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बदायूँ में राजेन्द्र यादव : कुछ यादें और बातें

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राजेन्द्र यादव का निधन हमारे सामने एक ऐसी रिक्ति छोड़ गया है जिसकी भरपाई मुश्किल है। जिस भी क्षेत्र में राजेन्द्र जी ने अपने हाथ आजमाए वे श्रेष्ठ रहे। कहानी, उपन्यास, संस्मरण की दुनिया हो या फिर हंस का सम्पादन। एक बड़ी तादाद ऐसे लोगों की रही है जो हंस को केवल राजेन्द्र जी कि सम्पादकीय पढ़ने के लिए खरीदते थे। राजेन्द्र जी को पहली बार परिवार कि तरफ से हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए हैम प्रस्तुत कर रहे हैं वरिष्ठ आलोचक अमीर चन्द्र वैश्य का एक ताजातरीन संस्मरण। तो आईये पढते हैं यह संस्मरण।     बदायूँ में राजेन्द्र यादव : कुछ यादें और बातें अमीर चन्द्र वैश्य कल मैं घर से बाहर था। संध्या काल लगभग ३. ३० बजे घर आया। बेटी गायत्री प्रियदर्शिनी ने मुझे यह दुखद खबर दिया कि राजेन्द्र यादव का निधन हो गया  है। झटका लगा, धीरे से। कैसा दुर्योग या संयोग था कि ठीक एक दिन पहले सोमवार २८ अक्टूबर २०१३ को अनहद के सम्पादक संतोष चतुर्वेदी से राजेन्द्र यादव के बारे में फोन पर एक लम्बी बातचीत हुई थी। और २९ अक्टूबर को राजेन्द्र जी के मृत्यु की दुखद खबर मिली। कल फिर संतोष जी से...

दीपेन्द्र सिवाच

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जन्म- जनवरी १९६४ मेरठ (उत्तर प्रदेश ) शिक्षा -एम.ए (प्राचीन   इतिहास , इलाहाबाद विश्वविद्यालय) सम्प्रति -आकाशवाणी में ट्रेक्स   आज की दुनिया का विरोधाभास यह है कि एक तरफ जहां हम लोग एक 'ग्लोबल विलेज' की परिकल्पना को साकार होते देख रहे हैं वहीँ दूसरी तरफ हम अपने ही पड़ोसी तक को नहीं जानते। शुक्र है कि हमारा आभासी नहीं बल्कि वास्तविक गाँव आज भी उन रिश्तों की गरमाहट को बचाए हुए है जिसमें सब एक दूसरे से सहज भाव से जुड़े हुए हैं। जातिगत दुराग्रहों के बावजूद आज के गाँव की यह खूबी उसे बिलकुल अलग और अनूठा बनाती है। दीपेन्द्र सिवाच ऐसे ही कवि हैं जिन्होंने इन रिश्तों को  अपनी कविताओं में उतारने की कोशिश की है। तो आईए ऐसे ही रंग वाले कवि दीपेन्द्र की कुछ नयी कवितायें पढ़ते हैं।  रिश्ता   जब भी गाँव जाता हूँ मैं मिलना चाहता हूँ सबसे पहले कृशकाय वृद्ध महिला से   जो रोज़ सुबह आती है दरवाज़े पे ओढ़नी से काढ़े लंबा सा घूंघट और लिए एक टोकरा सर पर और कभी कमर पर टिकाये    खटखटाती है सांकल ले ज...

शंकरानंद के कविता संग्रह 'दूसरे दिन के लिए’ पर अरुण अभिषेक की समीक्षा

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  युवा कवि शंकरानंद  का अभी हाल ही में पहला कविता संग्रह ' दूसरे दिन के लिए’ आया है। इस संग्रह पर युवा समीक्षक अरुण अभिषेक की समीक्षा पहली बार के पाठकों के लिए प्रकाशित की जा रही है।                                                 जीवन की असंगत लय की शिनाख्त करती कविताएँ     युवा कवि शंकरानंद का काव्य संग्रह ‘‘दूसरे दिन के लिए’’ एक नए तरह के प्रतीक और बिंब के जरिए, प्रभावित कर देने वाला काव्य-लोक है। इस संग्रह की अधिकांश कविताएँ छोटी-छोटी हैं। ये कविताएँ अपने विन्यास में भले ही छोटी जान पड़े, पर अपनी प्रकृति में अपनी रचनात्मक शक्ति के साथ, चेतना को स्पर्श करती हैं और बेचैन भी। इसकी वजह यह है कि कवि के भीतर भाव-बोध की प्रवीणता इतनी घनीभूत हैं कि वे घटित घटना को अंतस से महसूसते और देखते हैं। एक सूक्ष्म बिलबिलाहट या बेचैनी तेजी से इनके मानस पर तैरती है, जिसे व्...

पेस्सोआ की कवितायेँ

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 (चित्र : सरिता शर्मा) संक्षिप्त जीवन- परिचय जन्म तिथि: 12/08/1964 शिक्षा:     एम.ए. (अंग्रेजी और हिंदी),           पत्रकारिता, फ्रेंच, क्रिएटिव राइटिंग और फिक्शन राइटिंग में डिप्लोमा.                 कहानी लेखन और पटकथा लेखन में पत्राचार पाठयक्रम           एन. आई. सी. से ऑफिस प्रोडक्टिविटी टूल्स में प्रशिक्षण कार्यक्रम   पुस्तकें कविता संग्रह: सूनेपन से संघर्ष. आत्मकथात्मक उपन्यास: जीने के लिये अनूदित पुस्तकें : रस्किन बोंड की पुस्तक ‘स्ट्रेंज पीपल,स्ट्रेंज प्लेसिज’ और रस्किन बोंड द्वारा  संपादित ‘क्राइम स्टोरीज’ का हिंदी अनुवाद. प्रकाशित रचनाएँ कहानियां : पहली कहानी ‘वेक्यूम’, हंस में ‘मुबारक पहला कदम’ स्तंभ के अंतर्गत छपी जिसकी बहुत सराहना हुई. अन्य पत्रिकाओं में प्रकाशित कहानियां हैं- इंडिया टुडे (ससुराल),  साहित्य अमृत (स्पेस), इन्द्रप्रस्थ भारत (अदना सा सिकंदर), हरिगंध...

एस आर हरनोट

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 (चित्र  : एस. आर. हरनोत)   एस. आर. हरनोत हमारे समय के ऐसे चर्चित कहानीकारों में से एक हैं जिन्होंने बिना किसी शोरोगुल के अनेक महत्वपूर्ण कहानियां लिखी हैं। आज जब चारो तरफ 'दलित-विमर्श' का बोलबाला है और लेखकों के बीच इसे जबरन कहानी का विषय बनाने का फैशन सा चल पड़ा है ऐसे समय ने हरनोत जी ने 'हक्वाई' कहानी लिख कर साबित कर दिया है कि हमारे दृश्य-जगत की उन घटनाओं को बारीकी से उद्धृत कर इस विषय पर बेमिसाल कहानियाँ लिखी जा सकती हैं। भागीराम को जिस जातिगत अपमान का सामना हमारे इस लोकतंत्रात्मक व्यवस्था में करना पड़ता है वह उसका प्रतिकार अपने तरीके से करने का साहस जुटाता है और नगर निगम के उस अधिकारी के खिलाफ धरने पर बैठ जाता है, जो उसे जातिगत द्वेष के कारण प्रताड़ित करता रहता है। यद्यपि हरनोत जी ने इसे अपनी कहानी में उद्घाटित नहीं किया है फिर भी यह बात तो स्पष्ट है ही कि हमारी यह व्यवस्था भी दलितों और पिछड़ों के विरुद्ध ही है। तो आईये पढ़ते हैं हरनोत जी कहानी 'हक्वाई'।        हक्वाई (‘हक्वाई‘ पहाड़ी बोली का शब्द है। जूता बनाने या गाठने वाले कामगार जिस ...