जीवन सिंह का आलेख 'श्रम और सौंदर्य की समकालीन रचना'
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डी एम मिश्र |
गजल का विषय आमतौर पर प्रेम (आध्यात्मिक और रोमांटिक दोनों) होता है। यह प्रेम आध्यात्मिक या रोमांटिक कोई भी हो सकता है। हिन्दी ग़ज़ल शुरुआत बीसवीं सदी में निराला से होती है। हिन्दी इलाके के ज़मीनी जन-सरोकार पहली बार उनकी ग़ज़लों में आते हैं। इसके बाद की हिन्दी गजलें उस राह पर चल पड़ीं जो जन पक्षधरता की राह कही जा सकती है। दुष्यन्त कुमार और अदम गोंडवी ने इस धारा को परवान चढ़ाया। डी एम मिश्र उसी धारा के गजलकार हैं जिन्होंने अपनी गजलों के माध्यम से अपने सरोकारों को सपष्ट किया है। आज डी एम मिश्र का जन्मदिन है। पहली बार की तरफ से उन्हें जन्मदिन की बधाई एवम शुभकामनाएं। डी एम मिश्र के गजलों की आलोचना करते हुए जीवन सिंह लिखते हैं - "डी एम मिश्र न कबीर हैं, न ग़ालिब हैं, न मीर और न ही मोमिन हैं। वे कुछ हैं तो सिर्फ डी एम मिश्र हैं। और यही एक शायर या कवि को होना भी चाहिए। जिस कवि के यहाँ उसकी अपनी कवि-व्यक्तित्व-समृद्धि नहीं है, वह दूसरों के पीछे चलने वाले एक अनुगामी से अधिक नहीं होता। कविता की विविधमयी रचनात्मकता ही उसे निजता प्रदान करती है। यह अलग बात है कि हर कवि अपने समय को लांघ कर और उससे बच कर नहीं जा सकता। लेकिन वह एक जैसे समय के भीतर से अपना रास्ता अलग बना सकता है। वह अलग तरह से सोच सकता है। वह संकीर्ण सोच को त्याग कर संस्कृति की उदार और उदात्त परम्परा से जुड़ सकता है। वह चाहे तो कबीर, मीर, ग़ालिब सरीखे अपने पूर्वजों से भी यह सब सीख और जान कर उसे अपने समय की तारीख से जोड़ सकता है। वह अपने जीवनानुभवों से ऐसा बहुत कुछ कह सकता है जो दूसरों के पास नहीं है और जो उसे दूसरों से मिलाता है और अलग भी करता है। जैसे डी एम मिश्र कहते हैं कि ग़ज़ल कुछ ऐसी होनी चाहिए कि उसमें से मिट्टी की महक आये और ऐसा लगे कि जैसे गेहूँ की बाल में से किसी सुन्दरी के कंगन की खनक आ रही है। गेहूँ की बाल में से कंगन की खनक आना सौन्दर्य के आभिजात्य से अलग उसकी साधारणता का वह नया रास्ता है जो लोकतांत्रिक समय में लोकतान्त्रिक जीवन मूल्यों के प्रति सजग रहने से ही आता है। इस तरह मिश्र जी अपनी ग़ज़लों में मेहनत और सौंदर्य दोनों का मेल कराते हुए उसके आभिजात्य से अलग कर उसे साधारण से मिलाते हैं। साधारण के सौन्दर्य को उद्घाटित करना ही इस युग की समकालीनता है। यह उन प्रेमचंद का रास्ता भी है जो लगभग एक सदी पहले सौन्दर्य की पुरानी कसौटी को बदलने की सलाह साहित्यकारों को दे रहे थे।" आइए इस अवसर पर पहली बार पर हम पढ़ते हैं सुप्रसिद्ध आलोचक जीवन सिंह का आलोचनात्मक आलेख 'श्रम और सौंदर्य की समकालीन रचना'।
डी एम मिश्र की ग़ज़ल
'श्रम और सौंदर्य की समकालीन रचना'
जीवन सिंह
हिंदी में ग़ज़ल का आना हिंदी और उर्दू की दीर्घकालीन समीपता और साहचर्य का परिणाम है जिनमें भिन्नता और एकता का द्वंद्वात्मक रिश्ता आज तक भी मौजूद है। इस काव्य रूप की अंतर्वस्तु की सबसे बड़ी ख़ासियत इसकी सामासिकता है। यह कहना ग़लत नहीं होगा कि इसने भारत में आ कर एक नयी सामासिक संस्कृति को विकसित करने का महत्वपूर्ण काम किया। सबसे बड़ा और महत्व का काम इसने यहाँ के हिन्दू-मुसलमानों के हृदयों को मिलाने का किया। इसकी शुरुआत अमीर खुसरो से होती है, जिन्होंने एक बड़े सांस्कृतिक प्रणेता की भूमिका निभाई। माना जाता है कि हिन्दुस्तान में ग़ज़ल की शुरुआत करने वाले अमीर खुसरो थे, जो तेरहवीं सदी के बीच में भारत के ब्रज जनपद के एक गाँव में पैदा हुए थे। चूंकि ये एक शायर और संगीतकार दोनों थे और निजामुद्दीन औलिया के चहेते शागिर्द भी। इसलिए ग़ज़ल यहाँ संगीत और साहित्य की एक मिली-जुली विधा के रूप में विकसित हुई। अरब में इसकी पैदाइश सामान्य वर्ग की कला के रूप में हुई मानी जाती है। यही उत्तर भारत में एक नयी मिलीजुली भाषा में "हिन्दवी" या "रेख्ता" के नाम से सत्तरहवीं और अठारहवीं सदियों के पूर्वार्ध तक चलती रही। यही जब उत्तर के मुस्लिम शासकों के साथ दक्षिण में गयी तब इसे वहाँ के नए दरबारों में एक नयी काव्य भाषा का दर्ज़ा हासिल हुआ। तब वहाँ वली दकनी के नाम से मशहूर शायर ने पहली बार इसको प्रेम और इंसानियत का नया रंग प्रदान किया। इनके बाद अठारहवीं सदी में बड़े शायर मीर हुए और उन्नीसवीं में ग़ालिब। जिनके नाम से ग़ज़ल को एक बड़ा मुकाम हासिल हुआ। इनके अलावा भी उर्दू में तीन सौ साल से भी लम्बी ग़ज़लकार शायरों की एक समृद्ध परम्परा मिलती है जिसका विस्तार से यहाँ उल्लेख करना न तो ज़रूरी है और न ही हमारा ऐसा कोई मकसद है।
हिन्दी में ग़ज़ल की बाक़ायदा शुरुआत बीसवीं सदी में महाप्राण निराला से होती है। हिन्दी का पदविन्यास और हिंदी इलाके के ज़मीनी जन-सरोकार पहली बार उनकी ग़ज़लों में आते हैं। 1943 ई में निराला का एक गीत-ग़ज़ल संग्रह “बेला” शीर्षक से प्रकाशित हुआ, इसकी ख़ासियत यह है कि इसमें गीतों के साथ उनकी ग़ज़लें भी हैं। कहना न होगा कि निराला इस काम को कविता के अन्य रूपों के साथ ग़ज़ल में भी करते हैं। इसीलिये हिंदी में ग़ज़ल की शुरुआत करने का श्रेय भी उनको ही जाता है। मसलन काव्य रसिकों की जुबान पर चढ़ा हुआ उनका एक मशहूर शे’र है -
खुला भेद विजयी कहाये हुए जो लहू दूसरे का पिये जा रहे हैं।
निराला जी के बाद जानकी वल्लभ शास्त्री जी ने भी ग़ज़लें लिखी किन्तु वे उनको पढ़े-लिखे वर्ग की जीवनानुभूतियों से आगे नहीं ले जा पाए। यह काम बलवीर सिंह रंग ने किया जो अभावग्रस्तों–असहायों की तरफ़ से ग़ज़ल में बोलते हैं -
तुम सबल संभावनाओं के अलम्बरदार लेकिन हम अभावों में पले हैं, आपको आपत्ति क्या है।
ग़ज़ल में रंग जी की यही पक्षधरता और प्रश्नवाचकत़ा हिंदी ग़ज़ल के रूप-विधान में सम्वादात्मकता के सहज लहज़े को जोडती है।जन-सरोकार की दृष्टि से त्रिलोचन की भूमिका पर जब हम नज़र डालते हैं तो वहाँ हमको उसका विस्तार मिलता है।
‘बिस्तरा है न चारपाई है
ज़िंदगी खूब हमने पाई है'
जैसा शे’र कहने वाले त्रिलोचन ने ग़ज़ल जैसे काव्य रूप को मन से अपनाया है। इनके बाद शमशेर ने भी उर्दू और हिंदी दोनों को मिला कर लिखा है। लेकिन जब वे अपनी मस्ती में आते हैं तो ठेठ जन-सरोकारों की अमूल्य गठरी को खोल कर रख देते हैं। मसलन उनकी एक ग़ज़ल बहुत लोकप्रिय हुई -
राह तो एक थी हम दोनों की, आप किधर से आये गए
हम जो लुट गए, पिट गए आप जो, राज भवन में पाए गए
किस लीला युग में आ पहुंचे अपनी सदी के अंत में हम
नेता जैसे घास-फूंस के रावण खड़े कराए गए।
इसके बाद शलभ श्रीराम सिंह ने हिंदी और उर्दू को छोड़ कर हिन्दुस्तानी ग़ज़ल के पैटर्न को अपनाया, जिसमें उनका झुकाव हिंदी की तरफ रहा और ज़िंदगी के उन सवालों की तरफ जो हिन्दुस्तान के मेहनतकश की संस्कृति की आधारभूमि के निर्माण का काम करते हैं। इसी वातावरण में से दुष्यंत कुमार जैसा एक नया ग़ज़लकार पैदा हुआ जिसकी ग़ज़लों ने मध्य वर्ग के असंतोष और आक्रोश को वाणी प्रदान की और उनकी ग़ज़लों के अशआर आम मध्य वर्ग के कंठों पर बहुत जल्दी चढ़ भी गए। एक नयी खुशबू इन ग़ज़लों में महसूस हुई और वह अंदाज़ भी जो आमतौर पर ग़ज़ल का अंदाज़ होता है।दुष्यंत कुमार के इस अंदाज़ का सम्मोहनकारी प्रभाव मध्यवर्गीय पाठक-श्रोता पर हुआ। यह दरअसल समकालीन ग़ज़ल का न केवल प्रस्थान बिंदु है वरन उसकी एक नयी आधारभूमि भी है जो ग़ज़ल के आतंरिक स्वभाव में तबदीली कर उसे व्यक्ति की लोकतांत्रिक चेतना और विवेक से जोड़ देती है जिसमें जीवन के बुनियादी जन-सरोकार हों और जो इस मामले में मध्यवर्गीय जन-सरोकारों का अतिक्रमण कर चुकी हो। कहना न होगा कि ग़ज़ल को इस नयी भूमि पर लाने वाला एक किसानी नाम सामने आया अदम गोंडवी का, जो ग़ज़ल को मध्यवर्गीय शहरी आवासों से निकाल कर गाँवों की झोपड़ियों और किसानों के घरों में ले गया। दुष्यंत और अदम के बीच में हिंदी ग़ज़लकारों की एक समृद्ध कड़ी मौजूद है लेकिन वह ग़ज़ल को मध्य वर्ग की संकीर्ण और सिकुड़ी हुई भूमि पर ही अपने शैल्पिक अंदाज़ में घुमाने का काम ज्यादा करती है। शिल्प-संरचना और नवीन कल्पनाओं की दृष्टि से दुष्यंत की परम्परा में आने वाले इन ग़ज़लकारों की महत्वपूर्ण भूमिका है किन्तु जन-सरोकारों के मामले में वह मध्यवर्गीय जन-सरोकारों की गिरफ्त से बाहर नहीं निकल पाती। वह उन बुनियादी जीवन सरोकारों तक ग़ज़ल को नहीं ला पाते जहां अदम उसको ले कर आ जाते हैं। इसके बावजूद ये मध्यवर्गीय गज़लकार ग़ज़ल को नए नए अंदाज़ देते हैं, उसको नया शिल्प देते हैं। इन ग़ज़लकारों में गोपालदास नीरज, सूर्यभानु गुप्त, भवानी शंकर, ज्ञान प्रकाश विवेक, देवेन्द्र आर्य, हरेराम समीप, ज़हीर कुरेशी, इंदु श्रीवास्तव, सुलतान अहमद, माधव मधुकर, महेश अश्क, शेरजंग गर्ग, वशिष्ठ अनूप, माधव कौशिक, हस्तीमल हस्ती, विज्ञानव्रत, कमलेश भट्ट कमल, ओम प्रकाश यती, कुमार विनोद, विनय मिश्र, मृदुला अरुण, पुरुषोत्तम प्रतीक, सुरेन्द्र श्लेष, राम नारायण स्वामी, अशोक अंजुम, वर्षा सिंह, गोपाल गर्ग, सुरेन्द्र चतुर्वेदी, दिनेश सिंदल आदि ऐसे अनेक नाम हैं जिन्होंने ग़ज़ल को मध्यवर्गीय संवेदनशीलता के दायरे में खूब बरता है। इससे स्पष्ट है कि ग़ज़ल जैसी एक सामासिक विधा को माध्यम बना कर हिंदी कवियों ने अपने समय को तरह-तरह से दर्ज करने की कोशिश की है। इस सीमा का अतिक्रमण किया अदम गोंडवी ने, जो ग़ज़ल को अदबी इदारों से बाहर निकाल कर गाँव के दिलकश नजारों में ले गए। उन्होंने अपनी एक ग़ज़ल के मतले में ही कहा -
ग़ज़ल को ले चलो अब गाँव के दिलकश नजारों में
मुसलसल फन का दम घुटता है इन अदबी इदारों में
कहना न होगा कि अदम गोंडवी ग़ज़ल को इस दिशा में ला कर उसे एक नयी धरती और नये आकाश की नयी दुनिया में लाते हैं जहां नए जन-सरोकारों का एक खुला आकाश मिलता है। खुशी की बात यह है कि जीवन के इस नए क्षेत्र की संस्कृति और जीवन-मूल्यों से सम्बद्ध अनुभवों को ग़ज़ल में लाने वाले कई गज़लकार भी सामने आते हैं इनमे रामकुमार कृषक, डी एम मिश्र, बल्ली सिंह चीमा, महेश कटारे सुगम, राम मेश्राम, इंदु श्रीवस्तव, नूर मुहम्मद नूर, आदि प्रमुखतः ग़ज़ल को इस नई दिशा में ले जा रहे हैं।
तो आइए इसी क्रम में इनमें से एक ग़ज़लकार डी एम मिश्र की ग़ज़लों की समकालीनता पर तनिक विस्तार से चर्चा करें। उसके पहले डी एम मिश्र जी की पृष्ठभूमि भी जान लेते हैं। उनकी पहली कविता आगरा से निकलने वाली ‘युवक’ नामक पत्रिका में 1968 में प्रकाशित हुई थी। इसके हिसाब से उनकी रचना यात्रा की अब तक की अवधि पांच दशक से कुछ अधिक की बैठती है, लेकिन ग़ज़ल लेखन की शुरुआत वे सबसे बाद में 2000 ई के आस-पास करते हैं। इससे पहले वे 1968 के आस-पास से 2000 ई तक गीत व कवितायेँ लिखते रहे हैं। इस तरह से काव्य रचना की एक सुदृढ़ आधारभूमि पर वे ग़ज़ल लेखन का काम करते हैं। उनको अपने परिवार से साहित्यिक संस्कार के रूप में तुलसीकृत ‘रामचरितमानस’ की कविता का संस्कार मिला है जिसे उन्होंने अपनी समझ और जीवनानुभवों के आधार पर आधुनिक कविता में तब्दील किया। जब वे ग़ज़ल की संगति में आये तो उनको अपने शहर सुल्तानपुर से ग़ज़ल का वह मंच और वातावरण मिला जिस पर मजरूह सुल्तानपुरी की गहरी छाप होने से इनकार नहीं किया जा सकता। अजमल सुल्तानपुरी और तेवर सुल्तानपुरी की संगत भी उन्होंने की है जिससे सादगी जैसे गुण को उन्होंने कमाया है। यहीं से उनकी ग़ज़ल के कथ्य और भाषा दोनों में में भारतीय संस्कृति की बहुत बड़ी और बुनियादी विशेषता - सामासिकता जैसे गुण का समावेश हुआ है जो आज के समय में विरल होता जा रहा है। ग़ज़ल की इस तरह की सामासिक भाषा का अंदाज़ भी मिश्र जी को इसी संगत और सान्निध्य से मिला है -
खुदा या तो यही कर दे किनारे पर लगे कश्ती खुदा या फिर यही कर दे कि साहिल ही बदल जाए
शुरुआत में उनका रवायती यानी पारंपरिक ग़ज़ल पर ही पूरा यकीन रहा। लेकिन यहीं मंचों पर उनको प्रगतिशील और जनवादी तेवर की ग़ज़ल के लिए मशहूर हो चुके अदम गोंडवी का नज़दीकी साथ मिला तो आधुनिक और समकालीन तेवर की बनाने की दिशा में अग्रसर हुए। इसी का परिणाम है उनकी ग़ज़ल का एक नया स्वरुप जो उनके अब तक प्रकाशित सात ग़ज़ल संग्रहों में से अंतिम पांच संग्रहों यानी “आईना-दर-आईना’, (2016 में प्रकाशित) ‘वो पता ढूंढ़ें हमारा’ (2019) तथा “लेकिन सवाल टेढा है“ (2020), समकाल की आवाज़ (2022), सच कहना अंगारों पर चलना होता है (2025) में खासतौर से उद्घाटित हुआ है। इनसे पहले वे 2006 में ‘उजाले का सफर’ और 2012 में ‘रोशनी का कारवाँ’ प्रकाशित करा चुके थे जो बहुत चर्चा में नहीं आ पाए थे। बहरहाल।
ग़ज़ल-संग्रह “लेकिन सवाल टेढ़ा है" की पहली ग़ज़ल का उनका एक शेर है
न मैं कबीर न ग़ालिब न मीर न मोमिन ही मिला जो जख्म जमाने से वही गाता हूँ।
उक्त शे’र को कहने वाले डी एम मिश्र न कबीर हैं, न ग़ालिब हैं, न मीर और न ही मोमिन हैं। वे कुछ हैं तो सिर्फ डी एम मिश्र हैं। और यही एक शायर या कवि को होना भी चाहिए। जिस कवि के यहाँ उसकी अपनी कवि-व्यक्तित्व-समृद्धि नहीं है, वह दूसरों के पीछे चलने वाले एक अनुगामी से अधिक नहीं होता। कविता की विविधमयी रचनात्मकता ही उसे निजता प्रदान करती है। यह अलग बात है कि हर कवि अपने समय को लांघ कर और उससे बच कर नहीं जा सकता। लेकिन वह एक जैसे समय के भीतर से अपना रास्ता अलग बना सकता है। वह अलग तरह से सोच सकता है। वह संकीर्ण सोच को त्याग कर संस्कृति की उदार और उदात्त परम्परा से जुड़ सकता है। वह चाहे तो कबीर, मीर, ग़ालिब सरीखे अपने पूर्वजों से भी यह सब सीख और जान कर उसे अपने समय की तारीख से जोड़ सकता है। वह अपने जीवनानुभवों से ऐसा बहुत कुछ कह सकता है जो दूसरों के पास नहीं है और जो उसे दूसरों से मिलाता है और अलग भी करता है। जैसे डी एम मिश्र कहते हैं कि ग़ज़ल कुछ ऐसी होनी चाहिए कि उसमें से मिट्टी की महक आये और ऐसा लगे कि जैसे गेहूँ की बाल में से किसी सुन्दरी के कंगन की खनक आ रही है। गेहूँ की बाल में से कंगन की खनक आना सौन्दर्य के आभिजात्य से अलग उसकी साधारणता का वह नया रास्ता है जो लोकतांत्रिक समय में लोकतान्त्रिक जीवन मूल्यों के प्रति सजग रहने से ही आता है। इस तरह मिश्र जी अपनी ग़ज़लों में मेहनत और सौंदर्य दोनों का मेल कराते हुए उसके आभिजात्य से अलग कर उसे साधारण से मिलाते हैं। साधारण के सौन्दर्य को उद्घाटित करना ही इस युग की समकालीनता है। यह उन प्रेमचंद का रास्ता भी है जो लगभग एक सदी पहले सौन्दर्य की पुरानी कसौटी को बदलने की सलाह साहित्यकारों को दे रहे थे। सौन्दर्य की कसौटी बदलना यद्यपि कोई आसान काम नहीं है। मिश्र जी इस जीवन तथ्य से भी वाकिफ़ हैं कि समाज में पूंजीपति और शासक वर्ग त्याग करने की बजाय भोग करने में अधिक विश्वास रखता है, उसके पास समाज से लिया हुआ इतना सरप्लस होता है जिसमें से वह जौ के बराबर ही यदा कदा त्याग करता है फिर भी उसके पास इतना बच जाता है कि वह उसकी सौ पुश्तों से भी नहीं बीतता। सच तो यह है कि समाज में उसका कमजोर वर्ग ही ज़िंदगी भर त्याग करता रहता है। वह अपने श्रम से जितना कुछ अर्जित करता है वह सब दूसरों के हिस्से चला जाता है। उसके श्रम के सरपल्स से ही पूंजीपति वर्ग पूंजी का एकछत्र स्वामी बनता जाता है अतः मिश्र जी का यह कहना (आईना-दर-आईना में) उनकी गहरी समझदारी का सूचक है कि वे अपनी ग़ज़लों में कमजोर वर्ग के त्याग जैसे जीवन मूल्य को रेखांकित करते हैं।
कितने अमीर होंगे दस बीस फीसदी बस
कमजोर आदमी का मैं त्याग लिख रहा हूँ
यह उनकी पक्षधरता का भी एक सबूत है जिसमें वे समाज के ताकतवर अमीर वर्ग के सामने कमजोर के पक्ष से लिख रहे हैं। यह चुनाव आसान नहीं होता। लोग तो ताकतवर के पक्ष में खड़े रहने को ही समझदारी मानते हैं किन्तु यह कैसा कवि है जो अपनी ग़ज़ल में कमज़ोर की बात कर रहा है। उसके त्याग को रेखांकित कर रहा है। यह समाज में खींची गयी लीक को तोड़ कर चलने जैसा काम है। इस तरह के अनेक जीवन-प्रसंग मिश्र जी की ग़ज़लों की अंतर्वस्तु का निर्माण करते हैं। यह एक जीवन-द्वंद्व है जिसमें कवि को अपना पक्ष चुनना ही पड़ता है जो इस द्वंद्व से बच कर तटस्थता का वरण करते हैं। वे शब्द-चमत्कार दिखला कर काव्य-भ्रम जरूर पैदा कर सकते हैं किन्तु अपने समय की शायरी से वे महरूम रहते हैं। कविता दरअसल तभी हो पाती है जब वह अपने समय के जीवन-मूल्यों की खोज में मुब्तिला रह कर उनको रचना का आंगिक हिस्सा बना देती है। जो लोग घनघोर अन्धकार में पूनम की ग़ज़ल कहते हैं और फटे वस्त्रों के सामने रेशम के वस्त्रों की बातें करते हैं मिश्र जी की पटरी ऐसे लोगों से नहीं बैठती। उनका ध्यान ऊंचे किस्म की शराब पीने वालों की बजाय हमेशा ग़रीब के पानी पर ध्यान रहता है -
“ग़रीबों को नहीं मिलता है पीने के लिए पानी
मगर तुम तो ग़ज़ल व्हिस्की गुलाबी रम की कहते हो।”
पूंजीवादी व्यवस्था वाले लोकतांत्रिक समाजों में भी एक बड़ा वर्ग जहां भोली मछलियों जैसा होता है वहीं दूसरा छोटा सा ताकतवर वर्ग उन बगुलों का रहता है जो हमेशा से मछलियों को अपना भोजन बनाये रहता हैं। यहाँ भी कवि बगुलों के पक्ष में नहीं है वह मछलियों को सावधान करता हुआ कहता है -
“ओ मेरे तालाब की भोली मछलियों सावधान
ये वही बगुले हैं जो कहते हैं त्यागी हो गये”
वो एक परिवर्तनकामी ग़ज़लकार हैं। वो कहते हैं।
अब ये ग़ज़लें मिज़ाज़ बदलेंगी
बेइमानों का राज बदलेंगी
खूब दरबार कर चुकीं ग़ज़लें
अब यही तख्तो ताज बदलेंगी
यह है मिश्र जी की ग़ज़ल की साधारणता के पक्ष वाली अपनी ज़मीन। यहाँ पर यह बतलाना गलत नहीं होगा कि मिश्र जी ने उर्दू-फारसी के लोकप्रचलित यानी आमफहम शब्दों का प्रयोग करते हुए हिन्दी भाषा की प्रकृति और विन्यास के अनुसार ग़ज़लें लिखी हैं इसलिए उनका मिज़ाज हिन्दी की तरफ़ झुका हुआ है किन्तु उसका जो व्याकरण और अनुशासन है, वह फारसी और उर्दू से होता हुआ अपनी सहोदरी हिन्दी तक आया है इसलिए बहर के अनुशासन को मानते हुए भी उनके सामने कई स्थानों पर बहर का संकट भी उपस्थित हुआ है। जहां पर उन्होंने हिन्दी की अपनी शब्द-प्रकृति के अनुसार कुछ छूट भी ली है ताकि शब्द और अर्थ दोनों के सौन्दर्य की संगति बनी रहे। मिश्र जी की ख़ासियतस यह है कि उन्होंने ग़ज़ल के अपने छंदीय अनुशासन का निर्वाह करने की पूरी कोशिश की है किन्तु हिन्दी और उर्दू के शब्दोच्चारण की भाषिक प्रकृति अलग-अलग होने के कारण कुछ जगहों पर ऐसी दुविधा भी उत्पन्न हुई हैं जहां शब्द की हिन्दी प्रकृति होने की वजह से बहर भंग होने का दोष भी आ गया है जिसे उन्होंने शब्द और अर्थ की चारुता भंग न होने की स्थिति के अनुसार न चाहते हुए भी रख लिया है। यह सच है कि हिन्दी-उर्दू सहोदरी हैं और दोनों का व्याकरण भी लगभग एक जैसा ही है किन्तु लिपि और कुछ शब्दोच्चारण के फर्क से उसकी संगीतात्मकता में फर्क आ जाता है। जैसे – किसी को इस शेर में “फैलुन" दोष नज़र आ सकता है।
बोझ धान का ले कर वो जब हौले–हौले चलती है
धान की बाली, कान की बाली दोनों सँग-सँग बजती है।
मिश्र जी ने ग़ज़ल की कला को भी हिन्दी की अभिधा शब्द-शक्ति के अनुसार ज़्यादा बरता है। इस वज़ह से उनके यहाँ ग़ज़ल का कथ्य भी सीधे सीधे सपाट कथन के रूप में खूब आता है जिससे ग़ज़ल में सादगी और सरलता जैसे व्यावहारिक गुण स्वतः ही आ जाते हैं। सरलता में व्यंजकता पैदा करना बहुत मुश्किल काम होता है लेकिन सपाटता का ख़तरा मोल ले कर भी मिश्र जी उसे छोड़ते नहीं। सवाल उठ सकता है कि ग़ज़ल में इतनी सरलता और सादगी की कला को उन्होंने कहाँ से सीखा है? तथ्य यह है कि उन्होंने गजल कहने की कला मंच की वाचिक और श्रुति परम्परा से सीखी है। बंद कमरे में बैठ कर ग़ज़ल कहना और मंच को ध्यान में रखकर श्रोता को ध्यान में रख कर बात कहने में और बात में बहुत फर्क आ जाता है। वाचिक परम्परा में कलाकार की परीक्षा मैदान में होती है। इस परीक्षा से मिश्र जी शुरुआती दौर में खूब गुजरे हैं। जैसे दुष्यंत और अदम दोनों की ग़ज़लों की परख वाचिक परम्परा में शामिल रहने से भी हुई। कहना न होगा कि वाचिक और लिखित परम्पराओं में काव्य भाषा का व्यवहार बदल जाता है। इसलिए वाचिक परम्परा की ग़ज़ल अधिक सहज, सरस और सरल होती हैं। यह स्वभाव मिश्र जी की ग़ज़लों का भी है। वे मंच को नहीं, उसके बाजारूपन को गलत मानते हैं और उससे बचते भी हैं इसलिए मंचीयता के जिस गुण से दूसरे गज़लकार महरूम रहते हैं वह गुण मिश्र जी की ग़ज़ल में मंच की वाचिक और श्रुति-सम्बन्ध परम्परा का उपयोग करते रहने से आ गया है। मंच से ही उन्होंने निदा फाजली, बशीर बद्र, बसीम बरेलवी सरीखे शायरों की सरलता में वैशिष्ट्य पैदा करने का गुण ग्रहण किया है। जिससे उनकी ग़ज़लों में सहजता के साथ–साथ तरलता भी आ गयी है, जिससे वह लोगों की जुबान पर जल्दी चढ़ जाती है, जैसे दुष्यंत और अदम की ग़ज़लें लोगों को जल्दी याद हो जाती हैं।
मिश्र जी आधुनिक युग के ऐसे कवि हैं जिनको अभी तक अपने खुदा पर भरोसा है। लेकिन कहीं भी उनकी यह आस्तिकता संकीर्णता का शिकार नहीं हुई है। आज के हालातों में यह भी कम बात नहीं है कि उनका भारत की हज़ारों साल की सामासिक संस्कृति और सामासिकता में सच्चा और पूरा विश्वास कायम है। इस मामले में वे कुछ भी छिपाते नहीं हैं। वे जहां ग़ज़लों में अपनी आस्तिकता को व्यक्त करते हैं वहीं वे उस संदेह से भी मुक्त नहीं हैं जो व्यावहारिक ज़िंदगी में सामने आता है। ऐसी स्थिति में वे कहते हैं -
“ऐसे खुदा का क्या करूँ जो बुत बना रहे
बोले न कुछ सुने न कुछ रहे भी दूर दूर।”
इसी तरह से जब वे गरीबों–लाचारों–असहायों और मेहनतकशों को भारी कष्ट में पड़े हुए देखते हैं तो ऐसे सवाल भी दागने में पीछे नहीं रहते -
“कहाँ ले के जाऊं मैं फ़रियाद अपनी
गरीबों का कोई खुदा ही नहीं है"
इसी तरह से एक अन्य शे’र में उन्होंने कहा है -
“रोज़ दर्शन करें लोग भगवान के
हम बहुत ढूँढते हमको दिखते नहीं"
जैसे जैसे मिश्र जी की ग़ज़ल-यात्रा आगे बढ़ती है वैसे वैसे उनमें कई तरह के बदलाव भी होते हैं। शुरुआत में वे मंचीय प्रभाव से वैयक्तिक सौन्दर्यानुभूति की रवायती ग़ज़लें भी खूब कहते रहे हैं जिसे उन्होंने कभी पूरी तरह से छोड़ा नहीं किन्तु इनमें भी वे पूरी तरह से रवायती नहीं रह पाते। यहाँ भी वे अपनी सौन्दर्यानुभूति में ज़िंदगी के श्रम--सौन्दर्य से सम्बन्धित किसानी सरोकारों को जब संयुक्त करते हैं तो ग़ज़ल की प्रकृति ही बदल जाती है उसमें नयापन आ जाता है। मसलन उनकी एक ग़ज़ल मंचों पर और पाठकों में बहुत लोकप्रिय हुई और कई गायकों ने गई खूब गई ही है -
"कभी लौ का इधर जाना, कभी लौ का उधर जाना
दिये का खेल है तूफ़ान से अक्सर गुजर जाना"
रूप का ऐसा गतिशील बिम्ब इस बात का सूचक है कि कवि ने उसकी नाज़ुक और नफासत की लीक से अलग हटकर सौन्दर्य को तूफ़ान की स्थितियों से भी जोड़ कर देखा है जो इस नए ज़माने में ही संभव था। अपने पहले दौर में वे सौन्दर्यानुभूति के सरोकारों को लाते हैं और यहीं से वे अपने सरोकारों को सामाजिक---राजनीतिक सरोकारों के यथार्थ से जोड़ देते हैं | इस प्रक्रिया में वे कई बार तो सपाट प्रकृति की राजनीतिक गज़लें भी कहने लगते हैं। इस तरह से वे ग़ज़ल के लिए अपनी एक अलग से पुख्ता जमीन तैयार करते हैं और अपने साथी अदम गोंडवी जैसे ग़ज़लकारों के असर से ग़ज़ल को शहर के पूंजीकेंद्रित आभिजात्य और चमक-दमक की बारीकियों से बचा कर इंसानियत के तकाजे से वहाँ ले आते हैं जहां उसका दम घुटने से उसे बचाया जा सके। वास्तव में मिश्र जी की ग़ज़ल का रास्ता लोकप्रियता और शास्त्रीयता के बीच से कहीं हो कर जाता है –
'तमाशा देखना हो तो ज़माना दौड़ आता है
लगे जब आग बस्ती में तो दरिया सूख जाता है
न दें गर साथ सूरज-चाँद तो मायूस मत होना
अभी घनघोर जंगल में भी जुगनू टिमटिमाता है।”
अर्थात मेरे लिए डी एम मिश्र की ग़ज़लें इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि वह हिंदुस्तानीपन को व्यापक आधार पर परिभाषित करती है और आपस में दिलों को जोड़ने का काम करती है। वह इसलिए भी बड़े काम की है कि अपने जनवादी तेवर से लोकतांत्रिक मूल्यों की पक्षधरता में साफ-साफ खड़ी होती है।वह मेरे लिए इसलिए भी जरूरी बन जाती है कि वह आदमी की पहचान उसकी वेशभूषा और आचार की भिन्नता की बजाय इंसानियत के आधार पर करती है। वह इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि वह परंपरा को ज़रूरी मानते हुए भी परिवर्तन, विकास, गतिशीलता और नवीनता के आधुनिक सिद्धांत को आगे बढ़ाती है। इसके बावजूद वह ग़ज़ल के अनुशासन और व्याकरण के प्रति पूरी तरह अपनी जवाबदेही मानती है।
डी एम मिश्र की ग़ज़लों पर मैंने कई लेखों के माध्यम से बड़े विस्तार से लिखा है जिसमें उनके पूर्व में प्रकशित ग़ज़ल संग्रहों का ज़िक्र आ चुका है। इस लेख में, मैं उनके बिल्कुल ताज़े ग़ज़ल – संग्रह “सच कहना यूँ अंगारों पर चलना होता है“ पर कुछ तथ्य सामने रखना चाहता हूँ (जिसे श्वेतवर्णा प्रकाशन नई दिल्ली ने प्रकाशित किया है)।
खुशी की बात यह है कि वे समय और समाज के रिश्तों की अनदेखी करते हुए मनमाने तरीके से ग़ज़ल रचना नहीं करते। समय का स्वर उनकी ग़जल में खुलकर बोलता है जिससे उनकी पक्षधरता भी सामने नज़र आती है। ग़ज़ल दरअसल ज़िंदगी के बाहर की उतनी नहीं जितनी मन के भीतर की रचना है।पाठक चाहें तो इस विधा से एक समय के वैयक्तिक और सामाजिक दोनों तरह के मनोविज्ञान को समझ सकते हैं।वे जब कहते हैं कि सच कहना यूं अंगारों पर चलना होता है तो एक बहुत बड़ी हक़ीक़त का बयान करते हैं। हम देख रहे हैं कि आज लोकतंत्र होने और दिखने के बावजूद सच कहना आसान नहीं रह गया है। आज अभिव्यक्ति पर सामंतवादी समय से भी अधिक ख़तरा है। इसीलिए झूठ ही झूठ का प्रसार है। कबीर का यह कथन-
सांच कहूं तो मारन धाबै, झूठे जग पतियाना -
आज भी उतना ही बड़ा सच कह रहा है जितना उनके समय में कह रहा था। बहरहाल।
इस संग्रह की पहली ग़ज़ल का मतला ही आज के समय की उस विकरालता के अहसास से होता है जिसमें एक भलमानुष को अपनी प्यास बुझाने के लिए अंगारों में डूबने की हिक़मत करनी होती है।बुरे लोग तो इस बेहद जनविरोधी समय में अपनी प्यास बिसलेरी की बोतल से ही बुझाते हैं। मुश्किल ईमानदार और भले लोगों की है जिनको झूठ का नहीं,सच का रास्ता अख्तियार करना पड़ता है। मतले के शे'र में मिश्र जी कहते हैं।
सोचता हूं प्यास ये कैसे बुझाऊं।
आग के दरिया में क्यों न डूब जाऊं।
मिश्र जी के यहां मिथकों का आधुनिक व्यंजना में प्रयोग ग़ज़ल की अनेकार्थक सटीकता को कुछ इस तरह से व्यक्त करता है। कृष्ण द्वारा जनविरोधी कालिया नाग को नाथ देने की भागवत कथा को कौन नहीं जानता किंतु वह नाग आज भी हमारे आसपास मौजूद हैं मिश्र जी का इसी ग़ज़ल का दूसरा शेर इस बात को बेहद सादगी से रख देता है। वे कहते हैं।
देख लूं कितना ज़हर है कालिए में
चढ़ के उसके शीश पर मुरली बजाऊं।
शायर का फ़र्ज़ भी वे सच दिखाने को ही मानते हैं। इसलिए कहते हैं।
सच दिखाना फर्ज़ मेरा क्या करूं मैं
आइना हूं मैं भले ही टूट जाऊं।
डीएम मिश्र की ग़ज़ल के सरोकारों में मौजूदा समय का सामान्य जन और उसके गहरे त्रास हैं जो गैरबराबरी और अन्याय से जन्में हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था में भी लगातार नाइंसाफी बढ़ती ही जा रही है यह अहसास इस ग़ज़ल संग्रह के केंद्र में नज़र आता है जब वे एक शेर में इस तरह से अपनी बात रखते हैं।
हम भी प्रश्न उठाते नाइंसाफी का
अगर खुदा तक जाने की सुविधा होती
मौजूदा समय की हक़ीकत का बयान करते हुए कवि एक शेर में कहता है कि सभ्यता का चाहे कितना ही बाहरी विकास क्यों नहीं हो गया हो लेकिन आंतरिक तौर पर मनुष्य की पशुता ही बढ़ती जा रही है। सच तो यह है कि आज के मनुष्य और पशुओं की तुलना करें तो पशुओं में भी मनुष्य की तुलना में करुण भाव अधिक दिखाई देता है -
पशुओं को भी देखा है मैंने रोते
इंसानों में भी देखा पशुता होती
जब इंसानियत की दृष्टि से शायर अपने समय की दुनिया और अपने आसपास को देखता है तो उसे लगता है कि इस नये समय की विकसित होती दुनिया में दम घुटने लगा है। तब उसे अपना वह गरीब अविकसित समय ही अच्छा लगने लगता है। जब न वर्तमान में सुकून हो और न ही भविष्य में कोई प्रकाश नज़र आता हो तो व्यक्ति को अतीत की तरफ देखना ही अच्छा लगने लगता है। वह अपने एक शेर में कहता है।
कहां मैं बंद कोठरी में फंस गया आ कर
इससे अच्छा तो मेरे गांव का वो छप्पर है
अपनी एक ग़ज़ल के मतले के शेर में जो रदीफ़ क़ाफिया कवि बांधता है वह भी इस समय की परेशानियों पर ही पहली उंगली धरने जैसा है यद्यपि ग़ज़ल के अन्य शेरों में वह इस यथार्थ के अन्य पहलुओं को भी लाता है। मतले का शेर इस प्रकार है।
जिसको भी देखिए परेशान नज़र आता है
हर भला आदमी हैरान नज़र आता है।
लेकिन ग़ज़ल की प्रकृति के अनुसार इसी ग़ज़ल में ऐसे भी कई शेर हैं, जो उक्त मतले की केंद्रीय भावना से भिन्न है। इस तरह से ग़ज़ल सच में एक ऐसी विधा है जो एकांतिक या एक पक्षीय न होकर अनेकांतिक होती है और जैन दर्शन के अनेकांतवाद को पुष्ट करती है। इस मतले की ग़ज़ल के एक शेर में शाइर यह भी कहता है -
मानता हूं कि पतन हो रहा तेज़ी से बहुत
फिर भी होता है तो ईमान नज़र आता है
कवि की आस्तिकता उनसे यहां तक कहलवा लेती है।
हर समय उसकी ही मौजूदगी दिखती मुझको
हर जगह मुझको वो भगवान नज़र आता है
यह दरअसल ग़ज़ल विधा की सीमा भी है कि रदीफ क़ाफिया मिलाने के चक्कर में पूरा अर्थविन्यास अन्तर्विरोधी हो जाता है। क्योंकि जब हर जगह भगवान नज़र आता है तो फिर परेशानी का भाव कमजोर पड़ जाता है क्योंकि भगवान सब कुछ सह्य बनाकर सारी स्थिति को बदल देता है। बहरहाल यह ग़ज़ल का करिश्मा भी है और बहुत बड़ी सीमा भी। यद्यपि इस संग्रह की एक ग़ज़ल के एक शेर में मिश्र जी यह भी कहते हैं।
ईश्वर की पूजा से बेशक दूर रहूं
मानवता की मगर इबादत करता हूं
दरअसल कवि का यही संकल्प इन ग़ज़लों को आज के लोकतंत्र विरोधी डरावने समय में प्रतिरोधी भावनाओं से पुष्ट बनाता है।यही खूबी उनको आज उन ग़ज़लकारों से अलग करती है जो दिखना चाहते हैं समकालीन लेकिन अतीत उनका पीछा नहीं छोड़ता। खुशी की बात यह है कि मिश्र जी ने धीरे-धीरे अतीत से अपना पीछा छुड़ाकर समकालीनता को ग़ज़ल के केंद्र में लाने के प्रयास किए हैं। वे जिस मनोविज्ञान को अपने अशआर का विषय बनाते हैं वह आधुनिक मन की विवशताओ या विसंगतियों को ले कर होता है। पहली बात तो यह है कि आज सच के पक्ष को ही लोग भूलते जा रहे हैं।भूले नहीं हैं तो झूठ के सामने हथियार डालकर तटस्थ हो गये हैं किन्तु डीएम मिश्र जी की ग़ज़लों को पढ़ेंगे तो ऐसा महसूस नहीं होगा। उनके यहां इस बेहद सत्यविरोधी समय में भी सच का पक्ष और उस पक्ष में खड़े रहने का हौसला मिलेगा। संकट में ही व्यक्ति का असल इम्तिहान होता है। मिश्र जी ने इस मामले में कोई समझौतापरस्ती का रुख नहीं अपनाया है। उनकी पंद्रहवीं ग़ज़ल के मतले का एक शेर देखिए। मालूम चलेगा उनके हौसले का।
बात सच्ची थी तो मैं भी अड़ गया।
इक अकेला फ़ौज से भी लड़ गया।
यह आकस्मिक नहीं है कि उनके इस नये संग्रह का शीर्षक इन दिनों सच पर चल रहे संकट के प्रतिरोध से संबंधित है। वे जानते हैं चारों तरफ़ झूठ से घेर दिये गये समय में सच पर चलना असंभव नहीं तो कितना मुश्किल होता है। इस संग्रह की इक्कीसवीं ग़ज़ल में मतले के शेर में शाइर ने कहा है -
सच कहना यूं अंगारों पर चलना होता है
फिर भी यारो सच को सच तो कहना होता है
आज ऐसा कहना भी कितनी बड़ी बात हो गया है। यह भी समझने की बात है कि ऐसा कहना ही क्यों पड़ रहा है लेकिन मिश्र जी हैं जो यह कहे बिना नहीं रहते -
नफ़रती इंसान से नाता नहीं
घृणा फैलाना मुझे आता नहीं
इस प्रकार हम देखते हैं, मिश्र जी ने अपनी ग़ज़ल को समकालीन बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। वे आज की दुनिया के मनोविज्ञान को खंगालते हुए उसकी शाखा-प्रशाखाओं से होते हुए उसको फैलाते चलते हैं लेकिन ग़ज़ल के भाषा-शिल्प में व्यक्त होने वाले उसके सामासिक पहलू की अनदेखी कर शुद्धतावादी रुख अख्तियार नहीं करते। यहां उर्दू और हिंदी सहोदरा की तरह प्यार करती हुई नज़र आती हैं जो भारतीय संस्कृति का एक बड़ा और महत्वपूर्ण पहलू रहा है और आज भी है।
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जीवन सिंह |
सम्पर्क
डॉ जीवन सिंह
1/14 अरावली विहार
काला कुआं, अलवर
301001
मोबाइल : 9785010072
बहुत -बहुत आभार आदरणीय डॉ जीवन सिंह जी का, आपका और पहली बार का। शानदार प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंजन्मदिन मुबारक हो हमारे प्रिय गजलकार डी एम मिश्र जी।
जवाब देंहटाएंसुशील कुमार
गज़लकार साथी डी एम मिश्र की गज़लों पर जाने माने आलोचक जीवन सिंह जीकका समीक्षात्मक आलेख उनके ग़ज़ल की खूबियों के साथ साथ हिन्दी ग़ज़ल की विकास यात्रा के बारे में बहुत कुछ जानने समझने का अवसर देता है।
जवाब देंहटाएंडी एम मिश्र जी को बधाई एवं जीवन सिंह जी का आभार।
जितेन्द्र धीर कोलकाता