विपिन चौधरी की हरियाणवी कविताएँ


विपिन चौधरी

किसी भी रचनाकार के लिए उसकी देशजता सबसे अहम होती है। अपनी रचनाओं के लिए खाद-पानी वह वहीँ से आजीवन जुटाता है। अपनी देशज बोलियों के ऐसे शब्द जिनका अक्स दूसरी बोलियों में प्रायः नदारद होता है, अपनी कविताओं में ला कर न केवल कविताओं की जमीन को पुख्ता करता है, बल्कि देश-दुनिया को भी एक नए शब्द की आभा से परिचित कराता है। हाल ही में अपने एक साक्षात्कार में कवि केदार नाथ सिंह ने कहा था कि मेरी एक इच्छा है कि मेरा एक कविता संग्रह मेरी देशज भाषा भोजपुरी में आए। लेकिन यह अभी तक संभव नहीं हो सका है। संयोगवश हमारे युवा साथी अपनी देशजता के प्रति सजग हैं। विपिन चौधरी हिंदी कविता में आज एक सुपरिचित नाम है। कविताओं के साथ-साथ विपिन कहानियाँ और अनुवाद के क्षेत्र में भी सक्रिय हैं आज हम आपको विपिन की उन हरियाणवी कविताओं से परिचित करा रहे हैं जो उनकी अपनी बोली-बानी है। जिसमें वे बेझिझक अपने को व्यक्त कर अपनत्व महसूस करती हैं. तो आइए पहली बार पर पढ़ते हैं विपिन चौधरी की कुछ हरियाणवी कविताएँ            

विपिन चौधरी की हरियाणवी कविताएँ  



बाट

कोआण आला सै 
छोरी आंखया की ओट तै बोली

मुंडेर पर बैठा
मोर कि बाट में नाचया 

दादाजी हुक्के में
चिलम मह चिंगारी की बाँट देख छोह मह आए 

बालक
नै सपने में
नई पतंग की बाट देखयी

बाट बाट मह
तो या दुनिया गोल होई 




टोकनी

पीतल की टोकणी बाजे घणी
पुराणी बहू की पुराणी टोकणी
नई बहू लायी न्यी टोकनी

चमचमती टोकणी
टोकणी सिर पे धर
चाल पड़ी राह ये राह

ईंडी की भी आँट कोणी
नई बहू नए जीवन की खुशी
अपने सिर पर धर चाल पड़ी

देखे गाम सारा
सबने दिखे स एब दौ आँगन
एक मै नई बहू अर नई टोकणी
दूसरे मैं पुरानी बहू और पुराणी टोकणी  




डोली[1] भीतर बारणा[2]

किस चीज़ की कमी कोणी थी
इस बारणे भीतर
चाँदन्णी 
दामन पहरे बैठी रहा करदी
बड़ा सा डोल और जेवड़ी
खूंटी पर लटकी रहं दी कई इंढी
घणे सारे बासण
दो काटड़े एक भैंस

बड़े-बड़े दो हारे


गोबर तैं  लीपा बड़ा सा आँगण

धीरे-धीरे
सारे खेल तमाशे
बारणे तै उठगै 
ज्यों एक एक कर पिंजरे के पंछी उड़गे हों 
और बरणा मूह बाये सूना खड़ा रह गया 


[1]दीवार
  
[2]दरवाजा





गाँव की छोरियाँ

गोबर चुगणे नै
गाँव की छोरियाँ
खेल समझैं तो बड़ी बात कोनी 
ऊपर ताईं गोबर भरा  तांसला 
खेल खेल मह भर लिया
और काम का काम भी हो गया
और खेल का खेल भी

तो ये सैंम्हारे  गामां के खेल
और गामां  की छोरियां  के कमाऊ काम 

तो ये सैंम्हारे  गामां के खेल
और गामां  की छोरियां  के कमाऊ काम


बीजणा[1]

न बिजली
न बाल[2]
घूघंट के भीतर
मार मार फूंकनी होया बुरा हाल

ईब तो बस बीजणा चाहिए
हामने न स बिजली की बाट
एक बार जो हाथ आया यो बीजणा
फेर तो चाल पड़ेगी 


सीली सीली बाल
 

[1]हाथकापंखा  
[2]हवा 

डाब के खेत

डाब कै म्हारे खेत मैं
मूँग, मोठ लहरावें  रै 
काचर, सिरटे और मतीरे
धापली कै मन  भावैं  रै 
रै देखो टिब्बे तलै क्यू कर झूमी बाजरी रै  
बरसे सामण अर भादों
मुल्की[1] बालू रेरै,
बणठण चाली तीज मनावण
टिब्बे भाजी लाल तीजरै 
रै देखो पींग चढ़ावै बिंदणी रै 
होली आई धूम मचान्दी
गूँजें फाग धमाल रै ,
भे भे[2] कीं मारे कोरड़े

देवर करे बेहाल रै,
रै देखो होली में नाच रही क्यूकर गोरी बेलिहाज रै
जोहड़ी में बोले तोते
बागां बोलै मोर रै,
पनघट चाली बिंदणी
कर सोलह सिंणगार रै ,
रै  देखो पणघट पर बाज रही है रमझोल रै  
खावंद की आवण की बेला
चिड़ी नहावै रेत रै,
आज बटेऊ आवैगा
संदेश देव काग रै 
रै देखो डोली पर बोल रहया कागला रै 
डाब कै म्हारे खेत मैं
मूँग,मोठ लहरावे रै 
 



[1]मुस्कुराई 
[2]भिगो 
    




दादी के जेवर
दादी की तिजोरी मैं तै
जी करै सै
काल्याऊं
सिर  की सार, धूमर अर डांडे
नाक की नाथ, पोलरा
कान की बुजली, कोकरू अर डांडीये
गले कीगलसरी, गंठी, जोई, झालरा, हँसली, तबीज अर पतरी,
हाथ के कडूले,छेली, टड्डे अर हथफूल
कमर के नाड़ा अर तागड़ी,
पैराँ की कड़ी छलकड़े, गीटीयाँआले, पाती, नेवरी अर रमझोल
पहर ओढ़ कीं नाचूँगी
आज साँझ नै ........ बारात मैं
 




न्यू क्युकर

मीं बरसा और छाती मह हूक सी ना उट्ठी 
 
बारणा गाडण जोग्या
मोरणी सा कोनी नाच्या
 
ईब काल भादों मैं सीसम ना हांसी
 
ना इंडी हाथां तैं छूट भाजी
 
जंगले पै खड़ी वा बासी
आँख्यां तैं लखान लागी
 
 
लुगाइयां का रेवड़
 
घाघरां पाछै लुक ग्या
 
 
बखोरे
[1] में गुलगुले ना दिखे
ना टोकणी बाजी
 
बेरा को
नी  या 



धक्कम-धक्का किस बाबत पै होरी सै 

 
नई बहु पींघ ना चढ़ी
ना छोटी ने सिट्टी बजाई
 
ना नलाक्याँ पर होई लड़म -लड़ाई
 
ना ताऊ ने ताई के खाज मचाई
ना गंठे-प्याज की शामत आई
 
 
न्यू क्युकर
मीं बरसा और फ़ौजी छुटटी न आया
 
 
कढाव्णी में दूध उबलण
  लाग्या 
चाक्की के पाट करड़े होगे
 
इस मीं के मौसम नें इस बार खूब रुआया
 
खूब रुआया अर जी भर कीं रुआया
 
 
बीजणा भी ईब सीली बाल कोनी
 देंदा  दिखै 
 
ऊत का चरखा भी इब ढीठ हो गया
सूत कातन तैं नाटै सै
  

सीली बाल सुहावै कोनी
 
मीं  का यो मौसम इब जांदा क्यों नी

गाँव बदलगे  सैं
गावँ धूल
माट्टी तै सने
गोबर
खपरेल के कच्चे पक्के घर
नलके पै लुगाईयाँ की हाँसी-ठिठोली
भारी घाघरां
  की ठसक
चौपालां
  पर माणसाँ की हुक्काँ  के साथ
लाम्बी चालती बहस
ना बिजली की चाहना
ना शहर की ओर राह
ठहरा-ठहरा
धीमा-धीमा सा जीवन
साझँ ढले दूध का काढणा
सबेरे-सबेरे चाक्की का चालना देख्या था हमने कद्दे
इब किते नजर कोनी आंदे
सारा किम्मे बदल गया सै
गाम ना तो शहर बणे
ना ही गाम रह गये
हर घर आगै काद्दा
[1]
यहाँ वहाँ गलियाँ
 
मै लुढकते शराबी-कबाबी
टी वी
डी जे का रोला
गाम साच्ची ही बदल गये हैं



 

[1]कीचड़ 
[2]कटोरा  



मेरा सादा गाम

मेरी बुग्गी गाड्डी के पहिये लोहे के सैं   

जमां चपटे सैं - बिना किसे हवा के

जूए कै सतीं जुड रहे सैं

मण हम इस मैं बैठ कीं उरै ताईं पहुँच लिए

हामीं रेजै[1] का कुर्ता पहरा करां सां

अर बां[2] उपराण सांम्हीं राख्या करां,

थोड़ी - थोड़ी हांण मैं समाहीं जाया करां

इस झोटा बुग्गी तैं रेत भोत ऊडे सै.     



अर फेर ये म्हारी ढाल के फिड्डे लीतर सैं 

बस इन नैं पायां मैं ऊलझा कीं हाम चाल पड़ा करां सां,

इसकै आगे टाँकी लाग रही सैं अर पाछे तैं फीडी कर राखी सैं.  

मण ईब तो गर्मियाँ के दिन सैं

पायां मैं कीमे कोनी,

इन दिनां तो हामीं ऊघाणे[3] पाईं हांडी जायां करां सां

जूते तो पाट रहे सैं समरणे दे राखे सैं.  



मैं सारी हाण थावर[4]  नैं शहर जाया करूं

अर ओड़े वा भी आप के काक्यां सतीं आया करै,

शहर मैं हामीं बुग्गी की छायाँ मैं बैठ जाया करां

हामीं दोनों अर मेरी झोटा बुग्गी आला झोटा



इस पुरानी बुग्गी मैं बैठ कीं घरीं उलटे लिए 

दिन ढलण नैं जाण लाग रह्या था, ढले तैं पहलीं,

राह मैं सड्क के घण्खरे लट्टू फूट रहे सैं - कई काम नहीं कर रहे सैं

ऑर मेरी बुग्गी कै कोये भोंपू कोनी सै!



घरीं ऊलटे  आये पाछै

मैं थोड़ी  हाण खाट पर पादरा हो जाया करूँ-

फेर मैनें मेरे ऊंट सतीं खेत मैं जाणा  सै

खेत के लत्ते  पहर कीं

ऊंट भी हरे मैं मुंह मार आवैगा।

खेत मैं थोड़ी हाण हाल बाउूंगा

थोड़ा जोटा  मार कीं टीक्क्ड़  पाडूंगा

फेर बणी तैं पाणी  ल्याउूंगा

ऊंट नैं  प्याऊँगा

अर जोहड़ी मैं गोता मारूंगा।

म्हारे गाम मैं बस रहण का यो तरीका सै 

कोए भी अमीर कोनी.



कोये  भाजा- दौड़ी कोनी

हामीं धरती के मजे ले-ले कीं चाल्या करां सां.   

सांझ नैं  मूँज  की खरोड़ी[5]  खाट पर 

हुक्का पींदीं हाण

श्यामीं  दिखै  पूंज मारदी अर  जुगाली करदी भैंस,

ठाण मैं लोट मारदा ऊंट अर  पछंडे  मारदा बाछड़ा

इस तैं  बढीया किमें नजारा कोनी

सैं -सैं  करदी काली रात नैं.    



मैनें शहर के लोगाँ  पर दया आवै सै

जिणनै कदे गोबर तैं  लिबड़े ठाणमैं

बाल्टी भर दूध कोनी काड्या

वे तो  ठाण  कै धोरै कै  भी कोनी लिकड़ सकें

फेर नीकडू[6]  दूध किसा.



चांदणी  रात नैं हाल का जोतणा

ठाले बखतां मैं मूँज कूटणा,

बाण बाटणा, गमींणै  जाकीं

बटेऊ कुहाण  का मज़ा न्यारा सै.



मैं किते और नहीं रहणा चाहँदा

अगले जन्म मैं राम मनै यो   गाम दिए

इसे गाम पाणे इब बहोत मुश्कल सैं.

सारे शहर शहर होगे

मनै  तो बस मेरा गाम फेर अर फेर चाहिये सै .

फेर अर फेर चाहिये सै .

फेर अर फेर चाहिये सै .




[1]. खद्दर 

[4]. शनिवार 

[5]. भैंस का अस्तबल
[6]. खद्दर
[7]. कटोरा  
[8]. कीचड़ 

सम्पर्क-
ई-मेल- vipin.choudhary7@gmail.com

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं.)

टिप्पणियाँ

  1. vipin ji haryanvi k shabdon ko ikthha kr dena hi to kavita nhi h..... aur ganv shahr ka rona ro rhi h to aapko bhi ganv me hi rhna chahiye.... mahilao k chulhe aur pnght chhutne se itna dukhi hone ki zrurt h nhi. indi aur doghdmat se bal ud jate the sbke.... mahino baal nhi dho pati thi... kheti me ab bcha hi kya h aur vhi unto se hoti rhi to kisan to mr liya phle hi mr liya aur fir kya sari takneek shahri logon k liye hain.... khair...... ye achha h aapne sbhi ghno aur ganv ka jivn zrur btaya h.....

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