देवेन्द्र आर्य की कविताएँ
देवेन्द्र आर्य |
अक्सर यह होता है कि जीवन और समाज का वह तबका प्रायः ही उपेक्षित रह जाता है, जिसकी इस जीवन और समाज को बनाने में अहम भूमिका होती है. रचनाकार इस विडंबना को उजागर कर इस जीवन और समाज में महत्वपूर्ण हस्तक्षेप करने का काम करते हैं. देवेन्द्र आर्य एक चर्चित रचनाकार हैं. उनकी कविताओं में यह बात अक्सर ही देखी जा सकती है. उनकी एक कविता है – ‘एड़ी’. यह कविता अपने आप में अनूठी और अलग है. शरीर के लगभग उपेक्षित अंग एड़ी में कविता को, कविता के सौन्दर्य को परखने का काम देवेन्द्र आर्य बखूबी करते हैं. इस क्रम में उन्हें याद आती हैं औरतें, जो शुभ अवसरों पर अपनी एड़ियों को रंग कर अपनी खुशी जताती हैं. वे एड़ियाँ जो प्रायः ही उपेक्षित रहती हैं, वे भी रंग का स्पर्श पा कर जैसे खिल उठती हैं जैसे चैत्र मॉस में पलाश खिल उठते हैं. आज पहली बार पर प्रस्तुत है देवेन्द्र आर्य की कुछ नवीनतम कविताएँ.
देवेन्द्र आर्य की कविताएँ
रंग-धर्म
होता है क्या कोई रंगों का धर्म?
कर्म तो होते हैं जैसे रंग-कर्म
उत्सव-पर्व रंग-गीले रंगरेज सजीले
परन्तु रंग-धर्म!
आप कहते रहिए कि रंग प्रकृति से हैं
और प्रकृति अपने ही रंगों में रंगी रंगातीत
शाश्वत
पर यदि प्रकृति ही विकृत हो तो उसके रंग कैसे सु-कृत हों
दरअसल हम अनुशीलन नहीं अनुसरण करते हैं
रंगों का राजनीतिकरण
वनस्पतियों से मिला हरा मुस्लिम हुआ
फिर आतंकी
सूरज का रंग विशेष भगवा फिर दंगाई
केसर के रंग किरकिराने लगे
कम फजीहत नहीं हुई लाल की
क्रांति का रंग पान की पीक हो गया
मन ही नहीं ज्ञान भी बदरंग
रंग-कुंठित
प्रकृति को तो किसी रंग से कोई परहेज़ नहीं
और हम ठहरे रंग-परहेज़ी
प्रकृति ही नहीं मानव प्रवृत्ति भी रंग-उजाड़
जैविक कम रासायनिक रंगों की तरह
सपनों के रासायनिक रंग मेल नहीं खाते लोक-रंग से
शुद्ध है अगर तो एक रंग धूसर
शायद फींचते पछोरते सफेदी पकड़ ले
रंग थपकी देते हैं
सहलाते गुदगुदाते सरस रस-रंग चिढाते भी हैं चुभते भी हैं
रंग बदला भी लेते हैं
संग्रहालय
धराऊ यादगार बेकार
काम आ जाने की सम्भावना वाली कभी-कभार
सुरक्षित रहती हैं चीजें घरेलू संग्रहालयों में
स्त्रियों के अपने संग्रहालय होते हैं
जिसमें प्रवेश कर पाती हैं बेटियां कभी-कभी
और आख़िरी समय में बहुएँ
बच्चों के संग्रहालय देखे हैं आपने!
जेब और बस्तों से निकली नायाब चीजें
जिनमें संग्रहित होता है बचपन
यूं तो दिल प्रत्येक का संग्रहालय ही है
ज़मींदोज़ होने के पहले जिसके महत्वपूर्ण आस-असबाब
स्थानांतरित होते रहते हैं दूसरे नवोदित संग्रहालयों में
थाती परम्पराएँ एक तरह का चलता फिरता धड़कता
संग्रहालय ही है
कभी–कभार पसर जाता है पन्नों पर
तब ज़रूरी हो जाता है कोई दस्तावेज़ी संग्रहालय
किताबों की शक्ल में
तोप तलवार गोला बारूद पत्थर
सारी जगहें घेर कर बैठ जाएँ यह मुनासिब नहीं
उन्हें थोडा सिकोड़-बटोर जगह बनानी चाहिए शब्दों के लिए
कुछ वाक्यों को भी डाल देना चाहिए संग्रहालयों में
जैसे ‘सत्यमेव जयते’
या कि ‘धर्म शांति और प्रेम का मार्ग है’
कि ‘राजनीति सेवा है’ आदि-आदि
तमाम ईश्वर इफ़रात पैदा हो गए हैं पार्टियों की तरह
संवेदना जाम की समस्या से निपटने के लिए
ज़रूरी है इन्हें ठेल कर किसी संग्रहालय में जमा कर देना
सिफारिश यह है कि इन्हें जू या कांजी हाउस की तर्ज़ पर
‘ईश्वर-बाड़ा’ न कहा जाय
आस्थाएं चोटिल हो सकती हैं
धर्मों की आँखों का पानी लगातार सूखता जा रहा है
आंसू करुणा ईमान और बचपन
अब संग्रहालयों के लिए ज़रूरी चीजें हैं
भाप की तरह उड़ती भाषाएँ संग्रहित कर ली जाएँ
कि वक़्त ज़रुरत किसी सभ्यता-खोजी के काम आ सकें
इन्सान के इन्सान बनने की विकास-यात्रा
विकास-यात्राएँ विनाश-यात्राएँ भी हो सकती हैं
यह हमें संग्रहालय ही बताते हैं
तमाम ध्वनियाँ पंक्षियों की आवाजें तमाम गंध
गायब होती जा रही हैं
चिटकती लकड़ी की आंच पर चुरती दाल की खदबदाहट
मादक महक
बिना घोंटी-बघारी दाल के पानी का स्वाद!
ढेंकुल चकिया जांता सूपा ओखली की बोलियाँ
संरक्षित की जानी ज़रूरी हैं
कुकर की सीटियाँ इन्हें खाती जा रही हैं
वो नीम अँधेरा ढेबरी का
जैसे माएं रखती हैं पहिलौठी की छट्ठी का कपड़ा
संरक्षित कर ली जाय शीशे सी पारदर्शी धूप
इसके पहले कि प्लास्टिक से छन कर आती लगे
दुधमुंहे प्यार सी निश्छल हवा मलय बादे-सबा
दुनियादार होती जा रही है
हाँ, उसके भी पहले
बल्कि सबसे पहले
ज़रूरी है आध्यात्म जगाते सन्नाटों का संग्रहालय
कि अजनबीयत के बीच तलाशा जा सके अकेलापन
नर्म उर्वर तनहाई का चैन संरक्षित कर लिया जाय
इसके पहले कि भावनाएं भूकंप-धर्मी हो जाएँ
हद है
पता चला कि आप जिसकी आत्मा की शांति के लिए
शोकाकुल श्रद्धांजलि सभा आयोजित कर रहे हैं
वह अपने जन्मदिन का केक काट रहा है
पता यह चला कि इतनी क्रूरता बयान कर दी गयी
कि आप अब कुछ भी देख कर पसीजते ही नहीं
हद है क्रूरता की
कि अब आप क्रूरतम पर पर भी नहीं उबलते
बना दिया जाय पहले अभ्यस्त
फिर आसान हो जाती है जघन्यता
आने के पहले
भेड़िया आया भेड़िया का फ़रेब करके
भेड़िए के विरुद्ध जुटान से रोकते रहे हैं
आधुनिक हत्यारे
हद है कि सच दुहराते दुहराते झूठ लगने लगे
शब्द भोथेरे
आंसू दिखावटी
और संघर्ष कविताई
हद है कि अब झूठ की कोई हद नहीं
इससे बड़ा हादसा क्या होगा
कि हम हादसों के प्रति यूज टू हो जाएँ
प्रकृतस्थ जैसे किसानों की आत्महत्याएँ
सब चलता है का रवैया जैसे घोटाले
बच्चियों के साथ बलात्कार
हद सचमुच अनहद हो गया है
यह सब इसलिए कि मानवता तार-तार होती रहे
और हम भोजन करते प्राइम-टाइम देखते रहें
कि मीडिया का क्या भरोसा!
एड़ी
एड़ी से झांकती दरारें ढकी जाती हैं
लटका कर बांधी साड़ी से
सामने दिखती हैं उँगलियाँ सुहागन
भोथरही फिर भी रंगा-टिका कर चिक्कन
आने का बिम्ब चटक जाने का थोड़ा उदास
अगुवानी में उंगलियाँ
बिदाई का बिम्ब हैं एड़ियाँ
एड़ी से फटे मोज़े सहेज रखे जाते हैं
घर में पहनने के लिए
छिप जाता है फटापन अगर जूते न उतारने हों
सामने से सलामती ज़रूरी है
यूं भी ठंड उंगलिओं को लगती है एड़ी को नहीं
मोटा होता है चमड़ा एड़ी का
न हो तो हो जाता है धीरे धीरे घिसते-घिसते रगड़ते-रगड़ते
काश! उतनी ही चिंता की जाती एड़ियों की भी
जितनी उंगलिओं की
हर किसी को ज़रुरत भर का समाजवादी तर्क
हमेशा एड़ियों के विरुद्ध जाता रहा है
उंगलियाँ कई प्रकार की होती हैं
थेथर अंगूठा से लेकर पिद्दी कानी तक
मगर नज़ाकत अनेक में एक
उधर एड़ी एकलौती
पूरी वर्ण-व्यवस्था आप चाहें तो खोज लें शरीर में
मगर न पंजे पर टिका जा सकता है बहुत देर
न एड़ी पर
पांवों की सुरक्षा उंगलियों से शुरू होती
एड़ी तक आते आते ख़त्म
जूते सबसे पहले पहनतीं उंगलियाँ
पिछलग्गू एड़ी तो ठेल दी जाती जबरिया
ख़ातिर में नहीं लेता कोई
कपड़े भी नापे जाते तो कमर से उँगलियों तक ही
कभी-कभार दिन बहुरते एड़ियों के भी
शादी-ब्याह पर्व-त्यौहार एडियाँ रंगने के दिन
जैसे पांच-सितारा उत्सवों में मनोरंजन का साधन लोक-कलाकार
उस दिन एड़ी को उंगलियों के बराबर होने का गुमान होता
एक ही पेड़ का हिस्सा होने का एहसास
अखरता है कि शरीर के हर अंग का है
पर एड़ी का कोई गहना नहीं
एडियाँ हमेशा सफ़ेद-झक्क
दाग-धब्बे तिल कोई पैदायसी लच्छन नहीं
ज़रा सा माज दो तो निखर आतीं मुह-चिक्कन
समझने वाले भांप लेते हैं एड़ी देख कर
एड़ी वाले का स्वास्थ
परख लेते हैं उसकी सुघड़ता
अर्पण
उसने ताम्बे की लुटिया में पानी भरा
मैंने टोका - नल का पानी?
अपने फ़िल्टर का पियोगी
भगवन को प्रदूषित!
गंगा को गंगा का ही जल ले कर अर्ध्य चढ़ाते हैं
बिसलरी की बोतल ले कर नहीं आते
वह जल-धार चढ़ाते हुए बुदबुदाई
‘त्वदीयं वस्तु गोविन्दम तुभ्यमेव समर्पयेत’
मगर भगवान ने जो गंगा दी थी
आज वही है क्या?
कर पाओगी आचमन गंगा के अमृत-जल से?
चढ़ाना है तो उसने जो दिया वही जल चढ़ाओ
जो मिला वही लौटाओ
तब न हुआ त्वदीयं वस्तु गोविन्दम
तुभ्यमेव समर्पयेत
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सम्पर्क -
देवेंद्र आर्य
ए -127 , आवास विकास कॉलोनी शाहपुर
गोरखपुर -273006
मोबाइल : 9450634303 ; 7318323162
ई-मेल : devendrakuma.arya1@gmail.com
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)
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