बलराज पांडे के कविता संग्रह के विमोचन के अवसर पर प्रोफेसर अवधेश प्रधान का वक्तव्य




बलराज पाण्डेय को लोग बतौर एक आलोचक अधिक जानते रहे हैं। हालांकि वे हमारे समय के अत्यन्त उम्दा कवि हैं। उनके व्यक्तित्व की सहजता, सजगता और दृढ़ निश्चयता उनकी कविताओं में स्पष्ट दिखाई पड़ती है। पिछले वर्ष उनका एक कविता संग्रह प्रकाशित हुआ। संग्रह का नाम है 'लोग शरमाना भूल गए हैं'। आज 9 मार्च को बलराज जी का जन्मदिन है। उन्हें जन्मदिन की बधाई देते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं उनके कविता संग्रह के विमोचन के अवसर पर प्रोफेसर अवधेश प्रधान का वक्तव्य। साथ में इसी संग्रह से बलराज जी की कुछ कविताएँ भी यहां ब्लॉग पर प्रस्तुत हैं। तो आइए पढ़ते हैं अवधेश प्रधान का वक्तव्य और बलराज पाण्डेय की कविताएँ



बलराज पांडे के कविता संग्रह के विमोचन के अवसर पर प्रोफेसर अवधेश प्रधान का वक्तव्य 


श्रद्धेय काशीनाथ सिंह जी, प्रोफ़ेसर मैनेजर पांडेय, प्रोफेसर चौथी राम यादव जी, कवि ज्ञानेंद्रपति, सभी गुरुजन, विद्वत जन एवम साहित्य प्रेमी छात्र छात्राओं। पांडे जी क्या कविताएं लिखते हैं? बहुतों को उन्हें देख कर यह विश्वास नहीं होता होगा कि वे कविताएं लिखते होंगे। लेकिन उनके निकट रहने वाले लोग जानते हैं कि वे कविताएं लिखे ना लिखें, मगर कविता को वे जीते हैं। कविता, जो इतनी पुरानी साहित्यिक विधा है और जैसा वैदिक कवियों ने उषा के लिए कहा है -  'जितनी ही पुरानी है उतनी ही युवा है'। कविता वह है जिसे मनुष्य के जीवन में होना चाहिए। और अगर वह जीवन में है तो कागज पर भी आएगी। किसी दिन कागज में उसका हो ना इसलिए जरूरी है कि वह जीवन में हो वही रागात्मक लगाव, वही मानवीय उष्मा, मनुष्य से मनुष्य का जो संबंध है, वह जिसे मनुष्य जी सके, वही कविता है। बलराज पांडेय ने अपने जीवन में इसे जिया है। ऐसा जीना चुकी शांत पलों का, बहुत शांत क्षणों का जीना है, इसलिए लगता है कि वह बहुत आसान है, मगर इसके लिए आदमी को कीमत चुकानी होती है। सत्यनिष्ठा के लिए, लगाव के लिए, क्योंकि हर लगाव त्याग मांगता है, और उसे व्यापक रागात्मक संबंध के लिए कीमत चुकानी होती है और बलराज पांडेय ने अपने जीवन में पग-पग पर वह कीमत चुकाई भी है इसके लिए वे तैयार भी रहते हैं। बलराज पांडेय की कविताएं सबसे पहले तो उनके व्यक्तित्व का ही अक्स, उनके व्यक्तित्व की ही छवि, उनके व्यक्तित्व का ही प्रतिबिंब, हमारे सामने प्रस्तुत करती है।

 

अवधेश प्रधान

 

'लोग शर्माना भूल गए हैं' यह टिप्पणी ही अपने-अपने बताती है कि कवि को इस बात का बड़ा दर्द है, इस बात की बहुत तड़प-अकुलाहट है कि मनुष्यों का समाज जैसा मानवीय होना चाहिए वैसा नहीं है। कोई किसी से जी खोल कर बात नहीं करता। लोग मिलने से और बात करने से अक्सर बचा करते हैं। यह जो आपस का, मनुष्य से मनुष्य का संबंध है, इसका जो क्षरण हुआ है - यह कवि को सबसे अधिक सालता है। और इसका मतलब यह नहीं है कि वह एक अमूर्त मानवतावाद, एक उदार मानवतावाद को ही एक बड़े मूल्य के रूप में ले कर ऐसा है। बड़ा मूल्य तो यह है ही, लेकिन इसके साथ-साथ यह विशेषता है कि उनमें एक प्रखर वर्ग दृष्टि भी है। इस वर्ग दृष्टि से वे समाज को देखते हैं। घर परिवार को भी उसी दृष्टि से देखते हैं और बड़े पैमाने पर ऊँचे आसनों पर बैठी हुई सत्ता पवित्र शब्दों के साथ जो खेल करती है, झूठ और पाखंड का खेल रखती है, उस झूठ और पाखण्ड का बलराज पांडेय ने हर जगह, कभी सीधे शब्दों में और कभी व्यंग्य की भंगिमा के साथ भंडाफोड़ किया है। व्यंग्य हिंदी में प्रगतिशील कवियों की अपनी पहचान थी और जो अकविता के दौर में बिल्कुल खो गया था। एक ऐसी कला जो धूमिल के साथ फिर वापस आई। वह व्यंग्य की कला जो इमरजेंसी लगने के बाद हिंदी कविता में एक बार फिर बड़े तीखेपन के साथ उभर कर आई, वह व्यंग्य की कला भी बलराज पांडेय की कविता में निखरी हुई दिखाई देती है।



अवधेश प्रधान, त्रिलोचन और बलराज पाण्डेय


बलराज पांडे की कविताएं सबसे अधिक अगर किसी के करीब हैं, अपने स्वभाव में, अपनी अंतर्वस्तु में, अपने शिल्प में, अपनी भंगिमा में, तो वह सबसे अधिक गोरख पांडेय के करीब है। वही सादगी, वही ऊष्मा बलराज पांडेय की एक दुबली पतली काया में दिखाई देती है। मगर उस दुबली पतली काया के भीतर आत्मा का शीशा है। वह जितना ही स्वच्छ और पारदर्शी है, उतना ही दृढ़ है। वह टूट तो सकता है मगर मुड़ नहीं सकता है - 'आहन नहीं कि चाहिए जब मोड़ दीजिए, शीशा हूँ, मुड़ तो सकता नहीं, तोड़ दीजिए'। इसलिए अपनी एक निष्ठा, अपने संकल्प, अपनी प्रतिबद्धता के साथ मजबूती से खड़ा यह एक ऐसा कवि है जिसमें कोई बड़बोलापन नहीं है, कोई नारेबाजी नहीं है। सबसे बढ़ कर एक बड़ी बात कि इनकी कविताओं में आत्म-समीक्षा का स्वर प्रखर है। जैसे बाहर के अंतर्विरोध कवि देखता है वैसे ही वह अपने अंदर भी झांकना जानता है। चूंकि कवि भीतर झांकना जानता है, इसलिए वह उन कमजोरियों को बख्श नहीं सकता, उन पर व्यंग्य भी करता है, उन पर प्रहार करता है, क्योंकि इसके पीछे एक सजग मूल्य-दृष्टि है और इसके प्रति कवि निष्ठावान है, प्रतिबद्ध है। उनकी भाषा बेहद सीधी और बहुत सादी लेकिन उतनी ही तेज है - बिलकुल दीए की रोशनी की तरह। साफ भी वैसी ही और उसमें गर्मी भी वैसी ही। और उसमें प्रखरता भी वैसी ही। हिंदी भाषा के बोलचाल का जो लहजा है, इसकी ताकत वास्तव में गोरख पांडेय की कविता में जिस तरह दिखाई देती है, खासतौर पर हिंदी कविता की व्यंग भंगिमा में जिस तरह दिखाई पड़ती है वह ताकत बलराज पांडेय की कविताओं में भी मौजूद है। उनकी ऐसी कविताएं हैं जिनमें जीवन के बोध को, मार्मिक अनुभव को, सूक्तियों में बांध लेने की कोशिश दिखाई पड़ती है, जो धूमिल की अपनी कला रही है। लेकिन इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि कविता पाठक की जुबान पर चढ़ जाती है। इसकी अनेक ऐसी पंक्तियां हैं जो सुनते ही बिल्कुल याद हो जाती हैं। इसमें बहुत माथापच्ची नहीं करनी पड़ती। इसमें बिल्कुल अपने आसपास का परिवेश या कोई बहुत अनपहचाना परिवेश या दूर की कौड़ी लाने की कोशिश नहीं है, बल्कि अपने ही परिवेश के आसपास जो जीवन बिखरा हुआ है, इसमें जो झूठ है, पाखंड है, अन्याय है, इसमें कवि ने अपनी प्रतिक्रिया दी है। इसमें केवल व्यंग्य के द्वारा ध्वंस का ही स्वर नहीं है बल्कि इसमें एक विशेष नैतिक सजगता भी है। वह नैतिक मूल्य की सजगता ही है जो इसमें कुछ मूल्यों को प्रतिस्थापित भी करती है। मैं इन्हीं शब्दों के साथ बलराज पांडेय के इस कविता संग्रह पर उन्हें बधाई देता हूँ  और आप सबको जो इस कविता संग्रह के लोकार्पण के साक्षी बन रहे हैं, मैं हृदय से धन्यवाद देता हूं।


बलराज पाण्डेय


बलराज पाण्डेय की कविताएँ



पिताजी कहते हैं 


खेत खलिहान से उठ कर 

घर में आया

अनाज का एक एक दाना

मिट्टी के भाव

आढ़त में क्यों चला जाता है

जब मैं इसकी वजह जानना चाहता हूँ

इसकी तह में जाना चाहता हूँ

पिताजी कहते हैं

बच्चों से सारी बातें नहीं बताई जातीं।

 


जै श्रीराम


नीचे जाम ऊपर घाम

रुका पड़ा है सबका काम

जै श्रीराम, जै श्रीराम।


किसकी निकली गौरव यात्रा

कौन कर रहा कत्लेआम

जै श्रीराम, जै श्रीराम।


रिश्वतखोरी बड़ा घोटाला

करें उसी का बड़का नाम

जै श्रीराम, जै श्रीराम।


नोच नाच कर घर भरना अब

साहब और मन्त्री का काम

जै श्रीराम, जै श्रीराम।


ढोंग रचने में माहिर हैं जो

उसकी सुबह उसी की शाम

जै श्रीराम, जै श्रीराम।


जिसकी जेब में काला दाम

रुके न कोई उसका काम

जै श्रीराम, जै श्रीराम।

 


रोज नकदम


रोज घर में कुछ न कुछ

खतम हुआ रहता है

रात दिन की किचकिच से

नकदम हुआ रहता है

दो दिन की मोहलत पर

चाहा कुछ उधार

सेठ बोला आप का तो

ये हरदम हुआ रहता है।

 


लोग शरमाना भूल गए हैं


लोग शरमाना भूल गए हैं

अपनी सही जगह यहाँ

अब कोई नहीं रहता


साफ सुथरी बात

यहाँ अब कोई नहीं कहता

अदना सा वाज़िब विरोध

अब कोई नहीं सहता


छोटी बड़ी भूल पर भी

लोग पछताना भूल गए हैं

लोग शरमाना भूल गए हैं


हादसा कुछ हुए बिना

कोई किसी के घर नहीं जाता

मतलब कुछ सधे बिना

कोई किसी को नहीं बुलाता

मिलने बतियाने के लिए

किसी का जी नहीं अकुलाता

बेखौफ जिसे सुना करते थे

लोग अब वो गाना भूल गए हैं

लोग शरमाना भूल गए हैं

 


सबसे बड़ा कलाकार


आने वाले कल को

देता है खूबसूरत आकार

सबसे बड़ा कवि कलाकार

दां ओसा कर

साफ किये गए अन्न की तरह 

बटोरता है वह शब्द

वक्त बेवक्त के लिए

घर में या बाहर

दुनिया के किसी कोने में

जब जब बढ़ती है

अनर्थकारी सक्रियता

सोते से जगाती

ख़बरदार करती

होती है कवि की कविता

एक सजग पहरेदार

आने वाले कल को

देता है खूबसूरत आकार

सबसे बड़ा वही कलाकार।



सम्पर्क


बलराज पाण्डेय

मोबाइल : 8052050102

टिप्पणियाँ

  1. बलराज पाण्डेय जी की पांचों कविताएँ छोटी-छोटी हैं लेकिन गहरे अर्थ, भाव और सबसे बड़ी बात आज के सच का स्पष्ट प्रकाट्य है

    बहुत सुन्दर

    जवाब देंहटाएं

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