कुमार मंगलम का आलेख 'आलोचना का स्वधर्म और उसके सांस्कृतिक महत्व की प्रतिष्ठा'

 

पुरुषोत्तम अग्रवाल 


वरिष्ठ आलोचक पुरुषोत्तम अग्रवाल की ख्याति आमतौर पर मध्यकालीन चिन्तक के तौर पर रही है। लेकिन उनके नाम एक श्रेय और भी है। उन्होंने शिवदान सिंह चौहान की आलोचना की तरफ पहली बार साहित्यिक दुनिया का ध्यान आकृष्ट किया। इसी क्रम में उन्होंने साहित्य अकादमी के लिए भारतीय साहित्य के निर्माता के तहत शिवदान सिंह चौहान पर एक महत्त्वपूर्ण विनिबंध लिखा है। कुमार मंगलम ने पुरुषोत्तम अग्रवाल की आलोचकीय निर्मिति को उनके इसी विनिबंध शिवदान सिंह चौहान के द्वारा समझने की एक कोशिश की है। आज पुरुषोत्तम अग्रवाल का जन्मदिन है। उन्हें पहली बार की तरफ से जन्मदिन की बधाई एवम शुभकामनाएं। इस अवसर पर हम युवा कवि आलोचक कुमार मंगलम का एक आलेख प्रस्तुत कर रहे हैं। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं कुमार मंगलम का आलेख 'आलोचना का स्वधर्म और उसके सांस्कृतिक महत्व की प्रतिष्ठा'।



'आलोचना का स्वधर्म और उसके सांस्कृतिक महत्व की प्रतिष्ठा'

(पुरुषोत्तम अग्रवाल की दृष्टि में शिवदान सिंह चौहान)



कुमार मंगलम


शिवदान सिंह चौहान हिंदी के ऐसे अकेले आलोचक हैं जिन पर पुरुषोत्तम अग्रवाल ने व्यवस्थित रूप से विचार किया है। अपनी आलोचना यात्रा में वे कई बार उनसे मुखातिब होते हैं। इसका पहला साक्ष्य ‘आलोचना’ पत्रिका के प्रलेस स्वर्ण जयंती विशेषांक में प्रकाशित शिवदान सिंह चौहान पर केंद्रित आलेख ‘प्रगतिशील आलोचना : बीच बहस में’ है। दूसरा साक्ष्य साहित्य अकादेमी की बहुपठित विनिबंध शृंखला भारतीय साहित्य के निर्माता के तहत शिवदान सिंह चौहान पर लिखा उनका विनिबंध है। इससे पता चलता है कि पुरुषोत्तम अग्रवाल शिवदान सिंह चौहान और उनके आलोचना कर्म से न केवल सुपरिचित हैं बल्कि उनका गहन मूल्यांकन भी किया है। पुरुषोत्तम अग्रवाल के आलोचना कर्म पर विचार करते समय उनके इस आयाम को समझना बेहद आवश्यक है। इसका कारण यह है कि एक आलोचक जब दूसरे आलोचक पर लिखता है तो वह उतना ही स्वयं भी खुलता है जितना आलोचक को खोलता है। इस आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए इस आलेख में शिवदान सिंह चौहान के पुरुषोत्तम अग्रवाल द्वारा किये गए अध्ययन और मूल्यांकन को समझने का प्रयत्न किया गया है। 


शिवदान सिंह चौहान प्रगतिशील मूल्यों एवं जन-मूल्यों के संवाहक साहित्यकार थे। उनका आलोचना-कर्म साहित्य के उन मूल्यों के पक्ष में है जहाँ सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक धरातल पर एका हो। आलोचना का मान विश्वसनीय और सामाजिक-साहित्यिक मूल्यों का संघनित रूप लिए हो। बहुत कम लोग जानते हैं कि इप्टा की स्थापना का अवधारणात्मक गुण-सूत्र शिवदान सिंह चौहान के चिंतन से निकला है। वे दार्शनिक तौर पर मार्क्सवादी थे। व्यावहारिक तौर पर जनपक्षधर मूल्यों के साथ आलोचना की विश्वसनीयता उनकी आलोचना का स्वधर्म है। इसके लिए उन्होंने मार्क्सवाद की सीमाओं और समस्याओं को भी स्वीकारा है। विचार की कुत्सितता से परे मूल्यों की नैतिक-बौद्धिक व्याख्या उनके आलोचनात्मक-सांस्कृतिक महत्व की प्रतिष्ठा है। शिवदान सिंह चौहान के मूल्यांकनकर्ता के रूप में आलोचक पुरुषोत्तम अग्रवाल का नाम प्राथमिक है। हिंदी जनवृत्त में शिवदान सिंह चौहान की आलोचना की ओर ध्यानाकर्षण का श्रेय पुरुषोत्तम अग्रवाल को ही जाता है। हालांकि भक्ति काल और आधुनिकता के आलोचक में रूप में वे अधिक प्रतिष्ठित है। पुरुषोत्तम अग्रवाल की आलोचनात्मक निर्मितियों के मानदंड के प्राथमिक स्रोत ‘विचार का अनन्त’, ‘निज ब्रह्म विचार’ और ‘अकथ कहानी प्रेम की : कबीर की कविता और उनका समय’ हैं। उनके विस्तृत लेखन में ये तीन किताबें मील का पत्थर साबित होती हैं जहाँ से पुरुषोत्तम अग्रवाल का आलोचकीय रूप निर्मित होता है। ‘अकथ कहानी प्रेम की’ अगर उनके प्रतिष्ठा का आधार स्तंभ है तो ‘विचार का अनंत’ वह मील का पत्थर है जिसके आलेखों के निहित विचारों का पल्लवन वे आगे अपनी आलोचकीय यात्रा में करते हैं। उनकी भक्ति संबंधी ज्ञान मीमांसा के आरंभिक गुण-सूत्र को ‘विचार के अनंत’ और ‘निज ब्रह्म विचार’ में तलाशा जा सकता है। कबीर संबंधी चिंतन, धर्म, आध्यात्मिकता, भक्ति, लोकवृत्त, देशज आधुनिकता की अवधारणा, गांधी विचार, आहत भावनाएं और जाग्रत विवेक इत्यादि विचार जो उनके लेखन की प्राथमिक चिंताओं में शामिल हैं, उनके आगे के चिंतन में पल्लवित होते हैं। 


यहाँ पुरुषोत्तम अग्रवाल की आलोचकीय निर्मिति को उनके विनिबंध शिवदान सिंह चौहान के द्वारा समझने की कोशिश की गई है। विनिबंध होने के बावजूद शिवदान सिंह चौहान शीर्षक पुस्तक मुकम्मल आलोचनात्मक कृति है। यह अपने स्वरूप में इतिवृत्तात्मक है पर इसके आलोचनात्मक परिदृश्य को लक्षित करें तो यह कहा जा सकता है कि इसमें हिंदी समाज के विस्मरण और उसकी जड़ता को तोड़ते हुए शिवदान सिंह चौहान की आलोचकीय निर्मिति को पूरी तैयारी से समझने का प्रयत्न किया गया है। इस विनिबंध  के बहाने दो बातें स्पष्ट रूप से हमारे सामने आती हैं : पहली प्रगतिशील आलोचक के रूप में शिवदान सिंह चौहान का आलोचना कर्म कितना सकर्मक है, और दूसरी हिंदी मानस की कृतघ्नता, बिगूचन और आत्महंता प्रवृत्ति जो विस्मरण और जड़ता का शिकार है, और जो अपने नायकों के दाय की घनघोर उपेक्षा में परिलक्षित होती है।


शिवदान सिंह चौहान की आलोचना-दृष्टि को समझने के लिए प्रगतिशील आलोचना और हिंदी आलोचना की उस काल को समझने की जरूरत है जब ‘साहित्य का संयुक्त मोर्चा’ संबंधी वाद, विवाद और संवाद आकार ले रहे थे। यह वह समय है जब प्रगतिशील आलोचक अमृत राय, रामविलास शर्मा, प्रकाशचंद्र गुप्त, रांगेय राघव, शिवदान सिंह चौहान इत्यादि आपसी मतभेदों के शिकार हो रहे थे। प्रगतिशील समाज की निर्मिति सबका साझा स्वप्न था किंतु मतभिन्नता ने कटुता की हद तक इन आलोचकों को आमने-सामने खड़ा कर दिया था। विचारों के द्वंद्व में सभी प्रगतिशील आलोचक एक दूसरे से मुठभेड़ करने लगे। इनमें से शिवदान सिंह चौहान और रामविलास शर्मा के बीच की बहसें सर्वाधिक कटु और तनावपूर्ण रहीं। शिवदान सिंह चौहान का प्रगतिशीलता का आग्रह इतना प्रबल था कि उन्होंने रामविलास शर्मा की आलोचनात्मक भूमिका को नगण्य माना और बग़ैर किसी विवेचन और तार्किकता के रामविलास शर्मा के तुलसी, भारतेंदु और नवजागरण संबंधी अध्ययन को ख़ारिज कर दिया। दूसरी ओर रामविलास शर्मा ने अपनी पुस्तक ‘प्रगतिशील साहित्य की समस्याएँ’ में शिवदान सिंह चौहान को ‘विसर्जनवादी’ तक कह डाला। 


दोनों आलोचकों के मध्य संपन्न दुखद वाद-विवादों को पुरुषोत्तम अग्रवाल ‘प्रगतिशील आलोचना : बीच बहस में’ विस्तार से सामने लाते हैं। वे इस विवाद में निष्पक्षता का मोह नहीं पालते बल्कि आलोचकीय साहस का परिचय देते हुए अपना पक्ष भी सामने रखते हैं। उक्त विनिबंध की भूमिका में वे शिवदान सिंह चौहान का पक्ष चुनते हुए लिखते हैं, “विसर्जनवादी कह कर बदनाम किए गए, शिवदान सिंह चौहान साहित्य के अपने ‘कम कट्टर’ परिप्रेक्ष्य के साहसी प्रवक्ता के रूप में उभरते हैं। इस लेख के लिए तैयारी करते हुए मेरे मन में स्पष्ट हो गया था कि चौहान जी का चिंतन मूलतः सही दिशा में था।” जबकि इसी आलेख में वे रामविलास शर्मा की संकीर्णतावादी दृष्टि और असम्बद्ध उद्धरण देने की कला की तीखी आलोचना करते हैं, “1984 में डॉ० रामविलास शर्मा ने इस वाद-विवाद से संबंधित अपने लेख 'मार्क्सवाद और प्रगतिशील साहित्य' नामक पुस्तक में पुनः प्रकाशित कराए हैं। इन लेखों में से वे सारे अंश सावधानीपूर्वक और चुपके से निकाल दिए गए हैं, जो रामविलास जी के तत्कालीन संकीर्णतावाद की सूचना देते हैं।” इसी के साथ वे शर्मा बनाम चौहान विवाद के इतिहास में जाते हैं। यहाँ उनका यह लम्बा उद्धरण देखें,  “डॉ० शर्मा के अनुसार विवाद की शुरुआत मार्च 1937 के ‘विशाल भारत’ में प्रकाशित शिवदान सिंह चौहान के लेख ‘प्रगतिशील साहित्य की आवश्यकता’ से हुई। किसी मार्क्सवादी लेखक ने इसका समर्थन किया हो, याद नहीं; सामान्य हिंदी लेखकों और पाठकों में इसके विरुद्ध तीव्र प्रतिक्रिया हुई, यह निश्चित है। यह भी निश्चित है कि तीव्र प्रतिक्रिया करने वाले इन लेखकों में रामविलास जी नहीं थे। उन्होंने श्री चौहान पर पहला आक्रमण साहित्य की परख के प्रकाशन के बाद किया। इस आक्रमण में भी पूरा जोर ‘कुत्सित समाजशास्त्रीयता’ के आरोप का उत्तर देने और साहित्य की सामयिक भूमिका पर बल देने का है; 1937 वाले लेख में व्यक्त उच्छेदवाद की पड़ताल करने का नहीं। हाँ, यह जरूर है कि बाद में इस लेख के एक वाक्य को डॉ० शर्मा ने इतनी बार और इतने प्रसंगों में दोहराया है कि आम धारणा यही बन गई की श्री चौहान ने उस लेख में छायावाद को हिंदू महासभा के समकक्ष ठहराने के सिवाय कुछ किया ही नहीं है।” 


दोनों पक्षों के बीच संतुलन रखने और रामविलास शर्मा के पक्ष को जानने के लिए यहाँ उनके इस कथन पर भी विचार करना चाहिए, “जो राष्ट्रीय धारा के कवि हैं, चौहान उनसे भी परेशान हैं। भारत-भारती के लिए लिखा है, भारत की प्रगति और सभ्यता के दुश्मन फ़ासिस्ट नेता डॉ० मुंजे और भाई परमानंद के लिए पुस्तक हिटलर की तरह मुसलमानों को देश से निकाल बाहर करने में शायद बाइबिल बन पाती… यहाँ प्रसंग बाह्य उद्धरण देने की डॉ० शर्मा की कला निखार पर है।” पुरुषोत्तम अग्रवाल के ध्यान में रामविलास शर्मा के आरोप, प्रत्यारोप और साहित्य दृष्टि बराबर बने रहते हैं। इसलिए उन पर अकारण शर्मा विरोधी होने का आरोप नहीं लगाया जा सकता है। वे पूरी सावधानी से न केवल रामविलास शर्मा के पक्ष पर विचार करते हैं बल्कि उनके तर्कों को भी महत्त्व देते हैं। पर रामविलास शर्मा के तथ्यों को तोड़ने-मरोड़ने, उन्हें गोल कर जाने और असम्बद्ध उद्धरण देने की शैली उन्हें बिल्कुल रास नहीं आती है। इसलिए रामविलास जी के तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर अपने तर्क को पुष्ट करने की कला पर पुरूषोत्तम अग्रवाल चुटकी ले कर लिखते हैं, “कितना सहज और रोचक ढंग है, प्रतिपक्ष को ध्वस्त करने का। ‘पुनर्विवेचन’ केन वाले के मुँह में ‘पुनर्सृष्टि’ रख दीजिए, स्वभावतः पाठक ‘पुनर्सृष्टि’ की माँग करने वाले की मूढ़ता पर हँसेगा, और आपके सहज विवेक पर दाद देगा। तोड़-मरोड़ के ऐसे उदाहरण डॉ० शर्मा के विवादमूलक लेखन में लगभग बिना खोजे मिलते चलते हैं।”  


रचना और प्रभाव के बीच के द्वंद्व की बुनियादी निर्मितियाँ सामाजिक और मनोवैज्ञानिक समन्वय से निर्धारित होती हैं किसी पॉलिमिकल स्पिरिट से नहीं। जब शिवदान सिंह चौहान की आलोचना की कुत्सित समाजशास्त्रीयता के आधार पर आलोचना किया जा रही थी तब कहीं न कहीं सौन्दर्यवाद और संघर्षविमुखता बल्कि कहें संघर्ष का शोरगुल ही केंद्र में था इसमें शिवदान सिंह चौहान की आलोचना में निहित उन मूल्यों को अनदेखा किया गया जो प्रगतिवाद के वैज्ञानिक जीवन-दर्शन का आधार थे। सामाजिक-मनोवैज्ञानिक मूल्यों का समन्वय प्रगतिवाद की मूल चिंताओं में से है। इसी विवाद में साहित्य में संयुक्त मोर्चा और प्रलेस की नीतियों को ले कर दो प्रगतिशीलों के बीच मतभिन्नता को लेकर विवाद होता है। एक तरफ़ शिवदान सिंह चौहान के उच्छेदवाद और उसके समानांतर रामविलास शर्मा के परंपरागत सकारात्मक दृष्टिकोण का द्वैध देखने को मिलता है। परंपरा की सकारात्मकता के प्रति पूजा-भाव और परंपरा की नकारात्मकता के प्रति असंपृक्ति का भाव; दोनों ही मार्क्सवादी चिंतन के लिए घातक सिद्ध हुए। यह अपने स्वरूप में एकांगी बनता गया जबकि भारतीय जनमानस विचारों से अधिक अपने व्यवहारों के प्रति सहिष्णु है। ‘साहित्य में संयुक्त मोर्चा’ के सवाल पर शिवदान सिंह चौहान को विसर्जनवादी इसलिए कहा गया कि उन्होंने प्रलेस को कम्युनिस्ट पार्टी का प्रचार केंद्र नहीं बनने दिया। यह वही आंतरिक कलह थी, जो कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर विचारों के मतभिन्नता से निर्मित हुई थी। 


शिवदान सिंह चौहान 


यहाँ शिवदान सिंह चौहान की कोशिश कट्टर नहीं होने और सहमति-असहमति के बीच एक संयत रास्ता अख्तियार करने का था। पुरुषोत्तम अग्रवाल इस संदर्भ में लिखते हैं, “वे (शिवदान सिंह चौहान) साहित्य को पार्टी लाइन की अंधानुकरणकर्ता बना देने के सुविधावाद के स्थान पर लेखक के अपने कार्य की ‘गंभीरता और जिम्मेदारी’ पर बल दे रहे हैं। (स्मरणीय है कि तब ग्राम्शी की रचनाएँ हमारे यहाँ सुलभ न थीं।) साहित्य की अपनी ज़िम्मेदारी का यह अहसास साहित्य के प्रति गहरी आस्था और साहित्य और राजनीति के संबंधों की समझ मूलतः  सही दिशा के ही कारण संभव हुआ है। पार्टी और सर्जनात्मक लेखन का संबंध मार्क्सवादी साहित्य चिंता का ऐसा पक्ष है, जिसमें सर्वाधिक विकृतीकरण हुआ है। इसके कारण ऐतिहासिक रहे हैं। लेकिन कम-से-कम आज मार्क्सवादी आलोचना को इस समस्या का गहरा साक्षात्कार करना चाहिए। क्या सचमुच पार्टी लाइन को लेखन की ‘सफलता’ का एकमात्र पैमाना बनाया जा सकता है? यदि बनाएं तो 1947-48 में ‘झूठी’ आजादी का पर्दाफ़ाश करने वाली ‘उत्कृष्ट’ रचनाएँ 1984 में किस कोटि में रखी जाएंगी? लेखक क्यों नहीं मार्क्सवादी विचार को आत्मसात कर सामाजिक अनुभव, स्थिति और कर्म को परिभाषित कर सकता? मार्क्सवाद को जड़ विचारधारा या कट्टरता के रूप में लेना श्रेयस्कर है या व्याख्या और परिवर्तन के दर्शन की प्रक्रिया के रूप में? ये सवाल इस बहस से गुजरते हुए सामने आते हैं; और ‘विसर्जनवादी’ कह कर बदनाम किए गए शिवदान सिंह चौहान साहित्य के अपने ‘कम कट्टर’ परिप्रेक्ष्य के साहसी प्रवक्ता के रूप में उभरते हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से भी, आज स्पष्ट है कि चौहान जी का चिंतन मूलतः सही दिशा में था।”  


इस विवाद की गहराई में उतरने पर एक चीज तो स्पष्ट हो जाती है कि एक ओर रामविलास शर्मा स्वयं तथ्यों की प्रस्तुति में बदलाव करते रहे और दूसरी ओर शिवदान सिंह चौहान को लगातार विसर्जनवादी कह कर निंदित भी करते रहे। जबकि शिवदान सिंह चौहान विचार के स्तर पर कहीं अधिक प्रतिबद्ध, व्यापक दृष्टि-बोध और यथार्थवादी धरातल पर संवाद कर रहे थे। अपने आलेख में पुरुषोत्तम अग्रवाल कई उद्धरणों के माध्यम से शिवदान सिंह चौहान को रामविलास शर्मा के आरोपों से बचाते हैं और उनकी सीमाओं और महत्व को भी रेखांकित करते हैं। इस संदर्भ में वे लिखते हैं, “साहित्य की कोरी वर्गवादी व्याख्या, अमूर्त प्रवृत्ति निरूपण, राजनीतिक अभिश्रेणियों का साहित्य में अंधाधुंध प्रयोग से कुछ चीजें हिंदी में वयस्क मार्क्सवादी आलोचना के विकास में बाधक सिद्ध हुई हैं। जिस विवाद का जायजा हमने लिया है उसमें श्री चौहान की सीमाओं के बावजूद उनका यह अवदान महत्वपूर्ण था कि उन्होंने साहित्य के अपने सरोकारों, प्रकार्य और प्रक्रिया पर बल देने के साहस और विवेक का परिचय दिया। उनकी असफलता अपनी इन जायज चिंताओं को एक आलोचनात्मक ‘विजन’ और समीक्षा-पद्धति के रूप में एकान्वित करने के मोर्चे पर रही। यह असफलता सचमुच त्रासद थी।” यह पुरुषोत्तम अग्रवाल के आलोचक की सफलता कही जाएगी कि प्रगतिशील साहित्य की संयुक्त मोर्चा सम्बन्धी बहसों में अपने आलोच्य को बेहद तटस्थता के साथ बचाते हैं। साथ ही आलोच्य की सीमाओं और सामर्थ्य को रेखांकित भी करते चलते हैं। 


शिवदान सिंह चौहान की आलोचनात्मक शुरुआत मार्क्सवादी और प्रगतिवादी आलोचक के तौर पर हुई। वे जीवन भर आलोचक के तौर पर ‘मनुष्य की आत्मा’ को बचाने और ‘शिशु मन की शंकाओं’ को सुरक्षित रखने का यत्न करते रहे। पुरुषोत्तम अग्रवाल लिखते हैं, “उनका सारा जीवन विवश आस्था से मुक्ति पाने, उसकी जगह विवेकपूर्ण आस्था को प्राप्त करने के संघर्ष के रूप में दीखता है। ‘शिशु मन की शंकाओं’ को व्यवस्थित खोज में रूपांतरित करने के प्रयत्न के रूप में।” ज़ाहिर तौर पर शिवदान सिंह चौहान के लिए प्रश्नाकुलता मनुष्य की आदिम प्रवृत्ति है और आलोचना मनुष्य की आत्मा है। उन्होंने साहित्य और राजनीति में कर्म का भेद नहीं किया। साहित्य को सामाजिक प्रक्रिया मानने से अधिक शिवदान सिंह चौहान ने उसकी मूल चिन्ताओं को व्याख्यायित करने पर अधिक ज़ोर दिया। उनकी सजगता संवेदनशील होने के साथ-साथ पार्टी लाइन को सही दिशा देने की कोशिश में अभिव्यक्ति पाती है। यही वजह है कि वे जब ‘लोकमंगल’ से टकराते हैं तो उसकी निर्मितियों के भीतर के सवालों की तह या यूँ कहें राजनीति में जाते हैं। पुरुषोत्तम जी चौहान जी की इस प्रकृति को  रेखांकित करते है, “व्यक्तिवाद का विरोध मात्र पर्याप्त नहीं, बल्कि कई बार साहित्य और कला के क्षेत्र में व्यक्तिवाद की महत्त्वपूर्ण सामाजिक ऐतिहासिक भूमिका होती है। सवाल साहित्य और समाज के बीच आवाजाही को समझने और समझाने वाली अंतर्दृष्टि और विश्वदृष्टि का है। साथ ही, सवाल किसी रचना को किसी विचारधात्मक ‘लक्षण’ (आधुनिक शब्दावली में परिभाषा) का ‘उदाहरण’ बता कर निबटा देने वाली असंवेदनशीलता से बचने का भी है। साहित्य और समाज का रिश्ता संवेदनात्मक है और संवेदनाओं का वैचारिक पहलू उपेक्षणीय नहीं होता। किसी रचना को ‘लोकमंगल’ के संदर्भ में जोड़ कर देखना बिल्कुल सही है; लेकिन साथ ही पूछना चाहिए कि लोकमंगल वर्णाश्रम व्यवस्था के महिमामण्डन से संभव है; या उसके प्रतिवाद के ज़रिए। फिर, यह भी सही है कि वर्णाश्रम या किसी सामाजिक व्यवस्था का सचेत रूप से समर्थक लेखक, ऐसे समर्थन के बावजूद उस व्यवस्था के विरोधियों के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण हो सकता है।” 


शिवदान सिंह के आलोचना-कौशल का विकास साहित्य, संस्कृति, राजनीति के त्रिकोण में हुआ है। यहाँ से साहित्यिक निर्मितियों के भीतर की प्रश्नाकुलता, परंपरा से ज़िरह और दार्शनिक विश्वदृष्टि उन्हें मिलती है। प्रगतिवाद अपनी बनावट में मार्क्सवाद के विचारों का साहित्यिक प्रतिफलन है। ऐसे में सौंदर्य की दृष्टि और प्रतिमान भी बदल जाते हैं। इस बदलाव को लक्षित करते हुए शिवदान सिंह चौहान के महत्व को पुरुषोत्तम अग्रवाल कुछ यूँ दर्ज करते हैं, “परिमाणों के बदलने का, बदलते प्रतिमानों के आधार पर समकालीन रचनाशीलता और परम्परा के बारे में पुनर्विचार करने का काम आलोचना का था। सौंदर्य की अवधारणा और उसके बद्धमूल संस्कार का मूल्यांकन करने की दार्शनिक चुनौती आलोचना के सामने थी। साहित्य की सामाजिकता का सैद्धांतिक, व्यावहारिक आशय क्या है? यह सवाल आलोचना के सामने था। प्रगतिवाद की दृष्टि से, साहित्य की सामाजिक विशिष्टता क्या है– इसे स्पष्ट करने की चुनौती प्रगतिवादी आलोचना के सामने थी। साहित्य एक सामाजिक प्रक्रिया है- ऐसा मानने की परंपरा पचासों साल से चली आ रही थी– उस दौर में तो इस मान्यता ने निर्विवाद स्वयंसिद्ध का रूप ले ही लिया था। विवाद था ‘सामाजिकता’ के स्वभाव और स्वरूप को लेकर। इस विवाद में प्रगतिवादी दृष्टिकोण को प्रस्तुत करने का दायित्व, प्रगतिवादी आलोचना के सामने था। यह दायित्व केवल अर्थनिरूपण करके नहीं निभाया जा सकता था। इसमें साहित्य के नए संस्कार, सौंदर्य के नए प्रतिमान प्रस्तुत करने का दायित्व अंतर्निहित था। यह ऐसा ऐतिहासिक क्षण था, जिसमें आलोचनात्मक क्रिया की दार्शनिकता बहुत स्पष्ट रूप से केंद्रीय हो उठी थी। उस ऐतिहासिक क्षण में, इस दायित्व का निर्वाह करने वाले पहले आलोचक थे, शिवदान सिंह चौहान। हिंदी के पहले आलोचक।” 


पुरुषोत्तम अग्रवाल शिवदान सिंह चौहान की साहित्यिक निर्मितियों को संघर्षपूर्ण मानते हैं और विवादों को उनके लेखकीय उत्कर्ष का अवरोधक। यहाँ वे शिवदान सिंह चौहान को प्रतिष्ठित ही नहीं करते बल्कि उनकी सीमाओं और संभावनाओं को भी उजागर करते हैं। वे लिखते हैं, “चौहान जी का सारा जीवन इस तथा ऐसी अन्य भ्रांतियों तथा उनकी भयावह परिणतियों के विरुद्ध संघर्ष का जीवन था। इस संघर्ष में उन्होंने कई महत्त्वपूर्ण मुद्दे उठाए, कई तर्कसूत्र प्रस्तावित किए, लेकिन दुर्भाग्य से, जमकर विकसित किसी को नहीं कर पाए। ऐसा करने का समय भी नहीं मिला, और वास्तविक बौद्धिक चुनौतियां भी कम ही मिलीं। उनका अधिकांश समय विवादों में ही गया। विभाईंन निबंधों में प्रस्तावित तर्कसूत्र व्यवस्थित, बृहद तर्क का रूप न ले सके, लेकिन विभिन्न निबंधों में बिखरे इन तर्कसूत्रों का ऐतिहासिक ही नहीं, सैद्धांतिक महत्व भी असंदिग्ध है। उनके निबंधों में साहित्य के प्रति गहरा लगाव, अचूक अंतर्दृष्टि, जनवादी सांस्कृतिक संवेदना और अपनी ग़लतियों, सीमाओं की ईमानदार स्वीकृति यहाँ से वहाँ तक व्याप्त है। चौहान जी की मूलभूत चिंता स्पष्ट है। साहित्य को देखने परखने की कई कसौटियों की संभावना मानते हुए भी उनकी खोज साहित्य के मूल्यांकन का न्यूनतम, सार्वभौम प्रतिमान खोजने की है।” 


छायावाद से संबंधित शिवदान सिंह चौहान की आलोचना भी विवादित रही। छायावाद के सन्दर्भ में शिवदान सिंह चौहान अपनी मान्यताओं को संशोधित करते रहे। छायावादी कवि सुमित्रानंदन पंत को पसंद करने के पीछे शिवदान सिंह चौहान की प्रगतिवादी मूल्यों के प्रति निष्ठा ही दिखती है। छायावाद के असंतोष, विद्रोह के साथ पलायन और रहस्यवादी-अस्पष्ट चिंतन की प्रवृत्ति को असंतोष भावना के रूप में देखने के शिवदान सिंह चौहान के इन्हीं सूत्रों को बाद में रामविलास शर्मा, मुक्तिबोध और नामवर सिंह ने छायावाद के संदर्भ में व्यक्त किया। चौहान जी जब पूंजीवाद को क्रांतिकारी नहीं सौदागर के रूप में देख रहे थे तब छायावाद के कवियों की संश्लिष्टता और उनके वैश्विक आत्मसातीकरण को भी चिह्नित कर रहे थे। छायावाद के सन्दर्भ में शिवदान सिंह चौहान की स्थापना को देखने लायक है :





 “1. यह सभ्यता जिसको छायावाद का कवि अभिषिक्त करना चाहता है, कोई प्राचीन सभ्यता नहीं, बल्कि आधुनिक पूंजीवादी सभ्यता है। उसकी वास्तविकता ने कवि का दृष्टिकोण इतना व्यापक बनाया कि यह पुरानी संकीर्ण धारा का परित्याग कर स्वतंत्र होने की आवश्यकता का अनुभव करने लगा। इस प्रकार छायावादी कवि एक प्रकार का क्रांतिकारी था क्योंकि उसकी वाणी उसके भाव चित्रों में सामंती प्राचीन के प्रति गहरा प्रतिवाद था।


2. छायावाद का कवि अपने भावों पर चारों और बंधन देखता है। उसके मध्यम-वर्गीय, सुख-स्वप्न टूट चुके हैं। वह सामाजिक जीवन की चेतना को विकराल और भयानक पाता है। उसकी चेतना आज उसे ही मार रही है। पूंजीवाद की तरह उसकी चेतना भी आज मानवता का प्रतिनिधित्व नहीं करती। निदान इतना रुदन-क्रन्दन, इतनी निराशावादिता।


3. छायावादी कवि को जीवन के अभाव की चेतना प्राप्त हो गई है, यद्यपि उसकी अंतःप्रेरणाएँ जीवन की दूसरी व्यापक वास्तविकता के प्रति अचेतन हैं, इसलिए इस अभाव को ही वह मानव या मानव जीवन की श्रेष्ठतर वास्तविकता समझने लगा है। लेकिन अभाव की चेतना पा कर कोई उससे संतुष्ट नहीं हो सकता, चाहे अपनी दुर्बलताओं के कारण उसके प्रति कृत्रिम संतुष्टि का भाव, वह कितना भी प्रदर्शित क्यों न करे। इसी कारण छायावादी कविता में असंतोष-भावना की प्रधानता है।” 


आज आप उनके छायावाद के मूल्यांकन से सहमत-असहमत हो सकते हैं किंतु छायावाद को अन्य आलोचकों ने जिस ‘विराट् रिक्तता’ के साथ देखा उसे ही शिवदान सिंह चौहान ने ‘असंतोष भावना’ के रूप में देखा। यह साहित्य और समाज के अंतर्संबंध की सटीक व्याख्या है। 1936 में पंडित जी यानी पंडित जवाहर लाल नेहरू गांधी-इरविन समझौते के समय में जिस ‘विराट रिक्तता’ को संबोधित कर रहे थे उसे हिंदी के आलोचक के रूप में शिवदान सिंह चौहान ने तत्कालीन साहित्य की निर्मितियों में तलाशा। यह दीगर बात है कि शिवदान सिंह चौहान की छायावाद की आलोचना प्रगतिशील मूल्यों की प्रगतिवादी चीख़ ही साबित हुई। यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि शिवदान सिंह चौहान की आलोचनात्मक निर्मिति का शीर्ष प्रगतिवाद की प्रतिष्ठा है। यहाँ यह रेखांकन के योग्य है कि इस विराट् रिक्तता को विजय देव नारायण साही ने ‘भावनात्मक विजय प्राप्त करने की कोशिश’ के रूप में देखा है। पुरुषोत्तम अग्रवाल इस संबंध को कुछ इस तरह व्याख्यायित करते हैं और चौहान जी की उपस्थिति को रेखांकित करते हैं, “प्रगतिवादी चीख़’ का संबंध विराट् रिक्तता से कम, प्रगति के जुनून और स्वतंत्रता की अदम्य इच्छा से अधिक था। अंतर्राष्ट्रीयता और पक्षधरता ‘प्रगतिवादी चीख़’ की आत्मघोषित विशेषताएँ थीं। साहित्यिक आन्दोलन और लेखक संगठन का रूप लेती इस ‘चीख़’ से एक ओर संकट का अहसास था, दो दूसरी ओर इस संकट पर विजय पाने का संकल्प। यह अहसास और यह संकल्प ठीक उसी तरह एक दूसरे के आमने-सामने थे, जैसे कि प्रगतिशील और प्रतिक्रियावादी शक्तियाँ, जिनके बीच, चौहान जी ने नोट किया, “अनवरत युद्ध चल रहा है।” 


छायावाद के इस मूल्यांकन के संदर्भ में प्रगतिवादी व्याख्या निहित है। राष्ट्रीय आंदोलन की प्रारम्भिक स्थिति में पूंजीवाद नेतृत्व सामंती भावना को बढ़ावा दे रहा था और स्वाधीनता का संघर्ष किसान मज़दूरों के आने के बाद ही जन आंदोलन बना, जिसका प्रतिफलन छायावाद में दिखता है। यहाँ समस्या को व्याख्यायित करें तो आलोचना में निहित प्रगतिवादी दृष्टि और परम्परा विमुखता नहीं परम्परा संवाद ही दिखेगा। शिवदान सिंह चौहान की छायावादी दृष्टि पर पुरुषोत्तम जी की प्रतिक्रिया भी इसी ओर इशारा करती है, “छायावादी कविता में असंतोष की भावना हिंदी के साहित्य संस्कार-लिटरेरी कैनन में निर्णायक मॉड लाने वाला निबंध था। इस निबंध के बाद छायावाद की प्रचलित, सरलीकृत व्याख्याओं की सीमाएँ तो उजागर हुईं ही, उस अत्यंत संश्लिष्ट कविता के सामाजिक-सांस्कृतिक तथा सौंदर्यपरक पुनर्मूल्यांकन का रास्ता भी खुला। यह निबंध सचमुच सौंदर्य के प्रतिमानों और उनके सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भों पर पुनर्विचार करनेवाला महत्वाकांक्षी निबंध था। महत्वाकांक्षी और महत्त्वपूर्ण।” 


इस पूरे आलेख में आलोचक पुरुषोत्तम अग्रवाल ने लगभग शिवदान सिंह के लिए रक्षक की भूमिका अदा करते हुए विभिन्न उद्धरणों के मार्फ़त शिवदान सिंह चौहान को प्रतिष्ठित करने का प्रयास करते हैं और वे बहुत हद तक अपनी स्थापनाओं में सफल भी हुए हैं। वे शिवदान सिंह चौहान के आलोचनात्मक अतिरेकों और उनके आलोचना मूल्यों के समर्थन में विविध तर्क लाते हैं साथ ही उन बिंदुओं को भी रेखांकित करते हैं जो विचारधारात्मक मूल्यों के रूप में आगामी चिंतन के पाथेय बने। यहाँ पुरुषोत्तम अग्रवाल का आलोचक रूप प्रश्नबिद्ध हुआ और विनिबंध पढ़ते हुए आपको प्रश्नबिद्ध होने को आमंत्रित भी करता है। अपने आलोच्य को बहसों में साफ-साफ बचाने, उससे अधिक स्थापित करने, उनकी विशेषताओं को रेखांकित करने और उनके आलोचकीय अवदान की महत्व निरूपण में पुरुषोत्तम अग्रवाल पूर्णतया सफल हुए हैं।


हालांकि विनिबंध में आलोचना से अधिक प्रतिष्ठा को महत्व दिया जाता है किंतु प्रश्नबिद्धता का अवकाश वहाँ भी होता है।  पुरुषोत्तम अग्रवाल ने इस अवकाश का यथाप्रसंग दोहन किया है। उनकी आलोचना का त्रिकोण प्रश्नाकुलता, आत्म बोध और लोकतांत्रिकता से निर्मित हुआ है। जहाँ सामाजिक बिगूचन को साफ़ करने की जद्दोजहद दिखाई पड़ती है। एक आलोचक के तौर पर उनमें परिभाषा या स्थापना करने और फिर उस स्थापना को पुष्ट करने के लिए आवश्यक तर्क प्रणाली विकसित करने की कोशिश दिखाई पड़ती है। पुरुषोत्तम अग्रवाल की आलोचना की मूल्य-चेतना नैतिक विवेक के उन संस्कारों से सुसज्जित है जो उनके आलोचना के आचरण-कर्म में अन्तर्भूत है। साहित्य और समाज के बीच उनका आलोचना-कर्म लचकहवा पुल की निर्मिति नहीं करता बल्कि एक ठोस आधार देकर स्थायी निर्माण की ओर अग्रसर होने में विश्वास रखता है। यहाँ भाषाई निर्मितियाँ भी हैं और आलोचना का मूल्य निर्धारण भी। वर्तमान समय में पुरुषोत्तम अग्रवाल की आलोचक उपस्थिति साहित्य चिंतक के साथ-साथ प्रतिबद्ध जन-बौद्धिक की भी है। कारण स्पष्ट है– उनकी उपस्थिति साहित्य और भाषा के भीतर उल्लेखनीय तो है ही, वे परंपरा की असफल और असंगत व्याख्याओं का प्रत्याख्यान करने से भी नहीं चूकते हैं। दो हजार चौदह के बाद सत्ता वर्ग ने परंपरा के जिस बिगूचन को पैदा किया है बल्कि उसे प्रश्रय देकर सत्य का अमली जाना पहनाया है उन अन्यायपरक सामाजिक बदलावों के शिनाख्त और प्रतिकार भी इनका आलोचनात्मक प्रतिमान बनता गया है। पद्मावत, जनगोपाल, कबीर पर अकथ कहानी के बाद के कामों में इसे सहज लक्षित किया जा सकता है। यहाँ साहित्य के केन्द्रीय प्रश्न के साथ बौद्धिक मुठभेड़ तो है ही सत्य की पुनर्स्थापना समूची साहित्यिक संवेदना के साथ मौजूद है। पद्मावत पर उनकी आलोचना साहित्य की समझ को दुरुस्त करने के साथ साथ जायसी की कु-व्याख्याओं का भी प्रकटीकरण है। ऐसे आलोचनात्मक मूल्यों को पुरुषोत्तम अग्रवाल बाएं हाथ से लिखा माने जाने वाला मोनोग्राफ़ में भी सजग आलोचकीय दायित्व के रूप में निर्वाह करते हैं।



कुमार मंगलम



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टिप्पणियाँ

  1. कोशिश सराहनीय है।

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  2. संदीप सिंह प्रयाग25 अगस्त 2025 को 9:03 pm बजे

    आलोचना की भाषा नये पाठकों के लिए मुश्किल पैदा कर सकती है थोड़ा आसान व जबरदस्ती घुसायें गए क्लिष्ट शब्दों से अगर बचा गया होता तो इस लेख में चार चाँद लग सकते थे

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