कँवल भारती का आलेख ‘चाँद’ का विदुषी अंक'

 

कँवल भारती


राष्ट्रीय आन्दोलन के दौर में जिन हिन्दी पत्रिकाओं ने जनता को जागृत करने में विशिष्ट भूमिका निभाई थी उसमें ‘चाँद’ का नाम अग्रणी है। ‘चांद’ पत्रिका की ऐतिहासिक भूमिका यह थी कि उस दौर में उसके कुल 29 विशेषांक निकले। सारे विशेषांक लीक से अलग हट कर नए प्रतिमान स्थापित करने वाले थे।  ‘चाँद’ के फांसी अंक से कौन परिचित नहीं है। इसके अलावा उसके प्रवासी अंक, अछूत अंक, पत्र अंक, मारवाडी अंक और विदुषी अंक और वैश्या अंक भी काफी चर्चित हुए। कँवल भारती को सफाई में बाहर फेंक दी गईं कुछ गली-सड़ी मैगजीनों में ‘चाँद’ का विदुषी अंक अंक प्राप्त हुआ। कँवल जी ने इस अंक पर एक विहंगम दृष्टि डालते हुए एक आलेख लिखा है जो महत्त्वपूर्ण है। दुर्भाग्यवश उन्हें चांद के इस अंक के कुछ शुरुआती पन्ने नहीं मिले जिससे अंक के सम्पादक को ले कर वे स्पष्ट नहीं दिखते। इस सन्दर्भ में जब मैंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रोफेसर आशुतोष पार्थेश्वर से सम्पर्क किया तो उन्होंने बताया कि विदुषी अंक का सम्पादन महादेवी वर्मा ने किया था। बहरहाल आज कँवल भारती का जन्मदिन है। उन्हें जन्मदिन की बधाई देते हुए आज पहली बार पर हम प्रस्तुत कर रहे हैं उनका आलेख ‘चाँद’ का विदुषी अंक'।



‘चाँद’ का विदुषी अंक'


कँवल भारती


नवम्बर 1935 में ‘चाँद’ ने विदुषी अंक निकाला था। यह अंक मेरे शहर के पुस्तकालय ‘ज्ञान मंदिर’, में, जहाँ का मैं नियमित पाठक था, सफाई में बाहर फेंक दी गईं कुछ गली-सड़ी मैगजीनों में पड़ा था, जिसे मैं उठा लाया था। यह शायद 1976 की बात होगी। एक लम्बे समय से मेरे पास है, खस्ता हालत में, जिसका आरम्भ सिर्फ ‘विषय सूची’ के लाल पृष्ठों से होता है। शुरू के पृष्ठ गायब हैं। इसलिये मैं निश्चित तौर पर नहीं कह सकता कि ‘चाँद’ का यह विशेषांक किसी के अतिथि सम्पादन में निकला था या फिर सामान्य अंकों की तरह इसके सम्पादक भी रामरख सिंह सहगल ही थे।

 

इस अंक को पढ़ कर दो बातें मेरे जहन में उभरती हैं। पहला यह कि इस अंक की सारी रचनाएँ कुलीन अर्थात् अभिजात वर्ग की लेखिकाओं की हैं, जिन्होंने अपने रचना-कर्म से आधुनिक हिन्दू समाज को धार्मिक रूढ़ियों और दकियानूसी विश्वासों से मुक्त करने का महत्वपूर्ण कार्य किया। 

 

दूसरा सवाल यह उभरता है कि इस विदुषी अंक में लेखिकाओं की जो संख्या दिखायी देती है, वे लेखिकाएँ अचानक कहाँ गायब हो गयीं? दो-चार लेखिकाओं को छोड़ कर एक भी लेखिका का नाम बाद के साहित्य और साहित्यिक इतिहास में नजर नहीं आता। इस अंक में 25 कविताएँ हैं, जिनकी कवियित्रियाँ- तोरन देवी शुक्ल ‘लली’, तारा देवी पाण्डेय, शकुन्तला खरे, होमवती, सत्यवती, किशोरी देवी चतुर्वेदी, दुलारी देवी माथुर, सरस्वती देवी, रूपकुमारी दर, स्वरूपरानी गौड़ ‘विदुषी’, कमलेश्वरी देवी, मंगला देवी ‘लालूपुरी’, सुन्दर कुमारी, विद्यावती सिंहा ‘कोकिल’, महाराज कुमारी दादू साहिबा, लीलावती देवी ‘चकोरी’, बागीशा देवी, सरोजनी मिश्र, शान्ति देवी भार्गव, प्रेमकुमारी और एल. आर. जुत्शी- हिन्दी साहित्य में कहाँ गायब हो गयीं? इन कवियत्रियों के बारे में हिन्दी साहित्य का इतिहास मौन क्यों है? महादेवी वर्मा के साथ-साथ ये प्रतिभाएँ भी विकसित और अमर क्यों नहीं हो सकीं? इस अंक को देखने के बाद यह नहीं लगता कि सौ साल के हिन्दी साहित्य में लेखिकाएँ नगण्य थीं। फिर क्या उनकी उपेक्षा की गयी या उन पर हावी पुरुष वर्चस्व उनकी प्रतिभा को निगल गया?


शब्द-चित्र

विदुषी अंक में आठ बहुत ही खूबसूरत रंगीन चित्र हैं, जिनके शीर्षक विछोह, वात्सल्य, स्मृति, नवविवाहिता, कुरान, निराश्रित, जीवन दीप और वासन्ती अभिसार हैं। इनमें वासन्ती अभिसार शीर्षक चित्र का पृष्ठ अंक में मौजूद नहीं है, जो किसी ने फाड़ दिया लगता है। इसलिये इस चित्र के निर्माता का नाम बताने में असमर्थ हूँ। शेष चित्रों के चित्रकारों के नाम क्रमशः एच. बागची, भुवन वर्मा, एच. चटर्जी, दामोदर, पी. मुकर्जी हैं। भुवन वर्मा ‘जीवन दीप’ के भी चित्रकार हैं और ‘कुरान’ चित्र प्रयाग महिला विद्यापीठ के चित्रकला विभाग से प्राप्त हुआ दर्शाया गया है, जिसके चित्रकार का नाम नहीं लिखा गया है। सभी चित्रों को महादेवी वर्मा ने अपनी सुन्दर काव्य-पंक्तियों से अभिव्यंजित किया है। पी. मुकर्जी के चित्र ‘निराश्रित’ में एक नंगे पैर गरीब महिला बायें कंधे में एक झोला लटकाये हुए है और दाहिने हाथ से अपनी छोटी बच्ची के कंधे पर हाथ रखे खड़ी है। दीनता की इन ‘प्रतिमाओं’ के नीचे महादेवी वर्मा की ये पंक्तियाँ अंकित हैं- 


नव वितान ले धूलि बिछौना, दुख-निधि से भर अंचल छोर।

पथिक! लजाने क्या विधि को, तुम खोज रहे उसको निशि भोर?


स्त्री-जीवन की व्यथा को चित्रित करती ये पंक्तियाँ इस दशक की लगभग हर भारतीय स्त्री की व्यथा हो सकती है। इस स्थिति को, इस अंक में एक वृत्तचित्र के द्वारा मार्मिक ढंग से दिखाया गया है। इस वृत्तचित्र या चित्रकथा का शीर्षक है- ‘‘क्या नारी जीवन का लक्ष्य इतना ही है?’’ इसमें कुल सात चित्र हैं, जो इस प्रकार हैं- (पहला) प्रातः काल 5 बजे का चित्र- घर के सब सदस्य सोये हुए हैं, स्त्री रसोई में चूल्हे में आग जला रही है; (दूसरा) साढ़े सात बजे प्रातः का चित्र- पति बैठा चाय पी रहा है, स्त्री सिर पर घड़ा, बगल में दूसरा घड़ा और हाथ में बाल्टी लिये पानी भरने जा रही है; (तीसरा) प्रातः साढ़े आठ बजे का चित्र- स्त्री रसोई में है, चूल्हे पर हांडी रखी है, वह बैठ कर दरांती से सब्जी काट रही है, दो बालक रो रहे हैं: (चौथा) ढाई बजे दोपहर का चित्र- स्त्री कपडे में सूईं-धागे से सिलाई कर रही है; (पांचवां) साढ़े तीन बजे का चित्र- स्त्री बर्तन मांज रही है, उसके आगे बर्तनों का ढेर लगा हुआ है और पति बैठा सिगरेट का धुंआ उड़ा रहा है; (छठा) शाम के पांच बजे का चित्र- स्त्री एक हाथ से बच्चे को गोद में संभाले हुए है, दूसरे हाथ से घर में झाड़ू लगा रही है, और (सातवाँ) रात के साढ़े ग्यारह बजे का चित्र है- पति और दोनों बच्चे सोये हुए हैं, स्त्री पैंताने बैठ कर पति के पैर दबा रही है।

 

ये चित्र आज भी दलित स्त्री के जीवन के सबसे भयानक सच हैं। कुछ मुट्ठी-भर आधुनिकाओं की बात छोड़ दें, तो आज चार दशक के बाद भी स्त्री-जीवन की त्रासदी में बहुत बड़ा बदलाव नहीं आया है।


तारा देवी पाण्डेय



क्रान्तिकारी पहल

‘चाँद’ का ‘विदुषी अंक’ भारतीय महिला आन्दोलन पर केन्द्रित है। अंक की विशेषता यह है इस में एक भी रचनाकार पुरुष नहीं है, सिर्फ चित्रकारों को छोड़ कर। यह एक क्रान्तिकारी पहल है, जो ‘चाँद’ ने की थी। आज तो महिलाओं पर केन्द्रित रहने वाले किसी भी विशेषांक में आधे से ज्यादा रचनाकार पुरुष ही होते हैं। आज भी बहुत से पुरुष महिला विमर्श के विशेषज्ञ माने जाते हैं, गोया नारीवादी चेतना की लेखिकाएँ उनके सामने मायने ही नहीं रखतीं। इस अंक में गम्भीर लेखों से ले कर कहानियों और कविताओं तक की रचयिता महिलाएँ हैं। इसलिये महिलाओं के बारे में स्वयं महिलाओं की क्या सोच है, इस दृष्टि से यह अंक काफी महत्वपूर्ण है। कविताएँ सभी भावप्रवण और प्रभावशाली हैं। यह वह समय था, जब हिन्दी में छायावाद विदा हो चुका था और प्रगतिशील लेखन की बुनियाद रखी जा चुकी थी। इस अंक की कविताओं में यह परिवर्तन स्पष्ट दिखायी देता है। द्रष्टव्य हैं तारा देवी पाण्डेय की कविता ‘जीवन-गीत’ से ये पंक्तियाँ-


भूल अपने दुख सुख का राग।

अरे, मन उठ सोते से जाग।

बना ले अपना बिगड़ा भाग।

दीन दुखियों से कर ले प्रीत।


प्रगतिशील चेतना की दृष्टि से कुमारी शान्ति देवी ‘भार्गव’ का यह गीत बेहद विचारोत्तेजक है-


सुना मत कवि अतीत के गीत।

आज न होंगे अरे, हमें वे हितकर

सुखद प्रतीत।।

इतिहासों को ले कर पल में।

डूबा सिन्धु के गहरे जल में।

जो कुछ हो बस नया समझ ले।

गया पुराना बीत।


महादेवी वर्मा 



महादेवी वर्मा का एक गीत भी इस अंक में संकलित है, जिसमें वह स्त्री-वेदना का छायावादी चित्रण करती हैं-


फैलते हैं सान्ध्य नभ में भाव ही मेरे रंगीले,

तिमिर की दीपावली, हैं रोम मेरे पुलक गीले।

बन्दिनी बन कर हुई मैं

बन्धनों की स्वामिनी सी!


सम्पादकीय विचार और अन्य लेख

‘विदुषी अंक’ का सम्पादकीय लेख अद्भुत है। यह नौ पृष्ठों का लम्बा लेख है, जिसमें ‘साहित्य और उसमें स्त्रियों का स्थान’, ‘वर्तमान महिला साहित्य की विभिन्न धाराएँ’ और ‘विदुषियों का उत्तरदायित्व’ विषय हैं। इससे पता चलता है कि हिन्दी में महिला साहित्य काफी पहले अस्तित्व में आ चुका था। यदि इस दिशा में काम किया जाय, तो हिन्दी में महिला साहित्य का समृद्ध इतिहास मिल सकता है। इस अंक से इस इतिहास की कुछ झलक मिलती भी है। ‘साहित्य और उसमें स्त्रियों का स्थान’ विषय के तहत सम्पादक ने लिखा है- ‘‘साहित्य की दृष्टि से स्त्री या पुरुष के भेद की आवश्यकता नहीं और कतिपय विद्वानों का यह मत कि स्त्रियाँ श्रेष्ठ कलाकार नहीं हो सकतीं, निरर्थक ही नहीं, अनुचित भी है।’’ सम्पादक का आगे मत है- ‘‘यदि साहित्य केवल पुरुषों के विचारों की समष्टि है तो वह आधे मानव समाज के विचारों से रहित होने के कारण अपूर्ण है। यदि उसमें पुरुषों द्वारा स्त्रियों के विचार मिलेंगे भी तो वे अनुमान मात्र होने के कारण वास्तविकता से बहुत अधिक दूर होंगे।’’ 

 

‘‘वर्तमान महिला-साहित्य की विभिन्न धाराएँ’’ में सम्पादक द्वारा विभिन्न विधाओं में लिखे जा रहे महिला साहित्य पर चर्चा की गयी है। उन्होंने कविता, कहानी, उपन्यास, आलोचना और निबन्ध विधाओं में महिला लेखन का परिचय देते हुए लिखा है, ‘‘विकास का क्रम यदि सर्वतोन्मुख रहा, तो महिला-साहित्य माँ-भारती के मुकुट का उज्जवल और सबसे प्रिय मणि बन सकेगा, ऐसा मेरा विश्वास है।’’

 

‘‘विदुषियों का उत्तरदायित्व’’ में सम्पादकीय लेख आधुनिक महिला जगत की अधोगति के लिए धार्मिक अन्धभक्ति और मिथ्या आदर्शवाद में आसक्ति को मुख्य कारण मानता है और विदुषियों से उसके विरुद्ध विद्रोह करने का आह्वान करता है। लेख कहता है, ‘‘आधुनिक समस्याओं से सम्बन्ध रखने वाले साहित्य का निर्माण और प्रचार विदुषियों द्वारा ही सम्भव है।’’ 

 

सम्पादकीय लेख के बाद ‘‘एशिया का नारी-जागरण तब और अब’’ विषय पर श्रीमती रानी फूलकुँवरि साहिबा का लेख खोजपूर्ण है। उन्होंने लेख की शुरुआत रूसो के इस वाक्य से की है कि ‘‘मनुष्य स्वाधीन जन्मा, पर अब वह सर्वत्र जंजीरों से जकड़ा है।’’ उन्होंने सुमेरियन, यूरोप, चीन, जापान, जावा, टर्की, ईरान आदि देशों की स्त्रियों की स्थिति पर जानकारी दी है। उन्होंने टर्की में स्त्री-मुक्ति के लिये कमाल पाशा को श्रेय देते हुए लिखा है कि उनके कारण ही टर्किश औरतें हरम ध्वस्त कर, परदे को फाड़ कर बाहर निकलीं और चैम्बर की मेम्बर के लिये 19 महिलाएँ उम्मीदवार खड़ी हुईं, जिनमें से 17 चुनी गयीं। उन्होंने यह जानकारी भी दी है कि ‘‘जिनेवा की राष्ट्र परिषद ने स्त्रियों और बच्चों का व्यापार रोकने के लिये जो कमेटी बनायी है, उसमें एक भारतीय स्त्री भी मेम्बर है।’’ 

 

लेखिका भारत में नारी-आन्दोलन का आरम्भ 1917 से मानती हैं, जब महिलाओं के लिये मानवाधिकार की मांग ले कर शिक्षित महिलाओं का एक ‘आल इंडिया वीमेन्स डेपुटेशन’ माण्टेग्यू साहब से मिला था। 20 वीं शताब्दी के शुरू में भारत में स्त्री शिक्षा ही नगण्य थी। केवल राजे-महाराजे नवाब, जमींदार और औद्योगिक घरानों में ही कुछ स्त्रियाँ पढ़ती-लिखती थीं। इस सामन्ती समाज की शिक्षित स्त्रियों में से जो विदुषी वर्ग उभरा, उससे अभी यह अपेक्षा नहीं की जा सकती थी कि वह 19वीं शताब्दी में महाराष्ट्र में उभरे दलित-स्त्री नवजागरण के साथ अपने को जोड़ता। इस भद्रलोक को यह जरूर मालूम रहा होगा कि ज्योतिबा फुले पहले भारतीय थे, जिन्होंने 1848 में स्त्रियों के लिये जो स्कूल खोला था, वह भारत का पहला स्कूल था। इस स्कूल के लिये उन्होंने अपनी पत्नी सावित्री बाई को पढ़ाया और फिर उन्हीं को शिक्षिका बनाया। वे भारत की पहली स्त्री शिक्षिका भी थीं।

 

रानी फूलकुँवरि साहिबा अपने लेख में गर्व के साथ कहती हैं कि ‘‘वैदिक काल में नारी सब प्रकार से पुरुषों के समान अधिकार रखती थी।’’ फिर बाद में वह सब अधिकारों से वंचित कैसे हो गईं, यह उन्होंने नहीं बताया।


रामेश्वरी नेहरू


‘‘स्त्री-आन्दोलन का अन्तिम लक्ष्य’’ में श्रीमती रामेश्वरी नेहरू ने यद्यपि सामन्ती दृष्टिकोण से विचार किया है और यह माना है कि ‘‘मनुष्य-जीवन तो स्वयं एक बंधन है, जब तक प्राण है, तब तक देह का बंधन  भी है। सिवाए भगवान के, स्वाबलम्बी कौन है?’’  पर. उनका यह विचार गौरतलब है कि यह आन्दोलन पुरुषों के विरुद्ध नहीं है।

 

श्रीमती चन्द्रावती लखनपाल ने, जिन्हें ‘चाँद’ ने अपनी टिप्पणी में विदुषी समाज में अग्रगण्य लिखा है, ‘‘विधवा की सामाजिक स्थिति’’ लेख में विचारोत्तेजक सवाल उठाये हैं। वे इस अन्तर को रेखांकित करती हैं कि विधवा और विधुर की एक ही स्थिति होनी चाहिए, परन्तु इन दोनों में जमीन-आसमान का अन्तर है। वे पूछती हैं, ‘‘आखिर पुरुष तथा स्त्री के अधिकारों को परखने के लिये क्या कोई ऐसा पैमाना है, जिससे भले आदमी को यह समझाया जा सके कि क्यों पुरुष को विधुर होने पर शादी कर लेनी चाहिए और स्त्री को विधवा होने पर चिता में भस्म हो जाना चाहिए या चिन्ता की चिता में आजन्म झुलसते रहना चाहिए?’’ 1935 के कालखण्ड में इस तरह के सवाल सचमुच साहसिक और क्रान्तिकारी थे।


मार्गरेट ई. कजिन्स


इस अंक में सबसे महत्वपूर्ण लेख श्रीमती मार्गरेट ई. कजिन्स का ‘‘भारतीय महिला आन्दोलन पर एक दृष्टि’’ है। यदि मैं इस लेख को अंक की उपलब्धि कहूँ तो गलत न होगा। यह इसलिये कि मार्गरेट ई. कजिन्स ने ही अखिल भारतीय महिला कांफ्रेंस की नींव डाली थी। इसलिये, इस लेख मे 1926 में स्थापित महिला कांफ्रेंस के नौ वर्षों के इतिहास की जानकारी मिलती है। वे बताती हैं, महिला कांफ्रेंस का इतिहास बड़ा ही विचित्र है। 1926 के बड़े दिन में मद्रास में थियोसोफिकल के एक अधिवेशन में उनसे किसी ने पूछा कि तुम महिलाएँ कब तब अपनी शिक्षा के सम्बन्ध में पुरुषों पर निर्भर रहोगी? उनसे कहा गया कि इस सम्बन्ध में आन्दोलन किये बिना लड़कियों की शिक्षा की स्थिति नहीं सुधर सकती। इससे प्रेरित हो कर उन्होंने जनवरी 1927 में पूना में महिलाओं की कांफ्रेंस बुलायी, जो सफल रही। इसमें महारानी साहिबा बड़ौदा, लेडी सदाशिव अय्यर, श्रीमती रुस्तम जी फरीदून जी, मिस सूसी सोराब जी, मिसेज हमीद अली तथा काव्य-कोकिला देवी सरोजनी नायडू आदि महिलाएँ शामिल हुई थीं। इसी कांफ्रेंस में अखिल भारतीय महिला कांफ्रेंस की स्थापना हुई।

 

 

‘‘भारतीय नारी आन्दोलन की कुछ प्रमुख नेत्रियों की विचारधारा’’ भी ‘चाँद’ के इस अंक में एक महत्वपूर्ण लेख है। सम्पादकीय टिप्पणी के अनुसार उस समय अखिल भारतीय महिला कांफ्रेंस ही भारतीय स्त्रियों की प्रधान संस्था थी। इसलिये उस संस्था से जुड़ी महिलाओं के विचार आन्दोलन को समझने में सचमुच महत्व रखते हैं। इसमें बम्बई में होने वाले चतुर्थ महिला कांफ्रेंस की अध्यक्षता के आसन से सरोजनी नायडू, ग्वालियर घराने की विदुषी रानी लक्ष्मीबाई राजवाड़े, महिला कांफ्रेंस की ट्रावनकोर की शाखा-सभा की अध्यक्षा डा. मुथुलक्ष्मी रेड्डी एवं कलकत्ता विश्वविद्यालय के सीनेट की सदस्या श्रीमती पी. के. राय के विचार प्रस्तुत किये गये हैं। लेकिन इन सभी के विचार उतनी ही सीमा तक नारीवादी हैं, जितनी सीमा तक भारतीय स्त्री का मनुवादी चरित्र सुरक्षित रहता है। स्त्री-शिक्षा पर सभी ने जोर दिया है। पर, जहाँ डा. मुथुलक्ष्मी रेड्डी छुआछूत दूर करने की बात करती हैं, वहीं सरोजनी नायडू का विचार यह है- ‘‘हमारा आदर्श सावित्री है, (एक पौराणिक चरित्र, जिसने यमराज से अपने पति सत्यवान के प्राण बचाए थे), जो साहस की अवतार थी। हमारा आदर्श सीता है, जिसने उन लोगों को चुनौती दी थी, जो उसके सतीत्व पर सन्देह करते थे।’’ कहना न होगा कि सवर्ण समाज की इन महिलाओं का आन्दोलन महिला को उसी दायरे में रखने का आन्दोलन था, जो उनके लिए ब्राह्मणों ने निर्मित किया था।

 

"घूँघट का पट खोल’’ शीर्षक लेख में श्रीमती कुमारी कौशल्या पर्दे का प्रादुर्भाव भारत में मुस्लिम काल में मानती हैं। उनके अनुसार भारत में पर्दे की रीत तभी से चली। भारत के हिन्दू इतने नासमझ थे कि उन्होंने पर्दा मुसलमानों से ले लिया, पर मुसलमानों के सामाजिक भ्रातृत्व को नहीं अपनाया। लेकिन, इसी लेख में पर्दे के विरोध में दिये गये तर्क आज भी प्रभावशाली लगते हैं।


मुथुलक्ष्मी रेड्डी


एक लेख इस अंक में ‘‘भारत हितैषिणी श्रीमती एनी बेसेण्ट" पर है, जो उन पर श्रद्धांजलि स्वरूप लिखा गया है। यह लेख डा. मुथुलक्ष्मी रेड्डी के अंग्रेजी लेख का अनुवाद है। लेख में कहा गया है कि एनी बेसेण्ट का ‘‘सिद्धांत था कि जीवन-संग्राम में स्त्री और पुरुष दोनों को समान अवसर मिलना चाहिए। उनका जीवन स्वतन्त्रता, समानता तथा बन्धुत्व के लिये था।’’ किन्तु, यही भारत-हितैषिणी एनी बेसेण्ट उस समय दलित जातियों के लिये स्कूलों के दरवाजे खोलने का यह कह कर विरोध कर रही थीं कि वे गन्दे और बदबूदार होते हैं तथा उनके संसर्ग से उच्च जातियों के बच्चे प्रभावित होंगे। क्या दलित-हित भारत-हित नहीं है?

 

महिलाओं से छूतछात दूर करने की अपील श्रीमती कैलाश श्रीवास्तव ने, जो उस समय एम. एल. सी. थीं, ‘‘भारतीय नारियों का कर्तव्य’’ लेख में की है। वे लिखती हैं, ‘‘जब कभी हमको समय मिले, हम उनके (अछूतों के) घरों में जायें और ऐसी चेष्टा करें, जिससे वे स्वच्छता से रहना सीखें।’’ इन विदुषियों को यह समझना क्यों मुश्किल रहा कि स्वच्छता गन्दे पेशों से मुक्ति में है? अछूतों को शिक्षा और स्वच्छ पेशों से जोड़ने की बात उनके दिमागों में क्यों नहीं आयी?

 

‘विदुषी अंक’ का एक स्तम्भ ‘विविध विषय’ है, जो सम्भवतः पाठकों के पत्रों का मंच प्रतीत होता है। इसमें यशवन्ती देवी द्विवेदी का लेख ‘‘क्या कन्याओं को शिक्षा देना हानिकर है?’’ कुमारी शान्ति देवी अरोड़ा का लेख ‘‘स्त्रियों में आभूषण का रोग’’, श्रीमती होमवती का लेख ‘‘पाश्चत्य शिक्षा और हमारा समाज’’, कुमारी बसन्त साहनी का लेख ‘‘सहशिक्षा’’, मित्रा देवी दीक्षित का लेख ‘‘भारतीय स्त्रियों का स्वास्थ्य और पुरुषों का प्रमाद’’, लक्ष्मी बहिन का ‘‘राजनीति और महिलाएँ’’, कुमारी अमृतलता का ‘‘क्या पढ़-लिख कर लड़कियाँ कुमारी ही रहेंगी?’’, रामदुलारी मिश्रा का ‘‘रीति-युग पर एक दृष्टि’’, कुमारी विद्या भार्गव का ‘‘आधुनिक सौन्दर्य-प्रेम’’ तथा शान्ति कुमारी ‘अग्रवाल-भूषण’ का लेख ‘‘भारतीय स्त्रियों में अन्धविश्वास’’ महत्वपूर्ण लेख हैं। केवल ‘रीति-युग’ और ‘सौन्दर्य-प्रेम’ को छोड़ कर सभी लेख स्त्री-विषयक ही हैं। यहाँ कुमारी बसन्त साहनी के लेख ‘‘सहशिक्षा’’ का उल्लेख करना जरूरी है, क्योंकि यह लगभग एक सदी पहले की स्त्री सोच को हमारे सामने रखता है। यह लेख लड़के-लड़कियों के एक साथ एक ही कक्षा में बैठ कर पढ़ने का विरोध् करता है। लेखिका कहती है, ‘‘मेरी समझ में कोई भी समझदार मनुष्य सहशिक्षा के पक्ष में अपनी सम्मति न देगा।’’ इसका कारण, लेखिका के अनुसार यह है कि ‘‘लड़कियों को गृहदेवी बनना है और पुरुषों का स्थान घर के बाहर है।’’ लेखिका का मत यहाँ तक है कि ‘‘सहशिक्षा चरित्र की महान शत्रु है।’’ 

 

इससे जाहिर होता है कि तीस के दशक की हिन्दू महिला अभी मनु की कारा से बाहर निकलने को तैयार नहीं थी। हालांकि इस कारा को तोड़ने के लिये स्त्री ने अपना संघर्ष शुरू कर दिया था। पर, ‘चाँद’ के ‘विदुषी अंक’ ने नारी आन्दोलन को जिस प्रखरता से 1935 में उठाया था, वह अद्भुत है।

------------------

टिप्पणियाँ

  1. विचारणीय आलेख जो उस समय की तथाकथित विदुषियों की मनःस्थिति को उजागर करता है। दुर्भाग्य यह कि इसकी संपादक महादेवी वर्मा थीं।

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं