रूचि भल्ला की कविताएँ
रूचि भल्ला |
परिचय
नाम : रुचि भल्ला
जन्म: 25 फरवरी 1972 इलाहाबाद
प्रकाशन : पत्र-पत्रिकाओं में कविता, कहानी, डायरी प्रकाशित
कहने के लिए और अधिकृत रूप से भी आज 'अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस' है। दिवस है तो स्वाभाविक रूप से दिवस के तमाम ताम-झाम होंगे। बड़ी-बड़ी क्रान्तिकारी सैद्धांतिक बातें की जाएँगी। जो दकियानूसी हैं वे भी आज के दिन थोडा उदार हो जाएँगे। लेकिन महिलाओं के प्रति पुरुष मानसिकता ले दे कर वही पुरातन ही बनी रहेगी। आधी आबादी होने के बावजूद आज भी महिलाएँ जैसे इस पूरी दुनिया में दोयम दर्जे की नागरिक हैं। कहना न होगा कि अपनी मुक्ति के लिए प्रयास इन्हें खुद करना होगा। किसी भी मसीहा से कोई उम्मीद नहीं की जा सकती क्योंकि इस दुनिया में सबको अपनी लडाईयाँ खुद लडनी होती है। इसी क्रम में हम पहली बार पर रूचि भल्ला की कविताएँ प्रस्तुत कर रहे हैं। रूचि की कविताएँ पढ़ते हुए हमें खुद ही बोध हो जाएगा कि महिलाओं के संदर्भ में स्थिति क्या और कैसी है। हाँ, इसके लिए उनकी कविताओं की तह में जाना पड़ेगा। रूचि ने अपना बचपन इलाहाबाद में बिताया है। इसलिए इलाहाबाद उनके जीवन में कुछ इस तरह नत्थी है कि उसके बिना 'रूचि' शब्द तक अधूरा-अधूरा सा लगने लगता है। मैंने खुद रूचि को बड़े उल्लास के साथ इलाहाबाद को जीते हुए देखा है। उनकी कविताओं में अगर बार-बार इलाहाबाद अनायास ही चला आ रहा है तो यह यूँ ही नहीं है। आइए आज 'अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस' के मौके पर पढ़ते हैं रूचि भल्ला की कुछ नवीनतम कविताएँ।
रूचि भल्ला की कविताएँ
भूरा साँप
जबकि कलकत्ता कभी नहीं गई
फिर भी चली जाती हूँ बेलूर मठ
बेलूर मठ को मैंने देखा नहीं है
छुटपन में पढ़ा था किसी किताब में
जब भी लेती हूँ उसका नाम
थाम लेती हूँ बचपन की उंगली
पाती हूँ खुद को स्मोकिंग वाली गुलाबी
फ़्राक में
जो सिली थी अम्मा ने प्रीतम सिलाई
मशीन से
सात बरस की वह लड़की दौड़ते हुए
इलाहाबाद से चली आती है मेरे पास
जैसे पिता के दफ्तर से लौटने पर
खट्ट से उतर जाती थी घर की सीढ़ियाँ
जा लगती थी पिता के गले से
जैसे महीनों बाद लौटे हों पिता
सात समन्दर पार से
उम्र के चवालीसवें साल में
कस्तूरी की तरह तलाशती है अब
अपने बालों में उस कड़वे तेल की गंध
को
जब सात बरस में कहती थी अम्मा से
बंटे सरीखी दो आँखें बाहर निकाल कर
"और कित्ता तेल लगाओगी अम्मा
भिगो देती हो चोटी में बंधे
फीते के मेरे लाल फूल"
लाल फूलों से याद आता है
दादी कहती थीं तेरी चोटी में दो गुलाब
तेरे गालों में दो टमाटर हैं
बात-बात पर तुनकती लड़ती चिढ़ाती
चालाकी से दादी को लूडो में हराती वह
लड़की
अब रोज़ खुद हार जाती है
जीवन के साँप-सीढ़ी वाले खेल में
सौ तक जाते-जाते उसे काट लेता है हर
रोज़
निन्यानबे नंबर का भूरा साँप
वह साँप से डर जाती है
डर कर छुप जाना चाहती है
इलाहाबाद वाले घर के आँगन में
जहाँ माँ, पिता और दादी बैठा करते थे
मंजी पर
देते थे घड़ी-घड़ी मेरे नाम की आवाज़
बहुत सालों से मुझे अब किसी ने
उस तरह से पुकारा नहीं
मैं उस प्रेम की तलाश में
इलाहाबाद के नाम को जपती हूँ
जैसे कोई अल्लाह के प्यार में फेरता
है माला
इलाहाबाद को मैं उतना प्यार करती हूँ
जितना शीरीं ने किया था फ़रहाद से
कार्ल मार्क्स ने किया था अपनी जेनी
को
कहते हुए -
मैं तुम्हें प्यार करता हूँ मदाम!
उससे भी ज्यादा जितना वेनिस के मूर ने
किया था
मैं इलाहाबाद को ऐसे प्यार करती हूँ
जैसे नाज़िम हिकमत कहते हैं प्रेम का
स्वाद लेते हुए
प्रेम जैसे रोटी को नमक में भिगो कर
खाना हो
मैं नाज़िम हिकमत से मिलना चाहती हूँ
बतलाना चाहती हूँ
कि इस्तानबुल में जैसे गहराती है शाम
उससे भी ज्यादा साँवला रंग होता है
इलाहाबाद का प्रेम में
जब संगम पर फैलती है साँझ की चादर
तुम नहीं जानोगे नाज़िम
तुमने कभी चखा जो नहीं है
इलाहाबाद को मीठे अमरूद की तरह
मेरे दाँत के नीचे आज भी दबा हुया है
अमरूद का मीठा एक बीज
कभी लौटना नाज़िम दुनिया में
मैं दिखलाऊँगी तुम्हें
सात बरस की बच्ची का टूटा हुया वह दूध
का दाँत
जिसे आज भी रखा है
मुट्ठी में संभाल कर इलाहाबाद ने
प्रेम वहाँ भी मिला
मैं तलाशती रही प्रेम को
कोकिला के कंठ में
चाँद के सीने में
नाज़िम हिकमत की कविता
बटालवी की नज़्म
लैला की आँखों
हीर के फ़सानों में
भगत सिंह के बसंती चोले में
पाश के शहर बरनाला में
संगम के तैरते जल में भी तलाशा
चरणामृत के तुलसी दल में भी खोजा
तोता राम कुम्हार के चाक पर भी मिला
प्रेम
हरबती के रोट में भी चखा मैंने प्रेम
का स्वाद
जितना मिला प्यास बढ़ती गई
एक उम्र काट दी प्रेम के पीछे
चढ़ाती रही कभी मज़ार पर चादर
मंदिर में भी खोजा पत्थर की मूर्ति
में
प्रेम वहाँ भी मिला जबरेश्वर मंदिर के
पिछवाड़े वाली दीवार के सहारे बैठा
पत्थर के सीने से बाहर झाँकता हुया
जहाँ पीपल की नाज़ुक हरी एक टहनी
झूल रही थी पाँच पत्तों के संग
मैंने देखा .....
जहाँ जीवन के साँस लेने की भी संभावना
नहीं
वहाँ इत्मीनान से बैठा
मृत्यु को अंगूठा दिखला रहा था
प्रेम
मक़बूल का मकबरा कहाँ है
बादलों के पार आसमान के सौवें माले पर
अब भी खड़ा है मक़बूल
रंग रहा है दूसरी कायनात को
मक़बूल कभी मरते नहीं
बूढ़े होते हैं ईश्वर जंग खायी मशीनों
की तरह
दयनीय और उबाऊ लगते हैं खड़े
मंदिर की सलाखों के भीतर
जबकि मक़बूल हौसलों के साथ जीते हैं
चोट खाते हैं और जी जाते हैं जीवन
ईश्वर को कोई पत्थर नहीं मारता
न ही देश निकाला देता है
अपना लेते हैं सब पत्थर को
मौन मूर्तियों में ढाल कर
विट्ठल को भी अपना लिया था पंढरपुर ने
आज पंढरपुर विट्ठल की धरती है
धरती तो मक़बूल की भी थी
जिसने लिया था वहाँ जन्म
विट्ठल तो आ कर बस गए थे घूमते-घामते
बना लिए थे ठिकाने
जो मैं जानती पंढरपुर मक़बूल की धरती
है
मैं विट्ठल के मिलने से पहले
मक़बूल से मिलने जाती
ईश्वर तो फिर भी मिल जाते देर सवेर
मैं मक़बूल को खोजती
मंदिर की सीढ़ियाँ चढ़ने से पहले
मक़बूल के गली कूचे में जाती
जाती उसके घर की छत पर
जहाँ चाहा था उसने
समूची कायनात को रंगना
मैं विट्ठल की मुरली से पहले
मक़बूल की कूची को अधर से लगाती
जो मिलते मक़बूल तो पूछती
जब तक रहेंगे धरती पर घोड़े
तुम लौटते रहोगे न उनसे मिलने
जैसे लौटता है बसंत
जैसे फूटती है सरसों
जैसे लौटता है सरहद से विजयी सेनानी
जैसे निकलता है स्याह अँधेरे को चीरता
चाँद
कहती तुम लौट आना अपने देस
आ कर बताना विट्ठल को
कि दुनिया के सारे भगवान मिल कर एक
होते हैं
पर मक़बूल एक अकेला एक होता है
जिसे पैदा किया था पंढरपुर की धरती ने
जिस पर फ़िदा थे दुनिया के सब रंग
जिसके चले जाने से अब रूठ गई है
तूलिका रंग और कैनवेस
सौवें आसमान से उतर कर तुम आना मक़बूल
जा कर कहना मंदिर में विट्ठल से
जो न होता मक़बूल फ़िदा हुसेन
तो कौन भरता विट्ठल में रंग
सोनी पाण्डेय के साथ रूचि |
सिंड्रेला का सपना
मैं क्यों करूं फ़िक्र तुम्हारे रूखे
बालों की
मुझे नारियल की चटनी भी बनानी होती है
मैं नहीं कर सकती हूँ तुम्हारे खाने
की फ़िक्र
तवे पर डाली मेरी रोटी जल जाती है
तुम्हारी दवा तुम्हारे मर्ज़ की जो
फ़िक्र करूं
हाथ जला बैठूंगी आँच पर अपने
मैं रो भी नहीं सकती हूँ तुम्हारे लिए
रोने से मेरी नाक लाल हो जाती है
दुनिया को खबर हो जाती है
लोग मोहल्लेदारी में फिर कहते फिरेंगे
40/11 की लड़की प्रेम में है आजकल
मैं तुम्हें खत भी नहीं लिख सकती
मेरी छत पर कबूतर नहीं आता
वहाँ बुलबुल का सख्त पहरा रहता है
वे कोई और लोग हैं जो बन गए हैं
सोहनी लैला हीर शीरीं
मेरे पास तो काम की लंबी फ़ेहरिस्त
पड़ी रहती है
कपड़े धोना बर्तन माँजना सब मेरे
जिम्मे है
मेरे पास प्यार के लिए वक्त नहीं है
तुम्हें याद करने से मेरे काम बिगड़
जाते हैं
बुनाई करते हुए फंदे गिर जाते हैं
कढ़ाई करते हुए सुई चुभ जाती है मेरी
उंगलियों में
उभर आते हैं वहाँ खून के कतरे
और तुम्हारा नाम मेरे होठों से
बेसाख्ता निकल जाता है
किसी दिन जो सुन लेंगे अम्मा बाबू
भईया तुम्हारा नाम
मेरी जान निकाल कर रख देंगे
और हाँ सुनो!
मैं एक-दूजे के लिए पिक्चर वाली सपना
भी नहीं हूँ
कि छलांग लगा दूँ अपने वासु के साथ
मैं मर जाऊँगी पर मरते हुए भी तुम्हें
ज़िन्दा देखना चाहूंगी
एक बात और मुझे अनारकली न कहा करो
मुझे दीवारों में चिन जाने से डर लगता
है
दम घुटने के ख्याल से ही घबराहट होने
लगती है
मुझे इतिहास की कहानी नहीं बनना
मुझे तो जीना है
कविताएँ लिखते रहना है तुम्हें देखते
हुए
बरगद की छाँव में बैठ कर
रूचि के कैमरे से इलाहाबाद |
एक रोज़ हर रोज़
देखती हूँ मक्खनी चाँद
याद आता है मिस्टर मेहरा का चेहरा
जाने कहाँ चले गए हिन्दोस्तान की
गलियों से
निकल कर
जैसे उनके चना पिण्डी की महकती गंध
चली जाती थी कुकर की सीटी बजाते हुए
इन्दिरापुरम की गलियों से बाहर
उंगली पर गिन कर बताते चना पिंडी में
डले
छप्पन मसालों के नाम
भूलती ही गई वे छप्पन नाम
तेरह के पहाड़े की तरह
मिस्टर मेहरा कहते
चलाओ मथनी मलाई के डोंगे में
जब तक टूट न जाएँ बाजू
तब आएगी हाथ में मक्खन की ढेली
हाँडी में मटन चढ़ाते
एक किलो मटन में लगाते
दो किलो प्याज़ का छौंक
नमक हल्दी मिर्च के साथ डाल देते
कमलककड़ी के गुटके आठ
मिसेज मेहरा बनातीं गर्म सूरज से
पराँठे
कहतीं ठंडे चाँद सी रोटी नहीं
खिलाऊँगी
मैं मोमबत्ती के प्रकाश में
रात ग्यारह बजे भी बनवाती
ज़ाफ़रानी ज़र्दा
मिस्टर मेहरा खिले चावलों के मन से
डाल देते ज़र्दे में केसर की पुड़िया
स्टाफ़ी पामेरियन रहा है गवाह इन
बातों का
पर स्टाफ़ी पामेरियन ने देखा नहीं वह
वक्त
उसके चले जाने से बीमार मिस्टर मेहरा
को
अस्पताल में 435 शुगर के संग
मैंने देखा है
खुली आँखों से
यह कलयुग की ही घटना है
उसी दौर में
जब आदमी आदमी का नहीं होता
साया भी छोड़ रहा है उसका साथ
आ जाती है मिस्टर मेहरा की याद
चना पिण्डी के बहाने
जबकि भूल गई हूँ छप्पन मसालों के नाम
जिह्वा पर आज भी शेष है
रावलपिण्डी चने का वह इकलौता स्वाद
गंगा का एक विहंगम दृश्य |
येसु! कहाँ हो तुम अब
गोवा चर्च का देश है
इलाहाबाद में भी हैं चौदह गिरजे
अच्छे लगते हैं मुझे गिरजे
मोमबत्तियाँ घंटियाँ
मरियम और यीशू से ज्यादा
मैंने चर्च से प्यार किया है
जब प्यार हुआ था चर्च से आठ बरस की थी
मैं
अमर अकबर एंथनी पिक्चर के एंथनी से
प्यार हो गया था मुझको
उससे भी ज्यादा चर्च के फादर से
फादर से ज्यादा कन्फेशन बाक्स से
प्यार कर बैठी थी
धर्मवीर भारती का उपन्यास ‘गुनाहों का
देवता’ तो नहीं पढ़ा था
फिर भी प्यार भरा गुनाह कर लेना चाहती
थी
कन्फेशन बाक्स में जा कर गुनाह को
कबूल करना चाहती थी
प्यार भरे गुनाह मैं करती रही
कभी नहीं कह सकी फादर से कि अच्छा
लगता था
वह हीरो हौंडा वाला मुसलमान लड़का
कभी बोल नहीं सकी खुल कर कि
अपने से छोटी उम्र के उस ब्राह्मण लड़के
की आवाज़ में जादू है
न ही कह सकी कभी धीमे से भी कि वह
बंगाली लड़का
जो बहुत बड़ा है मुझ से कालेज के बाहर
खत लिये खड़ा रहता है मेरे लिए
हमउम्र वह लड़का जो पढ़ता था कक्षा दो
से मेरे साथ
बारहवीं कक्षा में गुलाब रखने लगा था
किताबों में
कभी नहीं कह सकी थी दिल की कोई बात
फादर से
फादर से तो क्या मदर मेरी से भी नहीं
कह सकी मैं
जानते रहे हैं सब कुछ यीशू पर मेरी ही
तरह बेबस रहे
मैं पत्थर गिरजे में जा कर कभी अपनी
कभी यीशू की बेबसी देखती रही
प्रज्ञा भी जाती थी आजमगढ़ के एक चर्च
में
नन्ही हथेलियों को जोड़ कर घुटने टेक
बैठ जाती थी
मैं अब भी लगाती हूँ चर्च के फेरे
गोवा में देखे हैं मैंने तमाम गिरजे
ऑवर लेडी ऑफ़ इमैक्यूलेट कन्सेप्शन
चर्च को भी देखा है
कहीं नहीं दिखा मुझे वह चर्च
जिसके पीछे लगा है वह एक पेड़
जिसके नीचे संजीव कुमार शबाना आज़मी
से मिलना चाहते थे
हाथ थाम कर गाते थे .....
चाँद चुरा कर लाया हूँ तो फिर चल
बैठें
चर्च के पीछे ....
मैं ईमानदारी से कबूल करती हूँ खुलेआम
पत्थर गिरजे के बाहर खड़े हो कर
मैंने चर्च से ज्यादा एंथनी से प्यार
किया है
मोमबत्तियाँ घंटियाँ फादर से प्यार
किया है
कन्फेशन बाक्स से भी ज्यादा
चर्च के पीछे लगे उस एक पेड़ से किया
है
चर्च के देश में जा कर तलाशा है
उस एक चर्च को
मुझे वहाँ गोवा मिला समन्दर सीपियाँ
काजू और मछली मिली
यीशू भी दिखे मरियम भी मिली
सेंट ज़ेवियर भी थे वहाँ
नहीं था तो बस वह एक चर्च
चर्च के देश में
(हंस एवं तद्भव पत्रिकाओं में प्रकाशित कविताएँ)
सम्पर्क -
Email : Ruchibhalla72@gmail.com
Ph.no. : 9560180202
अच्छी कवितायेँ रूचि, बहुत सारी बधाई पहलीबार होना एक सम्मान है।
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