स्वप्निल श्रीवास्तव की कविताएं
स्वप्निल श्रीवास्तव |
स्वप्निल श्रीवास्तव हमारे समय के एक जरूरी कवि हैं। इनकी कविताओं में समय और समाज की पदचापें स्पष्ट सुनी जा सकती हैं। अपने ऊपर हँसने का दमखम रखने वाला यह कवि धारा के खिलाफ बहने का माद्दा रखता है। विनोद मिश्रा के संपादन में प्रकाशित होने वाली कृति बहुमत पत्रिका के अप्रैल 2022 अंक में स्वप्निल जी की दस कविताएं प्रकाशित हुई हैं। आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं स्वप्निल श्रीवास्तव की कविताएं।
स्वप्निल श्रीवास्तव की कविताएं
अक्सर
अक्सर हम उन बातों पर हँसते थे
जिस पर लोग अपनी रूलाई
नही रोक पाते थे
अमीरी पर ईर्ष्या करने की जगह
हम अपनी गरीबी पर हँसते थे
जब दर्द बेइंतहा हो जाता था
उसे हम जोर से हँस कर दूर करते थे
हमें किसी चारागर की जरूरत नहीं होती थी
हमारी हँसी को देख कर लोग कहते थे
ये पागल लोग हैं
मनुष्य के स्वभाव के विपरीत काम कर रहे हैं
हम धारा के साथ नही
उसके बरखिलाफ तैरते थे
यह हमारे दैनिक जीवन का हिस्सा बन गया था
जो चीजें हमें नहीं मिलती थी
उसके न मिलने पर हँसते थे
जो लोग बिछुड़ जाते थे
उनके बारे में मान लेते थे
ऐसा तो होना ही था
यहाँ ठहर कर हम थोड़ा
उदास हो जाते थे
धावक
मैं किसी धावक से कम नहीं था
जिंदगी भर भागता रहा
सबसे पहले एक लड़की के पीछे भागा था
लेकिन वह मुझसे आगे निकल गई थी
मुझे लगा कि भागने के पहले तैयारी जरूरी है
मैं हाथ, पैर पंजे और मांसपेशियां मजबूत करता रहा
फिर नौकरी के पीछे भागा
भागते भागते मुझे एक टुटही सी नौकरी मिली
जिसमें मैं शहर दर शहर भागता रहा
अंपायर मुझे चैन से बैठने नहीं देता था
वह मुझे लक्ष्य से दूर करता रहा
जब मैं दौड़ता तो वह कहता
रुक जाओ - मैं रुक जाता था
इस कवायद में लोगों से पिछड़ जाता था
कई बार लोगों के लिए
खेल के नियम बदल दिए जाते थे
ऐसे लोगों को दौड़ने का मौका दिया जाता था
जो दौड़ना नहीं जानते थे
लेकिन वे तमगे ले कर लौटते थे
मैं हजारों किलोमीटर दौड़ता रहा
लेकिन मुझे कोई मेडल नहीं मिला
किसी ने मेरे दौड़ की तारीफ नहीं की
हाँ – यह मैंने जरूर सोचा था कि
किसी माया-मृग के पीछे नहीं भागूंगा
राम स्वर्ण-मृग के पीछे भागे थे
उसी दिन से उनके जीवन में मुसीबत की
शुरूआत हो गयी थी
आदमी को भागने का अभ्यास होना चाहिए
ताकि हाथ-पाँव निष्क्रिय न हो सकें
आदमी को मालूम होना चाहिए
वह किस दिशा की तरफ भाग रहा हैं
अन्यथा इस दौड़ में उसे नहीं मिलेगी मंजिल
बस वह बेवजह भागता ही रहेगा
छूटना
लाख सावधानी के बावजूद
कहीं न कहीं कुछ छूट जाता है
छूट जाती है घर की तरफ जाने वाली रेल
सुनते रह जाते हैं उसकी
सीटी की आवाज
हमारे और बस के बीच इतना
फासला बढ़ जाता है कि हम
उसे दौड़ कर पकड़ नहीं सकते
उसका गुबार देखते रहते हैं
एक शहर से दूसरे शहर जाने से
कुछ न कुछ छूटना लाजिमी है
तबादले वाली नौकरी के यही तो दुख हैं
जैसे ही शहर और लोगों से परिचय बढ़ने लगता है
– शहर छोड़ने का परवाना आ जाता है
उन स्पर्शों का जिक्र क्या
जिसकी याद आते देह में
झुरझुरी होने लगती है
इसी तरह कविता में छूट जाते हैं बहुत से शब्द
यह उनके प्रकाशन के बाद पता लगता है
जब हम इस दुनिया से जाएँगे
हमारे पीछे बहुत कुछ छूट जाएगा
नींद के दुश्मन
हमारी नींद के बहुत से दुश्मन थे
सबसे बड़ा दुश्मन शहर का हाकिम था
वह रोज नये कानून बनाता था
जिस पर अमल करते हुए
हमारी नींद गायब हो जाती थी
दूसरा दुश्मन इलाके का जालिम कोतवाल था
जिसका कलेजा हमारे लिए सख्त
और मुजरिमों के लिए नर्म था
उसके कोड़े शरीफ लोगों की पीठ पर बरसते थे
और गुनहगार बच जाते थे
थोड़ा-बहुत हम भी अपने नींद के दुश्मन थे
यह सोचते हुए नींद से बाहर हो जाते थे
कि कैसे शहर की तकदीर संवर सकती है
कैसे बदली जाए शहर की हुकूमत
शहर में जागने वाले कम
और सोने वालों की तादाद ज्यादा थी
इसलिए घरों की नकब खूब कटती थी
चोर मुतमईन थे कि
इस कोतवाल के राज में महफूज रहेंगे
वे अपनी चोरी की कुछ रकम
उसकी झोली में डालते रहते थे
नींद के दुश्मनों की फेहरिस्त इतनीबड़ी थी
कि रातें खत्म हो जाएँगी
किस्से नहीं खत्म होंगे
गोया हम ऐसे शहर में रह रहे थे
जहां अमन चैन नदारद था
झूठे लोग सच्चे लोगों का मजाक उड़ाते रहते थे
शहर के हाकिम और कोतवाल
हमारी बेचारगी पर दिल खोल कर हँसते थे
लोहे की भेड़ें
ये कारें नहीं लोहे की बनी हुई भेड़ें हैं
जो धीरे-धीरे अपने चरागाह की तरफ बढ़ रही हैं
वे किसी घास के मैदान की ओर नहीं
अपनी प्यास बुझाने तेल के कुओं के पास जा रही हैं
उनकी पीठ पर एक ऊबा हुआ आदमी बैठा हुआ है
जिसे अपने गंतव्य पर पहुँचने की जल्दी है
लेकिन वह जानता है कि वह
सही समय पर नहीं पहुँच पाएगा
जब एक साथ इतनी लोहे की भेड़ें
निकलेंगी तो कम पड़ जाएँगे रास्ते
और भेड़ें एक दूसरे से लड़ने लग जाएँगी
पैदल चलता हुआ आदमी उनसे आगे निकल कर सोचता है,
आखिर इस रेवड़ को हाँकने वाला चरवाहा कहां गया
जिसके ऊपर भेड़ों को नियंत्रित करने की जिम्मेदारी है
वह अपने दोस्त से कहता है
अच्छा हुआ कि उसके पास इस तरह की
घूसर भेड़े नहीं हैं अन्यथा उसे भी इस
रेंगते हुए जुलूस का हिस्सा बनना पड़ता
संगतराश
इस शहर ने मुझे संगतराश की तरह गढ़ा है
मैंने उसकी छेनी और हथौड़ी की
बहुत सी चोटें सही हैं
संगतराश मेरे साथ कोई रियायत नहीं करता था
मैं दर्द से चीखता था
और वह अपने काम में लगा रहता था
वह मुझे गढ़ने के बाद तराशता था
उसके तराशने के औजार बहुत तीखे थे
जब मैं मुकम्मल हो गया तो
संगतराश ने मुझसे कहा था
किसी जगह स्थापित न होना
चलते रहना
अगर ठहर गए तो तुम
बुत बन जाओगे
दुनिया में आँसू
इस दुनिया में इतने आँसू बहे हैं कि
पृथ्वी कई बार डूब सकती है
सबसे ज्यादा आँसू स्त्रियों के बहे हैं
समुद्र का खारापन उनकी ही देन है
कम नहीं रोये हैं अनाथ बच्चे
लेकिन उनके आँसू पोंछने के लिए नहीं बढ़े है हाथ
ईश्वर भी उनके लिए निर्मम बना रहा
पुरूषों को स्त्रियों की तरह रोना नही आता
इसलिए उनके आँसू आँखों में सूख जाते थे
अगर आँसू नहीं होते तो
हमारी भाषा में नहीं होती इतनी करूणा
वह गाती थी
वह गाती थी तो और भी सुंदर हो जाती थी
मैं सुनता तो थोड़ा अच्छा हो जाता था
वह चिड़िया के गीत गाती
तो मैं उड़ने लगता था
नदी के लिए तान छेड़ती
मेरे भीतर हिलोर उठने लगती थी
फूलों के लिए नहीं
काँटों के लिए उसके गीत कोमल थे
वह दुख के गीत गाती और
सुख में डूब जाती थी
वह कई तरह से गाती थी
और गाते-गाते गीत बन जाती थी
मैकदे
मैकदे में नहीं होते हैं
कायदे
भाषा वहां पहुँच कर अराजक और
बेलगाम हो जाती है
कोई हँसता है, कोई रोता है
कोई इन दोनों की क्रियाओं के बीच होता है
यहां वे किस्से सुनाए जाते हैं
जिन्हे होश में सुनाना मुश्किल होता है
भग्न दाम्पत्य और बेवफा प्रेमिकाओं की दास्तानें
करूण रस में सुनाएं जाते हैं
यहां से घर पहुँचने की कोई जल्दी नहीं होती
समय रुक सा जाता है
कुछ लोग देर रात में अपने दरवाजों
की जगह दूसरों का दरवाजा खटखटाते हैं
और अपमानित हो जाते हैं
जब सारा शहर नींद में होता है
वे नशे की मादक दुनिया में लौटते हैं
और अधूरा ख्वाब देखते हुए
सो जाते हैं
नाम का बदलना
एक रात मैं फैजाबाद में सोया
और सुबह अयोध्या में उठा
मैं सोया ही रहता अगर घंटे-घड़ियालों
और राम धुन ने मुझे जगाया न होता
मैं डर गया था कि कहीं मेरे नाम की
नागरिकता न छिन जाए
मैं घबड़ा कर इलाहाबाद जाने के लिए
रेल में सवार हुआ लेकिन मेरी आँख
प्रयागराज में खुली
नाम के असर से वहां कुछ नहीं बदला था
आजाद पार्क, आनंद भवन
और अमरूद के बाग पूर्ववत थे
पहले की तरह थी वहां आवाजाही
गंगा उसी तरह बह रही थी जैसे पहले बह रही थी
इसी तरह मेरे पसंदीदा शहरों के नाम
मेरे वहां पहुँचने के पहले बदल दिए जाते थे
मैनें सोचा कि नाम की कवायद से बचने के लिए
बस्ती जिले के अपने गाँव चला जाऊं
लेकिन वहां भूत ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा था
बस्ती के एक हिस्से को काट कर
जनपद का नाम सिद्धार्थ नगर कर दिया गया था
यह परिवर्तन मुझे अच्छा लगा
बुद्ध मेरे प्रिय देव थे और कपिलवस्तु
उसी परिक्षेत्र में अवस्थित था
अहिंसा की धुन उन्होंने दुनिया में बजायी थी
लेकिन गाजियाबाद के एक भूभाग को
जब गौतमबुद्ध नगर जनपद बनाया गया
तो मुझे अचरज हुआ
इस जगह से बुद्ध का कोई संबंध नही था
चीनी यात्रियों के यात्रा विवरणों में
इस जगह का कोई उल्लेख नहीं मिलता
नामों के पीछे कोई ऐतिहासिक कारण नहीं
सिर्फ राजनैतिक लाभ की योजना थी
इसी तरह जब मैं अकबरपुर नौकरी के तबादले
में आया तो अकबरपुर
अंबेडकर नगर में तब्दील हो चुका था
अंबेडकर कभी अकबरपुर आए थे
इसका जिक्र इतिहास की किताबों में नहीं मिलता
हो सकता है कि वे किसी राजनेता के स्वप्न में आए हों
और उसी से नाम बदलने की प्रेरणा मिली हो
हाँ, यहाँ लोहिया जरूर पैदा हुए थे
तो इस जगह का नाम लोहिया नगर
होना चाहिए था
जिन लोगों ने उनके नाम को लेकर
राजनीति की बैतरणी पार की थी
उन्होंने लोहिया को जीते जी भुला दिया था
लोहिया नाम के चौराहे पर उनकी मूर्ति थी
जिन पर उनका बूढ़ा दोस्त पुष्प चढ़ाता रहा
कुछ साल पहले इस दुनिया से चला गया
उसने राजनतिक व्यवसायियों के हाथ
लोहिया को बिकने नही दिया
जहां मैं गया शहरों के नाम बदले हुए मिले
यहाँ तक कि उस रेलवे - स्टेशन का नाम बदल दिया गया था,
जहां एक प्रमुख राजनेता की हत्या हुई थी
अभी तक उस हत्यारे का पता नहीं चला
हत्या के तथ्य को छिपाने के लिए
उस स्टेशन का नाम उसके नाम से मशहूर कर दिया गया था
नाम बदलना हत्या के बराबर का काम है
हत्यारे अक्सर अपना नाम बदलते रहते थे
अदालत उन्हें कटघरे में नही खड़ा कर पता था
वे बेदाग छूट जाते थे
नामों के बदलने की रफ्तार इतनी तेज रही
तो हमारे नाम के साथ पूर्वजों के नाम बदल दिए जाएँगे
हमे कोई नये नामों से पुकारेगा तो हम सुन नहीं पाएँगे
क्योंकि हमे अपने पुराने नामों से पुकारे जाने का अभ्यास है
सबसे ज्यादा मुश्किल उन शोधकर्ताओ को होगी
वे नाम के पीछे भागते रहेंगे
और असली नाम तक नहीं पहुँच पाएँगे
इस देश में जो भी शासक आए या पैदा हुए
वे काम की नहीं नाम की वर्जिश करते रहे
नये नाम के नेपथ्य में अपनी नाकामी छिपाते रहे
नाम से नहीं काम से बदलती है संस्कृति
अब इस मुहावरे का कोई अर्थ नहीं रह गया है
मुकुट बदलने से इतिहास नहीं बदलते
प्रिय शासकों
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स स्व. विजेंद्र जी की हैं।)
सम्पर्क
मोबाइल -9415332326
सार्थक और सामयिक कविताएं
जवाब देंहटाएंस्वप्निल कविताएं नहीं रचते बल्कि ऐसा लगता है कविता उन्हें रचती है। इलाहाबाद की वह काव्य गोष्ठी याद आ गयी डॉ संतोष जी जो आपके संचालन में हुई थी , जिसमें स्वप्निल जी ने कविताएं सुनाई थीं और मैंने ग़ज़लें। बधाई आपको
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