ग़ज़ा के कवियों की कविताएँ

 

लुबना अहमद



कविता क्या कर सकती है? केवल कवि के ही नहीं बल्कि पाठक के मन मस्तिष्क में भी यह सवाल बार बार उठता रहता है। दुनिया के तमाम कवियों ने भी कविता को ही शीर्षक बना कर तमाम कविताएं लिखी हैं जिसमें अक्सर कविता की प्रासंगिकता पर बातें होती रहती हैं। कविता क्या, क्यों, और किसलिए? यह आज भी एक प्रासंगिक सवाल है। और यह सवाल जब तक बने रहेंगे तब तक कविता की प्रासंगिकता बनी बची रहेगी। युद्ध चाहें जिन भी देशों के बीच हो बेहिसाब बर्बादी ले कर सामने आता है। इससे तमाम निर्दोष लोग भी प्रभावित होते हैं। खासकर वे मासूम बच्चे जिनकी एक मुस्कराहट भर से प्रकृति भी अनायास ही मुस्कुराने लगती है। गज़ा पर इजरायली कहर से दुनिया भलीभांति वाकिफ है। गज़ा के कवियों ने इसे ले कर कई महत्त्वपूर्ण कविताएं लिखी हैं जिसका उम्दा अनुवाद भास्कर चौधरी ने किया है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं ग़ज़ा के कवियों खासकर लुबना अहमद, मरियम मुश्ताहा और मोहम्मद मौसा की कविताएँ।



ग़ज़ा के कवियों की कविताएँ 

अनुवाद : भास्कर चौधरी



लुबना अहमद की कविताएँ 


ग़ज़ा के बच्चों को जीने दो 


ओह!

दुनिया, जरा ठहरो एक पल के लिए। 

इच्छाओं की देवी को अपने पंख फैलाने दो और 

उतरने दो ग़ज़ा की धरती पर  

और सभी बच्चों को ग़ज़ा के 

ऊपर ले जाने दो

उन्हें आश्चर्य की भूमि पर ले जाने दो।    

उन्हें वहाँ घर मिलेगा  

जैतून और नींबू के बाग से सजा 

वे साँस लेंगे नींबू के सफेद फूलों की खुशबू में 

उन्हें अपने स्कूलों में तरक्की का अवसर मिलेगा।

वे इंतज़ार करेंगे अपने घरों में स्कूल बस का। 

माँएँ बाहों में भर लेंगी बच्चों को 

स्कूल के लिए निकलने से पहले

और शायद सावधानी बरतने के 

कुछ शब्द भी कहेंगी 

परीक्षा के दिनों में

और उनके पिता काम पर होंगे 

लौट कर जब घर खटखटाएंगे कुंडी

भाई-बहनों में होड़ मचेगी कि 

कौन खोलता है पहले दरवाजा।

कोई भी अनुपस्थित नहीं होगा

सभी इकट्ठे होंगे ‘लंच’ पर 

बच्चे झूलों पर खेलेंगे, बातें करेंगे, 

हँसेंगे,  

बहस करेंगे और 

किस्से-कहानियां सुनाएंगे। 


 

चुप्पी का बोझ 


ग़ज़ा के शहीद 

तब तक मरने को तैयार नहीं 

जब तक कि वे एक बंद रेखा या 

आकाश में आधी खींची गई रेखा 

खींच नहीं देते।

 

मैंने आँखों को सिकोड़ कर गरजते हुए धुएं के बीच से 

उन्हें समझने की कोशिश की

पर ड्रोन ने उनके शब्दों को निगलना जारी रखा।

 

मैंने कविता को जल्दबाजी में सिल दिया, 

फिर धूल के हाशिये पर अपना नाम लिख दिया और 

घुट गई चुप्पी के बोझ तले। 



3 


उसकी चोटियाँ तितलियों के लिए थीं, 

जो सूरज की रोशनी को पकड़ने के लिए बनाई गई थीं – 

उसे उसकी माँ ने कोमल हाथों से सम्भाल कर और प्यार से गूँथा था।  

हर मोड़ खास था, हर लट एक मास्टरपीस, जैसे 

उसकी माँ एक कलाकार हो, 

जो कुछ नाजुक, 

कुछ शाश्वत बना रही हो।

  

वह दौड़ती थी, हँसती थी

चोटियाँ उछलती थीं,   

खुशी उसकी बेशुमार थी,

हर बच्चे की तरह, कभी मौत से नहीं डरती वह, 

नहीं जानती उसकी छाया को भी ... 


लेकिन आसमान गरज उठा ─

और एक पल में गायब हो गईं तितलियाँ। 


अब, उसकी माँ की उंगलियाँ खाली चोटियों को ढूंढती हैं, 

उसके पिता जो बचा है उसे समेटते हैं। 

अब कोई चोटी नहीं, 

कोई हँसी नहीं, 

कोई मासूमियत नहीं।

 

इन चोटियों को कभी कमजोर नहीं पड़ना था।






मरियम मुश्ताहा की कविता 


शांति की तलाश में 


उन्हें जाना कहाँ चाहिए जब 

जो कुछ भी है उनके पास 

वह सब मिल चुका है मिट्टी में?

बेघर अपने ही वतन में,

इंतज़ार में कि कोई 

रेत का एक टुकड़ा दे दे ताकि वे 

वे इस बिखरी हुई जमीन पर 

अपना तंबू लगा सकें। 


पंछी नहीं कोई जो

सुबह का स्वागत करता 

केवल शोर है –

पैरों का - भागते हुए, 

बेचैन सड़कों का,

उन आँखों का जो 

कभी शांति नहीं पाती 

फिर भी, वे उठते हैं 

शांति की तलाश में –

रोटी के एक टुकड़े के लिए, या फिर 

शांति के टुकड़े के लिए ही। 


वे कहते हैं गर्म है सूर्य,

किसने कहा लेकिन

तूफान नहीं ला सकता यह? -

उनके चेहरों को उकेरता है,

एक अलग साँचे में।  


वे सूर्यास्त के लावण्य का इंतज़ार करते हैं 

पर जब वह आ जाता है,

उन्हें अफसोस होता है –  

रात भय से भर जाती है,

जो कभी खुशियों का समय हुआ करता था। 

तब वे एक बार फिर 

दर्द के उसी चक्र में फँस जाते हैं –

कहाँ है खाना? कहाँ है पानी??    

  

बड़ा हो रहा है उनका बेटा,

खाने की उसकी उम्मीद ठंडी पड़ रही है

हम चाहते हैं कि यह बदल जाए, 

इस पिंजरे से आज़ाद हो जाएँ । 

तब तक, हम बिना सोए जागते रहते हैं –

अपनी ज़मीन को क्रूर हाथों से आज़ाद होते देखने के लिए, 

एक ऐसे भविष्य का सपना देखने के लिए जिसे 

हमने कभी नहीं जाना, 

आखिरकार महसूस करने के लिए। 






मोहम्मद मौसा की कविताएँ 


1 


अकेली माँओं के लिए 


वह पेड़ जो

सजदा कर रहा था मेरे साथ, 

झुका ज़रा

पूछा उसने मुझसे 

मैं सजदा कर रहा हूँ किसलिए  

मैंने कहा कि मैं 

उन अकेली माँओं के लिए सजदा कर रहा था 

झड़ रही हैं पत्तियाँ जिनकी -

पेड़ों की तरह...   


2


हवा में छाया है धूसर दु:ख

 

हम तरसते हैं उसके लिए  

जो थे हम कभी


मुस्कुरा उठती सुबह की धूप 

बच्चों को देख कर 

और रोशनी को सिखातीं दादियाँ 

कि कैसे नाचना है मई में ... 

 


3


यहाँ तक कि मृतकों को 

ग़ज़ा से हटाया जा रहा है 

क्योंकि ग़ज़ा में कम पड़ गए हैं क़ब्र


अस्पतालों के गलियारे, 

टेंट, सड़क, मलबे में तब्दील हो चुके घर, 

मस्जिद और गिरजाघर,

बरामदे और आँगन और स्कूल 

 

वे मृतकों  से 

जगह खाली करने को कह रहे हैं।



4


इलायची की खुशबू 

मेरी माँ के हाथों में 

खोया हुआ दोपहर है 

और कुटी हुई तुलसी पत्तियां

दादी के हाथों की ─


मुझे बहुत याद आती है

उस बीते हुए कल की।



5 


एक कविता क्या कर सकती है?


कविता क्या कर सकती है नरसंहार के दौरान?

क्या रोक सकती है कविता किसी की मृत्यु ? ─

बच्चे, औरतें, मर्द या किसी कवि की ही?

क्या यह बचा सकती है 

किसी शहर को रात में रोने से? 

क्या यह युद्ध से तबाह सड़कों का नाम बता सकती है?

क्या यह भीड़ भरे अस्पतालों से रक्त बहना 

बंद कर सकती है?

क्या यह अकाल को हमारे शरीर खाने से रोक सकती है? 

क्या कविता माँ, पिता, बेटे, बेटी या प्रेमी की 

जगह ले सकती है?

क्या यह किसी युद्ध जेट को डरा सकती है या 

कर सकती है किसी सैनिक को निरस्त्र?

क्या यह ध्वस्त घरों का पुनर्निर्माण कर सकती है 

और ध्वस्त मस्जिद में प्रार्थना कर सकती है?

क्या यह एक तंबू में छः सौ दिनों तक रह सकती है?

क्या किसी कैदी को वापस ला सकती है,

क्या इन तमाम चीजों का कोई मतलब ढूंढ सकती है,

क्या यह एक नाम खोज सकती है?


नरसंहार के दौरान एक कविता क्या कर सकती है?


    


टिप्पणियाँ

  1. बहुत मार्मिक कविताएं।इस दुर्दान्त समय में भी कविताएं मनुष्य और मनुष्यता को संभाल रही है।कविताओ ने क्या किया,जब इतिहास पूछेगा तो गजा के ये कवि अपनी कब्रों में से खिल आएंगे फूलों की तरह और तोप के मुआनों को ढांप लेंगे

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    1. बहुत सुंदर टिप्पणी. शुक्रिया.

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