अनिल त्रिपाठी का आलेख 'स्त्री विमर्श और अनामिका की कविताएँ'

 


 

स्त्रियों के प्रति हमारे समय और समाज का चेहरा कमोबेश हर जगह थोड़ा विकृत दिखाई पड़ता है। जन्म लेते ही लड़कों और लड़कियों को यह ट्रेनिंग दी जाने लगती है कि उसे क्या करना चाहिए। इस ट्रेनिंग की वजह से ही लड़कों के मन में उस आक्रामकता का जन्म होता है जिसकी शिकार लड़कियाँ होती हैं। लड़कियों का आगे बढ़ पाना बहुत दुष्कर होता है। एक साथ कई प्रत्यक्ष और परोक्ष मोर्चे पर उसे संघर्ष करना होता है। अनामिका ऐसी कवयित्री हैं जिन्होंने स्त्रियों के दर्द, पीड़ा, संघर्ष और उनकी अनुभूतियों को अपने शब्द दिए हैं। यह शब्द उस प्रतिनिधि स्वर के रूप में है जिसका प्रतिनिधित्व अनामिका खुद करती हैं। अनामिका को इस वर्ष का हिन्दी का साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला है। साहित्य अकादमी पुरस्कारों की जब से शुरुआत हुई है, अनामिका पहली ऐसी कवयित्री हैं जिन्हें पहली बार इस पुरस्कार के योग्य समझा गया है। अनामिका को पहली बार की तरफ से बधाई देते हुए हम आज प्रस्तुत कर रहे हैं कवि आलोचक अनिल त्रिपाठी का आलेख 'स्त्री विमर्श और अनामिका की कविताएँ'यह आलेख हमें सुभाष राय के सौजन्य से प्राप्त हुआ है।

 


 

'स्त्री विमर्श और अनामिका की कविताएँ'

 

                                     

अनिल त्रिपाठी

 

 

'काल्पनिक रूप से उसका महत्व सर्वोच्च है, व्यावहारिक रूप से वह पूर्णतः महत्वहीन है, कविता में पृष्ठ दर-पृष्ठ वह व्याप्त है, इतिहास से वह अनुपस्थित है। कथा साहित्य में वह राजाओं और विजेताओं की जिन्दगी पर राज करती है। वास्तविकता में वह उस किसी भी लड़के की गुलामी करती है जिसके माँ-बाप उसकी उंगली में एक अंगूठी ठूँस देते हैं। साहित्य में कुछ अत्यन्त प्रेरक शब्द, कुछ अत्यंत गंभीर विचार उसके होठों से झरते हैं। असली जिन्दगी में वह कठिनाई से पढ़ सकती है, कठिनाई से बोल सकती है और अपने पति की संपत्ति है।                                  

 

-वर्जीनिया वुल्फ

 

 

वैयक्तिक यातनाओं का सामाजिक संदर्भीकरण उसके प्रतिकार का एक आजमाया हुआ अस्त्र है। तकलीफ खतरनाक चीज होती है। उससे यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि यह अनंत काल तक अंधेरे कोनों में मुँह लपेटे पड़ी रहेगी। न्यूटन ने गति का जो तीसरा नियम दिया, वह प्रगति पर भी उतना ही लागू है जितना सामान्य गति पर। आदमी का स्प्रिंग तत्व उसे एक सीमा के बाद दबने नहीं देता, और जितनी जोर से स्प्रिंग दबता है उतनी जोर से उछलता भी है।'

              

- अनामिका

 

 

वर्जीनिया वुल्फ और अनामिका के इन अंशों पर जरा गौर करें तो हमें पता चलता है कि किस तरह एकदम भिन्न देश काल और परिस्थिति में रचनारत दो प्रमुख स्त्री विमर्शकारों (लेखिकाओं) की चिंताओं में समानता है। वर्जीनिया स्त्री अस्मिता की वास्तविकता को विवशता के अंडर टोन के साथ जहाँ सामने ले आती है वहीं अनामिका उस विवशता को संकल्प की ऊर्जा से तोड़ने की बात करती है। चिंताओं की समानता के बावजूद अनामिका का यह कदम वर्जीनिया वुल्फ के कार्य को आगे बढ़ाता है। जार्ज बर्नार्ड  शा कहा करते थे, हम महान शेक्सपियर के कंधों पर खड़े हैं। मुझे अनामिका को पढ़ते समय हमेशा लगता है कि ये  वर्जीनिया वुल्फ की वैचारिक  रिक्थ को संभाले हुए उनके  कंधों पर खड़ी हैं। वर्जीनिया ने रूम आफ वंस ओन' में शेक्सपीयर की एक बहन का विशद जिक्र किया है। जिसने एक शब्द तक नहीं लिखा लेकिन जिसकी प्रतिभा पर उन्हें भरोसा था। उन्हें लगता था कि यदि हम तत्कालीन समय और परिस्थितियों में बदलाव से वह स्थिति उत्पन्न कर सके जिसमें आत्माभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हो तो वह एक दिन जरूर कवयित्री शरीर धारण करेगी। वर्जिनिया ने लिखा है कि मेरा मानना है कि अगर हम उसके लिए काम करें तो वह जरूर आएगी और इस तरह काम करना, दरिद्रता और गुमनामी में भी काम करना मूल्यवान होगा।

 

 


 

दुनियाँ के विभिन्न हिस्सों में निस्सन्देह इस तरह की प्रतिभाओं ने जन्म लिया है और अपनी रचनात्मक और अकादमिक क्षमता से वर्जीनियाँ वुल्फ की आकांक्षाओं को एक नयी दिशा दी है। हिन्दी में अनामिका वर्जीनिया के उस काम्य प्रतिभा का ही प्रतिनिधि स्वर हैं। स्त्री विमर्श के पब्लिक स्फीयर' की समकालीन दुनिया में वे हिन्दी की पब्लिक इटलेक्चुअल' हैं। स्त्री विमर्श की सैद्धान्तिकी प्रस्तुत करने के साथ उन्होंने रचनात्मक धरातल पर स्त्री पात्रों की अन्तरवृत्ति का सूक्ष्म व्यवच्छेद किया है। इस प्रक्रिया में उन्होंने अपने बीजाक्षर की प्राप्ति के लिए समकालीनता की देहरी से निकल कर इतिहास और अतीत की विभिन कंदराओं एवं गुफाओं के चप्पे-चप्पे का पता हासिल किया है। जहाँ मुझे मिल सके मेरी खोई होई परम अभिव्यक्ति अनिवार आत्मसंभवा।" मुक्तिबोध की इन पंक्तियों के मानिन्द अनामिका ने स्त्री अस्मिता की तलाश के लिए काल निरवधि गहन विस्तार की अंधेरी सुरंगों को पार किया है। लोककथा, थेरीगाथा, पुराण, महाभारत, मिथक आदि से तमाम सन्दर्भ उनकी सैद्धान्तिकी के बीज तत्त्व हैं। और सृजन की भूमि पर कविता के तत्व भी। हर उस 'ब्रीदिंग स्पेस को उन्होंने खोजने की कोशिश की है जहाँ स्त्री मन की कुछ गाँठे खुली हैं। स्त्री विमर्श की उनकी निष्पत्तियाँ बेहद संतुलित और पर्याप्त तैयारी का ही प्रतिफलन है। कुछ सूत्र निम्नवत हैं -

 

 

1-स्त्री आंदोलन, प्रतिशोध पीड़ित नहीं है। .....स्त्री आन्दोलन की समर्थक मानवियाँ हैं। मादा ड्रैकुलाएं नहीं। उसे न्याय चाहिए पर ये जानती हैं कि अन्याय का प्रतिकार अन्याय नहीं है, एक दमन-चक्र का प्रतिकार दूसरा दमन-चक्र नहीं।

 

 

2-स्त्री आंदोलन की समर्थक स्त्रियाँ पुरुष नहीं बनना चाहती... जो प्राकृतिक विशिष्टताएं हैं शर्मनाक वे नहीं, शर्मनाक आरोपित सामाजिक मानदंड हैं जो दोहरे हैं और जिन पर पुनर्विचार होना ही चाहिए।

 

3-दोषी पुरुष नहीं, वह पितृसत्तात्मक व्यवस्था है जो जन्म से ले कर मृत्यु तक पुरूषों को लगातार एक ही पाठ पढ़ाती हैं कि स्त्रियाँ उनसे हीनतर हैं।

 

 

4- स्त्री आन्दोलन हर वर्ग, हर नस्ल तक सार्वभौम भगिनीवाद (यूनिवर्सल सिस्टरहुड) का मूलमंत्र पहुंचाने में सफल हुआ है। वर्ग नस्ल या देश कोई भी हो, स्त्रियों की भावनात्मक मनोवैज्ञानिक, नैतिक, भाषिक और अस्मिता सम्बन्धी समस्यायें प्रायः एक सी है…. स्त्रियों का यह आपसी सखा भाव ही सामान्य संकटों की उस उदात्त साझेदारी का नाम है जिसे स्त्री आन्दोलन कहते हैं।

 

 

5-हिन्दी साहित्य का स्त्रीवाद से रिश्ता वैसा ही है जैसा अच्छे मकान मालिक का शहर में अकेली रह कर काम करने वाली स्त्री किराएदार से वह वैसे तो उसे भृकुटि चढ़ा कर देखता है मगर सामने पड़ने पर आदाब बजाना नहीं भूलता।

 

6-स्त्रीवाद की अपनी सीमाएं नहीं है - ऐसा नही है। किसी भी वाद या मताग्रह की तरह इसकी भी अपनी सीमाएं हैं। पहले चरण का स्त्रीवाद एक आखेटक दृष्टि से परिचालित था-हाथ में धनुष बाण ले कर साहित्यिक वन कंदराये घूम जाओ और जहाँ कोई स्त्री विरोधी बात देखो- साध दो निशाना।

 

7- बीसवी सदी के उत्तरार्ध का स्त्रीवादी साहित्य इसका स्पष्ट साक्ष्य वहन करता है कि कैसे सर्वसाधारण स्त्रियों  के जीवन की रूटीन भी रविलेशन का माध्यम बन सकती है।

 

8-मैं बार-बार यह कहना चाहूँगी कि हमारे हिंसा विह्वल आतंक कातर समय की सबसे बड़ी त्रासदी यह कि स्त्रियां तो ध्रुवस्वामिनी वाली कद काठी पा गईं किन्तु पुरुष अभी रामगुप्त की मनोदशा में ही है, चंद्रगुप्त नही हुए।

 

 

9-नई स्त्री को चाहिए एक ऐसा पुरुष जिससे वह भक्त कवि जना बाई की तरह मन खोल कर कह पाये

 

  माधव देखो

कितने तो काम धरे हैं सिर पर

इतना आटा गूंथना है अभी

इतने कपड़े कूटने है

आओ भी, हाथ बंटा दो थोड़ा

या फिर तुम हेर दो जुएँ ही जरा

कुछ तो करो न, कुछ करो।

 


 

 

उपर्युक्त विभिन्न अंश अनामिका के स्त्रीवादी सिद्धान्त का भरपूर संकेत देते हैं, और इन्हीं संकेतों को अनामिका की कविताओं में स्त्री अस्मिता के परिप्रेक्ष्य  में देखा जा सकता है। अब तक अनामिका के जो कविता संग्रह प्रकाशित हुए हैं जैसे कि गलत पते की चिट्ठी, बीजाक्षर, समय के शहर में, अनुष्टुप, कविता में औरत, खुरदरी हथेलिया, दूब-धान, चुनी हुई कविताएं, टोकरी में दिगंत, सबमें स्त्री पात्रों की विविधता, उनके अनुभव के जटिल और अब तक के अप्राप्त साँच बोध का एक संसार दिखता है। स्त्रियों के इतने विविध स्वर शायद ही कहीं मिलें।

     

इस सन्दर्भ में अनामिका की बहुचर्चित कविता स्त्रियां' से बात आरम्भ हो सकती है। स्त्रियां शब्द की  बहुवचनता  समवाय स्वर का सूचक है। यह केवल एक स्त्री की पीड़ा नहीं बल्कि स्त्री जाति की पीड़ा है। इसलिए स्त्रियां शब्द का प्रयोग कर के अनामिका स्त्रीवादी आंदोलन को एक नया स्वर देती हैं। यह मैं और मेरा के आत्मपीड़ा  का स्वगत संवाद नही बल्कि समकालीन स्त्री की सामूहिक चेतना की अभिव्यक्ति है। कविता की शुरुआत होती है

 

पढ़ा गया हमको

जैसे पढ़ा जाता है कागज

बच्चों की फ़टी कापियों का

चना जोर गरम के लिफाफे बनाने के पहले।

 

इसको बाद देखा गया, सुना गया, भोगा गया जैसे क्रिया पद उस यथार्थ को सामने लाते हैं जो उसने सभ्यता के विकास क्रम में देखा है। और फिर देखो, सुनो जैसे क्रिया पदों मे आकांक्षा का स्वर प्रकट किया गया है। स्थिति और आकांक्षा का यह द्वैत कविता की संरचना में एक निर्णायक स्थिति को जन्म देता है जहाँ कविता अपने उत्कर्ष पर पहुंचती दिखाई देती है। कविता का अंत होता है -

 

 

हे परमपिताओ,

परम पुरुषों

बख्शो ,  बख्शो अब हमें बख्शो।'

 

 

बख्शो, बख्शो  के साथ अब' शब्द के प्रयोग की व्यंजना कविता में अब तक के अनकहे दुख को जिस तरह उद्घाटित करती है वह बेहद महत्त्वपूर्ण है। साथ में एक आक्रामक और निर्णायक तेवर भी यहाँ मौजूद है। जैसे कि अब, बस बहुत हो चुका। यह आज की स्त्री का स्वर है जिसे 21वीं सदी के तमाम शोर शराबे के बीच अनसुना नहीं किया जा सकता।

 

 


      

 

दूब धान कविता संग्रह की कई कविताएं जो कि जोगनिया कोठी' और गृह लक्ष्मी' सिरीज में संग्रहीत है वे अत्यंत  महत्वपूर्ण हैं। आम्रपाली, तुलसी का झोला, भामती की बेटियाँ जैसी कविताएं अनामिका के भीतर मौजूद संवेदनशील स्त्री का मुखर संवाद है जिसे अनामिका अपनी रचनात्मक क्षमता के जादुई सिद्धि से हासिल करती हैं। आम्रपाली, रत्ना, भामती की बेटियाँ कैसे उनकी सगोतिया गुइयाँ बन जाती हैं, यह देखना दिलचस्प है। दरअसल अनामिका के भीतर का रचनाकार सम दिक-काल (नितांत समसामयिकता) की ही यात्रा नहीं करता बल्कि अतीत के लिए भी एक पुल बनाता है, और जिस पुल से अतीत को ला कर उसे समकालीन बना देता है। इस आवाजाही के लिए जिस परकाया प्रवेश' के सिद्धि की जरूरत है वह उनके पास है।  इस संदर्भ में भामती की बेटियां कविता का अंश यहां देखा जा सकता है।

 

 

   'फिर एक शाम एक आँधी सी आयी

    विखरने लगे, ग्रन्थ के पन्ने

    टूटी तंद्रा तो मुझे देखा

    पन्नों के पीछे यों भागते हुए जैसे हिरनों के

    चौंके : हे देवि/ परिचय तो दें/ आप कौन?'

   मुझको हंसी गयी -

   'लाए थे जब ब्याह कर तो छोटी थी न

    फिर आप लिखने में ऐसे लगे,

    दुनिया की सुध बिसर गयी, लगता है जैसे भूल                     

     ही गये / वेदान्त के भाष्य के ही समानान्तर

     इस घर में बढ़ी ही जा रही है

    पत्ती-पत्ती

    आपकी भार्या भी।'

 

           

उपर्युक्त कविता में आख्यान रचती अनामिका स्त्री मन की गिरहों को खोलती हैं। संवाद की यह शैली कविता को थोड़ा ठहराव देती है। यह ठहराव यहाँ जरूरी है क्योंकि ठहरे बिना संवाद की भंगिमा अपनी चमक खो देती। इस भंगिमा के कारण ही अनामिका इन स्त्री-मन को छूने और उसे उद्घाटित  करने  में कामयाब रही है। ये वे स्त्रियाँ हैं जिनके दुःख दर्द का साझा बहुत कम लोगों ने किया है। कभी आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने एक  निबंध  लिखा था  कवियों की उर्मिला विषयक उदासीनता' जिसमें उर्मिला के घोर दुःख की उपेक्षा से आचार्य दुःखी हुए थे। बहरहाल अनामिका ने इन स्त्री पात्रों को कविता में पूरी जीवन्तता के साथ अभिव्यक्त किया है। उन्होंने लिखा है कि वास्तविक जीवन-जगत के चरित्र हो या क्तासिकों के चरित्र-मेरी कल्पना के स्थायी नागरिक वही बनते जिन्हें कभी न्याय नहीं मिला जो हमेशा लोगों की गलतफहमी का शिकार हुए, दुनिया ने जिन्हें कभी प्रेम दिया, न माना भीतर से थे जितने अगाध होते, उतने ही अकेले। ..अपनी कविताओं में मैं उन चरित्रों के घरौंदे बनाती! उनके ही तट पर, उनकी ही बालू और अपने शब्दों से - शब्द जो मुझे जहाँ तक उधार मिल जाते-घर की चर्चाओं से, लोक कथाओं, लोकगीतों से, मिथकीय कथाओं से, गली से, मोहल्ले से, खेत के मैदान से, किसी बतकही से '

 

 

कविता में औरत' अनामिका का ऐसा संग्रह जिसमें प्रत्येक पात्र से उनका रिश्ता रहा है। इन सभी पात्रों के संघर्ष एवं दुःख को उन्होंने अपनी आवाज का हिस्सा बनाया है। स्त्री अस्मिता की यह तलाश कविता में अंतर वैयक्तिक संबंधों के आधार पर है। सेल्फ' के बहिर्जगत और अदर्स' के अन्तर्जगत की यह पारस्परिकता कविता में स्त्री अस्मिता का एक नया रसायन रचती है। जलेबा बुआ, कैंसर से जूझती स्त्री, जे. एन. यू. की एक छात्रा, टचवुड' की स्त्री पात्र, कुहनियां कविता की लड़कियां, सबीना खाला, रेखा दी अभ्यागत की सहेली और अपनी छात्राओं को, और चौदह वर्ष की दो सेक्स वर्कर्स को जिस तरह से अनामिका ने अपनी कविता का विषय बनाया है यह अत्यंत महत्वपूर्ण है और मानीखेज भी। वर्गीय पृष्ठभूमि की विविधता तो यहां है ही साथ ही उम्र के लिहाज से भी कई वय के स्त्री पात्र हैं यहाँ। आत्मकथाओं इस दौर में भी दूसरे के बारे में हूबहू पते के साथ लिखने से बचने की कोशिश जब दिखाई देती हो तब अनामिका की ये रचनाएँ किसी जोखिम एवं चुनौतीपूर्ण साहस से कम नहीं।

 

 

      

अनामिका की कविताओं में निस्संदेह हमारे समय की स्त्री का स्वर अपनी पूरी जीवंतता, ताप, आक्रोश, पीड़ा और ऊष्मा के साथ मौजूद है। निस्संदेह वे हमारे समय की सबसे 'जेन्युइन' और सबसे समर्थ स्त्री विमर्शकार हैं और रचनाकार भी। उन्होंने वाकई अपने अन्तरिक्ष में अपने हुनर की उड़नतश्तरियां छोड़ रखी हैं। उन्हीं के शब्द हैं --

 

लोग दूर जा रहे हैं

और बढ़ रहा है

मेरे आस-पास का स्पेस

इस स्पेस का अनुवाद

'विस्तार' नही अंतरिक्ष करूँगी मैं

 

क्योकि इसमें मैने

उड़नतश्तरी छोड़ रखी है।

 

('जनसन्देश टाइम्स' से साभार।)

 

 


 

                              

सम्पर्क

 

मो - 9412569594

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'