रांगेय राघव की कहानी 'घिसटता कम्बल'
रांगेय राघव मनुष्य का जीवन अपने आप में एक पहेली की तरह है। इस पहेली को बूझ पाना कठिन काम है। जो बूझने का दावा करते हैं वे बूझ कर भी नहीं बूझ पाते। जीवन का संघर्ष कम बड़ा संघर्ष नहीं। गृहस्थ आश्रम को ऐसे ही सबसे कठिन आश्रम नहीं कहा गया है। रांगेय राघव जीवन की इन पेचीदगियों से भलीभांति वाकिफ थे। घिसटता कम्बल ऐसी ही एक संघर्ष भरी कहानी है। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं रांगेय राघव की कहानी 'घिसटता कम्बल'। 'घिसटता कम्बल' रांगेय राघव प्रभात की जिस बेला में कोयल का बोल सुनाई देता है, रागिनी उसे अपने सुहाग का एकमात्र शुभ लक्षण समझ कर हर्ष से गदगद हो उठती है। दूर एक पेड़ है, वरना उस मुहल्ले में पत्थरों, ईंटों और उनकी कठोरता के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। वह दूर-दूर तक देखती है। कहीं कुछ भी नहीं दिखाई देता। लौट कर जाती है, चूल्हे पर पानी रख देती है और घुटनों पर सिर रख कर सोचने लगती है। कुछ भी नहीं है चिंता करने के योग्य, क्योंकि जो है वह चिंता ही है, चिंता के अतिरिक्त और कुछ नहीं। पानी में से एक आवाज आ रही है। उसकी ओर देखा। कुछ नहीं उबलने की ध्वनि आ रही है। तो क्या इस जीव