जय प्रकाश का आलेख 'माया और मोक्ष के बीच का संतुलन : कुम्भ मेला'


जय प्रकाश 


महाकुम्भ के आयोजन में लोगों की बड़ी तादाद शामिल होती है। इस मेले में धर्म और अध्यात्म की बातें होती हैं। लेकिन मुख्य बात यह है कि इस तरह के आयोजनों से क्या कोई ऐसा सन्देश मिलता है जो राष्ट्रीय या वैश्विक समुदाय को कोई नई दिशा दे सके। क्या हम उस गन्दगी के प्रति थोड़ा भी जागरूक हो पाते हैं जिसके चलते आज हमारी पवित्र नदियों नाले की शक्ल में तब्दील हो चुकी हैं। महिलाओं के साथ जो राष्ट्रव्यापी हिंसा रोज ही होती रहती है क्या उसके प्रति हम लोगों को थोड़ा भी जागरूक कर पाते हैं। अगर जवाब खोजा जाए तो हमें निराशा ही होती है। इस बार महाकुम्भ विशेष के अन्तर्गत हम प्रस्तुत कर रहे हैं युवा कवि जय प्रकाश का आलेख। आज जय प्रकाश का जन्मदिन भी है। उन्हें जन्मदिन की बधाई एवम शुभकामनाएं। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं जय प्रकाश का आलेख 'माया और मोक्ष के बीच का संतुलन : कुम्भ मेला'।



महाकुम्भ विशेष : 8


'माया और मोक्ष के बीच का संतुलन : कुम्भ मेला'

                                                                

जय प्रकाश


प्रयागराज में कुम्भ का आयोजन चल रहा है। भारतीय जन जीवन, धर्म-आस्था, रीति-रिवाज, लोकाचार एक बडे़ कैनवास पर दिखाई पड़ रहा है। मेले के बाहर बुद्धिजीवी दो धड़ों में बंटे हैं, एक आस्था का महाकुम्भ बता कर लहालोट है, वहीं दूसरा वर्ग इसे पाखंड बता रहा है। मगर सच हमेशा वैचारिक अतिरेकों के बीच रहता है।  

                                 

मनुष्य जाति का मस्तिष्क तर्क, बुद्धि, व चेतना को प्राथमिकता देता है, जबकि उसका हृदय  प्रेम, आस्था, समर्पण, भावना को । हम एक को स्वीकार और दूसरे को नकार नहीं सकते। नकार सिर्फ द्वंद की निर्मिति भर कर पाएगा। हमें एक संतुलन साधना होगा, तभी हम  परम्पराओं को  सम्पूर्णता में  देख सकते हैं।

                                    

गाँव के सतदेव मिस्त्री अस्सी पार के हैं। इस उम्र में भी तीर्थ-राज कुम्भ में स्नान करने का मोह संवरण नहीं कर पाते। पिछले कुम्भ में दोस्त-यार के साथ गए थे। इस बार घर वाली (मलकिनी) के साथ जाना है। भारतीय पौराणिक संस्कार में जब तक पत्नी के साथ सत्संग या तीर्थाटन  न हो। धर्म फलीभूत नहीं होता।


वे बड़ी श्रद्धा व भक्ति से बोलते हैं, तीर्थराज प्रयाग नहा लिए, मने सब तीर्थ नहा लिए। वे श्रद्धातिरेक में आंख मूंद लेते हैं। बतौर इतिहास का विद्यार्थी मैं सोचता हूँ। यह आस्था कहाँ से आती है? मन उत्तर देता है, लोक से या शास्त्र से? या शायद आस्था मनुष्य की आदिम इच्छा है या मन की कालातीत कंडिशनिंग। यायावरी सबसे आदिम फितरत।


मेरी यादों में इस सदी  के पहले कुम्भ की यादें रह-रह कर उभरती है। हम लोग उस समय बी. ए. में पढते थे। हम कुम्भ में स्नान कर चुके थे। अब वाराणसी लौटना था। साथ-साथ रहने के दावा करने वाले दोस्त अंतहीन भीड़ में तितर-बितर हो गए थे। हम दो कदम आगे बढते तब तक कोई बिछड़ जाता। चालीस-पचास लोगों में अंत में हम लोग दो बचे थे। ट्रेन में इतनी भीड़ थी कि हिम्मत टूट जाता था। अंत में तय हुआ कि ट्रेन की सबसे पिछली बोगी के पीछे थोड़ा सा बैठने का स्थान रहता है। हम लोग वहाँ पहुँचे। यद्यपि सुरक्षा के दृष्टिकोण से यह सही नहीं था। पर कोई चारा नहीं था। दूसरा उम्र रोमांच का आनंद लेने वाला था।


वहाँ दो बुजुर्ग दंपत्ति जो बहुत स्थूल थे, हमारी सीट पर बैठने के लिए आपस में जद्दोजहद कर रहे थे। अधेड़ पति महोदय ने हम लोगों से बहुत बहुत अनुनय-विनय किया कि हम लोग उनकी पत्नी को ऊपर चढ़ा दे। डर भी लग रहा था कि गिर  गए तो क्या होगा?


विष्णु पुराण में वर्णित है 


अश्वमेधसहस्त्राणि वाजपेयशतानि च। 

लक्षं प्रदक्षिणा भूमेः कुम्भस्नाननेन तत्फलम्॥


हजार अश्वमेध-यज्ञ करने से, सौ वाजपेय यज्ञ करने से और लाख बार पृथ्वी की प्रदक्षिणा करने से जो फल प्राप्त होता है, वह फल केवल प्रयाग के कुम्भ के स्नान से प्राप्त होता है।


जब एक स्नान से इतना फल मिलने वाला है तो यहाँ लोग कोई रिस्क क्यों लेंगे।


इनके जैसे लोग भारत के हर गाँव-नगर में है जो कम से कम एक बार तीर्थ-राज प्रयाग में डुबकी लगा कर पुण्य संवरण करना चाहते हैं। पुण्य कमाने और पाप धोने के अलावा वे जीवन की एकरसता को भी तोड़ना चाहते हैं। यहाँ एक पंथ दो काज वाली बात चरितार्थ होती है। यात्रा एकरसता व जड़ता तोड़ने का सबसे बढ़िया रास्ता है।


कुम्भ दुनिया का सबसे बडा़ और प्राचीन मेला है। यह गंगा-यमुना  के संगम  पर  स्थित है। तीसरी  पौराणिक नदी सरस्वती है जिसका सिर्फ आभासी अस्तित्व है। यह मेला भारतीयता के मुख्य स्वर विविधता का प्रतीक हैं। यहाँ देश के कोने-कोने विभिन्न पंथों के श्रद्धालु, साधु-संन्यासी पहुँचते हैं। यहाँ भारतीय संस्कृति का हर रंग दिखता है। कुम्भ मेला के साथ खास बात  है कि यह प्राचीनता और नवीनता को एक साथ साधे हुए हैं।





जहाँ तक कुम्भ के  पौराणिकता का प्रश्न है, तो इसके आरम्भ की कहानी बहुत बार कही जा चुकी है। देव-दानव युद्ध, समुद्र-मंथन, अमृत-प्राप्ति, फिर अमृत के लिए देव-दानव का संघर्ष,  अमृत के बूंद का कुछ खास जगहों पर  छलकना आदि  भरपूर नाटकीयता से ओत-प्रोत है। यह किसी महान पौराणिक फिल्म की तरह प्रतीत होता है।


उपरोक्त कथा में कितना मिथक और कितना यथार्थ है, यह तो नहीं पता। पर एक बात तय है कि हमारे पूर्वज श्रेष्ठ कवि तो थे ही, जिन्होंने कभी सिन्धु नदी के तट पर बैठ कर दुनिया का सर्वश्रेष्ठ काव्य ऋग्वेद लिखा था, साथ ही  वे श्रेष्ठ किस्सागो भी थे। उनकी उर्वर कल्पनाशीलता ने उनकी किस्सागोई शैली को एक अद्भुत स्वरूप प्रदान किया था। और धर्म के द्वारा वैधता मिलने से यह कथाएँ इतनी प्रभावशाली हो गई कि यह लोकचेतना को निर्देशित और नियन्त्रित करने लगी। तब से इन कथाओं ने परम्परा, त्योहार, उत्सव के लिए अच्छी- खासी जमीन तैयार कर दी थी। हर उत्सव का कारण एक कहानी थी।


हम बचपन में हर त्योहार, हर आयोजन के पीछे की ऐसे ही पौराणिक कहानियाँ सुन कर बडे़ हुए थे। खेत, घर की तरह इस तरह की कहानियाँ अगली पीढ़ी में हस्तांतरित होती रहती थी। यह वाचिक साहित्य का हिस्सा था।


दरअसल, नदी के किनारे धार्मिक आयोजन की भी वजह भी है। नदियों से मनुष्य जाति का नाभि-नाल संबध रहा है। नदियाँ आदिकाल से मानव जाति की प्रवृत्ति और निवृत्ति का केन्द्र-बिन्दु रही है। पवित्र नदियों में स्नान कर देव-दर्शन एक पुराना लोकाचार रहा है। महान पुरातत्विद मार्टिमर व्हीलर उल्लेख करते हैं कि जहाँ एक ओर सिन्धु नदी ने हमारे देश को एक  भौगौलिक आधार दिया हैं, वहीं गंगा ने आस्था। सर जॉन मार्शल के अनुसार मोहनजोदड़ो का विशाल स्नानागार भी एक तरह से तीर्थ केन्द्र की तरह था। इतिहासकार बी. एस. राय 10,000 ई. पू. में अनुष्ठानिक नदी-स्नान का जिक्र करते हैं।


जहाँ तक यात्रा की बात है तो मनुष्य का डीएनए ही यात्राओं से बना है। कृषि क्रांति व स्थाई ग्रामीण जीवन से  पहले का तमाम इतिहास यायावरी, विस्थापन तथा  आप्रवासन का रहा है।


परम्पराएँ एक क्षेत्र विशेष में पैदा होती है तथा सामाजिक, आर्थिक व धार्मिक वजहों से देशव्यापी हो जाती है। बचपन में हमलोग नानी-दादी से सुनते थे कि पहले यह हमारे देश का चलन नहीं था। तमाम धार्मिक-सांस्कृतिक मेले,  उत्सव, आयोजन के पीछे यही तर्क काम करता है। परम्पराएँ सभ्यता, संस्कृति के बीज की तरह होती है, और उत्पाद की तरह भी।


कुम्भ मेला की शुरुआत कब हुई। इसका कोई प्रमाणिक साक्ष्य नहीं है। ऋग्वेद में कुम्भ शब्द का जिक्र मिलता है। पर तब इसका संदर्भ मेला या किसी धार्मिक आयोजन से नहीं था। यह शुद्ध रूप से कृषक जीवन से संबंधित था। महान चीनी यात्री ह्वेनसांग भी अपने वर्णन में कुम्भ मेला का जिक्र करते है। हर्षवर्धन बौद्ध धर्म मानने के बावजूद भी माघ मेला में 'महामोक्ष परिषद' का आयोजन कराते थे। इसमें वे अपनी सारी संपत्ति का दान कर देते थे।


एक बार तो अपनी बहन से कपड़ा ले कर उसे पहनना पडा़ था। आज जब अतिशय भोग व अतिशय संग्रह की प्रवृत्ति चरम पर है तो हमें इतिहास से सीखना चाहिए। आदि गुरु शंकराचार्य भी कुम्भ मेला का उल्लेख करते हैं। महाकवि तुलसी दास जी भी कुम्भ मेला का उल्लेख करते हैं।


को कहि सकइ प्रयाग प्रभाऊ। कलुष पुंज कुंजर मृगराऊ।।

अस तीरथपति देखि सुहावा। सुख सागर रघुबर सुखु पावा।।


मध्यकालीन स्रोत 'तबकात ए अकबरी' में प्रयाग संगम के स्नान का उल्लेख है। तत्कालीन महत्वपूर्ण किताब 'आइन ए अकबरी' में भी कुम्भ मेला का जिक्र है


बचपन में कहीं एक  लोक-गीत सुना था


त्रिवेणिया में राम जी नहाय,

सुरुज  उदय के बेरिया....


हमार संस्कृति के बड़े नायक राम त्रिवेणी यानि संगम में स्नान कर रहे हैं। शीतल समीर बह रहा है। सूर्य की किरणें चारों ओर फैल गई है।


आचार्य व्यास ने पुराण में लिखा है 


'धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायाम्। 

महाजनो येन गतः स पन्थाः।।


इस तर्ज पर आम आदमी कब पीछे रहने वाला था। तीर्थराज प्रयाग में डुबकी लगाना प्रायः हरेक आम आदमी का चिरसंचित स्वप्न रहा है। हर पीढ़ी अपने आने वाली पीढी़ को विरासत की यह लकड़ी पकडा देती है।


मेरी कल्पना में सैकड़ों, हजारों साल पहले के आम आदमी के  कुम्भ यात्रा का विहंगम दृश्य उभरता है। जब आवागमन का साधन नहीं था। चारों ओर जंगल था। जंगली पशु विचरण करते रहे होंगे। इन्हीं में हजारों यात्री, नर-नारी, आबाल-वृद्ध यात्रा कर रहे हैं। यह दृश्य  सिहरन, रोमांच और भय एक साथ पैदा करता है।


पर चुनौतियां यात्रियों का उत्साह कम नहीं कर पाती। लोग वर्षों बाद होने वाले कुम्भ  में स्नान कर पुण्य कमाने का  लोभ संवरण नहीं कर पाते थे। आज भी पुण्य कमाने का भाव जनमानस के अवचेतन में रचा-बसा है। उपनिषद का 'चरैवेति-चरैवेति' का दर्शन, शास्त्र से लोक में समाहित हो गया था। मध्यकालीन साहित्य में भी  वर्णित है कि जंगल और पहाड़ भी श्रद्धालुओं को रोक नहीं पाते।





भारत का सदियों पुराना ग्रामीण समाज उत्सवधर्मी रहा है। उत्सव हमारे भावों का रेचन करते है। यह जड़ता को तोड़ने का काम करते हैं।  उत्सव-केन्द्रित समाज कम हिंसक होता है। आज जब सीरिया, लेबनान, गाजा जैसे तमाम क्षेत्र आत्मविध्वंसक युद्ध में लगे हैं, तब हमारा देश वैश्विक स्तर पर एक भव्य धार्मिक-सांस्कृतिक आयोजन कर रहा है। ऐसे समय दुनिया को इस आयोजन और इस प्राचीन परम्परा से कुछ सीखने की जरूरत है।


इतिहास  हर बार सिर्फ बीत ही नहीं जाता, कुछ बच भी जाता है। यह हमें सिखा सकता है कि हम कैसे एक समरस और सहिष्णु समाज बनाएं, जो रूढिमुक्त और प्रगतिशील हो। जो नवीनता को अपनाने के साथ  प्राचीनता को भी साध सके। एक ऐसा पुल तैयार सके, जिसमें आधुनिक नवाचार और प्राचीन बुद्धिमत्ता का  समावेश हो। हमारा देश ऐसे ही यात्राओं, रीति रिवाजों, पूजा-पद्धतियों, लोकाचारों से बना है। विविधता इसकी जीवन रेखा है। सहमत-असहमति, समन्वय मुख्य स्वर।


यह  तय है कि यात्राएँ हमें समृद्ध करती हैं। धार्मिक यात्राएँ भारत के सांस्कृतिक एकता के लिए खाद-पानी की तरह था। प्राचीन काल में आम जन के लिए देश-दुनिया को समझने का एक माध्यम भी रहा होगा। जैसे, हमारे गाँव में बुजुर्ग लोग जो कभी जवानी में किसी शहर में गए थे। उन्होंने अपनी स्मृतियों को संजो कर रखा था। तब स्मृतियों ने लोक-संस्कार को एक आधार दिया होगा। वे अपनी यात्राओं का अद्भुत वर्णन करते थे। यह बहुत नाटकीय और जीवंत वर्णन होता था। उनको सुनना, उनकी पीढी़ से सम्वाद करना था।


अब कुम्भ यात्रा कितना आध्यात्मिक बचा है, यह तो नहीं पता। पर कभी-कभी वाह्य यात्राएँ भी आन्तरिक यात्रा की जमीन तैयार करती है। प्राचीन काल में बरकरी संप्रदाय के लोग पंढरपुर जाते थे। महावीर और गौतम बुद्ध जीवन भर यात्रा में रहे। सेमेटिक पंथों में भी धार्मिक यात्रा की परम्परा रही है। भले उसका नाम कुछ और रहा हो। इन यात्राओं के मूल में जो कुछ अच्छी बातें हैं उन्हें फैलना चाहिए। तब विद्वान लोग भी दिक्-काल में घूम कर ज्ञान का प्रचार करते थे।


रहस्यवादियों ने मनुष्य के शरीर को कुम्भ सदृश  माना है।  उनके अनुसार अमृत कहीं बाहर नहीं है। यह हमारे भीतर ही है। खोजना है तो अंदर खोजो। बाहर की खोज आडम्बर है। मनुष्य के जन्म का उद्देश्य इसी अमृत को पाना है। इस अमृत की खोज के लिए हमें त्याग और संयम का रास्ता अपनाना होगा। यही अमृत का मार्ग है।


ॐ असतो मा सद्गमय। 

तमसो मा ज्योतिर्गमय। 

मृत्योर्मामृतं गमय।।


कबीर दास की पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं


जल में कुम्भ, कुम्भ में जल है बाहर भीतर पानी, 

फूटा कुम्भ जल जलहिं समाना यह तथ कतो ज्ञानी


पर आज जो कुम्भ का आयोजन है, इसमें बाजारवाद ने आध्यात्मिकता को पूरी तरह आच्छादित कर लिया है। भव्यता ने सहजता को तथा कृत्रिमता ने नैसर्गिकता को दरकिनार कर दिया है। कुम्भ का मूल उद्देश्य गायब होता दिखाई पड़ता है। अब यह एक बडे़ भीड़-तंत्र में तब्दील हो गया है। जिसका न तो आध्यात्मिकता से कोई सरोकार है, न ही तप और ज्ञान की उदात्त  परम्परा से।  'रील' कल्चर इतना हावी है कि' रियल' मुद्दा पीछे छूट गया है। कुल मिला कर कहा जाए तो 'माया 'का इतना महीन आवरण है कि' मोक्ष' की अवधारणा एक आभासी अनुभव भर रह गया है।


होना यह चाहिए था कि इस विश्वविख्यात आयोजन से कोई संदेश बाहर आता। जिस प्रकार नदियाँ मर रहीं है, जैव विविधता नष्ट हो रहा है। आधुनिक मनुष्य मशीन बनता जा रहा है। संवेदना और संवाद की धारा विच्छिन्न हो रही है। दुनिया आतंकवाद और हिंसा में संलिप्त है। कोई वैकल्पिक प्रणाली की बात होनी चाहिए थी। एक सम्यक् विमर्श होना चाहिए था कि किस प्रकार मनुष्य की चेतना ऊर्ध्वगामी हो। साथ ही एक बात की महती आवश्यकता है कि वैयक्तिक स्तर पर मनुष्य जाति शरीर प्रक्षालन के साथ मन को मांजने का भी प्रयास करे। तब कुम्भ की उपादेयता कहीं और प्रासंगिक हो जाती।


कुम्भ एक धार्मिक आयोजन है। पर इसका महत्त्व और बढ़ जाता जब हम इसे एक बडे़ सामाजिक-सांस्कृतिक आयोजन की तरह देखते। जिसमें हमारी संस्कृति के उदात्त तत्त्व, तपोवन और तपस्या का वैभव दुनिया देखती है। कितना अच्छा होता कि सहिष्णुता और सर्वधर्म समभाव पर एक खुले मंच से एक सम्यक् सम्वाद होता है।


अच्छी बातों और विचारों को फैलाने का इससे बढिया तरीका शायद दूसरा नहीं हो सकता!



सम्पर्क 


मोबाइल : 08340618155

टिप्पणियाँ

  1. डॉ.कुंदन सिंह5 फ़रवरी 2025 को 10:14 am बजे

    कुंभ के साथ-साथ भारतीय जनमानस की प्रकृति व प्रवृति को रेखांकित करते हुए लेखक का चिंतन 'कुंभ' के जरिए बदलते वैश्विक परिदृश्य के साथ कुंभ आयोजन की प्रासंगिकता बनाये रखने की है।सहज व पठनीय आलेख !

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