लेनिन पर तीन कविताएँ

  

लेनिन

गैरबराबरी पर आधारित समाज को बदलने का स्वप्न देखने वाले व्यक्ति थे लेनिन। लेनिन ने बोल्शेविक क्रान्ति के जरिए अपने इस कालजयी सपने को साकार किया। लेनिन खूब पढ़ते थे और अपने चिन्तन को बखूबी शब्दों में ढालते थे। लेनिन को ले कर दुनिया भर के तमाम प्रगतिशील कवियों ने कविताएँ लिखीं। बीते 22 अप्रैल को लेनिन की जयन्ती थी। लेनिन को नमन करते हुए आज हम पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं उन पर लिखी गयी तीन कविताएँ। पहली कविता प्रख्यात रूसी रचनाकार मायकोव्स्की की है। दूसरी कविता मराठी के चर्चित कवि नारायण सुर्वे की है जबकि तीसरी कविता कुबेर दत्त की है। तो आइए आज पढ़ते हैं लेनिन पर लिखी गई तीन कविताएँ।


लेनिन पर तीन कविताएँ


कामरेड लेनिन से बातचीत (1829) 


ब्लादिमीर मायकोवस्की


घटनाओं की एक चकरघिन्नी

ढेर सारे कामों से लदा,


दिन डूबता है धीरे-धीरे

जब उतरती है रात की परछाईं.

दो जने हैं कमरे में—

मैं

और लेनिन-

एक तस्वीर

सफेद दीवार पर लटकी.

दाढ़ी के बाल फिसलते हैं

उनके होठों के ऊपर

जब उनका मुँह

झटके से खुलता है बोलने को.

तनी हुई

भौं की सलवटें

विचारों को रखती हैं

उनकी पकड़ में,

घनी भौंहें

मेल खाती घने विचारों से.

झंडों का एक जंगल

उठी हुई मुट्ठियाँ घास की तरह सघन…

हजारों लोग बढ़ रहे हैं जुलूस में

उनके नीचे…

गाड़ियों से लाये गए,

ख़ुशी से उछलते हुए उतरते,

मैं अपनी जगह से उठता हूँ,

उनको देखने के लिए आतुर,

उनके अभिवादन के लिए,

उनके आगे हाजिर होने के लिए!

“कामरेड लेनिन,

मैं आपके सामने हाजिर हूँ-

(किसी के आदेश से नहीं,

सिर्फ अपने दिल की आवाज पर)

यह मुश्किल काम

पूरा किया जायेगा,

बल्कि पूरा किया जा रहा है.

हम लोगों को मुहय्या करा रहे है

खाना और कपड़ा

और जरूरतमन्दों को रोशनी,

कोटा

कोयले का

और लोहे का

पूरा हुआ,

लेकिन अभी भी

परेशानियाँ कम नहीं,

कूड़ा-करकट

और बकवास

आज भी हमारे चारों ओर.

तुम्हारे बिना,

ढेर सारे लोग

बेकाबू हो गए,

सभी तरह के झगड़े

और वाद-विवाद

जो मुमकिन हैं.

हर तरह के बदमाश

भारी तादाद में

परेशान कर रहे हैं हमारे देश को,

सरहद के बाहर

और भीतर भी.


कोशिश करो

इन्हें गिनने की

और दर्ज करने की,

इनकी कोई सीमा नहीं.

सभी तरह के बदमाश,

और बिच्छू की तरह विषैले—

कुलक,

लालफीताशाह

और

निचली कतारों में,

पियक्कड़,

कट्टरपंथी,

चाटुकार.

वे अकड़ते हुए चलते हैं,

घमण्ड में चूर

मोर की तरह,

उनकी छाती पर जड़े

बैज और फौन्टेन पेन.

हम उनमें से बहुतों से छुटकारा पा लेंगे

मगर यह काम आसान नहीं

बेहद कठिन प्रयास की जरूरत है.

बर्फ से ढकी जमीन पर

और बंजर खेतों में,

धुआँ भरे कारखानों में

और बन रहे कारखानों के पास,


आपको दिल में बसाए,

कामरेड लेनिन,

हम रच रहे हैं,

हम सोच रहे हैं,

हम साँस ले रहे हैं,

हम जी रहे हैं,

और हम संघर्ष कर रहे हैं!

घटनाओं की एक चकरघिन्नी

ढेर सारे कामों से लदा,

दिन डूबता है धीरे-धीरे

जब उतरती है रात की परछाईं.

दो जने हैं कमरे में—

मैं

और लेनिन-

एक तस्वीर

सफेद दीवार पर लटकी.


(अनुवाद– दिगम्बर)


Vladimir Mayakovsky



लेनिन


नारायण सुर्वे


अब तक मैंने तुम पर लिखा नहीं

यह अफ़सोस नहीं;

एक बेहद ज़िम्मेदारी को महसूस करता हूँ

जब मैं सीने पर हाथ रखता हूँ, लेनिन

बीच आधी रात और

एक घुम्म-सी आवाज़ शहर में गूँजती है

ऊपर के पोल को नीचे खींच कर

खड़खड़ करती ट्राम खड़ी हो जाती है



तब चिपकाते रहते हैं पोस्टर; या

बत्ती के नीचे बैठ कर बहस करते हैं हम।

बड़े सुख के ये दिन

बिल्कुल आँच के पास की गरमाहट जैसे

असली ज़िन्दगी जीने का

अहसास दिलाने वाले सुनहले दिन।


बड़ा लुभावना यह शहर

करोड़ों वोल्ट्स का एक तारा

ठंडा पड़ जाता है एक दिन

ख़ामोश हो जाता है, चक्का जाम होता है,

लोग सड़कों पर उतर आते हैं


जलती रहती हैं बत्तियाँ दिन-दहाड़े

बाढ़ की तरह सड़क पर लोगों का झुंड

हद हो जाती है चौराहे-चौराहे पर

हथौड़े वाले रणबाँकुरे बन जाते हैं ।

जीतते हैं; चिनगारियाँ जलाते हैं शेर के बच्चे

ऐसे वक़्त किसी को भी यहाँ नतमस्तक होना चाहिए।


तब वे हमें ले गए

'साले! लेनिन वाले लगते हैं ।' कहा उन्होंने,

कान गर्म हो गए, लेकिन अच्छा भी लगा

दानवों ने अब ही सही, हमें ठीक से पहचान तो लिया।



'ये अब जाग गए हैं

सूरत ही बदल डालेंगे धरती की'

                तुमने लिखा।

अब तक हम शब्द को पूरा नहीं कर पाए हैं

अब तक तुम पर

कुछ लिखने का साहस मैं नहीं जुटा पाया हूँ।


(मूल मराठी से निशिकांत ठकार द्वारा अनूदित)


नारायण सुर्वे



लेनिन के प्रति


कुबेर दत्त


पूरी दुनिया तुम्हें

जन जन का नायक कहती है

तुम इतिहास का एक बड़ा सुखद अध्याय हो 


अनेक किसान तुम्हें किसान के रूप में जानते हैं,

अनेक मज़दूर मज़दूर के रूप में

नौजवान तुम्हें अपना सहोदर समझते हैं


मैं तुम्हें

हर सुबह उगने वाले सूर्य के रूप में

जानता हूं

गर्म, स्नेहपूर्ण, ताप लिए अंधेरे को चीरकर आते हुए

प्रकाश पुंज की तरह।

 

कुबेर दत्त

 

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