परांस-6 : दीपक की कविताएं
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कमल जीत चौधरी |
एक जमाना था जब कवि राजदरबारों की शोभा बढ़ाते थे। राजाओं का पुराना जमाना बीत गया। नए जमाने का कवि अब सत्ता से दो दो हाथ करने के लिए तैयार खड़ा रहता है। नागार्जुन ने तो एक चर्चित कविता ही लिखी थी 'इंदु जी, इंदु जी क्या हुआ आपको?' नागार्जुन की ही एक और कविता है 'जनता मुझसे पूछ रही है/ क्या बतलाऊं/ जनकवि हूं मैं/ साफ कहूंगा/ क्यों हकलाऊं' युवा कवि दीपक जब लिखते हैं 'मैं जनता का कवि हूँ — मैंने संघर्ष चुना है।' तो बाबा नागार्जुन याद आते हैं। दीपक जानते हैं कि कविता लिखने का मार्ग सुगम नहीं होता बल्कि यह कंटकाकीर्ण होता है। तब भी उन्होंने इस कठिन राह का चयन खुद किया है। यह बात हमें आश्वस्त करती है। दीपक की ये शुरुआती कविताएं हैं इसलिए इसमें उस कारीगरी का अभाव मिलेगा जो स्थापित कवियों में दिखाई पड़ती है। इस कवि की कविताओं में सहज ऊबड़खाबड़पन है लेकिन इन कविताओं को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि इस कवि में तमाम संभावनाएं हैं।
अप्रैल 2025 से कवि कमल जीत चौधरी जम्मू कश्मीर के कवियों को सामने लाने का दायित्व संभाल रहे हैं। इस शृंखला को उन्होंने जम्मू अंचल का एक प्यारा सा नाम दिया है 'परांस'। परांस को हम हर महीने के तीसरे रविवार को प्रस्तुत कर रहे हैं। इस कॉलम के अन्तर्गत अभी तक हम अमिता मेहता, कुमार कृष्ण शर्मा, विकास डोगरा, अदिति शर्मा और सुधीर महाजन की कविताएं प्रस्तुत कर चुके हैं। इस क्रम में आज हम छठे कवि दीपक की कविताएं प्रस्तुत कर रहे हैं। कॉलम के अन्तर्गत दीपक की कविताओं पर कमल जीत चौधरी ने एक सारगर्भित टिप्पणी भी लिखी है। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं दीपक की कविताएं।
परांस-6
वो कविता ज़रा कहीं से लिख कर लाए कोई
कमल जीत चौधरी
दीपक की कविताएँ मिलीं। आगे बढ़ कर गले लगा रहा हूँ। इनकी तीसेक कविताएँ पढ़ कर कह रहा हूँ कि इस मुलाकात को उत्तरोत्तर गहरा होना है। यह कवि अपनी फेसबुक वॉल से इतर पहली बार छप रहा है। इस नवोदित का हार्दिक स्वागत! इनकी एक छोटी-सी कविता पढ़ें:
'हारे हुए हुए लोग कहाँ जाएँगे?
हारे हुए लोग फिर
संघर्ष की खुली चिट्ठी के साथ संलग्न होंगे
मन में जीत की आस लिए
सीनों में सुलगती प्यास लिए।'
यह अदम्य साहस की कविता है। 'संघर्ष की खुली चिट्ठी के साथ संलग्न होने' जैसा बिंब लाजवाब है। इसकी व्यंजना दूर ले जा रही है। चिट्ठी के साथ क्या संलग्न किया जाता है? सबसे ज़रूरी दस्तावेज़, कोई प्रमाण। यहाँ हारे हुए लोग प्रामाणिक हैं। उनका लक्ष्य एकनिष्ठ है। वे फिर वहाँ जुड़ेंगे, जहाँ सतत संघर्ष का 'ज़ोर लगा के हई-शा' और 'इंक़लाब ज़िन्दाबाद' बोला जा रहा है। इनकी कविताएँ; युवा होने की शर्त, जिम्मेदारी और चुनौती स्वीकार करती हैं। इनमें जो ताप, सपने, शिल्प और उदित है, वह मिट्टी से सृजित है। इन्हें रमाशंकर यादव विद्रोही जी की तरह मालूम है कि आसमान में धान नहीं रोपा जा सकता। यहाँ ज़मीन है। ज़मीन पर क्रांति का आह्वान है। इस आह्वान में तुकांत है। तुकांत में क्षितिज के आगे की लय (कल्पना भी) है। लय में संगीत है। संगीत में कविताई है। कविताई में जुलूस और जलसा है। और हिन्दी-कविता में जुलूस और जलसे की एक परम्परा है। दीपक का लिखा इसी परम्परा से जुड़ता है। यह अकारण नहीं है कि अदम गोंडवी, मुक्तिबोध, नागार्जुन, रमाशंकर यादव विद्रोही, दुष्यंत जैसे कवि और हरिशंकर परसाई जैसे गद्यकार इन्हें बहुत प्रिय हैं। बोलने और नहीं बोलने के बीच की मुश्किल दिखा कर वे कितना कुछ बोल जाते हैं:
'ख़ामोशियों की राख में दफ़्न हैं,
मेरे शब्दों की चिंगारियां।
बोलूँ तो आग लग जाती है,
न बोलूँ तो सांस दब जाती है।'
दीपक का लेखन उस जन के साथ खड़ा है, जिसे कविता की काव्यशास्त्रीय परिभाषा का नहीं पता, मगर जिसके जीवन पर कविताओं का असर कभी टूटता नहीं है। उनकी उत्सवधर्मिता से ले कर रुदन तक में लोकगीत या कविताएँ देखी जा सकती हैं। लोरी गाने में, पसीने से तरबतर हो कर छम्बा लगा कर पानी पीने में, मुँह ऊपर कर के घट से घट-घट पानी पीने में, भवों पर हथेली का छज्जा बना कर देखने में, कच्ची मुंडेर से खेत की ओर हांक लगाने में, किसी की मृत्यु पर बैन डालने में, जो कविता है, वह जन-कविता है। इस आलोक में दीपक की कविताई; प्रगतिशील उर्दू-नज़्म की तर्ज़ पर हिन्दी की जनवादी कविता है। इसमें जन-प्रतिरोध की संस्कृति रचने की विशेष क़ुव्वत है, आख़िर यह मुहब्बत को साथ जो रखती है।
कवि के पास सवाल अवश्य होने चाहिए। दीपक के पास ग़ैरबराबरी, अव्यवस्था, अराजकता और शोषण को लेकर सवाल हैं। क्या सवाल कविता हो सकता है? क्या प्रतिक्रिया कविता हो सकती है? क्या निर्णय की भाषा में कविता लिखी जा सकती है? इसका एक ही उत्तर हो सकता है--- कविताएँ हर तरह से सम्भव हैं और हर तरह से असम्भव भी हैं। किसी ने ठीक ही कहा है कि कविता या तो होती है या फिर नहीं होती। बीच में कुछ नहीं होता। दीपक की लिखत में बेशक अभी निजी मुहावरा अर्जित नहीं है, मगर इसमें इनके कवि होने की असीम संभावना है:
'तारों के पीछे भागता हूँ
रातों को जागता हूँ
आग से नहाता हूँ,
पानी से सूखता हूँ...'
आलोच्य कवि के नाम के कारण एक मुहावरा, 'चिराग तले अँधेरा' याद आ रहा है। इस मुहावरे को अन्य दृष्टि से देखता हूँ। चिराग का तला न हो तो तेल कहाँ टिकेगा? दीये के जिस छोटे-से तले के नीचे अँधेरा रहता है। एक कमरे को लौ से भरने में उसकी भी महत्वपूर्ण भूमिका है। कुछ ऐसी ही प्रस्तावना प्रगतिशील सामूहिक सपनों का दीया जलाने वाले कवि की है। वह स्वयं नींव तले रह कर लौ का सबब बनता है। काव्य का प्रयोजन क्या है? कविताएँ क्यों लिखी जाती हैं? इनकी क्या भूमिका है? जगदीश चन्द्र माथुर कृत 'भोर का तारा' एकांकी में कवि-दायित्व को दर्शाया गया है। इसका नायक शेखर प्रेम आधारित अपने महाकाव्य को आग के हवाले कर देता है। यह ग्रन्थ उसने अपनी प्रेमिका (पत्नी) छाया के प्यार में डूब कर लिखा है। मगर उनके राज्य को शत्रुओं से खतरा आन पड़ा है। ऐसे में ओज की आवश्यकता है। इसी कारण वह अपने सुन्दर प्रेमग्रंथ को नष्ट कर देता है, ताकि उसे पढ़ कर युवा तलवार की जगह फूल थाम कर न बैठ जाएँ। वर्तमान में कवियों को क्या करना चाहिए? उसे प्यार और प्रतिरोध की मुखर आवाज़ बनना चाहिए। अकादमिक कैलेंडरों से बचना चाहिए। पर्यावरण, तकनीक, विज्ञान, राजनीति, साम्प्रदायिकता, जाति-धर्म, बेरोज़गारी, अशिक्षा, युद्ध, ग़रीबी, शोषण, अन्याय आदि पर लिखना चाहिए, और यह प्यार और संवाद किए बिना सम्भव नहीं हो सकता। इस दौर को वीर-प्रेमियों की आवश्यकता है। त्यागने के लिए तथाकथित पद-प्रतिष्ठा, पुरस्कार और साहित्यिक यात्राएँ हैं। ऐसा साहित्य फूंक देना चाहिए, जो सत्ता प्रतिष्ठानों से खाद-पानी पा कर बना है। कर्तव्यच्युत और कला का सम्बन्ध; घोर अनैतिक है।
दीपक के विचार स्पष्ट और दो टूक हैं। वे कवियों से पूछते हैं- बताओ नज़्म कब लिखोगे? :
'ख़ामोश की जाती आवाज़ पर,
इस ज़िंदा-मुर्दा समाज पर,
अपने कल और आज पर,
ये क्रूर तख़्त और ताज पर—
बताओ नज़्म कब लिखोगे?'
यह सवाल सिर्फ़ कवियों से नहीं है। यह प्रश्न हर उस आदमी से है, जो अँधेरे को रोशनी कहता है। मगर अपने आकार में यह कविता कोस लम्बी भी हो सकती थी, मगर होनी नहीं चाहिए। मेरा संकेत है कि अनावश्यक विस्तार से कवि को बचना चाहिए।
अक्सर प्रेम कविताओं से कवि बनने की शुरुआत होती है। यह दुर्लभ है कि लिखने की शुरुआत में राजनीतिक कविताएँ अधिक हों। दीपक के पास यह अधिक हैं, मगर इन्हें प्यार ही बल दे रहा है। इनकी अधिकतर कविताएँ; राजनीतिक चेतना से कटिबद्ध हैं। यह इनकी ताकत और सीमा है। दरअसल एक समय के बाद एक ही शैली या कहन में प्रतिरोध, प्यार, हास्य आदि अपना प्रभाव खो सकते हैं। अक्सर ऐसा होता है। लेखन के अगले दौर में दीपक को आवृत्तियों से बचते हुए जनपक्षधरता के लिए नए रास्तों को तलाशना होगा। आख़िर स्थाई पहचान हेतु हर कवि को कुछ नितांत अलग, बेहद सघन और कारुणिक; सृजन करना ही होता है।
इस दुनिया का ठीक-ठीक पता सिर्फ़ गालियों, चुटुकलों से ही नहीं, इसकी गलियों से भी चलता है। जो कला या कविता गलियों के मुहाने तक ले जाती हो, उस पर भरोसा करना चाहिए। दरअसल गली का मुहाना नदी के मुहाने सा भी है। जैसे नदी के मुहाने पर समुद्र है। एक रहस्य। जैसे-जैसे इसकी गहराई में उतरना होता है, इसके भेद भी बढ़ते जाते हैं। गली ख़त्म होने के आगे की दुनिया में अनेक-अनेक दुनियाएँ हैं। मेरा निजी विचार है कि अदेखी दुनियाओं पर इस तरह का सृजनात्मक कार्य होना चाहिए, जो यथार्थ को सुन्दर बनाने में सहायक सिद्ध हो। तारों की, चाँद-सूरज की कहानियाँ सुनी-सुनाई जाती रही हैं। पीछे के दिनों में; इन किस्से-कहानियों ने सुन्दर जीवन-सौन्दर्य दिया है, और बच्चों की दुनिया पर गहरा प्रभाव डाला है। कहे-देखे पर बहुत कहा जाता है, अनकहे-अदेखे पर कम। एक कवि की दृष्टि अदेखे को देखने की महारथ रखती है:
क्षितिज के उस पार, जहाँ
कल्पनाएँ भी नहीं पहुँच सकतीं,
मैं प्रेम को उस दृष्टि से देखता हूँ,
या फिर उस माँ की तरह
जो ज़रा आँख लगने के बाद
जगते ही
अपने नवजात को कहीं गुम पाए...
इस कविता के लिए दीपक को विशेष साधुवाद! यह उदात्त भाव में; एक मार्मिक कविता हुई है। 'अपने नवजात को कहीं गुम पाए...' के बाद अंकित तीन बिन्दुओं में व्यंजित भाव में असीम संभावनाएँ देखी जा सकती हैं...। यह कविता; कवि के मूल स्वर को दूसरी तरह अभिव्यंजित कर रही है। ऐसी और-और कविताएँ, इनकी जनपक्षधरता को नए आयाम दे सकती हैं। फ़िलहाल इतना ही कहूँगा कि इनका धैर्य, वैचारिक प्रतिबद्धता और पढ़ने का गुण बना रहे। लेखन की दुनिया में इनका पुनः स्वागत करते हुए अशेष शुभकामनाएँ प्रेषित करता हूँ।
सम्पर्क
कमल जीत चौधरी
ई मेल : jottra13@gmail.com
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दीपक |
कवि-परिचय:
दीपक मूलतः कवि हैं। वे दस-बारह वर्षों से हिन्दी, पंजाबी और डोगरी में लिख रहे हैं। विभिन्न मंचों से काव्यपाठ कर चुके हैं। रंगमंच में भी इनकी गहरी रुचि है। हिन्दी भाषा-साहित्य में परास्नातक और बी.एड. हैं। इन दिनों नौकरी की तलाश में हैं।
दीपक की कविताएं
वो कविता
वो कविता, जो सत्ता से टकरा रही है,
वो कविता, जो सदन से सड़कों तक गाई जा रही है।
वो कविता, जो ख़ामोशी की आवाज़ है,
वो कविता, जो बेड़ियों से आज़ाद है।
वो कविता, जो ग़रीब की रोटी है,
वो कविता न हँसती है, न रोती है।
वो कविता, जो तुम्हारी पहचान है,
वो कविता, जिसमें विद्रोह है, जान है।
वो कविता, जो समय को मरोड़ सकती है,
वो कविता, जो तख़्तों को तोड़ सकती है।
वो कविता, जो संघर्षों में पलती है,
जिसकी उम्र न बढ़ती है, न ढलती है।
वो कविता ज़रा कहीं से लिख के लाए कोई,
मेरे कान तरस गए हैं, इस महफ़िल में गाए कोई
वो कविता
जो अपनी गली के मुहाने तक ले जा सकूँ।
या फिर
क्षितिज के उस पार, जहाँ
कल्पनाएँ भी नहीं पहुँच सकतीं,
मैं प्रेम को उस दृष्टि से देखता हूँ,
या फिर उस माँ की तरह
जो ज़रा आँख लगने के बाद
जगते ही
अपने नवजात को कहीं गुम पाए...
ख़ामोशियों की राख में
ख़ामोशियों की राख में दफ़्न हैं,
मेरे शब्दों की चिंगारियां।
बोलूँ तो आग लग जाती है,
न बोलूँ तो सांस दब जाती है।
मैं कविताएँ गढ़ता रहूँगा
मैं कविताएँ गढ़ता रहूँगा,
मसलों पर, अवसादों पर,
फूलों पर, अल्हादों पर,
धड़कते जिद्दी दिलों पर,
और टूटे हुए वादों पर।
मैं यूँ ही मरता रहूँगा,
मैं कविताएँ गढ़ता रहूँगा।
कविताएँ, कुछ शाम की रंगीनियों पर,
कुछ रातों की ग़मगीनियों पर,
कुछ चाँद पर, कुछ तारों पर,
कुछ जीतों पर, कुछ हारों पर,
मैं लड़ता रहूँगा,
मैं कविताएँ गढ़ता रहूँगा।
कविताएँ, जो कई दिनों तक भूखी होंगी,
तड़पी होंगी, रोई होंगी,
फिर ख़ाली पेट सोई होंगी।
लोगों की लाचारी पर,
सत्ता की होशियारी पर,
अक्सर कटाक्ष करता रहूँगा,
मैं कविताएँ गढ़ता रहूँगा।
मैं जीवन की इस तरुणाई पर,
साथ चलती परछाई पर,
अपनी प्रेमिका की अंगड़ाई पर,
शब्दों की इस गहराई पर,
बफादारी या बेवफ़ाई पर।
स्वयं को अश्रुओं से सींचता रहूँगा,
मैं कविताएँ गढ़ता रहूँगा।
हारे हुए लोग
हारे हुए हुए लोग कहाँ जाएँगे?
हारे हुए लोग फिर
संघर्ष की खुली चिट्ठी के साथ संलग्न होगे
मन में जीत की आस लिए
सीनों में सुलगती प्यास लिए।
कविताएँ काम आएँगी
कविताएँ पेट की आग नहीं बुझा सकतीं,
फसलें नहीं उगा सकतीं,
धूप नहीं बन सकतीं,
फूल नहीं खिला सकतीं।
कविताएँ काम आएँगी—
मुहब्बत का इज़हार करने के लिए,
तानाशाही से लड़ने के लिए।
दुःख में जीने के लिए,
दिल के ज़ख़्म सीने के लिए।
कविताएँ देश नहीं चलातीं,
जंगें नहीं जितवा सकतीं,
मज़हब का रौब नहीं झाड़तीं,
लोगों को नहीं मारतीं।
कविताएँ काम आएँगी—
इंसान बनने के लिए,
अकेलेपन को भरने के लिए,
सड़कों पर गाने के लिए,
आवाज़ उठाने के लिए।
सुबह-सुबह ढल जाता हूँ
मैं सन्नाटा सुनता हूँ...
रोशनी बुनता हूँ
हवाएँ चूमता हूँ
धूप पकड़ता हूँ
तारों के पीछे भागता हूँ
रातों को जागता हूँ
आग से नहाता हूँ,
पानी से सूखता हूँ
आसमान पर दौड़ता हूँ
ज़मीन पर उड़ता हूँ
कानों से देखता हूँ
आँखों से सुनता हूँ
साँसें खाता हूँ
आँसू पीता हूँ
रूह को पहन कर
जिस्म को ढकता हूँ
शाम को उगता हूँ
सुबह-सुबह ढल जाता हूँ...
मैं जनता का कवि हूँ
मैं जनता का कवि हूँ
मैंने रोटी के ग्लोब को नापा है,
मैंने राहों की धूल फाँकी है।
मैंने नौजवानों की मायूसी को पढ़ा है,
मैंने सपनों के लिए फंदे बुने हैं।
मैंने उम्मीद की अर्थी को ढोया है,
मैंने पीड़ाओं के निवाले चबाए हैं।
मैंने असफलता की कड़वाहट को चखा है,
मैं जनता का कवि हूँ — मैंने संघर्ष चुना है।
बताओ नज़्म कब लिखोगे
अपनी माँ की बीमारी पर,
बाप की लाचारी पर,
सरकारी नौकरी की तैयारी पर,
बढ़ती हुई दुश्वारी पर—
बताओ नज़्म कब लिखोगे?
अवाम के दुख पर,
सियासतों के रुख पर,
हुक्मरानों की पीठ पर—
बताओ नज़्म कब लिखोगे?
बेरोज़गार ग़रीबों पर,
सड़क पर सोए बदनसीबों पर,
अपने यार या रक़ीबों पर,
गले में लटक रही सलीबों पर—
बताओ नज़्म कब लिखोगे?
किसी मुल्क की बर्बादी पर,
बम से मरती आबादी पर,
जन्नत जैसी वादी पर,
किसी की ग़ुलामी या आज़ादी पर—
बताओ नज़्म कब लिखोगे?
चौराहों पर गूंजते नारों पर,
लाठियों से पड़ती मारों पर,
मनमानी करती सरकारों पर,
उनके वादों और करारों पर—
बताओ नज़्म कब लिखोगे?
बारूद और हथियारों पर,
दुनिया के सरदारों पर,
सरहद या कंटीले तारों पर,
ऊँची होती नफ़रत की दीवारों पर—
बताओ नज़्म कब लिखोगे?
दुनिया में चल रही जंगों पर,
चीथड़ों में लिपटे भूखे नंगों पर,
देश में हो रहे दंगों पर,
धर्म–मज़हब के रंगों पर—
बताओ नज़्म कब लिखोगे?
बढ़ती हुई महँगाई पर,
लूटी जाती कमाई पर,
अमीर–ग़रीब की बढ़ती खाई पर,
मेहनत की पाई–पाई पर—
बताओ नज़्म कब लिखोगे?
ख़ामोश की जाती आवाज़ पर,
इस ज़िंदा-मुर्दा समाज पर,
अपने कल और आज पर,
ये क्रूर तख़्त और ताज पर—
बताओ नज़्म कब लिखोगे?
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
सम्पर्क:
गाँव- चौहाला,
तहसील - आर.एस. पुरा,
जिला- जम्मू,
जम्मू-कश्मीर
मोबाइल : +91 9086342842
सुंदर सृजन
जवाब देंहटाएंअच्छी कविताएं हैं दीपक की । इन कविताओं में अपने समय की आवाज़ और ताप है ।
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