चन्दन पाण्डेय के उपन्यास वैधानिक गल्प पर जैनेन्द्र कुमार पाण्डेय की समीक्षा वैधानिक गल्प : गल्प की शक्ल में सत्य कथा
साहित्य उस मनोरचना का नाम है जो जीवन और समाज की वास्तविकता को कल्पना के सहारे गढ़ता है। यह गढ़ाव कुछ इस तरह का होता है कि समाज का एक बड़ा वर्ग उससे खुद को समीकृत कर सकता है। चन्दन पाण्डेय हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं। अभी हाल ही में उनका एक उपन्यास प्रकाशित हुआ है 'वैधानिक गल्प'। इस उपन्यास की एक समीक्षा लिखी है आलोचक जैनेन्द्र पाण्डेय ने। 'सृजन संकल्प' के हालिया अंक में यह समीक्षा प्रकाशित हुई है जिसे हमने साभार लिया है। आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं जैनेन्द्र पाण्डेय की समीक्षा 'वैधानिक गल्प : गल्प की शक्ल में सत्य कथा'।
वैधानिक गल्प : गल्प की शक्ल में सत्य
कथा
जैनेन्द्र कुमार पाण्डेय
‘वैधानिक गल्प’ चंदन पाण्डेय द्वारा लिखित चर्चित उपन्यास है, जिसका प्रकाशन सन् 2020 में हुआ था। उपन्यास के आरंभ में एक लेखकीय वक्तव्य के जरिए लेखक स्वीकार करता है कि इस ‘वैधानिक गल्प में जो कुछ भी है काल्पनिक है। जो है वह तो काल्पनिक है ही लेकिन जो सच है वह भी काल्पनिक है। व्यक्ति, कथा, शहर, घटनाएँ अगर कहीं आपको सच लगती प्रतीत होती हैं तो उसे कल्पना- दोष मानकर आगे बढ़ें।’ ( वैधानिक गल्प, पृ 0) वक्तव्य से स्पष्ट है कि लेखक का विशेष जोर इस उपन्यास को काल्पनिक मनवाने पर है, पर इस उपन्यास को पढ़ते हुए जो धारणा बनती है वह लेखकीय वक्तव्य का एक तरह से खंडन करती है। निस्संदेह अधिकांश गंभीर उपन्यासों की भाँति ‘वैधानिक गल्प’ भी यथार्थ की भूमि पर अवस्थित है। निश्चय ही इसमें कल्पना का विनियोग हुआ है, पर उतना ही जितना किसी रचना के लिए उसे आवश्यक माना जाता है। उपन्यास के बारे में एक सामान्य धारणा है कि वह वास्तविक जीवन की काल्पनिक कथा प्रस्तुत करता है। उपन्यास का मानव-जीवन से गहरा संबंध है, इस तथ्य का उद्घाटन करते हुए प्रेमचंद ने कहा था: “मैं उपन्यास को मानव-जीवन का चित्र मात्र समझता हूँ। मानव-जीवन पर प्रकाश डालना और उसके रहस्यों को खोलना ही उपन्यास का मूल तत्व है।” (कुछ विचार, पृ 47) जाहिर है, मानव-जीवन का चित्र समझी जाने वाली यह विधा अपने समकालीन सच से विच्छिन्न नहीं हो सकती। ‘वैधानिक गल्प’ भी इसका अपवाद नहीं है। यह उपन्यास सही मायने में अपने समकाल से गहरे जुड़ा है। इसमें मुख्य रूप से उत्तर-सत्य काल (पोस्ट ट्रुथ एरा) की उन स्थितियों का रचनात्मक आख्यान प्रस्तुत किया गया है, जिनमें सत्य को लगातार झुठलाया जा रहा है और उसकी जगह गप्प एवं मिथ्या धारणा को सत्य की शक्ल में परोसा जा रहा है। वर्तमान राजनीति, पुलिस-प्रशासन और मीडिया मिल कर जिस प्रकार के नैरेटिव गढ़ रहे हैं, उन्हें भेद कर सत्य तक पहुँचना किसी सामान्य आदमी के वश की बात नहीं है। कहने की आवश्यकता नहीं कि इन तीनों की मिली-जुली ताकत किसी गप्प या मिथ्या कथन को भी वैधानिकता प्रदान करने की क्षमता रखती है, जिससे हम पूरी तरह परिचित हैं। लेखक ‘वैधानिक गल्प’ में इस तथ्य का स्पष्ट उद्घाटन करता है कि सत्य के नाम पर आजकल जो बातें कही- सुनी जा रही हैं, जरूरी नहीं कि वे वास्तव में सत्य हों। इसके विपरीत इस बात की प्रबल संभावना है कि सत्य और वैधानिक कही जाने वाली अधिकांश बातें पूरी तरह से गप्प हों और इन्हें सत्य बताए जाने के पीछे व्यक्ति के अपने निहितार्थ हों। इस दृष्टि से ‘लव जिहाद’ जैसे विषय को आधार बना कर लिखा गया यह उपन्यास अपने पाठक को जिस सत्य का साक्षात्कार कराता है, वह आँख खोलने वाला है।
उपन्यास का आरंभ एक रहस्य भरे कॉल से होता है। अनुसूया अपने पूर्व प्रेमी अर्जुन कुमार को फोन कर के अपने पति रफीक के गायब होने की सूचना देती है और उससे मदद की गुहार लगाती है। अर्जुन कुमार युवा लेखक है, जो दिल्ली के एक प्रकाशन- गृह में नौकरी करता है। वह पत्नी की सलाह पर अनुसूया की सहायता करने लिए निकल पड़ता है और पूर्वी उत्तर प्रदेश के नोमा नामक कस्बे या कस्बेनुमा शहर में पहुँच जाता है। नोमा बिहार से सटा एक कस्बा है, जो किसी भी उत्तर भारतीय कस्बे या छोटे शहर का प्रतिनिधि कहा जा सकता है। यहाँ आ कर अर्जुन कुमार या कहें कि लेखक सीधे थाने पहुँचता है, जहाँ पहले से अनुसूया और उसके कुछ स्थानीय साथी मौजूद हैं। सभी एक स्वर से प्रयास कर रहे हैं कि रफीक के गायब होने की रिपोर्ट दर्ज हो जाए। लेकिन पुलिस है कि कुछ सुनने को तैयार नहीं। उलटे न्याय माँगने वालों के साथ वह बदसलूकी पर उतर आती है। हद तो तब हो जाती है, जब एक सिपाही अनुसूया के पेट में अपना रोल चुभा देता है- यह परवाह किये बिना कि वह सात माह से गर्भवती है। यह दृश्य किसी भी संवेदनशील इंसान को झकझोर देने वाला है। लेखक यह दृश्य देख कर स्वाभाविक तौर पर व्यथित होता है। वह सिपाहियों से घटना के संदर्भ में बात करता है, परंतु उनका रवैया देख कर निराश हो जाता है। यहाँ उसे एहसास होता है कि पुलिस के सामने एक लेखक की हैसियत कोई खास मायने नहीं रखती। इस स्थिति में वह अपने प्रकाशन-गृह के मालिक से बात करता है और साथ ही उनकी मदद हासिल करता है। इस संदर्भ में लेखक कहता है: “राजनीतिक संबंधों के जिस इस्तेमाल के लिए मैं इनकी आलोचना करता था, शायद वही मेरे काम आने वाले थे।” ( वैधानिक गल्प, पृ 53) वस्तुतः यही संबंध लेखक के काम आता है और इसी के बल पर वह थाने के सीओ या कहें की दरोगा शलभ श्रीनेत से संपर्क बना पाता है। दरोगा घटना के प्रति संवेदनशीलता दर्शाता है और लेखक को आश्वस्त करता है कि वह रफीक को जल्द ही ढूंढ़ निकालेगा। दरोगा के मन मे लेखक के प्रति सम्मान का भाव है, जिसे व्यक्त करते हुए वह कहता है: “बताइए, इतना बड़ा साहित्यकार हमारे शहर आया है और किसी को खबर भी नहीं।” ( वही, पृ 55) संभव है इस कथन में तंज का भाव हो, फिर भी वह इसे प्रकट नहीं होने देता। जो हो, पर वह लेखक को वहाँ के नेताओं, पत्रकारों एवं अन्य रसूखदार लोगों से मिलवाता है और उसे सम्मानित भी करवाता है। पर अफसोस की बात है कि यह सब करते हुए भी वह रफीक के मामले में कोई गंभीरता नहीं दिखाता। उलटे, यह अवश्य कह देता है कि रफीक अपनी शिष्या जानकी के साथ फरार हो गया है और यह ‘लव जिहाद’ का मामला है। अपनी बात की पुष्टि के लिए वह एक वीडियो दिखाता है, जिसमें जानकी और रफीक प्रेमी-प्रेमिका जैसे दिख रहे हैं। घटना में ‘लव जिहाद’ का एंगल सामने आते ही तंत्र की सक्रियता काफी बढ़ जाती है, जिसके कारण लेखक को भी संशय होने लगता है। वह लव जिहाद वाली कहानी की हकीकत जानना चाहता है और इसके लिए जरूरी है कि रफीक के जीवन को करीब से देखा-समझा जाए। इसी उद्देश्य के तहत लेखक रफीक के परिचितों से मिलता है, उसके द्वारा लिखित डायरी, नोटबुक व नाटक की पटकथा का बारीकी से अध्ययन करता है और इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि पेशे से अध्यापक, रचनाकार, कलाकार और निर्देशक रफीक वास्तव में जीनियस है। वह नोमा के एक डिग्री कॉलेज में संविदा शिक्षक है, जहाँ उसे कदम-कदम पर दुश्वारियों का सामना करना पड़ता है। रफीक की दुश्वारियों की चर्चा करते हुए लेखक कहता है : “ डायरी का पहला अंश पढ़ कर मिजाज कसैला हो गया। संविदा शिक्षकों के ऐसे हालात पर क्या कभी उन्होंने गौर किया होगा जिन्होंने एडहाकिज़्म बनाया।” (वही, पृ 63) बड़ी बात यह है कि आर्थिक मोर्चे पर संघर्ष करते हुए भी रफीक अपने छात्रों के साथ मिल कर यहाँ के अकादमिक व सांस्कृतिक वातावरण को नई ऊंचाई प्रदान करता है। यह उसकी मेहनत और लगन का ही फल है कि नोमा जैसे छोटे शहर के विद्यार्थी मायकोवस्की और मुक्तिबोध की कविताओं से परिचित हैं। वे युन फ़ोस्से के नाटकों से न सिर्फ परिचित हैं, बल्कि उनका मंचन भी करते हैं।
रफीक रंगमंच को इंसानियत का संदेश देने वाला माध्यम समझता है। इसी बात को ध्यान में रख कर वह चाहता है कि उसके नाटक- ‘बचाने वाला है भगवान’ का मंचन किया जाए। यह नाटक सत्य घटना पर आधारित है, जिसका प्रमुख पात्र नियाज मुसलमान है और वह अनुराधा नामक हिन्दू लड़की से प्रेम करता है। यह बात ‘मंगल मोर्चा’ जैसे उन्मादी-सांप्रदायिक संगठन को नागवार लगती है, जिसके कारण यह संगठन दोनों के प्रेम को ‘लव जिहाद’ की संज्ञा देता है। नियाज संगठन के निशाने पर आ जाता है और इससे जुड़े लोगों द्वारा उस पर जानलेवा हमला भी किया जाता है। पर इसी दरम्यान अमनदीप नामक दरोगा भगवान बन कर पहुँच जाता है और अपनी जान जोखिम में डाल कर नियाज की जान बचाता है। ‘मंगल मोर्चा’ को एक नामी व रसूखदार नेता का संरक्षण प्राप्त है, इसलिए अमनदीप को इस संगठन के खिलाफ जा कर कार्य करना महंगा पड़ जाता है, जिसकी कीमत वह अपनी नौकरी गँवा कर चुकाता है। पूरी घटना रफीक को किसी संदेश की तरह लगती है, जिसे वह एक बड़े जनसमूह तक पहुँचाने के लिए उत्सुक हो उठता है। उसका प्रयास है कि 15 अगस्त के अवसर पर इस नाटक का मंचन हो, ताकि इसका संदेश बड़े जनसमूह तक संप्रेषित हो। अपने इस उद्देश्य को बयाँ करते हुए वह कहता है : “पंद्रह अगस्त के दिन बड़ा अवसर है, अधिक लोग इसे देखें। एक व्यक्ति को भी अगर, यह नाटक किसी हत्यारी भीड़ के विरुद्ध खड़ा कर सका, हमारा ध्येय सफल होगा।” (वही, पृ 116)
कदम-कदम पर खड़ी बाधाओं से जूझते हुए रफीक और उसके साथी इस नाटक के मंचन की तैयारी करते हैं। रफीक खुद को नियाज और जानकी को अनुराधा की भूमिका निभाने के लिए तैयार करता है। इसी तैयारी के क्रम में रफीक और उसके साथी नाटक का रिहर्सल करते हैं, जहाँ रफीक और जानकी के सीन को एक साजिश के तहत वीडियो में कैद कर लिया जाता है और इसी को प्रचारित करते हुए दोनों के संबंध को लव जिहाद का रूप दे दिया जाता है। गौरतलब है कि यही वीडियो दरोगा के हाथ लगा था, जिसे उसने अर्जुन कुमार को लव जिहाद के प्रमाण के तौर पर दिखाया था। यहाँ उल्लेखनीय है कि रफीक के बारे में जो लव जिहाद की कहानी प्रचारित की गई वह पूरी तरह से कल्पित थी और किसी साजिश का हिस्सा थी। पूरी तरह से निर्दोष होने के बावजूद रफीक मंगल मोर्चा के निशाने पर आ जाता है क्योंकि उसका धर्म और कर्म इस मोर्चे को पसंद नहीं है। अकारण नहीं है कि नाटक के मंचित होते ही भीड़ की शक्ल में मंगल मोर्चा के उन्मादियों का समूह रफीक एवं उसके साथियों पर हमला बोल देता है और नोमा में भविष्य में मंचित होने वाले नाटकों पर भी रोक लगा देता है। रफीक सहित नाटक-समूह के कई सदस्य गायब कर दिए जाते हैं और उनके बारे में तरह-तरह की कहानियाँ सच कह कर प्रचारित कर दी जाती हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि रफीक और उसके साथी इस अंधेरे समय में उम्मीद की अंतिम किरण की तरह हैं, इसलिए उनका परिदृश्य से इस प्रकार गायब हो जाना लेखक को मंजूर नहीं। शायद यही वह वजह रही होगी, जिसके कारण लेखक ने उपन्यास के अंत में एक यूटोपियाई प्रसंग रचा है। इसमें लेखक स्वप्न के जरिए अपनी इच्छा जाहिर करता है : “मुझे नींद आ जाती तब मैं यह स्वप्न देखना चाहता कि दोल मेले के दिन रफीक और उसके साथी इस नाटक की प्रस्तुति कर रहे हैं। एक पल यह भी आता कि मुझे पहचानने में मशक्कत करनी पड़ती, क्योंकि नियाज के किरदार में जो दिख रहा है वह रफीक है या रफीक के किरदार में प्रवेश कर नियाज का किरदार निभाता हुआ यह मुझ सा कोई है।” (वही, पृ 140) स्पष्ट है कि लेखक इंसानियत के पक्ष में चल रही उस मुहिम को आगे बढ़ाना चाहता है, जिसकी शुरुआत रफीक और उसके साथियों ने की है। यही नहीं, वह उन समान विचार वाले लोगों को इसमें शामिल होने का स्वप्न भी देखता है, जो रफीक और उसके साथियों के कार्य से प्रभावित हैं। कहना न होगा कि यही वह रास्ता है, जिस पर चल कर अंधेरे समय से मुठभेड़ किया जा सकता है। यहाँ एक बात विचारणीय है कि उपन्यास का कोई भी स्त्री चरित्र बहुत सशक्त नहीं दिखाई देता। आश्चर्य होता है कि घर-परिवार और समाज से विद्रोह कर रफीक से शादी करने वाली अनुसूया भी अपनी भूमिका महज पत्नी या भावी माँ तक सीमित कर लेती है। औरों से कौन कहे, वह उस सिपाही से भी ठीक से नहीं लड़ पाती, जो उसके पेट में रोल चुभो देता है। पात्र कैसा हो, यह तय करना लेखक का अधिकार है, पर पाठक के रूप में यह इच्छा जरूर होती है कि महिला सशक्तीकरण के इस दौर में काश, अनुसूया थोड़ी और सशक्त होती !
उपन्यास के कथ्य पर गौर करें तो यह स्पष्ट है कि इसका गहरा सरोकार इस दौर की एक गंभीर समस्या से है। रफीक की डायरी में दर्ज हर तारीख 2015 की है। कहने की आवश्यकता नहीं कि यह वही दौर है, जब समाज में सांप्रदायिकता की खाई काफी चौड़ी हो जाती है और इसकी जद में छोटे शहर, कस्बे और गाँव तक आ जाते हैं। लव जिहाद का नैरेटिव परवान चढ़ जाता है। गप्प सच का रूप धारण कर लेता है। कई युवा प्रेमी-प्रेमिका उन्मादी भीड़ द्वारा हिंसा की भेंट चढ़ जाते हैं। पूरा परिवेश इतना संजीदा हो जाता है कि कोई भी सच्चा लेखक इस पर चुप नहीं रह सकता। मेरी समझ से ‘वैधानिक गल्प’ इसी परिवेश की उपज है, जो कहीं से भी अवास्तविक या कल्पित नहीं है। याद कीजिए, उपन्यास की समाप्ति के बाद लेखक ने उत्तराखंड के बहादुर पुलिस अधिकारी गगनदीप सिंह को सम्मान के साथ याद किया है, ‘जिन्होंने एक युवक को भीड़ के हाथों मरने से बचाया था’।समझना कठिन नहीं है कि उपन्यास का अमनदीप कोई और नहीं, बल्कि गगनदीप सिंह ही है। कहने का तात्पर्य है कि यह उपन्यास गल्प की शक्ल में एक सत्य कथा है, न कि काल्पनिक कथा, जैसा कि लेखक दावा करता है। फिर सवाल है कि लेखक ऐसा दावा क्यों करता है? क्या यह महज उसकी लेखकीय युक्ति है? इस सवाल का ठीक-ठीक उत्तर तो केवल लेखक दे सकता है, पर एक संभावना यह भी है कि ऐसा दावा कर के लेखक ‘फ़र्क नहीं पड़ता’ जैसे इस दौर के चलताऊ मुहावरे का प्रयोग कर रहा हो, जिसमें झूठ को बेहिचक सच करार दे दिया जाता है। शायद इसी तर्ज पर लेखक सत्य कथा को भी काल्पनिक करार दे रहा हो।
निस्संदेह ‘वैधानिक गल्प’ में कई विशेषताएँ हैं, जो पाठक को अपनी ओर आकर्षित करती हैं। पर निश्चय ही इसके आकर्षण का एक प्रमुख केंद्र इसका सहज शिल्प है, जो पाठक को टेढ़े- मेढ़े घुमावदार रास्ते पर न चला कर सीधे रास्ते पर चलाता है। उपन्यास को पढ़ते हुए पाठक कथा के सूत्रों को आसानी से पकड़ लेता है और इस प्रकार वह तरह-तरह के प्रतीकों और जादुई प्रसंगों में भटकने से बच जाता है। निश्चय ही लेखक के पास जहाँ जीवन की बारीक अनुभूतियाँ हैं, वहीं उन्हें कथा में ढाल कर प्रस्तुत करने का कौशल भी है। इसका प्रमाण उन स्थितियों, घटनाओं और प्रसंगों में देखने को मिलता है, जो प्रामाणिक ब्योरों-विवरणों के साथ रचे गए हैं और जिनमें गजब की संगति दिखती है। इसके अतिरिक्त लेखक के पास एक रोचक कथा-भाषा और कहन की विशिष्ट शैली भी है, जो पाठक को आनंदित करती है। पर ऐसा करते हुए भी वह पाठक को आनंदातिरेक में डुबोती नहीं, बल्कि उसकी चेतना को कुरेदती है। पठनीयता के स्तर पर लाजवाब होते हुए भी यह उपन्यास पाठक को अपने समय से साक्षात्कार करने का अवसर देता है; उसके बारे में ठहर कर सोचने-समझने की सीख देता है। मेरी दृष्टि से यही वे बातें हैं, जो इस उपन्यास को इतना महत्वपूर्ण बनाती हैं।
संदर्भ-ग्रंथ सूची
1- प्रेमचंद- कुछ
विचार, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2006
2- चंदन पाण्डेय- वैधानिक गल्प, राजकमल प्रकाशन,नई दिल्ली, 2020
सम्पर्क
एसोसिएट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग
श्री मुरली मनोहर टाउन स्नातकोत्तर महाविद्यालय,
बलिया
मोबाइल न:
9415319547
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