हंगेरियन कवि इश्तवान वोरोश की कविताएँ
इश्तवान वोरोश |
इस दुनिया में हर चीज की एक छाया होती है। यहाँ तक कि बात, विचार और यथार्थ की भी छाया होती है। और इन छायाओं के लिए हम एक साक्षी होने के नाते खुद भी जिम्मेदार होते हैं। यह जो छाया होती है, वह भी अपनी एक चुनौती प्रस्तुत करती है। उन वास्तविकताओं के लिए जो खुद पर इतराती फिरती हैं। दरअसल यह उस स्वायत्तता की कवायद करती है जो हरेक को उसकी सीमा का बोध कराती है। हंगेरियन कवि इस्तवान वोरोश इन छायाओं की सूक्ष्मता की तस्दीक करते हैं। आज पहली बार पर प्रस्तुत है हंगेरियन कवि इस्तवान वोरोश की कविताएँ। वोरोश की कविताओं का हिन्दी में सहज अनुवाद किया है हिन्दी की चर्चित कवयित्री पंखुरी सिन्हा ने।
हंगेरियन कवि
इश्तवान वोरोश की कविताएँ
(अनुवाद - पंखुरी सिन्हा)
भीतर का कमरा
आत्मा के भीतर का कमरा
कोई गुसलखाना नहीं
फिर भी, उसमें एक
पुराना बाथ टब है!
ज़ाहिर है कि कोई
तरीका नहीं इस टब में
कहीं से भी पानी ले जाने का
लेकिन, आप बैठ सकते हैं
उसमें! हर कोई आता है यहाँ
अपनी दुल्हन, अपने दूल्हे के साथ!
पारदर्शी हो उठता है
मोटा आवरण!
साफ़ हो जाता है प्यार का मतलब!
साबुन के बुलबुले की तरह
विस्फोट होता है प्यार का!
लेकिन, उसी बुलबुले से
गिर जाती है समूची दुनिया!
आकाश गंगाएं, सनस्पौटस
तमाम साल और क्षणों के टुकड़े!
नग्नता और विलोम उसका!
बर्बरता और कमज़ोरी
घूमती हुई एक दूसरे के गिर्द
जैसे दो अलग झंझावात
टकराते हुए! वचाव है केवल
जगह बदलते रहना!
स्वीकारोक्ति, प्रदर्शन, माफ़ी , अनुमान उसका जो है
शर्मनाक एक राज़! कभी नहीं का जुमला,
कभी नहीं होता, इतना पास, जितना प्यार में!
और कभी नहीं का जुमला,
कभी नहीं था इतना दूर, जितना अभी!
सुनहली मछली, बारिश और विचार
यह दुनिया, दीवार पर प्रतिबिम्बित छायाओं की दुनिया है। ठीक ठीक, गुफ़ा की दीवार जैसी नहीं--वह आज से कितना पहले की बात है--शुद्ध कौंक्रीट! लेकिन फिर भी, एक ही ग्लोब है, जिसमें रहते हैं हम, हम सब सुनहरी मछलियाँ!
ऐसी जगह कैसे कर सकती है अपनी रक्षा, आती हुई बिल्ली से?
वह जो है बिल्लियों में सबसे ज्यादा बिल्ली जैसी,
काली बिल्ली? अगर काली बिल्ली के पंजे पहुँच गए, ग्लोब की सुरखों, खिड़की दरवाजों तक?
मैं अकेला होता हूँ हमेशा, जब बचाना होता है मुझे कुछ!
बिल्ली से मछलियाँ और खुद को बारिश से! हालाकि, जब पकड़ लेता हूँ उस छोटे से एक्वेरियम को, मेरी तीन ख्वाईशें हो जाती हैं पूरी, बिना मछलियों से बोलने का
यत्न किये! जूते, रेनकोट! और मेरी
ओर, एक जोड़ी परछाइंयां, खोलती हैं एक काल्पनिक छाता!
यह दीवार पर पड़ने वाली
छायाओं की दुनिया है ! हमारी दुनिया! विचारों की छायाएँ! यथार्थ की छाया, बारिश की चमक के नीचे! अपने लिए मैं ही ज़िम्मेदार हूँ! अपनी छाया के लिए, तमाम छायाओं के लिए!
वास्तविकता के लिए, प्रकट और उपस्थित के लिए!
उन आकृतियोँ, मौजूदगियों के लिए जो खतरनाक हैं! यही है हमारी दुनिया! ज़िम्मेदारियों की! ज़िम्मेदारियों की छायाओं की!
यही है छायाओं की वह दुनिया
दीवार के ऊपर थोपी हुई! मैं अकेला होता हूँ, जब भी मुझे चाहिए होता है कुछ!
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स स्व. विजेंद्र जी की हैं।)
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बहुत सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना शुक्रवार २९ अप्रैल २०२२ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।