यह एक साथ लेखक के विकास की, और उसके साथ-साथ परिवेशगत सच्चाई के विकास की पूर्व शर्त है। यदि यह न हुआ तो, जैसा मार्कण्डेय कहते हैं, लेखक जीवन की वास्तविकताओं से दूर रहेगा और ऐसे संसार में उड़ाने भरेगा ‘जहाँ उसके भीतर का किशार ही सब-कुछ है।’
यह अविकसित होने और रह जाने की सच्चाई है, जिसे सिंह सरीखे व्याख्याकार समझने में असफल रहे। दूसरी ओर, इस ठहराव, इस गतिविहीनता को वर्मा लम्बे समय तक, बल्कि आजीवन ढोने को बाध्य हैं—यह सिलसिला काफी बाद लिखी कहानी ‘लन्दन की एक रात’ तक जाता है। यहाँ मार्कण्डेय का तर्क एकबारगी वर्मा के, और साथ ही उनके अनेकानेक सहधर्मी रचनाकारों के कथासृजन से जुड़ जाता है। यह सार्थक अमूर्तन का, कुछ-कुछ सिद्धान्तीकरण का मसला है। वर्मा की कहानियों को उनकी सम्पूर्णता में देखते हुए मार्कण्डेय अमूर्तन का इस्तेमाल इस तरह करते हैं—
वस्तुत: नयी कहानी की पृष्ठभूमि ही आदर्श और रोमान की रही है। अधिकांश नये कहानीकार आजादी के बाद की आदर्शवादी उपलब्धि के दौरान किशोरावस्था से गुजर रहे थे, और उनकी चेतना में आजादी के बाद के जीवन की एक आशा भरी तस्वीर थी। लेकिन निरी कल्पना और रोमान के रंगों से बनी इस तस्वीर का रंग थोड़े ही दिनों में उड़ गया और नये लेखक तेजी से अपने परिवेश के प्रति जागरूक हुए। जिन्दगी की वास्तविकताओं ने उन्हें आ घेरा क्योंकि आदर्शों की यात्रा के लिए किसी अगली मंजिल की आकांक्षा पूरे समाज की चेतना में नहीं बन सकी। ऐसी स्थिति में समूची रचनात्मक चेतना का वर्तमान में सिमटकर एक नयी दृष्टि से जीवन के वास्तविक मूल्यों को आँकना अथवा उद्घाटित करना ही नयी वास्तविकता की कसौटी बन सकता था। (मार्कण्डेय, पृ. 18)
यहाँ मार्कण्डेय एक विशिष्ट सन्दर्भ की गहरी व्याख्या के सहारे नयी कहानी के सौन्दर्यमूल से, उसके ‘एस्थेटिक’ से लगभग पूरी तरह मुक्त हो जाते हैं और स्वयं को एवं पाठक को बतलाने लगते हैं कि ‘नयी दृष्टि से वास्तविक मूल्यों को आँकना अथवा उद्घाटित करना ही नयी वास्तविकता की कसौटी बन सकता था।’ तात्पर्य है कि यह नहीं हो पाया। इसका स्पष्ट कारण भी मार्कण्डेय देते हैं, क्योंकि वर्तमान चेतना ‘वर्तमान में सिमटकर’ रह गयी। जाहिर है कि वर्तमान एक लम्बे इतिहास, वास्तविक और सम्भावित का हिस्सा है, वरना वह मार्कण्डेय के शब्दों में ‘निरा वर्तमान’ है।
जिस संवाद की बात यहाँ कही गयी है उसकी परिणति मार्कण्डेय के इस कथन से होती है—
‘जब निर्मल की इधर की कुछ कहानियों के सिलसिले में लोग राष्ट्रीय-साहित्य की बात उठाते हैं, तो वे मूलत: अपनी अल्पज्ञता का परिचय देते हैं। परिवेश और पात्र की भिन्नता के कारण नहीं, वरन् अपनी मूल सृजनात्मक प्रेरणा के कारण लेखक भारतीय अथवा अभारतीय हो सकता है। दिल्ली और बम्बई के पात्रों को लेकर लिखी गयी कितनी ही रचनाएं भारतीय दृष्टि और चेतना से दूर हो सकती हैं। मूल बात यह है कि लेखक की दृष्टि समसामयिक भारतीय जीवन और इतिहास को मोड़ देनेवाली प्रवृत्तियों से जुड़ी हुई है या नहीं, अपने देश-काल की चेतना से लेखक का पूरा अस्तित्व आवेष्टित है या नहीं, अपने देश के जीवन की औसत वास्तविकताओं की समझ द्वारा लेखक का पूरा अस्तित्व आवेष्टित है या नहीं, अपने देश के जीवन की औसत वास्तविकताओं की समझ द्वारा लेखक अपने समकालीन समाज की आकांक्षाओं का साथ देता है या नहीं? इन्हीं प्रश्नों के उत्तर में शायद बहुत आसानी से कहा जा सकता है कि ‘लन्दन की एक रात’ जैसी कहानी एक सजग भारतीय लेखक ही लिख सकता है।’ (बल मेरा, मार्कण्डेय, पृ. 21)
‘बहुत आसानी से’ में कहानी आलोचना के एक हिस्से का गम्भीर सरलीकरण इंगित है। लेकिन जरूरी चीज है ‘समाज की आकांक्षाओं का साथ’ देना जो नयी कहानी में जल्द ही कमजोर होना शुरू हुआ और जिसका अंजाम नयी कहानी आन्दोलन का वैचारिक नेतृत्व हथियाने की जद्दोजहद में बदल गया। फिर, यह जद्दोजहद अन्तत: व्यक्तिगत हितों या मत-सम्मत की न होकर उस वर्गीय समाज की थी जहाँ बड़े हित, विमर्श और मूल्य टकरा रहे थे और जिन्हें उनकी सानुपातिकता और गहराई में दिखलानेवाली कथा परिप्रेक्ष्य के जटिल उभार की प्रक्रिया में उलझी थी।
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मार्कण्डेय की प्रासंगिकता का विशेष पहलू यह है कि वहाँ वक्ती सच्चाई के सन्दर्भ में वाम की आत्मालोचना भी शिद्दत से मौजूद है। दरअसल पचास के दशक का यथार्थवाद आकस्मात आग्रही हुआ था। उसके ऐतिहासिक कारण थे। बीस और तीस के दशकों की साहित्य चेतना जिसमें चिन्तन की अपार सम्भावनाएँ नजर आती थीं। आजादी पश्चात का वक्त आते-आते शासकीय सरोकारों और दबावों से घिरकर विचलन की स्थिति में प्रवेश कर गयी थी। स्वयं मनुष्य-समर्थक चिन्ताओं में अनिश्चितता अथवा अतिशय कटुता और तीव्रता का संचार मिलता था। उस समय के युवा मार्कण्डेय का चिन्तन इस प्रश्न से दो-चार होने का साहस कर रहा था और देखता था कि नये की दृष्टि से उपलब्ध को परखना आवश्यक है। इस क्रिया में साहस तो था ही, उत्साह भी था। मार्कण्डेय द्वारा की गयी यशपाल की व्याख्या पर गौर करें—यशपाल की नजर में, मनुष्य रूढ़ परम्परा, अन्धविश्वास, अज्ञान और कुण्ठा का पुञ्ज बन गया है। आर्थिक और सामाजिक दबाव से शोषक वर्ग ने उसकी मूल चेतना और उसके जीवन के बीच एक अनुर्वर पठार बना दिया है, जहाँ कोई भी बीज नहीं उगता। लाख जोतिये, बोइये, श्रम कीजिये, कोई लाभ नहीं। इसलिए जिन्हें जीवन प्रिय है, जो उसे बदलना चाहते हैं, उनका एकमात्र कर्तव्य है इस पठार को तोड़ना, रचना-दृष्टि और जीवन के यथार्थ के बीच पड़े धार्मिक अन्धविश्वास, रूढ़ परम्परा और कुण्ठा की परत को जड़ से उखाड़ फेंकना। नतीजा वही जो आदर्शवादियों का हुआ। वहाँ लेखक ने जीवन से ऊपर एक ऐसी आदर्श स्थिति को अपनी मान्यता का आधार बनाया, जो लेखक की दृष्टि में सत्यों की परम स्थिति थी। जीवन कल्पना के साँचों की वस्तु बन गया और सहज सामाजिक तर्क से कोई अर्थ न दे सकने के कारण रचना के सन्दर्भ से ही च्युत नहीं हुआ, रचनाकार की दृष्टि से भी ओझल हो गया। (मार्कण्डेय, पृ. 76)
यहाँ यशपाल की सीमा को दो स्तरों पर दिखलाया गया है—सरलीकरण और आदर्शवादी मानसिकता के स्तरों पर मार्कण्डेय की राय यह जान पड़ती है कि यशपाल ने परिवर्तनशील दृष्टि को किताबी अर्थ में ग्रहण किया है—इस कारण यशपाल को शोषक वर्ग के व्यवहार में द्वन्द्व नजर नहीं आता। तभी वह सामाजिक आलोचना को ‘एकमात्र कर्त्तव्य’ के अन्तर्गत इकहरा बनाते हैं। यहाँ मार्कण्डेय द्वारा ‘कल्पना के साँचों’ की बात की गयी है, जो जाहिर है नकलीपन का द्योतक है। तीस के दशक में यथार्थवाद से जुड़नेवाले कई रचनाकारों का यथार्थबोध एकांगी हो चला था—‘धार्मिक अन्धविश्वास, रूढ़ परम्परा और कुण्ठा की परत को जड़ से उखाड़ फेंकना’ उनकी समझ का अटूट हिस्सा बन गया था। फिर यह पैंतरा आजादी के बाद भी अपनी जगह कायम था। पचास-दशक के प्रतिबद्ध युवा रचनाकारों-चिन्तकों को यह अटपटा महसूस होता था। जहाँ तक आदर्शवाद का सम्बन्ध है, वह भी परिवर्तन-विचार से सम्बद्ध लेखकों को अपनी गिरफ्त में लिये था। आदर्श के कोण से, ‘सत्यों की परम स्थिति’ के नजरिये से देखें तो वह तत्त्व बहुत कम बच रहता है जिसे समर्थन दिया जा सके। मार्कण्डेय के अनुसार यशपाल की कठिनाई असल में यह थी। दूसरे, पचास के दशक में यशपाल विशेषकर कहानियाँ लिख रहे थे जिनकी धार बोधकथा-सरीखी दो टूक और तीखी थी, और जो किसी-न-किसी समस्या को केन्द्र में रखकर सामाजिक रवैये पर चोट करती थी। मार्कण्डेय ने लिखा—
फलत: यशपाल ने जाहिरा तौर पर जीवन की जिन समस्याओं का चुनाव किया वे प्रगतिशील तो थीं, लेकिन उनसे कहानी की मूल प्रकृति पर कोई असर नहीं आया। कल्पना की देह पर जहाँ आदर्शों की सफेद टोपी थी वहीं, अब लाल कर दी गयी। नतीजा यह हुआ कि कहानी न घर की रही, न घाट की। आदर्शवादियों के साथ थोथी कल्पनाओं के नकली कथानकों का एक हद तक मेल इस मानी में था कि कहानी परम्परा से चले आनेवाले पारिवारिक भावुकतापूर्ण सम्बन्धों का पूरी तरह शोषण करके एक भीगा-भीगा-सा वातावरण उपस्थित करने में समर्थ थी, और इस युग के लेखकों ने शायद इसी कारण परिवार की सीमाओं का जमकर उपयोग किया। यशपाल को इन परम्परा-विहीन मान्यताओं से विरोध था, कहानी की मूल धारणा से नहीं, इसलिए जीवन की विषमताओं में उभरनेवाले यथार्थ चरित्रों की सृष्टि उनके लिए सम्भव नहीं हो सकी। (मार्कण्डेय, पृ. 77)
यहाँ कहानी रूप का गम्भीर पक्ष बहस तलब है, जिसके अन्तर्गत लेखकीय दृष्टि तो आती ही है, संवेदना के छुपे स्तर भी प्रकट होते हैं। लेखक के हाथों जो पात्र के चुनाव में घटित होता है वह असल में संवेदना का ही कोई कोना दर्शाता है। यहाँ मार्कण्डेय द्वारा प्रयुक्त ‘विषमताओं में उभरनेवाले यथार्थ चरित्रों की सृष्टि’ पर नजर डालें तो पायेंगे कि पात्र लेखक की कल्पना में जन्म न लेकर जीवन-स्थितियों में जन्म लेते हैं, वहाँ उनकी वास्तविकता का गहरा आयाम रहता है। तब लेखक का काम है कथित वास्तविकता पर पैनी निगाह डालना और पात्र की मूर्तता को पकड़ना फिर, जन्म लेना एक चीज है और लेखक के हाथों ‘सृष्ट’ होना, रचित होना दूसरी। यहाँ लेखक की कल्पनाशीलता और उसकी रचना-क्षमता पर निर्भर करता है कि कितनी मूर्तता के साथ पात्र को पाठकीय संसार में प्रक्षेपित किया गया है। उक्त कथन में यह भी नजर आता है कि मार्कण्डेय जिसे मुक्तिबोध ने ‘सृजन का क्षण’ कहा है कितनी सूक्ष्मता से समझते हैं। क्या यशपाल में पात्रों का निर्माण करने की यह कल्पनाजन्य क्षमता है? मार्कण्डेय इसे प्रेमचन्दोत्तर चालीस के दशक की कथित यथार्थवादी कथा से जोड़ते हैं और पाते हैं कि या तो यह कमजोर यथार्थवाद की है, जिसके अधीन वह मानते हैं कि यशपाल आदर्शवाद के चरित्र को समझ लें और सम्बन्धित पक्षों पर आलोचकीय रवैया अपनायें तो एक सीमा तक यथार्थवादी दिशा में बढ़ सकते हैं। तब यशपाल की यान्त्रिकता में कमी आयेगी और वह कथा के चरित्रों को गतिशील द्वन्द्वात्मकता से लैस कर पायेंगे।
अन्त में प्रश्न उठता है कि इस पुस्तक के लेखों का मूल दृष्टिकोण नयी कहानी धारा को कितना स्वीकार करता है कितना वह इस धारा के लेखकों को समर्थन या सहानुभूति प्रदान करता है और कितना उनकी सीमाओं अथवा मुश्किलों को रेखाँकन करता है। यह तो मसलन साफ है कि जिस तरह देवीशंकर अवस्थी, नामवर सिंह, राजेन्द्र यादव आदि नयी कहानी को लकीर के एक तरफ मानकर चलते हैं वैसा मार्कण्डेय नहीं करते। इस कारण वह बार-बार अपने विवेचनों में यथार्थवाद, चित्रण, प्रकृतवाद, लेखकीय संवेदना आदि को लाते हैं। अवस्थी, यादव आदि की चिन्ताएँ राजनीतिक-सामाजिक नहीं हैं, न वे साहित्य को संस्कृति के विशेष आयाम की तरह मानते हैं। इसके विपरीत मार्कण्डेय साहित्यिक रचनाओं की व्याख्या उन्हें देश-समाज की व्यापक समस्याओं के बीच रखकर ही करते हैं। इस पुस्तक के निबन्ध यह स्थापित करते हैं कि साहित्य की अर्थवत्ता का स्रोत विकासमान और परिवर्तनधर्मी समाज ही है, वहीं से रचना को ऊर्जा मिलती है और वहीं रचना की मनुष्य-समर्थक सक्रियता और भूमिका का वास्तविक निर्माण होता है। मसलन, अमरकान्त के हवाले से मार्कण्डेय कहते हैं कि—
जीवन के बाहर वह परम शक्ति, जो कभी सारे आनन्दों का केन्द्र थी आज प्रेरणाहीन हो उठी है और मनुष्य आकाश के बजाय जमीन को देखने लगा है। इसलिए आनन्द और वास्तविक परिवेश-विहीनता का वह काल प्राय: समाप्त हो चला है। यह संसार ही प्रमुख स्थल है, और इस कारण यह जीवन ही आनन्द का स्रोत हो सकता है। इसलिए आज की कला जीवन के आधुनिकतम साक्ष्य में ही आधुनिक वस्तु की प्राप्ति कर सकती है। ऊपरवाले की तरह जीवन कोई ठहरा हुआ भावबोध नहीं, वरन एक निरन्तर परिवर्तनशील सचेत प्रक्रिया है, जिसमें समय और उसके अन्तराल का बड़ा महत्त्व है। त्रिभुज के तीन कोणों पर लेखक की चेतना, पात्र की चेतना और उसका परिवेश तथा युग-बोध, जिसे तत्कालीन समाज की औसत सच्चाई की चेतना कह सकते हैं, बैठे हुए हैं। इन्हीं के पारस्परिक समवाय से नये जीवन की अधिकतम वास्तविकताओं का चित्रण सम्भव है। (मार्कण्डेय, पृ. 32-33)
यहाँ समाज के सार्थक पक्ष को सिद्धान्त के स्तर पर परिभाषित किया गया है। इसे मार्कण्डेय की कथा-समीक्षा में अमूर्तन का जरूरी हस्तक्षेप कहा जा सकता है। इस उद्धरण में जो चीज प्रभावित करती है वह है सांस्कृतिक माहौल पर लेखक की बेलाग टिप्पणी। पूरी पुस्तक में व्याप्त तर्कशीलता का यह तेवर सहमति-असहमति से आगे विचारवान पाठक को सोच के अनेक बिन्दु प्रदान करता है। पुस्तक की सार्थकता इसकी समयबद्धता और प्रश्नशीलता में है।
सन्दर्भ-
1. अवस्थी, देवीशंकर, सं.
नयी कहानी
: सन्दर्भ और प्रकृति, दिल्ली, राजकमल,
1973
2. त्रिपाठी, प्रकाश, सं.
मार्कण्डेय
: परम्परा और विकास, इलाहाबाद : वचन
पब्लिकेशन्स, 2010
3. बलभद्र और दुर्गाप्रसाद,
सं., चक्रधर
की साहित्यधारा
: मार्कण्डेय का साहित्य संवाद,
इलाहाबाद, लोकभारती, 2012
4. मार्कण्डेय, कहानी
की बात,
इलाहाबाद, लोकभारती, 1989
5. सिंह, नामवर, कहानी
: नयी कहानी,
इलाहाबाद, लोकभारती, 1989
6. यादव, राजेन्द्र, सं.
एक दुनिया
समानान्तर, नयी दिल्ली, राधाकृष्ण, 1993
('लेखक मंच' ब्लॉग से साभार)
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