सुधा अरोड़ा से प्रेम भारद्वाज की बातचीत
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| मन्नू भंडारी के साथ सुधा अरोड़ा |
किसी के मुंह पर खरी खरी बात कह देना आसान नहीं होता। वह भी तब जब बात प्रतिष्ठित कथाकार और हंस के सम्पादक राजेन्द्र यादव की हो। सुधा अरोड़ा ने इस कठिन को अपने साहस से आसान बनाया। पाखी के सम्पादक प्रेम भारद्वाज ने राजेन्द्र यादव को ले कर सुधा जी से एक लम्बा साक्षात्कार लिया था। इस साक्षात्कार में सुधा जी ने राजेन्द्र यादव के जीवन और व्यवहार के विभिन्न पक्षों पर बेबाकी से बात किया। बातचीत राजेन्द्र यादव की हो, और मन्नू भंडारी की बात न आए, भला यह कैसे हो सकता था। मन्नू जी जैसी धीर गम्भीर लेखिका ने कभी पलटवार नहीं किया। रचना की तरह उनका व्यक्तित्व भी साफ सुथरा था। राजेन्द्र यादव के स्त्री विमर्श की खासी चर्चा की जाती है। एक सवाल के जवाब में सुधा जी ने कहा - 'होना सोना' आलेख पर मेरी प्रतिकिया तब हुई जब उन्होंने अपने संपादकीय में विरोध करने वाली 'करवाचौथी औरतों' की जमात में मेरा भी नाम डाल दिया जबकि उस लेख पर कलम उठाने की मेरी कोई मंशा नहीं थी, न मैंने इसका जिक्र किया था। मैंने अपनी प्रतिक्रिया उन्हें सिर्फ पढ़ने के लिये भेजी थी पर उन्होंने अपनी लोकतांत्रिकता दिखाने के लिये उसे प्रकाशित कर दिया और मेरे लिये घोषित विरोध के दरवाजे खोल दिये। अपने जाने उन्होंने एक बोल्ड व्यंग्य लिखा था पर व्यंग्य को वे साध नहीं पाये और अनजाने में उनकी उथली सोच उजागर हो गई। राजेंद्र जी के निजी जीवन में लगातार बढ़ती हुई यौन कुंठाओं, अराजकता और विकृतियों का असर हंस में प्रकाशित सामग्री में निरंतर दिखने लगा था। इसका क्लाइमेक्स तब हुआ जब कमलेश्वर जी के एक श्रेष्ठ कहानी पर पचास हजार के पुरस्कार की घोषणा के साथ ही हंस में सभी कहानियां बलात्कार के मुद्दे पर आईं। पुरस्कृत होने वाली कहानियों का अंक 'सुपर बेवफाई विशेषांक' की तर्ज पर 'बलात्कार की विभीषिका' की जगह 'बलात्कार विशेषांक' बन कर रह गया। जाहिर है, हंस में छपने को आतुर लेखक लेखिकाएं संपादक के विषय की प्राथमिकता के अनुसार लिख रहे थे। मुझे अफसोस है कि अपने संपादकीयों में स्त्री विमर्श पर अनगिनत व्याख्यान देने वाले हंस के संपादक ने रचनात्मक स्तर पर स्त्री की जमीनी समस्याओं पर उंगलियों पर गिनी जाने वाली कुछेक कहानियां ही दीं। वर्ना स्त्री सशक्तिकरण में हंस का बड़ा योगदान होता, जो नहीं हो पाया। उल्टा लेखिकाओं की एक बड़ी जमात ने दैहिक विवरण बढ़ चढ़ कर लिखे गोया बोल्ड लेखन का तमगा हासिल करने के लिये यही एक आसान सा रास्ता रह गया हो।' आज पहली बार पर हम प्रस्तुत कर रहे हैं सुधा अरोड़ा से प्रेम भारद्वाज की महत्त्वपूर्ण बातचीत।
"हंस के भाल पर तिलक की तरह प्रतिष्ठित संस्थापक प्रेमचंद का नाम अब एक पैबंद सा लगता है।"
सुधा अरोड़ा से प्रेम भारद्वाज की बातचीत!
आपके परिवार का राजेंद्र यादव के साथ बहुत पुराना संबंध रहा है आप उस समय को किस तरह देखती हैं?
हमारे घर राजेंद्र जी का आना तब हुआ करता था जब मैं आठ साल की थी। यानी 1954 में। राजेंद्र जी की टांग में गोली लगने वाली घटना पापा के सामने ही हुई थी। उसके बाद महीना भर पापा की फैक्टरी में रहे राजेंद्र जी। घर में हर रविवार को आते थे। हम बच्चे उनके आने की राह देखते थे। जैसे जैसे राजेंद्र जी के साहित्यकार मित्रों और प्रशंसिकाओं का दायरा बढ़ता गया वे गैर साहित्यकार मित्रों से कटते बले गए। मन्नू जी से शादी के बाद वे दिल्ली चले गए और हमारे परिवार से उनका सम्पर्क टूट गया।
जब मैं पंद्रह सोलह की उम्र में काफी बीमार रहने लगी थी पापा मेरे सिरहाने अपने मित्र की किताब 'उखाड़े हुए लोग' (प्रेत बोलते हैं और कुलटा अपनी वे दोनों किताबें राजेंद्र जी ने पापा का नाम लिख कर उन्हें भेंट की थी) रख दिया करते थे कि इसे पढ़ो। 'उखाड़े हुए लोग' मुझे बोझिल लगती और शाम को पापा के आते ही उन्हें दिखाने के लिये मैं वह किताब खोल लेती और सुबह उनके फैक्टरी जाते ही भारती जी का 'गुनाहों का देवता' पढ़ती, क्योंकि आंसू बहाने के लिये उस किताब से बेहतर दूसरा विकल्प नहीं था।
मेरे पापा के दिमाग में उनके परम प्रिय मित्र राजेंद्र यादव का एक बड़ा उज्ज्वल धवल पक्ष खुब गया था (जो उनका ब्रेनवॉश करने की मेरी तमाम कोशिशों के बाद आज आधी शती के बाद भी कायम है क्यों कि राजेंद्र जी के मामले में वे 1954-57 से आगे बढ़े ही नहीं) उन दिनों साहित्यकारों के प्रति आम लोगों के मन में गहरी श्रद्धा का भाव रहता था। पापा के कारण मुझ तक भी राजेंद्र जी के महान होने की यह इमेज स्थानांतरित हो गयी थी और काफी लंबे अरसे तक मैं भी उनकी अन्य भक्तिनों की तरह उनकी रचनाओं के कारण उन्हें तब तक पूजती रही जब तक हंस के देह के उत्सव की सार्वजनिक छवि ने पूरी तरह उनकी इमेज ध्वस्त कर मेरा मानसिक स्वास्थ्य बिगाड़ नहीं डाला और अपने पापा और अपनी लेखक प्रजाति के बहुत से लोगों से अलग हट कर अपने नीर क्षीर विवेक से खुद मुझमें अपनी तरह से व्यक्तियों का आकलन करने की क्षमता नहीं आ गई। राजेंद्र जी को 'मेरे चाचा महान' समझती रही मैं बरसों तक। कोई उनके लिये हल्की बात करता ती लड़ भिड़ जाती मैं।। बदकिस्मती से महान से महापातकी तक का लंबा ग्राफ प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से देखा है मैंने जो बेहद दुखद है और डिस्टर्व करता है।
किस किस से लड़ भिड़ गयीं आप? राजेंद्र जी से आपका संवाद रहा?
शादी के बाद मैं मुंबई शिफ्ट हो गयी और मुंबई में कमलेश्वर जी युवा लेखकों के गॉडफादर थे। कमलेश्वर जी का हमारे यहां काफी आना जाना था। कथायात्रा के दौरान कमलेश्वर जी के सारे कारनामे हम सबने देखे थे। एक बार अचला नागर राजेंद्र जी के विवाहेतर संबंध के बारे में कोई खुलासा कर रही थी। तब तक मेरे दिमाग में तो मेरे चाचा महान वाली छवि ही बरकरार थी सो मैं उनसे भिड़ पड़ी कि उनके दोस्त यानी कमलेश्वर और राकेश जी ऐसे हैं तो हैं, पर आप लोग राजेंद्र यादव के बारे में अनाप शनाप क्यों बोलते रहते हैं। वे मेरी अज्ञानता पर मुस्कुरा कर चुप हो गई। 1990 या 1991 में हम इलाहाबाद के पहल सम्मान आयोजन में गये। कालिया दंपति के रानी मंडी वाले घर से ममता जी के हाथ का खाना खा कर निकल रहे थे कि बाहर दरवाजे पर ही खड़े हो कर बतियाने लगे। पता नहीं किस बात पर जितेन्द्र ने कह दिया "अरे भाई राजेंद्र जी से तो इनकी तब की पहचान है जब ये फ्रॉक पहनती थीं। हाजिरजवाबी के औलिया रवीन्द्र कालिया ने एक सेकेंड की भी मोहलत नहीं दी और उसी जुमले को आगे बढ़ाते हुए कहा 'तभी बच गई।' सबने जोरदार ठहाका लगाया। मुझे बहुत बुरा लगा।
राजेंद्र जी से मुलाकात कोलकाता में 1983 में एक लंबे अरसे के बाद हुई जब दूरदर्शन के लिये मुझे उनका साक्षात्कार लेना था और इसका आयोजन उनकी 'बहुत इंटीमेट फ्रेंड' (बकौल राजेंद्र यादव) प्रभा खेतान के फ्लैट में किया गया था। शायद बारह पंद्रह साल बाद मैं राजेंद्र जी से मिल रही भी। मैं जैसे ही उनके पास पहुंची उन्होंने मुझे कंधे से घेरा और प्रभा से मुखातिब हुए। इसे देख कर तो और कुछ सोच ही नहीं सकता। इसे मैंने तब देखा है, जब यह इतनी सी थी। मुझे वाक्य कुछ अटपटा तो लगा पर उसे मैंने नजरअंदाज किया। जब मैंने मैत्रेयी की किताब पड़ी तो उसमें यह पक्ति पढ़ कर 'अब और कुछ नहीं कर सकती हो तो राखी ही बांध दो।' मेरे दिमाग में टन्न से यह बीस साल पहले का जुमला कौधा। मैं उनके लिये मां बहन बेटी वाली श्रेणी में आती हूं जिन्हें ले कर वे बात नहीं करते लेकिन इन संबंधों से बाहर की हर स्त्री उनके लिये सबसे पहले विकृति की हद तक महज एक मादा देह है।
इसके बाद उनसे दूसरी मुलाकात लेक गार्डेंस में हुई। 1986 में मन्नू जी की बड़ी बहन सुशीला जी के घर। तब तक 'हंस' की योजना बन चुकी थी। उन्होंने मजाक में कहा तुम्हारा पंजाबी बाप तो साला एक नम्बर का मूंजी है उसकी अंटी से तो पांच हजार भी निकलने से रहा। तुम नयी कहानी दे दो। मैंने बताया कि मैं एक उपन्यास लिख रही हूँ पर उसका हर अध्याय एक स्वतंत्र कहानी है। उन्होंने फौरन मुंह बिचकाया यह कोई साप्ताहिक है? मासिक पत्रिका में उपन्यास धारावाहिक नहीं छप सकता। एक महीने का गैप बहुत लंबा होता है। कहानी भिजवाना। कुछ ही अंकों बाद देखा तो उसमें उनकी इंटीमेट फ्रेंड प्रभा खेतान कर 'आओ पेपे घर चलें' छप रहा था। उसके बाद 'तालाबंदी' भी छया। लेकिन तब इन बातों को ले कर कोई शिकायत नहीं थी। कोई नेगेटिव फीलिंग नहीं थी। अब बहुत सी चीजों के अर्थ खुलते है।... मेरी लेखन की दूसरी पारी की शुरुआत 'हंस' से ही हुई। जून 1994 में दो पन्नों की एक छोटी सी कहानी 'रहोगी तुम वही' के साथ।
वैसे इसमें कोई संदेह नहीं कि राजेंद्र जी के बेहद खुशमिजाज व्यक्तित्व में गजब का विट और सेंस ऑफ ह्यूमर है जिसके कारण उनके दुश्मन भी उनका संग-साथ पसंद करते हैं। वे एक खुशफहम जिन्दादिल इंसान हैं।
उनकी जिन्दादिली के कुछ अनुभव आप शेअर करना चाहेंगी?
एक पुरानी घटना सुनाती हूं। हमारे घर एक प्रज्ञाचक्षु संत आया करते थे। वे जब आते श्रद्धालुओं की भीड़ लग जाती। पास पड़ोस रिश्तेदार सब इकट्ठे होते। उनके हाथ से छुआ हुआ एक संतरा या सेब पा कर निहाल हो जाते। कभी-कभी वे अपने खास शिष्य को गले से उतार कर माला पहना देते। लेकिन उनके जिस प्रसाद से उनके खास शिष्य गदगद हुए रहते वह था हरेक का एक खास नामकरण। जैसे मेरी दादी उन्हें प्रणाम करती तो वे कहते - मां आनंदमयी, आनंद ही आनंद है न? सौ दुखड़ों की गाथा जबान से आते-आते रुक जाती और दादी कहती जी महाराज, आपकी दया से सब कुशल मंगल है। मैं प्रणाम करती तो मुझे कहते वसुंधरा बेटी साक्षात् सरस्वती का स्वरूप है तू । और सुधा से वसुंधरा तक मेरा विस्तार हो जाता।
कथाकार-संपादक राजेंद्र यादव का प्रभामंडल भी कुछ ऐसा ही है। हर दोस्त और दुश्मन हमउम्र और युवा पुरुष और महिला सबको नामकरण संस्कार में दीक्षित कर रखा है। धीरेंद्र अस्थाना की बीबी ललिता कहती है- राजेंद्र जी का फोन आते ही गर्जना सुनाई देगी 'कहां है यह अधम महापापी'? कभी कहेंगे 'यह राक्षस लौटा कि नहीं अब तक'? अधम, घोरपापी, राक्षस, महानीच ये चार ऐसे विशेषण हैं जिससे धीरेंद्र अस्थाना का कद ऊंचा उठ जाता है। ऐसे ही गीताश्री को कहेंगे चंडी या गुंडी (बड़ी, छोटी मझली गुडियों में से एक) और उसके पति को चंडीदास। दोनों अपने लिये ये खास संबोधन सुनकर कृतकृत्य हो जाते होंगे।
दस साल पहले की बात है, मैंने एक बार उनके विरोध में एक पत्र लिखा जिसे उन्होंने हंस के अगस्त 2001 में प्रकाशित भी किया, जब कि मैंने वह पत्र सिर्फ पढ़ने के लिये उन्हें भेजा था। तो मेरा भी नामकरण कर दिया दुर्गा मैया। दिल्ली से मैं कलकत्ता गई और अपने पापा को इस नामकरण की सूचना दी। उसके बाद से पापा हमेशा पूछते हैं और तुम्हारे महिषासुर चाचाजी का क्या हाल है? ये आज तक राजेंद्र जी को महिषासुर चाचा जी कह कर ही उनके हालचाल पूछते हैं जबकि मेरे नामकरणों की श्रृंखला आगे बढ़ चुकी है।
अगस्त 2010 में जब मैनेजर पांडे की एक समीक्षा पर मेरा प्रतिवाद काट छांट कर शीर्षक बदल कर, छापा गया और मैंने अपनी नाराजगी जाहिर की तो बिगड़ गये कि क्या तुम कॉमा फुलस्टॉप पर आपत्ति करती हो। महीनों मेरा नाम 'कॉमा फुलस्टॉप' पड़ा रहा। मन्नू जी का फोन कभी मैं उठा लेती तो नमस्कार का उत्तर मिलता - अच्छा कॉमा फुलस्टॉप, दिल्ली में हो? कॉमा से बाहर आई या नहीं अब तक?' कई बार तो यह कॉमा मुझे कोमा सुनाई पडता था और मैं कह देती कि में कोमा में ही ठीक हूं। इसी साल दिल्ली में कविता विरोधी राजेंद्र जी मेरी कविताएं देख कर अपनी संपादकीय ठसक से बोले कविता को हम डेढ़ पन्ने से ज्यादा नहीं दे सकते। मैंने कहा लेकिन पोर्नोग्राफी को छह सात पन्ने दे सकते हैं। इतनी लचर और अश्लील कहानिया छापते हुए पन्नों का संकट नहीं आता आपके सामने? बहुत सोच कर संतई मुद्रा और धीर गंभीर सुर में बोले अब यह भी तो जिन्दगी का एक ज़रूरी हिस्सा है। मैंने कहा 'वह भी नहीं, वह ही जिन्दगी का जरूरी हिस्सा है आपके लिये।' इस पर राजेंद्र जी खीझते हुए बोले अरे हटाओ, तुम तो साध्वी ऋतंभरा हो। तब से साध्वी कहा जा रहा है। गो कि नामकरण वहां सबके हैं। डॉ. प्रभाकर श्रोत्रिय जी सात्विक रचनाएं छापते हैं। विवादों में नहीं पड़ते। वे नख दंत विहीन संपादक की उपाधि से विभूषित हैं। उषा प्रियंवदा संकेतों में शयनकक्ष की क्रियाओं का ब्यौरा देती है, वे नैतिकता की मारी हुई हैं। मैं देहवादी कहानियों पर नाक भौ सिकोड़ती हूं साध्वी ऋतंभरा हूं। उनके स्त्री विमर्श से मेरा छत्तीस का आंकड़ा है, फितूरिया हूं। मन्नू जी पति से एकनिष्ठता चाहती थीं, वे खांटी घरेलू औरत है लगभग भाजपाई हैं। राजेंद्र जी के कहे अनुसार जो नहीं चलता, उनके वाक्बाण का एक तमगा ले कर ही लौटता है। मसीहाई अंदाज में वे तमगे बांटते चलते हैं।
और कोई चारित्रिक गुण दुर्गुण जिससे आपका वास्ता पड़ा हो?
उसकी तो लंबी फेहरिस्त है। पर हां, जिन्दादिल होने के साथ-साथ वे बेहद असंवेदनशील भी हैं। एक घटना मैं भूल नहीं सकती। 2008 की बात है। सुबह दस बजे के करीब हरि नारायण जी का फोन आया, प्रभा खेतान नहीं रहीं। मुझे विश्वास नहीं हुआ 13 मई 2008 कलकत्ता में मैं उनके घर पर थी। कई लोग थे जगदीश्वर चतुर्वेदी, अरुण माहेश्वरी और प्रभा पहले से कहीं ज्यादा स्वस्थ और बुलंद दिख रही थीं। इस अप्रत्याशित सूचना से मैने हड़बड़ा कर कलकत्ता दो फोन किये अपने भाई को और प्रभा और मेरी एक कॉमन मित्र को। किसी को खबर ही नहीं थी। नेट पर देखा कहीं कोई सूचना नहीं दिखी। फिर ख्याल आया राजेंद्र जी को फोन कर के पूछूं। उन्हें फोन किया तो वे अपनी कार में घर से दफ्तर जा रहे थे। मैंने कहा प्रभा के बारे में यह सूचना मिली है। ठंडे लहजे में कहा हां, सच तो है। मैंने पूछा 'कैसे हुआ यह अचानक?' उन्होंने कहा 'वो कुछ ऑपरेशन के दौरान... ठीक से पता नहीं।... मुझे धक्का लगा। कुछ सेकंड के लिये चुप रह गई।... एकाएक उनकी आवाज में चहक सुनाई दी 'अच्छा सुनो, अपनी एक तस्वीर फौरन भेज दो, मेल से। जरूरी चाहिए, एकदम जल्दी। इस बेमौके की मांग पर मैं स्तब्ध रह गई। फिर अपने को संभाल कर मैंने कहा क्यों प्रभा खेतान गई हैं और ऑबिच्यूअरी मुझ पर लिख रहे हैं क्या? ठहाका लगा कर बोले 'नहीं तुम्हारा वॉरंट निकलवाना है, थाने में जमा करवानी है। फौरन तस्वीर भेज दो। आज ही।' उधर प्रभा के अंत्येष्टि स्थल पर सब लोगों को सूचना थी कि राजेंद्र यादव दिल्ली से पधार रहे हैं। उनका इंतजार हो रहा है। यहां भी एक अलग तमाशा था जिस पर लोगों से सिर्फ सुना। ऐसी चीजे देख-सुन कर इंसानियत पर से विश्वास उठ जाता है। हमारा लेखक समाज कितना आत्मकेंद्रित हो गया है। आज भी 'हंस' के दफ्तर में प्रभा खेतान की तस्वीर लगी है। 'हंस' की पच्चीसवीं वर्षगांठ के कार्ड पर भी सबसे ऊपर 'स्मृति प्रभा खेतान' लिखा है पर उसके अचानक चले जाने पर इतनी ठंडी प्रतिक्रिया। और मेरी तस्वीर मांगने वाली बात। बाद में पता चला उन दिनों गीताश्री से राजेंद्र जी 23 लेखिकाएं वाली किताब तैयार करवा रहे थे जिसमें मेरा एक 1983 का कोलकाता दूरदर्शन का पुराना साक्षात्कार जाने कहां से कैसे हासिल किया गया मालूम नहीं। उसका तो कहीं अता पता ही नहीं था।
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| राजेन्द्र यादव |
हंस से आपके लेखन की दूसरी पारी की शुरुआत हुई। कैसे और कब?
'हंस' जब शुरु हुआ, तब तक एक अधूरा उपन्यास लिख कर मेरे लेखन पर पूर्णविराम लग गया था। इस बीच मेरी तो नहीं पर जितेंद्र की कुछ कहानियां-आलेख 'हंस' में ज़रूर प्रकाशित हुए। अक्सर मैं हंस में फोन करके पूछती कि जितेंद्र की वह कहानी कब छप रही है। कई बार राजेंद्र जी ने मुझसे कहा 'अरे भाई, तुम अपने पति की सेक्रेटरी हो क्या? अपनी कहानी भेजो, फिर फोन करो। जब देखो तो अपने पति की नौकरी बजाती रहती हो।' बाद में यह भी कहते रहे 'कब तक सेक्रेटरी बनी रहोगी? इस रोल से बाहर नहीं आई अब तक?' उनके ये जुमले तब महज उनकी चुहलबाजी लगते थे पर अब यह समझ में आता है कि अपने उस पतिपरायण रोल से बाहर निकल कुछ नया लिखने-रचने का मोटिवेशन राजेंद्र जी लगातार मुझे दे रहे थे पर मैं ही तब उसे समझ नहीं पाई थी। स्त्री को उसके घरेलू ढांचे से बाहर निकालने का यह उनका व्यावहारिक नज़रिया और सजग ईमानदार कोशिश थी जिसके कारण वे लगातार मन्नू जी को भी लिखने और रचने के लिये उकसाते ही नहीं रहे, मन्नू जी के कमजोर पड़ते ही उन्हें हॉस्टल में लगभग धकेल कर उनसे उनका उपन्यास 'आपका बंटी' पूरा करवाया। अपनी घर गृहस्थी में रमी, कई छिपी हुई स्त्री प्रतिभाओं को भी उन्होंने संवारा, गढ़ा। हंस के पन्नों पर छापा जैसे सरयू शर्मा ने कुछ बहुत अच्छी कहानियां लिखीं। गीतांजलि श्री के लेखन से हमारा परिचय हंस के माध्यम से ही हुआ। कुछ वापस अपने दड़बों में लौट गई आज भी चर्चित हैं। स्त्रियों के तयशुदा गृहिणी के रोल से बाहर निकालने की उनकी कोशिश ने स्त्री मुद्दों की एक ठोस व्यावहारिक वैचारिकी तैयार की हालांकि तब तक लेखिकाओं की एक खासी बड़ी जमात उनके कारण या उनके बिना भी हिन्दी साहित्य के परिदृश्य पर उभर ही चुकी थी। लगभग बारह-तेरह साल की चुप्पी के बाद मेरी पहली कहानी 'रहोगी तुम वही' हंस (जून 1994) में ही प्रकाशित हुई जिसने मुझे दोबारा साहित्य में जगह दी जिसके लिये में हंस की कृतज्ञ हूं। 1998 तक काला शुक्रवार, ताराबाई चॉल, एक औरत : तीन बटा चार मेरी कई चर्चित कहानियां हंस में ही छपीं। रचनात्मक और प्रतिभावान स्त्री को उसके घरेलू रोल से बाहर निकालने का एक स्पष्ट दृष्टिकोण तो राजेंद्र जी के जेहन में तब भी था और वह खासा सकारात्मक था पर बाद में एकाएक अपनी वैयक्तिक कुंठाओं के दबाव में देह मुक्ति का बेसुरा राग वे अपने मसीहाई अंदाज में अलापने लगे और हांकी गई भीड़ की जैसी मनोवृत्ति होती है-वह भी उनके सुर में सुर मिलाने लगी। हंस के पन्नों पर इसकी छाप स्पष्ट दिखाई देने लगी थी। उनकी वैचारिक सोच में आई विकृतियों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करना बहुत मुश्किल नहीं है। राजेंद्र जी के 'होना सोना' वाले लेख की प्रतिक्रिया में सन् 2001 में मेरा एक विरोध पत्र 'इस बार आपको बाइज्जत बरी नहीं किया जाएगा' प्रकाशित करने के बाद उन्होंने फिर कभी हंस के स्त्री विमर्श विशेषांकों के लिये कहानी या आलेख भेजने के लिये मुझे आमंत्रित नहीं किया। देह मुक्ति की वैचारिकी का एकाधिपत्य उन्होंने अपनी पत्रिका में स्थापित कर लिया इसलिये इसका दूसरा पक्ष उनके हंस के मंच पर तो अनसुना ही रह गया।
राजेंद्र यादव को एक बहुत लोकतांत्रिक और उदार संपादक माना जाता है। आप इससे सहमत हैं?
लोकतांत्रिक और उदार तो वे हैं इसमें दो राय नहीं पर किसके लिये कितने अनुपात में लोकतांत्रिक होना है, यह ये स्वयं तय करते हैं। संपादकीय नैतिकता पर ये अच्छा खासा लच्छेदार प्रभावी वक्तव्य दे सकते हैं, अपने भाषायी वाक्जाल से वे आपके हर वार को निरस्त कर देंगे। लेकिन अपने लिखे पर खुद अमल करना उनके लिये जरूरी नहीं। किसी से खुन्नस निकालनी है, उसके आलेख में अपनी फुलझड़ियां जोड़ देंगे। जैसे डॉ. निर्मला जैन के आलेख के साथ किया जिसकी झुलसन पर बाद में मरहम लगाने का काम भी राजेंद्र जी ने किया। मैंने एक टिप्पणी लिखी थी 'पुरुष अपने समदुखी मीत की व्यथा कथा समानुभूति से लिखोंगे?' राजेंद्र जी ने उस गंभीर आलेख का शीर्षक बदल कर 'क्या पति अपने रकीब को सहानुभूति देंगे?' कर दिया। कारण शीर्षक लंबा था। मैंने उसी अंक में अपने आलेख से पहले के लेख का शीर्षक दिखाया जो और भी लंबा था। अगला जवाब हाजिर था तो क्या हर आलेख का शीर्षक दो लाइनों में जाएगा? खैर, मैंने पत्र लिख कर अपनी आपत्ति दर्ज की पर उसमें से भी कई पंक्तियां काट दी यह कह कर कि पत्र लंबा है जबकि उस पत्र के अगल-बगल दूसरे लंबे-लंबे पत्र छपे थे। जो पंक्तियां काटी गयी उनमें से एक यह थी 'राजेंद्र जी आप बहुत जनतांत्रिक संपादक होने का दावा करते हैं। आपकी अपनी लिखी हुई चीज का एक भी शब्द, कोई दूसरा संपादक इधर से उधर करे, तो आपको गवारा नहीं होता, शीर्षक बदल देना तो बहुत दूर की बात है। मैंने खुद जब आपका आलेख मन्नू जी पर संपादित किताब के लिए लिया था तो उसे एक नया शीर्षक देने से पहले आपको फोन पर बताया था और आपसे स्वीकृति मिलने के बाद ही वह शीर्षक किताब में गया। शीर्षक बदलने से पहले आप एक बार फोन कर के मुझसे पूछ भी सकते थे। पर आप पूछते क्यों भला। शरारत करना जिसकी फितरत में हो, वह खुराफात करना अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझता है।'
बतौर संपादक निहायत अवांछित रूप से वे अपनी कैंची भी चलाते हैं और कलम भी। किसको उठाना है. कैसे उठाना है, कहां तक पहुंचाना है यह उनकी रणनीति है। गो कि संपादक के रूप में हर नैतिक दायित्व से वे ऊपर हैं। लेखक कोई भी हो, मित्रता के नाते उसके कंधे पर बंदूक रख कर अपनी गोलियां चलाना, बगैर उसकी जानकारी और अनुमति के मनमानी काट-छांट करना किसी भी संपादक के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता।
राजेंद्र यादव कथाकार बड़े हैं, संपादक या स्टंटबाज?
तीनों। हर रोल में 'लार्जर दैन लाइफ' इमेज है उनकी। वे एक बड़े और सशक्त कथाकार तो है ही। पर उनकी यौन कुंठाओं ने उनके रचनाकार और शिल्पकार पक्ष को कुंद कर दिया। पिछले पंद्रह सालों में उन्होंने अपने ही कथाकार का विलोम रचा। 'हासिल' और 'मरा हुआ चूहा' कहानियां पढ़ कर कौन यकीन करेगा कि 'खेल खिलौने', 'टूटना', 'छोटे छोटे ताजमहल', 'जहां लक्ष्मी कैद हैं' जैसी बारीक और बहुपरतीय कहानियां इसी कलम से आई हैं। उनका संपादक उनके कथाकार पर अनावश्यक रूप से हावी हो गया। शुरु के पंद्रह वर्षों तक "हंस' की धाक जमी रही पर उसके बाद इस पत्रिका का ग्राफ निरंतर ढलान पर है। हिन्दी साहित्य ने अब तक का अपना सबसे पतनशील समय राजेंद्र यादव के संपादन काल में देखा है। पोर्न स्टार और न्यूड पार्टी विवरण और उस पर राजेंद्र जी का प्रशंसात्मक बयान, हंस पत्रिका के संपादन पर अब शोकगीत ही पढ़ा जा सकता है। चर्चा में हमेशा बने रहने के लिये उन्होंने साहित्य में राखी सावंत का रोल निभाने में भी कोर कसर नहीं छोड़ी इसलिये उन्हें स्टंटबाज भी कह सकते हैं आप।
नयी कहानी आंदोलन के दौर में आप राजेंद्र यादव को कहां खड़ा पाती हैं खास तौर पर कमलेश्वर और मोहन राकेश के बरक्स?
1964 का कलकत्ता का कथा समारोह मैने देखा है जहां सबसे पहले नयी कहानी के इन तीनों महारथियों को एक साथ मंच पर देखा था मैंने। तीनों में से कौन बड़ा है, कौन कमतर कहना गलत बयानी होगी। तीनों की अपनी महत्वपूर्ण जगह है। तीनों ने हिन्दी साहित्य को बेहतरीन कहानियां दी। राकेश जी असमय चले गये वर्ना हिन्दी की नाट्य विधा बहुत समृद्ध होती। कमलेश्वर जी ने अपनी प्रतिभा मुंबइया फिल्मों में झोंक दी। नयी कहानी नामकरण किसने किया, राजेंद्र जी बेहतर बता सकते हैं पर नयी कहानी की वैचारिक पृष्ठभूमि सबसे पहले राजेंद्र यादव की किताब 'एक दुनिया समानांतर' की लंबी और ऐतिहासिक भूमिका से ही सामने आई। यह उनके गद्य का अप्रतिम नमूना है। इसी से पुरानी कहानी और नयी कहानी का अलगाव स्पष्ट हुआ। कहानी का पूरा परिदृश्य हर स्तर पर सामाजिक बदलाव, परिवार के विघटन, सम्बन्धों के बदलते गणित कहानी में शिल्पगत संरचना सबका विस्तृत विश्लेषण उस लंबे आलेख में है। कमलेश्वर जी की किताब 'नयी कहानी की भूमिका' बहुत बाद में प्रकाशित हुई।
मोहन राकेश की कहानियां संख्या में कम है पर कहानी कला की दृष्टि से राकेश जी की कहानियां 'मलबे का मालिक', 'आर्द्रा' कमलेश्वर की कहानियां 'तलाश', 'जॉर्ज पंचम की नाक',, 'राजा निरबंसिया', 'दिल्ली में एक मौत' राजेंद्र यादव की कहानियां 'टूटना', 'लंच टाइम', 'बिरादरी बाहर', 'जहां लक्ष्मी कैद हैं', 'खेल खिलौने' इन सभी ने कहानी के संसार को समृद्ध किया है। अमरकांत, फणीश्वरनाथ रेणु, धर्मवीर भारती, मार्कण्डेय, भीष्म साहनी, शेखर जोशी शैलेश मटियानी का उल्लेख किये बगैर उस दौर के बदलाव को आंका नहीं जा सकता।
क्या यह सही है कि राजेंद्र यादव के संपादक रूप ने उनके भीतर के रचनाकार को मार डाला?
अपनी सारी मौलिकता और रचनात्मक प्रतिभा अपनी लेखक बिरादरी के नामकरणों में और अपने संपादकीयों के अद्भुत वाग्जाल में झोंकता हुआ रचनाकार हंस जुलाई 2011 अंक के संपादकीय में अपनी सृजनात्कमता पर फातिहा पढ़ रहा है 'हाय, हंस के पाठकों ने मेरे वास्तविक को सामने आने ही नहीं दिया'। गनीमत है कि हंस के पाठकों ने उन्हें अपनी उम्मीदों का बंदी बना लिया और उनकी मौलिकता पर बाड़ बनाए रखी और उनके 'वास्तविक को सामने आने ही नहीं दिया'। इससे एक राहत का अहसास होता है। संपादक बनने के बाद एक 'हासिल' (हंस) एक 'मरा हुआ चूहा (तदद्भव) और 'नया फ्लैट' (आधारशिला) ने ही राजेंद्र जी की सृजनात्मकता के ऐसे प्रचंड दर्शन करा दिए कि पढ़ने वालों ने कथाकार राजेंद्र यादव की साख पर राख डाल दी। ऐसा ही और रचते रहते तो गंभीर साहित्य रचयिताओं के लिये अपना बोरिया बिस्तरा गोल कर साहित्य जगत से अपना डेरा-डंडा उठाने की नौबत आ जाती।
कोलकाता के 9 मार्च 2006 के कथाकुंभ में मैंने मंच से यह कहा था और आज भी मानती हूं कि हिन्दी साहित्य में 'हासिल' से ज्यादा गर्हित कहानी संग्रह दूसरा नहीं है। इसमें 'खेल खिलौने' 'टूटना', 'जहां लक्ष्मी कैद है' जैसी सशक्त कहानियों के रचनाकार ने सिर्फ देहवादी कहानियों को ऐसे संकलित किया है जैसे कोई पहलवान अखाड़े में अपना मुग्दर भांजने का प्रदर्शन कर रहा है। इसे साहित्य की श्रेणी में रखा जाना चाहिये या नहीं सोचने की जरूरत है।
अपनी देहवादी रचनात्मकता का वे तो काफी प्रदर्शन कर चुके थे पर नये लेखकों या प्रतिभावान वरिष्ठ रचनाकारों की रचनात्मकता को भटकाव का रास्ता दिखा कर उन्हें भी पटरी से उतार दिया और लेखिकाओं की तो एक जमात ही खड़ी कर दी जो देह के गोपन कक्ष उजागर करने को ही अपने बोल्ड होने का सर्टिफिकेट मान बैठी।
राजेंद्र यादव ने अपने लेखों 'आदमी की निगाह में औरत' या 'होना सोना एक दुश्मन के साथ' के जरिये जो स्त्री विमर्श का वितान रचा, उसके साथ आप कहां तक सहमत असहमत है?
'होना सोना' आलेख पर मेरी प्रतिकिया तब हुई जब उन्होंने अपने संपादकीय में विरोध करने वाली 'करवाचौथी औरतों' की जमात में मेरा भी नाम डाल दिया जबकि उस लेख पर कलम उठाने की मेरी कोई मंशा नहीं थी, न मैंने इसका जिक्र किया था। मैंने अपनी प्रतिक्रिया उन्हें सिर्फ पढ़ने के लिये भेजी थी पर उन्होंने अपनी लोकतांत्रिकता दिखाने के लिये उसे प्रकाशित कर दिया और मेरे लिये घोषित विरोध के दरवाजे खोल दिये। अपने जाने उन्होंने एक बोल्ड व्यंग्य लिखा था पर व्यंग्य को वे साध नहीं पाये और अनजाने में उनकी उथली सोच उजागर हो गई। राजेंद्र जी के निजी जीवन में लगातार बढ़ती हुई यौन कुंठाओं, अराजकता और विकृतियों का असर हंस में प्रकाशित सामग्री में निरंतर दिखने लगा था। इसका क्लाइमेक्स तब हुआ जब कमलेश्वर जी के एक श्रेष्ठ कहानी पर पचास हजार के पुरस्कार की घोषणा के साथ ही हंस में सभी कहानियां बलात्कार के मुद्दे पर आईं। पुरस्कृत होने वाली कहानियों का अंक 'सुपर बेवफाई विशेषांक' की तर्ज पर 'बलात्कार की विभीषिका' की जगह 'बलात्कार विशेषांक' बन कर रह गया। जाहिर है, हंस में छपने को आतुर लेखक लेखिकाएं संपादक के विषय की प्राथमिकता के अनुसार लिख रहे थे। मुझे अफसोस है कि अपने संपादकीयों में स्त्री विमर्श पर अनगिनत व्याख्यान देने वाले हंस के संपादक ने रचनात्मक स्तर पर स्त्री की जमीनी समस्याओं पर उंगलियों पर गिनी जाने वाली कुछेक कहानियां ही दीं। वर्ना स्त्री सशक्तिकरण में हंस का बड़ा योगदान होता, जो नहीं हो पाया। उल्टा लेखिकाओं की एक बड़ी जमात ने दैहिक विवरण बढ़ चढ़ कर लिखे गोया बोल्ड लेखन का तमगा हासिल करने के लिये यही एक आसान सा रास्ता रह गया हो।
कोई भी पत्रिका अपने संपादक के व्यक्तित्व का आईना होती है। मैंने यह लिखा था कि पिछले कुछ वर्षों से हम हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाओं के पृष्ठों पर, जिस स्त्री विमर्श का मानचित्र देख रहे हैं, दरअसल यह वित्तीय-पूंजी के दौर में नए ढंग से गढे जा रहे मध्य वर्ग के बुद्धिजीवियों की उन मनोग्रन्थियों के विकार से बन रहा है, जो समाज की हर स्त्री को उन्मुक्त आकाश दे कर लगभग पोर्न स्टार बना देने के लिए आतुर हैं। (हंस के जून 2011 के अंक में एक पोर्न स्टार से दो घंटे की बातचीत पढ़ कर देखें एक साहित्यिक पत्रिका में उसका कोई औचित्य दिखाई देता है?)
बढ़-चढ़ कर लिखे गए यौन अंतरंगताओं के वृत्तान्तों को सर्वाधिक श्रेष्ठ और सफल लेखन का दर्जा दिया जा रहा है और धीरे-धीरे यह भ्रम पैदा किया जा रहा है कि व्यभिचार का निर्वाध प्रवाह, सामाजिक संरचना के परम्परागत-पितृ सत्तात्मक ढांचे में बारूद का काम करेगा। साहित्य के ऐसे स्वघोषित नारीवादी रचनाकार स्वयं को नारी मुक्ति का झण्डाबरदार मानने लगे हैं। वे लेखिकाओं की बुद्धि का प्रक्षालन करने में लगे हैं और अपनी इस युक्ति को रैडिकल फेमिनिज्म की तरह प्रस्तुत करने की धूर्तता को वे अपनी रणनीति बना रहे हैं। हिन्दी के कुछ काम-कुण्ठित स्त्रीचिंतक विचार की मुद्रा बना कर सेक्स मुक्ति में ही स्त्री मुक्ति का महामंत्र खोजने लगे हैं। यही वह फार्मूला है, जो स्त्री की समाज में निष्ठा परिवार में आस्था और आपसी संबंधों में जुड़ाव की उपस्थिति को मुक्त या बंधनहीन स्त्री में उल्था देने की बौद्धिक बाजीगरी में इस्तेमाल किया जा रहा है। कभी-कभी तो मुझे लगता है जैसे अपनी पत्नी की शुचिता और निष्ठा के प्रबल पक्ष से पूरी तरह पराजित और ध्वस्त व्यक्ति जब अपने को उससे आगे ले जाना चाहता है और निष्ठा और नैतिकता उसके घेरे से बाहर होती है तो अपने रचनात्मक प्रतिशोध के तहत वह स्त्री के प्रति विद्वेष को पूरी तरह अनैतिक और अराजक बन कर उस शुचिता से मुठभेड़ का उत्पाद रचता और रचवाता है। ऊंचे मूल्यों से निपटने के लिये मूल्यहीनता को आधार बनाता है और इस प्रपंच को विराट बनाने के लिये पूरी की पूरी जमात को इसमें फंसा लेता है। यह एक नये किस्म का कापुरुषत्व है जिसने साहित्य का गंभीर रूप से नुकसान किया है।
अन्यथा के जुलाई 2011 अंक में राजेंद्र जी का साक्षात्कार पढ़ें 'ये जो एफ्लुएंट मध्यवर्ग है उसकी कहानियां हमारे यहां बहुत कम है। आती ही नहीं। यह हमारी भाषा में लिखता ही नहीं अंग्रेजी में लिखता है' और वह कहानी में न्यूड पार्टी के वर्णन की तारीफ में कसीदे पढ़ने लगते है। लगता है जैसे भारतीय समाज में यही एक क्लास है। निम्न वर्ग और मध्यवर्ग का तो कोई अस्तित्व है ही नहीं। यह जो छूना छेड़ना लपक झापक ('रविवार डॉट कॉम') वाली महिलाओं का वर्ग है इस वर्ग के विचारहीन सृजन को हिन्दी में प्रोमोट करने का महत् कार्य हंस पत्रिका निभा रही है। पिछले दस बारह सालों से यही हो रहा है। लवलीन की बकवास पर ऐसे बहस छेड़ी गई जैसे वह अपने समय की बेहतरीन कहानी हो। कोई लचर देहवादी रचना प्रकाशित करेंगे और उसकी तरफदारी अपने साक्षात्कारों या संपादकीय में करेंगे। आबिद सुरती को उकसा कर उनसे "कोरा कैनवास" लिखवाई और कहानी के साथ साथ अपना पूरा संपादकीय उसे छापने के औचित्य पर लिख डाला। मेरे विश्वासघात पर रामशरण जोशी और कृष्णा अग्निहोत्री को साहित्य के हवन कुंड में होम कर ही चुके हैं। राजेंद्र जी को भारतीय समाज में स्त्रियों की सामाजिक विसंगतियां, आर्थिक आत्मनिर्भरता के बाद भी उन पर बढ़ता पारिवारिक दबाव, समझ और बराबरी के दायों के बावजूद रिश्तों में लगातार आती टकराहट, दहेज और भ्रूण हत्याएं, गरीबी से निपटती हुई मजदूर औरतों का दिहाड़ी का संघर्ष और उनकी जमात दिखाई ही नहीं देती। दिखता है तो सिर्फ यह कि देह मुक्ति ही स्त्री मुक्ति का पहला चरण है। देहवादी भोगवादी रवैया ले कर तो एफ्लुएंट क्लास या नव धनाढ्य वर्ग का स्त्री विमर्श भी नहीं किया जा सकता। उस वर्ग की स्त्रियां भी समस्याओं से अछूती कहां हैं। नव धनाढ्य वर्ग की आत्मकेंद्रित मानसिकता साहित्य पर हावी है। दृश्य मीडिया और फिल्मों की तरह प्रिंट मीडिया को भी इसने अपने पंजों में जकड़ लिया है। साहित्य इसमें शामिल न होता तो कुछ मूल्य बचे रह सकते थे। अब तो सब कुछ बाजारवाद की भेंट चढ़ गया है।
स्त्रियों की समस्याओं को समझने के लिये राजेंद्र यादव को कुछेक दिन महिला समस्याओं पर आयोजित कार्यशालाओं में भाग लेने की जरूरत है, पर अब कोई इलहाम होने की उम्मीद पालना एक खामखयाली है।
सामाजिक सरोकारों में हंस की समाजशास्त्रीय भूमिका क्या रही है?
हंस के अधिकांश संपादकीय में राजेंद्र जी ने बड़ी विचारशीलता के साथ सामाजिक, राजनीतिक समसामयिक मुद्दों को उठाया है। हम सहमत हों या असहमत पर उनके लिखे हुए को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते। दरअसल मेरी तरह हजारों पाठक हैं जो हंस के संपादकीय के लिये ही हंस पढ़ते हैं। हिन्दी भाषा अस्तित्व के जिस संकट से गुजर रही है। अपने इन पन्नों के जरिये वे हिन्दी भाषा को समाप्त किये जाने की कूटनीति पर सार्थक बहस का माहौल बना सकते थे, भाषा को बचाए रखने की एक मुहिम छेड़ सकते थे पर उन्हें रचनाकारों के द्वैत उनके असामाजिक होने की जायज छूट और ले-दे कर इसको साधने के लिये स्त्री की देह मुक्ति के प्रपंच और हंस के दफ्तर या अपने निवास को राजा इंद का दरबार बनाने से ही फुर्सत नहीं मिली।
मेरी राजेंद यादव से एक गंभीर शिकायत है। इतने बरसों के लेखकीय अनुभव के बाद जब आप लेखन कला को साध लेते हैं, भाषा और शिल्प पर इतनी महारत हासिल कर लेते हैं कि अतिरिक्त आत्मविश्वास के साथ गलत मुद्दों पर भी भाषाई संजाल रच कर पाठकों को विश्वास में लेने की क्षमता आपके शब्दों में आ जाती है तो आपकी जिम्मेदारी बहुत बढ़ जाती है। जैसे कोई जादूगर आपकी आंखों के सामने तिलिस्म रच कर हवा में से फूल पौधे पैदा कर दे या आसमान से रंगबिरंगी कतरनों की बारिश होने लगे और आप उस दृश्य से चकाचौंध रह जायें। स्त्री विमर्श पर आलेख दर आलेख लिखते हुए अनूठे शब्दकोश के जादूगर राजेंद्र यादव ने कला का जरदोजी वाला कीमखाब का ऐसा ही झूठा मोहक संजाल रचा है जो बहुत बड़ा भ्रम फैलाता है और वास्तविक मुद्दों को सिरे से गायब कर देता है। देह मुक्ति के झांसे में हिन्दी जगत का विचारवान तबका भी ऐसा आया कि उसने इस विषय पर चर्चाएं और संगोष्ठियां शुरु कर दीं। दरअसल इस विमर्श को उनकी ताजा रचनाओं जो वे रच रहे थे और दूसरों को लिखने के लिये उकसा रहे थे के संदर्भ में देखा जाना चाहिये था कि वह विमर्श कितना उथला और खोखला था ।
रचना के स्तर पर आते ही इधर बरसों से वे यौन कुंठा की ही कहानियां लिख रहे हैं और लिखवा रहे हैं और इन कुंठाओं को ही आज के उल्लेखनीय मूल्य के रूप में प्रतिपादित कर रहे हैं। अपने बूते पर उन्होंने हंस को पच्चीस लंबे वर्षों तक जिन्दा रखा इसका एक बड़ा पाठक वर्ग कायल है। चूंकि हंस किसी अन्य के संरक्षण में नहीं था इसलिये राजेंद्र जी ने इसे मनमाने ढंग से चलाया। अराजक व्यक्ति अंकुशविहीन हो तो यही हश्र होता है जो हंस का हुआ। हंस का योगदान आप सारिका और नई कहानियां से बड़ा तो नहीं मानेंगे। धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान तो माना कि पारिवारिक पत्रिकाएं थी पर साहित्य के पन्ने उनमें भी शुद्ध साहित्यिक ही होते थे। राजेंद्र यादव ने साहित्य के प्रतिमान ही बदल दिये हैं। वे बाजार के शिकार हैं। और अपनी तरह से एक उपभोक्तावादी बाजार खड़ा कर रहे हैं।
प्रेमचंद के हंस और राजेंद्र यादव के हंस में कैसी समानता देख पाती है?
हंस की शुरुआत अच्छी हुई थी। वैचारिक मुद्दों पर हंस ने निरन्तर एक स्वस्थ बहस का माहौल दिया । सांप्रदायिकता के खिलाफ दलितों के प्रश्न पर हंस ने बहुत गंभीर बहसें आयोजित कीं, आलेख लिखवाये। दलित लेखकों को एक मंच दिया उन्हें साहित्य के केंद्र में ले कर आये। लेकिन स्त्री विमर्श में राजेंद्र जी का योगदान एक बेहद भ्रामक, स्यूडो किस्म का विमर्श रहा है। और यह सब उनकी निजी यौन कुंठाओं और विकृतियों के कारण है। जिस तरह लेखन में लेखक का व्यक्तित्व झलकता है। वैसे ही किसी पत्रिका के संपादन में भी संपादक की सोच उसका जीवन दर्शन, व्यक्तित्व झलकता है। प्रेमचंद के हंस में प्रेमचंद का जीवन दर्शन, उनकी सोच झलकती थी। राजेंद्र यादव के हंस में उनका व्यक्त्वि झांकता है। दोनों में कोई समानता होना तो दूर दोनों एक दूसरे का विलोम हैं।
प्रेमचंद ने अपने समय में सम्पत्ति पर अधिकार को स्त्री मुक्ति का पहला कदम माना था। आज समस्याएं और ज्यादा जटिल हैं। आर्थिक आत्मनिर्भरता और शिक्षा के बावजूद स्त्री की यातनाओं में कोई कमी नहीं आई है। हंस के संपादक को चाहिये था कि आज के समय के परिप्रेक्ष्य में स्त्री की समस्याओं को देखते। जैसी कहानियां और आलेख हंस में प्रकाशित हो रहे हैं वे हंस को एक पोर्न पत्रिका का दर्जा ही दिला सकते हैं। अब उन्हें संस्थापक प्रेमचंद की आत्मा को और ज्यादा क्लेश न दे कर हंस में संस्थापक के रूप में प्रेमचंद का नाम हटा देना चाहिये ।
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| मन्नू भंडारी |
राजेंद्र यादव और मन्नू भंडारी में आपको कौन बड़ा रचनाकार लगता है और क्यों?
यह सवाल बढ़ा सब्जेक्टिव है, जरूरी नहीं कि सबकी राय एक हो। राजेंद्र यादव और मन्नू भंडारी की रचनाओं की तुलना करने का कोई भी सामान्य आधार नहीं है सिवाय इसके कि वे पति पत्नी है। मन्नू जी का लेखन उनके व्यक्तित्व की तरह ही सादा, सरल और पारदर्शी है जिसका अपना आत्मीय प्रभाव होता है। राजेंद्र जी का लेखन जटिल प्रयोगात्मक, कलात्मक और बहुपरतीय है। एक भावनाप्रधान है, दूसरा बौद्धिक। मन्नू जी का लेखन सीधे दिल की गहराइयों में उतरता है, राजेंद्र जी के लेखन को पचाने के लिये दिमाग को मशक्कत करनी पड़ती है।
मुझे राजेंद्र जी की अपेक्षा मन्नू जी कहीं ज्यादा बड़ी रचनाकार इसलिये लगती है क्योंकि उनका दोहरा व्यक्तित्व नहीं है वे जीवन में ईमानदार है और इसलिये उनके सरोकार बड़े है। जो जीती है, जिसमें विश्वास रखती हैं, यह लिखती हैं,। 'महाभोज' उपन्यास में राजनीति में व्याप्त लंद फंद और भ्रष्टाचार से ले कर 'आपका बंटी' और दर्जनों कहानियों में उन्होंने सम्बन्धों और आधुनिकता और परम्परा के द्वंद्व का बहुत मानवीय और सटीक विश्लेषण किया है।
व्यक्ति के रूप में भी वे राजेंद्र जी से कहीं अलग है ऊंची है। उनकी बिटिया ने अपने पापा का अस्सीवां जन्मदिन खूब शान से मनाया। मन्नू जी भी गई। तीन साल बाद जब मन्नू जी का अस्सीवां जन्मदिन आया तो बिटिया ने मनुहार की हम तुम्हारा भी जन्मदिन मनायेंगे। मन्नू जी ने सिरे से नकार दिया। उसने जिद की तो बोली ठीक है, मना लो पर मैं नहीं आऊंगी। उनमें प्रदर्शनप्रियता बिल्कुल नहीं है। अपने जन्मदिन पर चुपचाप उन्होंने अपने खाते में से अस्सी हज़ार रुपये एक संस्था को दान में दे दिये और अस्सी कंबल गरीबों में बंटवा दिये। दोनों एक दूसरे का विलोम है।
राजेंद्र यादव के अनुसार परिवार के चौखटे में बंध कर कोई महान रचनाकार नहीं बन सकता। यह जुमला कितना सही है ?
हंस के जुलाई 2011 के अंक में भी उन्होंने अपना पुराना घिसा पिटा राग अलापा है। परम आज्ञाकारी पुत्र, जिम्मेदार पिता या विनम्र पति क्या बहुत बड़ा रचनाकार भी हो सकता है। ये यथास्थितिवादी मूल्य हैं। मगर जो बेचैन चिंतक या रचनाकार है वे इन्हें ज्यों का त्यों कैसे स्वीकार कर सकते हैं। ये विद्रोही होंगे और इस प्रक्रिया में आदर्श मनुष्य की अपेक्षाएं शायद ही पूरी कर पाएं। यानी महान रचनाकार होने के लिये आदर्श मनुष्य नहीं बागी और लंपट होना जरूरी है। राजेंद्र जी बताएं कि उन्होंने अपने चरित्र को ताक पर रख कर और 'छूना छेड़ना लपक झपक वाली संस्कृति के हिमायती बन कर कितनी यादगार कहानियां रचीं?' जो कुछ अच्छा रचा मन्नू जी के आरक्षण-संरक्षण में रहते हुए रख लिया। उनके संपादकीय में सबसे ज्यादा चर्चा इसी मुद्दे पर होती है कि 'चारित्रिक स्खलन' के बाद भी (ही) व्यक्ति महान रचनाएं दे सकता है। बोहिमियन और लंपट होने के बीच क्या अंतर है, यह वे समझ ही नहीं पाये आज तक।
भावात्मक आघातों से मन्नू जी की रचनात्मकता कुंद तो हुई पर जो कुछ भी उन्होंने पहले लिखा, वह परम जिम्मेदार पत्नी, मां, आदर्श शिक्षिका बने रह कर ही लिखा। इस लिये महान लेखक बनने के लिये राजेंद्र जी जो गाहे बगाहे, अराजक और अनैतिक होने की घुट्टी युवा रचनाकारों को पिलाते रहते हैं, उससे वे साहित्य को कितना ऊंचा उठा रहे हैं, यह तो वे ही जानें।
राजेंद्र यादव के साथ तीन एम जुड़े हुए हैं मन्नू मीता और मैत्रेयी। मुझे लगता है. आप तीनों को ही बेहद करीब से जानती हैं। एक तो इन तीनों के बारे में कुछ बताएं?
"डायल एम फॉर मर्डर' की तर्ज पर प्रश्न है यह। मैं इन तीनों में से सिर्फ मन्नू जी के निकट हूं। मैत्रेयी से मित्रता औपचारिक है। मीता से मेरा कोई परिचय नहीं। मन्नू जी और मैत्रेयी की तरह मीता किसी एक का नाम नहीं है।
मीता एक कल्ट है, एक प्रवृत्ति है मटुक नाथ (लीजिए यहां भी एम) की तरह। हिन्दी साहित्य में राजेंद्र जी की मीता की तर्ज पर मीताओं की भरमार है। यह जरूर है कि एक मीता को तो स्वीकार कर के ही चली मन्नू जी अपने जीवन के लंबे पैतीस साल ।
राजेंद्र जी की ही डायरी के पन्ने का अंश देखें-
शायद मेरी इस मानसिक छटपटाहट को मन्नू समझ रही है। वह बैठ कर बातें करना चाहती है, और मैं टाल देता हूं। एक बार तो उसने कहा था कि अगर आपको लगता है कि इस जड़ता और अवरोध से आप यहां से बाहर जा कर निकल सकते हैं तो नगीना के साथ कुछ दिन रह लीजिए दया और करुणा ही हुई सुन कर यह बात उसने किस यातना बिन्दु पर पहुंच कर कही होगी...। लगता मुझे भी है कि शायद इस अंधे कुंए से वही साथ निकाल सकता है मगर हिम्मत नहीं पड़ी। मैं नगीना के साथ रहने दस दिनों को जाऊंगा यह कह कर में निकल सकता हूं? चुपचाप चोरी छिपे जाऊं और भलामानुस बन कर लौट आऊं, यह तो हो सकता है। यही शायद होता भी रहा है। मगर कह कर खुलेआम जाना कैसा लगता है जाने। चला भी गया तो शायद लौटने का मुंह नहीं रहेगा। यहां भी सब चीजें रहना, व्यवहार नार्मल नहीं रह पायेंगे। (तद्भव 11 पृष्ठ 181)
राजेंद्र जी की इस मीता के बारे में लता शर्मा ने आधिकारिक आलेख लिखा है 23 लेखिकाएं और रा. या. में पढ़े।
मैत्रेयी ने अब कहा है कि राजेंद्र जी ने हमारे भरोसे को तोड़ा है। छिनाल प्रकरण पर राजेंद्र जी का स्टैंड क्या सही था जिसके कारण मैत्रेयी ने उनसे नाता तोड़ लिया?
मैत्रेयी के इस वक्तव्य से उनकी बिलख सामने आ रही है। कैसा भरोसा तोड़ा है? मैत्रेयी की समझ का द्वैध है कि वे राजेंद्र यादव के बौद्धिक पुंसत्त्व को समझ ही नहीं पाई। अब वे आरोप लगा रही हैं क्योंकि उनकी कच्ची कसौटियां दरक गई। लंबा अरसा लगा उसे समझाने में कि स्त्रियों के मुद्दों पर राजेंद्र जी भरोसे के लायक नहीं है। स्त्री विमर्श की जो स्यूडो परिभाषायें वे रचते रहे हैं उस पर भरोसा किया तो गलती मैत्रेयी की थी। सबसे बड़ी बात तो यह कि मैत्रेयी को न उनके स्त्री विमर्श का हिमायती बनना चाहिये था और न उनसे कोई अपेक्षा पालनी चाहिये थी पर उसका तो तब राजेंद्र जी के संरक्षण में ट्रेनिंग पीरियड चल रहा था। जो व्यक्ति लगातार इस तरह की बातें लिखता रहा है 'न जाने कितनी लडकियाँ, अभिनेत्रियों और सामाजिक कार्यकर्ता अपने को गुंडी, लफंगी, रंडी और फाहिशा कह कर या सुन कर इस कान से उस कान निकाल देती है या उसका मजा लेती है।" (हंस, अक्टूबर 2010) पहले कभी यह भी लिखा था कि वे बलात्कार का भी मजा लेती हैं। ऐसे विचारों पर भरोसा? जो दाम्पत्य की गहरी निष्ठाओं को ठुकरा सकता है, उससे कैसी अपेक्षाएं पाल रखी थी मैत्रेयी ने?
परिभाषित किस्म का नाता टूटने का मसला है यह। राजेंद्र जी तो रिश्तों और नातों की परिभाषाओं से बाहर ही खड़े होते रहे हैं। वैसे हर व्यक्ति को वैचारिक स्वतंत्रता दी जानी चाहिये। जरूरी नहीं कि हमखयाल मित्रों में भी सबकी प्रतिक्रिया किसी मुद्दे पर एक सी हो। राजेंद्र जी का स्टैंड बिल्कुल सही नहीं था। स्त्री विमर्श के पैरोकार ने पहले लेखिकाओं को खूब हुडकाया खुल कर लिखो यह भी (ही) तो जिन्दगी का हिस्सा है। जब लेखिकाएं खुल कर लिखने लगीं और छिनाल प्रकरण की विभूतियों को नौकरी से बर्खास्त करने की मांग आई तो राजेंद्र जी ने कहा यह तो महिलाओं का तालिबानी रवैया है। यानी खुल कर लिखो, छिनाल कहलाओ और छिनाल कहलाये जाने का भी उत्सव मनाओ। तालिबानी रवैये मत अपनाओ। राजेंद्र जी की यह प्रतिक्रिया अप्रत्याशित तो नहीं थी। दूसरे सच की गुहार लगाएं तो तालिबान और अपने सौ गुनाह माफ। पर असहमति के कारण नाता तोड़ लेने की बात मेरी समझ से बाहर है।
राजेंद्र जी अक्सर कहा करते हैं कि मैंने तीन औरतों के साथ न्याय नहीं किया। दो तो मन्नू और मीता है। तीसरी मैत्रेयी नहीं तो फिर कौन हैं?
यह सवाल निजी है। जहां तक मेरी जानकारी है, राजेंद्र जी ने यह कभी नहीं कहा। सिर्फ दो के प्रति न्याय न करने की बात कही है। मुजरिम करार देने के लिये तो इतना ही काफी है कि अपनी समर्पिता और एकनिष्ठ पत्नी के साथ आपने न्याय नहीं किया।" 23 लेखिकाएं वाली पुस्तक में जयंती रंगनाथन के सेक्स संबंधी लंबे साक्षात्कार में उन्होंने अपना सेक्स के स्तर पर तीन के साथ रिश्ता स्वीकार किया है। तीसरी, चौथी, पांचवीं कई हो सकती हैं उसके बारे में सिर क्यों खपाया जाये। हां, यह एक बहुत बड़ा भ्रम रहा हिन्दी जगत में कि मैत्रेयी के कारण मन्नू जी से राजेंद्र जी को अलग होना पड़ा। दोनों के बीच अलगाव का कारण मैत्रेयी बिल्कुल नहीं रही। अलग होने के बाद भावात्मक संबल और व्यावहारिक सुख सुविधाओं के लिये उन्होंने मैत्रेयी को थाम लिया हो वह बात दीगर है। आखिर भावात्मक संबल और घर की सुरक्षा की दरकार एक व्यक्ति को होती ही है। जो अपने घर को सिर्फ शरणस्थली, सुख सुविधाओं का ठिया समझे घर के ठौर को ठोकर मारे उसकी कद्र न करे, आखिर देर सबेर समय उसे समझा ही देता है कि उसने क्या खोया और बदले में उसे कहां ठौर तलाशना पड़ रहा है।
मन्नू जी राजेंद्र जी से अक्सर कहा करती हैं कि जब करने का साहस रखते हैं, तो बताने का क्यों नहीं" ये कौन सी बात बताने के लिये कहती है जिसका साहस राजेंद्र जी नहीं कर पा रहे हैं।
राजेंद्र जी और मन्नू जी के नज़दीक रह चुके कई मित्रों की सबसे ज्यादा और सबसे बड़ी शिकायत यही है कि राजेंद्र जी की कथनी और करनी में बहुत बड़ी फांक हैं। अपने पचासों साक्षात्कारों, प्रवचनों में जिस सिद्धांतिकी का वे किसी मसीहा के अंदाज में प्रतिपादन करते हैं, अपने निजी संबंधों में ही नहीं, संपादन और लेखन में भी ये सतह पर ईमानदार दिखाई देते, अपने ही वक्तव्य को निभा नहीं पाते। उदाहरण पचासों हैं, पर यहां एक वाकया बताना चाहती हूं। अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा जिस तरह साहित्य में एक तरह की हिप्पोक्रेसी थी, कुछ बीजों को सामने आने नहीं दिया जाता था, उसी तरह व्यक्तिगत जीवन में भी कुछ चीजें ऐसी है जिन्हें दबा ढंक कर रखा जाता था कि भई ये साहित्य की चीजें नहीं है। लोगों की जिंदगी का जो महत्वपूर्ण भाग है (यानी सेक्स जो समाज का बहुत महत्वपूर्ण हिस्सा) है, उसको लोग बोल नहीं रहे हैं। मैने बोलना शुरु किया। प्रेम प्रसंग किसकी जिंदगी में नहीं होते। कौन सा लेखक ऐसा है जो यह कह सके कि मेरे साथ कोई अफेयर नहीं हुआ। मैंने किसी लड़की की तरफ झांका नहीं। हरेक के साथ प्रेम प्रसंग है उनमें से कोई लिखने की हिम्मत नहीं करता। नैतिकता के प्रश्न हों या व्यक्तिगत प्रश्न मैंने उनको खुल कर कहा है (मुह मुड़ के देखता हूं मैं)। उन पर बात की है और मैं समझता हूं कि इससे ही लोगों की हिप्पोक्रेसी टूटे क्योंकि आपको दूसरों को नंगा करने के बजाय पहले खुद नंगा होना होगा तभी आपको हक है कि आप दूसरों के बारे में कुछ कह सकें। हमारे यहां पता नहीं कितने लोग हैं जो क्लेम करते हैं कि मुझसे ज्यादा सच्चा कोई नहीं है। उन बेवकूफों और दंभियों से यह कहा जाए कि कुछ सच अपने बारे में भी बोलो।" (23 लेखिकाएं और राजेंद्र यादव, साधना अग्रवाल द्वारा साक्षात्कार में।)
इतना बड़ा प्रवचन सुनने के बाद कोई भी मुस्कुरा कर यही पूछेगा राजेंद्र जी आपका अपने बारे में क्या ख्याल है?" यह सैद्धांतिकी पहले अपने पर लागू करते। अपने बारे में कितना सच बोला है उन्होंने। मन्नू जी से अलग होने के कारण के बारे में उनके प्रचारित झूठों का तो अंबार लगा है। 1996 में मन्नू जी से अलग होने के बाद एशियन एज को एक साक्षात्कार दिया तो कारण यह बताया कि मैं तो बहुत सोशल हूं और मुझसे मिलने वालों का आना जाना, उन्हें खिलाना पिलाना मन्नू को पसंद नहीं था तो हमने सोचा चलो अलग रहने का प्रयोग कर देखा जाए। जाहिर है मन्नू जी इस बयान से बहुत आहत हुई क्योंकि उनके यहां हमेशा ही साहित्यिक मित्रों की बैठकें जमती रही हैं। कथादेश के लिये जब मैंने मन्नू जी के बारे में नामवर जी का साक्षात्कार लिया था तो उन्होंने मेरे सामने कहा था- "दिल्ली में मैं जितने साल रहा हूं। पचास प्रतिशत खाना तो मैंने इस हौज खास वाले घर में खाया है। मन्नू जी के सिर पर जारी जिम्मेदारियां, कॉलेज में पढ़ना। ट्यूशन करना। घर जा कर मित्र मंडली की बखुशी आवभगत करना। राजेंद्र जी से कहा अच्छा लगता है यह देख कर कि आप दोनों का आपस में एक स्वस्थ संवाद भी है। मन्नू जी पर सिर्फ दो पेज लिख कर दें, मुझे इस अंक में कोई विवाद खड़ा नहीं करना। पर नहीं, अपनी फितरत से कहां बाज आ वाले थे वह। दो पन्नों की जगह छह पन्नों का साक्षात्कार दिया उन्होंने अर्चना वर्मा को और उसमें फिर बेसिर पैर की बातें - 'ठाकुर साहब ने घेर घार हमारी शादी करवा दी।' मन्नू जी ने पढ़ा तो फिर आहत हुई शादी के समय तीस साल की उम्र थी राजेंद्र की। बाल विवाह हो रहा था हमारा कि कोई घेर घार कर शादी करवा दे? और शारीरिक विकलांगता और भावात्मक आघात को एक ही तराजू पर तोलना और सबसे बढ़ कर अपनी आज़ादी के राग अलापना - 'परिवार तो ऐसी चीज है जो कल्पना के पंखों को क्लिप करती है। वैयक्तिकता समाज के दबावों को परिवार को नकार कर पाई जाती है। परिवार में रहते हुए कोई क्रान्तिकारी काम नहीं कर पाता'। एक बार मन्नू जी पर बनी साहित्य अकादमी की फिल्म में उनके मुंह से एक बुदबुदाहट - 'आय हैव नॉट बीन फेअर टू हर।' सुन कर बहुत अच्छा लगा था पर अपने साक्षात्कारों में हमेशा उस कन्फेशन पर घड़ों पानी उड़ेलते रहे और अब तक अनफेअर ही बने चल रहे हैं।
राजेंद्र जी को साक्षात्कार देने का ऑब्सेशन है। एक ही बात को घुमा-फिरा कर अपनी लच्छेदार भाषा में कहते चले जाते हैं। अगर कोई उनके साक्षात्कारों और जीवन को ले कर तौले तो विरोधाभासों का एक पोथा तैयार हो जाएग। वे कहते हैं शादी एक पिंजरा है, उसमें आपको मूवमेंट की उतनी ही सुविधा है जितनी पिंजरा देता है।" पर इस पिंजरे में वे बने रहना चाहते थे। मन्नू जी पिंजरे का दरवाजा खोल कर बाहर का रास्ता न दिखा देतीं तो ये आज भी इसी पिंजरे में बने रहते। दरवाजा खोल दिया गया तो 'पिंजरे का पंछी अराजक हो कर अपनी आजादी का परचम फहरा कर आजादी के गीत गाने लगा।
इसी साल 2011 में एक रेडियो चैनल से आई एक महिला ने कारण पूछ लिया तो यहां एक अलग उत्तर हाजिर था मैं पढ़ने लिखने वाला आदमी हूं, मन्नू को हमेशा यही लगता था कि मैं उसे समय ही नहीं देता। उसकी यह शिकायत हमेशा रही। उसके परिवार में बड़े आदर्श पति रहे हैं। तो एक आदर्श पति का रोल तो मैं निभा नहीं सकता था। संयोग कि लड़की वहां से साक्षात्कार ले कर सीधे मन्नू जी के यहां चली आई। मन्नू जी ने कहा समय मांगती थी, इस लिये वे अलग हुए? समय तो खुद मेरे पास नहीं था। कॉलेज की नौकरी, घर का खर्च किसी तरह चला पाने के लिये कॉलेज के बाद ट्यूशन, साल के 361 दिन काम। फिर अपना लिखना। हमारे कॉमन मित्र उनका आना। हमारा उनके यहां जाना। मेरे पास ही समय कहां था जो मैं इनसे समय की मांग करती? उनके जाने के बाद मन्नू जी ने राजेंद्र जी से पूछा - 'अलग होने का सही कारण क्यों नहीं बताते। आपमें अगर करने की हिम्मत है तो कहने की हिम्मत क्यों नहीं है। हर साक्षात्कार में एक अलग कारण गढ़ लेते हो और उसका ठीकरा मेरे सिर पर फोड़ते हो।' अगला जवाब हाजिर था - 'अरे, तो मैं क्या माथे पर चिपका कर घूमूं कि मैंने यह-यह किया। अब या सब हर किसी को बताने की बातें थोड़े ही है। अब आप उनके सब बोलने और दूसरों को नंगा करने के बजाय खुद नंगे होने के गर्वीले वक्तव्य पर सिर टकराते रहें कि वह सीख आखिर किनके लिये दी गई है? किन्हें बेवकूफ और दंभी कहा गया था?
पर वह बात कौन सी थी ? क्या आप राजेंद्र मन्नू जी के अलगाव की मूल वजह के बारे में कुछ बता सक है क्योंकि मन्नू जी के अलावा जिन तीन चार लोगों को उसके बारे में पता है, उनमें से एक आप भी हैं जो मन्नू जी के बेहद करीब हैं?
सच तो यह है कि अलग रहना दोनों का आपसी सहमति से लिया हुआ निर्णय नहीं था जैसा कि राजेंद्र जी कहते रहे - मैं कई बार छह महीने बाहर रहा ताकि रोज रोज का क्लेश मिटे, मुझे विवाह और आजादी में से एक को चुनना था, विवाह के आचरण की आचार संहिता में मेरा दम घुटता था। हमने अलग रहने के प्रयोग किए। जैसे राजेंद्र अपनी आजादी के लिए खुद अलग हुए हों। दरअसल यह मन्नू जी का एकल निर्णय था जिसे राजेंद्र जी को स्वीकृति देने पर मजबूर होना पड़ा ।
एक औरत की जिन्दगी में चाहे वह कितनी भी पढ़ी लिखी आत्मनिर्भर और नामचीन क्यों न हो हादसों और आघातों को पीछे ठेल कर जब तक वह अपने वैवाहिक संबंध को चला सकती है चलाती है। 1994 में उज्जैन से जब मन्नू जी दिल्ली लौटीं तो स्टेशन पर चहकते हुए राजेंद्र जी और आत्मीयता और अपनत्व से भरा घर। मन्नू जी को लगा कि अब उम्र का भी तकाजा है और आखिर घर से जुड़ाव भी होता ही है। उन्हें भीतर एक आशा बंध रही थी कि अब सब ठीक हो जाएगा। हंस की आर्थिक स्थिरता के कारण भी राजेंद्र जी में बदलाव आएगा। लेकिन कुछ ही दिनों राजेंद्र जी के छलात्कार का शिकार बनी एक और मीता मन्नू जी की ही गोद में सिर रखकर अपना दुखड़ा रो रही । उनसे तीस साल छोटी यह मीता अपने परिवार और दोनों बच्चों को छोड़ कर राजेंद्र जी के साथ आने का निर्णय ले चुकी थी और उनके ढुलमुल रवैये को देख कर परेशान थी। मन्नू जी बुरी तरह टूटी और निर्णय लिया बस बहुत हुआ सो फार एंड नो फर्दर।" ये उन्हीं के शब्द है। यह कांड न हुआ होता तो मन्नू जी तो सब कुछ भूल कर नये सिरे से जिंदगी शुरु करने के लिये साथ रहने को तैयार थी ही। अब चूंकि हंस की आर्थिक स्थिति भी मजबूत हो चुकी थी। मन्नू जी ने अपना फैसला सुना दिया और उस पर डटी रहीं। वे यह जानती हैं कि आज ये अगर जिन्दा हैं तो अपने इस निर्णय पर टिके सहने की वजह से ही। वरना रोज रोज का यह तनाव और राजेंद्र जी के कारनामे उनके लिये अंततः जानलेवा और घातक ही साबित होते।
मन्नू जी के लिये कुछ लोग कहते हैं कि मन्नू जी को राजेंद्र जी से जो फायदा उठाना था, उठा लिया और बाद में उन्हें घर से बेदखल कर दिया?
पति पत्नी के रिश्तों में भी जोड़-घटाव, फायदा -नुकसान, हानि-लाभ; पुरुषवादी सोच इससे आगे जा ही नहीं सकती। भावनात्मक तकलीफ को समझ पाना उनके बूते का है ही नहीं। जो ऐसा कहते हैं उन्होंने मन्नू जी की किताब 'एक कहानी यह भी' में विटवीन द लाइंस पढ़ने-समझने की कोशिश ही नहीं की। समावर्तन के अक्टूबर 2008 के अंक में मैंने मन्नू जी पर भी नौ पन्नों का संस्मरण लिखा है, उसमें विस्तार से इस पर चर्चा की है।
मन्नू जी अपनी शादी से पहले ही एक प्रतिष्ठित लेखिका थीं। अपने लेखन के लिये राजेंद्र जी के नाम का सहारा नहीं लिया उन्होंने। हां, राजेंद्र जी से प्रोत्साहन जरूर मिलता रहा जिसके कारण जिंदगी के तनावों को अनदेखा करती रहीं और जिंदगी चलती रही। प्रेम विवाह था। घर से विद्रोह किया था इसलिये विवाह को निभाना एक बड़ी जिम्मेदारी भी थी। विवाह को न चला पाना एक बहुत बड़ी हार होती। अपनी तथाकथित आमकथा में न चाहते हुए भी वे काफी कुछ संकेतों में कह ही गई हैं। जब उनकी इस किताब का फाईनल प्रूफ आया था मैंने उनसे बहुत बार कहा कि आप अलग होने की इस वजह को थोड़ा सा खोल कर लिखिये। उनको तरह तरह से समझाया। मिन्नतें कीं। पर ये भी कम जिद्दी नहीं। कहने लगीं चौदह साल से इस किताब को मर मर कर तो लिखा है अब मैं एक शब्द नहीं जोडूंगी। दरअसल वे इसे निजी त्रासदी ही समझती रहीं। इसका एक बड़ा समाजशास्त्रीय कोण समझ ही नहीं पाई कि यह उनकी सिर्फ निजी समस्या नहीं है। हजारों महिलायें ऐसे अनुभवों से गुजरती हैं और इसे खोल कर लिखना, उसका एक तार्किक विश्लेषण करना पत्रिकाओं को एक सकारात्मक सीख देगा। अब कहती है कि मैंने लिख दिया होता तो इस तरह हर रोज राजेंद्र एक नया ठीकरा मेरे सिर पर न फोड़ते।
उनके भीतर के लेखक ने हमेशा उनके भीतर की स्त्री को ढांपे रखा, सिर उठाने नहीं दिया वर्ना इतनी छूट कहां कोई स्त्री दे पाती। कोई आधुनिक स्वतंत्रचेता, देह मुक्त स्त्री (जैसी स्त्री गढ़ना, राजेंद्र जी के स्त्री विमर्श का स्वप्न है) इतनी स्पेस अपने साथी पुरुष को दे पाती? उसकी रासलीलाएं, उसके झूठ, उसकी संवादहीनता, उसकी असंवेदनशीलता पैतीस साल के लंबे अरसे तक बर्दाश्त कर पाती? यह उस परंपरावादी खांटी घरेलू लेखिका के ही बूते का था कि अपने पति के लेखन को सबसे ऊंचा दर्जा देती रही और सारी छूट भी लेखिका ने ही दी। यह मानते और स्वीकार करते हुए कि लेखिका को लिखने के लिए चाहे पहाड़ों के रिसॉर्टो पर जाने और प्रेमी पुरुष की जरूरत महसूस न हो पर ऊंगलियों में अदा से सिगार पकड़ने वाले लेखक की दैहिक और भावनात्मक जरूरतें एक आम सामान्य पुरुष से अलग और ज्यादा हैं और विशिष्ट पुरुष की जीवनसाथी बनाने का चुनाव भी तो उनका अपना ही था. फिर शिकायत कैसी और किससे? फिर तो यह चुनौती सी जान पड़ी कि इस विशिष्ट प्राणी को सहेज कर संभाल कर रखना है। जैसा भी है जितना भी, अपने हिस्से यह विशिष्ट पुरुष आ पड़ा है उसे पोषक खुराक हर तरह से उपलबा करवा कर खुश रखना है। पर उनकी सारी मजदूरी मशक्कत बेकार गई। जिनके लिये घर परिवार प्राथमिकता में नहीं आता उन्हें ताउम्र इसकी अहमियत समझ नहीं आ सकती।
अलगाव के बाद भी राजेन्द्र जी और मन्नू जी कई जगह एक साथ दिखते हैं। दोनों में अब कैसी केमिस्ट्री है?
जब जब किसी साक्षात्कार में राजेंद जी कुछ आपतिजनक बोल जाते हैं, मन्नू जी चुप हो जाती है। उनसे बात करना बंद कर देती हैं। एक सप्ताह से ज्यादा अनबोला चल नहीं पाता। आखिर राजेंद्र जी फोन करेंगे - 'क्या अभी तक मुंह फुला कर नाराज बैठी हो। और संवाद का सिलसिला फिर शुरू हो जाता है। लंबे समय तक साथ रहते हुए मन्नू जी ने संवादहीनता का इतना लंबा दौर झेला है कि उन्हें फोन पर इतना भी बात कर लेना सुकून देता है। और माफ कर देना तो मन्नू जी के जैनी संस्कारों में है। नहीं जानती, लेकिन राजेंद्र जी के भीतर मन्नू जी को लेकर कहीं एक गहरा अपराधबोध तो है। होना भी चाहिये जिसकी वजह से साक्षात्कारों में तमाम उल्टे सीधे बयान देने के बाद भी राजेंद्र जी रिश्ता टूटने नहीं देते क्योंकि अपनी फितरत से वे भी वाकिफ हैं। उनका अपना सामती रवैया चाहते हुए भी छूटे नहीं छूटता। राजेंद्र जी का आगे बढ़ कर मन्नू जी से संपर्क बनाये रखना फोन करना मुझे अच्छा लगता है क्योंकि मन्नू जी जिस तरह बिना भूले उसका जिक करती हैं, उन्हें भी अच्छा लगता होगा।
आपके इन खुलासों से शायद राजेंद्र जी को ऐतराज हो।
नहीं होगा। एक ही तो खास विशिष्टता है राजेंद्र जी में। इतना सब लिख गई हूं और कोई हो तो नाराजगी में मुंह घुमा ले, कभी बात ही न करे। मेरे पहले विरोध पत्र के बाद ही से मेरा नाम लेना बंद कर दिया पर बात करना बंद नहीं किया। कथाबिंब जैसी लघुपत्रिका में मेरा आत्मकथ्य आया तो सबसे पहला फोन दिल्ली से उनका - - अपने उन गुमसुम अंधेरे ग्यारह सालों की बात क्यों गोल कर गई? उस पर भी लिखो। 30 मार्च 2008 को मैं दिल्ली में ही थी जब हिन्दू में मेरा आलेख आया जिसमें मन्नू जी की आत्मकथा के हवाले से राजेंद्र जी के आत्मकेंद्रित व्यक्तित्व का उद्धरण और ब्यौरा भी था। उनके आत्ममुग्ध व्यक्तित्व का असंतुलन डिसऑर्डर पर मैने विस्तार से चर्चा की पर सुबह सुबह पहला फोन राजेंद्र जी का था तुम्हारा लेख है आज के हिंदू मैगजीन में। मैंने कहा कैसा लगा? बोले अभी पढ़ा नहीं। मुझे मालूम है पढ़ने के बाद ही फोन किया था, पर जाहिर है अपनी प्रतिक्रिया क्या देते। इतनी उदारता का होना भी हिन्दी के लेखक संपादक में अन्यत्र दुर्लभ है। इसे पढ़ने के बाद पहला फोन उन्हीं का आयेगा देखें इस बार क्या नामकरण देते हैं। कभी-कभी उनसे पूछने का मन होता है कि अपने दुश्मनों का भी नामकरण संस्कार संपन्न कर देते हैं। मन्नू जी को कितने नामों से नवाजा - सिवाय खांटी घरेलू औरत के?
राजेंद्र जी के जन्मदिन के उपलक्ष्य में कुछ कहना चाहेंगी?
मैं भी आपसे एक छोटा सा सवाल पूछना चाहती हूं। राजेंद्र यादव पर ही यह आयोजन क्यों? उनके व्यक्तित्व पर आधा दर्जन किताबे आ चुकी है, लेखन पर पचासी शोध कार्य हो चुके है। साहित्य में मुद्दों की कमी हो गई है क्या? आज व्यक्ति पूजा का माहौल है और जब व्यक्ति खुद ही यश लिप्सा का मारा हो तो पूजा अर्चना से कौन रोक सकता है। इसे ही बढ़ावा दिया जा रहा है। पाखी भी दे रही है। बाजारवाद का उत्कृष्ट नमूना है यह। बाजार के बीच अपने को बाजार बनाये रहने को सतत तत्पर व्यक्ति है राजेंद्र यादव। पिछले पंद्रह सोलह सालों से उनके जन्मदिन का हर साल भव्य आयोजन होता है। इतने सालों में अपना या हंस के सहयोगियों से चंदा उगाह कर जितना पैसा खर्च किया गया, वह क्या किसी ऐसे काम में नाहीं लगाया जा सकता था जिससे साहित्य की बेहतरी या बढ़ोतरी होती। इन भव्य आयोजनों में क्या साहित्य पर कोई चर्चा होती है? इनमें बर्थ डे ब्यॉय को डिजाइनर कुरते मिलते हैं जो उनकी उम्र के साथ मैच नहीं करते और उनकी मधुशाला की शान बढ़ाने वाली आयातित सुराहियों या कुछ आयातित कलमों का तोहफा मिल जाता है (इन आयातित सुराहियों की कीमत अन्ततः हम जैसे हंस के प्रतिबद्ध निरीह पाठकों को कल फिर आना जैसी लचर कहानी पढ़ कर चुकानी पड़ती है) शराब के दौर के बाद आपे से बाहर हो कर कुछ फाहश किस्म की चर्चाएं हो जाती है। उमर खय्याम की रूबाइयां इर्द गिर्द मंडरा ही रही होती है। किसी भी यशोकामी रचनाकार के जन्मदिन पर हर साल इतना पैसा फूंकने का अंदाज यही बताता है कि साहित्य के सामाजिक सरोकार किस कदर वैयक्तिक सरोकारों तक सिमट कर रह गये हैं।
ईश्वर से प्रार्थना है कि राजेंद्र जी को लंबी उम्र और अच्छा स्वास्थ्य दे ताकि इस उम्र में उनकी अंतरात्मा जगे और हंस के गिरते ग्राफ को रिवर्स करें। साहित्य की बेहतरी के लिये कुछ सकारात्मक कदम उठायें जिसके लिये अब उन्हें काफी मेहनत करनी पड़ेगी। हंस के साथ इतना सारा कीचड़ उसकी तलछट में इकट्ठा हो गया है कि हंस के भाल पर तिलक की तरह प्रतिष्ठित संस्थापक प्रेमचंद का नाम अब एक थिगली सा लगता है।
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| सुधा अरोड़ा |
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बेबाक बातचीत
जवाब देंहटाएंपूरा साक्षात्कार पढ़ गया। सुधा अरोड़ा सारिका की मशहूर कहानीकार रही हैं। उनकी कई कहानियाँ मैंने सारिका में पढ़ी थीं। उनके पति जितेन्द्र भाटिया ज्ञान रंजन साथ कई सालों तक पहल के सह संपादक भी रहे हैं। आजकल दूर देशों का यात्रा संस्मरण लिख रहे हैं। जितेंद्र भाटिया एक बड़े कहानीकार रहे हैं। सबसे पहले मैंने उनकी कहानी " अज्ञातवास " धर्मयुग" में पढ़ी थी। उनका कहानीसंग्रह "शहादतनामा" मेरे पास है। राजेन्द्र यादव दरसल एक बिगड़ी प्रतिभा थे। सुधा अरोड़ा ने सच्चाई खोल कर रख दी है।
जवाब देंहटाएंशीतेंद्र नाथ चौधुरी