उमा शंकर चौधरी की कविताएं

 



हर कविता अपने आप में राजनीतिक कविता होती है। राजनीति, जिससे हो कर हर राहें, हर गलियाँ, हर विचार गुजरते हैं। जिसके होने का मतलब यह होता है कि वह समाज या वह देश कैसा है, या कि क्या सोचता है। निरंकुशता के खिलाफ सशक्त प्रतिवाद होती है कविता। चर्चित कवि उमा शंकर चौधरी राजनीति को कविता में बरतने वाले कवि हैं। आज उनका जन्मदिन है। पहली बार की तरफ से उन्हें जन्मदिन की बधाई देते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं उनकी कुछ नई कविताएँ।


उमा शंकर चौधरी की कविताएं


निशान


अब वहां पर इसके सिवाय कुछ नहीं था
कि वहां पर कुछ निशान थे
उन निशानों में अब उग आए थे कुछ चेहरे
और कुछ परछाइयां
उन निशानों को मिटाना चाहा
तो वहां रह गए खून के धब्बे
बची रह गईं कुछ स्मृतियां


आप-हम उन निशानों की ओर देख रहे हैं
और ऊपर सूने आकाश की ओर देख रहे हैं


यह निशान इस लोकतंत्र का सबसे कठोर सच है।



और इस तरह यह समय



हम रह रहे हैं एक खतरनाक समय मेें
इस एक वाक्य को मैं लिखता हूं जितनी बार
यह वाक्य होता जाता है उतनी बार और भी खतरनाक
और मैं हो जाता हूं उतनी ही बार
और भी सशंकित
और इस समय के पैबंद को दुरुस्त करने
बिलों से निकलने लगते हैं ढेर सारे बुलबुले  


प्रधानमंत्री अपने प्रशंसकों के बीच
बजाते हैं बांसुरी
लेकिन इस खतरनाक समय में नहीं निकलती है
उससे कोई मधुर आवाज
प्रधानमंत्री इस खतरनाक समय पर करने लगते हैं चिंता
और यह समय होता जाता है और भी खतरनाक


मैं जितनी बार लिखता हूं यह वाक्य
उतनी बार भीड़ में कर लिया जाता हूं चिन्हित
उतनी बार मेरी तरफ बढने लगते हैं हाथ
उतनी बार पेड़ से झड़ जाते हैं ढेर सारे पत्ते


मैं लिखता हूं समय को खतरनाक
और लोगों की भीड़ पीटने लगती है मेरा दरवाजा
मां की गोद में दुबक जाती है तीन साल की मेरी बेटी
भाप बन कर उड़ने लगती है कच्चे पत्तों पर
सुबह सुबह गिरी हुईं ओस की बूंदें
मेरे सामने खड़ा हो जाता है
सरकार का एक नुमांइदा, एक वरिष्ठ मंत्री और एक दिन
खुद इस देश का प्रधानमंत्री


मुझसे पूछा जाता है मेरा नाम
मेरा रंग, मेरी पहचान
मेरी भाषा, मेरी आत्मा और मेरा उसूल
और इस तरह यह समय
मेरे लिखने न लिखने से परे और भी हो जाता है खतरनाक।


भीड़

उसने कहा हवा
और पत्तों में जुंबिश आ गई
उसने कहा आग
आग की दहक बढ गई
उसने कहा पानी
और बढ गई नदियों में कल-कल की आवाज


वह उठा और चलना शुरू कर दिया
हवा, पानी, आकाश, आग, पेड़, पौधे, चिड़िया
सब चल दिए उसके पीछे


वह पीछे मुड़ा, देखा इस भीड़ को
और कहा - लोकतंत्र






कुछ भी वैसा नहीं



अब जब तक तुम लौट कर आओगे
कुछ भी वैसा नहीं रहेगा
न यह सुनहरी सुबह और न ही यह गोधूलि शाम
न यह फूलों का चटक रंग
न चिड़ियों की यह कतार
और न ही यह पत्तों की सरसराहट


अब जब तक तुम लौट कर आाओगे
रात का अंधेरा और काला हो चुका रहेगा
बारिश की बूंदें और छोटी हो चुकी होंगी
हमारे फेफेड़े में जगह लगभग खत्म हो चुकी रहेगी


जब तुम गये थे तब हमने सोचा था
कि अगली सर्दी खत्म हो चुका होगा हमारा बुरा वक्त
राहत में होंगी हरदम तेज चलने वाली हमारी सांसें
लेकिन अगली क्या उसकी अगली और उसकी अगली सर्दी भी चली गयी
और ठीक सेमल के पेड़ की तरह बढ़ता ही चला गया हमारा दुख

अबकि जब तुम आओगे तो
तुम्हें और उदास दिखेंगे यहां हवा, फूल, मिट्टी, सूरज
और सबसे अधिक बच्चे
अबकि जब तुम आओगे तो चांद पर और गहरा दिखेगा धब्बा

मैं जानता हूं कि तुम आओगे देखोगे इन उदास मौसमों को
और तुम जान लोगे हमारे उदास होने का ठीक ठीक कारण।



शब्दों के 
अर्थ


इस बीच जब बदलने की की जा रही है कोशिश
हमारा मिजाज, हमारा इतिहास
हमारी सोच
और सबसे अधिक ये फिजाएं
तब अब बदले जाने लगे हैं शब्दों के अर्थ भी

बचपन में पिता ने जिन शब्दों के बतलाये थे जो अर्थ
अब इस समय में उन शब्दों के
ठीक-ठीक नहीं रह गए हैं वही अर्थ

जैसे मिट्टी को मिट्टी कहना
हवा को ठीक ठीक कहना हवा
खुशबू को खुशबू कहना
किसी भी रंग को अब ठीक वही रंग कहना आसान नहीं है

अब गड़बड़ा गए हैं बचपन में सीखे शब्दों के
ठीक-ठीक हिज्जे
शब्दों के ठीक-ठीक प्रयोग
अब जब भी लिखना चाहता हूं प्रेम
प्रेम बदल लेता है अपना स्वरूप

अब कुछ शब्द महज शब्द नहीं आपकी पहचान है
अब जब भी मैं निकलता हूं अपने देश को प्रेम करने
प्रेम बदल लेता है अपना स्वरूप
मेरे सामने खड़े हो जाते हैं ढेर सारे सवाल
कि कितना करते हैं प्यार आप फूलों से, भंवरे से
या चिड़ियों की चहचहाहट से
कितना करते हैं प्यार बारिश की बूंदों से 
उठने वाली मिट्टी की खुशबू से
कितना करते हैं प्यार अपनी पहचान से, इस हरियाली से
कुछ आवाजों से, अपने आंसू से, अपनी वजूद से
या फिर अपनी अंतरात्मा से


मैं या कि आप कोरे कागज पर लिखते हैं कुछ शब्द-
भूख
आजादी
और अस्मिता
और जितनी देर में झुकते हैं इन शब्दों को दुरुस्त करने के लिए
देखते हैं महज उतनी ही देर में बदल गए हैं उसके मायने
महज उतनी ही देर में बदल गई है हवा की तासीर


आपने इधर उस कोरे कागज पर लिखा नहीं
आजादी कि उतनी ही देर में
आपके दरवाजे पर खड़ी हो जायेगी पुलिस


मेरे मन में हैं ढेर सारे शब्द
जिन्हें मैं लिख डालना चाहता हूं यहां-वहां
हवा, पानी, आकाश
और यहां तक कि बच्चों की किलकारियों पर भी
पर हर बार उन शब्दों के बदल दिये जाते हैं अर्थ
और इन बदले हुए अर्थों के साथ
हर बार खड़ा हो जाता है एक विशाल हुजूम
और हर बार मैं बना दिया जाता हूं उतना ही सशंकित और संदेही।


एक दिन मैं भी

एक दिन मैं भी घर से निकलूंगा
और लौटकर नहीं आऊंगा
पत्नी राह देखती रहेगी
बच्चे नींद भरी आंखों के बावजूद
पिता से किस्से सुनने का इंतजार करेंगे


मैं दूर तक जाऊंगा
इधर-उधर देखूंगा
सीधा भी चलूंगा
पानी पीऊंगा
फिर कहां मार दिया जाऊंगा पता नहीं


मेरे आंगन में रोज उतरने वाली कच्ची धूप
मेरा इंतजार करेगी
उन तितलियों को भी मेरा इंतजार रहेगा
जिन्हें पंख फैलाकर उड़ते देख मैं मुस्कराया करता था
मेरी बाड़ी में बैंगन के पौधों में जो फूल हैं
उनका सौन्दर्य अब बिखर जायेगा
मेरे नींबू के पेड़ पर जो गौरैया रोज बैठती है
जिससे रोज मैं बतियाता हूं
अब वह नहीं आयेगी


मैं जाऊंगा और लौट कर नहीं आऊंगा
अपने बच्चों से जो मैंने गरम मौजे लाने का वायदा किया था
बच्चे उन मौजों का इंतजार करेंगे


मेरी पत्नी, मेरे बच्चे और बुजुर्ग पिता
और मुझे प्यार करने वाले चंद लोग
टटोलेंगे मेरी मौत के कारण
ढूंढेंगे उस हत्यारे को
वे आवाज उठाने की करेंगे कोशिश और थक जायेंगे


वे जायेंगे कीड़े-पतंगे, मिट्टी और झड़ चुके पत्तों के पास
फिर अंत में जायेंगे उन शब्दों के पास
जो लिखे थे मैंने अंधेरे के खिलाफ


मैं जाऊंगा और लौट कर नहीं आऊंगा
एक दिन मेरी पत्नी समझा देगी बच्चों को
पिता के मौत का सही कारण
और अपने तकिये के नीचे छुपा कर रख लेगी उन शब्दों को
जो मैंने लिखे थे कभी अंधेरे के खिलाफ
मेरे बच्चे सोयेंगे और उनकी मां उनके बाल सहलायेगी
बाहर तिलचट्टे की आवाज होगी


मेरे बच्चे अभी नींद में हैं
उनके सपने में जरूर होगी फूलों की बगिया और तितली
मैं लिख रहा हूं ये शब्द
प्रधानमंत्री अब भी दे रहे होंगे कहीं न कहीं भाषण
बाड़ी की मिट्टी के नीचे हैं कीड़े
मेरे दरवाजे की चैखट से
लकड़ी खाने की आ रही है आवाज करर्र-करर्र, किरर्र-किरर्र
 






नया राष्ट्रवाद


तुम कुछ भी बोलो
वे राष्ट्रवाद ही बोलेंगे
तुम कुछ भी दिखलाओ
वे राष्ट्रवाद ही बोलेंगे
तुम नमक बोलो
वे राष्ट्रवाद बोलेंगे
तुम पानी बोलो
वे राष्ट्रवाद बोलेंगे
तुम बच्चे की घिरनी बोलो
वे राष्ट्रवाद बोलेंगे


तुम दिखलाओगे आकाश
वे राष्ट्रवाद बालेंगे
तुम दिखलाओगे अपनी बाड़ी में बथुआ का साग
वे राष्ट्रवाद बोलेंगे
तुम भूख, गरीबी, अस्मिता, आजादी
विस्थापन, मृत्यु कुछ भी बोलो
वे सिर्फ राष्ट्रवाद ही बोलेंगे
तुम इतिहास बोलो
तब भी वे राष्ट्रवाद ही बोलेंगे
तुम नक्काशी बोलो
तब भी वे राष्ट्रवाद बोलेंगे
तुम किसान बोलो
तब भी वे राष्ट्रवाद ही बोलेंगे
यहां तक कि तुम राष्ट्रवाद बोलो
तब भी वे राष्ट्रवाद ही बोलेंगे


उन्होंने अभी अभी खूंटे पर टांगा है
यह नया राष्ट्रवाद
अभी अभी खूंटे पर टंगा है यह राष्ट्र
अभी अभी मरा है इमरान
अभी अभी मरा है हस्तसाल
अभी अभी मरा है हरिया
अभी अभी मरी है सुइनी
अभी अभी गूंजा है राष्ट्रवाद
अभी गूंज रहा है राष्ट्रवाद
राष्ट्रवाद, राष्ट्रवाद, 
राष्ट्रवाद


सबसे पहले उसका साथ

सबसे पहले उम्मीदों ने ही छोड़ा होगा
उसका साथ
फिर उसके हाथ, पांव, नाक, मुंह
पसलियों, फेफड़ों, अंतड़ियों ने
और फिर दिमाग ने
और सबसे अंत में साथ छोड़ा होगा
उसकी आंखों ने


सबसे पहले अपनी आंखों से
उसने देखा होगा
आसमान की लालिमा को
फिर घर लौटते चिड़ियों के झुंड को
फिर उसने देखा होगा पेड़ों को
पेड़ों से झड़ रहे पत्तों को
खेतों में उदास फसलों को
और फिर गड्ढों को


उसकी आंखों ने सबसे पहले ढूंढा होगा
एक जोड़ी आंखों को ही
लेकिन उसे आंखों के बदले दिखे होंगे
ढेर सारे चेहरे और ढेर सारी आंखें
एक भीड़, ढेर सारी आवाजें
ढेर सारे नाखून
और कुछ रंग
उसने अपनी आंखों को नीचे झुकाया होगा
और बंद हो गयी पूरी दुनिया
उन आंखों के भीतर
वह दुनिया जिसको संजोने के बारे में
उसने कभी बुने होंगे ढेर सारे ख्वाब


सबसे पहले उसने थामा होगा
नाउम्मीदी का ही साथ
और खत्म हो गयी होगी चिंता
खत्म हो गयी होगी आवाज
खत्म हो गया होगा डर्र


उसने याद किया होगा अपने बचपन को
गलियों को, गुल्लर के पेड़ों को,
कौओं को
और अपने उस साथी को
जो उसकी मोहब्बत में उतार लाता था
पेड़ की आखिरी फुनगी से उसकी पतंग


यह जो हवा और धूप है
जिससे वह बहुत परिचित रहता आया था
वह हो जायेगी इतनी बेगानी और रूखी
उसने कभी सोचा नहीं था
उसने सोचा यह भी नहीं था कि
पीपल के पेड़ पर बैठी चिड़िया
उसकी ओर बिना देखे उड़ जायेगी


सबसे पहले उम्मीदों ने ही छोड़ा होगा
उसका साथ
इसलिए यह चिड़िया, मिट्टी, हवा, धूप
और यहां तक कि इन गलियों से उसे
कोई शिकायत नहीं थी


और आखिर में जब उसने बंद की होंगीं अपनी आंखें
तब उसकी आंखों में धीरे-धीरे पसरा होगा अंधेरा
जैसे धीरे-धीरे घुसता है बाढ का पानी
उस अंधेरे में जरूर दिखी होंगी उसे कुछ शक्लें
कुछ सूखे पत्ते, कुछ टूटे तारे
और कुछ बहुत ही उदास बच्चे।  




यह देश तुमसे कुछ नहीं पूछेगा



बारिश की बूंदों को तुम आग कह दो
और आग को पानी
तुम चाहो तो पेड़ की पत्तियों को
लहलहाता हुआ कोयला कह दो
और रेत को तूफान


तुम कहो तो बारिश की बूंदों पर
आज चढ़ा दूं चाय की केतली
और पेड़ की पत्तियों से सुलगाऊं
आज अपनी सिगरेट


तुम चाहो तो आइंस्टीन को न्यूटन कहो
और न्यूटन को गैलीलियो
तुम इतिहास को झूठ कह सकते हो
और अपने नारे को इतिहास
तुम भूगोल से एक दो ग्रहों को
यहां-वहां खिसका सकते हो
और एक-दो 
ग्रहों
को बंद कर सकते हो
अपने धर्मग्रंथों में


यह देश कोई कचहरी तो है नहीं
कि हर वक्त झूठ बोलने के लिए
शक के घेरे में आना ही पडे़
यह देश समझदारों का अड्डा भी नहीं है
कि वह तुमसे हर लफ्फाज़ी का
हिसाब मांग ही ले
देश देश होता है प्रश्न करने की कोई माकूल जगह नहीं
कि वहां खून के बारे में भी पूछा जाए
भूख के बारे में भी
और आत्महत्या के बारे में भी


यह देश तुमसे कुछ नहीं पूछेगा
न ही गुरुत्वाकर्षण के बारे में
ना ही इतिहास के बारे में
ना ही भूगोल के बारे में
ना ही पूछेगा वह फूलों के बारे में
पत्तों के बारे में
आसमान के बारे में
सूरज के बारे में या फिर
बुहस्पति ग्रह के बारे में


यह देश तुमसे कुछ नहीं पूछेगा
ना ही जमीन पर गिरे खून के बारे में
ना ही उस पुलिस वाले की आत्महत्या के बारे में
और ना ही जुगनुओं के बारे में
यह देश तुमसे कुछ नहीं पूछेगा


इसलिए तुम अभी चाहो तो
बारिश की बूंदों को आग कह सकते हो
और आग को पानी
दुख को सुख कह सकते हो
आत्महत्या को तुम उसका शग़ल बतला सकते हो
तुम क्रांति को तो आज बतला ही रहे हो
जीवन जीने का एक फैशनपरस्त तरीका
 






बंद दरवाजों के भीतर बच्चे


बच्चे दरवाजों के भीतर बंद हैं
बाहर छुरियां चल रही हैं
शायद तलवार और कुछ देशी कट्टे भी
बच्चे दरवाजों के भीतर बंद हैं
मां चीख की आवाज से
बच्चों को दूर रखने की कर रही है कोशिश
पिता बाहर शोर के थमने का कर रहे हैं इंतजार
पर सूरज है कि निकलता ही नहीं


बच्चे दरवाजों के भीतर बंद हैं
और मोबाइल में भिड़ा रहे हैं
दो राक्षसों को
बाहर सड़कों से हटाए जा रहे हैं खून के निशान
जले हुए सामान से लोहे के टुकड़े बीन रहे हैं लड़के
बच्चों ने गेम में कर लिए हैं कई लेवल पार
मारे गए हैं कई राक्षस
मोबाइल से निकल रही हैं तरंगें
और कहीं गायब हो जा रही हैं
पिता दरवाजों के छेद से देखते हैं
धुली सड़कें और होते हैं आश्वस्त


बच्चे दरवाजे से बाहर निकालते हैं पांव
कि बाहर अंधेरा छा जाता है
हवा जहरीली हो जाती है
पत्ते मुरझाने लगते हैं
पक्षी लौटने लगते हैं
चीटियों की आंखें जलने लगती हैं
बच्चे हो जाते हैं फिर से दरवाजों के भीतर बंद


दरवाजों के भीतर बच्चे बड़े हो रहे हैं
छोटी हो रही है उनकी दुनिया


बच्चों को खेलना था अभी कबड्डी
गेंद, छुपम-छुपाई या फिर
घघ्घो रानी कितना पानी
लेकिन बच्चे अभी हवा में जहर के
कम होने का कर रहे हैं इंतजार


हम रह रहे हैं ऐसे समय में
जब बच्चे होते जा रहे हैं बंद अपने घरों में
बाहर आततायी घूम रहे हैं
कभी छुरे और कभी जहर लिए
अभी हमारा लोकतंत्र सो रहा है
अभी एक सरकार की खरीद-फरोख्त चल रही है
अभी चिड़िया अपने बच्चों की आंखों से
बहते आंसुओं को देख रही है चुपचाप


ठीक इसी वक्त जब मैं लिख रहा हूं यह कविता
मेरे बच्चे दरवाजों के भीतर बंद हैं
बाहर आसमान से गिर रही हैं उल्काएं
आसमान से झड़ गए हैं चांद और सितारे
विज्ञान के सारे आविष्कार हो गए हैं इकट्ठे
और वसूल रहे हैं इन मासूम बच्चों से अपनी कीमत


ठीक अभी जब विश्व के सभी देशों में
एक साथ गिर रही हैं उल्काएं
एक साथ छा रही है निराशा
एक साथ गहरा रहा है डर
तब फिर बच्चे दरवाजों के भीतर बंद हैं
और खेल रहे हैं उसी मोबाइल में बबल शूटर


बंद दरवाजों के भीतर बच्चे बड़े हो रहे हैं
बंद दरवाजों के भीतर घुट रही हैं उनकी
सांसें



इतनी भी जगह


इस ब्रह्माण्ड में उनके लिए
नहीं है इतनी भी जगह
जितनी में कठफोड़वा बना लेते हैं अपना घर
गिलहरियां रख लेती हैं अपने बच्चे
या जितने में टिक जाती है ओस की बूंद
बस उतनी जगह जितनी में आंखों में टिक जाते हैं आंसू


अभी जब सारे पक्षी लौट गए हैं अपने घोंसलों में सुरक्षित
सारे कछुओं ने ओढ ली है अपनी सुरक्षा की चादर
समुद्र की लहरें लौट रही हैं अपने घरों की तरफ वापस
और अभी-अभी जब टेलीविजन पर प्रसारित हो रहा है
एक महाआख्यान
तब ठीक इसी समय कंक्रीट भरे रास्तों पर
निकलने को मजबूर हो गए हैं असंख्य जोड़े पैर
रो रहे हैं अनगिनत बच्चे
लेकिन दूरी है कि अभी खत्म नहीं होने वाली


उनके लिए इस ब्रह्माण्ड में जगह नहीं है
इसब्रह्माण्ड की सारी जगहों को घेर लिया हैतिलचट्टों ने
यहां की सारी जगहों पर गिर गए हैं सूखे पत्ते
यहां कोई मनुष्य नहीं दिख रहा
कोई बच्चा खेल नहीं रहा
सारी जगहों पर जम गई है बर्फ
गिर गए हैं आग के गोले


इस ब्रह्माण्ड पर ऐसी कोई खाली जगह नहीं
जहां सहेजे जा सकें उनके आंसू
जहां सहेजा जा सके उस चार वर्ष के बच्चे का
थका, दुखी और उदास चेहरा
जो मीलों चलने के बाद सो रहा है अभी
अपनी मां की गोद का सहारा लेकर बेसुध


मासूम बच्चे बस भरोसा करते हैं अपने मां-बाप पर
और चल देते हैं उनके पीछे
क्या कभी आपने सुनी है
इन मासूम धड़कनों की आवाज
क्या कभी आपने महसूस किया है एक भयानक खामोशी का
भांय भांय करता सन्नाटा
क्या कभी आपने देखी है तीन वर्ष के बच्चे के
तलुवों की गायब होती मुलायम त्वचा को
क्या कभी आपने प्यासे गले में
उग आए कांटों को किया है महसूस
आपने डूबते सूरज की उदासी को तो देखा ही होगा


अभी जब मैं लिख रहा हूं यह कविता़
अभी जब रात गहरा रही है
रो रहा है एक कुत्ता
कहीं दूर से आ रही है झींगुर की आवाज
मौसम में घुल रही है उदासी
अभी भी गिर रही है पत्तों पर ओस की बूंदें
तब ध्यान से सुनने पर सुनाई पड़ंेगी
उनके नन्हें कदमों की मासूम आवाजें
ध्यान से सुनने पर
उन भूखे बच्चों की भूखी अतड़ि
यों की आवाज भी देगी सुनाई
वे चलते चले जा रहे हैं
क्योंकि इस ब्रह्माण्ड मेें उनके लिए कोई जगह नहीं है
वे चलते चले जा रहे हैं
तब तक जब तक चल रही हैं उनकी सांसें
 
 
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं।)
 
 
सम्पर्क-

उमा शंकर चौधरी
जे-08 महानदी एक्सटेंशन, इग्नू आवासीय परिसर
इग्नू, मैदानगढ़ी, नई दिल्ली-68 


मो.-9810229111

ई-मेल - umashankarchd@gmail.com

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