हेरम्ब चतुर्वेदी के उपन्यास की अभिषेक मुखर्जी द्वारा की गई समीक्षा

 




इतिहास केवल उन शासकों का ही नहीं होता जो गद्दीनशी होते हैं बल्कि उनका भी होता है जो शासक तो नहीं बन पाते लेकिन राज्य को संवारने में नेपथ्य से ही उल्लेखनीय भूमिका निभाते हैं।जहाँआरा मुग़ल इतिहास की ऐसी ही एक पात्र है जिसके बारे में कोई खास जानकारी नहीं मिल पाती। जहाँआरा मुगल बादशाह शाहजहां की सबसे बड़ी बेटी थी जो उसकी विश्वासपात्र थी। राजनीतिक विषयों में उनका खासा प्रभाव था। शाहजहाँ अक्सर उससे सलाह लेता रहता था। जब औरंगजेब के साथ शाहजहाँ का विवाद हुआ, तो केवल जहाँआरा ही थी जिसने सुनिश्चित किया कि शाहजहाँ को माफ़ कर दिया जाए। हेरम्ब चतुर्वेदी ने जहाँआरा पर एक उम्दा ऐतिहासिक उपन्यास 'जहाँआरा - एक ख्वाब, एक हक़ीक़त' लिखा है। इस उपन्यास की समीक्षा करते हुए अभिषेक मुखर्जी लिखते हैं "अध्यात्म की तरफ झुकाव रहते हुए भी, दारा की वीभत्स हत्या और अपने ही पिता को कैद करने पर भी क्यों जहाँआरा ने औरंगज़ेब के शासन काल में भी 'मल्लिका ए जहाँ' के पद पर आसीन होना स्वीकार किया; उन्होंने औरंगज़ेब को मना क्यों नहीं किया या फिर नूरजहाँ की भाँति सांसारिक बंधनों से मुक्त हो कर पृथक क्यों नहीं रहने लगे, जबकि नूरजहाँ का तो अध्यात्म और धर्म की ओर बिलकुल भी झुकाव न था। जिस भाई (दारा) को वह इतना चाहती थीं, जिस भाई का पक्ष भी उन्होंने लिया था, उसी के हत्यारे की बात क्यों मान ली? शायद वह इस साम्राज्य से सच में प्रेम करती थीं, इसका भला चाहती थीं; अपने पूर्वजों के वर्षों के परिश्रम को नष्ट नहीं होने देना चाहती थीं।" राज्य के लिए खुद को जहाँआरा ने नेपथ्य में रखना स्वीकार किया। ऐसा एक सुलझी हुई शाहजादी ही कर सकती थी। हेरम्ब चतुर्वेदी ने काफी परिश्रम से जहाँआरा पर यह ऐतिहासिक उपन्यास लिखा है, जो अभी तक प्रायः अचर्चित ही रही है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं हेरम्ब चतुर्वेदी के उपन्यास की अभिषेक मुखर्जी द्वारा की गई समीक्षा 'भारतीय इतिहास की सच्चाई है जहाँआरा'।

 

 

भारतीय इतिहास की सच्चाई है जहाँआरा 


अभिषेक मुखर्जी


'जहाँआरा - एक ख्वाब, एक हक़ीक़त' प्रोफेसर हेरंब चतुर्वेदी द्वारा लिखित अत्यंत पठनीय, उत्कृष्ट ऐतिहासिक उपन्यास है। यह उपन्यास न केवल, जहाँ आरा के संपूर्ण जीवन वृत्तांत को दर्शाता है अपितु मुग़ल काल का सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक परिवेश भी प्रस्तुत करता है।  


सबसे अच्छी बात यह है कि सभी पात्रों को इतिहास की दृष्टि से देखा समझा गया है। जैसा घटित हुआ था वैसा ही दर्शाया गया है। प्रायः कोई भी ऐतिहासिक रचना लिखते समय या पढ़ते समय भी हम किसी एक पात्र या पात्रों का पक्ष ले लेते हैं-; फिर उसके सभी कार्यों को उचित ठहराने का प्रयास करते हैं तथा उसके विपक्षी किरदार/ किरदारों को अनुचित। परन्तु इस उपन्यास में वही उल्लिखित है जो घटित हुआ था - अर्थात इसमें इतिहास लिखा गया है। यदि शाहजहाँ का अपने भाइयों के प्रति क्रूर व्यवहार, या उसकी भीषण कामुकता (जिसकी आग ने उसकी अपनी पुत्री से भी कम आयु की लड़की को न बख़्शा) का उल्लेख मिलता है तो उसका दारा शिकोह और जहाँआरा के प्रति असीम स्नेह और ममत्व को भी दर्शाया गया है, उसकी सफल रणनीतियों और स्थापत्य कला में उसकी अभिरुचि का भी उल्लेख किया गया है। यदि औरंगज़ेब की क्रूरता और धूर्तता का वर्णन है तो उसके युद्ध कौशल, व्यावहारिकता और शौर्य को भी दर्शाया गया है।  


इस उपन्यास को पढ़ कर कई भ्रांतियाँ दूर होती हैं - सर्वप्रथम यह कि प्रायः मुग़ल हरम का ऐसा चित्र प्रस्तुत किया जाता है जिससे देख-पढ़ कर लगता है मानो हरम पूर्णतः देह व्यवसाय और यौन संबंधों का ही क्रीड़ास्थल हो। इस पुस्तक को पढ़ कर जाना कि वहाँ की स्त्रियां न केवल उच्च शिक्षित होतीं थीं, अपितु इतिहास, साहित्य, वाणिज्य का ज्ञान भी रखती थी तथा घुड़सवारी, अस्त्र संचालन और आत्मरक्षा का प्रशिक्षण भी लेती थीं।  


जहाँआरा की पहली शिक्षिका "बेहद पढ़ी लिखी महिला थीं, जो कुरआन शरीफ ही नहीं, फारसी साहित्य की ज्ञाता भी थीं।  इसके अलावा, तमीज़, तहज़ीब, रखरखाव के अलावा चिकित्सा शास्त्र में भी पारंगत थी। वे मुमताज़ के हरम में मुख्य संरक्षिका के रूप में अपना दायित्व निभा कर उनके हरम की व्यवस्था चुस्त-दुरुस्त कर चुकी थीं।"


जब जहाँआरा 'मलिका ए जहाँ' बनी, तब न केवल वह हरम की सभी स्त्रियों की देख रेख सुचारू रूप से करतीं अपितु हरम का मासिक व्यय, दैनन्दिन की सभी आवश्यकताओं की सूची, सभी दासियों तथा ख़्वाजासरा से ले कर आम ख़्वाजा तक के वेतन का हिसाब भी रखतीं और खान-ए-सामाँ तथा अन्य अधिकारियों से निरन्तर इन विषयों पर सलाह-मश्वरा करतीं।


"कपड़ों से ले कर अनाज, मसालों, सब्जियां सबका हिसाब तो था ही; जाड़े-गर्मी के कपडे; कम्बल, रजाई, कालीन से ले कर अचार-मुरब्बे, शरबत, शराब ही नहीं हर छोटी से बड़ी चीज़ की आपूर्ति से ले कर खपत तक का हिसाब रखना होता था।"


सभी शहज़ादियों को अपनी-अपनी जागीरें, ज़मींदारी, फलों के बगीचे आदि के भी आय- व्यय, रख-रखाव का भी ध्यान रखना पड़ता था।


जैसा कि स्वयं जहाँआरा कहती हैं - "हम लोग अच्छे-भले इन्तज़ामकर्ता और हिसाब-किताब के चलते व्यावहारिक गणित में भी प्रवीण हो जाते थे।"


जहाँआरा बेगम के तो अपने कारखाने भी थे, और साथ ही साथ उनके पण्यद्रव्यवाही जहाज भी सुदूर समुद्रपार के देशों में अच्छा व्यापार करते थे। यदि हरम में होने वाली साज़िशें, प्रेम लीलाएं सत्य हैं तो वहाँ विदुषी, नेकदिल और बुद्धिमति महिलाओं का अवस्थान करना भी सच ही है।  


एक और भ्रान्ति दूर हुई - वह है मुग़लों का उत्स या उनकी वंशावली। यह सच में एक प्रश्न है कि तुर्किस्तान तथा ईरान से आये इन लोगों को हम सब मुग़ल क्यों कहते हैं? इस पुस्तक को पढ़ कर जाना की 'मुग़ल' शब्द 'मंगोल' का ही बिगड़ा हुआ रूप है। लेखक ने बहुत ही रोचक विवरण दिया है इस प्रसंग पर।  


जहाँआरा कहती हैं - "हम लोग तैमूर के खानदान के हैं, हिन्दुस्तान के लोग न जाने क्यों हमारे खानदान की हुकूमत को 'मुग़ल' कहते हैं?......मगर हम लोग 'बर्लास' उपजाति के तुर्क है ......हम लोग तुर्क हैं न कि मंगोल या उसका बिगड़ा हुआ -सा लफ्ज़ 'मुग़ल'।


सलीम-अनारकली तथा जहाँगीर-नूरजहाँ की अतिरंजित प्रेम कथाओं का वास्तविक सत्य सामने आया इस पुस्तक को पढ़ कर।  


ग्लोब पर खड़ा शाहजहां, पेंटिंग हाशिम, 1629


जहाँआरा का अपने पिता, शाहजहाँ के साथ जुन्नार के निकट पहाड़ियों पर बनी बौद्ध गुफाओं को देखने जाने वाला प्रसंग बहुत ही रोचक लगा। लेखक ने बहुत ही विस्तृत और सुन्दर वर्णन प्रस्तुत किया है और इन प्राचीन गुफाओं के साथ ही जुन्नार क्षेत्र के प्राकृतिक सौन्दर्य का भी मनमोहक वर्णन किया है। उन्होंने यहां पर यह इंगित भी किया है कि कैसे इस प्राचीन स्थापत्य के निदर्शन ने आगामी बादशाह को प्रेरित और उत्साहित किया होगा।


"हिन्दुस्तान का यह भावी बादशाह दाँतों तले ऊँगली दबाये बस इन गुफाओं और उनकी मूर्तियों, मंदिरों को देखता ही रह गया- शायद भविष्य में उसके स्थापत्य की योजनाओं को प्रेरणा, विचार और उछाल यहीं से मिला हो?"


उपन्यास में जहाँआरा के चरित्र का विशद वर्णन किया गया है - उनके चरित्र के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है। उनका झुकाव अध्यात्म और सूफीवाद की ओर अवश्य था परन्तु उन्होंने दुनियादारी, सांसारिकता, वास्तविक परिस्थितियों से कभी मुँह न मोड़ा, आजीवन अपने सभी कर्तव्यों, दायित्वों का पालन करती रहीं। सत्ता और सियासत के अत्युच्चासन पर विराजमान हो कर भी वह उस पंक में कभी डूबी नहीं, पद्मपुष्प की भाँति सदा खिली रहीं। "उसकी हुकूमत से जुड़ी इतनी ज़्यादा ज़िम्मेदारियाँ थीं कि न चाहते हुए भी उसे सियासी काम करने पड़ते थे जबकि वह सियासी चालों से दूर रहना पसंद करती थीं; मगर वह खुद सियासत में नहीं पड़ती थी; न कभी कोई सियासी चाल चलती थी, न ही उस पचड़े में पड़ती थी।"


जहाँ दारा शिकोह धर्म, अध्यात्म और सूफीवाद में डूब कर अत्यंत भावुक हो वास्तविक परिस्थितियों और दुनियादारी से विच्युत हो चुके थे, वहीं उनकी बड़ी बहन ने अध्यात्म और सांसारिकता के मध्य एक अद्भुत सेतु निर्माण का कार्य किया।  


शायद यही कारण होगा दारा की पराजय का। जहाँ औरंगज़ेब अत्यन्त चालाक, धूर्त, व्यावहारिक ज्ञान और प्रत्युत्पन्नमति से युक्त, युद्धकौशल में निपुण वहीँ दारा का केवल अध्यात्म और पुस्तकों के जगत में विचरण करना और अमीरों एवं चाटुकारों के बहलावे में आ जाना - उसकी हार का कारण बना।  


परन्तु यह भी सत्य है कि यदि दारा सिंहासनारूढ़ होता तो इस देश के लिए अत्यंत हितकारी होता। जैसा कि जहाँआरा बेगम स्वयं कहती हैं -"दारा ने हमेशा इल्म और मुल्क के लिए सोचा न कि कौम के लिए और अगर वह जो एकता कायम करना चाहता  था उस मकसद में कामयाब हो जाता तो इस मुल्क में अमन-चैन, भाईचारा हमेशा के लिए कायम होता और किसी भी तरह का कौमी झगड़ा और फसाद न होता ...।"


"इन किताबों, रिसालों को देखते हुए और उसकी (दारा) इतनी अच्छी और दूर की सोच जिससे इस मुल्क में सिर्फ इंसानियत बचे और मज़हब कि मसले हमेशा कि लिए ख़त्म हो जाएँ - उसी को ख़त्म कर गए क्योंकि फ़लसफ़े और दुनियावी बातों में - ज्ञान और जंग में बहुत फ़र्क़ होता है। "


परन्तु होता वही है जो होना होता है और जो घटित होता है, वही इतिहास बनता है। पुस्तक में दारा शिकोह की हार के कारणों का भी सटीक उल्लेख है। "बादशाह आगरा में मौजूद थे अगर वे फ़ौज के साथ मैदान में उतर जाते तो न तो शहज़ादों और न ही उनके मनसबदारों या फ़ौज की एकबारगी हिम्मत पड़ती आमने-सामने होने की। मगर दारा ने यह मौक़ा न दे कर बहुत बड़ी गलती ही की।"


ताजमहल में जहां आरा, पेंटिंग : ए आर चुगताई


शाहजहां के शासन में जहाँआरा का महत्त्व इस पंक्ति से भी स्पष्ट होता है - "यह बादशाह शाहजहाँ की आरामगाह है मगर इसकी सबसे मज़ेदार बात यह है कि उस में अगर सबसे बड़ा किसी का महल है तो वह इमारत हमारी (जहाँआरा) है। इसके बड़े-बड़े चार कमरे और उनसे लगे हुए छोटे छोटे दो-दो कमरे हर तरफ और हर तरफ आगे की और संगमरमर के जालीदार बरामदे .....।"


मन में एक प्रश्न अवश्य उठता है कि अध्यात्म की तरफ झुकाव रहते हुए भी, दारा की वीभत्स हत्या और अपने ही पिता को कैद करने पर भी क्यों जहाँआरा ने औरंगज़ेब के शासन काल में भी 'मल्लिका ए जहाँ' के पद पर आसीन होना स्वीकार किया; उन्होंने औरंगज़ेब को मना क्यों नहीं किया या फिर नूरजहाँ की भाँति सांसारिक बंधनों से मुक्त हो कर पृथक क्यों नहीं रहने लगे, जबकि नूरजहाँ का तो अध्यात्म और धर्म की ओर बिलकुल भी झुकाव न था। जिस भाई (दारा) को वह इतना चाहती थीं, जिस भाई का पक्ष भी उन्होंने लिया था, उसी के हत्यारे की बात क्यों मान ली? शायद वह इस साम्राज्य से सच में प्रेम करती थीं, इसका भला चाहती थीं; अपने पूर्वजों के वर्षों के परिश्रम को नष्ट नहीं होने देना चाहती थीं।  


यह भी सत्य है कि ऐसे उदार मनोभाव सम्पन्न और नेकदिल इंसानों की सियासत में बहुत अधिक आवश्यकता है; क्योंकि वे इन बेलगाम और उन्मादी शासकों को सही राह दिखा सकते हैं। जहाँआरा ने औरंगज़ेब के शासन काल में भी निर्लिप्त रूप से राजकाज सम्भाला।  और उन्होंने हरसंभव प्रयास किया कि पूरे परिवार में एकता बनी रहे, बीते वक़्त का क्रूर, खूनी इतिहास सब भुला सकें। उन्होंने दारा की पुत्री, जानी बेगम का विवाह औरंगज़ेब के तृतीय पुत्र मुहम्मद आज़म से करवा दिया। " वैसे ही 1671 में दारा के बेटे सिपहर शिकोह को न केवल 14 साल बाद कैद से रिहा करने के लिए आलमगीर को राज़ी किया बल्कि उसका निकाह औरंगज़ेब की ही एक बेटी जुबतुलन्निसा से करवा दिया ........फिर हमने मुराद के बेटे इज़्ज़त बक्श को रिहा करवा कर , उसका निकाह औरंगज़ेब की एक और बेटी, मेहरूलन्निसा से करवा दिया।"


जैसा कि पहले ही लिखा जा चुका है कि इस उपन्यास में किसी भी पात्र के चरित्र को अतिरंजित नहीं किया गया है। जो घटित हुआ था, वही वर्णित है। लेखक ने जहाँआरा के एक दुर्बल पक्ष को भी उजागर किया है - जहाँआरा ने कभी भी शाहजहाँ के फैसलों का विरोध नहीं किया, दिल से न चाहते हुए भी वह अपनी मौन स्वीकृति दे देती थीं। शायद इस तरह वह सियासी पचड़ों से बचना चाहती थी।  परन्तु स्वयं जिस नवयौवना, फ़िदा, को उसने अपने कश्मीर प्रवास में शरण दी थी, उसको भी वह शाहजहाँ की कामुक दृष्टि से बचा नहीं पायी। वह चाहती तो विरोध कर सकती थी परन्तु वह मौन रही "न चाहते हुए भी 'मल्लिका-ए जहाँ' होने की वजह से वह मयूर तख़्त के फैसलों के खिलाफ नहीं जाती या नहीं जा सकती थी। उसका जो आम जनता के साथ उमरा और उलमा के ऊपर मानवीय प्रभाव था, बादशाह उससे न केवल वाकिफ़ था बल्कि उसका फायदा भी उठाता था।"        


एक और बहुत महत्वपूर्ण बात स्पष्ट होती है इस उत्कृष्ट रचना को पढ़ कर - वह यह कि  भारत में इस्लाम का प्रसार और विस्तार औरंगज़ेब या उस जैसे दूसरे शासकों की खूनी तलवार से जितना भी हुआ हो उससे कहीं अधिक विस्तार और फैलाव हुआ उन उदार नेकदिल सूफी संतों के कारण, जिन्होंने सदैव ही मानवता और प्रेम का सन्देश दिया। आज भी अजमेर दरगाह हो या हाजी अली की दरगाह - मुसलमान और हिन्दू दोनों समुदाय के दर्शनार्थी देखने को मिलते हैं। लेखक ने इन सूफी संतो के इतिहास, उनका भारत आगमन और फिर यहीं बस जाना और सूफीवाद का प्रसार-प्रचार करना - इन सब पर एक बहुत ही रोचक और ज्ञानवर्धक अध्याय लिखा है। फरीरुद्दीन गंजशकर,, शेख निज़ामुद्दीन और अमीर खुसरौ से ले कर सूफी संत मियाँ  मीर और मुल्ला शाह बदख्शी तक का वृत्तांत पढ़ने में बहुत ही रुचिकर लगा। हमारी गंगा-जमुनी संस्कृति में इन संतों का भी बहुत योगदान है।  

  

यदि रोशन आरा बेगम, औरंगज़ेब, नूरजहाँ सत्य है तो दारा-शिकोह, जहाँआरा, तमाम सूफी सन्त भी तो मध्यकालीन भारतीय इतिहास की सच्चाई है।  


एक और प्रसंग बहुत अच्छा लगा - वह है जहाँग़ीर के मक़बरे पर जहाँआरा और नूरजहाँ की मुलाक़ात। एक क्षमता के सर्वोच्चासन से विच्युत हो सांसारिकता से दूर योगिनी सा जीवन व्यतीत कर रही है तो दूसरी क्षमतासीन हो कर भी अध्यात्म से जुडी हुई है। नूरजहाँ के जीवन के इस पक्ष को पढ़ कर बहुत अच्छा लगा।



हेरंब चतुर्वेदी 


अब आते हैं इस उपन्यास की प्रासंगिकता पर। जहाँआरा की मृत्यु (1681) हुए तीन सौ वर्ष से भी अधिक समय बीत चुका है; फिर क्या अभी भी इनकी जीवन गाथा प्रासंगिक है? - उत्तर है - हाँ, बल्कि वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए तो यह और भी अधिक प्रासंगिक है। आज जब साम्प्रदायिक वैमनस्य बढ़ता जा रहा है, तब जहाँआरा और दारा शिकोह जैसे चरित्रों को पढ़ना समझना बहुत ही आवश्यक हो उठा है। इस उपन्यास को पढ़ कर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि समय काल कोई भी हो, कोई भी कालखण्ड हो, कुछ नीच मनुष्य लोभ और स्वार्थ हेतु कभी भी धार्मिक या कौमी एकता के पक्ष में नहीं खड़े होते हैं, वे सर्वदा ही इस पथ के रुकावट बन खड़े रहते है। उस काल में भी हर प्रसंग को धर्म से जोड़ने की चाल चली जाती थी आज भी वही कायम है।


"हिन्दुस्तान में हमेशा से सियासी फायदे के लिए ही मज़हब को इस्तेमाल किया गया था और मुग़ल काल में तो खासतौर से ....।"

 

दारा शिकोह ने धर्म की व्यापकता पर बल दिया था, मानवीय पक्ष पर बल दिया था, धर्म को पुस्तकीय कट्टरता और संकीर्णता से मुक्त करना चाहा परन्तु औरंगज़ेब ठीक इसके विपरीत था। उसने धर्म को केवल पुस्तकों तक ही सीमित रखा, उसके मानवीय पक्षों को न देख सका और कितने आश्चर्य की बात है कि इसी दारा की निर्मम हत्या को भी धार्मिक गुट के सिरमौर, उलेमाओं ने पुस्तकीय आधार पर ही उचित ठहराया। इन्हीं उलेमाओं के चलते 'जज़िया' को फिर से लागू कराया गया। जहाँआरा बेगम का एक बहुत महत्पूर्ण वक्तव्य है इस प्रसंग पर - "वे उसे (औरंगज़ेब को) ज़िंदा पीर कहते हैं और वह मज़हब की तरफ झुकता जा रहा है, जो मुल्क की हुकूमत के लिए नाकाफी भी है और खतरनाक भी।"


क्या यह पंक्ति आज भी उतनी ही प्रासंगिक नहीं है? हर प्रसंग को, हर घटना को, एक मज़हबी रूप देना तो अब भी चल रहा है। उस समय जैसे कुछ स्वार्थी और पाखण्डी अमीर और उलेमा शहज़ादों को बरगलाते, भड़काते वैसे ही वर्तमान में अधिकारीतंत्र या नौकरशाही ऐसे लोगों से मुक्त नहीं है।  


एक और बहुत महत्त्वपूर्ण पंक्ति है "अब जब औरंगज़ेब बादशाह बन बैठा है तब भी बादशाह कैद में हैं, मगर ज़िंदा है ...क्या वे लोग जो इस मुल्क में कौमी एकता के प्रयास को रोकने के लिए कोशिश कर रहे थे, वे अब बादशाह और उसकी हुकूमत के खिलाफ इन शहज़ादों के साथ लामबंद हो गए थे?"


ये सब आज भी बहुत प्रासंगिक जान पड़ता है। जिस गति से हर प्रसंग को एक धार्मिक परिधान पहनाया जा रहा है, वह समय दूर नहीं जब औरंगज़ेब का एक नवीन संस्करण हमारे सामने आ खड़ा हो।  


यह उपन्यास न केवल जहाँआरा की जीवन गाथा का बखान करता है, पाठक वर्ग को उनकी सादगी से अवगत कराता है बल्कि यह मध्यकालीन भारत की वास्तविक स्थिति से भी पाठकों को परिचित कराता है। आज, जब नेता एवं अभिनेता दोनों ही इतिहास में पढ़ाये जाने वाले विषयों पर अपना मंतव्य जाहिर करते हैं और एक से बढ़ कर एक टिप्पणियां करते रहते हैं तब समझदार जनता को चाहिए कि इन दोनों को अनसुना कर इतिहासविदों और साहित्यकारों की कृतियों को पढ़े और समझे - जैसे कि प्रो. हेरम्ब चतुर्वेदी की यह रचना 'जहाँआरा - एक ख्वाब, एक हक़ीक़त।"




समीक्षित उपन्यास 

जहाँआरा - एक ख्वाब, एक हक़ीक़त  

हेरम्ब चतुर्वेदी

वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली 



अभिषेक मुखर्जी 



सम्पर्क 


अभिषेक मुखर्जी


मोबाइल : 8902226567

टिप्पणियाँ

  1. बहुत बहुत धन्यवाद सर जी 🙏

    जवाब देंहटाएं
  2. विदूषी महिला जहांआरा के बारे में, अनकही जानकारियां मिली।
    धर्म का आज भी राजनीतिकरण जारी है।
    इतिहास के कुछ पात्र सदैव प्रासंगिक रहते हैं।
    लेखक और समीक्षक दोनों को बधाई 🙏🎉

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण