स्वप्निल श्रीवास्तव का आलेख 'लक्ष्मीधर मालवीय की रेतघड़ी'

  



स्वप्निल श्रीवास्तव कुछ उन रचनाकारों में से हैं जिन्होंने कविता, कहानी से इतर कुछ बेहद जरूरी संस्मरण और आलेख लिखे हैं। इसी क्रम में हाल ही में उनकी एक महत्त्वपूर्ण किताब आई है दियासलाई में चाबी। इस किताब में एक अध्याय प्रवासी रचनाकार लक्ष्मीधर मालवीय पर है। इस आलेख से लक्ष्मीधर मालवीय के व्यक्तित्व और कृतित्व के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है। आज इसी किताब से यह आलेख हम प्रस्तुत कर रहे हैं। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं स्वप्निल श्रीवास्तव का आलेख 'लक्ष्मीधर मालवीय की रेतघड़ी' ।



आलेख 

'लक्ष्मीधर मालवीय की रेतघड़ी' 


स्वप्निल श्रीवास्तव 



लेखक का जीवन किसी उपन्यास से कम रोचक नहीं होता। वे लेखक हमें ज्यादा आकर्षित करते हैं, जो जोखिम उठा कर लिखते हैं -अपने लिये अलग पथ बनाते हैं। ऐसे लोगों की पहचान अलग होती है। लिखना एक सुविधाजनक कर्म नहीं है, उसके लिये यंत्रणा से गुजरना पड़ता है। जो लेखक अभिव्यक्ति के खतरे उठाते हैं, वे साहित्य के आकाश में चमकते हुए दिखाई देते है। इस मुहावरे के कवि मुक्तिबोध इसके उदाहरण हैं, उन्होंने हिंदी कविता और आलोचना का शास्त्र बदला है।


इन पंक्तियों को लिखते हुए हिंदी के प्रवासी लेखक लक्ष्मीधर मालवीय की याद आती है। वे हिंदी के उन प्रवासी लेखकों में एक हैं जिन्होंने देश के बाहर हिंदी साहित्य के विस्तार के साथ दो देशों के साहित्य के बीच में एक पुल का काम किया। ऐसे लेखक कम बिडम्बना का शिकार नहीं होते - उनका मूल्यांकन न अपने देश में हो पाता है और न विदेशी भूमि पर उन्हें कोई तरजीह दी जाती है। 


न खुदा ही मिला, न विसाल ए सनम

न इधर के हुए, न उधर के हुए 


जैसी स्थिति पैदा हो जाती है। अभी लक्ष्मीधर मालवीय का मूल्यांकन किया जाना बाकी है।


उन्होंने जिस तरह का लेखकीय जीवन जिया है, वह हमें चकित करता है। लक्ष्मीधर मालवीय उस परिवार से आते हैं जिनकी स्वतंत्रता संग्राम में केंद्रीय भूमिका रही है। मदन मोहन मालवीय उनके दादा थे, वे प्रसिद्ध अधिवक्ता थे। चौरीचौरा के स्वतंत्रता सेनानियों का मुकदमा उन्होंने लड़ा था, इससे उन्हें कीर्ति भी मिली थी। उन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना की थी। लक्ष्मीधर मालवीय इन महानताओं को अपने प्रोफाइल में दर्ज नहीं करते, वे स्वतंत्र जीवन के आंकाक्षी थे। अपने नाम के आगे पीछे कोई विशेषण नहीं जोड़ते। प्रिय मित्र और लेखक अशोक अग्रवाल ने मालवीय जी पर लिखे अपने संस्मरण में लिखा है कि मालवीय जी ने अपने पिता मुकुंद मालवीय को एक बार पलट कर जबाब देते हुये कहा था : 'आप जितने बड़े पिता के बेटे हैं, मैं उतने बड़े पिता का बेटा नही हूं। मैं एक मामूली नौकरीपेशा आदमी बनना चाहता हूं'। मालवीय जी बताते है कि इसे जापान में पूर्वजों के इंद्रधनुष से बाहर आना कहते हैं। इससे मुक्ति के लिये लक्ष्मीधर मालवीय को लम्बा रास्ता पार करना पड़ा।


हम जिस देश में रहते हैं वहां लोग अपने परिचय के पहले अपने खानदान और पूर्वजों का जिक्र जरूर करते हैं। इस तरह की बैशाखियों पर चलने वाले कम नहीं हैं - बहुधा यह काम वे लोग करते है जिनकी कोई हैसियत नही होती है। वे पूर्वजों के मुकुट को पहन कर दिव्य दिखना चाहते हैं। इस प्रभामंडल में उनकी कोई आभा नहीं होती। वे दूसरे ग्रह से रोशनी ले कर चमकना चाहते हैं। साहित्य और राजनीति में ऐसे परजीवियों की कमी नहीं है। विरले लोग हैं जो अपने बल और प्रतिभा के आधार पर अपनी जगह बनाते हैं। लक्ष्मीधर मालवीय के अलावा दूसरे व्यक्ति पर्यावरणविद गांधीवादी लेखक अनुपम मिश्र थे, प्रसिद्ध कवि भवानी प्रसाद मिश्र उनके पिता थे, इस तथ्य का पता मुझे बहुत दिनों बाद लगा। वह भी उनसे नहीं, किसी दूसरे व्यक्ति ने मुझे बताया।


लक्ष्मीधर मालवीय


लक्ष्मीधर मालवीय 1939 ई. में इलाहाबाद में पैदा हुए। उनकी शिक्षा बनारस और इलाहाबाद में हुई। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में वे अस्थायी प्रवक्ता थे लेकिन इस पद पर नियमित नहीं हो सके। 1960 में उन्होंने जयपुर विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य किया। महाकवि देव पर शोधकार्य किया और उन जगहों पर गये जहां उनका जीवन बीता था, इस शोधकार्य के लिये उन्होंने अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया। अथक परिश्रम के बाद देव-ग्रन्थावली के तीन खंड प्रकाशित हुए। देव (देवदत्त द्विवेदी) सन् 1663 में इटावा में पैदा हुये थे- वे रीतिकालीन कवि थे, उनके समकालीन कवि बिहारी थे। वे राज्याश्रयी कवि थे, इस कारण उन्हें कीर्ति मिली। मिश्र बंधुओं ने देव और बिहारी पुस्तक लिख कर उनके महत्व को रेखांकित किया लेकिन शोधकार्य में लक्ष्मीधर मालवीय ने उनके दुर्लभ साहित्य को प्रस्तुत किया।


जयपुर के बाद वे 1966 में जापान आये और ओसाका विश्वविद्यालय में 1990 तक अध्यापन करते रहे, उसके बाद क्योटो विश्वविद्यालय में सात साल तक तुलनात्मक संस्कृति पढ़ाते रहे । यायावरी और यात्राएं उनके लिये जुनून की तरह थी। लेखक के साथ वे श्रेष्ठ छायाकार भी थे, उनका अपना स्टूडियो था जहां वे अपने फोटो तैयार करते थे। उनके एलबम में हिंदी के प्रमुख कवियों लेखकों के चित्र हैं। उन्होंने अपनी इस कला को रचनात्मक बनाया।। कोई लेखक अगर लेखक होने के साथ किसी अन्य विधा में काम करता है तो उसकी छाप हमें उसकी उस विधा में दिखाई देती थी। जापान का यह प्रवास उनके जीवन का महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ। उन्होंने अकीको नाम की एक जापानी महिला से विवाह किया और अतीत को भूल कर नये जीवन की शुरुआत की। यह उनके जीवन का अलग काल खंड था लेकिन वे अपने देश की स्मृतियों और लोगों से जुड़े रहे, उनकी कृतियों में वहां की छवियां दिखाई देती हैं।


जापान मेरे लिये एक जादुई देश था, हिंदी फिल्म 'लव इन टोकियो' और 'अमन' को देख कर जापान के प्रति आकर्षित हुआ - फिर उस देश के बारे में जानने की इच्छा हुई।


वहां के जग जीवन के बारे में पढ़ते हुए मैं चकित होता रहा। सन् 1945 में हिरोशिमा नागासाकी ने जापान को नष्ट कर दिया था। वह इतने जल्दी उठ कर खड़ा हो गया हो और विकसित देशों की पंक्ति में आ गया हो, यह एक करिश्मा था। किसी देश को उस देश की सरकार नहीं वहां के नागरिक और देश-प्रेम बड़ा बनाते हैं। वहां के नागरिक राष्ट्रवाद के संकुचित नारे का समर्थन नहीं करते, देश को बेहतर बनाने की कोशिश करते हैं। आज हमारे देश में बुलेट ट्रेन की चर्चा हो रही है लेकिन जापान में यह ट्रेन 1964 से चल रही है। एक दो नहीं, आठ सौ ट्रेनें चल रही हैं। अब तक कोई ट्रेन एक मिनट से कम समय के लिये लेट हुई है। जापान में बुलेट ट्रेन स्टेशन पर सात मिनट के लिये रुकती है, इस अवधि में मुसाफिर चढ़ते उतरते है और सफाई कर्मी डिब्बे सफाई करके उतर आते हैं। हमारे देश में रेलवे स्टेशन ट्रेन के आने की बिलम्बित प्रसारण से गूंजते रहते हैं।


मैंने यह भी पढ़ा था कि जापान की एक विमान-दुर्घटना में लगभग में 500 लोग मारे गये थे। उनके परिजनों ने उनके लिये एक स्मारक बनाया जिसमें वे उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिये आते थे लेकिन उनमें विमान चालकों के परिवार का कोई व्यक्ति शामिल नहीं था क्योंकि उनके मन में यह बात बैठी हुई थी कि कहीं उनकी लापरवाही से यह दुर्घटना न हुई हो। मैंनें यह भी पढ़ा था कि जापान में यदि हजार येन की मुद्रा गायब हो जाय तो लोग उसे पुलिस स्टेशन पर जमा कर देते हैं और वह उस व्यक्ति को मिल जाती है।


आइंस्टीन 1922 में सम्भाषण देने जापान गये थे। वे जापानियों के जीवन, सभ्यता और संस्कृति से ज्यादा प्रभावित हुए थे। जापान के खाते में पच्चीस नोबल प्राइज जमा हैं, उनमें अधिकतर नोबल प्राइज विज्ञान के लिये दिये गये हैं। यह भी याद आता है कि आइंस्टीन के पास खुले पैसे नहीं थे। उसकी जगह उन्होंने यह वाक्य उपहार में दिया- सफलता और उसके साथ मिली बेचैनी की जगह, एक शांत और विनम्र जीवन आदमी को अधिक प्रसन्नता दे सकता है..। कालांतर में ये शब्द दस करोड़ येन में नीलाम हुए।


दुनिया के पूंजीवादी देशों में जापान जैसी नैतिकता विरल है। उनके जीवन पर बुद्ध का गहरा प्रभाव है। मैंने समुराई योद्धाओं के बारे में पढ़ा था कि वे पराजय के बाद हाराकिरी कर लेते थे। उनके इस कृत्य को शहादत का दर्जा मिला हुआ था। जापान में आत्महत्या (हाराकिरी) की प्रवृति भी मिलती है। यह विडम्बना ही है कि खुशहाल देशो की फेहरिस्त जो देश 56 वें नम्बर हो वहां लोग आत्महत्या करते हैं। सम्भवतः यह पूंजीवादी समाज का अकेलापन है। खुशियां सिर्फ समृद्धि से नहीं मिलती है। खुशी मूलतः भीतर का भाव है - जिस देश की संस्कृति के केंद्र में बुद्ध हैं, वहां इस तरह के आत्मघात की घटनायें अक्सर दिखाई पड़ती हैं। आम जापानी की बात छोड़िये वहां यसुनारी काववाता जैसे नोबुल प्राइज विजेता भी हाराकिरी करते हैं जिनकी किताबें 'थाउजेंड क्रेन', 'दि लेक', पढ़ चुका था। बाद में लेखक येत्सुको कुरोयानागी की बच्चों पर लिखी किताब- 'दि लिटिल गर्ल अन दि विंडों' पढ़ कर मैं दंग था। यह जापान की अनिवार्य किताब बन चुकी है। बच्चों की यह किताब जगप्रसिद्ध है - विश्व की अनेक भाषाओं में इसके अनुवाद हो चुके हैं।





जापान के बारे में यह अल्पज्ञान ही मेरी पूंजी थी। मैं अपनी जानकारी की तस्दीक और ज्ञान में वृद्धि करना चाहता था। आठवें दशक में जब मैं हापुड़ में पदास्थापित था, उन दिनों पत्र-पत्रिकाओं में लक्ष्मीधर मालवीय की रचनाओं को पढ़ता रहा। वे वहां के जनजीवन और साहित्य के बारे में ऐसी जानकारी देते रहे जो मुझे आश्चर्य में डाल देती थी। वहीं 'सम्भावना' में उनसे मिलने का सौभाग्य मिला। अपनी कद-काठी से वे भारतीय नहीं, यूरोपियन लगते थे। इसका स्पष्टीकरण मुझे उनके कहानी संग्रह 'हिम उजास' की भूमिका में भी मिला। उन्होंने लिखा है 'जब मैं भारत जाता हूं तो मुझे दिल्ली में कनाडियन, श्रीनगर में मैक्सिकन, मुंबई में इतालवी समझा जाता है।'


इलाहाबाद के जिस मोहल्ले में मेरा जन्म हुआ था, घूमने पर मोहल्ले के कुत्ते काटने को दौड़ाते हैं लेकिन यह वहां आने वालों का स्वागत करने की परम्परागत प्रणाली है। इसलिए यह बताना आवश्यक है कि मैं वही पैदा हुआ था।


हापुड़ में उनसे दो चार लेकिन सघन मुलाकातें हैं। वहां से वे दिल्ली जाते थे, उनके पास एक छोटी सी डायरी थी जिसमें वह कुछ न कुछ दर्ज करते रहते। पूछने पर बताया कि वे भूली हुई और जरूरत की चीजों के नाम लिखते रहते थे। उन्होंने बताया कि लेखक के पास एक डायरी जरूर होनी चाहिए। मुझे रूसी कवि मायकोव्सकी का ख्याल आया जो हर कवि को अपने पास डायरी लिखने की सलाह देता था। इस आदत को मैंने अपने जीवन का हिस्सा बना लिया है। यात्राओं में दिमाग एक जगह केंद्रित नही रहता। हम कई बिम्ब यात्राओं में देखते लेकिन भूल जाते हैं, इस मामले में डायरी हमारी मदद करती है।


जब वे आते तो मैं उनके सामने विनम्र छात्र बन जाता था। जापान को ले कर मेरे पास जिज्ञासा के तमाम बिंदु थे। एक बार मैंने उनसे पूछा था कि भारत में तमाम गालियां स्त्री पुरुष के प्रजनन अंगों से बनती हैं। अंग्रेजी में ऐसे अवसरों पर बास्टर्ड, माई फुट, शिट जैसे शब्दों का प्रयोग किया जाता है। जापान में गालियों का क्या रूप है? उन्होने बताया कि जापान में सबसे बड़ी गाली यह है कि किसी को गैरजिम्मेदार कह दिया जाय। जापानी अपने हिस्से का काम जिम्मेदारी से करते हैं, यही उस देश की उन्नति का कारण है। जापानियों के जीवन में दो बड़े सूत्र हैं अनुशासन और श्रम।


मेरे मित्र लेखक अशोक अग्रवाल बताते हैं कि जापान की यात्रा करते हुए वे अकसर एक पार्क में घूमने जाते थे। उस पार्क में उन्हें बड़े पेड़ दिखाई दिये और उन्हें लगा कि वे दूसरे पार्क में आ गये हैं। जबाब मालवीय जी ने दिया और कहा कि यह वही पार्क है तो क्या हफ्ते भर में पेड़ इतने बड़े हो जाएंगे?.. जापानी इंतजार नही करते। अगर उन्हें लगता है कि यह पार्क बड़े पेड़ों से खूबसूरत हो जायेगा तो उसे जंगल से खोद कर लगा देते हैं। मालवीय जी ने उनको बताया कि जापान में हजारों द्वीप हैं। उनकी अलग-अलग बोलियां हैं। लेकिन जापानी वहां की राजभाषा है और 97% लोग जापानी बोलते हैं। वहां विश्व की प्रमुख किताबों का अनुवाद जापानी में कर दिया जाता है। उन्होंने बताया कि जापान में जिन कवियों को पढ़ाया जाता है उसके आडियो और वीडियो कैसेट हमारे पास होते हैं, इससे छात्राओं को कवि और उसकी कविता को समझने में सहूलियत होती है। वे कौतुक में मेरी कई कवितायें रिकार्ड कर के ले गये, कहा कि इसे जापानी छात्राओं को सुनाऊंगा। मैं उमंग में आ गया था वाह! मेरी कवितायें समुंदर के पार जा रही हैं। उन दिनों छोटी छोटी खुशियां हमें बड़ी लगने लगती थी। आज वह बचपने की बात लगती है।


हमारे यहां भाषाओं के सवाल उलझे हुये और जटिल हैं। जिसका असर देश की संस्कृति पर पड़ता है। आजादी के इतने साल बाद देश की कोई सम्पर्क और राजभाषा नही बन सकी। भाषा राजनीति का शिकार हो गयी है। रबींद्र नाथ ठाकुर के अलावा यहां साहित्य का नोबल प्राइज नही मिला -अनुवाद के बिना साहित्य की कृतियां देश के बाहर नही पहुंच पाती हैं। इसलिये भारतीय लेखकों को देश से बाहर नही पहचाना जाता है।





मालवीय जी के कंधे पर कीमती कैमरा झूलता रहता था- एक बार जब उनके साथ कनाट प्लेस के सेंट्रल गार्डेन में गया तो कुछ ग्रामीण स्त्रियों के चित्र खींचने लगे। मैंनें लक्ष्य किया कि जिस तरह महिलायें हैं उस तरफ कैमरे का मुंह नही हैं, उन्होने बताया कि यह विचित्र कैमरा है, इसमें यह व्यवस्था है कि कैमरे के लक्ष्य से अलग हो कर हम फोटों खींच सकते है। अगर हम सीधे फोटों उतारेगे तो आदमी सावधान हो जायेगा, वह स्वाभाविक मुद्रा में नही होगा। उन्होने औरतों की बड़ी नथ, गले की हंसुली, कानों में लटके हुये बड़े झुमकों के चित्र लिये और कहां कि इस चित्र को देख कर जापानी बहुत प्रसन्न होंगे। मैंने महसूस किया कि वे जापानियों को अपने देश की संस्कृति और रहन सहन से परिचित कराना चाहते थे ।


लक्ष्मीधर मालवीय ने दिल्ली में न्यूड चित्रों की प्रदर्शनी लगाई थी, वे चित्र इतने कलात्मक थे कि उसे देख कर अश्लीलता का तनिक ख्याल नही आता था। मुझे एक गर्भवती स्त्री के चित्र की याद आती है जिसे देख कर आदमी वत्सल हो सकता है। नाभि के चित्र का क्या कहना कि जैसे वह नाभि न हो कोर्ड भंवर हो। देह, आंख होठ, वक्ष के चित्र शिल्प की तरह दिखाई देते थे इन चित्रों में गज़ब का सम्मोहन था।


किसी लेखक कवि की अभिव्यक्तियों का आधार केवल एक विधा नही होती, वह अपनी बेचैनी को व्यक्त करने के लिये अन्य माध्यमों की खोज करता है- यह एक तरह से उसके लेखन का विस्तार है। लक्ष्मीधर मालवीय ने कहानी, कविता के अतिरिक्त फोटोग्राफी और चित्रों की दुनिया में हस्तक्षेप किया है।' इस क्षेत्र में उनका काम मौलिक है ।


उन्होने बहुत ज्यादा नहीं लिखा है, 'हिम उजास', 'शुभेच्छु', 'फंगस', 'आइसवर्ग' उनके मुख्य कहानी संग्रह हैं - 'किसी और सुबह', 'क्या यह चेहरा तुम्हारा है', 'दायरा' और 'रेत घड़ी' उनके उपन्यासों के नाम हैं। इसके अतिरिक्त देव ग्रंथावली, बिहारी दास की सतसई और श्रीपति मिश्र ग्रंथावली आदि ग्रंथों का भी उन्होंने सम्पादन किया है।


किसी और सुबह उपन्यास लिखने के लिये उन्होने अपने पद से इस्तीफा दे कर अर्जेंटीना चले गये और वहां रह कर यह उपन्यास पूरा किया - यह उनके जुनून का उदाहरण है। इस अभियान मे उनकी पत्नी अकीको ने भी सहमति दी। यह उपन्यास अदभुत प्रेम कथा है- उनके जीवन में इस तरह की दीवानगी कई जगह पर दिखाई देती है। उन्होंने लेखन के लिये सहज जीवन का चुनाव नहीं किया है। वे क्योटो के पास कामेओका नामक पहाड़ी गांव में अपना आशियाना बना कर रहते थे। जापान समुद्री तूफानों और भूकम्पों का देश है, जहां लोग सुरक्षित जीवन जीना चाहते हैं, लेकिन यह लेखक लक्ष्मीधर मालवीय का अभीष्ट नहीं था। इस मामले में वे खतरों के खिलाडी थे। अपने जीवन और साहित्य में निरंतर खतरा उठाया। कठिन से कठिन वक्त में उन्होंने जिंदादिली का दामन नही छोड़ा।


लाई हयात आये कजा ले चली चले। 

अपनी खुशी से न आये न अपनी खुशी चले।


इब्राहीम जौक का यह शेर उन्हें बहुत पसंद था - 'आई हयात आये', नाम से उनकी आत्मकथात्मक संस्मरणों की किताब आ चुकी है, जो संस्मरणों की यादगार पुस्तक है। 'कजा ले चली चले' को वे मरणोपरांत प्रकाशित कराना चाहते थे सम्भवतः इस किताब को अभी प्रकाशित होना है। देश से दूर जापान प्रवास में उनकी यथोचित चर्चा नही हो सकी। जब भी उनका मूल्यांकन होगा तो वे मानवीय सरोकारो और मध्यवर्गीय यंत्रणाओं की प्रमाणिक अभिव्यक्ति के लेखक माने जाएंगे।


भले ही हमारे कलाइयों में आधुनिक घड़ियां बधी हुई हों लेकिन हम अपना वक्त रेतघडियों में देखते हैं, यह हमारी आदिम आदत है। लक्ष्मीधर मालवीय का उपन्यास 'रेतघड़ी' सिर्फ उपन्यास का नाम नहीं है, जापान के जीवन का रूपक है। इस उपन्यास में वे कहीं न कहीं मौजूद दिखते हैं। उपन्यास लेखक की आत्मकथा भी होती है जिसे वह कल्पना से आगे बढ़ाता है और अपनी छवियों - प्रतिछवियों को प्रस्तुत करता रहता है। लक्ष्मीधर मालवीय को समुद्र बहुत प्रिय था, समुद्र के अनेक रूप उनकी कहानियों में आते हैं। वे टालस्टाय की तरह थे जो घंटों समुद्र को निहार सकते थे। भावुक वर्णनों में वे कवि हो जाते हैं।





उनका उपन्यास 'रेतघड़ी' एक प्रेम कथा है जो एक अधेड़ पेंटर तोशि और युवा लड़की सुजुकि किओके की अविरल प्रेम कथा है। बल्कि यह कहना चाहिये कि यह अपूर्ण प्रेम कथा है। सफल प्रेम कथायें जटिल दाम्पत्य में तिरोहित हो जाती है। किओको जीवन को भरपूर जीना चाहती है। उसके लिये वर्जनायें कोई बाधा नहीं है। देह के स्तर पर वह आजाद है। उसके पिता जिस स्त्री के साथ रहते हैं, वह उसकी असली मां नहीं है। इसके बावजूद किओके की राय बहुत अच्छी है। वह कहती है- देखने में मां का व्यवहार ठंडा है लेकिन सारे संसार की औरतों में उसकी मां सर्वश्रेष्ठ है। वह उसके पिता की पांचवी पत्नी है। उसके पिता उसके मां के बारे में कुछ नही बताते। वह अपने स्तर से अपनी मां की खोज करती है। इसी क्रम में वह उसकी मुलाकात ओवाआचान नाम की स्त्री से होती है जो उसके पिता की पूर्व पत्नी रह चुकी थी, उसने उसके पिता के साथ जीवन के अठारह साल का समय गुजारा था। वह स्त्री किओके में रूचि लेती है और उसके पीड़ा को समझती है उसके प्रति वत्सल हो जाती है। उसे किओको की मां के बारे में कुछ भी पता नहीं है। किओके पिता से अपनी मां के बारे में ज्यादा नही पूछ पाती। उसको लगता है कि पिता ने मां के बारे में जानकारी लेने पर उन्हें यह न लगे कि वह वह इस मां को नजरंदाज कर रही है।


यह मुलाकात बेहद मर्मस्पर्शी है, वह जो बात किओको के पिता के बारे में बताती है वह हमें हैरत में डालती है। उसके भीतर कोई कटुता नही है। वह कहती है- जब मैं उनके बारे में सोचती हूं, तो बड़े बेचारे लगते हैं वह। सारी जिंदगी वह तलाशते रहे न जाने क्या, उन्हें खुद भी ठीक-ठीक नहीं मालूम होगा ..। असल में यह पूंजीवादी समाज का संकट है जिसके बीच एक उपभोक्ता निवास करता है, इस समाज में मानवीय सम्बंधो और मूल्यों के लिये कोई स्थान नही बचा है। यहां प्रेम भी कोई सम्बंध नही बल्कि उपभोग है।


और यही समस्या किओको की भी है, मां की तलाश की वेदना ने उसे बिखरा कर रख दिया, वह जितना अपने आप को समेटने की कोशिश करती है लेकिन असफल रहती है। इसी दौरान वह तोशि को बताती है कि साइतो सान् ने उसके सामने शादी का प्रस्ताव रखा। कुछ दिनों बाद उसने बताया था कि शुरू में उसके प्रति आकर्षण जरूर था लेकिन उसने शादी से इनकार कर दिया ।


इस उपन्यास में किओको का चित्त अस्थिर है, वह अंतर्विरोधों के बीच जिंदादिली से साथ जीना चाहती है। वह कहती है कि प्रेम पाना कितना बड़ा सुख है.. लेकिन सुख में भी बड़ी पीड़ा है..। एक अन्य उद्धरण भी देखें। मैं बहुत से लोगों से मिलना चाहती हूं और तरह-तरह के अनुभव जमा करना चाहती हूं। जब मैं इसी तरह बड़ी होते होते बूंदी हो जाऊंगी, उस समय तक एकदम रिक्त हो जाऊंगी ...।


अधेड़ चित्रकार का कथन इससे भिन्न है, वह कहता है - मैं वह मूर्ख घोड़ा हूं जो जिस घास को खाता है उसी से यारी करता है। अगली बार मैं 40-45 साल की औरत को चुनूंगा जो अपने और मेरे हिस्से का प्रेम करके फारिग हो चुकी हो।


दोनों की आत्मस्वीकृतियां अलग अलग है। एक साम्यता है कि वे जीवन को भरपूर जीना चाहते हैं और समय मिलते समुद्र तटों और रेस्तराओं में मिलते है। और अपना दुख दर्द एक दूसरे साझा करते हैं। किओको के बारे में तोशो का कथन यादगार है..। किओको, मैंने तुमसे अधिक पाया, बहुत अधिक! सम्वेदनाओं का एक भरा पूरा संसार।


मैंनें तुम्हीं से सीखा है कि जिस देह के साथ नैतिकता और पवित्रता को जोड़ने के कारण हम पाप से डरते हैं, उसी देह का अनुभव कितना समृद्ध बनाता है ...।


रेतघड़ी में जापान के समुद्र तटों, रेस्तराओं और होटलों के वर्णन हैं। समुद्र तट जापानियों की जीवन रेखा है, वह तफरीह की भी जगह है लक्ष्मीधर मालवीय समुन्दरों पर लिखते हुये सेंसुअस और काव्यात्मक हो जाते हैं।


जल के भीतर उसकी कमर और जांघे किसी बड़ी मछली की तरह चिकनी मुलायम और कठोर थी। वह अचानक चुप हो गयी। जब मेरी हथेलियां उसके कूल्हों के पास गयी तो उसने आंखें उठा कर मेरी ओर ध्यान से देखा और उसकी पुतलियों में देर सारे आतंक की पारदर्शी छायायें उभर आईं ..।


किओको का चरित्र विचित्र किस्म का था, वह सुखी होने के रास्ते खोजती रहती थी। उसके भीतर कई तरह की विकलता थी इसलिये वह घर से भागती रहती थी। वे एक दूसरे से मिलने के लिये व्याकुल रहते थे अवसाद को दूर करने के लिये वाइन पीते और अदभुत ढंग से बात करते हुये दार्शनिक हो जाते थे। जीवन परिस्थिति ने उन्हें सम्वेदनशील बना दिया था। जीवन कुछ बदले इसके लिये किओको ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया था। उसका नाम सुजुकि किओको से बदल कर ओकुबो किओको हो गया था। उसके धर्म के इस बदलाव में बेरि जेनेकिन की भूमिका थी जिसका चेहरा प्लेब्योय के हेफनर से मिलता था। तोशि ने कहा- किओको के साथ जो करना हो वह करो, यह ईसाइत का पर्दा क्यों करते हो।


रेतघड़ी के सम्वाद बेहद रोचक और अर्थपूर्ण हैं। कभी सम्युअल बैकेट के उपन्यास 'वेटिंग फार गोदो' की याद दिलाते हैं। लक्ष्मीधर मालवीय का यह उपन्यास जापान के जीवन पर आधारित है, लेखक ने उन ध्वनियों को पकड़ने की कोशिश की है, इसके साथ वहां की संस्कृति की भी झलक यहां दिखाई देती है। यह उपन्यास पढ़ते हुये नहीं लगता कि हम हिंदी का कोई उपन्यास पढ़ रहे है यह किताब जापान की मूल कृति की तरह लगती है। जापान के जीवन में भारत के समाज की तरह वर्जनाएं नहीं हैं। उनकी नैतिकता अलग है रहन-सहन के ढंग में खुलापन है।


यह उपन्यास समुंद्र से शुरू होता है और समुद्र के साथ खत्म हो जा है। उसके बीच में जिंदगी की ज‌द्दोजहद है। एक लड़की की बेचैनी और एक अधेड़ चित्रकार के सम्वाद इस किताब को पठनीय बनाते हैं। इस उपन्यास का अन्तिम अंश देखे -


....दीवार के नीचे चट्टानों के बीच फैलती चांदनी में चमकते फेन धीरे धीरे लाल हो रहा था--वह कपड़े की गुड़िया सी जो बड़ी बड़ी लहरों के साथ बार बार वापस आकर उन चट्टानों पर पछाड़ खा रही थी। किओको नेएचान कभी भी नही हो सकती। वह तब जीवित नही रह गयी होगी। क्या इतना काफी नही है?


अन्य लेखकों की तरह वे कोई निष्कर्ष नही देते हैं, बल्कि उपन्यास का अंत संकेत की भाषा में करते हैं यही उनकी विशेषता है। रेतघड़ी पढ़ते हुये हमे अनेक ऐसे स्थल मिलते है, जहां एक लेखक का कवि रूप प्रकट होता है। प्रेम और संवेदना को व्यक्त करने लिये ऐसी अभिव्यक्तियां आवश्यक होती हैं। ऐसे विवरणों में उनकी भाषा तरल हो जाती है और कथा के प्रति हमारा सम्मोहन बढ़ जाता है। कभी कभी तो ब्लादिमीर के उपन्यास 'लोलिता' के अनेक प्रसंगों की याद आ जाती है।


स्वप्निल श्रीवास्तव 



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मोबाइल : 9415332326




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