शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी का आलेख 'इलाहाबाद में उर्दू-फ़ारसी अदब'
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शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी |
इलाहाबाद संगम के लिए दुनिया भर में मशहूर है। गंगा और यमुना जैसी उत्तर भारत की दो बड़ी नदियां यहीं पर एकमेक होती हैं। इस त्रिवेणी की तीसरी धारा उस अदृश्य सरस्वती की है जो ज्ञान से जुड़ी हुई है। इसी से भारतीय परिप्रेक्ष्य में गंगा जमुनी तहजीब की अवधारणा भी अस्तित्व में आई जो हिन्दुओं और मुसलमानों के मेल जोल के लिए आज भी इस्तेमाल की जाती है। एक लम्बे समय तक यह इलाहाबाद उर्दू-फ़ारसी अदब का केन्द्र स्थल बना रहा। मुगलिया जमाने के पतनशील दौर में यही वह भाषा थी जो सत्ता से जुड़ी हुई थी और लेखन के केन्द्र में भी थी। प्रख्यात आलोचक मरहूम शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी ने इस इलाहाबादी उर्दू-फ़ारसी अदब को केन्द्र में रख कर एक महत्त्वपूर्ण आलेख लिखा था। इस आलेख में उन्होंने इलाहाबाद के उर्दू फारसी अदब से जुड़े उन तमाम रचनाकारों का जिक्र किया जो अपनी लेखनी की वजह से एक समय चर्चा के केन्द्र में रहा करते थे। हालांकि आज हम इनमें से कुछेक के बारे में ही जानते हैं। इस आलेख का उम्दा हिन्दी अनुवाद किया है इतिहास के युवा अध्येता शुभानीत कौशिक ने। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी का आलेख 'इलाहाबाद में उर्दू-फ़ारसी अदब'।
'इलाहाबाद में उर्दू-फ़ारसी अदब'
शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी
हिन्दी अनुवाद : शुभनीत कौशिक
वर्ष 1778 में अमीरुद्दीन अहमद नाम का नौजवान इलाहाबाद स्थित अपने घर से सफ़र पर निकला। अज़ीमाबाद (पटना), मुर्शिदाबाद होते हुए वह आख़िरकार कलकत्ता पहुँचा। उसका मक़सद शायरों से मिलना और शायरों की ज़िंदगी से जुड़ी जानकारियाँ हासिल करना था, जिन्हें वह अपने तज़किरे (शायरों का जीवनीकोश) में शामिल करता। यह तज़किरा तैयार करने की प्रेरणा उसे उर्दू-फ़ारसी शायरी में उसकी दिलचस्पी के चलते मिली थी। इसके साथ ही वह मीर तक़ी मीर (1722-1810) द्वारा लिखे तज़किरे (1752) में जाहिर ख़यालात को भी दुरुस्त करना चाहता था। गौरतलब है कि मीर का वह तज़किरा, उर्दू के शायरों का पहला तज़किरा था और मीर ने दिल्ली के कुछ नामचीन शायरों के बारे में कुछ नागवार बातें भी कही थीं।
1756 में पैदा हुए अमीरुद्दीन अहमद (या अबुल हसन अमरुल्लाह इलाहाबादी) उस वक़्त महज़ बाईस बरस के थे, जब वे अपनी किताब के लिए जानकारियाँ जुटाने के सिलसिले में कलकत्ता पहुँचे थे। इसी सिलसिले में वे बनारस, ग़ाज़ीपर, फ़र्रुखाबाद और लखनऊ भी गए। 1780 तक चली उनकी इन यात्राओं में उनके साथ उनके बड़े भाई और शिक्षक मौलवी ख़ैरुद्दीन इलाहाबादी भी होते, जो ख़ुद अपने वक़्त के मशहूर आलिम और शायर थे। अबुल हसन ने 1779 में अपना तज़किरा लिखना शुरू किया और दो साल तक चले तमाम जोड़-घटाव के बाद 1781 में इसे पूरा किया। इसका शीर्षक था : तज़किरा-ए मसर्रत अफ़्ज़ा। यह किताब जल्द ही मशहूर हो गई, लेकिन इसकी पांडुलिपियाँ वक़्त के साथ दुर्लभ होती चली गईं और आज इस किताब की पांडुलिपि की केवल दो प्रतियों के मौजूद होने की जानकारी है। महान विद्वान क़ाज़ी अब्दुल वदूद (1896-1984) ने पहली बार इस किताब को एक रिसाले में छापा। तब से यह किताब इलाहाबाद, अज़ीमाबाद, कलकत्ता, दिल्ली और दूसरे छोटे शहरों के उर्दू-फ़ारसी के शायरों के बारे में जानकारियाँ हासिल करने और उनकी ज़िंदगी से जुड़े तमाम क़िस्सों के लिए एक अहम स्रोत बनी हुई है।
मैंने अबुल हसन की चर्चा को इतनी तवज्जो इसलिए दी ताकि यह दिखा सकूँ कि अठारहवीं सदी के इलाहाबाद के लेखक और विद्वान दिल्ली की नक़ल करने वाले नहीं थे। वे आज़ादख़याल थे और गहरी छानबीन कर लिखने वाले थे। वे ख़ुद जानकारियाँ जुटाते और अदब से जुड़े अपने फ़ैसले भी वे ख़ुद ही लेते थे। ये बातें आगे चलकर और साफ़ होंगी।
इलाहाबाद में भारतीय-इस्लामिक अदबी रिवायत की शुरुआत शाह मुहीबुल्लाह इलाहाबादी (1587-1648) से मानी जा सकती है, जिन्होंने सूफ़ी दर्शन जैसे विषय पर फ़ारसी और अरबी में काफ़ी कुछ लिखा था। वे अंदलूसिया के महान सूफ़ी संत-कवि मोहियुद्दीन इब्ने अरबी (1165-1240) के अनुयायी थे, जिन्हें ‘शेख़-ए अकबर’ कहा जाता था। शाह मुहीबुल्लाह को भी ‘शेख़-ए कबीर’ कहा जाता था और उनके खुले विचार पुरातनपंथी और दक़ियानूसी लोगों के लिए बड़े असहज कर देने वाले होते थे। दारा शुकोह (1615-1659) भी उनका प्रशंसक था और एक बार उसने सूफ़ी फ़लसफ़े से जुड़े कुछ सवालात भी शाह मुहीबुल्लाह के पास भेजे थे। जिनका शाह मुहीबुल्लाह ने बड़े विस्तार से जवाब दिया था। वे दोनों ही ख़त शाह मुहीबुल्लाह के ख़ुतूत में महफ़ूज़ हैं।
औरंगज़ेब, शायद शाह मुहीबुल्लाह द्वारा उनकी रचनाओं (तसविया) में दिए गए वहदतुल वजूद के सिद्धांत को ले कर सशंकित था। साथ ही वह दारा शुकोह और शेख़ मुहीबुल्लाह की नज़दीकियों को ले कर भी नाखुश था। यही वजह थी कि एक बार उसने अपने दरबारी सैयद मुहम्मद कन्नौजी को बुलावा भेजा, जो शाह मुहीबुल्लाह के शागिर्द भी थे। क़िस्सा ये है कि औरंगज़ेब ने कन्नौजी को शरीयत के उसूलों के मुताबिक़ शेख़ मुहीबुल्लाह के ख़यालों की व्याख्या करने को कहा। यह भी कहा जाता है कि औरंगज़ेब ने कन्नौजी से कहा कि अगर वह ऐसी व्याख्या करने में नाकामयाब रहता है तो उसे शेख़ की किताबों को सबके सामने जलाना होगा।
कहते हैं कि सैयद मुहम्मद कन्नौजी ने तब अपने जवाब में कहा था कि शेख़ मुहीबुल्लाह ने ये ख़याल एक रूहानी हैसियत हासिल करने के बाद लिखे हैं, जो ख़ुद उनकी हैसियत से बहुत ऊपर है। जब वे उस मुक़ाम तक पहुँच जाएँगे तभी वे शेख़ साहब की बातों की सही व्याख्या कर सकेंगे। जहाँ तक किताबों में आग लगाने का सवाल था तो कन्नौजी ने कहा कि बादशाह की रसोई में आग की कोई कमी नहीं है और उसके लिए एक ग़रीब आदमी की आग का इस्तेमाल करने की कोई ज़रूरत नहीं है। इसके बाद औरंगज़ेब ने इस मामले को वहीं रफ़ा-दफ़ा कर दिया। हालाँकि कुछ उलेमा ने शाह मुहीबुल्लाह को उनके विचारों के चलते मुस्लिम कहने से इंकार करने की घोषणा ज़रूर की थी।
इलाहाबाद में सूफ़ी दर्शन, फ़ारसी और आगे चलकर उर्दू अदब के एक और मरकज़ की स्थापना शेख़ मुहम्मद अफ़ज़ल (1628-1712/14) ने की थी। फ़ारसी और अरबी में लिखने के अलावा शाह मुहम्मद अफ़ज़ल ख़ुद फ़ारसी के एक अच्छे शायर थे (ग़ौरतलब है कि ‘शेख़’ और ‘शाह’ दोनों एक-दूसरे के पर्याय हैं तथा इलाहाबाद और पूर्वी उत्तर प्रदेश के इलाक़ों में व्याप्त सूफ़ी संस्कृति में ‘शाह’ को अधिक तवज्जो दी गई है)। जहाँ शाह मुहीबुल्लाह इलाहाबादी और उनके मुरीदों का समाज के एक तबक़े द्वारा विरोध किया जाता था। वहीं शाह मुहम्मद अफ़ज़ल को सभी तबकों में स्वीकार्यता मिली हुई थी। यहाँ तक कि औरंगज़ेब की भी, जिसने इलाहाबाद के सूबेदार से कह कर 1677 में शेख़ और उनके मुरीदों के लिए एक ख़ूबसूरत मस्जिद का निर्माण कराया था। बाद में औरंगज़ेब के ही कहने पर इलाहाबाद के सूबेदार ने 1681 में शेख़ मुहम्मद अफ़ज़ल की ख़ानक़ाह भी बनवाई थीं। ये दोनों ही इमारतें आज भी वजूद में हैं।
शाह ख़ूबुल्लाह (1660-1731) के नाम से चर्चित शाह मुहम्मद यहया, शेख़ मुहम्मद अफ़ज़ल के भतीजे थे और अपने चाचा के बाद वे ख़ानक़ाह के उत्तराधिकारी बने (इलाहाबाद में आज भी उनके नाम पर याह्यागंज नामक इलाक़ा है)। वे फ़ारसी के अच्छे कवि थे। मगर प्रसिद्धि के मामले में उनके दूसरे बेटे शाह मुहम्मद फ़ख़ीर ज़ाइर (1708-1750) उनसे कहीं आगे निकल गए। ज़ाइर की शायरी को अधिक मक़बूलियत मिली क्योंकि उनकी शैली ईरान के महान शायरों सादी (1184-1291) और हाफ़िज़ (1325?-1398) से मिलती थी। उनकी रुबाईयाँ भी मशहूर हुईं। शाह ख़ूबुल्लाह के सबसे बड़े बेटे शाह मुहम्मद ताहिर (1698-1721) मूलतः एक आलिम थे, जो शायरी भी किया करते थे। शाह ख़ूबुल्लाह के एक और बेटे शाह मुहम्मद नासिर अफ़ज़ली (1710-1750) फ़ारसी के शायर थे और उन्हें ‘दूसरा नासिर अली’ भी कहा जाता था। ग़ौरतलब है कि नासिर अली सरहिंदी (मृत्यु 1696) को फ़ारसी के एक ऐसे शायर के रूप में देखा जाता है, जो ‘हिंदुस्तानी तर्ज़’ की फ़ारसी शायरी को नई ऊँचाइयों पर ले गए।
जब अफ़ग़ानों ने ईरान पर क़ब्ज़ा जमा लिया, तब 1733 में एक ईरानी शायर शेख़ अली हज़ीं (1691-1766) ने हिंदुस्तान में शरण ली। मुग़ल बादशाह मुहम्मद शाह के दरबारी, प्रशासक, संगीत के विद्वान और शायरों के सरपरस्त उमदतुल मुल्क अमीर ख़ान अंजाम (मृत्यु 1747) ने अली हज़ीं को प्रश्रय दिया। उनकी वजह से ही अली हज़ीं को बादशाह से आर्थिक मदद भी मिली। बदक़िस्मती से अली हज़ीं में कृतज्ञता के भाव की कमी थी। हिंदुस्तान और हिंदुस्तानियों के प्रति उनमें कड़वाहट का भाव था और ख़ासकर फ़ारसी के हिंदुस्तानी शायरों के प्रति उनके भीतर हिक़ारत थी। इलाहाबाद का सूबेदार रहते हुए उमदतुल मुल्क ने वहाँ कला और साहित्य को बढ़ावा दिया। वहाँ उनकी दोस्ती अव्वल दर्जे के आलिम और शायर मुहम्मद अफ़ज़ल साबित (मृत्यु 1737) से हुई।
साबित और उनके शायर बेटे मुहम्मद अज़ीम सबात (1700-1748) उमदतुल मुल्क के साथ ही दिल्ली आ गए और दिल्ली के शायरों में उनका शुमार होने लगा। एक बार शेख़ अली हज़ीं ने साबित की शायरी पर बड़ी कड़ी टिप्पणी की थी और यह आरोप लगाया था कि साबित ने पुराने ईरानी शायरों की रचनाओं से अपनी शायरी के लिए मौजू चुराए हैं। जब यह बात साबित तक पहुंची तो उसने कहा कि ख़ुद शेख़ अली ने यह काम किया है और चार दिनों के भीतर ही साबित ने एक पुस्तिका लिख डाली, जिसमें उसने शेख़ अली के पाँच सौ शेरों को उद्धृत किया था और इतनी ही संख्या में ईरान के पुराने शायरों की रचनाओं को और यह कहा कि शेख़ अली ने अपने यह पाँच सौ शेर ईरान के पुराने शायरों के इन पाँच सौ शेरों की नक़ल करते हुए लिखे हैं। ईरान के एक तत्कालीन विद्वान के अनुसार इस तरह साबित ने शेख़ अली के पाँच सौ शेरों को कुछ ही दिनों में मिट्टी में मिला दिया था।
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शाह आलम द्वितीय |
अठारहवीं सदी हिंदुस्तान में कला और संस्कृति के क्षेत्र में महान उपलब्धियों की सदी थी। इसी सदी में हिंदुस्तान के फ़ारसी शायरों और विद्वानों की रचनात्मक अपने उत्कर्ष पर पहुंची। शेख़ अली हज़ीं से जुड़ी इस घटना ने फ़ारसी भाषा में हिंदुस्तानियों के दख़ल को ले कर एक लंबी बहस का सिलसिला शुरू किया और इस बहस में पहली महत्त्वपूर्ण प्रतिक्रिया देने का श्रेय एक इलाहाबादी यानी साबित को जाता है। इलाहाबाद की अदबी हलचलों में मुग़ल बादशाह शाह आलम द्वितीय के रूप में एक महत्त्वपूर्ण नाम जुड़ा, जो इलाहाबाद में 1765 से लेकर जनवरी 1771 तक रहे थे। शाह आलम संस्कृत और अरबी समेत कई भाषाएं जानते थे। उन्होंने हिंदी, फ़ारसी और ब्रजभाषा में शायरी और नस्र लिखा। यही नहीं एक समकालीन विद्वान के अनुसार उन्होंने संस्कृत में भी कविताएं लिखी थीं। रोजमर्रा की बातचीत के लिए फ़ारसी की बजाय उन्होंने हिंदी को (तब उर्दू को हिंदी ही कहा जाता था) तरजीह दी।
अठारहवीं सदी में एक बड़ा सांस्कृतिक बदलाव दिल्ली के शायरों द्वारा फ़ारसी की जगह या उसके साथ रेख़्ता/हिंदी की शायरी को अपनाना और इस प्रक्रिया में अग्रणी भूमिका निभाना था। इनमें से अधिकांश शायरों का जन्म 1685 से ले कर 1725 के बीच हुआ था और उनका प्रभाव हिंदुस्तान में दूर-दूर तक फैला। इलाहाबाद भी इस नई साहित्यिक धारा से अछूता नहीं रहा। इलाहाबाद में उर्दू शायरी की सही मायने में शुरुआत शेख़ ग़ुलाम क़ुतुबुद्दीन मुसीब (1726-1773) के साथ हुई। वह शाह मुहम्मद फख़ीर ज़ाइर के बेटे थे और उनका विवाह अबुल हसन की बहन से हुआ था। आमतौर पर उन्हें उनके पिता से भी अधिक विद्वान माना जाता है क्योंकि सूफ़ी संत और विद्वान होने के साथ ही उन्होंने अरबी, फ़ारसी और रेख़्ता/हिंदी में शायरी लिखी थी और उनका अधिकांश समय घूमते हुए ही बीता था। उनकी मौत भी मक्का की यात्रा में हुई थी।
शाह मुहम्मद अजमल (1747-1820) फ़ारसी और अरबी के शायर और लेखक थे, जिन्होंने कुछ मौकों पर उर्दू शायरी भी लिखी थी। उन्हें क़ुरान का फ़ारसी तर्जुमा करने का भी श्रेय जाता है। उनका यह तर्जुमा हिंदुस्तान में क़ुरान का तीसरा फ़ारसी तर्जुमा था। उनके शागिर्द और अनुयायी ज़रूर उनके इस तर्जुमे से लाभ उठाते रहे होंगे, मगर बदक़िस्मती से यह प्रकाशित नहीं हो सका। शाह मुहम्मद अजमल और शाह अफ़ज़ल के पुत्र शाह ग़ुलाम आज़म अफ़ज़ल (1810-1858) इमाम बख़्श नासिख़ के दोस्त थे, जो उर्दू शायरी के महान लखनवी उस्ताद थे और जिन्होंने ग़ज़ल की एक नई शैली की शुरुआत की थी। नासिख़ अक्सर शाह मुहम्मद अजमल के ख़ानक़ाह, जिसे बाद में ‘दायरा-ए शाह अजमल’ के नाम से जाना गया, मेहमान हुआ करते थी। यहीं पर नासिख़ ने अपना मशहूर शेर लिखा था :
तीन त्रिबेनी है दो आँखें मेरी
अब इलाहाबाद भी पंजाब है
नासिख़ ने शाह ग़ुलाम आज़म अफ़ज़ल को अपना शागिर्द माना था। शाह ग़ुलाम आज़म अफ़ज़ल के एक शागिर्द महान सूफ़ी शायर अब्दुल अलीम आसी सिकंदरपुरी (1834-1917) थे। जो नासिख़ की शैली में (तंजो मिज़ाह से भरपूर) सूफ़ी शायरी करते थे, हालाँकि यह शैली आमतौर पर सूफ़ी विषयों के लिए अनुपयुक्त मानी जाती थी।
इलाहाबाद में उर्दू फ़ारसी अदबी रिवायत की अब तक की यह कहानी लगभग एक परिवार की दास्तां है - शाह मुहम्मद अफ़ज़ल का परिवार। इस सूरत में बदलाव हुआ उन्नीसवीं सदी में। हालाँकि अबुल हसन द्वारा लिखी गई किताब में हमें इलाहाबाद में सक्रिय दूसरे शायरों के बारे में भी जानकारी मिलती है। उनमें से एक थे सर्ब सुख दीवाना (1727?-1788/89), जो अपने वक़्त में हिंदुस्तान की इस्लामी तहज़ीब की एक नज़ीर हुआ करते थे। अबुल हसन उनके बारे में बहुत-सी दुर्लभ जानकारियां देते है। मसलन शुज़ाउद्दौला ने सर्ब सुख दीवाना को इलाहाबाद का मीर-ए बहरी नियुक्त किया था और यह भी कि दीवाना स्थानीय लोगों से बहुत ज़्यादा मेलजोल नहीं रखते थे। अबुल हसन इलाहाबाद के कुछ अन्य हिंदू मुस्लिम शायरों का नाम भी लेते हैं। उनमें से उल्लेखनीय है शाह ग़ुलाम यहया इंसाफ़ (मृत्यु 1780) जिन्होंने उर्दू में तंजो मिज़ाह की शायरी लिखी थी और उर्दू में केवल तंजो मिज़ाह की शायरी लिखने वाले संभवतः वे पहले शायर थे। शाह मुहम्मद आलिम बेताब (मृत्यु 1791) शाह मुहम्मद यहया के नवासे थे। उन्होंने फ़ारसी और उर्दू दोनों में लिखा। उनके शागिर्दों में कांजी सहाय मतीन थे, जिन्हें उन्नीसवीं सदी के शुरुआती वर्षों में बतौर फ़ारसी शायर अच्छी प्रतिष्ठा हासिल हुई।
मिर्जा कल्बे हुसैन ख़ान नादिर ईस्ट इंडिया कंपनी में काम करने वाले एक मध्यम दर्जे के अधिकारी थे, जिन्होंने 1831 में तज़किरा-ए शौकत-ए नादिरी की रचना की थी। जिसमें उन्होंने इलाहाबाद के शायरों का विवरण दिया है। वह लिखते हैं कि उस वक़्त इलाहाबाद में कम से कम सौ शायर मौजूद थे। ख़ुद अपने तज़किरे में वे इनमें से 70 शायरों का जिक्र करते हैं, जिनमें से दर्जन भर हिंदू थे। नादिर यह भी लिखते हैं कि इलाहाबाद में उस वक़्त शाह मुहम्मद अलीम के समय जैसी तहज़ीबी जिंदगी नहीं रह गई थी। इसके बावजूद वे बताते हैं कि इलाहाबाद में नियमित रूप से मुशायरा हुआ करते थे, जिसमें स्थानीय शायरों के अलावा, बयालीस गैर-स्थानीय शायर जो इलाहाबाद में रहा करते थे, हिस्सा लिया करते थे।
यह दिलचस्प है कि नादिर की उस छोटी-सी किताब का दीबाचा उस किताब की आकार के हिसाब से बहुत लंबा है। हालाँकि आज वह हमारे लिए बहुत ही मूल्यवान है क्योंकि उसमें इलाहाबाद की तत्कालीन अदबी, समाजी और तहज़ीबी जिंदगी की जानकारियाँ मिलती है। मसलन नादिर लिखते हैं कि किसी मजलिस में शायरी सुनाते समय अलफ़ाज़ का साफ़-साफ़ तलफ़्फ़ुज़ करना चाहिए; आपकी आवाज़ वहाँ मौजूद लोगों को साफ़ सुनाई देनी चाहिए और आपको तरन्नुम में अपनी शायरी नहीं सुनानी चाहिए; नादिर उन शायरों की मज़म्मत करते हैं जो शायरी सुनाते वक़्त अजीबोग़रीब मुद्राएँ बनाते हैं या एक खास आवाज़ में शायरी कहते थे। इससे हम यह अंदाजा लगा सकते हैं कि नादिर की ये टिप्पणी सिर्फ़ इलाहाबाद के शायरों के लिए नहीं रही होगी बल्कि उस वक़्त के तमाम दूसरे शायरों के लिए भी रही होगी। अठारहवीं सदी के आखिर में इलाहाबाद की अदबी दुनिया में शाह मुहम्मद अफ़ज़ल का परिवार अपनी केंद्रीय भूमिका से हटने लगा था। उस वक़्त के दो प्रमुख लेखक थे - ग़ुलाम इमाम शाहिद (मृत्यु 1879) और ग़ुलाम गौस बेख़बर (1824-1905)। उन दोनों का ही शहर में अच्छा खासा रुतबा था और दोनों ही फ़ारसी में शायरी और नस्र लिखा करते थे। बेख़बर को ग़ालिब के साथ उनके दोस्ताना रिश्तों के लिए भी जाना जाता है।
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अकबर इलाहाबादी |
दो सदियां बीतने के बाद शाह मुहीबुल्लाह इलाहाबादी का परिवार इलाहाबाद की अदबी दुनिया में एक बार फिर से प्रवेश करता है, अकबर इलाहाबादी (1846-1921) की शख्सियत के रूप में, जिनकी एक बहन का निकाह सैयद साहब अली के साथ हुआ था, जो शेख़ मुहीबुल्लाह इलाहाबादी के वंशज थे। अकबर इलाहाबादी यकीनन इलाहाबाद के महानतम उर्दू शायर थे। साथ ही वह समाजी और सियासी मसलों पर तंजिया शायरी करने वाले उर्दू के महानतम शायर भी थे। वे उन पहले हिंदुस्तानियों में से थे, जिन्होंने यह बात समझ ली थी कि औपनिवेशिक शासन प्रणाली में संस्कृति, राजनीति और बड़ा व्यापार एक साथ घटित होने वाली प्रक्रियाएं हैं और यह भी कि आधुनिकीकरण दरअसल औपनिवेशिक सत्ता को स्थापित करने और उसके प्रसार का शक्तिशाली हथियार है। अकबर एक राष्ट्रवादी शायर थे और अपने एक मशहूर शेर में उन्होंने लिखा :
मदख़ूला-ए गवर्नमेंट अकबर अगर न होता
उसको भी आप पाते गांधी की गोपियों में
गांधी पर लिखी अपनी कुछ छोटी कविताओं को उन्होंने ‘गांधीनामा’ किताब में संकलित किया, जिसमें उन्होंने यह मशहूर शेर लिखा :
इंक़लाब आया नई दुनिया नया हंगामा है
शाहनामा हो चुका अब दौर-ए गांधीनामा है
बाद के आलोचकों ने औपनिवेशिक सत्ता द्वारा चलाई जा रही आधुनिकीकरण की प्रक्रिया के प्रति उनके अविश्वास और घृणा के भाव को उनके पिछड़ेपन और रूढ़िवादी होने के सबूत के रूप में देखा। लेकिन आज इक्कीसवीं सदी में वैश्वीकरण और पश्चिम के आर्थिक प्रभुत्व के हमारे तजुर्बे यह साबित करते हैं कि अकबर पहले उत्तर आधुनिक शायर थे।
सर सैयद अहमद ख़ान (1817-1898) भी उन्नीसवीं सदी के आठवें दशक में विधान परिषद की मेंबरी वाले दौर में इलाहाबाद में कुछ बरस रहे थे। वह इमारत जो अब आनंद भवन के नाम से मशहूर है एक समय सैयद अहमद ख़ान की रिहाइश हुआ करती थी। आगे भी वे इलाहाबाद में कुछ-कुछ अरसे के लिए रहते रहे। सैयद अहमद ख़ान के नजदीकी दोस्त मौलवी नज़ीर अहमद (1830-1912), जो उपन्यासकार, धर्मदर्शन के विद्वान, समाज-सुधारक और विधिवेत्ता थे, वे भी इलाहाबाद में उन्नीसवीं सदी के आठवें दशक में रहे थे। साल 1885 में म्योर सेंट्रल कॉलेज की स्थापना हुई, जो आगे चल कर इलाहाबाद यूनिवर्सिटी बना। म्योर सेंट्रल कॉलेज दिल्ली और दूसरी जगहों से उर्दू के कुछ अहम लेखकों के इलाहाबाद आने का सबब बना। उनमें इतिहासकार, निबंधकार और गणितज्ञ मौलवी ज़काउल्लाह (1832-1910) भी शामिल थे। आगे चल कर मेहदी हसन नासिरी (1885-1931), महान इतिहासकार ताराचंद (1888-1973) का नाम भी इस फ़ेहरिस्त में जुड़ा। इन सभी ने कभी न कभी म्योर सेंट्रल कॉलेज में उर्दू पढ़ाई थी।
अकबर इलाहाबादी और उनके शिक्षक वहीद इलाहाबादी (1829-1892) को इसलिए भी याद किया जाना चाहिए क्योंकि वे इलाहाबाद के ऐसे आखिरी ग़ज़ल-गो थे, जिन्होंने पुरानी तर्ज़ में ग़ज़लें कही थीं। अकबर इलाहाबाद के मृत्यु के समय तक उर्दू अदब पर अंग्रेजी का प्रभाव इस कदर बढ़ चुका था कि पुरानी ढंग की ग़ज़लों की प्रतिष्ठा अब धूमिल पड़ गई थी। जल्द ही समाजी और क्रांतिकारी अदब से जुड़े नए ख़याल ने उर्दू अदब में अपनी जगह बना ली। उर्दू के महानतम अफ़सानानिगार प्रेमचंद (1880-1936) ने इलाहाबाद में पढ़ाई तो की ही थी। कुछ वर्षों के लिए उन्होंने यहां काम भी किया था। उनका कहना था कि वह तब तक कोई कहानी नहीं लिखते, जब तक कि जिस घटना का वर्णन वे कर रहे होते हैं, उसमें कोई समाजी या मनोवैज्ञानिक सच्चाई नहीं होती थी।
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सैयद सज्जाद ज़हीर |
अंजुमन तरक़्क़ीपसंद के शुरुआती दिनों में उसमें उर्दू लेखकों का बोलबाला था और प्रेमचंद ने लखनऊ में आयोजित हुए अंजुमन के पहले जलसे की सदारत की थी। अंजुमन तरक़्क़ीपसंद से जुड़े कुछ और महत्त्वपूर्ण लेखक जो तीस और चालीस के दशक में इलाहाबाद में रहे थे उनमें सैयद सज्जाद ज़हीर (1905-1973), अहमद अली (1910-1984) का नाम उल्लेखनीय है। रघुपति सहाय फ़िराक़ (1896-1982) अपनी पैदाइश से तो गोरखपुर के थे, मगर अपनी लगभग सारी जिंदगी उन्होंने इलाहाबाद में बिताई थी। बतौर शायर, आलोचक, अफ़सानानिगार, अनुवादक फ़िराक़ गोरखपुरी का शुमार उर्दू के महानतम लेखकों में किया जाता है। यह माना जाता है कि उन्होंने उर्दू ग़ज़ल में क्रांतिकारी बदलाव किए, रुबाई में नए आयाम जोड़े और उर्दू में शायद सबसे बेहतरीन सृजनात्मक आलोचना की।
प्रेमचंद को ठीक ही हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं का महानतम अफ़सानानिगार माना जाता है। इसी तरह उपेंद्रनाथ अश्क (1910-1996) भी उर्दू के अहम लेखक हैं, जो देश के बंटवारे के बाद इलाहाबाद आए थे। उन्होंने अपनी प्रतिभा का इस्तेमाल हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं में किया। फ़िराक़ की तरह अश्क भी अनौपचारिक रूप से तरक़्क़ीपसंद थे। पचास का दशक आते-आते इलाहाबाद तरक़्क़ीपसंदों का एक अहम मरकज बन गया था। तरक़्क़ीपसंद आलोचक प्रोफेसर सैयद एजाज़ हुसैन ने 1947 में ‘नए अदबी रुझानात’ किताब लिखी, जो संभवतः 1936 के बाद के उर्दू अदब का पहला बड़ा अध्ययन है। एजाज़ हुसैन ने तमाम दूसरे लेखकों को भी प्रभावित किया जो कभी न कभी उनके शागिर्द रहे थे। उनमें सबसे बड़ा नाम सैयद एहतेशाम हुसैन (1912-1972) का है, जो तरक़्क़ीपसंदों के प्रमुख सिद्धांतकार के रूप में उभरे। इस फ़ेहरिस्त में आलोचक और विद्वान सैयद वक़ार अज़ीम (1910-1976), आलोचक मुज्तबा हुसैन (1922-1989) और विद्वान आलोचक व भाषावैज्ञानिक ज्ञानचंद जैन (1930-2007) का नाम भी शामिल है।
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सैयद एहतेशाम हुसैन |
पचास के दशक की शुरुआत में इलाहाबाद में उर्दू की अदबी रवायत को 1928 में स्थापित हिंदुस्तानी एकेडेमी और उसकी उर्दू पत्रिका ‘हिंदुस्तानी’ ने और समृद्ध किया। असग़र गोंडवी (1880-1936), जो कि अपने वक़्त के उर्दू के अहम शायर थे, इसके संपादक थे। एकेडेमी के संस्थापकों में प्रेमचंद, मशहूर भाषा वैज्ञानिक और विद्वान अब्दुस्सत्तार सिद्दीक़ी (1885- 1972) और उर्दू के क़द्रदाँ मशहूर विधिवेत्ता सर तेज बहादुर सप्रू (1875-1949) शामिल थे। हृदयनाथ कुंजरू (1887-1978) भी, जो आगे चलकर अंजुमन तरक़्क़ी-ए उर्दू (हिंद) के सद्र बने, उस मंडल में शामिल थे जो तेज बहादुर सप्रू और उर्दू के चाहने वालों से मिल कर बना था। बीसवीं सदी के मध्य में कुछ और हिंदू विद्वान थे जो उर्दू के क़द्रदाँ थे जिनमें अंग्रेजी के मशहूर प्रोफेसर अमर नाथ झा, सर सुंदर लाल, ज्ञानेंद्र कुमार, एन. पी. अस्थाना और वकील एस. एन. मुल्ला का नाम शामिल है।
इलाहाबाद में उर्दू पत्रकारिता की शुरुआत सदा सुखलाल द्वारा निकाले गए अख़बार ‘नुरूल आबसार’ से मानी जाती है, जो 1852 में निकला था। साल 1900 तक आते-आते इलाहाबाद में कम से कम सात उर्दू के अख़बार छपने लगे थे। बीसवीं सदी के शुरुआती वर्षों में इलाहाबाद से निकलने वाले उर्दू के कुछ अदबी रिसालों ने नए तर्ज़ के लेखन को प्रोत्साहित किया। एक ऐसा ही रिसाला था ‘अदीब’। 1910 से 1913 के बीच महज़ तीन साल तक छपी इस प्रभावशाली पत्रिका के संपादक नौबत राय नज़र (1866-1930), प्यारे लाल शाकिर और हसीर अजीमाबादी (1882-1922) रहे थे। चालीस के दशक में सैयद एजाज़ हुसैन ने ‘कारवाँ’ नामक पत्रिका संपादित की। पचास के दशक में निकलने वाली मासिक पत्रिका ‘फ़साना’, जिसमें केवल लघु कथाएं छपा करती थीं, ने बड़ी मक़बूलियत हासिल की। इसके लेखकों में फ़िराक़ गोरखपुरी और अर्थशास्त्री राम प्रताप बहादुर शामिल थे। पचास के दशक के आखिर में और साठ के दशक के शुरू में महमूद अहमद हुनर ने एक अदबी रिसाला ‘शाहकार’ नाम से निकाला, जिसमें भारतीय महाद्वीप के आधुनिक उर्दू साहित्य की कुछ बेहतरीन कृतियाँ छपीं। इन पंक्तियों के लेखक ने भी ‘शबखून’ नामक पत्रिका निकाली, जो अपने अजीब-से नाम के बावजूद आधुनिकतावादी लेखन और साहित्यिक सिद्धांतों को स्पेस देने का काम पिछले लगभग चालीस वर्षों से करती रही है।
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शुभनीत कौशिक |
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शानदार अनुवाद की बधाई शुभनीत जी।फारुकी साहब को इस आलेख के लिए हमेशा याद रखा जाएगा।पहली बार को आभार!
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