अरुण माहेश्वरी





भारतीय वामपंथ के समक्ष कुछ जरूरी मुद्दे: वामपंथ के पुनर्गठन का एक प्रस्ताव



{“आत्मालोचना क्रियात्मक और निर्मम होनी चाहिए क्योंकि उसकी प्रभावकारिता परिशुद्ध रूप में उसके दयाहीन होने में ही निहित है। यथार्थ में ऐसा हुआ है कि आत्मालोचना और कुछ नहीं केवल सुंदर भाषणों और अर्थहीन घोषणाओं के लिए एक अवसर प्रदान करती है। इस तरह आत्मालोचना का ‘संसदीकरण हो गया है’।”(अन्तोनियो ग्राम्शी: राजसत्ता और नागरिक समाज)}



1. सशस्त्र नवंबर क्रांति ने 1917 में रूस में जो नयी व्यवस्था कायम की वह 70 वर्ष चली। 1989 में उसका पतन कुछ इस प्रकार हुआ जैसे कोई सूखा पत्ता पेड़ से अनायास ही गिर जाता है। उस सत्ता परिवर्तन के अंतिम दिन जब सोवियत सत्ता की ओर से सड़कों पर टैंक उतारे गयें, तब वही टैंक येलत्सीन की वीरता के प्रदर्शन के मंच बन गये। क्रांति और प्रतिक्रांति के अनिवार्य रूप से हथियारबंद और हिंसक होने अर्थात इतिहास में बलप्रयोग को लेकर एक प्रकार की अंधआस्था वाले मस्तिष्कों को उस घटना ने चौकाया था, क्योंकि मार्क्स की समझ के ठीक विपरीत उन्होंने सिर्फ इतिहास की ही नहीं, ऐतिहासिक परिघटनाओं के स्वरूपों अर्थात बलप्रयोग की सूरतों की भी अपनी खास प्रकार की अपरिवर्तनशील चौखटाबंद समझ विकसित कर ली थी। जिस प्रकार उंगली के इशारों पर उस पूरी व्यवस्था का अंत हुआ, उससे एक बात साफ थी कि उस समाज के लिये वैसी ‘समाजवादी व्यवस्था’ की कोई उपयोगिता नहीं रह गयी थी, जैसी तत्कालीन सोवियत संघ में थी। प्रो. रणधीर सिंह के शब्दों में,  ‘It was a system virtually ready for history’s boom.’



2. 15वीं लोकसभा के चुनाव परिणामों के संदर्भ में सोवियत संघ के उस ऐतिहासिक घटनाक्रम का स्मरण अप्रासंगिक नहीं है। इसी लेखक ने पश्चिम बंगाल में लगातार छठी बार वाममोर्चा सरकार की जीत के संदर्भ में एक पूरी किताब लिखी है: ‘पश्चिम बंगाल में मौन क्रांति’। दुनिया के इतिहास की यह विरल घटना कि किसी पूंजीवादी-सामंती राजसत्ता वाले संघीय गणतंत्र के एक अंग राज्य में लगातार 30 वर्षों तक कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व का मोर्चा चुनाव में जनता के मतदान से विजयी होता जा रहा है, यह किसी के लिये भी इसके सामाजिक निहितार्थों के गंभीर अध्ययन की मांग करता है। इसी जरूरत के तहत लिखी गयी वह पूरी पुस्तक पश्चिम बंगाल के ग्रामीण क्षेत्र में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में किये गये व्यापक सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों, सत्ता के संतुलन में आये बदलाव के इतिहास का आख्यान बन गयी और बिल्कुल सही उस पूरे सामाजिक उपक्रम को एक ‘मौन क्रांति’ की संज्ञा प्रदान की गयी। लेकिन उसी पुस्तक के उपसंहार में इस दौरान सामने आए नये सामाजिक यथार्थ और उसके कार्यभारों के संदर्भ में सीपीआई(एम) को सैद्धांतिक और व्यवहारिक, दोनों स्तरों पर खुद को नये सिरे से प्रासंगिक बनाने की जिस नितांत जरूरी जद्दोजहद की ओर संकेत किया गया है, यही वह पहलू है जिसका सीधा संबंध पिछले लोकसभा चुनाव और उससे जुड़े तमाम प्रसंगों से है।



3.ग्रामीण सत्ता-संरचना में परिवर्तन जनतंत्र के बाकी कार्यभारों को तेजी से उभार कर सामने लाता है। इनमें शहरीकरण और औद्योगीकरण के प्रश्न शामिल है। इन प्रश्नों के आर्थिक पहलू के अलावा व्यापक सांस्कृतिक पहलू भी है, जिन्हें आधुनिक जीवन की नैतिकता की समस्याएं कहा जा सकता है। इन समस्याओं का समाधान ग्रामीण ‘मौन क्रांति’ की प्रभुत्व शैली (Hegemony) से हासिल नहीं किया जा सकता है। यह जनता के व्यापक समर्थन पर टिकी हुई पूंजीवादी जनतांत्रिक व्यवस्था में रहते हुए एक जन-क्रांतिकारी रणनीति को तैयार करने की समस्या है। राजसत्ता के दमनकारी उपायों से इस व्यवस्था के लिये जनता के व्यापक हिस्सों का समर्थन हासिल नहीं किया गया है। बनिस्बत घुमा कर कहे तो कहा जा सकता है कि लोगों का बड़ा हिस्सा चीजों को चलाने की उस प्रणाली से खुश है, जिस प्रणाली पर पूंजीपति वर्ग उन्हें चलाना चाहता हैं।



4. इसीलिये वामपंथियों के सामने इस खास जनतांत्रिक नैतिकता के निर्वाह के साथ क्रांतिकारी विकल्प तैयार करने की समस्या है। और, गौर करने लायक बात यह है कि आधुनिक जीवन की जनतांत्रिक नैतिकता के ऐसे ही तमाम प्रश्न हैं जिनके सही समाधान देने में असमर्थ विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन आज तक पूंजीवादी जनतंत्र की चुनौतियों के सामने लचर दिखाई पड़ता है। इटली के कम्युनिस्ट विचारक ग्राम्शी ने अपने प्रभुत्व सिद्धांत के तहत योरोपीय परिस्थितियों में कम्युनिस्टों के प्रमुख कार्यभारों में विचारधारात्मक और नैतिक स्तर पर अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने की जिस चुनौती की बात कही थी, यूरोकम्युनिज्म से लेकर फ्रांस के 60 के दशक के कैम्पस विद्रोह तक की सारी कोशिशों
का मूल सार किसी न किसी रूप में इन्हीं प्रश्नों का उत्तर हासिल करना था। ये जनतंत्र की नैतिक चुनौतियां है। सभ्य समाज के इन नैतिक प्रश्नों को ऐसे ही दरकिनार नहीं किया जा सकता है। खुद मार्क्स ने सारा जीवन जनतंत्र और स्वतंत्रता के इन्हीं मूल्यों के लिये संघर्ष किया। मसलन, अखबारों की स्वतंत्रता की बात को ही लिया जाए। मार्क्स ने लिखा, “अखबारों की स्वतंत्रता की अनुपस्थिति अन्य सभी स्वतंत्रताओं को कोरा भ्रम बना देती है। स्वतंत्रता का एक रूप ठीक वैसे ही दूसरे को शासित करता है जैसे शरीर का एक अंग दूसरे को करता है। जब भी किसी एक स्वतंत्रता पर प्रश्न उठाया जाता है तो स्वतंत्रता के सामान्य रूप पर प्रश्न उठा दिया जाता है। जब स्वतंत्रता के एक रूप को खारिज किया जाता है तो सामान्य तौर पर स्वतंत्रता को ही खारिज कर दिया जाता है।” मार्क्स के लेखन में जनतंत्र के प्रति अटूट निष्ठा के भी ऐसे असंख्य उदाहरण मौजूद है।



5. लेनिन ने एक देश में समाजवादी क्रांति की संभाव्यता पर अपने समय में चली ऐतिहासिक बहस में कहा था कि जब विकसित औद्योगिक देशों में क्रांति होगी तब विश्व समाजवाद का नेतृत्व भी उन्हीं देशों के हाथ में होगा। यहां वे सिर्फ विकसित देशों की आर्थिक शक्ति की ओर ही संकेत नहीं कर रहे थे, उनका संकेत कुछ ऐसी सामाजिक-आर्थिक और बौद्धिक संरचनाओं की ओर भी था जो आधुनिक समाज की जरूरतों से उत्पन्न हुए थे, मानव सभ्यता की प्रगति के सूचक थे और उन्हें पिछड़े हुए देशों की परिस्थितियों में प्राप्त नहीं किया जा सकता था। लेनिन के शब्दों में,“समाजवाद बड़े पैमाने के पूंजीवाद द्वारा सृजित तकनीकी और सांस्कृतिक उपलब्धियों के उपयोग के बिना असंभव है।”(जोर हमारा) यहां ‘सांस्कृतिक’ शब्द पर गौर करने की जरूरत है।



6. इन सबके बावजूद, आज भी जनतंत्रीकरण कम्युनिस्ट पार्टी के सांगठनिक ढांचे की एक बड़ी समस्या बना हुआ है। इसका प्रमाण यह है कि जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद की सैद्धांतिकी के बारे में व्यापक सहमति के बावजूद संकट के हर नये मुकाम पर इसी सांगठनिक सिद्धांत को कसौटी पर चढ़ाया जाता है और आज तक कम्युनिस्ट आंदोलन के दायरे में इस सिद्धांत के औचित्य-अनौचित्य पर एक प्रकार की अंतहीन बहस जारी है। जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद संगठन के ढांचे को तैयार करने का एक औपचारिक सिद्धांत तो बना हुआ है, प्रश्न इसे संगठन के संचालन की आभ्यांतरित संस्कृति में तब्दील करने का है। गहराई से देखने पर पता चलता है कि जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद के बजाय संगठन नौकरशाही कमांड व्यवस्था और पूरी तरह से पूंजीवादी नवउदारतावाद की दो अतियों के बीच डोल रहा है। यह रूझान पार्टी की कार्यनीतिक लाइन को भी समान रूप से कैसे प्रभावित करता है, इसे हम आगे देखेंगे।



7. जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद की तरह ही जनतांत्रिक दुनिया के कम्युनिस्ट आंदोलन में दूसरे जिस पद पर सबसे अधिक विवाद हुआ है, वह है ‘सर्वहारा की तानाशाही” का पद। रूसी क्रांति के कुछ दिनों बाद ही 1920 में बर्टेंड रसल रूस की यात्रा पर गये थे और उन्होंने लेनिन, ट्राटस्की और गोर्की से भी मुलाकात की थी। उस यात्रा के बाद ही उन्होंने एक किताब लिखी, ‘द प्रैक्टिस एंड थ्योरी आफ बोलशेविज्म’। इसमें वे अपने अनुभवों से बताते हैं कि “ब्रिटेन में स्थित रूस के मित्र जब सर्वहारा की चर्चा करते है तब वे शाब्दिक अर्थ में सर्वहारा की ही बात कर रहे होते हैं, और जब वे तानाशाही की बात करते है, तब वे उच्च स्तरीय जनतंत्र कह रहे होते हैं, लेकिन रूस के कम्युनिस्ट जब सर्वहारा की बात करते हैं तो इससे उनका तात्पर्य रूस की कम्युनिस्ट पार्टी से होता है, और जब तानाशाही की बात करते हैं, तब वे शाब्दिक अर्थ में तानाशाही की चर्चा कर रहे होते हैं।” दरअसल शब्द संप्रेषण के औजार होते हैं। जिन शब्दों से हम अपने आशय को पूरी तरह से संप्रेषित नहीं कर सकते, उनसे चिपके रहना कहा की बुद्धिमानी है। पानी का जिक्र करते समय उसे उसके वैज्ञानिक नाम 'एच टू ओ' से पुकारना कोई मायने नहीं रखता। इसी प्रकार किसी भी जनतांत्रिक राजनीतिक विमर्श में ‘सर्वहारा की तानाशाही’ पद के प्रयोग से पैदा होने वाले विभ्रम की आशंका को बनाये रखने का क्या मायने है? सोवियत संघ के पराभव के कारण के तौर पर आज सर्वस्वीकृत ढंग से सर्वहारा की तानाशाही के पार्टी की तानाशाही में और फिर पार्टी की तानाशाही के शुद्ध रूप में पार्टी के प्रभुत्वशाली गुट और फिर एक व्यक्ति की तानाशाही में बदल जाने की जो बात कही जाती है, उससे भी सर्वहारा की तानाशाही संबंधी इस बहस के तात्पर्य को समझा जा सकता है.



8. कम्युनिस्ट पार्टियां संगठन के जिस कथित लेनिनवादी सिद्धांत पर बल देती है, उसी के प्रवक्ता लेनिन नहीं मानते थे कि पार्टी के संगठन का कोई सार्विक और सर्वमान्य ढांचा होता है। वे पार्टी को सामाजिक रूपांतरण की खास ऐतिहासिक, राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों में वर्ग संघर्ष को
निश्चित राजनीतिक दिशा प्रदान करने का उपकरण मानते थे। पार्टी संगठन से उनकी यही अपेक्षा थी कि वह हर देश के यथार्थ के अनुरूप हो और संघर्षों की वास्तविक जरूरतों को पूरा करे। उनके शब्दों में, “कम्युनिस्ट पार्टियों के संगठन का ऐसा कोई अंतिम (Absolute) रूप नहीं है, जिसे हर स्थान और काल के लिये सही माना जाए। संघर्षरत सर्वहारा वर्ग की परिस्थितियां लगातार बदल रही है, और इसीलिये सर्वहारा के हरावल को भी हमेशा संगठन के प्रभावशाली रूप की तलाश करनी होगी। इसी प्रकार, किसी भी देश की खास ऐतिहासिक परिस्थितियों की जरूरतों को पूरा करने के लिये प्रत्येक पार्टी को संगठन के अपने विशेष रूपों को विकसित करना होगा।”



9. संगठन की विफलता सामाजिक यथार्थ और विश्व परिस्थितियों की समझ में कमी की भी सूचक होती है; अर्थात सांगठनिक समस्या का सीधा संबंध पार्टी के कार्यक्रम की समस्या से है। पूंजीवाद की विफलताओं और जनता के व्यापक असंतोष ने भारत में यत्र-तत्र वामपंथ को आगे बढ़ने के बड़े अवसर दिये। विभिन्न स्तर के निकायों के चुनावों में काफी जीतें हासिल हुई। एकाधिक राज्यों में सरकार बनाने का अवसर मिला। इन्हीं अनुभवों से पार्टी कार्यक्रम में ऐसी सरकारों की भूमिका को सुनिश्चित  करने वाली धाराएं (पूर्व कार्यक्रम की धारा 112 और सन् 2000 में त्रिवेंद्रम के विशेष सम्मेलन द्वारा पारित कार्यक्रम की धारा 7.17) जुड़ीं, वर्ना अन्तर्राष्ट्रीय  कम्युनिस्ट आंदोलन के अनुभवों से बनाये गये पार्टी के कार्यक्रम में चुनाव के बल पर किसी संघीय गणतंत्र के अंगराज्य में भी सरकार बनाने की संभावनाओं तक का अनुमान नहीं लगाया गया था, केंद्र सरकार में जाना तो दूर की बात। बोल्शेविक उसूलों में चुनाव में बहुमत प्राप्ति के जरिये सत्ता पर आना पूरी तरह से असंभव माना जाता था। 1996 में ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाने के सवाल पर चली बहस के समय पार्टी कार्यक्रम में केंद्र में सरकार बनाने की इस प्रकार की किसी संभावना के बारे में दिशा-निर्देश न होना भी चर्चा का एक विषय था और केंद्रीय कमेटी के उक्त फैसले के ठीक बाद हुई सी पी आई (एम) की पार्टी कांग्रेस में ही कार्यक्रम में संशोधन करके इस प्रकार की संभावना के लिये स्पष्ट व्यवस्था की गयी। कहने का तात्पर्य यह कि लेनिन की समझ के अनुसार भारतीय संविधान और भारत की ठोस राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियों के साथ संगति रखते हुए पार्टी के कार्यक्रम और संगठन संबंधी निर्णय लिये गये होते, तो अपनी रणनीति और कार्यनीति को कहीं ज्यादा सही और कारगर बनाया जा सकता था, अपने ही कामों का कहीं ज्यादा सही आकलन किया जा सकता था। यह तो जैसे अनायास ही पार्टी के संघर्षों ने अपने प्रभाव के राज्यों के ग्रामीण क्षेत्रों में सत्ता के संतुलन को बदल कर ऐसा परिवर्तन कर दिया कि जिसे ‘मौन क्रांति’ कहा जा सकता है। फिर भी आज तक इन अत्यंत महत्वपूर्ण अनुभवों के आधार पर भारतीय क्रांति के अब तक के विकास पथ का एक सुसंगत सैद्धांतिक ढांचा तैयार करने में पार्टी की प्रकट विफलता बेहद चौंकाने वाली है। पश्चिम बंगाल के राजनीतिक घटनाक्रम के सिलसिलेवार अध्ययन के उपरांत उसे ‘मौन क्रांति’ का नाम इस अदने से लेखक ने दिया है, पार्टी के लिये इस प्रकार का दावा आज भी उसकी कल्पना के बाहर है। अपने खुद के अनुभवों का सही आकलन न कर पाना किसी के लिये भी आगे के सही वस्तुनिष्ठ रास्ते को निर्धारित करना कठिन बना देता है। भारतीय वामपंथ के साथ भी कहीं ऐसा ही कुछ तो नहीं घट रहा है?



10. भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन का इतिहास ऐसी कई बातों को सामने लाता है। यहां के कम्युनिस्ट नेतृत्व ने दुनिया के दूसरे देशो  की कम्युनिस्ट पार्टियों की तरह ही ‘कम्युनिस्ट अन्तर्राष्ट्रीय' को मुख्य रूप से अपने दिशा निदेशक के तौर पर स्वीकारा था। इससे पार्टी के कार्यक्रम और संगठन के निर्माण में उसे जहां कुछ तैयारशुदा सूत्र मिल गये, वहीं उन सूत्रों को देश की ठोस परिस्थितियों के अनुसार ढाल कर अपनाने में उसे काफी ज्यादा शक्ति और समय जाया करने का हरजाना भी देना पड़ा है। कभी-कभी तो उसकी समग्र नीतियां सोवियत संघ की विदेश नीति के हितों के ज्यादा अनुरूप रही, भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन के विकास के हितों के अनुरूप नहीं। कम्युनिस्ट आंदोलन के शुरूआती दौर की कमियों को मार्क्सवाद के प्रयोग का ककहरा सीखने वाले शिशु  की स्वाभाविक समस्या माना जा सकता है। वह दौर भी एक केंद्र से पूरे विश्व के कम्युनिस्ट आंदोलन को संचालित करने के कठमुल्ला सोच का दौर था। कम्युनिस्ट अन्तर्राष्ट्रीय के दस्तावेजों में उन दिनों जिस अधिकार और जोशो-खरोश के साथ सारी दुनिया के घटनाक्रमों के बारे में राय दी जाती थी, वह आज काफी आश्चर्यजनक लगता है। लेकिन, तब से अब तक विश्व  कम्युनिस्ट आंदोलन का पूरा दृश्य-पट ही बदल गया है। एक केंद्र से सब देशों की कम्युनिस्ट पार्टियों को संचालित करने की आज कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है। भारत के कम्युनिस्टों ने क्रांति के निर्यात की एक सबसे हास्यास्पद कोशिश भारत में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की शह पर तैयार किये जा रहे मुक्तांचलों के रूप में देखी थी। इसके बावजूद समग्रतः विचार करने पर लगता है जैसे आज भी सोच-विचार की अपनी खुद की पद्धति के विकास की ऐतिहासिक अक्षमता से भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन को उबरना बाकी है। यह काम भारत की वास्तविक परिस्थिति के विश्लेषण, संघर्ष की यहां की परंपरा की पहचान तथा परिवर्तन की संभावनाओं की ठोस समझ के आधार पर ही शुरू किया जा सकता है।



11. आज तक जाति और वर्ग के संबंधों की पहेली अबूझ बनी हुई है। भारतीय समाज में जाति प्रथा एक क्षयिष्णु संस्था है। पूंजीवादी विकास के साथ-साथ इसकी मृत्यु अवधारित है। तथापि, राजनीति में जातिवाद का प्रभाव काफी उग्र दिखाई देता है। यह गरीबों और गरीबों को आपस में लड़ाने का शासक वर्गों का सबसे जघन्य हथियार है, और इसीलिये 1967 के बाद के भारी राजनीतिक उथल-पुथल के दौर में जातिवाद का प्रयोग पूंजीवादी-सामंती ताकतों द्वारा अपने वर्चस्व को कायम रखने की वैसी ही एक बदहवास प्रतिक्रियावादी कोशिश रही है, जैसी सांप्रदायिकता के जरिये है। साम्राज्यवाद के बरक्स भी जातिवादी पार्टियों की स्थिति कम खतरनाक नहीं है। कभी बहुजन समाज पार्टी को बिल्कुल सही, भारतीय राजनीति में अमेरिकी हस्तक्षेप के तौर पर देखा जाता था। लेकिन अब बसपा सहित सभी प्रकार की जातिवादी और नग्न साम्राज्यवाद-परस्त ताकतों को तीसरे विकल्प की ताकतों के तौर पर सम्मानित स्थान पर रखा जाता है। ऐसा कोई भी मोर्चा क्या कभी साम्राज्यवाद-विरोधी, सामंतवाद-विरोधी जनतांत्रिक मोर्चे के निर्माण के मार्ग को प्रशस्त कर सकता है? जातिवादी राजनीति के चरम प्रतिक्रियावादी रूप के प्रति कम्युनिस्ट आंदोलन की साफ समझ के अभाव के कारण ही उसने हिंदी प्रदेशों में पूरे कम्युनिस्ट आंदोलन को लील लिया है।



12. आजादी की लड़ाई के दौरान कांग्रेस के साथ कम्युनिस्टों के संबंधों का अपना एक लंबा इतिहास है। कांग्रेस के साथ कभी ऊपर से तो कभी नीचे से संयुक्त मोर्चा बनाना, कभी उसके अंदर रह कर काम करना, कभी पूरी तरह से स्वतंत्र रहना - आजादी की लड़ाई के दौरान भारत के कम्युनिस्टों की इन कार्यनीतियों का गहरा संबंध भारत के राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन के बारे में कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के आकलन में समय-समय पर होने वाले बदलावों से जुड़ा रहा है। इसकी मूल दिशा औपनिवेशिक गुलामी से मुक्ति की लड़ाई को तेज करने की ही रही। लेकिन सन् 1942 के समय आश्चर्यजनक रूप में इसमें एक बुनियादी फर्क दिखाई दिया। शुरू में जिस विश्वयुद्ध को साम्राज्यवादी युद्ध मान कर उसके प्रति अपना रुख तय किया गया था, उसी युद्ध को सोवियत संघ पर हिटलर के हमले के बाद ब्रिटिश कम्युनिस्ट नेता हैरी पाॅलिट के निर्देश पर जनयुद्ध घोषित किया गया, जब कि तब भी युद्ध की प्रमुख शक्तियां साम्राज्यवादी ही थी। फलतः कम्युनिस्ट पार्टी तत्कालीन ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन के लगभग विरोध में खड़ी दिखाई दी। उस काल में फासिस्टों और नाजियों के खिलाफ मित्र शक्तियों में शामिल ब्रिटिश सरकार के प्रति क्या रुख अपनाया जाए, इस सवाल पर तत्कालीन पूरे राजनीतिक क्षेत्र में व्यापक भ्रांतियां थी। कांग्रेस के मंच पर भी इस विषय में नाना प्रकार की आवाजें सुनाई देती थी। कम्युनिस्ट पार्टी के आकलन के मूल में विश्व परिस्थिति का यह आकलन भी काम कर रहा था कि नाजियों और फासिस्टों के खिलाफ मित्र शक्तियों की जीत से उपनिवेशवाद के खात्मे के युग का श्रीगणेश होगा। बाद का समूचा घटनाक्रम इस आकलन के सच को प्रमाणित करता है। इसके बावजूद यह भी एक बड़ी सचाई है कि सन् 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन से अपने को अलग रखने के कारण उस समय पार्टी भारत की आम जनता से काफी अलग-थलग हो गयी, जिसके लिये आज तक कम्युनिस्ट आंदोलन से सफाई मांगी जाती है। और, आज तक यह सवाल अनुत्तरित ही है कि भारत में तब ब्रिटिश सरकार के प्रति अपनाए गये नरम रवैये से हिटलर के खिलाफ सोवियत संघ को अपनी लड़ाई में क्या मदद मिली? दुनिया के किसी भी कोने में कम्युनिस्टों का जनाधार बढ़ने से साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष को बल मिल सकता है, किसी भी वजह से उसमें कमी से नहीं। लेनिन के शब्दों में, “केवल एक ही प्रकार की व्यवहारिक अन्तर्राष्ट्रीयता है अर्थात अपने ही देश में क्रांतिकारी आंदोलन के विकास के लिए हार्दिक उद्योग करना और प्रत्येक देश के इसी प्रकार के आंदोलन का समर्थन (प्रचार, सहानुभूति और सम्मान के द्वारा) करना।” आचार्य नरेन्द्रदेव ने इसी संदर्भ में बिल्कुल सही कहा था कि “इसको छोड़ कर सब आत्मप्रवंचना है।”



13. अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन से प्राप्त ‘क्रांति के विज्ञान’ के सूत्रों का अंधानुकरण ही रूसी क्रांति की तर्ज पर सत्ता के केंद्रों को आकस्मिक विद्रोह के जरिये दखल करों की सन् 1948 की दूसरी पार्टी कांग्रेस की संकीर्णतावादी लाईन का कारण बना और पुनः उसके बाद चीन के ‘लांग मार्च’ की तर्ज पर तेलंगाना के सीमित किसान संघर्ष को सत्ता दखल करने की लड़ाई तक खींचने की दूसरी बड़ी गलती का सबब बना। 62 वर्षों के संसदीय जनतंत्र के लंबे राजनीतिक इतिहास के अनुभवों के बावजूद इसकी सीखों को भारतीय क्रांति की अपनी समझ में शामिल करने के स्वतःस्फूर्त प्रयत्न आज भी नदारद हैं; जनता के जनवादी राज्य में बहुदलीय व्यवस्था की तरह की चीजों को स्वीकारने का कारण भी भारतीय राजनीति के अनुभव नहीं, सोवियत संघ में समाजवाद के पराभव के अनुभव रहे हैं। “यह प्रश्न कि (समाजवाद के तहत) अन्य राजनीतिक पार्टियां रहेगी या बहुदलीय व्यवस्था कायम रहेगी, क्रांति और सामाजिक रूपांतरण की प्रक्रिया में इन पार्टियों द्वारा निभाई जाने वाली भूमिका पर मुख्य रूप से निर्भर करता है।”(‘कुछ विचारधारात्मक प्रश्नों पर’, सोवियत संघ और पूर्वी युरोप में समाजवाद के पराभव की पृष्ठभूमि में लिया गया पार्टी का प्रस्ताव, 1992)



14. कम्युनिस्ट इंटरनेशनल जैसी चीज काफी पहले ही अपना अस्तित्व गंवा चुकी है, समाजवादी शिविर नाम की कोई चीज भी नहीं बची है। इसके बावजूद भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन ने अपने लिये अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन का एक वर्चुअल संसार बना रखा है और चीन, क्यूबा, उत्तर कोरिया अथवा वियतनाम की तरह के देशों की तमाम नीतियों के बारे में उसके आकलन में उसके इस आत्म-सर्जित आभासित यथार्थ का दबाव हमेशा देखने को मिलता है। अपने ‘पवित्र अंतर्राष्ट्रीयतावाद’ के निर्वाह के चलते हम इन देशों की नीतियों का न खुल कर आकलन कर पाते हैं और न ही उनके अनुभवों से सही सबक ले पाते हैं। इधर लातिन अमेरिका में नये सिरे से वामपंथ के उभार के बारे में भी हमारे इसी रवैये के कारण पार्टी सदस्यों का आलोचनात्मक विवेक कमजोर हुआ है।



15. भारतीय संविधान में निहित क्रांतिकारी संभावनाओं के बारे आज भी सी पी आई (एम) के कार्यक्रम में कोई उल्लेख नहीं है, जबकि यहां के कम्युनिस्ट आंदोलन ने खुद इन संभावनाओं का भरपूर प्रयोग किया है। कामरेड बी.टी.रणदिवे ने इस संविधान के बारे मे लिखा था कि “अपनी सारी कमियों और कमजोरियों के साथ यह संविधान जनतंत्र के विस्तार में आगे की ओर बढ़ा हुआ एक काफी बड़ा कदम है और शायद नवस्वाधीन देशों में इसकी बहुत थोड़ी मिसालें हैं।” सामाजिक विकास के वस्तुगत कारणों की शिनाख्त और विश्लेषण में असमर्थता के सही कारणों की तलाश करने के बजाय अक्सर हम पार्टी की सफलता और विफलता के लिये ‘क्रांतिकारी नैतिकता’ से जुड़े प्रश्नों को पूरी तरह से जिम्मेदार मानने लगते हैं। चुनावों में पराजय के लिये पार्टी के आत्मगत तैयारी के सवालों पर बल देने लगते हैं, और नीतियों के प्रश्नों की अनदेखी करते हैं। यह ऐतिहासिक भौतिकवाद के मूलभूत दर्शन के विरुद्ध है। क्रांतिकारी राजनीति सिर्फ नैतिकता का प्रश्न नहीं है। समाजवाद नैतिक चयन नहीं, ऐतिहासिक अनिवार्यता है। क्रांति के खास चरण में अपनी ऐतिहासिक भूमिका की सही पहचान के आधार पर सही कार्यनीति के बिना सिर्फ कथित क्रांतिकारी सांगठनिक शुद्धता से कुछ हासिल नहीं हो सकता। इसी प्रकार, बिना एक सिद्धांतनिष्ठ  प्रभावशाली संगठन के भी किसी भूमिका का निर्वाह संभव नहीं है।



16. जैसा कि ऊपर उल्लेख किया जा चुका है, पार्टी के संगठन की विफलताएं उसके कार्यक्रम को प्रभावित करती रहीं है, वहीं कार्यक्रम की कमियों ने संगठन के स्वरूप पर असर डाला है। पार्टी संगठन का बोल्शेविक स्वरूप स्वाभाविक तौर पर किसी भी क्रांतिकारी दल के लिये एक आकर्षक और आदर्श स्वरूप होगा क्योंकि उसी के जरिये दुनिया में पहली बार शासक वर्गों की ताकत के खिलाफ उत्पीडि़त जनों की क्रांति को संभव बनाया जा सका था। अंग्रेज इतिहासकार एरिक हाब्सवाम ने इस संगठन के बारे में सही लिखा था कि संगठन के उस स्वरूप ने “छोटे से संगठनों को भी अपने अनुपात से कहीं अधिक प्रभावशाली बना दिया था, क्योंकि इसके जरिये पार्टी अपने सदस्यों से असाधारण निष्ठा और त्याग-बलिदान हासिल कर सकती है जो किसी भी सेना के अनुशासन और तालमेल से ज्यादा होता है और किसी भी कीमत पर पार्टी के फैसलों पर अमल करने पर पूरी तरह से संकेंद्रित कर देता है।”


17. लेकिन गौर करने लायक बात यह है कि संगठन की जो तकनीक रूस में, जो एक पिछड़ा हुआ समाज था और जहां आततयी राजा का शासन था, जबर्दस्त रूप में सफल हुई, उसे भारत के एक भिन्न समाज और भिन्न प्रकार की राजनीतिक परिस्थितियों में हू-ब-हू लागू नहीं किया जा सकता था। पार्टी को एक जन-क्रांतिकारी पार्टी के रूप में विकसित करने का यहां की पार्टी का निर्णय भी इसी सच को प्रतिबिम्बित करता है। जन-क्रांतिकारी पार्टी के निर्माण का फैसला संगठन के उस कथित लेनिनवादी रूप से मेल नहीं खाता था जो रूस की परिस्थितियों में उत्पन्न सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी का रहा है और चीन की खास परिस्थितियों में उत्पन्न चीन की कम्युनिस्ट पार्टी का रहा है। यह भारत के विशेष आधुनिक राजनीतिक इतिहास की पृष्ठभूमि में लिया गया भारत की कम्युनिस्ट पार्टी का फैसला था, जिसकी दूसरे किसी विकासशील देश में भी कोई नजीर नहीं मिलती है। यह एक क्रांतिकारी पार्टी को जनता के तमाम हिस्सों की प्रतिनिधित्वकारी पार्टी बनाने की जरूरत को समझते हुए लिया गया फैसला था।



18. दुर्भाग्य से पार्टी को ऐसे निर्णय तक पहुंचने में काफी ज्यादा विलंब हुआ। संसदीय जनतंत्र के सच और दूसरे आम चुनाव में ही केरल में कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में राज्य सरकार के गठन के बावजूद कम्युनिस्ट आंदोलन को हमेशा राजसत्ता के हिंसक दमन का सामना करना पड़ा। पश्चिम बंगाल में 70 के दशक का अर्द्ध-फासिस्ट दमन इसी का एक और चरम उदाहरण था। शासक वर्गों में बढ़ते हुए तानाशाही के रूझान के चलते ही कम्युनिस्ट आंदोलन अपने पुराने सांगठनिक ढांचे से मुक्त नहीं हो पाया; जनता की जनवादी क्रांति की उसकी परिकल्पना भी पुराने प्रकार के हथियारबंद संघर्ष के रास्ते से चिपकी रही। यही वजह है कि भारत में सन् 1975 के पहले का जो संगठन हथियारबंद क्रांति की तैयारियों में लगा हुआ था, पार्टी के प्रभाव के सीमाई क्षेत्रों, लगुआ इलाकों और संचार संबंधी नक्षों की तैयारी कर रहा था और गुजरात से लेकर बिहार तक भ्रष्टाचार तथा एकदलीय तानाशाही के खिलाफ जयप्रकाश के आंदोलन के प्रति एक सीमा तक उदासीन सा था, वह संगठन 1975 के आंतरिक आपातकाल के खिलाफ संसदीय जनतंत्र की रक्षा की लड़ाई का नेतृत्व नहीं दे सकता था। हथियारबंद लड़ाई के कार्यक्रम ने जनक्रांतिकारी पार्टी के निर्माण को कभी पार्टी के एजेंडे पर नहीं आने दिया। सन् 1975 के आंतरिक आपातकाल के अनुभव के बाद ही वह विचार का मुद्दा बन पाया। 1979 में सी पी आई (एम) के सलकिया प्लेनम में जनक्रांतिकारी पार्टी के निर्माण का नारा दिया गया। लेकिन इस बीच जो लंबा समय गंवा दिया गया, उसके नुकसान की पूर्ति कहां संभव थी!



19. किसी भी फैसले पर अमल में विलंब के अपने खास कारण होते हैं, और इससे खास प्रकार की विकृतियां भी पैदा होती है। जन-क्रांतिकारी पार्टी के निर्माण के फैसले के साथ भी कुछ ऐसा ही घटित हुआ। भारत की राजनीतिक व्यवस्था की तुलना एक गरीब आदमी को लगे अमीरी के शौक से की जा सकती है। सामान्यतः, इतना गरीब और पिछड़ा हुआ देश संसदीय जनतंत्र के लिये अनुपयुक्त माना जाता है। फिर भी भारत के लोगों ने न सिर्फ इसे अपनाया बल्कि इसे अपनी पहचान का अभिन्न अंग बना लिया - यह बात सन् 1975 के आंतरिक आपातकाल के बाद के एक के बाद एक चुनावों से पूरी तरह स्थापित हो गयी है। आज यह यहां की राजनीतिक व्यवस्था का नैसर्गिक अंग है। कम्युनिस्ट आंदोलन को इस सच को समझ कर आत्मसात करने में खासी देर हुई, जबकि आजादी के पहले से ही वह चुनावों में हिस्सा लेती रही है और आजादी के बाद, पहली लोकसभा चुनाव के समय से ही वह संसद में विपक्ष की एक प्रमुख ताकत रही है; आज तक माओवादी कहलाने वाले गुटों के लिये संसदीय जनतंत्र गले की हड्डी बना हुआ है।



20. पार्टी ने चुनाव लड़े, महत्वपूर्ण जीतें हासिल की, राज्यों में सरकारें बनाई, राज्य सरकार चलाने का अपने तरीके का विश्व रिकार्ड कायम किया, कुछ इतने बड़े सामाजिक परिवर्तन किये, जिन्हें क्रांतिकारी परिवर्तन कहा जा सकता है - इन सबके बावजूद इस पूरे उपक्रम के समानांतर पार्टी के सांगठनिक ढांचे में एक जन-क्रांतिकारी पार्टी की जरूरतों के अनुरूप सभी प्रकार के जरूरी परिवर्तन संभव नहीं हुए, उसे व्यापक रूप में प्रतिनिधित्वकारी नहीं बनाया जा सका। पार्टी के कार्यक्रम और संगठन के बीच का यह लगभग असमाधेय प्रतीत होने वाला अन्तर्विरोध ही उस संकट के मूल में है, जिस संकट का सामना आज पार्टी को करना पड़ रहा है और जिसका उल्लेख यहां शुरू में आधुनिक जीवन की नैतिक चुनौतियों के रूप में किया गया है।


21. भारत में जनतंत्र की रक्षा और विस्तार तथा जनतांत्रिक संस्थाओं और मर्यादाओं को कायम रखने के लिये लंबे संघर्षों के जरिये पार्टी ने भारतीय राजनीति में अपनी साख बनाई है। आजादी की लड़ाई में अपनी भूमिका के अलावा शुरू से राजनीतिक बंदियों की रिहाई, जन-जीवन की समस्याओं से जुड़ी लड़ाइयों, केंद्र-राज्य संबंधों के पुनर्विन्यास के जरिये भारत के संघीय ढांचे की रक्षा, धर्म-निरपेक्षता के सवाल पर वामपंथ के समझौताहीन रवैये और समाज के उत्पीडि़त और दलित जनों के लिये लगातार आवाज उठाने तथा सर्वोपरि, मजदूरों और किसानों के हितों की रक्षा के प्रश्न पर पार्टी के नेतृत्व में चलाये जाने वाले लगातार और अथक संघर्षों ने वामपंथ का अपना खास स्थान बनाया है। जिस समय 1999 में ज्योति बसु को भारत का प्रधानमंत्री बनाने का प्रस्ताव आया था, उसके पीछे भी वामपंथ द्वारा अर्जित जनतांत्रिक राजनीति के क्षेत्र की यही साख थी। यहां नेपाल के माओवादियों की तरह भारतीय वामपंथियों को संसद में सबसे ज्यादा सीट नहीं मिल गयी थी।



22. लेकिन समस्या तब खड़ी होती है, जब पार्टी अपनी इस साख के अनुभवों की सीखों को खुद के कार्यक्रम की समझ का अंग बनाने से चूक जाती है। ज्योति बसु को प्रधानमंत्री पद के प्रस्ताव के समय केंद्रीय कमेटी के कथित बहुमत की पुरानी कठमुल्ला समझ ने जो भूमिका अदा की, बाद में लोकसभा के अध्यक्ष पद की मर्यादा के सवाल पर भी उसकी झलक देखने को मिली। सत्ता के प्रति एक विशेष प्रकार का वैरागी और शुद्धतापूर्ण विशिष्टतावादी रवैया संसदीय जनतांत्रिक राजनीतिक परिवेश में वामपंथ की साख को बढ़ाता नहीं, बल्कि कम करता है। संसदीय राजनीति में शुद्ध रूप से पार्टी के निर्देशों के अनुसार देश की नीतियों को तय करने का जनादेश पाने का सपना बोल्शेविक पार्टी की तर्ज पर पूर्ण सत्ता ;(Absolute Power) हासिल करने की कठमुल्ला समझ का परिणाम है, जो निश्चित तौर पर पार्टी की जनतांत्रिक साख को हानि पहुंचाता है। यह समझ अंततोगत्वा सर्वाधिकारवाद का खतरा पैदा करती है, जनतांत्रिक चेतना के लोगों को पार्टी से अलग-थलग करती है।



23. साख की यही समस्या विश्व परिस्थिति के आकलन और उसमें भारत की स्थिति और भूमिका के बारे में एक कठमुल्ला सोच से भी पैदा होती है। चीन अमेरिका से ‘सर्वाधिक सुविधाप्राप्त राष्ट्र’ ;(Most Favoured Nation) का दर्जा पाता है, नाना प्रकार के संधि-समझौता करता है, पारमाणविक संधि भी करता है, तथा अधिकांश विश्व मामलों में अमेरिका के साथ खड़ा भी दिखाई देता है। दुनिया की परिस्थिति का उसका अपना आकलन है। उसके इस आकलन में अनेक चरणों को देखा जा सकता है। जैसे-जैसे दुनिया बदली, चीन ने अपनी जरूरतों तथा बदलती विश्व परिस्थितियों के अनुसार अपनी विश्व रणनीति को बदला। इससे चीन को अपनी समाजवादी व्यवस्था को मजबूत करने में कितनी मदद मिली, कितनी नहीं मिली तथा चीन की जनता की साम्राज्यवाद-विरोधी चेतना का आज क्या स्तर है, यह बहस के इतर विषय है। इन पर निश्चित तौर पर इतिहास राय देगा। लेकिन जब हम भारत के संदर्भ में विचार करते हैं, तो भारत की विश्व रणनीति के बारे में हमारी सोच में किसी प्रकार का कोई क्रमिक विकास, लचीलापन या बदलाव दिखाई नहीं देता। 1989 में सोवियत संघ के पतन के साथ दुनिया की परिस्थिति में आये भारी परिवर्तन के बावजूद हमारी विदेश नीति संबंधी सोच गुट-निरपेक्ष आंदोलन के समय की परिस्थितियों में ही अटकी हुई है। इसी से साम्राज्यवाद-विरोध भी कोरी लफ्फाजी भर बन कर रह जाता है।



24. भारत में साम्राज्यवाद-विरोध की परंपरा का इतिहास कांग्रेस दल को अलग करके कभी तैयार नहीं किया जा सकता है। इस विषय में आजादी के बाद कांग्रेस के ढुलमुल-यकीन रवैये के बावजूद कोई यदि कांग्रेस को अलग रख कर साम्राज्यवाद के खिलाफ देश की सार्वभौमिकता की रक्षा की कल्पना करता हो तो यह मूर्खों के स्वर्ग में वास करने के अलावा कुछ नहीं होगा। भारत की स्वतंत्रता और सार्वभौमिकता सिर्फ वामपंथियों के बूते बचाई जा सकती है, यह वस्तुनिष्ठ सच नहीं है। ऐसी स्थिति में कांग्रेस नेतृत्व को हमेशा संदेह के घेरे में रखना एक खतरनाक खेल है। हमेशा इसी बात को दोहराते रहना कि हमारे नेता साम्राज्यवाद से लड़ेंगे नहीं, उससे समझौता कर लेंगे, जनता में एक प्रकार का निरुत्साह पैदा करता है। लोगों को इस निरुत्साह से निकालना ही कठिन हो जायेगा। हमारी लगातार चली आ रही इस नकारात्मक नीति के घातक परिणाम साफ दिखाई देने लगे है। साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ाई सिर्फ छोटे से प्रभाव क्षेत्र वाले वामपंथियों के वश में नहीं है, यह भारत की सभी देशभक्त ताकतों की साझा लड़ाई है और इसमें कांग्रेस भी शामिल है। जब तक इस वास्तविकता को नहीं स्वीकारा जाता, भारत की जनता की साम्राज्यवाद-विरोधी चेतना को जागृत नहीं रखा जा सकता है। इस बारे में शासक दल की पोल खोलने की कथित नीति साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष की नीति नहीं कहलायेगी, बनिस्बत इसे इस संघर्ष से देशभक्त जनता के बड़े हिस्से को काटने की नीति कहा जा सकता है। इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि कांग्रेस की साम्राज्यवाद के बरक्स समझौतावादी नीति की आलोचना न की जाए, लेकिन इसमें इतनी वस्तुनिष्ठता और संयम होना चाहिए ताकि हमारा आकलन जनता के बीच स्वीकृति पायें। लगातार यह कहना कि वे देश को अमेरिका के हाथ में बेच दे रहे है, सच से कोसों दूर है और हमारे प्रति जनता को निरुत्साहित करने के लिये काफी है। परमाणु संधि के संदर्भ में हमारा समग्र आकलन, यह प्रचार कि मनमोहन सिंह देश को बेच रहे हैं और बुश खरीद रहा है, कोरा बचकानापन था। 15वीं लोकसभा के लिए मतदान की समाप्ति के दूसरे दिन 14 मई 2009 को ‘इकोनामिक टाइम्स’ को दिये एक साक्षात्कार में कामरेड प्रकाश करात कहते हैं,“इस दौरान, भारत रूस, कजाखस्तान तथा अन्य देशों के साथ वार्ता चला सकता है। चूंकि हाइड एक्ट अमेरिका-केंद्रिक है, इसीलिये अमेरिकी कंपनियों के साथ सौदा करने के पहले इस पर फिर से काम करना होगा।” (In the mean time, India could carry on with negotiations with say countries like Russia, Kazakhstan and others. Since Hyde Act is US-specific, we should rework that before dealing with American firms.) का. प्रकाश का यह कथन ही इस विषय पर अपनाए गये चरम रुख के पीछे वस्तुनिष्ठता के अभाव को बताने के लिए काफी है।




25. किसी भी मामले में अंधता साख की समस्या पैदा करता है। अंध-अमेरिका विरोध भी। खुद अमेरिका में आज के आर्थिक संकट के चलते जो परिवर्तन हो रहे हैं, उनके प्रति पूरी तरह से आंख मूंद कर नहीं चला जा सकता है। अमेरिकी राजसत्ता के साथ ही अलग से अमेरिकी समाज पर भी नजर रखनी चाहिए। उस समाज के अन्तर्विरोधों को अनदेखा करने का कोई कारण नहीं है। अमेरिका की धरती पर मजदूर वर्ग के अधिकारों के लिये सबसे खूनी और ऐतिहासिक लड़ाइयां लड़ी गयी है। आज के अमेरिकी संकट की परिणतियों को भी पुराने ढंग के मानदंडों से शायद पूरी तरह नहीं समझा जा सकता है।



 
26. गौर करने की बात यह है कि आज की दुनिया 50 साल पहले की दुनिया से काफी अलग है। यह 2007 के पहले की दुनिया से भी अलग है। आज भी अमेरिका दुनिया का सबसे शक्तिशाली सामरिक देश है, लेकिन विश्व अर्थ-व्यवस्था के इंजन के रूप में वह इसे और आगे खींचने में अक्षम है। पिछले अगस्त महीने से अमेरिका का जो ऋण संकट शुरू हुआ है, उससे उबरने के लिये सरकार द्वारा अब तक अरबों डालर बहा दिये जाने पर भी उस संकट का कोई किनारा दिखाई नहीं पड़ता है। वह हिमालय समान कर्ज के जिस बोझ के तले फंसा हुआ है, उससे निजात पाना उसके वश में नहीं है। आर्थिक ताकत के बल पर आंखें तरेर कर की जाने वाली नव-उदारवाद की सारी अनुशंसाएं, ‘वाशिंगटन कन्सेन्सस’ और वित्तीय विनियमन की लंबी-चौड़ी बातें अब सुनाई नहीं देती। आर्थिक सत्ता का न्यूयार्क से हट कर वाशिंगटन जाना ही नवउदारवाद के जनाजे के समान है। अमेरिकी उदारतावादी जनतंत्र को अब चिरस्थायी बता कर ‘इतिहास के अंत’ की घोषणा के साथ निश्चिन्त हो जाने वाला फ्रांसिस फुकुयामा फिर से सोच में पड़ गया है। यह सोवियत संघ और पूर्वी योरप के देशों में समाजवाद के पराभव के बाद अमेरिकी ‘उदारतावादी जनतंत्र’ और उसके तमाम नवउदारवादी नुस्खों के पराभव का युग है। अमेरिकी अर्थ-व्यवस्था आज जिस प्रकार अति-उत्पादन के संकट में फंस गयी है और वहां जिस पैमाने पर राज्य के हाथ में ऋणों का संकेंद्रण हो रहा है, और जिस प्रकार अमेरिकी मजदूर वर्ग में यूनियनों के प्रति आग्रह बढ़ रहा है, उसे देखते हुए अमेरिकी राजनीति की अनंत अकल्पनीय संभावनाओं को खारिज नहीं किया जा सकता हैं। आज अमेरिका में किसी क्रांतिकारी मार्क्सवादी पार्टी की अनुपस्थिति का अर्थ यह नहीं है, वह आगे भी कभी नहीं होगी। कौन, कब और कैसे ‘साम्राज्यवाद की कमजोर कड़ी’ साबित हो जाए, कहना मुश्किल है। जरूरत मजदूर वर्ग की क्रांतिकारी पार्टी के उभार की है। आज कम से कम इतना तो तय है कि संकट में फंसा अमेरिका मौजूदा विश्व अर्थ-व्यवस्था के भरोसेमंद सहारे की स्थिति को क्रमशः गंवा रहा है। यद्यपि आज भी अमेरिका ही आर्थिक और सामरिक, सभी दृष्टि से विश्व साम्राज्यवाद का सरगना है, इसमें जरा भी शक की गुंजाइश नहीं है। वही सारी दुनिया की शान्तिकामी, स्वतंत्रताकामी और न्यायप्रिय जनता का प्रथम दुश्मन  है।


27. आज के युग को आभासित यथार्थ ; (virtual reality) का युग भी कहा जाता है। यह बात पूरी तरह सच नहीं है, तथापि इससे पूरी तरह इंकार भी नहीं किया जा सकता है। जो दिखाई देता है, उसका गहरा संबंध जो दिखाया जा रहा है, उससे है। चोमस्की जिसे ‘निर्मित अभिमत’ (manufactured consent) कहते हैं, वह इसी वर्चुअल की उपज है। ऐसे में पार्टी और माध्यम का संबंध काफी महत्वपूर्ण हो जाता है। यहीं पर पुनः उस वैचारिक प्रभुत्व की स्थापना की लड़ाई सबसे जरूरी लड़ाई जान पड़ती है, जिसकी हमने ग्राम्शी के उल्लेख के साथ आगे चर्चा की है। इस काम के लिये पार्टी का प्रचारतंत्र, बुद्धिजीवियों की उसकी फौज, उसका सांस्कृतिक मोर्चा किसी भी दूसरे मोर्चों से कम महत्वपूर्ण नहीं है। लेकिन इन्हीं मोर्चों पर इधर के वर्षों में हमारी स्थिति बेहद निराशाजनक दिखाई देती है। आज हम साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र मे किसी प्रकार का विचारधारात्मक संघर्ष करते दिखाई नहीं देते हैं। बुद्धिजीवियों के साथ पार्टी के आदान-प्रदान की कोई प्रक्रिया नहीं दिखाई देती है।



28. आज की दुनिया से अधिक आर्थिक वैषम्य अतीत में कभी दिखाई नहीं दिया; इसी प्रकार आज की तरह विचारों और नैतिकता के मामले में विश्व -व्यापी एकसमानता पहले कभी देखने को नहीं मिली। दुनिया के स्तर पर सांस्कृतिक वैविध्य को जबर्दस्ती किसी दबाव के तले एक जैसा चपटा बना दिया जा रहा है। नव-उदारतावादी समाज के मूल्यों को हमारे गले में ठूसा जा रहा है। संचार के विकास के कारण भी राजनीति का स्वरूप इतना अधिक बदल गया है कि राजनीति के क्षेत्र को आज यदि विचारों के बाजार का क्षेत्र कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। इस बाजार में जनमत को तैयार करने के उपकरणों पर शासक वर्ग की इजारेदारी है। बाजार की अपनी खुद की एक नैतिकता है। मुक्त बाजार में विचार कत्तई मुक्त नहीं है। बाजार का पंजा किसी सर्वाधिकारवादी राजसत्ता से भी कही ज्यादा फौलादी होता है, जो नागरिकों को अपने इशारों पर चलाता है। चोमस्की के शब्दों में, “जनतंत्र के लिये प्रचार का वही महत्व है जो किसी तानाशाही निजाम के लिये दमन के यंत्र का है।” क्रांति से तात्पर्य यदि शासक वर्गों की राजसत्ता को पराजित करना है तो जनतांत्रिक व्यवस्था में शासक वर्गों के प्रचारतंत्र को पराजित करना होगा।



29. इस लिहाज से आज वस्तुगत रूप में सारी दुनिया में वामपंथ के पक्ष में सबसे अधिक सकारात्मक परिस्थितियां होने पर भी भारतीय वामपंथ की स्थिति कमजोर नजर आती है। आजादी की लड़ाई और उसके बाद के प्रलेस के जमाने में, और पुनः ‘80 के दशक के बाद के जलेस के प्रारंभिक काल में भारत के बौद्धिक जगत में वामपंथियों की जो स्थिति दिखाई देती थी, आज वह नहीं है। गौर से देखने पर पता चलेगा कि संभवतः आज के भारतीय वामपंथ के साथ समग्र रूप में भारतीय बौद्धिकों का रिश्ता प्रायः नहीं रह गया है। वामपंथी राजनीति भी कोई सामाजिक विमर्श नहीं, कोरी तात्कालिकताओं में सिमटी हुई जान पड़ती है। वामपंथी नेतृत्व की बौद्धिक-सांस्कृतिक पहचान कमजोर हुई है। सांस्कृतिक विषय उसकी आखिरी प्राथमिकता में है।




30. पश्चिम बंगाल का अनुभव यह है कि पार्टी की राज्य स्तर की सर्वोच्च सांस्कृतिक उपसमिति तक की बैठकें बुद्धिजीवियों से उनकी समस्याओं अथवा सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य की समस्याओं पर किसी प्रकार के संवाद के लिये नहीं होती। चुनाव या संकट की किसी दूसरी घड़ी में बहुत अल्प समय के लिये बुलाई गयी ऐसी बैठकों में निहायत औपचारिक और नौकरशाही ढंग से कविताएं और तुकबंदियां तैयार करने, नाटक अथवा कार्टून तैयार करने और कोई सभा-जुलूस संगठित करने के कुछ निर्देश भर जारी किये जाते हैं। जन-संगठनों की स्वायत्तता नाम की कोई चीज नहीं बची है। राज्य के प्रभारी नेता की सनक जन संगठनों का नेतृत्व तय करती है। यह सब पार्टी के उसी कमांड ढांचे की परिणतियां है जिसमें किसी भी सेना की तरह ऊपर से आने वाला आदेश ही सर्वोपरि है, परस्पर विचार-विमर्श की गुंजाइश कम है।



31. जनसंगठनों के प्रति इस प्रकार के कमांड रवैये का सबसे घातक प्रभाव लेखक और सांस्कृतिक संगठनों पर पड़ा है। व्यापक लेखन और संस्कृति के जगत में पार्टी के लेखक और सांस्कृतिक संगठनों से जुड़े लेखकों और संस्कृतिकर्मियों की स्थिति कमजोर हुई है। स्वभाव से प्रगतिशील, जनतांत्रिक और स्वतंत्र समझा जाने वाला लेखक इन संगठनों से जुड़ कर सबसे पहले अपनी इसी नैसर्गिक पहचान को गंवाता है। ‘लेखक प्रगतिशील नहीं रह जाता, संघर्ष के मैदान की कुछ बद्धमूल धारणाओं और नैतिकताओं का बंदी बन कर जीवन के अनेक मार्मिक और मानवीय पक्षों के खिलाफ खड़गहस्त दिखाई देने लगता है। प्रेम की रचनाएं लिखना भी इस कथित क्रांतिकारी सांस्कृतिक हलके में विचार का विषय होता है, प्रश्नातीत स्वाभाविकता नहीं। कलारूपों की अभिनवता, प्रयोग और सौंदर्य के प्रति सदा संशय का भाव बना रहता है। जाहिर है कि ऐसे में स्वतंत्रता तो उससे कोसों दूर दिखाई देती है। फलतः अक्सर प्रतिवाद का स्वर भी नितांत औपचारिकता बन जाता है। यह स्थिति वामपंथी सांस्कृतिक संगठनों को सांस्कृतिक और लेखकीय जगत के लिये अप्रासंगिक बनाने के लिये काफी हैं।



32. जनसंगठनों के संचालन में गड़बडि़यों से पैदा होने वाली ऐसी विकृतियों पर पार्टी में चर्चा होती है, उन्हें दूर करने के प्रस्ताव भी लिये गये हैं, जन-संगठनों के बारे में पार्टी का एक पूरा दस्तावेज है, जो इन्हीं समस्याओं को संबोधित है। फिर भी, व्यवहार में उन फैसलों पर अमल के लिये पार्टी के जिस ढांचे की जरूरत है, वह दिखाई नहीं देता। जनतंत्र किसी भी सभ्य समाज का एक अभीष्ट लक्ष्य है। पार्टी में यह अनुलंघनीय होना चाहिए। जनतंत्र पर अधिकतम बल ही जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद को तमाम विकृतियों से बचाने की सबसे बड़ी गारंटी बन सकता है। इसके आगे की समस्या जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद को संगठन के संचालन की आभ्यांतरित, स्वाभाविक संस्कृति बनाने की समस्या है, जिसका हम पहले उल्लेख कर चुके हैं।




33. 1979 के सलकिया प्लेनम का दूसरा महत्वपूर्ण निर्णय हिंदी प्रदेशों में पार्टी को फैलाने के बारे में था, जिसकी काफी चर्चा होती है। इस विषय के ढेर सारे पहलू है। इस मामले में पार्टी की विफलता, एक जनक्रांतिकारी पार्टी के रूप में पार्टी का विकास न हो पाने का प्रमुख कारण है। वामपंथी आंदोलन के लिये हिंदी भाषी क्षेत्र आज तक अंधों का हाथी बना हुआ है। इधर स्थिति और ज्यादा खराब हुई है। वस्तुतः आज के वामपंथ से हिंदी निष्कासित है। वामपंथी राजनीतिक नेतृत्व हिंदी के बुद्धिजीवियों से शायद ही कभी कोई संवाद करता है। हद तब हो जाती है जब डा. अशोक मित्र पार्टी के मुखपत्र में हिंदी भाषा को ही जनसंघ की भाषा कह देते हैं। कम्युनिस्ट पार्टी के हिंदी अखबार अनुदित सामग्रियों से अटे होते हैं। ये न जन-संघर्षों को प्रेरणा दे सकते हैं, न किसी अन्य प्रगतिशील बौद्धिक विमर्श के मंच बन सकते है।



34. पार्टी के मौजूदा ढांचे की आलोचना करने का अर्थ यह नहीं है कि सामाजिक परिवर्तन के लिये किसी राजनीतिक हथियार की जरूरत से ही इंकार करना। उल्टे इतिहास इस बात का गवाह है कि पूंजीवाद-विरोधी कोई भी आंदोलन या शक्ति स्वतःस्फूर्त ढंग से नहीं पैदा होते। उन्हें अलग से बनाने की जरूरत होती है। जरूरत ऐसे राजनीतिक दल के विकास की है जो 21वीं सदी के समाजवाद की स्थापना की लड़ाई को नेतृत्व दे सके। आज की दुनिया 50 साल पहले की दुनिया से काफी अलग है। यह सोवियत संघ और पूर्वी योरप के देशों में समाजवाद के पराभव और अमेरिका के दुनिया के सबसे बड़े सामरिक शक्ति के देश के रूप में उभर कर सामने आने वाले समय की दुनिया है, जब अमेरिका का बराबरी में मुकाबला करने वाली कोई ताकत नहीं दिखाई देती है। यह वह दौर है जिसमें वैज्ञानिक-तकनीकी क्रांति की अग्रगति ने उत्पादन की प्रक्रिया तथा उसकी प्रकृति को भारी प्रभावित किया है। यह आर्थिक और सांस्कृतिक वैश्वीकरण तथा जनसंचार माध्यमों की बढ़ती हुई शक्ति का दौर है। यह वह दुनिया है कि जिसमें पूंजीवाद नवउदारवाद की निश्ठुरता की ओट में तकनीकी अग्रगति का अपने लाभ के लिये प्रयोग कर रहा है, निर्दयता से प्रकृति का नाश किया जा रहा है और विभिन्न सामाजिक समूहों तथा पूरे के पूरे राष्ट्रों को सामूहिक वंचना का शिकार बना रहा है।
 


35. ऐसे में वामपंथ के पुनर्निर्माण की जरूरत है। कहा जाए तो फौरी जरूरत है। राजनीति संभावनाओं की कला नहीं है। क्रांतिकारियों के लिये राजनीति असंभव को संभव बनाने की कला है। यह काम सिर्फ आत्मगत आग्रह से नहीं, मौजूदा शक्ति संतुलन को बदलने की यथार्थपरक दृष्टि और कार्रवाई से संभव है। तभी जो आज असंभव जान पड़ता है, वह कल संभव हो पायेगा। इसके लिये जरूरी है कि हम आज की जरूरतों के अनुरूप अपने राजनीतिक उपकरणों को तैयार करें। यह पार्टी के बोल्शेविक ढांचे के साथ अनालोचकीय तरीके से चिपके रह कर हासिल नहीं किया जा सकता है। इस ढांचे में निहित जो सैद्धांतिक कमजोरियां है, उनसे मुक्ति पाना ही होगा। पार्टी को सभी स्तरों पर अधिक जनतांत्रिक और संवादी बनाना ही होगा।




36. किसी बेहतर भविष्य के लिये ‘बेहतर वाममोर्चा’ के शासन के प्रति अब लोगों में उतनी रुचि नहीं रह गयी थी। भविष्य की चिंता किसे होती है? लोगों को भविष्य की चिंता प्रेरित नहीं करती। अतीत भविष्य की तुलना में कहीं ज्यादा मूर्त, ठोस और परिपूर्ण होता है। अतीत को बदलने, नये रंग में रंगने, उसकी बदरंग हो चुकी छवि को सुधारने के लिये आदमी जरूर प्रेरित होता है। वाममोर्चा के शासन के 35 वर्षों के दीर्घ अतीत में ऐसे कई बदरंग कोने तैयार हो चुके थे जिन्हें नये रंग में रंगना, उन्हें बदलना आदमी के लिये ज्यादा जरूरी हो गया था।



37. अपनी तमाम राजनीतिक और सांगठनिक कमजोरियों का कुल परिणाम आज पार्टी के एक ऐसे नौकरशाही स्वरूप के रूप में सामने आया है जिसमें आने वाले समय में काडर के रूप में चयन के लिये हमारे सामने अच्छों में श्रेष्ठ  नहीं बल्कि बुरों में निकृष्ट के अलावा और कुछ नहीं रह जायेगा। एक नौकरशाही ढांचे में सिद्धांतविहीन, मानवीय संवेदनाओं से शून्य तिकड़मों में लिप्त होकर ही कोई व्यक्ति महत्व का स्थान हासिल कर सकता है। इन तिकड़मों में लचर और मिडियोकर चरित्र के लोग माहिर होते है। इसलिये सब कुछ यदि पूर्व की भांति ही चलता रहा तो पार्टी का नेतृत्व इन लचर और मिडियोकर लोगों से ही भरा होगा, दूसरा कोई विकल्प ही नहीं रह जायेगा। ऐसा नेतृत्व नीतियों के मामले में विसर्जनवादी और संगठन के मामले में नौकरशाही, कमांड सिद्धांत का हामी होगा। इसके लक्षण इधर साफ दिखाई दे रहे हैं।

टिप्पणियाँ

  1. जो बिंदु माहेश्वरी जी ने उठाये हैं ,उन पर न केवल गंभीरता से विचार करने की जरूरत है बल्कि उस बदलाव की जरूरत है जिसकी और उन्होंने ने संकेत किया है .हिन्दी प्रदेशों में वामपंथी राजनीति की पुख्ता जमीन तैयार किये बिना उसे सही दिशा में नहीं ले जा सकते .यदि उसकी ताकत हिंदी प्रदेशों में होती तो आज देश का नेतृत्व उसी के हाथ में होता .बंगाल और केरल से वाम-राजनीति हाशिये पर पडी रहने के लिए अभिशप्त रहेगी और यथार्थ का सही आकलन भी नहीं हो सकेगा ----- --जीवन सिंह

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