अनुपम परिहार के दोहे

 

अनुपम परिहार

 

दोहा अपने को व्यक्त करने की वह सर्वाधिक प्रिय विधा है जिसमें भक्ति काल से ही रचनाएँ लिखी और सराहीं गईं। ये रचनाएँ लोगों के बीच काफी चर्चित भी हुई। इनकी लोकप्रियता का आलम यह है कि आज भी कवियों के तमाम दोहे लोगों की जुबान पर हैं। सूक्त वाक्य के रूप में लिखे गए दोहे आज भी जैसे मन मस्तिष्क में बस जाते हैं। कबीर, जायसी, तुलसी, रहीम, रविदास के दोहों से भला कौन ऐसा होगा जो परिचित नहीं होगा। आज के समय में भी दोहे लिखे जा रहे हैं। 'पद-कुपद' में संकलित अष्टभुजा शुक्ल के दोहे काफी चर्चित रहे। अनुपम परिहार ने इधर कुछ चुटीले अंदाज़ वाले दोहे लिखे हैं जिनमें हमारे समय की विडंबनाओं पर करारा प्रहार किया गया है। अनुपम ने अपने लेखन में दोहे के शास्त्रीय पक्ष को भी बखूबी निबाहा है। आज पहली बार पर प्रस्तुत है अनुपम परिहार के दोहे।

 

 

अनुपम परिहार के दोहे।

 

लोकतंत्र की आड़ में, राजतंत्र का राज।
पिता वृद्ध अब हो चला, बेटे के सिर ताज।।(1)



वामपंथ मस्तिष्क में, ना अल्ला न राम।
ऐसे काफ़िर पंथ को, मेरा शिष्ट सलाम।।(2)



टूट रहे रिश्ते सभी, कैसी चली बयार।
इंटरनेट से हो रहा, मां बेटे का प्यार।।(3)



दादी की तेरही हुई, भैया रहे विदेश।
वाट्सएप पर दे रहे, मुझे शोक संदेश।।(4)



माँ कराहती मर गईं, उन्हें नहीं कुछ होश।
पैसे ने उनको किया, पूरी तरह मदहोश।।(5)



कैकेई जीवित रही, कलयुग में    हर रोज़।
सज़ा राम को मिल रही, होंठ हुए सब सोज।(6)



कुछ भी तो बदला नहीं, बदली केवल रीति।
राजतंत्र की जगह पर, लोकतंत्र की नीति।।(7)



धनुष बाण भाले गए, गई ढाल तलवार।
लोकतंत्र में कर रहे, सभी ज़ुबानी वार।।(8)



एकलव्य तो मूर्ख था, दिया अगूंठा काट।
द्रोण अभी मौजूद है, जोह रहा वह बाट।।(9)



प्रश्न और प्रतिप्रश्न पर, खड़ी सियासत रोज़।
जनता उत्तर माँगती, होंठ हुए सब सोज।।(10)

 


 
कलयुग सतयुग झूठ है, सब सत्ता का खेल।
वहाँ विभीषण मिल गया, अपने घर को ठेल।। (11)



सत्ता ही संकल्प है, सत्ता ही उद्देश्य।
तात भ्रात संबंध सब, बिल्कुल हैं निरुद्देश्य।। (12)



हर विकास की आड़ में, छिपा एक अपराध।
मंत्री ने इस मंत्र से, लिया सभी को साध।। (13)



अच्छे दिन की आस में, गई जवानी बीत।
नई बात यह नहीं थी, बड़ी पुरानी रीति।। (14)



मरता केवल व्यक्ति है, शाश्वत है व्यक्तित्व।
कृष्ण बुद्ध दशरथ सभी, वर्तमान अस्तित्व।। (15)



मूल्य सभी हैं मर चुके, गिरवी है ईमान।
वर्तमान में फूल रहे, धूर्त और बेईमान।। (16)



ईश्वर केवल पुरुष हुए, महिला रही अधीन।
उसी हाल में आज भी, हुई नहीं स्वाधीन।। (17)



धर्म-पुस्तकें आ गईं, आसमान से खुद।
अपनी-अपनी डींग है, अपनी अपनी बुद।। (18)



कोई  प्रवचन  दे रहा,   कोई देता  ज्ञान।
अर्थ निमित्त सब कर रहे, सबकी झूठी शान।। (19)



राजनीति गणिका रही, फिर क्यों रहे पुनीत।
श्वेत वस्त्र खद्दर धरे, दिखती बड़ी विनीत।। (20)

 


 
बरगर  पिज़्ज़ा चाउमीन, यही अलापें राग।
ज्वार जवा मकई चना, भूले बथुआ साग।। (21)



टूट रहे रिश्ते सभी, सिकुड़ रहे सम्बन्ध।
अब रिश्तों में न रही, पहले जैसी गंध।। (22)



डिब्बे में सब बंद है, सबमें एक ही स्वाद।
जिह्वा पागल हो रही, स्वाद हुआ बेस्वाद।। (23)



ऊँचे टॉवर लग रहे, मेरे गाँव के मेड़।
अम्बानी नित फैल रहे, काट गाँव के पेड़।। (24)



दुर्गापूजा हो रही, एक गाँव में सात।
दुर्गा जैसे दे रहीं, रामचन्द्र को मात।। (25)



सब लड़के बाहर गए, सूना है अब गाँव।
बूढ़ा बुढ़िया कष्ट में, उठे नहीं अब पाँव।। (26)



सोहर गारी सब गए, बचा न फगुआ राग।
डीजे कनफाड़ू बजे, रहा न अब अनुराग।। (27)



पाट लिए तालाब सब, काट लिए सब पेड़।
खेतों को चौड़ा किये, बचे नहीं अब मेड।। (28)



गमले आये गाँव में, लगे हैं शहरी फूल।
बिटिया मेरी शान से, शहरी झूला झूल।। (29)



हंड्रेड डायल आ रही, हुआ कोई अपराध।
मुर्गा बोतल रात का, लिया पुलिस ने साध।। (30)

 


 

रामायण सुनते रहे, सदियों से हर रोज।
भरत दूसरा हुआ नहीं, बस दुर्योधन ओज।। (31)



जनता ने उनको चुना, बन गए लंबरदार।
देश बेच वह खा रहेहै उनकी सरकार।। (32)



श्रमिक श्रमिक ही रह गया, हुआ नहीं उद्धार।
टाटा देखो शान से, बेच रहे हैं कार।। (33)



श्रमिकों को वह दे रहे, गीता का यह ज्ञान।
फल की चिंता छोड़कर, कर्म करो बस ध्यान।। (34)



अजर अमर है आत्मा, मरती केवल देह।
सूखी रोटी के लिए, जला रहा वह देह।। (35)



पकवानों से हैं सजी, अम्बानी की मेज।
दुनिया के सरताज़ हैं, छपा यह पहला पेज़।। (36)



कभी काम करते नहीं, बनता छप्पनभोग।
बुधुआ छप्पर में पड़ाटीबी का है रोग।। (37)



टीवी चैनल बिक गए, बिके सभी अख़बार।
पूँजीपति ही बना रहे, लोकतंत्र सरकार।। (38)



अपराधी नेता हुए, पहुँचे संसद द्वार।
पढ़े-लिखे सब रह गए, हुई करारी हार।। (39)



राजनीति सेवा नहीं, है अब यह  व्यवसाय।
वह प्रवेश इसमें करे, जिसकी उँची आय।। (40)

 




राजनीति निष्ठुर बहुत, नहीं इसे कुछ मोह।
गर्दन नीचे कब झुके, रही बाट यह जोह।। (41)



दोस्त नहीं दुश्मन नहीं, कहे सियासत बात।
दिन में दिखते मित्र जो, वही रक़ीब हैं रात।। (42)



बेटा घर में जो हुआ, घर में हर्ष-उल्लास।
बेटी एलबम देख रही, रोके अपनी सांस।। (43)



बोझ काम का बढ़ गया, यह कैसी तालीम।
पिता वृद्ध यह सोच रहा, बैठ छाँव के नीम।। (44)



अभी बहुत मैं व्यस्त हूँ, कल कर लूँगा बात।
कल केवल कल ही रहा, नींद न आये रात।। (45)



नज़र लगी क्यों गाँव को, है क्यों यह वीरान।
कजरी सोहर फाग से, अब यह है सुनसान।। (46)



खनकदार अब हँसी नहीं, नहीं नेह अनुराग।
अपनी अपनी अकड़ है, अपना अपना राग।। (47)



पक्का घर तो बन गया, हुआ एशियन पेंट।
चाचा के घर में रहा, देकर ऊँचा  रेंट।। (48)



करवट ले ले माँ जगीअब आएगा फोन।
नए सदन की खोज में, बेटा  दौड़े लो।। (49)



शहरों की चालाकियाँ, घुसी गाँव में आज।
भिखमंगों को गाँव में, मिलता नहीं अनाज।। (50)

 

 

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं।) 

 




सम्पर्क 


मोबाईल : 9451124501

 


टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'