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सुप्रिया पाठक का आलेख “नायाब नामवर : शास्त्र के कौतुक से कौतुक के शास्त्र तक”

  हमारा समाज आमतौर पर ऐसा समाज है जहां परंपरागत रूप से कविता या कहानी को ही प्राथमिकता प्रदान किया जाता है। आलोचना को गम्भीरता से देखे जाने की परम्परा प्रायः नदारद मिलती है। नामवर सिंह ने आलोचना की  एक ऐसी पद्धति विकसित की जिसमें एक  कौतुक होता था। सामाजिक मान्यताओं, प्रतिबद्धताओं और विचारों के माध्यम से ही वे ऐसी सटीक बातें कह देते जिसके सम्मोहन से बच पाना कठिन होता था। शास्त्र की दृष्टि से भी देखा जाए तो वे बहुपठित थे। संस्कृत के ग्रन्थ हों या फिर पाश्चात्य दार्शनिक परम्परा के ग्रन्थ, लोक का ज्ञान हो या फिर मार्क्सवाद सब पर उनकी गहरी पकड़ थी। यह उनकी बहुपठनीयता ही थी, जो उन्हें सर्वस्वीकार्य बनाती थी।  सुप्रिया पाठक ने स्त्री विमर्श के हवाले से नामवर जी की आलोचना को समझने की कोशिश की है। सुप्रिया बिना कोई तल्खी दिखाए तार्किक तरीके से अपनी बात रख देती है जो पाठक को अपने में आबद्ध कर लेती है।  “नायाब नामवर: शास्त्र के कौतुक से कौतुक के शास्त्र तक” सुप्रिया पाठक  समीक्षा की समीक्षा या आलोचना की आलोचना एक कठिन काम है। यह काम और कठिन हो जाता है जब समीक्षा या आ...

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का बलिया भाषण 'भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है?'

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  उत्तर प्रदेश के बलिया में प्रति वर्ष ददरी मेले का आयोजन किया जाता है। कार्तिक पूर्णिमा से शुरू होने वाला यह मेला एक महीने तक चलता रहता है। यह भारत का दूसरा बड़ा पशु मेला भी माना जाता है।  इस मेले की पौराणिक, धार्मिक और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि रही है। मत्स्य पुराण और पद्म पुराण में इस मेले का जिक्र मिलता है। चीनी यात्री फाह्यान के यात्रा विवरण में इस मेले का उल्लेख प्राप्त होता है। सन 1739 से ले कर 1764 ई. तक काशी नरेश बलवंत सिंह ने इस मेले को अपना संरक्षण प्रदान किया। 1798 में बलिया को जब गाजीपुर जिले से जोड़ दिया गया तब इसका प्रबन्धन बलिया के परगनाधिकारी द्वारा किया जाने लगा। सन 1879 में बलिया जब एक स्वतन्त्र जिला बना दिया गया तब से इस मेले का आयोजन जिला प्रशासन और नगरपालिका के मार्फत हो रहा है।  सांस्कृतिक साहित्यिक गतिविधियों का आयोजन इस मेले को अन्य से अलग बना देता है। 1884 में बलिया के ददरी मेले में 'भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है' इस विषय पर भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने एक अत्यन्त सारगर्भित भाषण दिया था। यह भाषण उनकी प्रगतिशील सोच का परिचायक भी है। इसमें उन्होने लोगों से क...

हरेराम समीप की भूमिका आलेख 'जन-सरोकारों से लैस : डी. एम. मिश्र के शेर'

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  साहित्य का ध्येय होता है समाज की विसंगतियों को सामने लाना। इस तरह रचनाकार प्रायः सत्ता के सामने खड़ा हो कर एक सवालिया की तरह नजर आता है। जाहिर सी बात है यह काम वह सत्ता से दूर रह कर ही कर सकता है। अंग्रेजी काल में तमाम ऐसी रचनाएं सामने आईं जिसमें सत्ता के प्रति आक्रोश व्यक्त किया गया था। इसीलिए उन्हें जब्त कर लिया गया। यह काम आज भी जारी है। सत्ता के लिए सबसे बड़ा डर ये रचनाकार ही पैदा करते हैं। डी एम मिश्र की गजलों की किताब की अपनी भूमिका में हरे राम समीप लिखते हैं : 'अपने समय की संवेदना को काव्य-संवेदना में तब्दील कर इन शेरों में ढाला है। इनके शेर समाज, राजनीति और व्यवस्था के इर्द-गिर्द घूमते हैं। इनके शेरों के केंद्र में आम जनता का जीवन और उसकी संघर्ष-चेतना साफ दिखाई देती है। इन शेरों  में किसान, मजदूर तथा वंचित समाज का दर्द पूरी शिद्दत से व्यक्त हुआ है। ग्राम्य-जीवन की दारुण स्थिति पर यहां कमाल के शेर आए हैं। इन शेरों में ग्राम्य-जीवन के प्रश्न, उसकी तकलीफें और संघर्ष का आँखों देखा हाल बयान किया गया है। उन्होंने  अपने शेरों को भाषाई जटिलता से सदैव दूर रखा है। उर्दू व...