पंकज पराशर का आलेख 'सौ वर्ष बाद भी आख़िर ‘कविता क्या है?’
कविता लिखने वाला प्रायः हर व्यक्ति इस प्रश्न से कभी न कभी अवश्य जूझता है कि 'कविता क्या है?' तमाम बहस-मुबाहिसे के बावजूद आज भी यह प्रश्न प्रासंगिक बना हुआ है. साहित्य इसी मामले में विज्ञान से पूरी तरह अलग है कि इसमें कोई सुनिश्चित निर्णय नहीं दिया जा सकता और तर्क-वितर्क की अपार संभावनाएँ हमेशा बची-बनी रहती हैं. इस प्रश्न को ले कर पहले भी कवि-आलोचक गण अपनी-अपनी राय समय-समय पर व्यक्त कर चुके हैं. युवा आलोचक पंकज पराशर ने इस प्रश्न पर अतीत में हुए कुछ रोचक तर्क-वितर्कों पर सिलसिलेवार नजर डाली है. आज प्रस्तुत है 'पहली बार' पर पंकज पराशर का यह महत्वपूर्ण आलेख - सौ वर्ष बाद भी आख़िर ‘कविता क्या है?’
सौ वर्ष बाद भी आख़िर ‘कविता क्या है?’
पंकज
पराशर
जब हिंदी
में ‘गंभीर’ और कथित ‘लोकप्रिय’ कविता के कवियों के बीच की खाई निरंतर बढ़ती हुई संवादहीनता के शिखर तक पहुँच
गई हो और साहित्य के इतिहास में उल्लिखित होने की अर्हता प्राप्त कविताएँ
छंदमुक्तता को ही समकालीनता का स्थानापन्न समझने लगी हो, तब अपने प्रकाशन से लगभग
एक सौ दस वर्ष बाद आचार्य राम चंद्र शुक्ल द्वारा परिभाषित यह प्रश्न एक बार फिर से
एक नई व्याख्या की माँग करता है कि आख़िरकार ‘कविता क्या है?’ ऐसा नहीं है कि इस प्रश्न ने केवल आचार्य राम
चंद्र शुक्ल को ही परेशान किया था। उनके पूर्ववर्ती विद्वानों को भी इस प्रश्न ने
मानसिक तौर पर इतना उद्वेलित किया था, कि भारतेंदु कालीन लेखकों से ले कर आचार्य राम
चंद्र शुक्ल तक कविता को परिभाषित करने की बहस लगातार चलती रही, जिसमें
तर्क-वितर्क के अतिरिक्त व्यक्तिगत आक्षेप और व्यंग्य-वाण भी ख़ूब चले। भारतेंदु
युग के एक प्रमुख लेखक बाबू बाल मुकुंद गुप्त ने सन् 1903 में मुंबई से प्रकाशित ‘बालबोध’ पत्रिका में इसी शीर्षक से एक लेख लिखा और नागरी
प्रचारिणी सभा के संस्थापकों में से एक और काशी हिंदू विश्वविद्यालय के हिंदी
विभाग के अध्यक्ष बाबू श्याम सुंदर दास ने नागरी प्रचारिणी सभा की पत्रिका के सात
जुलाई, 1906 के अंक में कविता को ले कर महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा संपादित ‘सरस्वती’ पत्रिका को लेकर यह मारक टिप्पणी की, ‘जैसे अच्छे ‘सरस्वती’ के लेख
होते हैं, वैसी ही भद्दी इसकी कविताएँ होती हैं’, इस पर
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का तिलमिलाना स्वाभाविक था। वे भी भला कहाँ चूकने
वाले थे। जुलाई 1907 में उन्होंने करारा व्यंग्य करते हुए ‘कवि
और कविता’ शीर्षक से एक लंबा लेख अपनी ही पत्रिका ‘सरस्वती’ में लिखा, जिसमें बाबू श्याम सुंदर दास पर
आक्षेप करते हुए लिखा, ‘हमने कविता के लक्ष्य-लक्षण संबंधी
अनेक ग्रंथ छान डाले पर ‘भद्दी कविता’
का हमें न कहीं लक्षण मिला और न उदाहरण ही। सभा यदि ‘भद्दी
कविता’ का सोदाहरण लक्षण भी बतला देती तो बड़ी कृपा होती।
इससे लोग ‘भद्दी कविता’ लिखने और
प्रकाशित करने से बाज आते।’
इसके
बावज़ूद न ‘सरस्वती’ समर्थित कवि
बाज आए और न कविता को परिभाषित करने की बहस ही थमी। हिंदी की आरंभिक आलोचना के
सशक्त आलोचक, ‘हिंदी प्रदीप’ के संपादक
और भारतेंदु युग के एक प्रमुख लेखक बाल कृष्ण भट्ट ने दिसंबर 1910 के ‘मर्यादा’ में ‘कविता क्या है?’ लिख कर
कविता-संबंधी बहस में अपने तर्कों को प्रस्तुत किया। उनके समकालीन राधा चरण
गोस्वामी ने ‘कवि-कल्पना’ तथा चतुर्भुज
औदिच्य ने ‘कवित्व’ शीर्षक से वर्ष
1907 की ‘सरस्वती’ में आचार्य महावीर
प्रसाद द्विवेदी की आधुनिक हिंदी कविता को ले कर प्रस्तुत किये गये तर्कों को आगे
बढ़ाया। बाद में आ कर इस बहस में गंगा प्रसाद अग्निहोत्री और मैथिली शरण गुप्त भी
शामिल हुए और सन् 1914 में ‘हिंदी कविता किस ढंग की हो?’ शीर्षक से कविता को परिभाषित करने के अभियान
को आगे बढ़ा। अंततः जिसमें शामिल होने का लोभ संवरण वैयाकरण कामता प्रसाद गुरु भी नहीं
कर सके और उन्होंने ‘आधुनिक हिंदी कविता’ शीर्षक निबंध लिख कर इस बहस में भागीदारी की। यानी आचार्य राम चंद्र
शुक्ल से पहले ‘कविता क्या है?’ संबंधी बहस लगभग डेढ़ दशक तक
चलती रही और उन बहसों से जो बातें निकल कर सामने आई, उससे राम चंद्र शुक्ल सहमत हो
कर शांत बैठ जाने की जगह और बेचैन होते चले गए। जब उन्हें अपने ही तर्कों को बार-बार
परिवर्तित करने की जरूरत लगातार महसूस होती रही, तो भला किसी और विद्वान के तर्क
से वे कब सहमत होने वाले थे? इस
संदर्भ में बाद के दशकों में भी वे किसी अन्य विद्वान के तर्क-वितर्क से सहमत नहीं
हो पाए और मानसिक स्तर पर उनकी चिंतन की प्रक्रिया निरंतर चलती रही। इस प्रश्न के
माकूल और संतोषजनक उत्तर को लेकर आचार्य शुक्ल जितने वर्षों तक परेशान रहे, उतने
ही अपने उत्तर के ‘परफेक्शन’ को लेकर
संदेही और दुविधाग्रस्त भी बने रहे।
गौरतलब
यह है कि ‘कविता क्या है?’ के संबंध में आचार्य राम चंद्र शुक्ल जैसा संदेह और चिंतन की प्रक्रिया उनके
पूर्ववर्ती या परवर्ती किसी अन्य विद्वान के यहाँ दृष्टिगोचर नहीं होता। इस संदर्भ
को इस तथ्य से समझने में शायद आसानी होती है कि ‘कविता क्या है?’ नामक यह निबंध
पहली बार ‘सरस्वती’ के अप्रैल 1909 के
अंक में प्रकाशित हुआ था। हालाँकि इस निबंध का एक कच्चा प्रारूप उन्होंने सन् 1908
में ही बना लिया था, लेकिन इसमें ‘परफेक्शन’ लाने के लिए सन् 1922, 1927, 1930 और 1939 तक वे इसमें प्रयुक्त शब्दों
और पंक्तियों को बार-बार संशोधित और परिवर्धित करते रहे। एक-एक शब्द, एक-एक बिंब,
एक-एक वाक्य-विन्यास पर उन्होंने बारहा सोचा किया, तब जा कर कुछ हद तक उन्हें
संतोष हुआ। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि एक-दो बार परिवर्तन-परिवर्धन करके
शांत बैठ जाने की बजाय वे बार-बार इस निबंध में क्यों इतना परिवर्तन कर रहे थे? वे इसलिए ऐसा नहीं कर रहे थे कि इन परिवर्तनों
द्वारा शब्दों के विन्यास में कोई चमत्कार दिखा सकें या निबंधात्मक कलाओं से उसे
जोड़ सकें। उनका असल उद्देश्य यह था कि वे समय के परिवर्तन के साथ-साथ ‘शिक्षित जनता’ की परिवर्तित चित्त-वृत्तियों को अपने
निबंध में मूर्त कर सकें। क्योंकि शिक्षित जनता की जिन ‘संचित’ मनोवृत्ति को वे साहित्य के इतिहास के लिए इतना महत्वपूर्ण कसौटी मानते
थे, उस शिक्षित जनता की परिवर्तित चित्तवृत्तियों को कविता-संबंधी परिभाषा में भला
कैसे अनदेखी कर सकते थे?
‘कविता क्या है?’ की इस पृष्ठभूमि को मद्देनज़र रखते हुए आचार्य राम चंद्र शुक्ल के इस
निबंध के एक सौ दस वर्ष बाद यदि हम आज के काव्य-परिदृश्य पर विचार करें, तो देखिये
कि आज कितने प्रतिशत काव्य-आलोचक हैं, जो समर्पित भाव से हिंदी की काव्य-आलोचना
में लगे हुए हैं और जिन्हें आज के पल-पल परिवर्तित परिवेश को ध्यान में रखते हुए
अपनी काव्य-संबंधी मान्यताओं में परिवर्तन की आवश्यकता निरंतर महसूस होती हो। विचारणीय
तथ्य यह है कि लक्ष्मी कांत वर्मा, विजय देव नारायण साही और नामवर सिंह के बाद
कितने ऐसे काव्य-आलोचक आपको याद आते हैं, जिन्होंने अपनी ही काव्य-संबंधी
मान्यताओं में बार-बार संशोधन और परिवर्धन किया हो? या जिन्होंने समकालीन सत्ता के कथित विकासवादी अवधारणा के आलोक में
सभ्यता के विकास के साथ-साथ कवि-कर्म के कठिन होते चले जाने की प्रक्रिया को माकूल
तरीके से समझने का प्रयास किया हो? हिंदी
काव्य-आलोचना की जिस परंपरा में कविता को परिभाषित करने को लेकर इतनी लंबी बहस चली
हो, उस काव्य-आलोचना की परंपरा में इस प्रश्न की शायद माकूल पड़ताल नहीं हो रही है
कि आधुनिकता के आवरण में आज जिस मध्ययुगीनता और सामंती मानसिकता के बीज का अंकुरण/पल्लवन हो रहा है, क्या उसे मूल्यांकन संबंधी
कसौटी को बरतते समय ध्यान में रखा जा रहा है? मनुष्य विरोधी सत्ता के उत्स और शिक्षित जनता की परिवर्तित चित्तवृत्ति
के आलोक में आचार्य राम चंद्र शुक्ल की तरह समकालीन हिंदी कविता पर विचार करने की
ज़रूरत महसूस नहीं होती है? जिन
हिंदी कविता में सत्ता का विरोध, हाशिये के समाज और हाशिये के मनुष्य की चिंता
व्यक्त की जाती है, उस कविता के समाज का वास्तविकता के धरातल पर संवाद और सहकार का
रिश्ता शायद उतना नहीं है, जितनी आकांक्षा कविता में प्रकट की जाती है। जनता से
संवाद और सहकार का जैसा रिश्ता ‘मंच-मचान’ और ‘लालक़िला के कवि’ बना रहे
हैं, वैसा रिश्ता हिंदी कविता के अतीत को देखें तो कथित गंभीर कविता का रहा है। दूसरी
ओर बेढब बनारसी टाइप की हास्य-व्यंग्य की कविता की परंपरा भी रही है, जिसको लेकर
साहित्येतिहास में नाक-भौं नहीं सिकोड़ा गया है। तर्क और तथ्य पेश करने के साथ ही
श्रेष्ठत्व को लेकर भी दोनों धड़े के अपने-अपने दावे हैं, लेकिन इस पर एक बार फिर
से तभी सार्थक बहस हो सकती है जब यह तय हो जाए कि आज के परिदृश्य में आख़िरकार ‘कविता क्या है?’
(जनसत्ता से साभार.)
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सम्पर्क
मोबाईल - 09634282886
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की है.)
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(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की है.)
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