रमाशंकर सिंह की कविताएँ
रमाशंकर सिंह |
मनुष्य अपने होने की सार्थकता
को प्रायः संबंधों में तलाशता है. सम्बन्ध वे आधार हैं जिससे जीवन को जीने का एक
उद्देश्य मिलता है. जिससे जीवन को एक सार्थकता मिलती है. इन संबंधों के जरिये ही
मनुष्य अमरता की परिकल्पना को अपनी संततियों के माध्यम से साकार करता है. रचनाकार
प्रायः ही अपनी रचनाओं के माध्यम से इन संबंधों की पड़ताल करता है. शायद यही यह वजह
है कि आज भी कवियों की कलम इन संबंधों पर चले बिना नहीं रह पाती. माँ, पिता, पति,
पत्नी, प्रेमिका, पुत्र-पुत्री, दोस्त, पड़ोसी से ले कर इन संबंधों के अनन्त छोर
हैं. अब तो फेसबुक ने आभासी मित्रता की वह दुनिया भी तैयार कर दी है जिसके लिए
प्रत्यक्ष तौर पर उपस्थित होना जरुरी नहीं होता.
युवा कवि रमाशंकर सिंह ने
इधर बेहतरीन कविताएँ लिखी हैं. खासतौर पर संबंधों को ले कर उनके यहाँ जो अनुभवजनित
कविताएँ हैं, ये कविताएँ हमें बिल्कुल सहज रूप में उन संबंधों के आलोक में ले जाती
हैं जिनसे जीवन का एक खुबसूरत सा ताना-बाना तैयार होता है. रमाशंकर इतिहास के
छात्र हैं और अपना शोध कार्य करने के पश्चात इन दिनों इन्डियन इंस्टीट्यूट ऑफ़
एडवांस स्टडीज, शिमला में फेलो के रूप में कार्य कर रहे हैं. आज पहली बार पर
प्रस्तुत है युवा कवि रमाशंकर सिंह की कुछ तरोताजी कविताएँ.
रमाशंकर सिंह की कविताएँ
पिता
मेरी हथेलियों में महकते हैं
मिट्टी
के ढेलों में मिली थी बैल की गंध
पिता
के देह की गंध
मिट्टी
महकती थी
पिता
जैसी बैल जैसी
धरती
पर निशान थे
बैलों
के खुरों के
पिता
के पैरों के
देह
महकती थी पिता की
आषाढ़
में, कातिक में
मृगडाह
में, आर्द्रा में
हर
नक्षत्र में महकती थी पिता की देह
अलग-अलग
तरीके से
कि
जैसे हर नक्षत्र में
जुता
खेत महकता है
खेत
से लौटने पर
पिता
महकते थे एक बार फिर
जैसे
बचपन में गेंदा महकता था
मेरी
हथेलियों में
पिता
की हँसी झरती थी
पटसन-फूल
का पराग झरता है जैसे
पीला-पीला
धूसर धरती पर
अपनी
मौत के बाद
पिता
मेरी हथेलियों में महकते हैं
जैसे
गेंदा महकता था
तुम्हारे
बिना
तुम्हारे
बिना
उदासियों
के छप्पर तनते हैं
मेरे
ऊपर
तुम्हारे
बिना
असहाय
हो जाता हूँ
मैं
झुण्ड से बिछड़े हाथी सा
मेरे
गीतों की लय खो जाती है
फट
जाता है
मेरी
ढोल का चमड़ा
तुम्हारी
संगत न होने से
ओ पिता
तुम्हारे
बिना
दुःख
के छोटे-छोटे पेड़
उगते
हैं
मेरी
आत्मा में
दिवंगत पिता के लिए
अभी
तुम जा नहीं सकते
कि
मुझे अक्षर-ज्ञान कराना था तुम्हें
तुमसे
सीखना था व्याकरण
जिससे
सिरजा जाता है प्रेम
मैं
सुर ताल लय छन्द भी नहीं सीख पाया
अभी
तुमसे उधार लेने थे
गाने
के नियम
कि
जैसे चिड़िया गाती है
कि
जैसे तुम गाते थे
जेठ
की धूप में तपती
बरसाती
नदी का धैर्य दे कर जाना था तुम्हें
तुमसे
उधार लेनी थी विनम्रता
जैसे
आती थी कातिक में पके धान की बालियों पर
तुम्हारी
आँखों में
ओ पिता तुम कैसे जा सकते हो?
जब
चने का खेत लद जाने ही वाला हो
लाल
लाल फूलों से
जब
अलसी के फूलों के नीलेपन में
उतर
आया हो आसमान
बार
बार लौट आने वाला चैत
इस
बार भी रंग गया है पूरे सिवान को
गेहूं
के रंग में
बिलकुल
तुम्हारे रंग जैसा
इस
बार भी भीगेगी धरती
मृगडाह
की पहली बरखा में
और
धरती
को तुम्हारी कमी खलेगी
रंगों
को पहचानने की
तुम्हारी
काबिलियत खलेगी उसे
बहुत
कुछ बाकी है सीखना
सुग्गे
उतरेंगे बाजरे की फुनगी पर
और
मैं मंडराता रहूँगा उनके संग संग
खेत
रचेगें एक बार फिर प्रेम का व्याकरण।
किसी के मर जाने पर
किसी
के मर जाने पर
पिता
तेज साइकिल चला कर
कफन
ले आते थे
बड़ी
जल्दी जुटा लाते थे
सूखी
लकड़ियाँ
पिता
बांस काट लाते थे
टिखटी
बनाने के उस्ताद थे पिता पूरे गांव-जंवार में
किसी
के मरने पर पिता रोते नहीं थे
बस केवल
बीड़ी पीते थे
पिता
बीड़ी में दुःख पी जाते थे
लोगों
के मर जाने का
तेज
साइकिल चला कर पिता मृत्यु से बात कर लेते थे जैसे
कफ़न
खरीद कर
बांस
काट कर
टिखटी
बना कर
पिता
आश्वस्त हो जाते थे
कि
मौत एक दिन आहिस्ता
उतर
आएगी सीने में
बीड़ी
के धुंएँ जैसी
तुम्हरी
मौत के बाद ओ पिता
साइकिल
कबाड़ में पड़ी है
बांस
के जंगल ख़त्म हो गए
कफ़न
तो बनिया खुद दे गया किश्त पर
मुझे
बीड़ी पीने पर खांसी आ जाती है
सबके
लिए आसान काम नहीं है
बीड़ी
पीना
मौत
के बारे में सोचना
तुम्हारे होने से
तुम हमेशा ऐसी ही
ऊँची दिखो
जैसे तुम्हारे होने से
मन ऊँचा हो जाता है मेरा
जैसे तुम्हारे होने से
मन ऊँचा हो जाता है मेरा
तुम्हारी सुगंध
1
यहीं पर एक किताब थी
यहीं पर चश्मा रखा था
यहीं पर पेन रखा था
यहीं कहीं मफलर था
यहीं पर चश्मा रखा था
यहीं पर पेन रखा था
यहीं कहीं मफलर था
बाहर रखी चीजें गायब होती हैं
तुम्हारी हँसी यहीं खनकती है
मेरी आत्मा में
मेरी आत्मा में
मेरी खाल में
तुम्हारी सुगंध बहती है
रक्त की तरह
तुम्हारी सुगंध बहती है
रक्त की तरह
2
न कविता
न गीत
न सुग्गे
न धान
न पान
न कस्तूरी
न केसर
और न ही फूल भेजूँगा तुम्हें
न गीत
न सुग्गे
न धान
न पान
न कस्तूरी
न केसर
और न ही फूल भेजूँगा तुम्हें
मैं तुम्हारे लिए भेजूँगा
बांस की बनी झपली
उसी में भर लेना
हमारा आज का दिन
सुगंध
विदाई के क्षण
मिलन का ठहराव
बांस की बनी झपली
उसी में भर लेना
हमारा आज का दिन
सुगंध
विदाई के क्षण
मिलन का ठहराव
मोबाईल - 07380457130
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)
रमा सर की कविताएँ पढना बहुत ही सुखद अहसास है. सारी व्यापक भावनाओं के लिए के शब्द हैं सर के पास. इन कविताओं में हमारे समय की वेदना है. हमारे सपने हैं. हमारी इस दुनिया की सबसे खूबसूरत चीज़ों में शुमार हैं सर की कविताएँ. इन्हें पढ़ कर ताकत मिलती है...
जवाब देंहटाएंसुंदर और मार्मिक कविताएँ
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