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कँवल भारती का आलेख ‘चाँद’ का विदुषी अंक'

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  कँवल भारती राष्ट्रीय आन्दोलन के दौर में जिन हिन्दी पत्रिकाओं ने जनता को जागृत करने में विशिष्ट भूमिका निभाई थी उसमें ‘चाँद’ का नाम अग्रणी है। ‘चांद’ पत्रिका की ऐतिहासिक भूमिका यह थी कि उस दौर में उसके कुल 29 विशेषांक निकले। सारे विशेषांक लीक से अलग हट कर नए प्रतिमान स्थापित करने वाले थे।  ‘चाँद’ के फांसी अंक से कौन परिचित नहीं है। इसके अलावा उसके प्रवासी अंक, अछूत अंक, पत्र अंक, मारवाडी अंक और विदुषी अंक और वैश्या अंक भी काफी चर्चित हुए। कँवल भारती को सफाई में बाहर फेंक दी गईं कुछ गली-सड़ी मैगजीनों में ‘चाँद’ का विदुषी अंक अंक प्राप्त हुआ। कँवल जी ने इस अंक पर एक विहंगम दृष्टि डालते हुए एक आलेख लिखा है जो महत्त्वपूर्ण है। दुर्भाग्यवश उन्हें चांद के इस अंक के कुछ शुरुआती पन्ने नहीं मिले जिससे अंक के सम्पादक को ले कर वे स्पष्ट नहीं दिखते। इस सन्दर्भ में जब मैंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रोफेसर आशुतोष पार्थेश्वर से सम्पर्क किया तो उन्होंने बताया कि विदुषी अंक का सम्पादन महादेवी वर्मा ने किया था। बहरहाल आज कँवल भारती का जन्मदिन है। उन्हें जन्मदिन की बधाई देते हुए आज पहली बार प...

विद्या निवास मिश्र का निबन्ध 'बसन्त आ गया पर कोई उत्कंठा नहीं'

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  विद्या निवास मिश्र ऋतुओं में अल्हड़ होने के कारण ही बसन्त को ऋतुराज कहा गया है। कुछ भी अधिक नहीं। सबमें एक साम्य भाव दिखाई पड़ता है। न अधिक ठंड, न अधिक गर्म। मौसम सुहाना हो जाता है। यह नवागत का स्वागत करता है। नव पल्लव पुराने की जगह लेने के लिए आतुर हो जाते हैं। हमारे यहां जो अधिकांश पर्व त्यौहार हैं वे ऋतुओं पर ही आधारित हैं। बसन्त पंचमी का पर्व ऐसा ही है। बच्चों को इसी दिन विद्यारम्भ कराया जाता है। विद्यानिवास मिश्र के ललित निबन्ध अपने आप में बेजोड़ हैं। इस बसन्त को ले कर ही उन्होंने अपना चर्चित निबन्ध लिखा था 'बसन्त आ गया पर कोई उत्कंठा नहीं'। सभी को बसन्त की बधाई एवम शुभकामनाएं। आइए इस अवसर पर आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं विद्या निवास मिश्र का निबन्ध 'बसन्त आ गया पर कोई उत्कंठा नहीं'। 'बसन्त आ गया पर कोई उत्कंठा नहीं' विद्या निवास मिश्र दो हजार वर्ष पूर्व किसी प्राकृत कवि ने लिखा— दीसइणं चूअमउलं अत्ता ण अ वाई मलअगन्धवहो। पत्तं वसंतमासं साहइ उक्ककण्ठिअं चेअम्॥ दीखते न बौर कहीं आम के  छू नहीं पाई अभी गंधलदी दखिना पवन। पर अकुलाए चित्त ने साखी भरी  सखि वसंत आ ग...

यादवेन्द्र का आलेख 'धूप हड़पने का नृशंस खेल'

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नवीन कुमार नैथानी दुर्भाग्यवश आज  प्रकृति प्रदत्त चीजों पर कुछ उन मुट्ठी भर लोगों का नियन्त्रण बना हुआ है जो दुनिया का नियंता होने का झूठा भ्रम पाले हुए हैं।  होना तो यह चाहिए कि प्रकृति प्रदत्त चीजों पर सभी व्यक्तियों का समान रूप से अधिकार हो। लेकिन मुट्ठी भर लोग अपनी तरह से नीतियां निर्धारित कर इस पर हमेशा के लिए काबिज से हो गए हैं। लेकिन ऐसे लोग भूल जाते हैं कि दुनिया में किसी को भी अमरत्व प्राप्त नहीं है। जल, जंगल, जमीन, धूप, हवा, आसमान सबके लिए होना चाहिए। साहित्यकार हमेशा जनता के पक्ष में खड़ा होता है। नवीन कुमार नैथानी अपनी कहानी 'धूप' के माध्यम से उस षडयंत्र का पर्दाफाश करते हैं जो लूट खसोट करने वाले बेशर्मी के साथ रोजाना कर रहे हैं।  आजकल पहली बार पर हम प्रत्येक महीने के पहले रविवार को  यादवेन्द्र का कॉलम   'जिन्दगी एक कहानी है'  प्रस्तुत कर रहे हैं जिसके अन्तर्गत वे किसी महत्त्वपूर्ण रचना को आधार बना कर अपनी बेलाग बातें करते हैं। कॉलम के अंतर्गत यह चौथी प्रस्तुति है।  इस बार अपने कॉलम के अन्तर्गत यादवेन्द्र ने नवीन कुमार नैथानी की कहानी ...

कुमार वीरेन्द्र का आलेख "अतीत-आतुरता से मुक्त ‘आज के अतीत’"

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  आत्मकथा लिखना किसी भी लेखक के लिए एक चुनौती की तरह होता है। इस विधा में लेखक से यह अपेक्षा की जाती है कि वह वस्तुनिष्ठ हो कर अपने बारे में, अपने लेखन के बारे में बात रखे। इस क्रम में उसे आत्म-मोह से अलग हो कर आत्म-आलोचना की राह पर चलते हुए लेखन करना पड़ता है।  प्रेमचन्द ने  1932 में अपनी पत्रिका  ‘हंस’ का आत्मकथांक निकाला, जो काफी चर्चित हुआ। इन  लेखकों को अपने जीवन से जुड़े गोपन प्रसंगों या वर्जित विषयों पर खुल कर लिखने-बताने में कोई भी झिझक नहीं हुई। इन प्रसिद्ध आत्मकथाओं में महात्मा गाँधी की ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’, हरिवंश राय बच्चन की ‘क्या भूलूँ क्या याद करूँ’ और पांडेय बेचन शर्मा उग्र’ की ‘अपनी खबर’ आदि प्रमुख हैं।  भरत सिंह और कुमार वीरेन्द्र  के सम्पादन में हाल ही में लोकभारती, इलाहाबाद से एक महत्त्वपूर्ण किताब आई है 'आत्मकथा के इलाके में'। इस किताब में कुमार वीरेन्द्र का भी एक आलेख है जो भीष्म साहनी की आत्मकथा ' आज के अतीत' पर केन्द्रित है। इस महत्त्वपूर्ण आलेख को हमें टाइप फॉर्म में अवनीश यादव ने उपलब्ध कराया है। हम उनके प्रति आभार व्यक्त...

सेवाराम त्रिपाठी का आलेख 'व्यंग्य लेखन 'चोक' हो गया है'

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  सेवाराम त्रिपाठी आज हम एक अजीब दौर में जी रहे हैं। ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ लोग धूल फांकते हैं जबकि जोर जुगत करने वाले लोग तगमे और सम्मान हासिल करते हैं। इसके लिए सत्ताधारी लोगों की कृपा हासिल करनी होती है। आज स्थिति इतनी धुंधली हो गई है कि अगर किसी वास्तविक व्यक्ति को सम्मान दिया  जाता है तो उस पर भी सन्देह उठ खड़ा होता है। इस क्रम में आलोचक सेवाराम जी को परसाई जी का कहा ध्यान आया है - “लेखक का शंकालु मन है। शंका न हो तो लेखक कैसा? मगर वे भी लेखक हैं जिनके मन में न शंका उठती है और न सवाल।” (हरिशंकर परसाई - 'अपनी-अपनी बीमारी') वाकई इन पंक्तियों को विराट परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए, किसी चुहलबाज़ी में नहीं। व्यंग्य जैसी गम्भीर विधा में जोर जुगत से आहत सेवाराम जी का यह आलेख महत्त्वपूर्ण है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं सेवाराम त्रिपाठी का आलेख 'व्यंग्य लेखन 'चोक' हो गया है'। "व्यंग्य लेखन 'चोक' हो गया है" सेवाराम त्रिपाठी  “उसे मालूम है कि शब्दों के पीछे  कितने चेहरे नंगे हो चुके हैं और हत्या अब लोगों की रुचि नहीं - आदत बन चुकी है” - धूमिल  ...