परांस-4 : अदिति शर्मा की कविताएँ
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कमल जीत चौधरी |
प्रेम बराबरी का एक भाव जागृत करता है। इसमें न तो कोई उच्च होता है न ही निम्न। प्रेम में पुरुष आसक्त होता है। स्त्री खुद के अस्तित्व को प्रेमी के हाथों समर्पित कर देती है। इस क्रम में स्त्री पुरुष से भी प्रतिबद्धता चाहती है। लेकिन जब स्त्री को लगता है कि इस प्रतिबद्धता में खोट है तब वह अड़ कर खड़ी हो जाती है। खुद का ही नहीं बल्कि प्रेम का स्वाभिमान बचाने के लिए। अदिति शर्मा अपनी कविता में लिखती हैं : 'सुनो, आना हो तो निशान छोड़ने के लिए आना/ मेरे चिन्ह मिटाने के लिए नहीं/ अन्यथा मुझे माफ कर देना/ तुम्हारे लिए किवाड़ नहीं खुलेगा।' परांस-4 के अन्तर्गत अदिति शर्मा की कविताएं प्रस्तुत कर रहे हैं।
पिछले अप्रैल से कवि कमल जीत चौधरी जम्मू कश्मीर के कवियों को सामने लाने का दायित्व संभाल रहे हैं। इस शृंखला को उन्होंने जम्मू अंचल का एक प्यारा सा नाम दिया है 'परांस'। परांस को हम हर महीने के तीसरे रविवार को प्रस्तुत कर रहे हैं। इस कॉलम के अन्तर्गत अभी तक हम अमिता मेहता, कुमार कृष्ण शर्मा और विकास डोगरा की कविताएं प्रस्तुत कर चुके हैं। इस क्रम में आज हम चौथे कवि अदिति शर्मा की कविताएं प्रस्तुत कर रहे हैं। कॉलम के अन्तर्गत अदिति की कविताओं पर कमल जीत चौधरी ने एक सारगर्भित टिप्पणी भी लिखी है। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं अदिति शर्मा की कविताएं।
परांस-4
भाल से ऊपर, लौ की पंक्ति बनाती हुई कविताएँ
कमल जीत चौधरी
लिखे हुए पर लिखना क्यों ज़रूरी है? यह तब आवश्यक है जब यह बेहतर निर्णयों, स्थापनाओं, रास्तों और संपादन की ओर ले जा सके। आलोचना; किसी विद्यार्थी संस्करण की व्याख्या नहीं है। ऐसी व्याख्याओं से बचने का प्रयास करता हूँ। एक छोटा सा खेत तैयार कर सका हूँ। इसमें परांस लगा रहा हूँ।
'परांस' की इस कड़ी में अदिति शर्मा की कविताएँ सामने हैं। अदिति शर्मा पीछे हैं। यह पीछे होना; अलग तरह से आगे होना है। पीछे हो कर उनकी शालीनता, विनम्रता, शुचिता और सामाजिक न्याय से भरी सोच बहुत आगे है। उनके लिए कविताएँ; छुपने की आड़ नहीं हैं। ढाल भी नहीं हैं। यह मशाल की तरह हैं। उनसे तनिक आगे और ऊपर। उनके भाल से ऊपर, लौ की एक पंक्ति बनाती हुईं। असल में वह कविताओं की सुन्दर पाठक और एक सच्ची साहित्यिक हैं। अदिति मेरी बहुत प्रिय शिष्या हैं, और मेरी छोटी बहन भी, तो स्वाभाविक है कि उन्हें बहुत अच्छी तरह से जानता हूँ। ग्यारहवीं-बारहवीं में पढ़ते हुए उन्होंने अपने मन को स्कूल नोट बुक्स के पिछले पन्नों पर दर्ज़ करना शुरू किया। जल्दी ही वे मॉर्निंग असेंबली और विद्यालय में आयोजित कार्यक्रमों की तुकबंदियों से इतर; कविता की दुनिया की नागरिक हो गईं। स्त्री भाव-संसार की सुन्दरता लिखती, जनतांत्रिक मूल्यों की पैरवी करती इनकी नागरिकता; कविताओं में अपना मत प्रकट कर रही है। अदिति का लिखा दूसरी बार प्रकाश में है। वह कम लिखती हैं। कम बोलती हैं। अपने लिखे को कमतर कहती हैं। सोचती अधिक हैं। अव्वल दर्जे की विद्यार्थी हैं, और सीखने को ले कर लालायित और जिज्ञासु रहती हैं।
अदिति की कविताएँ स्त्री-मन, संघर्ष, निराशा, चिंता, असहायता, आदर्श, चेतावनी और इनकार की अभिव्यक्ति हैं। इनकी कविताई; स्त्री-लेखन की दुनिया का वह अंचल है, जहाँ जाने के लिए विशेष दस्तावेज़ की आवश्यकता नहीं है। अदिति के पास एक परिपक्व कचास है। वह जिस भाषा में संवाद करती हैं, उसी में लिखती भी हैं। इनकी भाषा पठनीय है। इनका कहन या मुहावरा अविशेष में विशेष को प्राप्त होने लायक है। इस सन्दर्भ में इनकी आगे की काव्य-यात्रा देखना प्रीतिकर होगा।
'प्रेम से भर कर धरा हो जाती है' और 'प्रेम से खाली हो कर बुद्ध', यह काव्य-पंक्तियाँ औरत के विराट की ओर ले जाती हैं। दरअसल खाली होने के लिए भरा होना अनिवार्य है। प्यार से भरी स्त्री ही प्यार से खाली हो सकती है। यह खाली होना विराट खला का होना है। इसमें कविता की व्याख्या नहीं; बल्कि उसकी अनुभूति है। निश्चित ही यह खाली होना प्रेमरहित कदापि नहीं है।
'बदलाव' शीर्षक छोटी सी कविता में बदलाव को माँ के दूध, नमक और भाषा जितना ज़रूरी बताया गया है। इसे देखें:
'बदलाव ज़रूरी है
जैसे ज़रूरी है
माँ का दूध।
जैसे ज़रूरी है
नमक।
जैसे ज़रूरी है
भाषा।'
यहाँ आलोच्य कवि कोई दार्शनिक नहीं, बल्कि एक आम स्त्री ही है। यहाँ सूक्ति कहने का मोह नहीं बल्कि जीवन में दूध, नमक और भाषा की शुचिता को बताया जाना लक्ष्य है। माँ, भाषा, दूध और नमक की परस्परता से कविता व अन्य कलाएँ सम्भव होती हैं। यहाँ 'माँ का दूध', 'दूध का कर्ज़', 'नमक-हलाल', 'बिन निज भाषा ज्ञान के मिटे न हिये के शूल' जैसे पद/पदबंध सार्थक बदलाव की ओर इंगित करते हैं।
'घाव और बड़ा आदमी' की व्यंजना मारक व मार्मिक है। यह कोहनी ग़रीब की है। घाव, लाचारी और परेशानी ग़रीब की है, मगर उसे घृणा से देखता आदमी; उसका नहीं है। वह असंवेदनशील है। यहाँ कवि की आँख ने जिस कारुणिक यथार्थ को सृजित किया है। वहीं दृश्य पाठ में भी उपस्थित हो रहा है। यह कविता देखें:
'कोहनी पर भिनभिनाती मक्खियाँ
नाक भौं सिकोड़ता बड़ा आदमी...
उसके घाव और बड़े आदमी में एक समानता है-
दोनों उसे खत्म कर रहे हैं।'
वस्तुतः बड़े आदमी को घाव पर बैठती मक्खियों से अधिक नाकाबिले बर्दाश्त नंगे घाव वाला आदमी है। इसे देख कर वह नाक भौं सिकोड़ता है। 'दोनों उसे ख़त्म कर रहे हैं'; में शिनाख़्त और सत्यापन है। कवि को पुलिस, जासूस, पत्रकार, वक़ील, न्यायाधीश, नेता (जन) की भूमिका में भी होना होता है। इस होने में फ़कीरी की शाही रहनी चाहिए न कि अफ़सरशाही। इस होने की भूमिका में आलोच्य कवि; अन्य कविताओं में भी शिनाख़्त, तस्दीक़ व तलाश करती हैं।
'अन्यथा मुझे माफ़ कर देना' की माफ़ी आम हो जानी चाहिए। इस कविता में प्यार और रिश्ते के प्रति निग्घेपन का भाव और पितृसत्ता के सामने सख़्त स्टैंड है। स्त्री समर्पण की सघनता चरम सीमा पर है। यहाँ पारम्परिक आदर्श प्रेम प्रकट हो रहा है। मगर इस भाव को समर्पित स्त्री की उंगलियाँ, उसके तलवे किसी भी भांति अपने चिन्ह मिटने नहीं देना चाहते। यहाँ हक़ इतना अधिक दिया जा रहा है कि जूतों समेत चले आने का आग्रह है, और यह न्योता उन पैरों को है, जो स्त्री की पगडंडियों और उसके संघर्षों की डगर पर चल सकें। वह सिर्फ़ साथ चाहती है, बाकी प्रेमपात्र के पैरों को बचाने की उसकी क़ुव्वत इतिहास सिद्ध है।
'कौन जाने' कविता का कहन, भाषा, बिंब व प्रतीक इसे बहुअर्थी आयाम देते हैं। नन्हीं किरण चाँद की तरफ टुकुर रही है। यह किसी अंश का अपने समग्र को देखना है। एक आधे का; अपने पूरे को देखना है। एक बच्ची का माँ को देखना है। इस कविता को पढ़ें:
'दीवारों के भीतर सुस्ताती नन्हीं रश्मि खड़ी है
खिड़की पर
टोकरी-भर उम्मीदों के जवान होने के इंतिज़ार में
मकड़ी के जाल-सी चिपकी है
अँधेरे कोने में
पता नहीं कब से
टुकुरती है चाँद बार-बार...
कौन जाने?
पीछा करते-करते
नींद और दीवार पूरी तरह टूट ही जाए।'
यहाँ रोशनी की एक यात्रा है। लघु और गुरु की परस्परता का सुन्दर दृश्य है। यहाँ '...कौन जाने? पीछा करते-करते/ नींद और दीवार का टूटना' ऐसा अनकहा; कहा है, जो पूरी और अच्छी कविताओं की एक शर्त हो सकता है। इस अनकहे पर दुरूहता, असम्प्रेषणीयता, शब्द-जाल जैसे काव्य-दोष नहीं मढ़े जा सकते।
अदिति की कविताओं में अभिव्यक्त पिता, माँ और सहभाव; क्रमशः फादर डे, मदर डे और वैलेंटाइन डे वाले नहीं हैं। वह पिता को कच्चे घर की छत पर डली शहतीर के रूप में देखती हैं:
'पिता,
तुम भविष्य को कंधों पर टिकाए,
मन ही मन कामना करते हो
कलियुग में
शापों के फलीभूत हो जाने की
तुम,
शहतीर को पत्थर बनते देखना चाहते हो
पर
देखते ही देखते,
तुम्हारी कोशिशों को
घुन लग जाता है
तुम
रो नहीं सकते
क्योंकि तुम्हारा रोना
गला सकता है
घर की नीवें।'
'शहतीर' शीर्षक इस कवितांश से जाहिर है कि शहतीर कच्चे घर के लिए प्रतिबद्ध है। यहाँ पिता संघर्षरत हैं। वह आदर्श, असहाय परन्तु दृढ़ हैं:
'नदी बनूँगा
हिमालय बनूँगा
रेत-फँसे पाँवों से
नाप दूँगा
सारे ब्रह्माण्ड की गति,
अपने अंतर के क्रंदन से
एक-एक नक्षत्र को
बहरा कर दूँगा।'
अदिति की कविताई प्यार और पत्थर की जंग में प्यार को जीतते देखती है। तलवार उठाने की बात भी करती है।
'कुहरे के चाँद-सा/ तुम्हारा होना ज्ञात है', 'ओस पड़ती है स्वप्न-कमल पर/हरसू हरीतिमा फैल जाती है।' जैसी काव्य-पंक्तियों में इनका सहभाव अत्यधिक सघनता से बिंबित होता है।
अदिति की कविताओं में माँ; अपनी बेटी को नई औरत बनाने की भूमिका निभा रही है। वह स्वयं खूंटी पर टँगी है, और बेटी को कील हो जाना सिखा रही है:
'दीये में अकांक्षाओं का तेल डालना,
अश्रुनीर को भाप बनाना,
ज्वर के सेंक पर,
चूल्हा जलाना,
सब सिखाती हैं।
बहुत प्यार करती है माँ,
फिर पता नहीं क्यों;
दीवार में गढ़ी कील हो जाना भी सिखाती हैं।
परिवार का बोझ कील पर टांगा जाता है। औरत के कंधों या यूँ कह लें कि उसका पूरा वजूद ही कील बना दिया गया है। 'माँ' शीर्षक कविता का पाठ मुझे कई तरह की कीलों की ओर ले गया। कील अनेक भूमिकाओं में है। कविताएँ; नाव की कील हो सकती हैं। दरवाज़े-खिड़की की कील हो सकती हैं। अदिति को शुभकामनाएँ प्रेषित करता हूँ। यह कहते हुए कि एक कील; क्रूर सत्ताओं के ताबूत की आख़िरी कील भी बनेगी। यक़ीनन वह कील औरत की होगी। ज़िंदाबाद!
सम्पर्क:
कमल जीत चौधरी
09419274403
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अदिति शर्मा |
कवि अदिति शर्मा का परिचय:
अदिति शर्मा का जन्म साम्बा जिले (जम्मू-कश्मीर) के सुपवाल नामक गाँव में हुआ। वे स्कूल समय से कविताएँ लिखती हैं। हिन्दी भाषा व साहित्य से इन्हें विशेष अनुराग है। केन्द्रीय विश्वविद्यालय साम्बा (जम्मू) से हिन्दी में परास्नातक हैं। इन्होंने नेट व सेट परीक्षाएँ भी उत्तीर्ण की हैं। जम्मू-विश्वविद्यालय से प्रोफेसर अंजू थापा के निर्देशन में एम.फिल. करने के बाद उन्हीं के निर्देशन में पी-एच. डी. कर रही हैं।
अदिति शर्मा की कविताएँ
शहतीर
शहतीर
पर्याय है तुम्हारा
हे पिता,
भविष्य को कंधों पर टिकाए,
तुम,
मन ही मन कामना करते हो
कलियुग में
श्रापों के फलीभूत हो जाने की
तुम,
शहतीर को पत्थर बनते देखना चाहते हो
पर
देखते ही देखते,
तुम्हारी कोशिशों को
घुन लग जाता है
तुम
रो नहीं सकते
क्योंकि तुम्हारा रोना
गला सकता है
घर की नीवें।
तुम सोचते हो:
सपनों की जगह
ढूँढूँगा पत्थर
और
नदी बनूँगा
हिमालय बनूँगा
रेत-फँसे पाँवों से
नाप दूँगा
सारे ब्रह्माण्ड की गति,
अपने अंतर के क्रंदन से
एक-एक नक्षत्र को
बहरा कर दूँगा।
तुम,
यह सब सोच रहे होते हो कि
गिर पड़ता है अचानक
शहतीर!
माँ
माँ मना करती हैं :
गर्म फर्श पर,
नंगे पाँव खेलने से,
गली में अकेले घूमने से
बिना बताए
किसी के घर जाने से।
माँ टोकती हैं :
ज़ोर-ज़ोर से हँसने,
तेज़ी से सीढ़ियां चढ़ने,
मुंडेर से झाँकने,
और बड़ी से बड़ी बात पर,
छोटी-सी आवाज़ उठाने पर।
माँ टोकती हैं :
गली में फेरी वाले की आवाज़ सुन कर
बिना चुन्नी के बाहर जाने,
भरी दोपहरी में
नहर-ताल में डुबकी लगाने
और सुबह ज़रा देर से जगने पर भी।
माँ सिखाती हैं :
ओढ़न-बिछावन
समझातीं हैं
बर्तन की खटकन,
लौ और लपट के मध्य
आंकड़ा गिनाती हैं।
दुनिया के कितने रंग, यह भी
बताती हैं।
दीये में अकांक्षाओं का तेल डालना,
अश्रुनीर को भाप बनाना,
ज्वर के सेंक पर,
चूल्हा जलाना,
सब सिखाती हैं।
बहुत प्यार करती है माँ,
फिर पता नहीं क्यों;
दीवार में गड़ी कील हो जाना भी सिखाती हैं
खो जाती हैं माँ ;
जब बेटी होने का मतलब समझाती हैं...
ऊँगली
ऊँगली:
वह उम्मीद है, जो
औरत थामती है।
हाथ:
वह भरोसा है जो,
भरोसा करने के वक़्त
छूट जाता है।
औरत
प्रेम में,
उम्मीद हो जाने से
डरती है
और,
धर देती है पाँव
स्वप्नों की यात्राओं पर
पी कर गरल
पवित्र सम्भावनाओं के विरुद्ध,
वह,
आकाश हो जाती है।
औरत,
प्रेम से भर कर
धरा हो जाती है,
और
प्रेम से खाली हो कर
बुद्ध!
बदलाव
बदलाव ज़रूरी है
जैसे ज़रूरी है
माँ का दूध।
जैसे ज़रूरी है
नमक।
जैसे ज़रूरी है
भाषा।
घाव और बड़ा आदमी
कोहनी पर भिनभिनाती मक्खियाँ
नाक भौं सिकोड़ता बड़ा आदमी...
उसके घाव और बड़े आदमी में एक समानता है:
दोनों उसे खत्म कर रहे हैं।
अन्यथा मुझे माफ़ कर देना
तुम जो समुद्र लिए निगाह में
नज़र उठा कर देख लेते हो
आबाद हो जाती है रूह
भर जाती है कोई खलिश
मरहम बन जाती है मुस्कान
चुरा लेती हूँ मुट्ठी भर सुकून
ओस पड़ती है स्वप्न-कमल पर
हरीतिमा फैल जाती है
दूर-दूर तक तुम रंग हो जाते हो
खोजने लगती हूँ रहस्य
उस नए रंग की कारीगरी का
मैं अनन्त,
और तुम विस्तार होते जाते हो
सतह हो जाते हो
कुहरे के चाँद-सा
तुम्हारा होना ज्ञात है
तुम्हें हक है कि जूतों समेत चले आओ
सुनो, आना हो तो निशान छोड़ने के लिए आना
मेरे चिन्ह मिटाने के लिए नहीं
अन्यथा मुझे माफ कर देना
तुम्हारे लिए किवाड़ नहीं खुलेगा।
कौन जाने
दीवारों के भीतर सुस्ताती नन्हीं रश्मि खड़ी है
खिड़की पर
टोकरी-भर उम्मीदों के जवान होने के इंतिज़ार में
मकड़ी के जाल-सी चिपकी है
अँधेरे कोने में
पता नहीं कब से
टुकुरती है चाँद बार-बार...
कौन जाने ?
पीछा करते-करते
नींद और दीवार पूरी तरह टूट ही जाए।
शब्द
शब्द सिर्फ शब्द हैं
तब तक जब तक कि वे स्पर्श न बन जाएँ
शब्द सिर्फ शब्द हैं
तब तक जब तक कि तुम निकल नहीं पड़ते
अर्थ की तलाश में।
तो फिर मैं
सदियों से घिसी जाती रही औरत
अपने अस्तित्व के लिए
और कर्तव्यों के सिलबट्टे पर
शायद मैं भी घिसी जाऊँगी
ईंट-ईंट जुड़ती
खड़े होते झूठी शान के महल
शायद बना कर कोई वस्तु मात्र
उसमें रखी जाऊँगी
और मैं रहूँगी
हर दूसरे पल चुपके से
निकलता जाता जीवन
मुझे भी कहा जाएगा अगर
आँखों में सीलन लिए मुस्कुराने को
तो मुस्कुरांऊगी
घोंट कर गला इच्छाओं का
रहना जो पड़े
रहूँगी रोशनी की ज़रूरत तुम्हें पड़े
मैं जलूंगी
पर तुम कहोगे कि आत्मा बेच डालूं अपनी
सोच से आसमान निकाल दूँ
कागज़-कलम फेंक दूँ
तो फिर मैं तलवार उठाऊँगी।
मुझे यक़ीन है
संवेदना के दरवाज़े पर ताला लगा
हृदय के किवाड़ बंद कर
हम आधुनिक हो रहे हैं
बीज सड़ रहे हैं
उनका सड़ना ख़त्म कर रहा
मानव सभ्यता
बराबर, निरंतर
कि सहेजा जाना ज़रूरी है
मिट्टी और बीजों को
हम दिशा भटक चुके लोग
क्यों अपनी जड़ें काट रहे हैं
वन्य को अपाहिज बना
लम्बी दौड़ हांक रहे हैं...
वह दौड़ जो हमें, हमसे पछाड़ देगी
इससे पहले
कि सूरज डूब जाए
नदियां, पर्वत और ऋतुएं मर जाएँ
आओ,
ताला खोलते हैं
बचाते हैं मुट्ठी भर बीजों के लिए
अंतर की उपजाऊ भूमि,
हाथों के पानी और
पैरों की धूप को...
मुझे यक़ीन है
पत्थर और प्रेम की जंग में
प्रेम जीत जाएगा।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
सम्पर्क
ई मेल : sharmaaditi78891@gmail.com
अदिति और kamal जीत जी को साधुवाद.. घर, निजी रिश्तों से ले, समस्त समाज, सृष्टि की विवेचना, समझ समेटे हुईं कविताएं, स्त्रीमन की कवितायों बहुत सशक्त हैँ.. अपनी शर्तों पर प्रेम ग्रहन.. नये बदलते युग की आहट.. खूब आशीर्वाद
जवाब देंहटाएंकवि कमलजीत चौधरी अदिति जी को साधुवाद।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंसशक्त!
जवाब देंहटाएंसटीक !
कुछ शब्दों मे मील भर लंबी बात कह देती हो तुम,,,,,(कील हो जाना,,,)
व्याकरण का
मेरा साधूवाद,,,,
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचनाएं सुन्दर समीक्षा के साथ ।
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