समकालीन रूसी कवि विचिस्लाफ़ कुप्रियानफ़ की कविताएँ
विचिस्लाफ़ कुप्रियानफ़ |
23 दिसम्बर 1939 को रूस के साइबेरियाई नगर नवासिबीर्स्क में पैदा हुए विचिस्लाफ़ कुप्रियानफ़ आज के दौर में रूस के प्रमुख कवियों में से एक हैं। विचिस्लाफ़ कुप्रियानफ़ से मेरा परिचय 1982 के दिसम्बर के महीने में एक अन्य प्रमुख कवि अनतोली परपरा ने कराया था। उसी दिन उन्होंने मुझे अपना पहला कविता-संग्रह (1981) ’कवि के मुँह से’ भेंट किया था। बाद में कुप्रियानफ़ से मेरी गहरी दोस्ती हो गई। धीरे-धीरे बड़े रूसी कवि के रूप में उनका विकास होता गया। तब वे रूस में मुक्त छन्द कविता के प्रवर्तक थे। रूस में आज भी कविता छन्द में लिखी जाती है। बरीस बूरिच और कुप्रियानफ़ ने मुक्त छन्द में कविता लिखने की शुरूआत की थी। ’पहली बार’ के पाठकों के लिए पेश हैं विचिस्लाफ़ कुप्रियानफ़ की कुछ मुक्त छन्द में लिखी गई कविताएँ। - अनिल जनविजय
रूसी कवि विचिस्लाफ़ कुप्रियानफ़ की कविताएँ
हिन्दी अनुवाद : अनिल जनविजय
सफ़ेद लबादा
कवि को दीजिए सफ़ेद लबाद
छद्म आवरण
जब आक्रमण करती है बर्फ़ीली ठण्ड
गुप्त
टोही है वह
शत्रु की ख़बर लाता है
देता है आशा की गुनगुनी गरमाहट
फूलों की गुप्त भाषा में
कवि
को दीजिए सफ़ेद लबादा
वह उपचारक है, चिकित्सक है, विरला विशेषज्ञ है
आत्मा का रक्षक है
अकेला ठीक कर सकता है जो
मानव के टूटे हुए पंख
यह
वायदा करने की
जल्दी मत कीजिए
कि आप उसे देंगे इनाम
कवि
को दीजिए सफ़ेद लबादा
उसका श्रम
माँगता है सफ़ाई
विचिस्लाफ़ कुप्रियानफ़ |
पुरुष का हाथ
पुरूष का हाथ
स्त्री और बच्चे की हथेलियाँ थाम
उठता है पक्ष में या विरोध में
और
विरोध में ठहर कर
निर्माण करता है
क़िताबों के पन्ने पलटता है
सहारा देता है स्वप्नरहित सिर को
फिर ढूँढ़ता है दूसरी हथेली
सम्बन्ध के लिए
समय की आत्मकथा
मेरे बारे में हमेशा कहा जाता है कि
मैं नहीं हूँ
पर मैं चलता रहता हूँ हमेशा
मैं
उनकी प्रतीक्षा नहीं करता
जो मुझे ढूँढ़ नहीं पाते
उनके पास से दूर चला जाता हूँ
जो चाहते हैं मुझे मूर्ख बनाना
ठहर
जाता हूँ मैं उनके पास
जिनके पास महसूस करता हूँ अपनापन
जिनके प्यार भरे दिल में जगह है मेरे लिए
और मेरी सुइयों की क़द्र है
आख़िर
मेरी पहुँच में है
सब कुछ
विचिस्लाफ़ कुप्रियानफ़ |
दम्भ
हर रात मृतक
उठ खड़ा होता है क़ब्र से
और छू कर देखता है क़ब्र का पत्थर
कहीं
किसी ने
मिटा तो नहीं दिया
पत्थर पर से उसका नाम
गायन पाठ-1
आदमी ने ईजाद किया पिंजरा
पंखों से पहले
और अब पिंजरों में गाते हैं पंख
गीत स्वतन्त्र उड़ान का
जबकि
पिंजरों के सामने
गाते हैं पंखहीन
पिंजरों के न्याय के गीत
पक्षी
और पिंजरा
गा सकते हैं एक साथ
लेकिन उड़ नहीं सकते
उड़ सकते हैं एक साथ
सिर्फ़ पंख और आकाश हीद
गायन पाठ-2
पक्षी गा रहे हैं
हम लोगों से डरते हैं
और हम गाते हैं
डर के मारे
मछलियाँ
गा रही हैं
हम लोगों से डरती हैं
और हम चुप हैं
डर के मारे
जानवर
गा रहे हैं
हम लोगों से डरते हैं
और हम गुर्रा रहे हैं
डर के मारे
लोग
गा रहे हैं
हम जानवर नहीं हैं
डरिए नहीं
पर
भाग गए सब
उड़ गए इधर-उधर
तैर गए इधर-उधर
डर के मारे
और लोग गा रहे हैं
अमेरिका
सागर के उस किनारे पर
रहने वाले
कुछ
अदृश्य लोग
शोर कर रहे हैं
बहुत ज़्यादा
साँप
अन्त नहीं है उसका
ठहर जाए कहीं
और पंख नहीं हैं
कि उड़ जाए
धीरे-धीरे
सरकता है वह
छाती से छाती पर
तुम
तुम जब गुज़रती हो पास से
तुम्हारे कन्धे पर होती है चिड़िया
या तितली
या फिर कोई सितारा
या बोझ
तुम्हारे
इन ख़ूबसूरत कंधों को
छू सकता है अपनी हथेलियों से
सिर्फ़ तुम्हारा पति
या प्रेमी
बाक़ी
दूसरे लोग
बस, देख सकते हैं इन्हें
या सुन सकते हैं इनके बारे में
उन लोगों से
जो गुज़र चुके हैं कभी
तुम्हारे निकट से
ख़ून का रिश्ता
मैं कुछ देखना नहीं चाहता
मैं कुछ सुनना भी नहीं चाहता
और कुछ कहूँगा भी नहीं
होंठ
काटता हूँ अपने
महसूस करता हूँ
ख़ून का स्वाद
आँखें
बन्द करता हूँ
देखता हूँ रंग
ख़ून का
कान बन्द करता हूँ
सुनता हूँ ख़ून की आवाज़
नहीं, सम्भव नहीं है
ख़ुद में ही सिमट जाना
और तोड़ लेना इस दुनिया से
ख़ून का नाता
सिर्फ़
एक ही रास्ता है
हमेशा हम
बोलते और सुनते रहें
सुनते और बोलते रहें
शब्द बसे हैं हर किसी के ख़ून में
अनिल जनविजय |
सम्पर्क :
E-mail : aniljanvijay@gmail.com
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 10.12.2020 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा| आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएं"दम्भ" क्षणिका तो लाजवाब।
शानदार कविताये, जानदार अनुवाद। प्रस्तुत करने का शुक्रिया।
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