विमल कुमार की रपट 'क्या हिंदी साहित्य का भविष्य युवाओं के हाथ में है?'

 



कृष्णा सोबती का यह जन्म शताब्दी वर्ष है। इस अवसर पर देश भर में कार्यक्रमों के आयोजन का सिलसिला आरम्भ हो गया है। इस क्रम में एक महत्त्वपूर्ण आयोजन रज़ा न्यास द्वारा किया गया।हिन्दी के युवा लेखकों को प्रेरित, प्रोत्साहित करने के लिए रजा न्यास 'युवा' नामक कार्यक्रम का प्रतिवर्ष आयोजन करता है। इस कार्यक्रम की एक रपट कवि आलोचक विमल कुमार ने हमें उपलब्ध कराई है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं विमल कुमार की रपट 'क्या हिंदी साहित्य का भविष्य युवाओं के हाथ में है?'



'क्या हिंदी साहित्य का भविष्य युवाओं के हाथ में है?'


विमल कुमार


21 वीं सदी की एक चौथाई बीत गयी है। साहित्य के लिए 25 साल कम नहीं होते। बीसवीं सदी के प्रथम 25 वर्षों को याद करें तो आपको हिंदी नवजागरण का दूसरा चरण याद आएगा जब महावीर प्रसाद द्विवेदी ने 1903 में 'सरस्वती' पत्रिका निकाली और लेखकों का एक समूह सामने आया। चाहे बाल मुकुंद गुप्त हों,  मैथिली शरण गुप्त हों, प्रेमचन्द, गुलेरी, रामचन्द्र शुक्ल, राजबाला घोष, गणेश शंकर विद्यार्थी, विशम्भर नाथ शर्मा कौशिक, जयशंकर  प्रसाद, निराला, पंत, सुदर्शन, राजाराधिका रमण प्रसाद, राहुल सांकृत्यायन, शिवपूजन सहाय, उग्र जैसे  अनेक लेखक 1925 तक आते-आते साहित्य के परिदृश्य पर चमकने लगे थे। 1925 में “रंगभूमि” आ गया था। प्रसाद का “आंसू”  पंत का पल्लव , निराला की कविता जूही की कली, 1926 में “देहाती दुनिया” जैसा पहला आंचलिक उपन्यास  भी आ गया था। 1900 से 1920 तक करीब 80 कवयित्रियों की रचनाएं प्रकाश में आ चुकी थी। इस दृष्टि से देखा जाए तो बीसवीं सदी की पहली सदी काफी  उर्वर और सक्रिय थी।


अशोक वाजपेयी के नेतृत्व में यह युवा पीढ़ी क्या उसी तरह रेखांकित की जाएगी। वैसे देखा जाए तो इस समय साहित्य के पटल पर वही लोग दृश्यमान हैं या चाहे हुए हैं जो 2000 के बाद हिंदी साहित्य में आये। कथा में नीलाक्षी सिंह, मनीषा कुलश्रेष्ठ से ले कर निधि अग्रवाल की पीढ़ी सक्रिय है तो कविता में पवन करण, संजय कुंदन से ले कर प्रिया वर्मा  और अनामिका अनु की पीढ़ी सक्रिय है। अब तो यह समय बताएगा कि हिंदी की युवा पीढ़ी साहित्य को कहाँ तक ले जाएगी पर इतना जरूर कहा जा सकता है कि उनसे कुछ उम्मीद बनती है। युवा कार्यक्रम में जिस तरह इस पीढ़ी ने कृष्णा सोबती ने विचार विमर्श किया है उससे उम्मीद बंधती है।


हालांकि यह पीढ़ी 45 वर्ष तक की है। 45 वर्ष तक तो हिंदी के अधिकतर लेखक अपना श्रेष्ठ दे चुके होते हैं।


आखिर अशोक वाजपेयी ने 'युवा' की शुरुआत ही क्यों की? क्या वे अपने उत्तराधिकारियों की कोई फौज बना रहे हैं जो उनके नहीं रहने पर स्तुति गान करे या क्या इसलिए एक युवा लेखक के रूप में उन्होंने अनुभव किया है कि ऐसे समारोह उनके लिए प्रेरक साबित होते हैं। अशोक जी अक्सर जिक्र किया करते हैं कि जब वह 17 वर्ष के थे तो श्रीपत राय ने उन्हें इलाहाबाद में एक लेखक सम्मेलन में आमंत्रित किया था जहाँ उनकी मुलाक़ात रेणु से हुई थी।


वैसे भी अशोक जी ने 'पहचान' सिरीज़ और भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार के जरिये युवा लेखकों को एक प्लेटफार्म दिया है। वे अज्ञेय, धर्मवीर भारती, भैरव प्रसाद गुप्त, नामवर सिंह राजेन्द्र यादव  के बाद साहित्य के एक बड़े नेतृत्व कर्ता के रूप में सामने आए हैं। युवा कार्यक्रम देश का सबसे बड़ा रचनात्मक प्लेटफॉर्म है जहां हिंदी के इतने युवा लेखक आते हैं। भारतीय भाषाओं में भी ऐसा मंच नहीं। हालांकि अशोक जी पर आरोप लगते रहे हैं कि वे अपने पसंददीदा लोगों को बुलाते हैं। वामपंथियों का एक धड़ा उनसे आज भी अलग है या अशोक जी ने उसकी परवाह नहीं की है। पर फासीवाद के इस दौर में वे लगातार सत्ता को चुनौती दिए जा रहे हैं।


वैसे उनकी शिकायत युवाओं से रही है। लेकिन इस बार उनकी राय कुछ बदली है। उन्होंने  कहा है कि  इस बार युवा कार्यक्रम में महिला वक्ताओं ने ज्यादा अच्छा प्रदर्शन किया है और उन्होंने पुरुषों को पीछे छोड़ दिया  है।


श्री वाजपेयी ने रजा फाउंडेशन द्वारा आयोजित युवा कार्यक्रम के अंतर्गत हिंदी की यशस्वी लेखिका कृष्णा सोबती के जन्मशती समारोह के अवसर पर यह बात कही।


उन्होंने  बताया कि यह सातवां युवा समारोह है और अब तक 200 से अधिक युवा लेखकों  ने इसमें भाग लिया। इस बार 35 लेखकों ने भाग लिया और कई वरिष्ठ लेखकों ने पर्यवेक्षक के रूप में भी भाग लिया। उन्होंने अपने समापन वक्तव्य  में कहा कि शुरू के युवा कार्यक्रमों में उन्हें युवा लेखकों से बहुत शिकायत रही क्योंकि वे तैयारी करके आते नहीं थे पढ़ते नहीं थे और  उनक़ा  प्रदर्शन अच्छा नहीं क्योंकि  वे वह अपनी पुरानी पीढ़ी से परिचित भी नहीं थे। ऐसा लगता था जैसे उन्होंने कुछ नहीं पढ़ा हो लेकिन अब धीरे-धीरे इन युवा लेखकों ने तैयारी की है और इस बार पहले की तुलना में उनका प्रदर्शन अच्छा है लेकिन इस बार तो महिला वक्ताओं ने पुरुषों को पछाड़ दिया है।


श्री वाजपेयी के पास संसाधन है इसलिए वे यह सब कर पा रहे हैं। हर साल फाउंडेशन की ओर दो करोड़ रुपये खर्च करने होते हैं और वे 80 कार्यक्रम करते हैं। लेकिन उन्हें केवल साहित्य के नहीं बल्कि अन्य विधाओं   के भी कार्यक्रम करने होते हैं।


रज़ा फाउंडेशन की पहले 100 जीवनियां छापने की योजना थी लेकिन अब तक करीब 200 जीवनियां छप चुकी हैं इतना ही नहीं अभी कुछ और जीवनियां आनी हैं।


उस्ताद करीम खान और संयुक्ता पाणिग्रही आदि की भी जीवनियां अब आ गई हैं।


लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि युवा पीढ़ी को कृष्णा सोबती के बारे में जानने पढ़ने का ही नहीं मौका मिला बल्कि अतीत में क्या हुआ वह भी उन्हें पता चला।क्या उन्हें कोई नई दिशा मिली?


युवा पीढ़ी को यह जान कर शायद यह नअच्छा लगा होगा कि जब अशोक जी ने  कृष्णा सोबती  का नाम पद्म पुरस्कार के लिए प्रस्तावित किया था। तब गृह मंत्रलाय से सोबती जी को फोन आया बॉयोडाटा के लिए तो उन्होंने अशोक जी को फोंन कर कहा कि वह कोई पद्म पुरस्कार नहीं लेना चाहती। तब अशोक जी ने तत्कालीन संस्कृति सचिव जवाहर सरकार को सूचित किया कि उनके नाम पर पुरस्कार के लिये विचार न हो क्योंकि कृष्णा जी उसे लौटा देंगी तो सरकार की फजीहत हो जाएगी।


युवा कार्यक्रम में श्री वाजपेयी ने युवा लेखकों को भी एक नागरिक की भूमिका निभाने औऱ अपने लेखन में समय को दर्ज  करने की सलाह दी।


इस समारोह में पहली बार साहित्य जगत को कुछ नई जानकारियां मिलीं। पता चला कि अतीत में प्रगतिशीलों ने क्या-क्या गलतियां की और हिंदी पट्टी में नवजागरण काल में कितने अंतर्विरोध थे।


आपको जान कर आश्चर्य होगा कि आजादी  के बाद प्रगतिशील लेखक संघ के पहले सम्मेलन में विभाजन के खिलाफ कोई निंदा प्रस्ताव पेश नहीं  किया गया था। प्रसिद्ध आलोचक एवम मीडिया विशेषज्ञ जगदीश्वर चतुर्वेदी ने आज रज़ा फाउंडेशन द्वारा आयोजित युवा कार्यक्रम में यह सनसनीखेज जानकारी दी। श्री चतुर्वेदी ने कृष्णा सोबती की जन्मशती पर आयोजित इस समारोह में विभाजन और सोबती जी के लेखन विषय पर एक पर्यवेक्षक के रूप में टिप्पणी करते हुए यह बात कही।




उन्होंने श्री सोबती को पहला समग्र राजनीतिक लेखक बताते हुए कहा कि हिंदी पट्टी के लेखकों ने विभाजन पर कोई कहांनी नहीं लिखी जबकि पंजाब से जुड़े लेखकों भीष्म साहनी, मोहन राकेश, कृष्णा सोबती आदि ने कहानियां लिखी लेकिन उत्तर प्रदेश, बिहार और अन्य  हिंदी पट्टी के लेखकों ने नहीं लिखा। इतना ही नहीं 1947 में प्रगतिशील लेखक संघ के सम्मेलन में 22 प्रस्ताव पारित किए गए थे जिनमें एक भी प्रस्ताव विभाजन के खिलाफ पारित नहीं किया गया था जबकि दंगे में इतने लोग मारे गए थे।उन्होंने कहा कि उन्होंने अपने शोध कार्य के दौरान डॉक्टर नामवर सिंह से भी बात की थी क्योंकि वे उस सम्मेलन के गवाह थे। श्री चतुर्वेदी ने कहा कि उन्होंने पी सी जोशी के दस्तावेजों को जे एन यू की लाइब्रेरी में देखा था जिसके आधार पर वह यह बात कह रहे हैं।


उन्होंने यह भी कहा कि कृष्णा जी के लेखन को जेंडर की दृष्टि से न देखा जाए बल्कि वह हिंदी की पहली राइटर हैं जो समग्र राजनीतिक हैं उनकी राजनीतिक चेतना में साझी संस्कृति है और उन्होंने अपने लेखन में मनुष्य को केंद्र में रखा है।


प्रसिद्ध आलोचक पुरुषोत्तम अग्रवाल ने  प्रख्यात आलोचक लुसिया गोल्डमैन को उद्धरित करते हुए सोबती जी को ट्रैजिक विज़न की लेखिका बताया और कहा कि उन्होंने अपने लेखन में लोकतंत्र की रक्षा की है।


उन्होंने विभाजन पर लिखे गए साहित्य का जिक्र करते हुए राही मासूम रज़ा और कुरतलै न हैदर जिक्र किया और कहा कि 'आग का दरिया' 1956 की जगह 2016 में लिखा गया होता तो उसे नोबल प्राइज मिल गया होता।


प्रसिद्ध आलोचक अपूर्वानंद ने पर्यवेक्षक के रूप में वक्ताओं के पर्चों का समाहार करते हुए कहा कि विभाजन की पृष्ठभूमि 1920-22 में ही बनने लगी थी जिसकी ओर इशारा प्रेमचन्द के लेखन में मिलता है। ईदगाह को छोड़ कर किसी लेखक की रचनाओं में मुस्लिम समाज उस दौर में नहीं मिलता जबकि मुस्लिम रचनाकारों ने हिन्दू त्यौहारों पर लिखते हुए कृष्ण पर काफी लिखा है लेकिन मुस्लिम त्यौहारों पर हिंदी के लेखकों ने नहीं लिखा। कृष्णा जी का लेखन साझा संस्कृति की बात करता है।


चर्चित कवि विशाल श्रीवास्तव और संजय जायसवाल ने आर्य समाज आंदोलन और हिंदी नवजागरण में साम्प्रदायिक तत्वों की तरफ संकेत दिया और कहा कि विभाजन आज भी जारी है।


दो दिनों तक चलने वाली गोष्ठी में विचारोत्तेजक बाते हुईं और युवा लेखकों ने सुंदर पर्चे पढ़े। युवा लेखकों और वरिष्ठ लेखकों के बीच संवाद से ही 21वी सदी में साहित्य का विकास सम्भव है।हिन्दी साहित्य भी युवाओं को उम्मीद भरी नजर से देख रहा है।


हिंदी के चर्चित कथा आलोचक संजीव कुमार ने कल रज़ा फाउंडेशन के युवा कार्यक्रम में यशस्वी लेखिका कृष्णा सोबती की जन्मशती पर आयोजित सेमिनार के मद्देनज़र एक महत्वपूर्ण सवाल उठाया कि सोबती जी निर्मल वर्मा और वैद की त्रयी की जगह सोबती जी रेणु और मोहन राकेश की त्रयी क्यों नहीं। कोई इस त्रयी में मंन्नू भंडारी को भी जोड़ सकता है। वैसे मन्नू जी थोड़ी छोटी थीं सोबती जी से। बहरहाल, हिंदी में इस तरह की बनती बिगड़ती त्रयीयों पर पहले भी सवाल उठते रहे हैं।


हिंदी साहित्य इस बात को जानता है कि अशोक जी की अपनी सूचियां वर्षों से रही हैं। शायद हर किसी की रही हैं। वामपंथियों कलावादियों दोनों की अपनी सूचियां रही हैं। सवाल सूचियों का नहीं। हर रचनाकार को आलोचनात्मक दृष्टि से देखा जाना चाहिए। कल यवनिका तिवारी ने निर्मल जी  कृष्णा जी के लेखन पर कुछ सवाल उठाए। आलोचक का काम केवल विश्लेषण करना नहीं बल्कि प्रश्न उठाना भी है। निर्मल वर्मा और कृष्णा जी पर हिंदी में बहुत चर्चा हो चुकी है। शिवेंद्र ने भी गल्प और यथार्थ को ले कर कुछ  महत्वपूर्ण सवाल उठाए।





हिंदी में नवाचार का स्वागत होना चाहिए पर निर्मल जी और रेणु जी के नवाचार में फर्क हैं। भाषा मे नवाचार होना चाहिए पर उससे क्या रचा जा रहा है किसके लिए रचा जा रहा उसके रचे जाने में अपना समय कितना दर्ज है यह भी देखा जाना चाहिए। क्या रचनाकार का काम आत्मसंघर्ष और द्वंद के साथ सामाजिक संघर्ष का चित्रण करना नहीं होना चाहिए।


सौंदर्य के निर्माण में विचार और अनुभव कल्पना तथा यथार्थ से बनी जीवन दृष्टि काम आती है।वह एकांगी न हो।


युवा समारोह से उठी यह बहस कहाँ तक जाएगी, कहना मुश्किल पर इतनी संख्या में युवाओं को सामने लाने में रज़ा फाउंडेशन का बड़ा योगदान है। इसे रेखांकित किया जाना चाहिए।


समारोह में यह भी सवाल उठा कि क्या कृष्णा सोबती एक उभयलिंगी लेखिका थीं? क्या उनकी भाषा राजनीतिक भाषा थी और उनकी लेखकीय दृष्टि और औपन्यासिक दृष्टि में कोई फांक थी?


श्रीमती सोबती की जन्मशती के मौके पर रज़ा फाउंडेशन द्वारा आयोजित युवा समारोह में इन प्रश्नों पर आरंभिक दो सत्रों में विचार हुआ।


समारोह में उद्घाटन वक्तव्य देते हुए प्रबंध न्यासी अशोक वाजपेयी ने पहले श्रीमती के उदार एवम साहित्य के प्रति समर्पित व्यक्तित्व की सराहना करते हुए बताया कि उन्होंने किस तरह अपने डोगरी कथाकार पति शिवनाथ जी के निधन के बाद उनकी जमा एक करोड़ रुपये की राशि को रज़ा फाउंडेशन को दे दिया। फिर जब उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार के रूप में 11 लाख रुपए मिले तो उन्होंने अस्पताल में भर्ती होने के बाद भी वह राशि रज़ा फाउंडेशन को दे दी जिससे हमने सोबती शिवनाथ निधि की स्थापना की।उन्होंने यह राशि साहित्य के प्रचार प्रसार के लिए इस्तेमाल करने को कहा। हिंदी में आज तक न तो उनसे पहले और न बाद में ही किसी लेखक ने इतनी बड़ी रकम साहित्य के लिए दिया। यह उनका साहित्य प्रेम था और उनकी यह उदारता थी।





पहले सत्र में युवा कवि आलोचक कुमार मंगलम, जगन्नाथ दुबे, कथाकार अणुशक्ति सिंह और कवयित्री अनुपम सिंह ने सोबती जी की लेखकीय दृष्टि और औपन्यासिक दृष्टि पर विचार वक्तव्य पेश किए।


श्री कुमार मंगलम ने उपन्यास के बारे में  रामचन्द्र शुक्ल जैनेंद्र और प्रेमचन्द्र  के विचारों के हवाले से औपन्यासिक दृष्टि पर विचार किया और सोबती जी के कुछ उपन्यासों में व्यक्त उनकी दृष्टि की मीमांसा की।


श्री दुबे ने सवाल किया कि लेखकीय दृष्टि और औपन्यासिक दृष्टी क्या अलग अलग होती है या लेखक के जीवन से बनी दृष्टि उसमें शामिल नहीं होती। उन्होंने स्वीकार किया कि सोबती जी ने अपने जीवन में सत्ता का जिस तरह विरोध किया वह उनकी औपन्यासिक दृष्टि में भी परिचायक है।


श्रीमती अणुशक्ति सिंह का मानना था कि उनकी लेखकीय दृष्टि और औपन्यासिक दृष्टि में कम फांक थी और यौनिकता का टैबू उनमें नहीं था।उनके लिए स्त्री की आज़ादी महत्वपूर्ण थी जिसमें यौनिकता भी शामिल है।


वरिष्ठ कवि कथाकार प्रियदर्शन का कहना था कि रचनाकार के लेखन में किसी तरह का द्वंद्व कोई बुरी चीज नही। एक ईमानदार लेखक के लेखन में यह होना ही चाहिए। उन्होंने कहा कि सोबती जी भले ख़ुद को स्त्रीवादी लेखिका न मानती हो, मन्नू भंडारी और मृदुला गर्ग ने भी कभी खुद को स्त्रीवादी नहीं माना। पर सोबती के लेखन में उनके किरदार उनकी लेखकीय गिरफ्त से छूट गए हैं और किरदार लेखक से अलग खड़े दिखाई देते हैं।


आलोचक सुधा सिंह ने दूसरे सत्र में सोबती जी और भाषा का वितान पर चर्चा करते हुए लेखन में भाषा  के महत्व को रेखांकित किया और कहा कि भाषा समाज से बनती है और लेखक अपनी भाषा मे कहीं न कहीं खड़ा होता है और सोबती जी भले खुद को उभयलिंगी कहती हों पर उनकी रचनाओं में स्त्री-विमर्श दिखाई  देता है।


समारोह में प्रयाग शुक्ल, विनोद भारद्वाज  गोपेश्वर सिंह, जगदीश्वर चतुर्वेदी, विनोद तिवारी, अपूर्वानंद, हरिनारायण आदि मौजूद थे।


(रपट में प्रयुक्त सभी चित्र हमें विमल कुमार ने उपलब्ध कराए हैं।)


विमल कुमार 



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मोबाइल : 09968400416

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