शंभूनाथ शुक्ल का संस्मरण 'कुंभ में फ़ूड कोर्ट देख कर लगा मेला नहीं यह माल है'
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शंभूनाथ शुक्ल |
इलाहाबाद के महाकुम्भ के आयोजन में सभी शरीक होना चाहते हैं। सरकार का आंकलन है कि इस मेले में लगभग पचास करोड़ लोग शामिल होंगे। यह कल्पना ही की जा सकती है कि जब एक शहर की तरफ करोड़ों लोग एक साथ चल पड़ें तब उस शहर का हाल क्या होगा। सारी व्यवस्थाएं चरमरा गई हैं। मेले के साथ साथ शहर तो आजकल अस्त व्यस्त है ही, शहर की तरफ जाने वाले रास्तों पर गाड़ियों का सैकड़ों किलोमीटर तक लगा जाम हालात को खुद ही बयां कर देता है। उस पर दिक्कत यह कि हमारे यहां इस तरह की कोई अवधारणा ही नहीं कि सड़कों के किनारे आम यात्रियों के लिए आधारभूत सुविधाएं तक उपलब्ध कराई जा सके। आलम यह है कि लोगों के पास जेब में रुपए तो हैं, लेकिन खाने की सामग्रियों का अभाव है। लेकिन जाने माने पत्रकार शंभूनाथ शुक्ल ने भी कानपुर से सड़क मार्ग के जरिए इलाहाबाद की यात्रा की। इस यात्रा के दौरान उनके जो अनुभव हैं, वह इस सिलसिले में काफी महत्त्वपूर्ण हैं। भविष्य में होने वाले इस तरह के आयोजनों के समय मार्गों पर आधारभूत सुविधाएं उपलब्ध कराने के सन्दर्भ में प्रयास किया जाना चाहिए। तभी सच्चे मायने में कोई भी आयोजन सफल कहा जा सकता है। आइए महाकुम्भ विशेष कालम के अन्तर्गत आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं शंभूनाथ शुक्ल का संस्मरण 'कुंभ में फ़ूड कोर्ट देख कर लगा मेला नहीं यह माल है'।
महाकुम्भ विशेष : 9
'कुंभ में फ़ूड कोर्ट देख कर लगा मेला नहीं यह माल है'
शंभूनाथ शुक्ल
सभी को अंदेशा था कि राम-राम कर 29 जनवरी 2025 का नहान टल जाए तो गंगा नहा लें। पर शायद मेला प्रशासन और सरकार के मंत्री-संतरी इस बात को ले कर चिंतित नहीं थे। अन्यथा मौनी अमावस्या का नहान शुरू होने के पहले रात को यह हादसा न हुआ होता। प्रशासन न मौतों का आँकड़ा दे रहा है, न यह बता रहा है कि भगदड़ कहाँ-कहाँ मची। अलबत्ता 'दैनिक जागरण' आठ करोड़ लोगों के स्नान को बैनर ज़रूर बना रहा है। यह भी बताया कि मरने वालों को 25-25 लाख रुपए मिलेंगे। काश! हादसे के बाद शासन-प्रशासन यह सोचता कि कैसे आगे के शाही स्नान पर रूट बनाये जाएँगे। कुंभ स्नान के लिए प्रयागराज आने वाले हर यात्री के मन में अनजाना भय तो था कि मौनी अमावस्या को संगम में बच कर रहना है। फिर भी भीड़ बढ़ती ही गई, इसकी वजह राज्य सरकार का अतिरेक प्रचार था और कुम्भ मेला प्रशासन की अफ़रा-तफरी। भगदड़ के बाद अखाड़ों ने तो अपनी तरफ़ से संजीदगी दिखाई। प्रशासन कोई स्पष्टीकरण नहीं दे सका। हादसे की सुबह मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ ने कहा है, कि संगम नोज़ जाने की बजाय लोग किसी भी घाट पर स्नान कर लें। उन्होंने यह भी कहा कि सुबह आठ बजे तक तीन करोड़ लोग स्नान कर चुके हैं और पूरे दिन में 10 से 12 करोड़ श्रद्धालु स्नान कर लेंगे।
इस बार के कुंभ में पूरे देश से लोगों को यह कह कर बुलाया गया कि चलो संगम! क्योंकि यह कुंभ 144 साल बाद पड़ रहा है। जबकि कुंभ के इतिहास में ऐसा कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है। सच बात तो यह है कि इस बार कुंभ में स्नान के लिए आने वालों का ताँता लगा था। जम्मू कश्मीर, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, गुजरात और राजस्थान से असंख्य गाड़ियाँ वाया इटावा कानपुर होते हुए आईं तो साउथ से आने वाले लोगों ने बुंदेलखंड एक्सप्रेस वे को पकड़ा। पर सब जगह से आने वाले लोगों को 26 जनवरी से ही रोका जाने लगा। किसी को चित्रकूट भेजा गया तो किसी को अयोध्या और पूर्व से आने वाले वाहनों को काशी। मगर कहीं भी न रुकने की व्यवस्था थी न ही खाने-पीने की। प्रयागराज से दो सौ किमी दूर तक के रोड साइड ढाबों में मारा-मारी मची हुई थी। कहीं खाना खत्म तो कहीं पीने का पानी नहीं बचा। इन ढाबों और होटलों के टॉयलेट्स गंदगी से पटे पड़े हुए हैं, लोग सड़कों पर निवृत्त हो रहे हैं। आने वालों में संभ्रांत घरों की महिलाएं हैं, गठिया से ग्रस्त बुजुर्ग हैं, अब वे कैसे सरसों के खेत में खुले में शौच करें!
कानपुर से इलाहाबाद की दूरी 200 किमी है। 24 जनवरी 2025 को जब हमने दिल्ली से संगम जाने का प्रोग्राम बनाया तो सोचा कि पहला स्टाप कानपुर और फिर अगली सुबह हम इलाहाबाद प्रस्थान कर जाएँगे। दिल्ली से हम चार लोग थे और एक गाड़ी में बैठ कर चले। अगले दिन एक गाड़ी में दोनों बहनें भी बैठीं और भांजे भी। इस तरह दो गाड़ियों में आठ लोग। आशंका थी कि रास्ते में ट्राफ़िक जाम तो मिलेगा ही। इसलिए सुबह साढ़े आठ पर निकल लिए। कानपुर से बढ़ कर फ़तेहपुर के पहले मलवाँ में मशहूर मोहन पेड़ा के साथ चाय पीने का प्लान था। परंतु मलवाँ के पहले से ही जाम मिल गया। पूरे हाईवे पर दूर तक सिर्फ गाड़ियों की क़तारें। एक घंटे बाद जब ज़ाम से बाहर हुए तब मलवाँ जा चुका था। अब सोचा गया कि आगे किसी रोड साइड ढाबे पर रुकेंगे। किंतु खागा तक के सारे ढाबे या तो बंद मिले अथवा उनमें चाय तक उपलब्ध नहीं थी। जाम से जूझते हुए हम तीन बजे कौशांबी पहुंचे तो फिर जाम। न आगे जा सकते थे न पीछे। कौशांबी के बाद एक ऐसा ढाबा दिखा जहां महिलाओं के लिए वाशरूम भी दिखा। किंतु वहाँ पहले से ही हरियाणा, पंजाब, जम्मू-कश्मीर, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र नम्बर की तमाम एसयूवी गाड़ियाँ खड़ी थीं। बाथ रूम में लंबी क़तार। जो आता है, वह मुंह बांध कर बाहर आता। मर्द तो किसी तरह ढाबे के पीछे सरसों के खेत पर चले जाते लेकिन औरतें क्या करतीं! इसलिए वे वेग को रोके बैठी रहीं।
भूख भी ज़ोरों की लगी थी। ढाबे वाले ने कहा, आटा मँगवाया है। फिर बताने लगा कि दिन भर में आठ-दस किलो आटा मँगवाते थे अब 100-150 किलो आटा कम पड़ जाता है। सब्ज़ी, दाल मिल नहीं पाती। ढाबे के कर्मचारी 22-22 घंटे काम कर रहे हैं। लेकिन रेला आता जा रहा है। उसने यह भी बताया कि कोई दाम नहीं पूछता, बस खाना माँगता है। चाहे जिस क़ीमत पर दो। रोटी के लिए लाइन लगी है। ढाबे वाले ने हमें दो प्लेट दाल दी और दो प्लेट सब्ज़ी। किसी तरह ले कर आए तो रोटी आने में आधा घंटा लगा। रोटी और माँगने पर आधी-आधी रोटी ही मिली। इसके बाद दाल मांगी तो पानी वाली दाल मिली। सिर्फ हम ही नहीं तमाम लोग और भी थे। किसी तरह हम शाम छह बजे कुम्भ मेला के निर्धारित टेंट तक पहुंच पाये। रात को जब मेला देखने के लिए निकले तो कोई किसी की मदद नहीं कर पा रहा था। कुम्भ मेला के अधिकारी यह नहीं बता पा रहे थे कि अमुक टेंट कहाँ पर है और पुलिस के लोगों को आम जनता की सहायता में कोई दिलचस्पी नहीं थी। वे बस वीआईपी क़ाफ़िले को पार कराने में लगे थे। पहली बार लगा कि हम किसी मेले में नहीं बल्कि आधुनिक माल में आ गए हैं। जहां पिज़्ज़ा, नूडल्स, बर्गर के फ़ूड कोर्ट हैं। कैफ़े काफ़ी डे हैं, स्टार बक हैं। ज़रूरत का सामान नहीं वहाँ पर प्यूमा तथा आडिडास के स्टोर हैं। मुझे महसूस हुआ कि हम कहाँ आ गए हैं!
यह बात तो लगभग सभी को पता है कि हर 12 वर्ष बाद इलाहाबाद में कुंभ का मेला लगता है। त्रिवेणी में गंगा स्नान और साथ ही भाँति-भाँति की वेश भूषा पहन कर आए अलग-अलग बोलियाँ बोलने वाले लोगों से मिलने की उत्कंठा ही संगम है। तमाम तरह की संस्कृतियों का मिलन, विद्वानों के बीच शास्त्रार्थ और खंडन, मंडन का सिलसिला। यहाँ इन दिनों सारे सनातनी साधु जुटते हैं तो आर्य समाज, जैन, बौद्ध, कबीर पंथी से ले कर सिख संप्रदाय के साधु भी। हर एक के शिविर लगते और स्नान भी कर लेते। हर संप्रदाय का विद्वान दूसरे का खंडन भी करता और सच को लोग स्वीकार भी करते थे। गंगा स्नान कर पुण्य की आकांक्षा सिर्फ ब्राह्मण पालते। अन्य जातियों के लिए बाज़ार करने जाते। ज़रूरत की चीजें आख़िर मेले-ठेले में ही मिलती हैं। अब कुंभ से बड़ा मेला भला कौन होगा। राजा लोग दान करते और इस दान का उल्लेख ह्वेनसांग के यात्रा प्रसंग में मिलता है। जब सम्राट हर्षवर्धन अपना सब कुछ दान कर देते थे। सम्राट हर्षवर्धन बौद्ध मत को मानते थे मगर वे श्रमणों को दान करते तो ब्राह्मणों को भी। इस संस्मरण में कुंभ के लिए राजा को मेज़बानी करते नहीं बताया गया है। यह भी नहीं लिखा है कि राजा किसी को कुंभ में स्नान के लिए बुलाता था। कुंभ में स्वतः स्फूर्त उत्साह से लोग आया करते थे।
कुंभ के आयोजन में राज्य का दख़ल अंग्रेजों के आने के बाद से शुरू हुआ। अंग्रेजों ने इसकी व्यवस्था या सुरक्षा की ज़िम्मेदारी सँभाली। संभवतः उनको लगता होगा कि कुंभ में आ कर लोग अंग्रेज सरकार को उखाड़ने की योजना न बनाने लगें। परंतु आज़ादी के बाद तो सरकार को चेतना था। वह मेले की व्यवस्था तो चाक-चौबंद रखती पर खुद का इनवॉल्वमेंट कम। मगर ऐसा नहीं हो सका। 1954 से आज तक हर कुंभ में भगदड़ मचती ही रही। तब फिर सरकार क्यों मेले में घुसती है।
सच तो यह है कि अभी तक हर कुंभ में प्रशासन के अफसरों और पुलिस अधिकारियों के बीच होड़ रहती है कि किस-किस को वहाँ कमान सौंपी जाएगी। कुंभ निपट गया तो कुंभ को सम्भालने वाले अफ़सरों की चाँदी हो जाती है। एक तो पूछ बढ़ती है और दूसरे पहचान भी। मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री की नज़रों में चढ़ जाते हैं। आगे भी प्राइम पोस्टिंग मिलती है। वीआईपी प्रोटोकॉल पर इनका जोर अधिक रहता है। जो भीड़ संभालते हैं, उन पुलिस के दारोगाओं और सिपाहियों की मरन रहती है। उन्हें भीड़ से उलझना पड़ता है। वे रात-रात भर सो नहीं पाते, उनके लिए आवास और टॉयलेट्स भी चलताऊ होते हैं। दूसरे वे लोकल होते भी नहीं इसलिए उन्हें भी दिशा ज्ञान नहीं होता। नतीजन वे कैसे भीड़ का प्रबंध कर पाएंगे! मैं 25 जनवरी 2025 को प्रयागराज शाम तक पहुंच तो गया था पर अगले दिन 26 जनवरी 2025 से भीड़ बेहिसाब बढ़ने लगी और वीआईपी आगमन भी बढ़ा इसलिए पुलिस और प्रशासन का सारा जोर उन लोगों का काफिला निर्बाध निकाल देना रहा। उनके लिए संगम नोज़ जाने का विशेष प्रबंध किले के पास से ही कर दिया गया था। पर वहाँ तैनात पुलिसकर्मी आम श्रद्धालुओं को वहीं गंगा किनारे नहाने के लिए जोर दे रहे थे। लेकिन जब कुंभ नहाने आए लोग यह देखते कि वीआईपी के लिए वहीं से स्पेशल बोट जा रही है तो उनको गुस्सा आता। आम श्रद्धालुओं के लिए पाँच किमी दूर किले के दूसरी तरफ़ गऊ घाट भेजते। यह आम लोगों को अन्याय लगता। इसके अलावा घाटों के किनारे टॉयलेट्स नहीं बनाई गई थीं। आम तौर पर नहाने के पहले लोग यूरीनल जाते ही हैं, अब वे कहाँ जाते इसलिए उनमें झुंझलाहट भी रहती।
अगले रोज़ जब मैं कानपुर लौट रहा था तब देखा कि पुलिस वाले गाड़ियाँ वाराणसी या बांदा चित्रकूट की तरफ़ डायवर्ट कर रहे थे। इससे ये मार्ग भी जाम होने लगे। 28 जनवरी 2025 को अयोध्या में 25 लाख लोग पहुँच गये। ख़ुद श्रीराम जन्मभूमि के चंपत राय को अपील करनी पड़ी कि लोग अयोध्या न आएँ, यहाँ 25 लाख लोग जमा हो चुके हैं। क्योंकि जिनको संगम का रास्ता नहीं मिला, वे अयोध्या की तरफ़ भागे। 27 जनवरी 2025 को मैं कानपुर से चित्रकूट के लिए चला। संगम की भीड़ से बचने के लिए मैंने फतेहपुर हाई वे पकड़ने की बजाय हमीरपुर रोड का रास्ता लिया। घाटमपुर, हमीरपुर, भरुआ सुमेरपुर से गुजरते हुए खन्ना से बुंदेलखंड एक्सप्रेस वे को पकड़ा। यह रास्ता 100 किमी फालतू था पर क्या करता। आम तौर पर खाली रहने वाले इस एक्सप्रेस वे पर गुजरात, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और राजस्थान की एसयूवी गाड़ियाँ भागी चली जा रही थीं। रास्ते में एक जगह रिफ्रेशमेंट की व्यवस्था थी। पर वहाँ पर चाय भी समाप्त थी और खाने को कुछ नहीं। कुल चार टॉयलेट्स थीं और 400 की लाइन। गुजरात और महाराष्ट्र की 20 बसें तथा एसयूवी गाड़ियों की लंबी कतार थी। लोग भुनभुना रहे थे कि हमें बुलाया ही क्यों!
बेहतर रहा करे कि सरकार छह महीने पहले अनुमान लगाए कि भीड़ कितनी होगी और व्यवस्था के लिए कितना पुलिस बल चाहिए। उनको प्रशिक्षण दिया जाए कि कैसे आम लोगों को संगम तक ले जाना है। वीआईपी प्रवेश निषिद्ध कर दिया जाए। संगम जाना है तो आम लोगों की तरह पैदल जाएं या घर पर ही गंगा जल अपने ऊपर छिड़क लें।
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