यादवेन्द्र का आलेख 'धूप हड़पने का नृशंस खेल'

नवीन कुमार नैथानी



दुर्भाग्यवश आज प्रकृति प्रदत्त चीजों पर कुछ उन मुट्ठी भर लोगों का नियन्त्रण बना हुआ है जो दुनिया का नियंता होने का झूठा भ्रम पाले हुए हैं। होना तो यह चाहिए कि प्रकृति प्रदत्त चीजों पर सभी व्यक्तियों का समान रूप से अधिकार हो। लेकिन मुट्ठी भर लोग अपनी तरह से नीतियां निर्धारित कर इस पर हमेशा के लिए काबिज से हो गए हैं। लेकिन ऐसे लोग भूल जाते हैं कि दुनिया में किसी को भी अमरत्व प्राप्त नहीं है। जल, जंगल, जमीन, धूप, हवा, आसमान सबके लिए होना चाहिए। साहित्यकार हमेशा जनता के पक्ष में खड़ा होता है। नवीन कुमार नैथानी अपनी कहानी 'धूप' के माध्यम से उस षडयंत्र का पर्दाफाश करते हैं जो लूट खसोट करने वाले बेशर्मी के साथ रोजाना कर रहे हैं। आजकल पहली बार पर हम प्रत्येक महीने के पहले रविवार को यादवेन्द्र का कॉलम  'जिन्दगी एक कहानी है' प्रस्तुत कर रहे हैं जिसके अन्तर्गत वे किसी महत्त्वपूर्ण रचना को आधार बना कर अपनी बेलाग बातें करते हैं। कॉलम के अंतर्गत यह चौथी प्रस्तुति है। इस बार अपने कॉलम के अन्तर्गत यादवेन्द्र ने नवीन कुमार नैथानी की कहानी 'धूप'को विश्लेषित किया है। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं यादवेन्द्र का आलेख 'धूप हड़पने का नृशंस खेल'।



'धूप हड़पने का नृशंस खेल'


यादवेन्द्र


धूप की किस्में   

राधा वल्लभ त्रिपाठी 

सबसे अच्छी धूप :
हाड़ कँपाता जाड़ा झेलते

ग़रीब का तन
गरमाने के लिए

घने कोहरे को भेद कर
बाहर आने को आकुल धूप...


दो तीन साल पहले की बात है, मेरे सदाबहार दोस्त नवीन कुमार नैथानी ने अपनी नई कहानी 'धूप' का ऑडियो क्लिप मुझे भेजा। दरअसल महीने डेढ़ महीने में जब भी हमारी बात होती है, मैं नवीन से उनकी नई कहानी की बात जरूर पूछता हूं।  कहानियों को कागज़ पर लिखने को ले कर नवीन का बेहद टालू और आलसी स्वभाव मैं दशकों से जानता हूं.... यह भी जानता हूं कि नवीन के अंदर 8- 10 कहानियां हमेशा उमड़ती घुमड़ती करवटें लेती रहती हैं और बैठ कर बतकही करने का सबब बने तो उस दौरान कई कहानियां टुकड़ों-टुकड़ों में निकल कर बाहर हवा में तैरते हुए लिखे जाने की गुहार लगाने लगती हैं। उन अधूरी कहानियां को नवीन के मुंह से सुनना एक अनूठा अनुभव है। मुझे यह अवसर कई बार मिला है। 


'धूप' कहानी एक ऐसे बूढ़े के इर्द गिर्द घूमती है जिसकी किसी पहाड़ी बाज़ार में एक बेहद मामूली  चाय की दुकान है पर वह रहता ढलान के नीचे के गांव में है। गांव धूप से वंचित है पर उसकी दुकान धूप से संपन्न। बाजार में लोग धूप की वजह से आते, खाली गांव में क्या बैठना जहां धूप बहुत कम मिलती होती है।


"वह बूढ़ा धूप के साथ रहता था। धूप खिसकती तो वह भी उधर सरक जाता। उसे देख कर लोग अंदाज लगा लेते कि धूप का मिजाज़ कैसा होने जा रहा है।"



अपनी विशिष्ट शैली में नवीन किरदार का थोड़ा और परिचय देते हैं :


"बूढ़ा बाजार में था भी और नहीं भी। एक तरह से वह बाजार का हिस्सा नहीं था लेकिन वह हमेशा बाजार चलाने वाले लोगों की नजर में बना रहा।"


वैसे कहानी धूप को केन्द्र में रखती है पर विकास की बलि चढ़ते जा रहे जंगल के छीजते जाने को बेहद संवेदनशीलता के साथ रेखांकित करती है:


"बूढ़े के सपनों में जंगल बना रहा और कई बार तो उसमें नए पेड़ भी उग आए। वह उन्हें बढ़ते हुए देखता।"


किसी ठंडे पहाड़ी गांव में धूप की कैसी प्राणदायी भूमिका होती है इसका एक चित्र देखिए :


"बाजार में लोग धूप की वजह से आते, खाली गांव में क्या बैठना। वहां धूप बहुत कम होती है... लोगों का सरकता हुआ समूह हमेशा सड़क के इस ओर से उस ओर तक धूप के साथ यात्रा करता था। धरती के घूमने की तेज रफ्तार को उन्होंने धूप के टुकड़े की धीमी रफ्तार में थाम लिया है।"


पर उस बूढ़े की शख्सियत ऐसी रहस्यमयी है कि लोग उसकी ओर हमेशा धूप के लिए देखते भी हैं और उसका जिक्र करने से बचते भी हैं।


कई बार वहां जा कर भी वाचक को बूढ़ा आमने सामने से जब मिलता नहीं तो वह ठिकाना पता कर उस दिलचस्प किरदार से मिलने उसके गांव चला जाता है।


"वह पत्थर के ऊपर बैठा हुआ था, आसमान की तरह देख रहा था। उसकी नजरें आसमान से हट कर मेरी तरफ आ टिकीं।






कौन हो?, उसकी आवाज बुलंद थी। लगता था जैसे वह आसमान को डपट रहा हो।

आपसे मिलने आया हूं। 

ठहरो, उसने कहा और घर के भीतर चला गया। मुझे सुकून मिला। थोड़ी ही देर में वह बाहर निकल आया, उसके हाथ में बंदूक थी।

किस लिए आए हो?, उसने बंदूक को जमीन पर टिकाते हुए पूछा। उसकी आवाज और अधिक सख्त हो गई थी। मेरे कुछ समझ में नहीं आया।

बस आपसे मिलने के लिए ...आपसे बातें करने के लिए।


धूप के लिए?, उसने और सख्त लहजे में पूछा।

हां, मैंने कह दिया। फिर जो हुआ उसकी मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था।

बाजार वालों ने भेजा है?, उसने कहा और मेरी ओर बंदूक तान दी।

मना कर दिया था उनको, यह जगह नहीं छोडूंगा। अभी भाग जाओ। किसने कहा था सड़क के पास बसो? धूप चुराने आए हो? भाग जाओ।

(यह कहते हुए) वह ऐसी चढ़ाई पर चढ़ने लगा जिस पर चढ़ना संभव नहीं था।


...........


फिर अचानक बंदूक का धमाका।"


कुदरत ने मनुष्य को जो जीवनदायी संपदा दैनिक आधार पर उपयोग के लिए सौंपी है लेकिन उस पर भी धन दौलत, राजनैतिक धौंस और ताकत के बल पर कब्ज़ा जमाने और दुर्बल से छीनने का षडयंत्र लगातार किया जा रहा है। जंगलों पर सत्ता और सारे पूंजीपतियों की नज़र लगी हुई है और उस जंगल को बनाए बचाए रखने वाले आदिवासियों को येन केन प्रकारेण वहां से बेदखल करने को सारे शक्ति केन्द्र एकजुट हो कर हल्ला बोल देते हैं।


भारत क्या पूरी दुनिया में प्राकृतिक संसाधनों की लूट और अपनी संपदा को बचाने की कोशिश करने वाले मूल निवासियों को डरा धमका कर और शांति व्यवस्था व राष्ट्रीय सुरक्षा का नाम लेकर दमन चक्र चलाया जा रहा है। जमीन जंगल जल तो दशकों से लूटे जा रहे हैं पर नवीन कुमार नैथानी इस महालूट के जिस भयावह और नृशंस विस्तार की बात कर रहे हैं वह कोरी कल्पना नहीं है - पूरे उत्तराखंड और उत्तर पूर्वी राज्यों में विकास के इसी मॉडल पर काम किया जा रहा है। ऐसी चढ़ाई पर बूढ़े के बंदूक ले कर चढ़ने का रूपक जिस पर चढ़ना संभव नहीं था, बहुत महत्वपूर्ण और गौर तलब है।


कहते हैं न - जहां न जाए रवि वहां जाए कवि (मैं इस में कथाकार को भी शामिल करता हूं)।


महाविनाश की ओर ले जाती इस खलकामी प्रवृत्ति को अंग्रेज़ी के प्रतिष्ठित लेखक अमिताभ घोष ने बार बार अपनी कृतियों में रेखांकित किया है। टाइम्स ऑफ इंडिया (19.01.25) ने उन्हें इस तरह उद्धृत किया है:


फ़र्ज़ करिए आप अपने बच्चों को ले कर रणथंभोर जाते हैं। आपने बच्चों को पहले से यह बता रखा है कि आदिम अवस्था में जैसा जंगल होता था यह बिल्कुल उसी तरह का जंगल है। लेकिन वास्तविकता यह है कि रणथंभोर और उसकी तरह के अन्य अभयारण्य आदिम अवस्था के प्राकृतिक जंगल नहीं मानव संचालित जंगल हैं। इन जंगलों में रहने और उन्हें पाल-पोस कर बड़ा बनाने में जिनका सबसे ज्यादा योगदान रहा है और जो लाखों वर्षों से बाघों के साथ जीवन साझा करते रहे हैं वे आदिवासी वहाँ से खदेड़ कर बाहर निकाल दिए गए हैं - सच्चाई यह है कि इन जंगलों को अब पूरी तरह से पर्यटन उद्योग को सौंप दिया गया है।



पर ऐसा नहीं है कि सिर्फ नवीन का ध्यान इस षड्यंत्रपूर्ण  लूट खसोट की ओर गया है,  पटना के हमारे कवि मित्र राजेश कमल ने अपनी एक बेहद धारदार कविता में रोशनी की बंदर बांट का जिक्र किया है:


मंडियों में सज जाएगी रोशनी
अम्बानी आएँगे, अडानी आएँगे

हिंदुस्तानी आएँगे, जापानी आएँगे
सब बेचेंगे रोशनी

अब यही सोच रहा हूँ
वह जो रोटी-दाल में उलझा है

वह जो रोज़ी के सवाल में उलझा है
वो जह दफ़्तर-अस्पताल में उलझा है

कहाँ से लगाएगा जुगाड़
कि दो जून रोशनी ख़रीद ले।



यादवेन्द्र 




सम्पर्क 

मोबाइल :  09411100294


टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं