विनोद शाही की कविताएं
विनोद शाही |
कोई भी राज्य जनता के दम पर बनता है। अलग बात है कि जनता से उद्भूत शासन कुछ ही समय में मदारी की भूमिका में आ जाता है और जनता जमूरे में बदल जाती है। शासन जनता को कुछ इस तरह संचालित करने लगता है कि अपने खिलाफ कुछ भी सुन पाना उसे बर्दाश्त नहीं होता। इसी प्रक्रिया में उस झूठ की रचना होती है जो शासन का मूल चरित्र बन जाता है। जनता से जुड़े मुद्दों को भी शासन अपने ही रंग में ढाल देता है। उदाहरण के तौर पर आज अपने यहाँ जब कुछ लोग महँगाई को ही शासन का नुमाईंदा बन कर डिफेंड करने लगते हैं, तो आश्चर्य होता है। जबकि सच तो यही है कि महँगाई से आम जनता बुरी तरह त्रस्त है। 'इतना ही डरो' एक ऐसी महत्त्वपूर्ण कविता है जो शासन के चरित्र से डरे हुए व्यक्ति के रेशे-रेशे को खोल कर रख देती है। इस कविता को लिखा है हमारे समय के महत्त्वपूर्ण विचारक और चिन्तक विनोद शाही ने। विनोद जी ने उम्दा कविताएँ भी लिखी हैं। आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं विनोद शाही की कुछ नई कविताएँ।
विनोद शाही की कविताएं
इतना ही डरो
अखबार के दफ्तर में
छपने के लिये आयी है खतरनाक खबर
दिखाओ कि डर रहे हो तुम
कि डर कर तुम ने उसे छापा है
कि डर कर तुम ने उसे पढा है
डरते हुए लगो कि ऐसी खबर से भी
न्याय हो सके
डरते हुए लगो कि सेंसर बोर्ड को भी
खुशी होती रहे
डरते हुए लगो कि हालात को
बदलने की बात ही न उठे
कि संस्कृति के रखवालों में
तुम्हें भी जगह मिल सके
डरते हुए लगो कि पड़ोसी तक से
मिलना भूल जाये
घरेलू हो गये भारत की
हर समस्या का
घर में हल निकल आये
डरते हुए लगो कि झूठ के खिलाफ
कोई नहीं बोले
कि सच को मारते हुए तुम में भी
खुदकुशी कर चुका
ज़ौम्बी दिख सके
डरते हुए लगो कि उम्मीद छूटे नही
अच्छे दिनों की
कि बुरे दौर के हिमायती
कहलाने से बच सकें
डरते हुए लगो कि अपनी तरह होने की
हिम्मत बची रहे
कि गैर की तरह भीड़ के हाथों
मरने की नौबत न आये
इतना डरते हुए लगो कि डरने से
डर लगना ही छूट जाये
छुईमुई लाज से नहीं मरी
वह उन हाथों को देख कर मरी
जो उस की तरफ
एक उंगली आगे कर
रिवाल्वर से तने थे
उस के आसपास
मुट्ठी की तरह
बंध जाने को तैयार थे
मरने से पहले वह
प्रतिरोध में गुस्से से भरी
तमतमायी सी कंपकंपायी
फिर सिकुड़ गयी
रंगों से खेलती खेलती
उन्हीं से जाने कहां
लुक छिप सी गयी
कला की तौहीन करता दिखा पूरा देश ही
इसलिये सारे साज सिंगार से
पीठ कर निकल गयी
बचाने के लिये खुद को
खुद की आत्मा में उतर गयी
करनी थी अन्याय की खिलाफत
हो गयी खुद अपनी आग में सती
दूसरी मीरां सी दैवी सौभाग्यवती
क्रांति फिर से रह गयी हमारा
मुंह ही ताकती
इतना कुछ है
जिसका प्रतिवाद करना है
इसलिये मेरा पशु जब तब
बाहर आने लगता है
देशी नस्ल के आवारा कुत्ते सा
हर बाहर वाले पर भौंकता है
अपने हिस्से की रोटी को बचाता है
अपने इलाके की
हिफाजत करता है
पर किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता
लोग ड्राइंग रूम की तरह
शालीन तरीके से
अपनी आपत्ति दर्ज करते रहते हैं
कुलीन सोफे पर
धर्म ओढै
बैठे रहते हैं
पशुता को जीत चुके
आदमी लगते हैं।
यह देख कर मेरा पशु
कुत्तों की दुनियां को पीछे छोड़ता है
किसी तनी हुई मांसपेशी सा
अख्तियार करता है
नई-नई मिथक शक्लें
लोगों का ध्यान खींचने के लिये
धर्म की शक्ति का इस्तेमाल करता है
कभी वाराह, तो कभी
नरसिंह या शेषनाग लगने लगता है
पूंछ को ज़हर भरी प्रत्यंचा की तरह
देह के धनुष पर चढ़ाता है
झपाक से लपलपाता है
आग की दोमुंहीं लाल जीभ
ड्रैगन सा लगता है
किसी के गर्व में ऊंचा तन जाने को
बर्दाश्त नहीं करता
हरियाली सटकारती
आकाशचारी बांस की बेंत को
घास की तरह चरने लगता है
काली अयाल वाली
गर्दन को झटक कर
चारों दिशाओं में देखता है
खुला छोड़ दिया गया
अश्वमेध का घोड़ा लगता है
मेरी त्वचा में सिमटे अनुभव
अचानक चौंक कर उठते हैं
देह में सोये बनमानुस की नींद
टूट जाती है
सहस्राब्दियां
बढ़े बालों की मीनारों को पकड़ कर
झांकने लगती हैं
रोमकूपों से बाहर की तरफ
मेरी धर्म भीरु तुलसी का
आधा हिस्सा चबाने के बाद
वह भीतरी पशु
दूसरे पशु की मांग करने लगता है
लेकिन ड्राइंग रूम है कि
मेरे पशु को
किसी देवता का वाहन
न हो सकने के कारण
हंकाल बाहर करता है
और मेरे लिये बने दूसरे पशु को
भीतर ले आता है
दूसरा पशु
गले में पट्टा पहने
आदमी की तरह सभ्य लगता है
उसका नाम
किसी गोरे अंग्रेज़ की याद दिलाता है
और देखते देखते वह
किसी और ही नस्ल का हो जाता है।
भूगर्भ से निकले
हमारे अधिकतर कंकालों के अवशेष
इतिहास को वहां ले जाते हैं
जहां से वह अभी शुरू भी नहीं हुआ होता
कुछ कंकाल ऐसे भी होते हैं
जो पृथ्वी पर बची रह गयी
तमाम किताबों के मुकाबले
अधिक समझदार होते हैं
वे अतीत से ही नहीं
हमारा रिश्ता
उसमें छिपी हमारी सच्चाई से भी जोड़ते हैं
और होते हैं कुछ ऐसे भी
विरले कंकाल
जो हमें हमारी मृत्यु की
उत्तर कथा इस तरह बताते हैं
कि वह जीवन की कथा हो जाती है
वे बताते हैं कि
आदमी को मरना कैसे चाहिए
और उस तरह मरने के लिये
कैसे
कितनी गहराई में उतर कर
जीना चाहिए
जैसे हड़प्पा की खुदाई में निकला है
एक ऐसा कंकाल
जो आज तक पद्मासन में है
अनन्त काल से मृत्यु के खिलाफ
सदेह भूख हड़ताल पर है
इतिहास के
अपहर्ताओं के खिलाफ
उसकी जंग जारी है
निकला है वह पृथ्वी के गर्भ से
आप खुद अपना
स्मारक-शेष बन कर
जीतते रहे आदमी से
युद्ध में खून के प्यासे लोग
उसे कंकाल में तब्दील करते हुए
और वह
कंकाल हो कर भी
भूख प्यास को जीत गया
साम्राज्य के विस्तार से
भरते रहे विजेता
अहं के भीतर का खालीपन
और वह खाली होने के लिये
अहं को छोड़ गया
पूंजी की तरह भूखे लोग
मुटियाते रहे
घेरते रहे पूरी धरती को
अपनी तोंद से
खूब काम आया उनके इतिहास में
इस तरह के कंकाल पुरुषों का रक्त मांस
दावत उड़ाते रहे अलिखित संविधान के
नीति-निर्देशों की तरह
चिपटे रहे वे ज़िंदगी से
मर गये
मर गया लगता था जो पर
जी रहा है आज तक
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स विनोद शाही की हैं।)
संपर्क :
A 563 पालम विहार
गुरुग्राम 122 017
मोबाइल 98146 58098
बहुत उम्दा और साहसपूर्ण कविताएं।ऐसे समय में जब धारा के विरुद्घ होना तथाकथित सच के विरुद्ध होने जैसा हो , ज्ञान की निर्मिति हर तरह की अज्ञानता से हो रही हो।अमानवीयता के लिए पूरी मनुष्यता तर्क रच रही हो, ऐसे में ये कविताएं उल्कापात का काम करती हैं।वे इस वाक्य में गहरा यकीन दिलाती है कि वक्त बदलता है और जब बदलता है तो संघर्ष, साहस और सच्चाई की पुनर्व्याख्या करता है।विनोद शाही जी इन कविताओं के लिए बधाई।
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