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मां की मृत्यु पर कविताएं

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  मां, एक ऐसा शब्द जो आकार में बहुत छोटा है लेकिन जिसकी व्याप्ति असीम है। जब तक रहती है तब तक अपनी छाया से सबको सुरक्षित रखती है। लेकिन जब वह नहीं रहती, तब उसकी कमी को कोई भी पूरा नहीं कर पाता। दुनिया के प्रायः सभी कवियों ने मां पर कविताएं लिखी हैं।लेकिन मां की मौत पर जब मैं अंतर्जाल पर कविताएं ढूंढने लगा तो कुछ ही कविताएं मिलीं। अब जब कि हमारे सिर पर मां की छाया हट चुकी है, इस दुःख और विषाद को महसूस कर सकता हूं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं मां की स्मृति में लिखी गई कविताएं। मां की मृत्यु पर कविताएं केदार नाथ सिंह  जैसे दिया सिराया जाता है केदार नाथ सिंह कल माँ को सिरा आया भागीरथी में  कई दिनों से गंगा नहाने की  कर रही थी ज़िद  सो, कल भरी दोपहर में  जब सो रहा था सारा शहर कोलकत्ता  मैंने उसे हथेलियों पर उठाया  और बहा दिया लहरों पर  जब वह बहती हुई  चली गयी दूर तो ध्यान आया  हाय, ये मैंने क्या किया  उसके पास तो वीजा है न पासपोर्ट  जाने कितना गहरा-अथाह जलमार्ग हो  जल के कस्टम के जाने कितने पचड़े  कुछ देर इस उम्मी...

संतोष पटेल का आलेख 'ज़ुबिन गर्ग : संगीत के सम्राट और मानवता के दूत'

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  ज़ुबिन गर्ग जुबिन गर्ग (18 नवम्बर 1972 – 19 सितम्बर 2025) असम के प्रख्यात गायक थे। वे संगीत निर्देशक, गीतकार, संगीतकार, फिल्म अभिनेता, निर्माता, निर्देशक, वादक, कवि के साथ साथ सामाजिक कार्यकर्ता भी थे। उन्होंने असमीया, हिन्दी, बंगाली, बोड़ो, राजबंशी (कमतापुरी/गोलपारिया), चाय बागानी भाषा, हाजोंग, मिशिंग, कार्बी, गारो, राभा, डिमासा, आहोम, देउरी, नेपाली, भोजपुरी, विष्णुप्रिया मणिपुरी, ककबरक, उड़िया, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, अंग्रेजी, मलयालम, मराठी, संस्कृत, सिन्धी, उर्दू आदि अनेक भाषाओं में गीत गाए।  जुबिन गर्ग ने तीन साल की उम्र से ही गाना शुरू कर दिया था। उनकी पहली गुरु उनकी माँ थीं, जहाँ से उन्होंने गाना सीखा और फिर उन्होंने पंडित रॉबिन बनर्जी से 11 साल तक तबला सीखा। गुरु रमानी राय ने उन्हें असमिया लोक से परिचित कराया। गर्ग अपने स्कूल के दिनों से ही गीतों की रचना कर रहे थे और गायकों को गाने के लिए देते थे। 19 सितम्बर 2025 को सिंगापुर में स्कूबा डाइविंग दुर्घटना के बाद जुबीन गर्ग का निधन हो गया। पानी के नीचे उन्हें सांस लेने में दिक़्क़त हुई, वहाँ से बचाने के बाद कार्ड...

दूधनाथ सिंह का आलेख 'महादेवी और फ़ैज़'

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  फ़ैज़  फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ क्रांतिकारी ही नहीं एक लोकप्रिय शायर थे। उनकी क्रांतिकारी रचनाओं में इंक़लाबी और रूमानी भाव के मेल के लिए उनको दुनिया भर में जाना जाता है। सेना, जेल तथा निर्वासन में जीवन व्यतीत करने वाले फ़ैज़ ने उर्दू शायरी में आधुनिक तरक्कीपसंद रचनाओं को सबल करने का काम किया। जेल के दौरान लिखी गई उनकी कविता 'ज़िन्दान-नामा' को बहुत पसंद किया गया। उनके द्वारा लिखी गई पंक्ति  'और भी ग़म हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा' भारत-पाकिस्तान की जनता के लिए आज लोकप्रिय मुहावरा बन चुकी है। 1951 से 1955 के बीच क़ैद के दौरान लिखी गई उनकी कविताएँ बाद में बहुत लोकप्रिय हुईं और उन्हें "दस्त-ए-सबा (हवा का हाथ)" तथा "ज़िन्दान नामा (कारावास का ब्यौरा)" नाम से प्रकाशित किया गया। इस रचना में उस वक़्त के शासक के ख़िलाफ़ साहसिक लेकिन प्रेम रस में लिखी गई शायरी आज भी याद की जाती है। राजनीतिज्ञों से इतर शायरों की अपनी एक दुनिया होती है। भले ही फ़ैज़ पाकिस्तान में रहते रहे हों, उनकी लोकप्रियता हिन्दुस्तान में भी अच्छी खासी थी। वे 1982 में हिन्दुस्तान पहुंचे और इस क्र...