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प्रवीण शेखर का आलेख 'शारदा सिन्हा अब संज्ञा नहीं विशेषण हैं'

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  शारदा सिन्हा  शारदा सिन्हा भोजपुरी की लता मंगेशकर थीं। अपने गायन से उन्होंने भोजपुरी क्षेत्र ही नहीं, बल्कि एक व्यापक समुदाय के दिलो दिमाग में अपनी एक सुरक्षित जगह बनाई थीं। जो लोग भोजपुरी गायन के अश्लील होने की बात करते हैं उन्हें एक बार शारदा सिन्हा का गायन गौर से सुनना चाहिए। शारदा जी ने अपने गायन के जरिए भोजपुरी मूल्यों की रक्षा करने का कार्य किया। सुरों की साधना उनके गायन में स्पष्ट झलकती है। शारदा जी के गीत आज भी अगर गांव गांव में गूंजते हैं तो यह शारदा सिन्हा के प्रति भोजपुरी जनता का अपार प्रेम और स्नेह ही है। उनके गीत हम घर परिवार के साथ बैठ कर सहज रूप से सुन सकते हैं। बिहार, झारखंड और पूर्वी उत्तर प्रदेश में आजकल छठ पर्व की धूम है। छठ पर्व शारदा सिन्हा के गायन के बिना पूरा नहीं होता। यह लोक से शारदा सिन्हा का वह जुड़ाव है जो बिरले कला साधकों को प्राप्त होता है। कल रात वह अन्तिम प्रयाण कर गईं। भोजपुरी लोकगीतों का हरा भरा आंगन जैसे सूना पड़ गया। छठ पर्व मनेगा लेकिन इस बार शायद उस छटा के साथ नहीं, जिसके लिए वह ख्यात है।  चर्चित रंगकर्मी, महत्वपूर्ण नाट्य संस्था 'बैकस्टेज

रमेशचन्द्र शाह से शिवदयाल की बातचीत

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  रमेश चंद्र शाह  रमेशचन्द्र शाह हिन्दी साहित्य के हरफनमौला रचनाकार हैं। साहित्य की लगभग सभी प्रमुख विधाओं में इन्होंने अपना लेखन कार्य किया। इनकी रचनाओं के मूल में दर्शन है। वह दर्शन जो हर रचना की आत्मा होती है। अलग बात है कि आज रचनाओं से दर्शन प्रायः नदारद ही दिखता है। रमेश जी का मानना है कि सामान्य व्यक्ति में भी दार्शनिक संस्कार होता है। वही दर्शन उनमें भी है। शिवदयाल जी उचित ही लिखते हैं कि 'वे भारतविद् हैं - सही अर्थों में, और भारतीय आधुनिकता के व्याख्याकार! अंततः वे एक रचनाकार हैं - सिरजनहार - नख से शिख तक तपःशील सर्जक! उन्होंने हिन्दी के सृजनात्मक एवं विचार-साहित्य को अपने असाधारण प्रतिभापूरित मौलिक लेखन से समृद्ध किया है। उनके बहुमुखी लेखन में भारत की सामाजिक-सांस्कृतिक विविधता, बहुलता और बहुमुखता मुखर होती है। युग-सत्य को पकड़ने का ऐसा बहुविध, बहुपथगामी, प्राणपण से किया गया सृजनात्मक उद्यम पिछले चार-पाँच दशकों में तो नहीं दिखाई देता।'  समकालीन भारतीय साहित्य के लिए शिवदयाल जी ने रमेश जी से  2019 में एक लम्बा साक्षात्कार लिया था। आज भी यह साक्षात्कार कई मामलों में प्रास

यादवेन्द्र का आलेख 'यह दुनिया ऐसी नहीं रहेगी, बदलेगी ही।'

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  यादवेन्द्र  साहित्य केवल कल्पना की जमीन पर ही नहीं रचा जाता बल्कि उसमें अपने समय का यथार्थ भी अंकित होता है। इसके लिए जरूरी होता है इन्हें 'बिटवीन द लाइंस' पढ़ना। इस तरह कहानियां अपने समय का वह सच रचती हैं, जो आमतौर पर अव्यक्त रह जाता है। हाल ही में कथाकार कमलेश का एक कहानी संकलन सेतु प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है "पत्थलगड़ी"। आज जब मनुष्यता के ऊपर तमाम तरह के हमले बढ़ गए हैं ऐसे में कमलेश की कहानियां मनुष्यता के पक्ष में एक ऐसा आख्यान रचती हैं जो हमें आश्वस्ति प्रदान करती हैं। विचारक यादवेन्द्र जी पहली बार पर सिलसिलेवार ढंग से हर महीने के पहले रविवार को समकालीन कहानियों पर अपनी राय व्यक्त करेंगे।  इस सिलसिले की पहली कड़ी कमलेश के संकलन "पत्थलगड़ी" की एक कहानी 'बाबा साहब की बांह' पर केन्द्रित है। कहानियों का चयन खुद यादवेन्द्र जी करेंगे। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं यादवेन्द्र का आलेख 'यह दुनिया ऐसी नहीं रहेगी, बदलेगी ही।' 'यह दुनिया ऐसी नहीं रहेगी, बदलेगी ही' यादवेन्द्र  फैंटेसी मन प्रसन्न करने वाली ऐसी स्थिति होती है जिसके बारे

रवि नन्दन सिंह का आलेख "भक्ति साहित्य का पुनर्पाठ" पर एक त्वरित प्रतिक्रिया

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  रवि नन्दन सिंह  सम्पूर्ण भारतीय साहित्यिक वांगमय में भक्ति साहित्य पर जितना वाद विवाद हुआ है उतना शायद किसी अन्य साहित्य पर नहीं हुआ होगा। आज भी इस पर बहस मुबाहिसा जारी है। खैर वाद विवाद की कड़ी संवाद से पूरी होती है। हम चाहते हैं कि इस विषय पर सुधी विद्वत जन अपनी बात तार्किक ढंग से प्रस्तुत करें।  " भक्ति साहित्य  का पुनर्पाठ" शीर्षक से   कँवल  भारती का एक चर्चित व्याख्यान पिछले दिनों 'पहली बार' पर प्रकाशित किया गया था।  कँवल भारती के  " भक्ति साहित्य का पुनर्पाठ" व्याख्यान पर कवि आलोचक  रवि नन्दन सिंह ने तर्कों के साथ  एक त्वरित प्रतिक्रिया व्यक्त की है। आज हम पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं  रवि नन्दन सिंह का आलेख  "मीर के दीनों मज़हब को पूछते क्या हो?" अनहद के संपादक भाई सन्तोष चतुर्वेदी ने अपने ब्लॉग पहली बार पर कंवल भारती का एक आलेख “भक्ति साहित्य का पुनर्पाठ“ लगाया है। कल रात में उस पर मेरी नज़र पड़ी। उस आलेख में कंवल भारती ने अपने खास अंदाज़ में भक्तिकाल का पुनर्पाठ और उसकी व्याख्या प्रस्तुत की है। पूरा आलेख पूर्वाग्रही मानसिकता से लैस है