शिवदयाल का आलेख 'किसकी भाषा है हिन्दी'

 

शिव दयाल


प्रत्येक वर्ष 14 सितंबर को हिन्दी दिवस मनाए जाने की परम्परा है। अपने देश में अपनी ही भाषा का दिवस मनाए जाने की यह परम्परा हिन्दी के साथ ही है या ऐसा और भाषाओं के साथ भी है। क्या किसी दिन अंग्रेजी, फ्रेंच, स्पेनिश या पोरचुगीज दिवस भी मनाए जाने की परम्परा है। अपने ही देश में बांग्ला, तमिल, तेलगु के प्रति जो आग्रह है वह क्या हिन्दी के साथ है। हिन्दी की विडम्बना ही है कि जिस उत्तर भारत की यह मुख्य भाषा है वहां भी यह दूसरी भाषा के रूप में ही प्रतिष्ठित है। पहले हम अवधी, भोजपुरी, मैथिली, बुन्देली भाषी है उसके बाद हिन्दी भाषी। यह हिन्दी की कमजोरी नहीं, बल्कि यह उसकी मजबूती है। हिन्दी के कई पक्षों को ले कर शिवदयाल ने एक महत्त्वपूर्ण आलेख काफी पहले लिखा था, जो आज भी प्रासंगिक है। हिन्दी दिवस की बधाई एवम शुभकामनाएं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं शिवदयाल का आलेख 'किसकी भाषा है हिन्दी'।



'किसकी भाषा है हिन्दी'

                     

शिवदयाल 


आज की परिस्थितियों में हिन्दी के लिए मुख्यतः दो नये क्षितिज खुल रहे हैं या कि इसके समक्ष दो जबरदस्त चुनौतियाँ हैं - पहली, भूमंडलीकरण की सर्वग्रासी प्रक्रिया के विरुद्ध सार्थक और निर्णायक प्रतिरोध दर्ज करने की (सनद रहे कि अंग्रेजी इस क्रम में एक नितांत नई भूमिका व अंदाज में सामने खड़ी है - हिन्दी से गले लगने को लालायित, बेताब!) और दूसरी, वृहत्तर समाज की रोजी-रोटी से जुड़ने में समर्थ होने की, उनमें उभरी चेतना के उबाल को प्रणालीबद्ध करके उन्हें किन्हीं बड़े मूल्यों से जोड़ने की। हिन्दी के लिए ये दोनों शायद परस्पर पूरक भूमिकाएँ हों। एक और बहुत महत्वपूर्ण काम हिन्दी को करना है - भारतीय समाज में विभिन्न स्तरों पर ध्रुवीकरणों के नाम पर विघटन की प्रक्रिया को उदासीन करना। हमारे संकटों का कारण कहीं न कहीं हमारी ‘आत्मविस्मृति’ भी है। हमारी हालत उस ‘भुक्खड़’ की तरह हो गई है जिसके सामने जो ही कुछ परोसा जाता है उसमें मुँह मार लेता है, जिसे न अपने तन की सुधि है न मन की, न रुचि-अरुचि की, और इसीलिए इसे इस बात का इल्म भी नहीं कि उसके पाचन-तंत्र का क्या होगा!


उपरोक्त भूमिकाओं को अलग से चिह्नित किया गया क्योंकि हमारे चाहे-अनचाहे हिन्दी बाकी काम तो अपनी पैदाइश से ही करती चली आ रही है। लेकिन हिन्दी की एक भाषा के रूप में अपनी विडंबना क्या है?


आज उत्तर और मध्य भारत का जो इलाका हिन्दी क्षेत्र के नाम से जाना जाता है, सौ-सवा सौ साल पूर्व इसी नाम से नहीं जाना जाता था। मुक्ति आंदोलन अपने स्वप्नों को परिभाषित करने व उन स्वप्नों में साझेदारी के लिए एक बहुभाषी और भाषाई रूप से कहीं अलग-थलग पड़े क्षेत्रों-समुदायों को कैसे एक विकासमान किन्तु सुगम, सुसंप्रेषणीय, साथ ही वैज्ञानिक भाषा के माध्यम से एकजुट कर सकता है - इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण है भारतीय स्वातंत्र्य आन्दोलन और हिन्दी के बीच का संबंध। संभवतः सभ्यता के इतिहास का एक अनूठा उदाहरण भी है यह। जब हम हिन्दी तथा साथ में हिन्दी क्षेत्र, जिसे प्यार से, घृणा से या उपहास से ‘‘गोबर पट्टी’’ भी कहा जाता है, की बात करते हैं तो यह संदर्भ याद रखने की जरूरत है। हिन्दी में महान मूल्यों व सपनों की गूँज जज्ब है। और ये स्वप्न किसी खास समुदाय, समाज या राष्ट्र की सीमाओं में आबद्ध नहीं है। इन स्वप्नों ने एशिया और अफ्रीका की किस्मत भी बदली है।


और यहीं हिन्दी की स्थिति और भूमिका भी कहीं अलग और अनूठी है। कहीं यह साध्य है तो कहीं साधन। कहीं कलकल निनाद करती सरिता है तो कहीं दो पाटों को जोड़ता पुल। कहीं स्वप्न है तो कहीं सोच। कहीं सोच है तो कहीं स्वर। इसीलिए कभी यह इस देश की राष्ट्रभाषा के रूप में स्वाभाविकतया स्वीकार कर ली जाती है तो कहीं इसका प्रभामंडल आतंक भी मचाता है। और तो और इसकी सगी बहनें ही इसके साथ प्रतियोगिता में उतार दी जाती हैं, तो कभी इसे इस या उस कारण से उस भाषा की अनुगामिनी बनने की नियति प्रदान की जाती है जिसके खिलाफ हिन्दी तन कर खड़ी हुई थी। लेकिन आज जब हम हिन्दी के बारे में सोचते है या विचार करते हैं तो लगता है जैसे चुपके से सहसा एक प्रश्न व्यंग्य में मुस्कराता आ खड़ा होता है - किसकी भाषा है हिन्दी? हम सोचते हैं और क्रुद्ध होते हैं - क्या बकवास प्रश्न है। यह भी बताने की जरूरत है भला? लेकिन यह प्रश्न क्या देर तक हमारा पीछा नहीं करता ? हमें अंदर तक तौलता व्यंग्य में उसी तरह मुस्कराता?


किसकी भाषा है हिन्दी? नई सदी की शुरुआत में यह प्रश्न कितना उद्वेलित करता है। क्या बाँग्लाभाषियों, तमिलभाषियों या इसी तरह के अन्य भाषा-भाषियों को भी यह प्रश्न उद्धेलित करता है - किसकी भाषा है बाँग्ला? किसकी भाषा है तमिल? गुजराती किसकी भाषा है? नहीं करता। बिल्कुल नहीं करता। यह प्रश्न उनके सामने खड़े होने की हिम्मत नहीं कर सकता, उनसे हमेशा आँख चुराता रहेगा। इसलिए कि बाँग्ला बाँग्लाभाषियों के अस्तित्व के साथ ही अंतर्गुम्फित है। अब कोई अपने से तो यह सवाल कर नहीं सकता कि मैं किसका हूँ, या फिर आत्मा शरीर से सवाल करे - मैं किसकी हूँ?


तो क्या हिन्दी उन्हीं अर्थों और पृष्ठभूमि में एक भाषा है जैसे बाँग्ला या मलयाली है? हिन्दी, बाँग्ला या मलयायली की तरह इसको व्यवहार में लाने वालों के लिए उतनी संघनित, कंडेस्ड भाषा नहीं है कि इस क्षेत्र विशेष की स्मृति और परंपराएँ, सामूहिक चेतना और अभिलाषाएँ, कुंठाएँ व अपेक्षाएँ - सब एकाकार हो रहें। लगता है जैसे हिन्दी ठीक सतह पर नहीं हो, ठीक जरा ऊपर ही तैरती हुई अस्तित्वमान हो। जैसे इसमें जो भाव व बोध आता हो वह कहीं छन कर आता हो, सीधे-सीधे और जैसा का तैसा नहीं आता हो। बाँग्ला या मलयाली या अन्य भारतीय भाषाओं के साथ ऐसा नहीं है। हिन्दी में सोचने वाले, हिन्दी में बातचीत करने वाले और काम करने वाले, हिन्दी समझने वाले किन्तु बोल न सकने वाले, हिन्दी समझने व बोलने किन्तु लिख न सकने वाले - ऐसे कितने ही खानों में विभक्त है हिन्दीभाषी क्षेत्र। हिन्दी क्षेत्र में ही ऐसे इलाके भी हैं जहाँ एक जगह हिन्दी आभिजात्य का प्रमाण है तो दूसरी जगह हीनता की कुंठा।





हिन्दी क्षेत्र में कई उपक्षेत्र या अंचल है, इनकी अपनी संस्कृति है, परंपराएँ हैं, खास सामाजिक-आर्थिक दशाएँ हैं, और परस्पर संवाद के लिए अपनी भाषा या बोली है। हिन्दी इन अंचलों में संवाद की प्राथमिक अभिव्यक्ति नहीं है। इन क्षेत्रों में ठेठ अर्थों में हिन्दी बोली नहीं जाती, सिर्फ लिखी और समझी जाती है। कुमाऊँनी, गढ़वाली, भोजपुरी, मगही, छत्तीसगढ़ी, संथाली, अवधी, ब्रज और अंगिका - इन सब बोलियों के अलग-अलग - ‘डायलाॅग जोन’ हैं, और ये बोलियाँ इन क्षेत्रों में संवाद का प्राथमिक माध्यम है। खास बात यह है उपरोक्त में से अनेक बोलियाँ स्वतंत्र भाषा का दर्जा माँगने को उठ खड़ी हुई हैं। इनमें से कुछ की अपनी लिपियाँ भी है, खासकर जनजातीय भाषाओं की। इसलिए हिन्दी क्षेत्र की जब बात होती है तो एक बृहद् इलाके का ऐसा चित्र सामने आता है जिसके कई उपक्षेत्र या अंचल हैं और उनकी अपनी संस्कृति भी है। और अन्तरक्षेत्रीय संवाद के लिए हिन्दी इस पूरे क्षेत्र में दरअसल एक प्राथमिक भाषा के रूप में नहीं बल्कि एक संपर्क भाषा के रूप में इस्तेमाल की जाती है।


हिन्दी किसकी भाषा है? यह सवाल ज्यों का त्यों बना हुआ है। अगर हम पाँच सौ साल पीछे चलें तो गोस्वामी जी के मन में मानस रचने के पहले शायद यह सवाल आया हो - संस्कृत किसकी भाषा है? फिर उन्होंने सोचा हो, अवधी किसकी भाषा है? आखिरकार अवधी में उन्होंने मानस को रचा और अवधी को बोली से उठा कर एक भाषा का दर्जा दे दिया। जिसे आज हम गोबरपट्टी कहते हैं उसमें मानस के बहाने अवधी क्या अब तक संपर्क भाषा का काम नहीं कर रही है? यह संदर्भ विचित्र-सा लग सकता है लेकिन वास्तव में अगर देखा जाए तो भाषा का प्रश्न कभी पुराना नहीं पड़ता क्योंकि अभिव्यक्ति का कोई एक व्यवस्थित पैटर्न होता नहीं। इसका रास्ता कभी ऊबड़-खाबड़ और रैखिक तो कभी गोल चक्कर खाने वाला या वर्तुलाकार भी होता है। गोसाईं जी अवध के थे, अवधी बोलते थे, सो उन्होंने मानस लिख डाला अवधी में - यह कहा जा सकता है, लेकिन क्या इसे माना भी जा सकता है? गोसाईं जी संस्कृत के प्रकांड पंडित थे, कहते हैं उन्होंने आरंभ संस्कृत में ही किया लेकिन जाने किस प्रेरणा से अवधी में मानस रच दिया। वह प्रेरणा निश्चय ही भाषा की पहुँच और प्रसार को लेकर रही होगी। संस्कृत के श्लोकों और अवधी की चैपाइयों में एक ही युग-सत्य धड़कता है लेकिन वाल्मीकि रामायण क्या हमारे मर्म में उसी तरह आ पैठता है जैसे राम चरित मानस? अवधी, जो एक क्षेत्रीय बोली थी, मानस रचे जाने के बाद भौगोलिक सीमाएँ लांघ गई। वह महज एक स्थानिक बोली न रही, भले ही चाहे जिन कारणों से आधुनिक युग में एक भाषा के रूप में उसका विकास बहुत न हो पाया हो। रामचरितमानस की अभूतपूर्व लोकप्रियता के पश्चात भी क्या गोसाईं जी को इस प्रश्न ने फिर सताया होगा - अवधी किसकी भाषा है अथवा बोली है? शायद नहीं। उनके लिए तब यह तथ्य ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया होगा कि अवधी समझता कौन है? निश्चय ही बोलने वालों से ज्यादा संख्या समझने वालों की हो गई। अब यह बोलने का सवाल उतना महत्वपूर्ण न रहा, समझने की बात महत्वपूर्ण हो गई। इसीलिए भाषा के संदर्भ में जितना महत्वपूर्ण प्रश्न उसके एक विशेष भौगोलिक क्षेत्र में या स्थानिकता में बोलने वालों को ले कर है उससे ज्यादा महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि उसे समझने वाले कितने हैं और कहाँ तक फैले हैं? शायद भाषा को उसका स्थान उसे समझने वालों से प्राप्त होता है, बोलने वालों से नहीं। और इसी बिन्दु पर आकर हिन्दी की अपनी स्थिति स्पष्ट हो जाती है। हिन्दी की द्वैतियिकता अगर उसे एक ओर से कमजोर करती है तो दूसरी ओर उसे मजबूत आधार भी इसी से मिलता है और दरअसल यहीं आकर हिन्दी की स्थिति अन्य भाषाओं के मुकाबले विशिष्ट हो आती है और वह स्वाभाविक रूप से एक बहुभाषी देश में सबसे ऊँचे आसन की हकदार हो जाती है। और यहीं से इसके अधिकारों व उत्तरदायित्वों का मामला भी शुरू होता है।


हिन्दी दिवस का वार्षिक कर्मकाण्ड आयोजित करके हिन्दी पर कोई उपकार नहीं किया जाता, बल्कि कहीं न कहीं अपने को भाषा और संचार की मुख्यधारा से जोड़ा जाता है। सरकारी, अर्द्धसरकारी, गैर सरकारी विभाग और संस्थाएँ इसी बहाने वह कहने को बाध्य होती हैं जो वह करने में झिझकती हैं। इन विभागों एवं संस्थाओं का ज्यों-ज्यों आम जनता से सम्पर्क बढ़ता जाता है त्यों-त्यों उन पर हिन्दी का दबाव भी बढ़ता है। इस तरह से देखें कि जैसे-जैसे आम जनता की पहुँच ‘डिलिवरी प्वाइंट्स’ पर बनती जाती है, हिन्दी के लिए अपने आप जगह बनती जाती है। आज की तारीख में बैकों में हिन्दी में लिखे और हस्ताक्षरित चेकों अथवा रेलवे रिजर्वेशन फार्मों की संख्या क्या पिछले बीस वर्षों के मुकाबले बहुत अधिक बढ़ी नहीं है? हिन्दी क्षेत्र पर अगर बाजार का दबाव है तो बाजार पर भी हिन्दी का जबरदस्त दबाव है। आज बाजार हिन्दी की अनदेखी तो कर ही नहीं सकता। उत्पादन, निर्माण और रोजगार के दूसरे क्षेत्रों में भी हिन्दी का कोई विकल्प नहीं है।


एक भाषा (संपर्क भाषा नहीं) के रूप में सिर्फ सौ-डेढ़ सौ वर्ष पुरानी हिन्दी के पास अपना पूरा एक शास्त्र है। लिपि तो है ही, व्याकरण है, शब्द-भंडार है, शब्दाचार है - कुल मिला कर पूरा एक तंत्र है जो किसी भाषा को सही मायनों में भाषा बनाता है। लेकिन एक ओर जहाँ हिन्दी संस्कृत, अरबी, फारसी तथा कुछ अन्य एशियाई भाषाओं सहित स्थानीय बोलियों से समृद्ध होती है, वही दूसरी ओर इसे आंचलिक आग्रहों का दबाव भी झेलना पड़ता है, इस कारण बांग्ला या तमिल भाषाओं की तरह इसका स्वरूप सघन नहीं रह पाता। कभी-कभी तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे हिन्दी लगातार छीजती जाती और अपना आधार खोती हुई भाषा हो, या ऐसी अन्नपूर्णा जो दूसरों की क्षुध संतुष्ट करते-करते अपने से बेखबर एक कांतिहीन कृशकाय स्त्री बन कर रह गई, उसकी धँसी हुई आँखें डूबते हुए भविष्य का संकेत दे रही हों।


हिन्दी साहित्य लेखन में ऐसी प्रवृत्तियाँ उभरी हैं (बल्कि उन्होंने अपना स्थायी स्थान बना लिया भी हो सकता है) जिसमें स्थानिक पीड़ाओं की अभिव्यक्ति के लिए ठेठ स्थानिक भाषा या बोली का प्रयोग हो रहा है और एक भाषा के रूप में हिन्दी का उतना भर ही इस्तेमाल हो रहा है जिससे उस रचना का एक हिन्दी रचना होने का दावा बना रहे। यथार्थ-चित्रण व दृश्यों-संवादों में प्रामाणिकता की बस यही शर्त बच गई है कि एक खास अंचल की मिट्टी की महक कितनी तीखी हो कर उभरी है। ऐसा माना जा रहा है कि ग्राम्य या कस्बाई परिवेश का यथार्थ केवल उस परिवेश की भाषा में ही उद्घाटित हो सकता है। और यहाँ हिन्दी का एक सुलभ साधन के रूप में इस्तेमाल होता है, अगर नहीं हो तो आखिर वह रचना पढ़ी किस बूते पर जाएगी? यानी कि साहित्य में भी हिन्दी को एक प्राथमिक और संपूर्ण भाषा के रूप में प्रयोग न कर एक द्वैतियिक भाषा के रूप में प्रयुक्त करने का चलन चल निकला है। मानो मगही क्षेत्र या भोजपुरी क्षेत्र या मिथिलांचल के जन-जीवन का प्रामाणिक और विश्वसनीय चित्रण करने में हिन्दी अपने आप में कहीं असहाय व असमर्थ है। वह तो मानों द्वैतियिक स्तर पर ही अपना सामथ्र्य सिद्ध कर सकती है - अपनी ‘पहुँच’ की खातिर।





मुंशी प्रेमचन्द की कहानी याद आती है - ‘कफन’ जो तत्कालीन भारतीय गाँवों की महाजनी व्यवस्था की अमानवीयता का ही चित्रण नहीं करती, उसके पात्र हिन्दुस्तानी समाज के सामाजिक-संघटन, धर्म-विधान और नैतिक मूल्यों, पर भी मर्मांतक चोट करते हैं। विद्रोह का उनका अपना तरीका है और वह इतना कामयाब है कि उस चोट की तिलमिलाहट को अब भी महसूस किया जा सकता है। चाहे वह मध्य प्रदेश का खरगोन जिला हो या बिहार का भागलपुर, कुमाऊँ हो या बुंदेलखंड - ‘कफन’ की संप्रेषणीयता पर कोई विवाद नहीं है। ‘कफन’ की ट्रेजेडी और उसका द्रोह हर कहीं एक ही शिद्दत के साथ महसूस किया गया। लेकिन क्या हम यही दावा हम स्थानीय बोलियों, उनके मुहावरों और क्रिया-विशेषणों से लदी-फदी सार्थक कहानियों के बारे में भी कर सकते हैं?


‘कफन’ के बाद एक महत्वपूर्ण पड़ाव या कि प्रस्थान बिन्दु है - रेणु का ‘‘मैला आँचल’’। याद रखने की बात है कि ‘‘मैला आँचल’’ हिन्दी क्षेत्र के एक खास अंचल की कथा कहते हुए भी आँचलिक आग्रहों से मुक्त है। स्वतंत्रता आन्दोलन और गांधी जी के संदेश के बहाने इस सुदूर अंचल में हिन्दी पहुँची है। हर पात्र के मन में स्वतंत्रता के प्रति अदम्य ललक है तो हिन्दी के प्रति अत्यंत सघन आत्मीयता। रेणु के पात्र हिन्दी बोलने की जबरदस्ती कोशिश नहीं करते - वे तो जैसे हिन्दी बोलने के बहाने गाँधी जी और उनके संघर्ष का एक संदेशवाहक या ध्वजवाहक होने का गौरव प्राप्त कर रहे हैं, और जो इस क्रम में हिन्दी की मैथिली के साथ कहीं लट्-पट् तो कहीं जुगलबंदी होती है, उसमें उस अंचल का यथार्थ समय के प्रवाह से जैसे अलग छिटक कर खड़ा हो रहता है - अपने समूचे सौंदर्य और यातनाओं समेत, और पाठक को चमत्कृत कर जाता है। क्योंकि यह जुगलबंदी दरअसल परंपरापोषक अथवा परंपरा से त्रस्त किसान और एक ऐतिहासिक जनान्दोलन के बीच होती है। उपन्यास के पात्र और घटनाएँ जैसे अपनी कथा कहने की खुद एक भाषा गढ़ लेते हैं और पूर्णियाँ की जमीन पर जैसे उत्तर भारत के किसानों की नियति की लकीरें खींच देते हैं।


रेणु के परवर्ती लेखकों ने आँचलिकता को जैसे सिर्फ भाषागत स्तर पर साधा वह भी सिर्फ यातना को उकेरने की गरज से। जीवन का सहज सौंदर्य जो भारतीय किसानों की ट्रेजेडी से अक्सर गुत्थमगुत्था होता है और उनमें लड़ने और टिके रहने का ढाढ़स देता है, कहीं पीछे छूट गया। और इस पूरे क्रम में हिन्दी को जैसे एक ‘त्याज्य’ या ‘‘बहुत ही मजबूरी में उपयोग की गई’’ भाषा के रूप में प्रयुक्त किया गया।


कभी-कभी लगता है हिन्दी जैसे भाषा न हो, एक कूड़ादान हो जिसमें हर किसी को अपने सुझाव फेंकने का आजादी हो। चाहे वह हिन्दी विरोधी हो या हिन्दीसेवी - हर किसी के पास हिन्दी को कुछ न कुछ बताने और समझाने के लिए कुछ है। कोई इसे तत्सम शब्दों से परहेज करने को कहेगा, कोई कहेगा संस्कृतनिष्ठ होने से बचो, किसी को हिन्दी में सहज रूप से जड़ जमाए उर्दू शब्दों से परहेज होगा, तो कोई जबरदस्ती ढूँढ-ढूँढ कर इसमें उर्दू शब्दों को कोंचेगा (एक चलन नुक्ते का चल निकला है जो अंततः हिन्दी और उर्दू के बीच दूरी बढ़ाने वाला ही साबित होगा।), किसी को इसमें अंग्रेजी शब्दों से आपत्ति होगी, तो कोई इसे विभिन्न अंचलों की बोलियों से समृद्ध होने की राय देगा। अब एक ओर जहाँ इसे ‘हिंग्लिश’ मुँह चिढ़ाता है तो दूसरी ओर इन दिनों हिन्दी साहित्य में उत्सर्जन तंत्र और उत्सर्जन क्रियाओं तथा चुनिंदा ‘लोक’ गालियों की अभिव्यक्ति के लिए हिन्दी के शब्द-सामर्थ्य की भी परीक्षा हो रही है। कुछ प्रयत्न हिन्दी को उसकी शास्त्रीय परंपरा से अलग काटने के भी हो रहे हैं ताकि यह एक स्मृतिहीन, जड़हीन भाषा बन कर तथाकथित आधुनिक और प्रगतिवादी मूल्यों की अनुगत बनी रहे।


आखिर हिन्दी एक भाषा के रूप में अपनी सघनता और सौष्टव को किस सीमा तक छीजने दे सकती है कि वह एक संपूर्ण भाषा के रूप में जीवित रहे, सिपर्फ कामचलाऊ संप्रेषक के रूप में नहीं? जब कि अभी काम-काज के स्थलों व तकनीकी क्षेत्रों में पैठ जमाने की चुनौती इसके सामने है और सामने है नव साक्षरों के एक विशाल वर्ग की ज्ञान-पिपासा को शांत करने का गुरूतर भार। दूसरी ओर क्या हिन्दी क्षेत्र में ऐसा कोई महान क्षण आएगा जिसमें इस गोबर पट्टी की तकदीर बदलने में हिन्दी की एक प्राणवंत और पूर्ण भाषा के रूप में ऐतिहासिक जरूरत महसूस हो? हिन्दी जिनकी भी भाषा है, वे क्या ऐसा होने देंगे?


(सर्वप्रथम 1995-96 में एक सेमिनार में पढ़ा गया पेपर जो कई वर्ष बाद 2008 में जनसत्ता में प्रकाशित हुआ।)



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