गोलेन्द्र पटेल की कविताएँ

 

गोलेन्द्र पटेल


जिन्दगी आमतौर पर जितनी सहज और सुन्दर दिखाई पड़ती है, उतनी होती नहीं। यह बहुत ही अनगढ़ और दिक्कतों से भरी होती है। आबादी का एक बड़ा हिस्सा आज भी भूख और भय से अभिशप्त है। 'समानता' आज भी एक आदर्श टर्म है न कि हकीकत। गोलेंद्र पटेल बी एच यू में स्नातक के छात्र हैं। अभी कुछ दिन पहले ही इनके उम्दा कविता पोस्टर देकग कर मुझे आभास हुआ कि एक कविमना व्यक्ति ही यह काम कर सकता है। और जब गोलेन्द्र की कविताएँ देखा तो पाया कि यह तो हिन्दी का एक संभावनाशील कवि है। कवि की 'मुसहरिन माँ' कविता अंदर तक बेध कर रख देती है। मन जैसे हिल कर रह जाता है। मुसहरों का संघर्ष झेलने वाले जानते हैं कि जीवन कितना विकट होता है? यह खाए अघाए लोग शायद ही महसूस कर पाएं। आज पहली बार पर प्रस्तुत है युवा कवि गोलेन्द्र पटेल की कुछ नई कविताएँ।

 

 

गोलेन्द्र पटेल की कविताएँ

 

 

सरसराहट संसद तक बिन विश्राम सफ़र करेगी

 

तिर्रियाँ पकड़ रही हैं

गाँव की कच्ची उम्र

तितलियों के पीछे दौड़ रही है

पकड़ने की इच्छा

अबोध बच्चियों का!

 

 

बच्चें काँचे खेल रहे हैं

सामने वृद्ध नीम के डाल पर बैठी है

मायूसी और मौन  

 

 

मादा नीलकंठ बहुत दिन बाद दिखी है

दो रोज़ पहले मैना दिखी थी इसी डाल पर उदास

और इसी डाल पर अक्सर बैठती हैं चुप्पी चिड़ियाँ!

 

 

कोयल कूक रही है

शांत पत्तियाँ सुन रही हैं

सुबह का सरसराहट व शाम का चहचहाहट चीख हैं

क्रमशः हवा और पाखी का

 

 

चहचहाहट चार कोस तक जाएगी

फिर टकराएगी चट्टानों और पर्वतों से

फिर जाएगी; चौराहों पर कुछ क्षण रुक

चलती चली जाएगी सड़क धर

सरसराहट संसद तक बिन विश्राम किए!

 

 

मुसहरिन माँ

 

धूप में सूप से

धूल फटकारती मुसहरिन माँ को देखते

महसूस किया है भूख की भयानक पीड़ा

और सूँघा मूसकइल मिट्टी में गेहूँ की गंध

जिसमें जिंदगी का स्वाद है

 

 

चूहा बड़ी मशक्कत से चुराया है

(जिसे चुराने के चक्कर में अनेक चूहों को खाना पड़ा जहर)

अपने और अपनों के लिए

 

 

आह! न उसका गेह रहा न गेहूँ

अब उसके भूख का क्या होगा?

उस माँ का आँसू पूछ रहा है स्वात्मा से

यह मैंने क्या किया?

 

 

मैं कितना निष्ठुर हूँ

दूसरे के भूखे बच्चों का अन्न खा रही हूँ

और खिला रही हूँ अपने चारों बच्चियों को

 

 

सर पर सूर्य खड़ा है

सामने कंकाल पड़ा है

उन चूहों का

जो विषयुक्त स्वाद चखे हैं

बिल के बाहर

अपने बच्चों से पहले

 

आज मेरी बारी है साहब!

 


 

 

चिहुँकती चिट्ठी

 

बर्फ़ की कोहरिया साड़ी

ठंड का देह ढंक

लहरा रही है लहरों-सी

स्मृतियों के डार पर

 

 

हिमालय की हवा

नदी में चलती नाव का घाव

सहलाती हुई

होंठ चूमती है चुपचाप

क्षितिज

वासना के वैश्विक वृक्ष पर

वसंत का वस्त्र

हटाता हुआ देखता है

बात बात में

चेतन से निकलती है

चेतना की भाप

पत्तियाँ गिरती हैं नीचे

रूह काँपने लगती है

 

 

खड़खड़ाहट खत रचती है

सूर्योदयी सरसराहट के नाम

समुद्री तट पर

 

 

एक सफेद चिड़िया उड़ान भरी है

संसद की ओर

गिद्ध-चील ऊपर ही

छिनना चाहते हैं

खून का खत

 

 

मंत्री बाज का कहना है

गरुड़ का आदेश आकाश में

विष्णु का आदेश है

 

आकाशीय प्रजा सह रही है

शिकारी पक्षियों का अत्याचार

चिड़िया का गला काट दिया राजा

रक्त के छींटे गिर रहे हैं

रेगिस्तानी धरा पर

अन्य खुश हैं

विष्णु के आदेश सुन कर

 

 

मौसम कोई भी हो

कमजोर....

सदैव कराहते हैं

कर्ज के चोट से

 

 

इससे मुक्ति का एक ही उपाय है

अपने एक वोट से

बदल दो लोकतंत्र का राजा

शिक्षित शिक्षा से

शर्मनाक व्यवस्था

 

 

पर वास्तव में

आकाशीय सत्ता तानाशाही सत्ता है

इसमें वोट और नोट का संबंध धरती-सा नहीं है

चिट्ठी चिहुँक रही है

चहचहाहट के स्वर में सुबह सुबह

मैं क्या करूँ?

 

 

सब ठीक होगा  

 

धैर्य अस्वस्थ है

रिश्तों की रस्सी से बाँधी जा रही है राय

दुविधा दूर हुई

कठिन काल में कवि का कथन कृपा है

सब ठीक होगा

अशेष शुभकामनाएं

 

प्रेम, स्नेह व सहानुभूति सक्रिय हैं

जीवन की पाठशाला में

बुरे दिन व्यर्थ नहीं हुए

कोठरी में कैद कोविद ने दिया

अंधेरे में गाने के लिए रौशनी का गीत

 

 

आँधी-तूफ़ान का मौसम है

खुले में दीपक का बुझना तय है

अक्सर ऐसे ही समय में संसदीय सड़क पर

शब्दों के छाते उलट जाते हैं

और छड़ी फिसल जाती है

अचानक आदमी गिर जाता है

 

 

वह देखता है जब आँखें खोल कर

तब किले की ओर

बीमारी की बिजली चमक रही होती है

और आश्वासन की आवाज़ कान में सुनाई देती है

 

 

गिरा हुआ आदमी खुद खड़ा होता है

और अपनी पूरी ताकत के साथ

शेष सफर के लिए निकल पड़ता है।

 

 

ईर्ष्या की खेती

 

मिट्टी के मिठास को सोख

जिद के ज़मीन पर

उगी है

इच्छाओं के ईख

 

 

खेत में

चुपचाप चेफा छिल रही है

चरित्र

और चुह रही है

ईर्ष्या

 

 

छिलके पर  

मक्खियाँ भिनभिना रही हैं

और द्वेष देख रहा है

मचान से दूर

बहुत दूर

चरती हुई निंदा की नीलगाय!

 


 

 

"जोंक"

 

रोपनी जब करते हैं कर्षित किसान;

तब रक्त चूसते हैं जोंक!

चूहे फसल नहीं चरते

फसल चरते हैं

साँड और नीलगाय.....

चूहे तो बस संग्रह करते हैं

गहरे गोदामीय बिल में!

टिड्डे पत्तियों के साथ

पुरुषार्थ को चाट जाते हैं

आपस में युद्ध कर

काले कौए मक्का बाजरा बांट खाते हैं!

प्यासी धूप

पसीना पीती है खेत में

जोंक की भाँति!

अंत में अक्सर ही

कर्ज के कच्चे खट्टे कायफल दिख जाते हैं

सिवान के हरे पेड़ पर लटके हुए!

इसे ही कभी कभी ढोता है एक किसान

सड़क से संसद तक की अपनी उड़ान में!

 

 

सावधान

 

हे कृषक!

तुम्हारे केंचुओं को

काट रहे हैं - "केकड़े"

                सावधान!

 

 

 

ग्रामीण योजनाओं के "गोजरे"

चिपक रहे हैं -

गाँधी के 'अंतिम गले'

                   सावधान!

 

 

विकास के "बिच्छुएँ"

डंक मार रहे हैं - 'पैरों तले'

                    सावधान!

 

 

श्रमिक!

विश्राम के बिस्तर पर मत सोना

डस रहे हैं - "साँप"

                  सावधान!

 

 

हे कृषका!

सुख की छाती पर

गिर रही हैं - "छिपकलियाँ"

                  सावधान!

 

 

श्रम के रस

चूस रहे हैं - "भौंरें"

                 सावधान!

 

 

फिलहाल बदलाव में

बदल रहे हैं - "गिरगिट नेतागण"

                  सावधान!

 

 

उम्मीद की उपज

 

 

उठो वत्स!

भोर से ही

जिंदगी का बोझ ढोना

किसान होने की पहली शर्त है

धान उगा

प्राण उगा

मुस्कान उगी

पहचान उगी

और उग रही

उम्मीद की किरण

सुबह सुबह

हमारे छोटे हो रहे

खेत से….!

 


 

श्रम का स्वाद

 

 गाँव से शहर के गोदाम में गेहूँ?

गरीबों के पक्ष में बोलने वाला गेहूँ

एक दिन गोदाम से कहा

ऐसा क्यों होता है

कि अक्सर अकेले में अनाज

सम्पन्न से पूछता है

जो तुम खा रहे हो

क्या तुम्हें पता है

कि वह किस जमीन का उपज है

उसमें किसके श्रम का स्वाद है

इतनी ख़ुशबू कहाँ से आई?

तुम हो कि

ठूँसे जा रहे हो रोटी

निःशब्द!

 

 

किसान है क्रोध

 

निंदा की नज़र

तेज है

इच्छा के विरुद्ध भिनभिना रही हैं

बाज़ार की मक्खियाँ

 

अभिमान की आवाज़ है

 

एक दिन स्पर्द्धा के साथ

चरित्र चखती है

इमली और इमरती का स्वाद

द्वेष के दुकान पर

 

और घृणा के घड़े से पीती है पानी

 

गर्व के गिलास में

ईर्ष्या अपने

इब्न के लिए लेकर खड़ी है

राजनीति का रस

 

प्रतिद्वन्द्विता के पथ पर

 

कुढ़न की खेती का

किसान है क्रोध!

 

 

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं।) 


 

गोलेन्द्र पटेल

 जन्म स्थान : ग्राम-खजूरगाँव, पोस्ट-साहुपुरी, जिला-चंदौली, उत्तर प्रदेश, भारत  221009

शिक्षा : काशी हिंदू विश्वविद्यालय में स्नातक अंतिम वर्ष का छात्र (हिंदी आनर्स)


 

सम्पर्क

 

मो.नं. : 8429249326

ईमेल : corojivi@gmail.com

 

टिप्पणियाँ

  1. वाकई! गोलेन्द्र की कविताओं में दम है! वे काफी आगे जायेंगे। उन्हें मंगलकामनाएँ। व इस चयन हेतु आपको बधाई।🌹

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