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यादवेन्द्र का आलेख 'ऐसे अनेक कुत्तों से घिरे हुए हैं हम'

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  मनोज कुमार पाण्डेय  आजकल अक्सर यह चिंताजनक खबर आम तौर पर देखने को मिलती है कि कुत्तों के झुण्ड द्वारा किसी आदमी पर अचानक हमला कर नोच नोच कर मार डाला गया। कुत्तों द्वारा अप्रत्याशित रूप से हमला अच्छे खासे निडर व्यक्ति को डरा देती है। कुत्तों को हमने पालतू तो बना लिया लेकिन उनके आक्रामक व्यवहार को आज तक हम कहां नियंत्रित कर पाए? इस सन्दर्भ में अपने कॉलम के अन्तर्गत यादवेन्द्र जी ने मनोज कुमार पाण्डेय की कहानी 'उसी के पास जाओ, जिसके कुत्ते हैं' का जिक्र किया है। इस कहानी में मनोज कुत्तों के हवाले से उस पूरी व्यवस्था की आक्रामकता का जिक्र करते हैं, जिनको निर्बल आम आदमी को राहत देने के लिए बनाया गया था। पुलिस प्रशासन से हारा हुआ आम आदमी इस क्रम में अदालत जाता है लेकिन जान बचाने की गुहार लगाते आदमी को कोर्ट यह आदेश देती है कि 'वह पहले कुत्तों के मालिक का पता करे। इसके बाद थ्रू प्रॉपर चैनल आए। वह तत्काल अदालत से जाए और कोर्ट का कीमती वक्त जाया मत करे।' वह आम आदमी पाता है कि वह चारो तरफ से उन आक्रामक कुत्तों से घिरा हुआ है जो उसे नोच खाने पर आमादा हैं। यह कहानी उस व्यवस्था पर...

प्रचण्ड प्रवीर द्वारा की गई समीक्षा 'किस्सागोई का अनूठा आयाम रचती किताब कई चाँद थे सर-ए-आसमाँ'

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  2010 में शम्सुर्रहमान फारुकी का एक क्लासिकल उपन्यास प्रकाशित हुआ 'कई चाँद थे सर-ए-आसमाँ'। प्रकाशित होने के साथ ही इस किताब ने अपने कथ्य और शिल्प के दम पर पाठकों को आकर्षित किया। मूलतः उर्दू में लिखे गए इस उपन्यास में फारुकी का बेजोड़ गद्य दिखाई पड़ता है। चर्चित अनुवादक नरेश नदीम ने अनुवाद के दायरों के साथ ही इसका हिन्दी अनुवाद किया। यह अनुवाद भी खूब पढ़ा गया। वजीर खानम और उसके जीवन के हवाले से उन्नीसवीं सदी के भारत के सामाजिक, सांस्कृतिक जीवन और अराजकताओं के बारे में हमें महत्त्वपूर्ण जानकारियां प्राप्त होती हैं। इस उपन्यास का वितान सन् 1792 से सन् 1856 तक की घटनाओं के आधार पर बिना गया है। प्रचण्ड प्रवीर इस उपन्यास का मूल्यांकन करते हुए लिखते हैं 'कई चाँद थे सर-ए-आसमाँ' में आधुनिकता के नाम पर कहा जा सकता है कि यह लौकिक आख्यान ही है, जिसमें उन्नीसवीं सदी की दिल्ली और उसके रईसों का रहन-सहन चित्रित है। उस समय के शायर - मिर्जा गालिब, जौक, मोमिन खाँ मोमिन, दाग़ देहलवी का जीवन और समाज कैसा था। वे कई बार कहानी में पात्र बन कर उपस्थित भी होते हैं। किन्तु आधुनिकता के बड़े मूल्...

सुप्रिया पाठक का आलेख 'प्रेमचंद की स्त्रियाँ और नवजागरण काल'

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  इस बात में कोई दो राय नहीं कि ब्रिटिश औपनिवेशिकता ने भारत का भरपूर आर्थिक शोषण किया लेकिन यह भी सच है कि इसने भारतीय परिवेश को बदलने का वह महत्त्वपूर्ण कार्य किया जिसने उसे सही मायनों में आधुनिकता की तरफ उन्मुख किया। इस क्रम में साहित्य में भी कई महत्त्वपूर्ण बदलाव आए।  प्रेमचंद के लेखन में  नवजागरणकालीन प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है जिसके अन्तर्गत वे स्त्रियों को पुरुषों के बराबरी के स्तर पर रखते हैं। सुप्रिया पाठक अपने आलेख में लिखती हैं ' प्रेमचंद अपनी रचनाओं में महिला चरित्रों को कर्म, शक्ति और साहस के क्षेत्र में पुरुष के समकक्ष प्रस्तुत करते हैं पर महिला की नैसर्गिक अस्मिता, गरिमा और कोमलता को वो क्षीण नहीं होने देते। प्रेमचंद का साहित्य उन तमाम आधुनिक महिला सशक्तिकरण के चिंतको के लिये उदाहरण प्रस्तुत करता है। प्रेमचंद की रचनाओं में समकालीन भारत की गतिशील सामाजिक-राजनीतिक स्थिति के संदर्भ में महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर अपनी समझ प्रस्तुत करने के लिए उनके पात्रों की मानसिक प्रक्रियाओं में मनोवैज्ञानिक अंतर्दृष्टि निहित है। प्रेमचंद समाज में उदारवादी और रूढ़िव...

विनोद शाही का आलेख 'मिथक से इतिहास तक'

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  डी. डी.  कोसांबी   इतिहास साक्ष्यों के आधार पर ही आगे बढ़ता है। लेकिन सवाल यह उठता है कि उस समय के इतिहास के बारे में कैसे जाना जाए, जिसके लिए कोई आधारभूत स्रोत ही उपलब्ध नहीं हैं। डी. डी. कोसांबी ने इसके लिए एक नई युक्ति निकाली और उन मिथकों के पास गए जिसकी हमारी भारतीय धार्मिक परम्परा में बहुतायत है। मिथकों का इतिहास की निर्मित के लिए इस्तेमाल करना खतरे से भरे राह पर चलने जैसा था लेकिन कोसांबी ने तार्किक व्याख्याओं के आधार पर इनका विश्लेषण करते हुए ऐतिहासिक स्रोत बना लिया। भारतीय इतिहास के क्षेत्र में यह सर्वथा नवीन प्रयोग था। वैसे भी मानव जाति के ज्ञात इतिहास से और पीछे की ओर झांकने के लिए मिथक से बेहतर कोई उपकरण नहीं। अपने इस विश्लेषण के आधार पर उन्होंने 'मिथक और यथार्थ' जैसी महत्त्वपूर्ण किताब लिखी। इस किताब को लिखने के लिए उन्हें एक लंबा वैचारिक सफर तय करना पड़ा। इतिहास लेखन के इस पक्ष को हम उनकी मृत्यु से 4 वर्ष पूर्व प्रकाशित जिस महत्वपूर्ण किताब में सर्वाधिक मुखर होता पाते हैं, वह यही किताब है। आज 31 जुलाई को डी. डी.  कोसांबी  के जन...