जीवन सिंह का आलेख 'रेणु की कहानियाँ और जीवन-रस'।
फणीश्वरनाथ रेणु |
फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी का मूल है - अंचल। वह अंचल जो विकास की तमाम अवधारणाओं और योजनाओं के बावजूद आज भी पिछड़ेपन का दंश झेल रहा है। इस अंचल के लोगों की नियति है 'अभाव का जीवन'। रेणु अपनी सूक्ष्म दृष्टि से उस 'जीवन रस' की तलाश करते हैं जो अभाव को दरकिनार कर अपना अलमस्त जीवन जीता है और अभावों के बीच ही खुशियों के बहाने खोज लेता है। रेणु पर पहली बार के प्रस्तुतिकरण के क्रम में आज प्रस्तुत है वरिष्ठ आलीचक जीवन सिंह का आलेख 'रेणु की कहानियाँ और जीवन-रस'।
रेणु की कहानियां और जीवन—रस
जीवन सिंह
जीवन—यथार्थ की कहानियां और बहुतों ने लिखी हैं किन्तु रेणु ने अपने अनुभव से जीवन—रस की कहानियां लिखी और उनके भीतर से उस यथार्थ को भी व्यक्त किया जो जीवन में दुखों के भीतर से आनंद का अन्वेषण करता है या आनंद के मार्फ़त दुखों की और दुखों के मार्फ़त आनंद की कहानी कहता है। साहित्य को हमारे यहाँ पुराने समय से ही आनंद की खोज कहा गया है। इस बारे में आचार्य रामचंद्र शुक्ल का एक प्रसिद्ध निबंध “काव्य में लोकमंगल की साधनावस्था” याद आता है जिसमें उन्होंने साहित्य का विभाग करते हुए उसे दो वर्गों में बांट कर देखा है। एक वर्ग है आनंद की सिद्धावस्था का जबकि दूसरा है आनंद की साधनावस्था का। लेकिन तीसरा वर्ग उस साहित्य का भी हो सकता है जिसमें उक्त दोनों पक्ष घुलेमिले रहते हैं। कहना न होगा कि रेणु का पक्ष इस मामले में तीसरा है। वे अपनी कहानियों की शुरुआत प्रेम और सौन्दर्य से करते हैं और उन्हीं के बीच से जीवन के उस संघर्ष पक्ष को भी प्रस्तुत करते हैं जो प्रेम और सौन्दर्य मार्ग की बाधा बनता है। फिलहाल मेरे सामने उनकी वे नौ कहानियाँ हैं जो 1973 में राजपाल एंड सन्ज़, दिल्ली ने प्रमुख कहानीकारों की “मेरी प्रिय कहानियां” पुस्तकमाला के अंतर्गत प्रकाशित की थीं यद्यपि इसमें भी रेणु यही कहते और मानते हैं कि उनको अपनी कोई भी कहानी अप्रिय नहीं है। एक ज़माना था जब उनको भी कई आलोचकों ने “जीवनदर्शनहीन–अपदार्थ—अप्रतिबद्ध–व्यर्थ-रोमांटिक प्राणी” कहा जिनका उल्लेख रेणु ने इस संकलन की भूमिका में किया है। उन्होंने इसके बावजूद जो सार रूप में कहा है कि “अपनी कहानियों में मैं अपने को ही ढूंढता फिरता हूँ अपने को अर्थात आदमी को”। वैसे तो हर कहानीकार अपनी कहानी में अपने ही आदमी को ढूंढता है किन्तु यह आदमी सबका एक जैसा नहीं होता। देखने की बात यह है कि रेणु का यह आदमी कौन—सा है और इसका व्यक्तित्व कैसा है? यह कोई एक आदमी है या इसमें कई व्यक्तित्व एक जगह पर घुलेमिले हैं। इस तरह के कई प्रश्न इन कहानियों को पढ़ते हुए उपस्थित हुए बिना नहीं रहते। हमको मालूम है कि जिस समयावधि में रेणु कहानी लिख रहे थे वह देश को आज़ादी मिल जाने का युग था। कहा जाता है कि आज़ादी मिलने के साथ हमारे यहाँ कविता और कहानी में नयेपन की आहट सबसे अधिक हुई थी जिसके आधार पर उस समय की कविता और कहानी दोनों को ही नयी विशेषता लगाकर “नयी कविता” और “नयी कहानी” जैसे प्रत्ययों से संबोधित किया गया। यह अलग बात है कि यह नयापन किस तरह का था और कौन से रचनाकार थे जो इसको वास्तव में ला रहे थे। हुआ यह कि नयी कविता को अज्ञेय ने लपक कर अपनी तरह से नयी कविता की रचना और चर्चा-परिचर्चा कराई। उसे सामाजिक यथार्थ की सीमाओं से बाहर निकाल कर व्यक्ति—यथार्थ की तरफ मोड़ देने का काम उन्होंने खासतौर से किया। 1943 में आज़ादी मिलने से पूर्व ही “तार सप्तक” जैसी महत्वपूर्ण योजना की कमान उनके हाथों में आ गयी थी। उसी योजना में अपना दृष्टि—नियोग करते हुए अज्ञेय ने उसकी दिशा बदल देने का काम किया था। इसी तरह से “नयी कविता” की तर्ज़ पर “नयी कहानी” आन्दोलन को मोहन राकेश, राजेन्द्र यादव और कमलेश्वर की त्रयी ने उसे शहरी मध्यवर्ग की जीवनानुभूतियों की तरफ मोड़ कर शेष जीवन–यथार्थ को हाशिये पर डाल दिया था। जबकि इन तीन कथाकारों से ज्यादा सार्थक और रचनात्मक काम उस समय रेणु और अमरकांत जैसे वे कथाकार कर रहे थे जो उसे शहरों से खींच कर अपने मैले अंचलों में ले गए थे। इसका मतलब यह नहीं कि शहरी जीवन महत्वपूर्ण नहीं था। बात दरअसल उस जीवन की थी जो जीवनगत मूल्यवत्ता होने के बावजूद अभिशप्त रह गया था। आज़ादी के लाभ से जिसे वंचित किया जा रहा था। यद्यपि उनके यहाँ लोकसंस्कृति के सौन्दर्य का अपना कोश मौजूद था जिसमें रसप्रिया कहानी के पञ्चकौड़ी मिरदंगिया और मोहना जैसे कलाकार हैं और ‘तीसरी कसम’ कहानी के हिरामन जैसे कला और जीवनमूल्यों के कद्रदान हैं। जहां ‘लालपन की बेगम’ कहानी की उदारमना और कलारसिक बिरजू की मां हैं और संवदिया कहानी के वे हरगोबिन हैं, जो संवाद ले जाने का काम हृदयहीन नौकरों की तरह से नहीं करते। कहना न होगा कि ये मैले अंचल और यहाँ की लोकसंस्कृति का उजला यथार्थ ही उनकी नयी कथाभूमि बना था। जिसके बारे में दूसरे सोच भी नहीं सकते थे। इसी समय नामवर जी ने कहानी—नयी कहानी पर लिखते हुए निर्मल वर्मा के कथा संसार की तरफ ध्यान खींचा था और उन्हीं की ‘परिंदे’ कहानी को हिंदी की पहली ‘नयी कहानी’ घोषित कर दिया था। इसी संदर्भ में जब कहानी की काव्यात्मकत़ा और संगीतात्मकत़ा की बात आई तो निर्मल वर्मा की कथा—भाषा के साथ रेणु की इन विशेषताओं की तरफ भी ध्यान आकर्षित किया गया था। तब नामवर जी ने लिखा था कि निर्मल वर्मा की कहानियों से एक नए गद्य का परिचय होता है। जहां तक उस समय नए गद्य का सवाल है तो कहा जा सकता है कि रेणु भी उस समय एक ऐसा नया गद्य ले कर आये थे - जीवन की सहज अनुभूतियों के संयोग से रचा गद्य। दोनों में फर्क यह था कि जहां निर्मल वर्मा सहजता को गढ़ते हैं वहाँ रेणु उस जीवन में गहरे उतर कर उसे रचते हैं। वे सहज जीवन से अपनी निकटता कायम करते हैं, उसी निकटता से उनकी बोली—भाषा का मुहावरा बनता है और उसी से सहजता। वे शहरी ‘निर्मल’ अंचल को छोड़ कर अपने अंचल के मैले कोने में इसीलिए जाते हैं कि जीवन की उस प्राणशक्ति को दिखला सकें जो नयी सभ्यता के ऊंचे तबकों से तेज़ी से क्षरित होती जा रही थी।
अलबत्ता, रेणु की कहानी का मूल धरातल केवल गाँव ही नहीं, उस अंचल का गाँव है जो विपरीत परिस्थितियों में भी अपने जीवन-रस को बचाए हुए है। हो सकता है अब उस समय के गाँव और अंचल भी नहीं रहे हों। लेकिन आज भी यह स्मृति तो है ही। दुःख की बात यह है कि इस समय सभ्यता जिस दिशा में जा रही है उसमें जीवन का यह रस ही सबसे अधिक क्षरित हुआ है। कहना न होगा कि इस समय सभी इलाकों में जीवन—समृद्धि तो आई है किन्तु विषमता की खाई गहरी होते जाने से जीवन—रस सूखता चला गया है। देश को आज़ादी मिलने के बाद ही जब रेणु ने कहानियां लिखी थी उस समय तक जीवन में यह रस मौजूद था। जो ज़िंदगी को ऊपरी सतह से देखने वालों की समझ में नहीं आ पात़ा था। रेणु ने जब अपने अंचल को देखा—समझा होगा तब इस रहस्य को उन्होंने पकड़ने की कोशिश की कि देश के ये ग्रामीण अंचल अपने मैलेपन के साथ जीवित कैसे बने हुए हैं? इनमें इतने अभाव, दारिद्र्य, साधनहीनता, अन्याय और उत्पीडन होने के बावजूद इतना उत्साह और उमंग कैसे बची हुई है? इनका बाहरी क्षरण बहुत तेज़ी से होने पर भी इनका आतंरिक रस कैसे नहीं सूखा है? इसी सवाल का उत्तर रेणु की कहानियों में मिलता है। इसीलिए ये अलग तरह के मनोविज्ञान की कहानियां है। उनमें संगीत तत्व की तरंगे इसीलिए उठती रहती हैं। इस रूप में ये उस परम्परा की कहानियां हैं जिसकी परम्परा को ग्रामांचल के जीवन ने बचा कर रखा था। यद्यपि उन्होंने आधुनिक मनोविज्ञान की कहानियां भी लिखीं लेकिन जो बात उनकी संस्कृतिधर्मी आंचलिकता में है वह बात अन्य कहानियों में नहीं। ये कहानियां उस सामाजिक—राजनीतिक यथार्थ की कहानियां नहीं हैं जो एक लीक की तरह से बौद्धिकों—विचारकों के मन में रूढ़ होकर बैठा रहता है। उन्होंने अपने अंचल के गाँव को घूम कर नहीं, उसके साथ रह कर देखा—जाना है, इसलिए उनकी कहानी देखे और जाने, जाने की कहानी है। इसीलिए उनकी कहानियां उन कहानीकारों से भी अलग और विशिष्ट हैं जिन्होंने ग्रामीण यथार्थ को अपनी कहानी का विषय बनाया। यह विडंबना ही रही कि हमारे यहाँ गाँव को हमेशा से दुःख के पर्याय के रूप में देखा गया या फिर समस्त शहरी विकृतियों से अलग किसी रमणीक मनोरम प्रदेश के रूप में। हमारी समझदारी की ये दो तरह की अतियां रही हैं। इससे हमेशा से गाँव का अधूरा यथार्थ सामने आता रहा है। यह अचम्भे की बात नहीं है कि रेणु की कथाभूमि प्रेमचंद से भी अलग है। उनका जीवन—क्षेत्र ही अलग है। उसका यथार्थ ही अलग है। वे दुःख के यथार्थ से ज्यादा सुख के यथार्थ अर्थात दुख भरी ज़िंदगी के बीच अन्तःसलिला की तरह से प्रवाहित संघर्षमय सुख के आनंद—क्षणों को खोज लेने वाले कलाकार हैं। सच तो यह है कि रेणु जिस तरह से हिंदी कहानी में अपना एक अलग अंचल प्रस्तुत करते हैं उसे वे ही प्रस्तुत कर सकते थे। इसलिए उनकी आंचलिकता रूपधर्मी न हो कर वस्तुधर्मी है जो सिर्फ भाषा को आंचलिक बना देने से नहीं आती। उन्होंने शुरुआत से अपने समय के अंचल को एक कलाकर की दृष्टि से देखा था। उन्होंने जिस ग्रामीण अंचल को देखा था, वह अनेक तरह के अंतर्विरोधों में रहते और उनको जीते हुए भी अपनी आतंरिक आनंद—भावना को अपनी ज़िंदगी के साथ लेकर चल रहा था। इसीलिए उसमें “रसप्रिया” बची हुई थी। मेले—ठेले बचे हुए थे। संगीत नौटंकी बची हुई थी। जीवन का गीत—संगीत और उसकी कला बची हुई थी। लोगों के सुख—दुखों के साथ उनकी सम्बन्ध—भावना और उनके जुड़ाव बचे हुए थे। कहने का मतलब यह है कि जीवन—रस बचा हुआ था। ऐसा प्रतीत होता है कि यह सब बंगाल से सटे हुए अंचल होने की वजह से भी इतना जीवन-समृद्ध रहा हो। लेकिन यह कहा जा सकता है उस समय तक संगीतमय जीवन और जीवन का लोकसंगीत ब्रज—अवध—बुंदेलखंड आदि सभी हिन्दी-जनपदों में बचा हुआ था। ब्रज में रसिया गाने वाले बचे हुए थे, बुंदेलखंड में आल्हा और ईशुरी की फाग गाने वाले। इसका मतलब यह नहीं कि यह कोई संगीत का अखाड़ा-क्षेत्र ही था। यह दरअसल जीवन का संगीत था जो दुखों—अभावों तक की परवाह नहीं करता। जो जातियों की श्रेणीगत उच्चता पर भी प्रहार करता है। यह उदाहरण है कि कला किसी जाति—विशेष की बपौती नहीं होती। इसीलिए रसप्रिया कहानी का पंचकौड़ी मिरदंगिया किसी उच्च जाति या उच्च वर्ण से नहीं है। यह परिस्थितिगत विडंबना है कि उसे अपनी जाति को छिपाना पड़ता है।
जरूरत थी किसी रेणु जैसे अनुभवी और दृष्टिसंपन्न रचनाकार की। कहना न होगा कि ये कलाएं ही थी जो उसके भीतर के इंसान को एक सीमा में बचाए हुए थी। दूसरे ये साहित्य की शब्द—विचार की कला नहीं थी जिसमें व्यक्ति खुद को छिपा लेता है। यह संगीत की कला थी जिसमें कोई खुद को पूरी तरह से डुबो कर ही ‘रसप्रिया’ का कलाकर बन सकता है। यह साधना की कला है इसलिए इसका सच अलग है। रसप्रिया को बचा लेने का मतलब है जीवन—रस को बचा लेना। कहना न होगा कि रेणु की मुख्य कथाभूमि इसी जीवन—रस के प्रवाह से सिक्त रहती है। यही कारण है कि रेणु की कहानियाँ अपने सम्पूर्ण परिवेश को अपने साथ लेकर चलती हैं। ‘लाल पान की बेगम’ कहानी में जब मेले में जाने की तैयारी बिरजू की माँ अपने परिवार के साथ पड़ोसियों को आमंत्रित करते हुए करती है तो उस मोदमय वातावरण में गाडी के बैल भी एक दूसरे को चाटने लगते हैं। यहाँ हमको प्रेमचन्द की ‘दो बैलों की कथा’ नामक कहानी के हीरा-मोती की याद हो आती है। यही है जीवन रस जिसमें मनुष्य ही नहीं पशु—पक्षी भी डूबे हुए हैं।रेणु ने इस अवसर पर लिखा है - “जब तक दोनों बैल दाना-घास खा कर एक दूसरे की देह को जीभ से चाटें बिरजू की माँ तैयार हो गयी।”
रेणु का चेहरा उस समय के कहानीकारों में न सिर्फ नया चेहरा है वरन वह सबसे अलग नज़र आता है। देश को आज़ादी मिल जाने के बाद हिन्दी में जो ‘नयी कहानी’ आयी, जिसमें मध्यवर्गीय जीवन की कहानियों को ही नयी कहानी कह कर प्रचारित और प्रतिष्ठित किया गया था वह कहानी की परम्परा में जितना है उतना ही उससे अलग और अद्वितीय भी। उनकी अद्वितीयता का आधार उनकी जीवन-परायणता है। जीवन के भीतर तक उतर कर उन स्थानों, व्यक्तित्वों और बोलियों का अन्वेषण जो ज़िंदगी में हाशिये की तरह से अलग—थलग पडी रहती हैं। जो केन्द्रीय शक्ति से बाहर रहती हैं। एक जमाने में इन उपेक्षित हाशियों के जीवन को यथार्थवादी रचनाकारों और विचारकों ने वर्गीय नज़रिए से किसानों और श्रमिकों के रूप में देखा था। इसके बावजूद ज़िंदगी में ऐसा बहुत कुछ बचा हुआ रह गया था जो यथार्थवाद की सीमित धारणाओं से भी बाहर था। कहना न होगा कि रेणु उसी का अन्वेषण करते हैं और यह बतलाते हैं कि सर्वहारा की स्थितियों में रहने वाले लोगों में भी एक अलग तरह की अन्तर्निहित आनंदभावना होती है जिसके सहारे वे जीवित रहते हैं। रेणु ने इसी आनंद भावना का अन्वेषण किया था। यह हिंदी इलाकों से उनका अपना आविष्कृत क्षेत्र है जो सबसे अलग और निराला है। एक जमाने में प्रेमचंद जिस तरह से ज़िंदगी में गहरे उतार कर उसके मोतियों को ढूंढकर लाते थे कुछ कुछ वैसे ही और अपने जीवनानुभवों और दृष्टिकोण से रेणु भी लाते हैं जो दूसरों की नज़र से ओझल रहता है। इस मामले में वे प्रेमचंद से भी अलग हैं। उनकी कहानियों को पढ़ते हुए लगता है कि मनुष्य जीवन कितना विविध और कितना अनूठा है। वह दुःख में रोता ही नहीं गाता भी है। वह त्रास में हर समय उसको ज़ाहिर करता हुआ रुदन ही नहीं करता वरन उसी के भीतर रहते हुए नाचता और गाता-बजाता भी है। जो उसकी ताकत बन जाता है। इन नौ कहानियों से अलग इनसे पहले 1944 में प्रकाशित हुई रेणु की एक और कहानी है “पहलवान की ढोलक”। देखने की बात यह है कि यह ढोलक सिर्फ एक वाद्य यंत्र नहीं है वरन एक व्यक्ति की पूरी ज़िंदगी है। इसमें जीवन का आनन्द ही नहीं है वरन उसका जीवन—संघर्ष भी है। यह ढोलक ही नहीं, पूरा जीवन—संगीत है। इसकी ताल और इसका संगीत पहलवान को पहलवान बना देता है। यही रेणु का निरालापन है। कविता में निराला ने जिस तरह से जीवन—संगीत को रचनात्मकता में बदला है, कथा—साहित्य में वही काम रेणु ने किया है। कहना न होगा कि जीवन का जैसा संगीत रेणु के यहाँ है शायद ही पूरे हिंदी कथा—साहित्य में और किसी के यहाँ हो। यह दरअसल जीवन—संगीत ही है जो अभावग्रस्तों, असहायों और उत्पीड़ितों को जिलाए रखता है। वे अपने इसी जीवन-सौन्दर्य के सहारे जीते हैं लेकिन दुःख की बात यह है कि जैसे-जैसे सभ्यता विकसित हो रही है वैसे वैसे वह जीवन–कर्म से उपजे इस सौन्दर्य को भी हाशिये पर रहने वाले इस वर्ग से छीनती जा रही है। यही कर्म—सौन्दर्य उनको आत्महत्या करने से बचाए रहा यह बाद की बात है जब वे आत्महत्या करने लगे। यानी जब उनके जीवन का यह रस सूख गया। जब तक यह रस था तब तक देश में एक किसान ने भी आत्महत्या नहीं की थी। लेकिन आज यह प्रचलन तेज़ी से बढ़ा है। किसान—जीवन को आज अवसाद ने घेर लिया है। प्रेमचंद ने भी अपने ज़मीनी जीवनानुभवों से यह सीख ली थी कि साहित्य—रचना के लिए बहुत बड़ा जीवन—क्षेत्र वह हाशिये के लोगों का जीवन है जो सामाजिक—आर्थिक अन्याय के असीमित और भयावह संकट से गुजर रहा है इसके बावजूद जीवन की रचनात्मकता में उसकी अपरिहार्य भूमिका है। उसकी खासियत यह है कि वह उच्च और मध्यवर्ग की तरह से परोपजीवी, परावलम्बी और तिकड़मी—जुगाडू तथा छल—कपट में लिप्त रहने वाला अनैतिक वर्ग नहीं है। वह मध्य वर्ग की तरह से क्रीतदास भी नहीं है। दरअसल पूंजीवादी सभ्यता अनैतिकता को जैसे जीवन—संग्राम का एक विशेष हथियार बना देती है। इस व्यवस्था में अनैतिक क्रियाशीलता इतनी बढ़ जाती है कि जब हम प्रेमचंद और रेणु की कथा—संसार से गुजरते हैं तो वह बेहद राहतकारी महसूस होता है। उनके कुछ वर्ष बाद एक बड़े उत्तराधुनिक चिन्तक मिशेल फूको ने भी इस छिपे हुए जीवन—सत्य को उठाया कि हाशिये पर उपेक्षितों का जीवन जीने वालों को जाने—समझे बिना यह संभव ही नहीं है कि सत्य का उदघाटन किया जा सके। बहरहाल रेणु ने अपनी प्रमुख और सर्वाधिक पसंद की गयी कहानियों में उन लोगों की जीवन—गाथा ही प्रमुख से है जो अपनी मेहनत पर जीते हुए एक सौन्दर्यपूर्ण समाज का निर्माण करते हैं।
रेणु की कहानी कला का महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि उनके यहाँ अभिधा—कथन से ज्यादा अर्थ—व्यंजना की कला का रचनात्मक प्रक्षेपण पाठक के मन में उत्साह भाव का संचरण करता रहता है। सच में तो वे व्यंजना के कथाकार ज्यादा हैं। यही वजह है कि वे कथा से ज्यादा संवाद रचते हैं और जीवन के उस नाटक को रचते हैं जो बाहर से ज्यादा व्यक्ति या व्यक्तियों के भीतर चलता है। उनकी भाषा में जो आंचलिकता है वह भी उनकी व्यंजना शक्ति को समृद्ध करने के लिए है। हमारी बोलियाँ न जाने कितनी लाक्षणिकताओं और व्यंजना की शक्तियों को अपने भीतर समेटे हुए हैं। उनकी कहानी व्यक्ति के बाहर से ज्यादा उसके भीतर की कहानी है। चाहे वह रसप्रिया की रमपतिया हो या मिरदंगिया, या तीसरी कसम का हिरामन हो या हीराबाई, इन सभी के यहाँ एक कहानी बाहर चलती है तो इसके समानांतर दूसरी इनके भीतर। भीतर की कथा प्राकृतिक है जबकि बाहर की सामाजिक। भीतर एक तरह का मौन है जो सामाजिकता के दबाव से मुखर नहीं हो पात़ा। मिरदंगिया को मालूम है कि चाहे वह रसप्रिया का कितना ही बड़ा कलाकार है लेकिन सामाजिकता में वह अपनी जातिगत हैसियत से किसी ब्राह्मण बच्चे को बेटा नहीं कह सकता है। वह मोहना के रूप पर मुग्ध हो कर उसे बेटा कहना चाहता है किन्तु वह इसके हश्र को भी जानता है। कहानीकार लिखता है “बेटा कहते-कहते वह रुक गया -परमानपुर में उस बार एक ब्राह्मण लड़के को उसने प्यार से ‘बेटा’ कह दिया था। सारे गाँव के लड़कों ने उसे घेर कर मारपीट की तैयारी की थी - बहरदार हो कर ब्राह्मण के बच्चे को बेटा कहेगा? मारो साले बुड्ढे को घेर कर ,,,,,,मृदंग फोड़ दो।” ऐसे समाज में मौन की भूमिका बहुत बड़ी होती है। इसीलिए मिरदंगिया स्वयम को छिपाता है। वह जानता है कि जोधन गुरु जी की विधवा बेटी रमपतिया उससे प्रेम करती है, वह भी करता है। इसी प्रेम की पैदाइश है मोहना, जिससे मिरदंगिया प्यार ही नहीं करता, उसकी ज़िंदगी का भी पूरा ख्याल रखता है। उसकी बीमारी से चिंतित रहता है। लेकिन वह उससे चुमौना करने का साहस अपने जाति की वजह से नहीं कर पाता। वह जानता है कि जब अपनी जाति की वजह से वह किसी ब्राह्मण बच्चे से बेटा भी नहीं कह सकता तो ब्राह्मण लडकी से विवाह कैसे कर सकता है? यह समाज ऐसी बातों पर ‘माब लिंचिंग’ करते देर नहीं करता। आश्चर्य की बात यह है कि इस मामले में आज भी हालात बहुत नहीं बदले हैं। इतना जरूर है कि जैसे-जैसे नयी सभ्यता बन रही है वैसे वैसे जीवन में से उल्लास के ये पुराने स्रोत तेजी से सूख रहे हैं। कहानीकार इस चिंता को भलीभांति दर्ज करता है “जेठ की चढ़ती दोपहरी में खेतों में काम करने वाले भी अब गीत नहीं गाते हैं। कुछ दिनों के बाद कोयल भी कूकना भूल जायेगी क्या?”
लेकिन प्रेम और रोमान की प्राकृतिक कथा अपनी जगह पर चलती रहती है। कभी सीधे—सीधे अभिधा में तो कभी व्यंजना में, कभी मौन तो कभी मुखर। लेकिन ज्यादा मौन ही है जो सारी कहानी कहता है। रोमान की प्राकृतिक कथा दो ऐसे हृदयों की कहानी है जिस पर सभ्यता के आवरण नहीं पड़े हैं। सामाजिक कथा पर आवरण है, भय है, मर्यादाओं की मिथ्या बंदिशें हैं। यदि यहाँ प्राकृतिक सौन्दर्य भावना की समानांतर चलती प्रेम कथा न हो तो सामाजिक कथा निष्प्राण हो जायगी। रसप्रिया के मिरदंगिया और रमपतिया के बीच दो हृदयों का प्रेम उनकी कला—भावना से पैदा हुआ प्राकृतिक प्रेम है जिसे सभ्यता का एक संकीर्ण आवरण वास्तविकता में रूपांतरित नहीं होने देता। जाति इनके आड़े आ जाती है। दो हृदयों के मिलन के बीच जाति की सामाजिकता का भय आडे आ जाता है। जो जीवन की प्राकृतिक वास्तविकता नहीं है। यह मिरदंगिया की कमजोरी नहीं सामाजिक वास्तविकता है कि हमारे यहाँ की सामाजिकताओं का आधार प्राकृतिक नहीं है। इस तरह से यहाँ तथाकथित रूढ़ सामाजिकता का व्यंजना में विरोध किया गया है। रेणु के यहाँ कथा अपनी स्वभावोक्ति में चलती है। वे अपनी तरफ से कहानी को इधर—उधर नहीं घुमाते। अपनी तरफ से लेखक सिर्फ मानव सम्बन्धों की उन सहज प्राकृतिक स्थितियों का बयान करता है जो मानवता की दृष्टि से जरूरी है। इसलिए उनके यहाँ जो जीवनोल्लास आता है वह भी अपने सहज प्राकृतिक रूप में है उसमें किसी तरह की कोई सज—धज नहीं है। उसमें समारोहिकता भी नहीं है कि उसका कोई दूसरा लाभ मिल सके। वह जीवन का विशुद्ध उल्लास है जिसमें कर्ता और भोक्ता दोनों की सक्रियता है।
रेणु के कथा—साहित्य में सबसे प्रसिद्ध और चर्चित कहानी है – ‘तीसरी कसम अर्थात मारे गए गुलफाम’। इस कहानी पर फिल्म बन जाने से इसकी ख्याति में चार चाँद लग गए। वैसे भी हिंदी में ग्रामीण अंचलों के गरीबों के दुःख—दर्दों की कहानियां तो खूब लिखी गयी किन्तु उनके जीवन रस को ले कर यथाप्रसंग उल्लेख जरूर हो गए लेकिन रेणु की तरह उनके जीवनोल्लास और रोमान को केंद्र में रख कर नहीं के बराबर लिखा—कहा गया। अपने अंचल की इस ताकत और जीवनोर्ज़ा को जब रेणु ने रचनात्मकता प्रदान की तो यह वास्तव में ‘नयी कहानी’ का एक नया अध्याय माना गया। गाँव में रहने वाला और मेहनत करके जीवित रहने वाले गरीब के भी कोई ह्रदय होता है, उसका दिल भी किसे के लिए धड़क सकता है यह एक तरह के टाइप्ड सोच के बाहर था। रेणु ने इसी नए अध्याय को खोला जिसमें तीसरी कसम जैसी कहानी की महत्वपूर्ण भूमिका है। इसमें प्रेम का एक ऐसा प्राकृतिक स्वरुप व्यक्त हुआ है जो दो हृदयों की भाषा में बिना कुछ कहे व्यक्त होता रहा है। दरअसल प्रेमाभिव्यक्ति की जो यह व्यक्त—अव्यक्त कला रेणु के यहाँ है वही इनको विशिष्ट कथाकार बनाती है। इसकी खासियत यह है कि इस प्रेम में सिर्फ और सिर्फ प्रेम है प्राकृतिक प्रेम जो समाज और उसकी समस्त भौतिक स्थितियों से बने आवरणों को दो प्रेमी स्त्री और पुरुष के बीच से हटा देता है। यहाँ स्त्री और पुरुष संज्ञक नाम तो सामने रहते हैं किन्तु उसके ऊपर पड़े रहने वाले समस्त सामाजिक आवरण दूर हो जाते हैं। यह आकस्मिक नहीं है कि यह कहानी शहर या गाँव—कसबे से बाहर जंगल या रास्तों पर प्रकृति के बीच ज्यादा चलती है। यहाँ जो प्रकृति है जिसका आवरण भी प्राकृतिक ही है। प्रेमभाव और जीवन का सत्य तो यही है इसे कहानी से निकाल दीजिए, कहानी का प्राण ही निकल जाएगा। किन्तु यह भी सत्य है कि व्यक्ति को रहना और जीना तो उसी समाज में पड़ता है जिसमें सभ्यता के विकास होने के साथ साथ प्राकृतिक स्थितियों के लिए ज्यादा जगह नहीं रह गयी है। प्रकृति के समापन से संस्कृति जन्म लेती है। वही संस्कृति है जो प्राकृतिक रिश्तों में आड़े आती है। जिससे दो हृदयों के बीच एक पर्दा आ जाता है। प्राकृतिक स्थिति तो यह है कि कलांगना हीराबाई की गाडी में उपस्थिति मात्र से हिरामन की पीठ में गुदगुदी होती रहती है। एक बार नहीं बार-बार। इस गुदगुदी का कोई सामाजिक अर्थ नहीं है। सिवाय इन्द्रियबोधक अर्थ के। लेकिन इसके अर्थ की खुशबू दूर-दूर तक फैलती है। यह होती है तो होती ही है। कोई जनानी सवारी उसकी गाडी में पहली बार बैठी है। उसके बैठते ही वह मन ही मन कहता है कि “यह औरत है या चम्पा का फूल, जब से गाडी में बैठी है गाडी मह—मह–महक रही है।” उसका सौन्दर्य तो किसी परी जैसा है। यहाँ पर यह एक पक्ष है एक चालीस साल के पत्नीविहीन विधुर हिरामन का स्त्री—संग। उसने बैलगाड़ी में सामान ढोने का धंधा किया है। कभी ब्लेक का सामान ढोया तो कभी लम्बे-लम्बे बांस। एक बार सर्कस का बाघ भी ढोया है और दोनों बार कुछ न कुछ ऐसा धोखा हुआ है कि उसने अब चोरी—चकारी का सामान और कभी बांस न ढोने की दो कसम खा ली हैं। यह तीसरी बार है कि वह इस बार जीवित और वह भी एक खूबसूरत स्त्री को एक सवारी की तरह ले जा रहा है। अपने जीवन में माल ढोने का काम तो उसने खूब किया हैं। चूंकि गाडीवान है इसलिए रोजाना ही माल ले कर कहीं न कहीं जाना ही पड़ता है किन्तु इस तरह की सौन्दर्यानुभूतिपूर्ण यात्रा वह पहली बार कर रहा है। यह उसके जीवन की एक अलग तरह की यात्रा है। जिसमें लोककथा, गीत—संगीत सभी कुछ तो है। जिसमें सबसे बड़ी बात है कि प्रकृति का साहचर्य भी है। यह एक गतिशील कहानी है। दो पहियों और दो बैलों के साथ उनकी ऊर्जा से चलने वाली कहानी तो यह है ही, इसमें जीवन के कितने ही रंग और उसका रस घुला हुआ है। इसका मतलब यह नहीं है कि इसमें जीवन—व्यापार नहीं है। व्यापार न हो तो यह संसार कैसे चले? लेकिन यह क्या है कि एक सुन्दरी ने उसकी गाडी में बैठ कर उसके जीवन में गुदगुदी पैदा कर दी है। कभी उसकी नाक पर जुगनू चमकता है तो कभी वह चांदनी में नहाई हुई साक्षात परी सी लगती है। उसके साहचर्य से हिरामन की सौन्दर्य—भावना जागृत हो जाती है। जैसे उसके भीतर का कवि जाग गया है। इसके आतंरिक रहस्य को फ्रायड सरीखे मनोविश्लेषणशास्त्रियों ने जानने की कोशिश की है। और आज भी कई उत्तर—आधुनिक विचारक मन के आंतरिक रहस्य को खोलने का प्रयास कर रहे हैं। सच तो यह है कि यह इसी रहस्य को व्यवहार में जानने की कहानी है। लेकिन इस प्रेम में सबसे बड़ी बाधा वही सामाजिक मर्यादा और भौतिक स्थितियां हैं जो उसे अनकहा और अनकिया छोड़ देती हैं। समझने की बात यह है कि तीसरी कसम कहानी में शब्द से ज्यादा क्रियाएं बोलती है। शब्दों से व्यक्त व्यंजनाएं बोलती है। दो हृदयों के बीच चलने वाले भावों के आरोह—अवरोह बोलते हैं। इस कहानी की शुरुआत दो घटनाओं से होती है। जिनमें कहानी की दो कसमें पूरी होती हैं। यह तीसरी कसम है जो कहानी के दो हृदयों को अलग कर देने की वजह से खाई जाती है जिसमें गुलफाम मारा जाता है। कहानी अपने यथार्थ में ही समाप्त हो जाती है। ज़माना बदल रहा है इसलिए उसका यथार्थ भी बदल रहा है। लेकिन यहाँ कहानीकार हिरामन के भीतर के उस कलाकार को भी उभारने से नहीं भूलता, जो उसके भीतर है किन्तु कभी व्यक्त नहीं होता। रास्ता ऐसे ही आपसी संवाद से कटत़ा है। इसी संवाद में से गाडीवान हिरामन का उसका आतंरिक व्यक्तित्व उजागर होता है। वह ज्ञान का शास्त्रीय कलाकर चाहे न हो, जैसी कि हीराबाई है किन्तु अनुभव की लोककला में वह कमजोर नहीं है। जब रास्ते में नामलगर गाँव आता है तो हिरामन यहाँ के राजा के राज चले जाने का प्रसंग जब हीराबाई के आग्रह पर उसे सुनाता है तो वह जिस तरह से अंग्रेज लाटनी की “डैम–फैट—लैट” की नक़ल उतारता है वह इस बात का सबूत है कि उसने भी अपने अनुभव से जीवन की कला को जान लिया है। इस पूरे प्रसंग से प्रसाद जी की कामायनी की ये पंक्तियाँ याद आये बिना नहीं रहती - “है नीड मनोहर कृतियों का, यह विश्व कर्म रंगस्थल है।” इस प्रसंग से यह भी मालूम होता है कि भारतीय जनमानस में अंग्रेजों के प्रति उनके उच्च होने का भाव जिस तरह से घर कर गया था वह हिरामन की बातों से व्यक्त होता है और भारतीय जनमानस की जो मिथकप्रियता और अंधभावुकता रही है और आज भी है वह इस यात्रा को बोझिल होने से बचाती है। इसीलिए इस कहानी में उपन्यास होने के सभी लक्षण मिलते हैं। हमने रसप्रिया कहानी में बिदापत नाच की कला मिरदंगिया जैसे व्यक्तित्व में देखा है। यहाँ बिदेसिया का गीत स्वयम हिरामन गाता है - “जै मैया सरोसती, अरजी करत बानी, हमरा पर होखू सहाई, हे मैया हमरा पर होखू सहाई।”
रेणु की कहानियों को पढ़ते हुए लगता है कि गीत—संगीत के बिना ज़िंदगी निरर्थक है। इस तरह से इस कहानी में गाँव के एक गरीब गाडीवान के कलात्मक व्यक्तित्व की एक कहानी प्रस्तुत कर रेणु गाँव और अंचल की एक नज़र—ओझल वास्तविकता को दिखलाते हैं और सामाजिक यथार्थवादियों को यह बतलाना नहीं भूलते कि दुःख ही जीवन का समग्र यथार्थ नहीं होता। दुःख के साथ उनके सुख और आनंद का भी एक पहलू होता है जो उनके साहस और जीने की लालसा को बनाए रखता है। कहने का मतलब यह है कि जीने की कला केवल धन-संग्रही ही नहीं जानते, वह मेहनतकश गरीब भी जानता है जो इस दुनिया में ज्यादा ईमानदारी से रहता और काम करता है। जिसके मन में उतना लालच नहीं है जितना सौदागरी दुनिया के मन में दिखाई देता है। तभी वह उस सौन्दर्य को अपनी पैनी और पारखी नज़र से पहचान लेता है .... “नदी के किनारे धन—खेतों से फूले हुए धान के पौधों की पवनिया गंध आती है। पर्व—पावन के दिन गाँव में ऐसी ही सुगंध फ़ैली रहती है। उसकी गाडी में फिर चम्पा का फूल खिला। उस फूल में एक परी बैठी है।........ जै भगवती।” यह है ज़िन्दगी का रस, जो लगातार बढ़ता ही जा रहा है। जैसे-जैसे वे मंजिल की तरफ आगे बढ़ते हैं यह जीवन रस दुगुना होता जाता है।“ हीराबाई ने परख लिया, हिरामन सचमुच हीरा है। उसको “सजनवा बैरी हो गए हमार” वाला छोकरा नाच का गीत गाते हुए सुन कर हीराबाई ने एक बार कह भी दिया कि हिरामन तुम कितना अच्छा गाते हो। इसलिए अब वह भैया नहीं, मीता है। यहाँ मीता की व्यंजना में वह सारा रहस्य छिपा हुआ है जो नए जमाने के “गर्ल फ्रेंड’ या “बॉय फ्रेंड” से कुछ कुछ समझा जा सकता है। यद्यपि यहाँ इन दोनों के बीच उस तरह की समानता नहीं है। एक ही समानता है उनके भीतर के कलाकार की समानता और मनुष्यता के सौन्दर्य के प्रति आकर्षण। देखने की बात यह है कि यहाँ सिर्फ रूपाकर्षण वाला फ़िल्मी शारीरिक सौन्दर्य ही नहीं है वरन उसके साथ-साथ प्रवाहित होने वाला वह मानवीय स्रोत भी है जिसकी वजह से हिरामन जैसे लोग उसे अपना सर्वस्व सौंप कर उसे सुरक्षित रखते हुए जैसे उस पर अपना एकाधिकार मानने लगता है। प्रेम में एकाधिकारिता की भावना भी होती है। इसीलिए हिरामन रास्ते में अपनी हीराबाई को अन्य लोगों की आँखों तक से बचाता है। प्रेमभाव के सतत प्रस्फुटन की यह अन्तरंग मनोविज्ञान की कहानी जैसे जैसे आगे बढती है, किसी फूल की तरह एक एक पंखुड़ी खिलती जाती है। अपनी इन्ही विशेषताओं के कारण यह कहानी एक विशिष्ट बहुआयामी कहानी बन जाती है।
प्रेम ही एक ऐसा संश्लिष्ट और सर्वव्यापी भाव है जिसमें मनुष्य की सभी इन्द्रियाँ एक साथ काम करती हैं। यहाँ गंध—स्पर्श –श्रवन और दर्शन को खुलते और खिलते हुए महसूस किया जा सकता है। कहानी के एक प्रमुख आलोचक सुरेन्द्र चौधरी ने इसको रेणु का “गंध—परिवेश” कहा है। इस कहानी में बीच बीच में हिरामन का अपने दोनों बैलों से जो संवाद चलता है वह भी इसकी नाटकीयता में अपने रंग भरता है और वही प्राणिमात्र से मनुष्य का सम्बन्ध—विस्तार भी करता है। पशु—पक्षी हमारे जीवन को कितना सजाते—संवारते हैं यह प्रेमचंद—रेणु जैसे कथाकारों की कहानियां पढ़ कर जाना जा सकता है। देखने की बात यह है कि जीवन—यात्रा पूरी करते हुए दो मनुष्यों के बीच में दो बैल भी किस तरह से अपनी भावनाओं को प्रकट करते हैं इसे बताने से भी कहानीकार से कहीं चूक नहीं हुई है। इस तरह से यहाँ पशुओं की मूक भाषा भी इस कहानी का एक नया आयाम बनाती है। वह तो इस कहानी का भावोत्कर्ष है जब तेगछिया गाँव के बच्चे, मर्द, औरतें हीराबाई को हिरामन की दुल्हन समझ कर “लाली लाली डोलिया में लाली रे दुलहिनिया” गाने लगते हैं। लेकिन हिरामन के लिए यह सब झूठ है। सच में वह उसकी दुलहिनिया नहीं है। उनको भ्रम हुआ है। इसकी काट करते हुए वह अपना गीत गाता है----- “सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है।” ज़िंदगी की सचाइयों को कहने वाले गीतों को बीच-बीच में पिरो देने की यह कला केवल मनोरंजक नहीं है वरन यह अपने साथ जीवन के रहस्यों को साथ ले कर कहानी को कई आयामों में विस्तृत करती है। कहानी के एक और गंभीर आलोचक और कहानीकार अरुण प्रकाश ने तीसरी कसम कहानी के संदर्भ से सही कहा है कि “रेणु से हमने अपने अंचल से प्रेम करना सीखा है।“ यह अलग बात है कि यह प्रेम शहरी मध्यवर्गीय नागरिक से बड़ी कीमत वसूलता है इस वजह से ज्यादातर अपने अंचलों से दूर रहने में ही अपनी भलाई समझते हैं। आज मुट्ठी भर लोग भी नहीं होंगे जो प्रेमचन्द और रेणु की कहानी पढ़ कर अपने अंचलों से प्रेम करते हों। बहरहाल हिरामन अपने साती गाडीवानों के साथ हीराबाई से फ्री पास प्राप्त करके गुलबदन—गुलफाम नौटंकी देखने जाता है और वहाँ एक स्त्री कलाकार के प्रति दर्शकों के सामन्ती और पुरुषप्रधान रवैये को देखकर ऐसे लोगों से वे भिड़ भी जाते हैं। दरअसल व्यक्ति जिससे प्रेम करता है उसकी हर तरह से हिफाजत भी करता है। प्रेम की विशेषता ही होती है कि यहाँ प्रेमी अपने प्रिय में कोई दोष नहीं देखता, जो देखने की कोशिश करता है उससे वह उसे बचाता है। उसके लिए जूझ पड़ता है। इस तरह से प्रेम को यहाँ एक सक्रिय भाव की तरह से दिखाया गया है। वह केवल भाव नहीं है वरन भाव का व्यवहार भी है। सामान्यतया प्रेम की व्यावहारिकता को इस तरह से दिखाना यह बतलाना भी है कि यह जीवन को सबसे अधिक सक्रिय करने वाला समर्पण भाव है जहां एक मानवीय पवित्रता और नैतिकता का अजस्र प्रवाह इसके साथ साथ चलता रहता है लेकिन इसमें भी यदि कोई बाधा और अवरोध है तो वह व्यक्ति की अपनी चाह और उस परिवेश की, अपने उस वर्ग की जिसमें वह रहता ही नहीं उनसे मुक्त नहीं हो पाता। यहाँ हीराबाई और हिरामन एक वर्ग के नहीं हैं इसलिए यह तीसरी कसम के रूप में बदल जाता है कि अब वह आगे से अपनी गाडी में किसी कंपनी की औरत को नहीं बैठाएगा। हिरामन जानता है कि यह गाडी लादने का काम वह रूपये—पैसे के लिए ही कर रहा है किन्तु प्रेम के मार्ग में यही रुपया—पैसा सबसे बड़ा अवरोधक है। यही है जो आदमी सा डमी को दूर करता है यही है जो देशों के बीच ऊद्ध कराता है, यही है जो भाई से भाई को लडवाता है। सरे झगडे—फसादों की जड़ यही है इसीलिए तो जब हीराबाई लौटते हुए रेल में चढ़ती है और चादर खरीदने के लिए अलग से कुछ रुपये देती है तो वह इसे स्वीकार नहीं करता। वह बतला देता है कि वह हीराबाई की तरह से रुपयों का भूखा नहीं है तभी तो वह कहता है -
“हिरामन की बोली फूटी, इतनी देर के बाद - इस्स, हरदम रुपया-पैसा, रखिए रुपैया ---क्या करेंगे चादर?
हीरा बाई का हाथ रुक गया। उसने हीरामन के चेहरे को गौर से देखा। फिर बोली - तुम्हारा जी बहुत छोटा हो गया है। क्यों मीता ? — महुआ घटवारिन को सौदागर ने खरीद जो लिया है गुरु जी।”
कुछ लोग यह मानते हैं जैसे कि अरुण प्रकाश ही कहते हैं कि “रेणु की कहानियों में वर्गीय दृष्टि नहीं मिलती। अंतर्विरोधों का टकराव नहीं, बस अंतर्विरोधों का सामंजस्य दिखता है। टकराहट से इतना दुःख है कि उसकी आहट भी नहीं मिलती। सौन्दर्य के आप्लावन में रेणु इसकी अनदेखी कर देते हैं। “क्या हीराबाई और हिरामन के उपर्युक्त संवाद में उस वर्गीय दृष्टि का संकेत नहीं है जिसमें हिरामन हीराबाई द्वारा चादर खरीदने के लिए दिए जा रहे रुपयों को लेने से इन्कार ही नहीं करता वरन मानवीय सम्बन्ध के बीच में रुपयों को सबसे बड़ी अड़चन भी मानता है। इसे स्वयं हीराबाई भांप जाती है और महुआ घटवारिन की कथा की याद दिलाती है जिसमें महुआ को सौदागर खरीद लेता है। क्या इसी सौदागरी ने उनके बीच अवरोध नहीं खडा किया है। कहना न होगा कि कहानी के अंत का यह निष्कर्ष अपनी व्यंजना में वर्गीय दृष्टि के बिना आ सकता था? बहरहाल यह कहानी एक तरह से जीवन की अर्थ—व्यंजनाओं का एक कोश जैसी है।
यह सर्वविदित तथ्य है कि रेणु जब साहित्य की दुनिया में आये थे तब अपने साथ न केवल जीवन का एक नया परिसर भी अपने साथ लाये थे वरन उसके साथ उसकी अपनी बोली—भाषा और रूप-शिल्प भी। उस समय के साहित्यकारों में खासकर कविता और कहानी में नवीनता के लिए अतिरिक्त आग्रह दिखाई देता था। देश को नयी नयी आज़ादी मिली थी इसलिए सभी दिशाओं में नया ही नया नजर आने लगना स्वाभाविक था। सचमुच नयेपन की लहर का यह ज़माना बड़े संघर्षों के बाद आया था। लेकिन सवाल यह था कि यह नया क्या और किस तरह का नया हो। सभी के पास अपने अपने नए थे। किसी के पास कुछ तो किसी के पास कुछ। यह दरअसल नवोंमेषियों का दौर था जिसमें यदि कोई पूरी तरह से सर्वथा नया था तो यह रेणु जैसे साहित्यकारों का अपना नया अंचल था जिसे उन्होंने खुद ही “मैला आँचल” नाम दिया था। लेकिन इस मैले में बहुत कुछ उजला भी था, जिसे रेणु ने बहुत नज़दीक से देखा-समझा और जाना था। इससे पहले जो हिन्दुस्तान था वह अंगरेजी और मध्यवर्गीय खडी बोली का हिन्दुस्तान था। उसमें प्रेमचंद किसान और मजदूरों के जिस ग्राम—देहात को लाये थे, लेकिन उसे भी धीरे-धीरे अपदस्थ किया जा रहा था। खडी बोली हिंदी के भाव और विचार विस्तार को सिकोडा जा रहा था। उसे मध्यवर्गीय ज़िंदगी की सीमाओं में बांधा जा रहा था। ऐसे में उसे नवीनता प्रदान करने के लिए रेणु मध्य वर्ग से बाहर उसे बोलियों के ठेठ अंचल में ले गए तो यह एक तरह से उस समय क्रांतिकारी कदम था। उस समय भी अनेक मध्यवर्गीय लेखक—पंडितों ने इसका स्वागत नहीं किया था। यह लगभग उसी तरह की टकराहट थी जैसे कभी भाषा के सवाल को लेकर तुलसी और काशी के संस्कृत पंडितों के बीच हुई थी। बहरहाल यह ज़िंदगी का एक नया मैदान था जिस पर रेणु को मिरदंगिया, हिरामन, बिरजू की माँ, हरगोबिन आदि जैसे नए चरित्र मिले और इनके साथ मिला इनका नया परिवेश, नए रूप—रंग, मेले—ठेले, जीवन—यात्राएं और श्रममय जीवन का नैतिक बोध।
उनकी प्रिय एवं चर्चित कहानियों में एक है “लालपान की बेगम”। ‘लालपान की बेगम’ नाम व्यंग्य में दिया हुआ है। जो नयी समृद्धि का सूचक भी है। इस कहानी में बिरजू की माँ की मेले में जाने की जो उत्कट लालसा है उसमें एक उपभोक्ता से ज्यादा उसमें तदाकार हो जाने की भावना और प्रवृति दोनों है। वह सिर्फ मेला जाना नहीं है वरन उसमें संलग्न होना है। उसको अपने जीवन का हिस्सा बना लेना है। मेले का मतलब है अपनी एकलता का त्याग कर बहुलता में सम्मिलित होना। इसी सामूहिक भाव के लिए बिरजू की माँ की व्यग्रता मूल्यधर्मी स्तर तक जा पहुँचती है। उस समय उसके ह्रदय की उदात्तता को देखा जा सकता है जब मेले में जाने के लिए उसका पति बैलगाडी ले आता है। तब वह उस जंगी की बहू को भी मेले में ले जाने के लिए आमंत्रित करती है जो थोड़ी देर पहले उसका मजाक बनाते हुए उसे लालपान की बेगम कह रही थी। यह दरअसल कर्मशीलता से पैदा हुई उदात्तता है जो ज़िन्दगी से सामीप्यता का क्षरण नहीं होने देती। साथ ही इसमें वह तनाव भी है जो गाँव में आ रही नयी सम्पन्नता से पैदा हुआ है और जिसका सबसे पहले और सबसे ज्यादा असर घरों की महिलाओं के मनोविज्ञान पर होता है। जहां अपने वाहन से मेले में जाना ही प्रतिष्ठासूचक होता है। बिरजू के परिवार को सर्वे में पांच बीघे जमीन मिली है इसमें पात की फसल खडी है। इसी से लोगों में जलन पैदा हो गयी है। इसके बावजूद गाँव की संस्कृति में अभी भी सहयोग और सहकारिता का भाव बचा हुआ है। उसी की कहानी है “लालपान की बेगम”। संवदिया कहानी में भी गाँव की उस एकतानता का स्वर मौजूद है जो अभावों के बावजूद गाँव को एक सम्बन्धसूत्र में उस समय तक पिरोये हुए था। इसी सम्बन्ध—भावना को दरसाने के लिए रेणु ने “संवदिया” कहानी का सृजन किया है। गाँवों से सामन्तवाद टूट रहा है किन्तु इसका मतलब यह नहीं कि गाँव से उसकी सम्बन्ध–सूत्रता भी टूट रही है। संवदिया के रूप में वह अभी बची हुई है। रेणु की अन्य कहानियों की तरह से यह कहानी भी गीतशून्य नहीं है। यद्यपि यह कोई लम्बी कहानी नहीं है। एक संदेशवाहक की सन्देश प्रधान कहानी। व्यक्ति के भाव-क्षेत्र की एक मर्मस्पर्शी कहानी। “एक आदिम रात्रि की महक” और “जलवा” कहानियों के अलावा “आत्मसाक्षी” कहानी भी रेणु की एक महत्वपूर्ण, उल्लेखनीय और कुछ अलग तरह की राजनीतिक जीवन के यथार्थ को उद्घाटित करने वाली कहानी है। यह वामपंथी राजनीति में एक बेहद ईमानदार, जुझारू और त्यागपूर्ण कर्मठत़ा के अंत होने की कहानी है। कोई भी पार्टी निचले स्तर के कार्यकर्ताओं द्वारा खडी की जाती है और उन्हीं के द्वारा वह समाज में अपनी जगह भी बनाती है लेकिन यह विडंबना है कि उनको चलाते वे लोग हैं जो उस इलाके की न बोली—भाषा जानते हैं और न ही वहाँ के लोकजीवन के यथार्थ को। इसका परिणाम होता है कि कार्यकर्ता की जगह पर पार्टी की दफ्तरशाही प्रबल हो जाती है जिससे उसे टूटने और बिखरने या निष्क्रिय होते जाने से नहीं रोका जा सकता। जैसे इस कहानी में गनपत है लेकिन काम करते रहने और ऊपर के आदेशों का पालन करते रहने के अलावा उसकी कोई अपनी भूमिका और अनुभवजन्य प्राप्त ज्ञान तक की अहमियत नहीं है। वह सिर्फ एक कार्यकर्ता है जैसे पार्टी का बंधुआ मजदूर। पार्टी टूट जाती है और उसे भनक भी नहीं लगती जबकि अपने इलाके में प्राणों की बाज़ी लगाकर उसने पार्टी को खड़ा किया है। लेकिन धीरे-धीरे पार्टी संचालन की भी एक रूढ़ पद्धति बन जाती है जिसका परिणाम होता है कि वामपंथी कम्युनिस्ट दल भी सरकारी दफतरों की तरह से चलने लगते हैं। और इस प्रक्रिया में गनपत जैसे ज़मीनी ईमानदार और कर्मठ कार्यकर्ताओं को पिसना पड़ता है। यह कहानी स्मृतियों में जा कर गनपत जैसे ज़मीनी कार्यकर्ताओं के त्याग और बलिदान के साथ पार्टी के ऊपर के नेताओं द्वारा किये गए धोखे और विश्वासघात की कहानी में बदल जाती है। इस कहानी में रेणु एक भविष्यदृष्टा लेखक की तरह से जैसे पहले से ही सब कुछ कह रहे हों। विशेष उल्लेखनीय बात यह है कि इस कहानी का मूल पात्र गनपत भी एक गायक है गायकी के बिना जैसे रेणु की कहानी आधी—अधूरी रहती है कयोंकि जहां जीवन—रस नहीं वहाँ कहानी कैसे हो सकती है? रेणु के द्वारा लिखी गयी आधुनिक मन की कहानियी के उदाहरण हैं “अगिनखोर” और “रेखाएं : वृत्तचक्र” जैसी कहानियां, जो उस तरह से उल्लेखनीय नहीं जैसे “रसप्रिया” और “तीसरी कसम अर्थात मारे गए गुलफाम”।
सम्पर्क
जीवन सिंह
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काला कुआ,
अलवर - 301002
मो - 9785010072
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