स्वप्निल श्रीवास्तव का संस्मरण 'एक सिनेमाबाज की कहानी-2'।
स्वप्निल श्रीवास्तव |
हकीकत बहुत कुछ फिल्मी पर्दे से अलग, कह सकते हैं, अपने ही अंदाज़ वाली होती है। रील लाइफ और रीयल लाइफ में जमीन-आसमान का फर्क होता है। पढ़ाई के दिन खत्म होने पर नौकरी की खोज और नौकरी मिलने पर जीवन संघर्ष, यह वास्तविक जीवन की पटकथा होती है। स्वप्निल श्रीवास्तव फिल्मों के प्रति अपने अनुराग के बारे में पहले ही बता चुके हैं। संयोगवश उन्हें नौकरी भी इसी महकमे की मिली। नौकरी का भी जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। स्वप्निल जी अपवाद नहीं थे। उनकी भी एक नई जद्दोजहद शुरू हो चुकी थी। पिछले महीने हमने स्वप्निल श्रीवास्तव का रोचक संस्मरण 'एक सिनेमाबाज की कहानी' पहली बार पर प्रस्तुत किया था। यह श्रृंखला सिलसिलेवार रूप ले रही है। हम उस सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए आज प्रस्तुत कर रहे हैं इसी संस्मरण का दूसरा खण्ड।
एक सिनेमाबाज की कहानी
(संस्मरण)
स्वप्निल श्रीवास्तव
॥ पांच ॥
हम सब सिनेमाबाजों की रूचि सिर्फ सिनेमा देखने तक महदूद नहीं रहती थी। हम फिल्मों की चर्चा भी करते थे। सबकी अलग-अलग पसंद के हीरो और हीरोइने थीं। कोई मुमताज पर जां निसार करता था तो किसी की स्वप्नसुंदरी हेमामालिनी थी। बाज दोस्त जीनत अमान को अपनी जीनत बनाये हुए थे। साधना, मीना कुमारी, माला सिन्हा का वक्त जा चुका था। समय के हिसाब से हम अपनी पसंद बदल लेते थे। उस दौर में राजेश खन्ना फिल्मों में छाये हुए थे। लडकियां ही नहीं मर्द भी उसके मुरीद बन रहे थे। वे फिल्मों के नये आइकैन थे। किसी की तारीफ करनी हो तो ‘आप अच्छे लग रहे हैं’, की जगह लोग कहते कि ‘आप तो राजेश खन्ना लग रहे हैं’ – यह कहने का रिवाज हो गया था। उसके आंख झपका कर सम्वाद बोलने की अदा बहुत लोकप्रिय हो रही थी। पैंट पर कुर्ता पहनने का फैशन बहुत मकबूल हुआ था। उनके अभिनय के साथ इश्क के चर्चे आम हो रहे थे। एक झटके में वे अपनी उम्र की आधी उम्र की लड़की को अपनी जीवन साथी बना चुके थे। फिल्म ‘बाबी’ में लोगों को ऋषि कपूर और डिंपल कपाडिया की जोड़ी बहुत पसंद की गयी थी। कई लोगों ने यह अनुमान लगा लिया था कि इन दोनों की शादी निकट भविष्य में हो जायेगी लेकिन फिल्मों की मायावी दुनिया में सारे अनुमान उलट जाते थे। प्रेम, शादी और तलाक की बहुत सी कहानियां पढ़ने को मिलती थी। कोई अभिनेता किसी अभिनेत्री से प्रेम करने के बाद उससे शादी करता, बच्चे पैदा करता और कई वर्ष बाद उससे ऊब कर किसी दूसरी स्त्री को अपने हरम में दाखिल कर लेता था। उसे ऐसा करते हुए कोई अफसोस नहीं होता था। वह दूसरी औरत के साथ खुश-खुश दिखता था। ये सब बातें हमारी समझ से परे थी। यह बात बाद में हमारे समझ में आयी थी कि यह इश्क नहीं एक तरह की विलासिता और लम्पटई है।
उन दिनों राजेश खन्ना का जादू लोगों के सिर पर चढ़ कर बोल रहा था। वे हम सिनेमाबाजों के नये नायक बन चुके थे। उनकी फिल्म ‘आराधना’ ने तो जैसे धूम ही मचा दी थी। उस फिल्म का गीत – ‘मेरे सपनों की रानी कब आएगी’ - हम लोगों की कालर ट्यून बन चुकी थी। राजेश खन्ना की तीन फिल्में हमें बेहद पसंद थी। ‘अमर प्रेम’, ‘सफर’ और ‘खामोशी’। अमर प्रेम का तर्जुमा तो हमने अपने जीवन में किया था। उसी की तरह धोती–कुर्ता पहन कर हम लोग सड़कों पर घूमने लगे थे। उसी की तरह समोसे का दोना किसी काल्पनिक प्रेमिका के समक्ष प्रस्तुत करते थे। उसका सम्वाद – ‘आई हेट टियरस’ हमारा मनपसंद डायलाग था।
हम लोगों में कई लोग प्रेम के गिरफ्त में थे। सिनेमाहाल हमारे लिए मिलन–स्थल का काम करते थे। फिल्में उन सिनेमाहालों में देखी जाती थी जहां बहुत कम भींड़ होती थी। उस उद्देश्य के लिए हम शहर से दूर किसी सिनेमाहाल का चुनाव का चुनाव करते थे, जहां दुश्मनों और चुगलखोरों की आमद बहुत कम हो। हम लोग अपनी प्रेमिकाओ के लिए सबसे पिछली सीट का चयन करते थे। अगर पीछे की सीट नहीं मिलती थी, तो हम फिल्म देखते थे। हम लडकियों के सान्निध्य और बातचीत से ही संतुष्ट हो जाते थे, लक्ष्मण रेखा से आगे नहीं बढते थे। कभी लडकियों की देह छू जाए तो लगता था कि हमनें बिजली का तार पकड़ लिया है। हम लम्पट प्रेमी नहीं आदर्श प्रेमी बनने का दम भरते थे। हम आज की तरह के हिंसक और बेहया आशिक नहीं थे। हम प्रेम में अपनी मर्यादाओं का निर्वाह करते थे। आज के समय में यह बेवकूफी मानी जाती है। आज के तथाकथित प्रेम की राहें देह–पथ से गुजरती है, उसमें इंतजार मान–मनुहार के लिए कोई स्पेस नहीं होता है। सारा आयोजन चट–पट में हो जाता है। हम तो पिछड़े दौर के प्रेमीजन थे। हमारे प्रेम लम्बी प्रतीक्षाओं से भरे होते थे जो विरह पर जा कर खत्म होते थे। उसे जिंदगी भर संजो कर रखते थे।
हम एक साथ नहीं अलग अलग आते थे और सिनेमाहाल के भीतर मिलते थे। हम सब फिल्म खत्म होने के पहले हाल से निकल जाते थे। जब कोई पढ़ाने वाले सर सिनेमाहाल के परिसर में दिख जाते तो उनसे छिपने की जुगत करते।
हम लोगों में सब से जहीन प्रेम और शमशाद थे। प्रेम को देवानंद का अभिनय पसंद था जबकि शमशाद के हीरो शम्मी कपूर थे। उसका कहना था कि शम्मी की नकल नहीं की जा सकती। जो भी उसकी नकल करेगा, वह पकड़ा जायेगा। प्रेम तो देवानंद की तरह बोलता था। उसे देवानन्द के अधिकांश फिल्मों के डायलाग याद थे। वह उसके एक्टिंग की नकल बखूबी करता था। शमशाद इतना वोकल नहीं था लेकिन फिल्मों के बारे में उसकी टिप्पणियां सटीक होती थी। मुझे याद है जब शहर में ‘आनंद’ फिल्म लगी तो अमिताभ बच्चन का अभिनय देख कर शमशाद ने कहा था कि आने वाले दिनों में वह सुपर स्टार बनेगा। जिस तरह उसने राजेश खन्ना के मुकाबिल अभिनय किया था, उससे मै भी शमशाद की राय से इत्तफाक रखता था।
राजेश खन्ना धीरे–धीरे शिखर से उतर रहे थे और उस स्पेस में अमिताभ दाखिल हो रहे थे। कई असफल फिल्मों के बाद जब अमिताभ बच्चन की फिल्म ‘दीवार’ आयी तो नये तरह का सिनेमा हमारे सामने आया। 1972 के बाद के सिनेमा से उछल-कूद करने वाले जितेंद्र जैसे नायक विदा हो रहे थे। अमिताभ बच्चन एंग्री यंगमैन की भूमिका में उतर चुके थे। सलीम जावेद ने अमिताभ की हिंसक छवि को गढ़ा। इस नायक में खलनायक का भी रंग मिला हुआ था। फिल्मों में माफिया का पैसा लग रहा था। फिल्मों के जरिए वे हिंसा-संस्कृति का विस्तार कर रहे थे। फिल्म ‘दीवार’ हाजी मस्तान की कहानी थी। उसमें अमिताभ उसके किरदार का अभिनय कर रहे थे जिसका उन्नयन एक कुली से प्रख्यात डान के रूप में हुआ। फिल्म में एक पुलिस इंस्पेक्टर का चरित्र बहुत कमजोर दिखाया गया था। उस दौर में इस तरह के चरित्र महिमामंडित किये जा रहे थे। ‘शोले’, ‘डान’ और ‘त्रिशूल’ इसी परम्परा की फिल्में थी। इसमें की संदेह नहीं कि अमिताभ के भीतर प्रचंड प्रतिभा थी। अपनी प्रतिभा का कमाल उन्होंने ‘आनंद’, ‘आलाप’, ‘अभिमान’ मिली, ‘नमकहराम’ जैसी फिल्मों में दिखाया। अमिताभ बच्चन का अभिनय कहीं कहीं दिलीप कुमार की याद दिलाता रहता था उसकी सम्वाद – अदायगी प्रभावपूर्ण थी। इसी बीच में संजीव कुमार के आगमन ने अभिनय ने अभिनय के शास्त्र को बदल रख दिया था। उनके अभिनय का रेंज बड़ा था। धर्मेंद्र और जीतेंद्र जैसे अभिनेता लम्बे दौर तक फिल्मों के आकाश में छाये। वे एक खास तरह के दर्शकों में लोकप्रिय रहे। संजीव कुमार की फिल्म ‘दस्तक’, ‘अनोखी रात’, ‘आंधी’, ‘मौसम’, ‘कोशिश’ उनके अभिनय का उदाहरण हैं। मनोज कुमार ने देशभक्ति और समकालीन जीवन की समस्याओं अपने फिल्मों का वर्ण्य विषय बनाया। ‘उपकार’, ‘रोटी कपड़ा और मकान’, ‘क्रान्ति’ जैसी फिल्में खूब चली। शशि कपूर रोमांटिक हीरो के रूप में ख्यात हुए। कई फिल्मों में वे अमिताभ बच्चन के जोडीदार के रूप में अभिनय किया। शशि कपूर की छवि रोमांटिक हीरो की थी।
उनके बड़े भाई राजकपूर का अलग रंग था। उनकी दृष्टि समाजवादी थी। ‘आवारा’, ‘श्री420’, ‘जागते हो’, ‘तीसरी कसम’, ‘संगम’, उनकी यादगार फिल्में थी। उनकी अपनी महत्वाकांक्षी फिल्म – ‘मेरा नाम जोकर’, जिन्दगी और इश्क का फलसफा था। इस फिल्म को दोस्तों साथ देख कर मैं रोता रहा। राजकपूर का सौंदर्यबोध हमें पसंद था। भारी नितम्बों और पुष्ट वक्षों वाली नायिकायें उनकी पहली पसंद होती थी।
सत्तर के बाद की फिल्मों में मूलभूत परिवर्तन हुए। निर्देशकों में ऐसे लोगों की आमद हुई जिसके लिए फिल्में सिर्फ व्यवसाय के अलावा कुछ नहीं थी। उनके लिए सामाजिक सरोकारो का कोई अर्थ नहीं था। वे शांताराम, विमल राय और गुरूदत्त की छवि से अपने आप को दूर कर लिया था। दिलीप कुमार, राजकपूर, देवानन्द और अपने समय के अलबेले एक्टर राजकुमार यदा–कदा फिल्मों में दिखाई देते थे लेकिन उन्हें फिल्मों में कम स्पेस मिलते थे। वे प्राय: अप्रसांगिक हो चुके थे। हम उनके पुराने मुरीद थे।
जैसा मैंने पहले ही कहा कि हम लोग सिर्फ सिनेमाबाज नहीं थे। हम फिल्मों पर बाकायदा समीक्षा करते रहते थे। हमारे भीतर एक लेखक की आत्मा थी। वह उम्र ही ऐसी थी जिसमें अभिनेत्रियों की खासी चर्चा होती थी। वे हमारी कल्पना शक्ति को बढ़ाती थी। हम सब मध्य वर्ग के लोग थे जिन्हें सपने देखने की आदत थी। फिल्मों की कल्पनाशील दुनिया में हम अपने भविष्य के बारे में सोचते रहते थे। शिक्षा खत्म होने के बाद हम अपनी नौकरी की प्रतीक्षा करने लगे। नौकरियां हमारे लिए रेत मे भागते हुए हिरन की तरह थी जिनका हम जितना पीछा करते उतना ही वे हमसे उतनी दूर भागती रहती थी। यह फिल्म नहीं हमारे जीवन का यथार्थ था। फिल्मों के प्रति हमारा आवेग कम होने लगा था। कुछ मित्र एम. ए./ एम. एस-सी. की पढ़ाई के बाद अपने कस्बे गांव की ओर लौट रहे थे तो कुछ अपनी किस्मत आजमाने बड़े शहरों की शरण में जा रहे थे। वर्षो शहर में रहते हुए हमें उससे मुहब्बत सी हो गयी थी। गलियां और चौबारे हमारे सपनों में चमकते थे। वे लड़कियां छूट रही थी जिनके साथ हम दुनिया से छिप कर फिल्में देखते थे और न पूरे होने वाले ख्वाब देखते थे। उनसे अलग होना हमारे लिए किसी दारूण दुख से कम नहीं था। हम सब ऐसी फिल्म के नायक थे जो बीच में ही अधूरी रह गयी थी, वह सिनेमाहाल की स्क्रीन तक नहीं पहुंच सकी।
यह बात हम जान चुके थे कि रील लाइफ और रीयल लाइफ में जमीन-आसमान का फर्क होता है। एक दिन हम लोगों ने चंदा लगा कर एक बोतल का इंतजाम किया और एक दूसरे से गले मिल कर खूब रोये। रोते–रोते हमारी कमीजें गीली हो चुकी थी। हम लोगों ने मिल कर अपने मनपसंद गीत गाये, इनमें उदासी और विरह के गीत ज्यादा थे। गीत गाते समय हमारी प्रेमिकाओं के चेहरे सामने तैरने लगते थे। हम लोगों ने अहद किया कि नौकरी मिलने के बाद हम दुनिया में कहीं भी रहे, साल में एक बार जरूर मिलेंगे। आज सोचता हूं कि किये गये वादे सिर्फ वादे बन कर रह जाते हैं। हमें मन्ना डे का गाया हुआ गीत याद आता ‘कसमें वादे प्यार वफा/ बातें हैं बातों का क्या/ कोई किसी का नहीं ये झूठे नाते हैं नातों का क्या। धीरे–धीरे इस गीत की हकीकत हम अपनी जिंदगी में देख कर बड़े होते रहे।
एक बार नौकरी में नध गये तो कोल्हू के बैल की तरह गोल-गोल घूमने में उम्र बीत जाती हैं। मित्रों से क्या अपने आप से मिलने का मौका नहीं मिलता। कंधे पर नौकरी का जुआ क्या रखा गया, उसे बैल की तरह ढ़ोना पड़ता है। बड़े से बड़े फुफकारने वाले बैल भी शादी में नाथ दिये जाते है और लगाम दूसरे के हाथ में आ जाती है। मैं उन मूढ़ लोगों की बात नहीं कर रहा हूं जिनकी बुद्धि घुटनों में होती हैं। मैं उन सम्वेदनशील लोगों का जिक्र कर रहा हूं जो जिंदगी को जिंदगी की तरह जीना चाहते है, जिनके भीतर दिल जैसी मासूम चीज होती है। हमारी मित्र मंडली में ऐसे ही लोग थे जो दिमाग से नहीं दिल से सोचते थे।
वह शहर की आखिरी शाम थी और सुबह को इस शहर से विदा हो जाना था। हमारे पास अपने माल-असबाब के साथ शहर की स्मृतियां जिसका वजन बड़ा था। शहर की सड़के, गलियां, पार्क, सिनेमाहाल अब हमारे अतीत बन रहे थे।
॥ छ: ॥
हमारा अगला बंदरगाह इलाहाबाद था, वहां हमने एक लाज के दड़बे को अपना आशियाना बनाया जिसमें एक चारपाई के बराबर की जगह थी। जब कोई मेहमान आता तो हम खाट खड़ी कर देते और उस जगह पर दरी बिछा देते थे। अपने बेहतर भविष्य की खोज में आए हुए कोलम्बस और वास्कोडिगामाओं के लिए जगहें बहुत कम थीं। मकान मालिक कमरों की जगह रहने के लिए छोटे–मोटे अस्तबल बनाते थे। यह जगह नहीं काल–कोठरियां होती थीं जिसमें हम मुश्किल से सांस ले पाते थे। मकान मालिकों के अलग–अलग विधान थे - जैसे कि एक कोठरी में एक बाद दूसरा पक्षी आ जाता तो उसका किराया बढ़ा दिया जाता था। रात के बारह बजे के बाद बिजली जलाने की अनुमति नहीं थी। किराया पहली से दूसरी तारीख तक मिल जाना चाहिए। एक हफ्ते के बाद कमरा खाली करने की धमकी मिलने लगती थी। होटलों के नियम और कानून कम निर्दयी नहीं थे।
शहर इलाहाबाद में ही कई मित्रों से मुलाकात हुई। उनके पास भी हमारी तरह अफसर बनने के रंगीन सपने थे। वे बड़े ओहदेदार बने। अफसर बनने के बाद बेरोजगार मित्रों के प्रति उनका नजरिया बदलता गया। हमें विचलित करने वाले अनुभव मिले, वे जीवन में बहुत काम आए। सिनेमा देखने की आदत गई नहीं थी, कम जरूर हो गयी थी। पिता से इतने पैसे नहीं मिलते थे कि हम सिनेमा देखने की विलासिता कर सकें। सिनेमा देखने के लिए खर्चे में काफी कतर–व्योत करनी पड़ती थी। कई दिन का खाना गोल करना पड़ता था। हमारे पास के बंकर में एक गुप्ता जी रहते थे। उन्हें कई दिन बिना भोजन के रहने का अभ्यास था। वे छुपे हुए सिनेमाबाज थे लेकिन जाहिर नहीं करते थे, अकेले फिल्म देखते थे। उससे जो पैसा बचता था, वह उनके सिनेमा देखने का काम लेते थे। वे हमेशा अपना चेहरा लटकाये रहते थे। कालांतर में वे हमारे महकमें में हाकिम हुए। मैने उन्हें लाज के पुराने दिनों की याद दिलायी लेकिन उन्होंने साफ–साफ कहा कि वे मुझे नहीं जानते हैं न वे कभी उस लाज में रहे हैं। मुझे इस बात का कत्तई अफसोस नहीं था कि वे मुझे नहीं जानते हैं। कुछ लोग बहुत कम बदलते हैं – वे भी ऐसे लोगों में थे।
लाज में उनकी किसी से दोस्ती नहीं थी, मुश्किल से मुस्कराते थे जैसे मुस्करा कर कोई कृपा कर रहे हों। उनका मुस्कराना बेहद कृत्रिम था।
हम सब झुंड में सिनेमा देखते थे, उसके लिए तांगा हमारी मनपसन्द सवारी थी। सिनेमा हम नाइट शो में ही देखते थे। रात के सन्नाटे में जब तांगा चलता था तो घोड़े की टाप सड़क पर बजती थी। ऐसा लगता था कि कहीं कोई तबला बज रहा हो। इस लय में घोड़े के गर्दन के घंटी की आवाज मिल कर एक शमा बांध देती थी। जाड़े की कठिन रातों में हम चद्दर या कम्बल ओढ कर सिनेमा देखने जाया करते थे। कुछ मित्र कटरा के नेतराम की दुकान के पास की गुमटी से भांग का सेवन करते थे और तांगे पर बैठ कर इल्मी और फिल्मी गीत गाते थे। कोई तांगे वाले की जगह बैठ कर तांगा हांकने लगता था। ऐसे में घोड़ा बिदक जाता और तांगा उलार हो जाता था। तांगे वाला नाराज हो जाता था लेकिन हम उसे मना लेते। सिनेमाहाल में हम अगली सीट पर बैठते और उचक-उचक कर फिल्में देखते थे। एक पंक्ति में कम्बल या चादर ओढ़े ऐसा लगता था कि जैसे भिखारियों की पंक्ति सजी हो। सिविल लाइन के हनुमान मंदिर में भिखमंगे इसी अनुशासन के साथ बैठते थे। हमारे लिए सिनेमाहाल भी एक चित्र–मंदिर ही तो था।
फिल्मों के करूण या हास्य–दृश्यों पर हम समवेत स्वरों में रोते या हंसते थे। हम सिनेमाहाल में किसी न किसी नये दृश्यों की सृष्टि कर देते थे। अदभुत था हमारा खिलद्दड़पन। हम नये–नये जुमले उछालते। हम लोग इतने मशहूर हो गये थे कि लोग हमारी गोल को देख कर कहते थे – देखो लहकट आ गये हैं।
इस मनोरंजन की दुनिया से अलग एक वास्तविक दुनिया थी जिसमें अभिनय और संगीत की कोई जगह नहीं थी। हमें अपनी जिंदगी को आगे बढ़ाना था, एक अदद नौकरी और उसके बाद एक अदद बीबी का इंतजाम करना। ये दोनों जिंदगी के दो पहिये थे, जिसके दम से जीवन की बैलगाड़ी को खींचना था। हम गादर बैल नहीं होना चाहते जो चलते–चलते बैठ जाते थे, उन्हें आगे बढ़ाने के लिए हुरपेटना पड़ता था। हम किसी इज्जतदार नौकरी की खोज में थे जिससे हमारा जीवन सुचारू रूप से चल सके। हमारे साथ के लोग कोई न कोई नौकरी हासिल कर हमारा साथ छोड़ रहे थे। आधे लोग ही रह गये थे। हमारी प्रतीक्षाएं सघन हो रही थीं। मैं सोचता था कि नौकरी न मिली तो घर कैसे मुंह दिखाऊंगा।
एक खाकीधारी डाकिया हमारे लाज में चिट्ठी या मनिआर्डर बाटने अक्सर आया करता था। हम उसे पांच-दस रूपये इनाम दे देते थे। वह हमसे हिला–मिला हुआ था। जब हम नाउम्मीद होने लगते थे, वह हमें ढाढस दिलाता रहता था – भैया परेशान जिन होईये, भगवान आपकी जरूर सुनेगा - आपको अच्छी नौकरी और छोकरी मिलेगी। मैं कहता मुंशी जी पहले नौकरी तो मिले, छोकरी की बाद में देखी जाएगी।
लेकिन उस दिन वह पूरे मूड में था। मेरे हाथ में मेरे नाम का लिफाफा देते हुए कहा – ‘खोलिए, अपनी किस्मत का दरवाजा!’
...मुंशी जी – क्या आप मजाक कर रहे हैं, ऐसे लिफाफे तो आते रहते हैं, उन्हें खोलते-खोलते मैं थक गया हूं ..।
मैंने लिफाफा खोला तो वह कमीशन का नियुक्ति पत्र था – मुझे एक हफ्ते में लखनऊ हेड–क्वार्टर में ज्वाइन करना था और इस तरह मुझे मनोरंजन कर विभाग का मुलाजिम बना दिया गया था। मैं इस परवाने को पा कर उछल पड़ा। मुंशी जी भी मेरी तरह उछल कर मुझे गले लगा लिया था। उस दिन मुंशी जी की जिह्वा पर सरस्वती विराजमान थी। मैंने दन्न से पचास रूपये का नोट उन पर न्योछावर कर दिया। लाज में यह खबर आग की तरह फैल गयी। बधाई देने वाले आने लगे। मैंने लोगों को मिठाई खिला कर कृतार्थ किया। लोगों ने कहा कि तुम अच्छे महकमें में पंहुच गये हो – तुम्हारी शुरू से फिल्मों के लिए दीवानगी थी, तुम्हें फिल्म देखने के लिए जो जिल्लत उठानी पडती थी, वह अब खत्म हो गयी है। यह अलग बात थी कि उस महकमें में मनोरंजन का वह रोमांच नहीं था, उसमें विभागीय तनाव ज्यादा थे। बहरहाल नौकरी का मिलना मेरे लिए एवरेस्ट फतेह करने जैसा था। इलाहाबाद में जो सपने ले कर आया था, वे साकार नहीं हुए थे। हमारे बीच के कई लोग डिप्टी कलेक्टर या पुलिस कप्तान हो गये थे, उस मुकाबिले में मेरी नौकरी बहुत छोटी थी। जरूरी नहीं कि आदमी के देखे गये सपने सच हो। कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता/ कहीं जमीं तो कहीं आसमां नहीं मिलता। मैं इस हकीकत से बावस्ता था। जिस हिंदी भाषा में मैंने उच्च शिक्षा हासिल की थी, उसकी इस महकमें में जरूरत नहीं थी। यह पढ़े फारसी बेचे तेल जैसा मामला था।
॥ सात ॥
जवाहर लाल नेहरू के नाम से बना यह जवाहर भवन – भवन नहीं एक तिलिस्म था। दस मंजिल की इस शानदार इमारत के आठवें माले पर हमारा मुख्यालय अवस्थित था। यह इतनी ऊंची इमारत थी कि देखने चलो तो टोपी गिर जाय। सच कहूं तो इस महकमें में बमुश्किल अपनी टोपी बची थी। सर और टोपी के बीच सामंजस्य बनाने में ही वक्त बीता लेकिन इस विभाग के बाज लोगों ने इस नौकरी का भरपूर फायदा उठाया। मैं जहां था, वहां से थोड़ा आगे बढ़ा लेकिन मुझे इसका कत्तई अफसोस नहीं था – मैं ही अयोग्य था।
मैं स्वीकार करूं कि पहली बार मैं इतनी भव्य इमारत में लिफ्ट से जा रहा था जैसे कि किसी सुरंग में दाखिल हो रहा हूं। मुझे हिंदी के कवि मुक्तिबोध की कई कविताओं के बिम्ब याद आ रहे थे। हूकूमतों के ये गलियारे हमें डरावने लगते थे। बड़ी और गगनचुम्बी इमारतें हमें भयभीत करती थीं। हम छोटे-मोटे दफ्तरों में जिस सहजता से जाते थे, वह यहां गायब थी। उस बिल्डिंग में मैं गंवार-सा लग रहा था। इस इमारत ने मुझे जीवन के बहुत अनुभव दिये। मनुष्य के चरित्र के कितने आयाम हो सकते हैं, इसका पता लगा। आदमी बाहर और भीतर से नितांत भिन्न होता है। ज्यादातर लोग पूंजी के पीछे भागते थे, उनके लिए मानवीय सम्बंध गौण थे। समैं इस भीड़ में पिछड़ा हुआ कारकून था।
दूसरे दिन सुबह हमारी ट्रेनिंग शुरू हुई, हमें नियमों और अधिनियमों के बारे में अवगत कराया गया और नौकरी के लिए कुछ व्यवहारिक बातें बतायी गयी। हमारा उत्साहवर्द्धन करते हुए यह बताया गया कि सिनेमा मालिक शहर का ताकतवर आदमी होता है, हमें उससे डील करना है, उसके प्रलोभनों से बचना है। ट्रेनिंग में विभाग के काबिल लोग शामिल थे, उनके चेहरे से यह भाव टपक रहा था। वे अपनी काबिलियत का ढ़ोग भी कर रहे थे। हम उनके लिए भेड़ के बच्चों की तरह थे जिसे चरवाहे उपदेश दे रहे थे कि घास से बच कर रहना। उन्हें क्या पता था कि भेड़े आगे चल कर चरागाहों की नहीं अपनी अदम्य भूख की चिंता ज्यादा करेगी।
ट्रेनिंग के लिए टीम बना कर अलग–अलग सिनेमाहालों पर भेजा गया ताकि हम सीख सके कि प्रपत्र ख कैसे बनाया जाता है, दर्शको की गणना कैसे की जाती है, डुप्लीकेट टिकट क्या होते हैं। इस कार्य को समझाने के लिए विभाग के किसी सीनियर और सम्बंधित सिनेमाहाल के मैनेजर को लगाया गया। सीनियर के लिए हम नौसिखुये थे, वे हमें खूब हड़काते थे, मैनेजर कुछ विनम्र जरूर थे। वे जानते थे कि हम उनके होने वाले बास हैं। जिस सिनेमाहाल में हमें भेजा गया था, उसका चेहरा मेरे लिए परिचित लगा। दिमाग पर जोर लगाया, फिर उनका नाम पूछा कि वे के एन सिंह हैं जो कभी गोरखपुर के एक सिनेमाहाल के मैनेजर थे – जिनके बेत की मार मैंनें खाई थी। उनकी विनम्रता का मैं कायल हो गया था। मेरे सामने हमारे पुराने दिनों के निर्दयी चेहरे की जगह एक भला चेहरा था।
जब उन्हें पता लगा कि मैं गोरखपुर का हूं तो उनकी भाषा बदल गयी, वे भोजपुरी में बात करने लगे। उन्होंने बताया कि यह सम्मानजक नौकरी है। जब मैंनें उन्हें उस पुराने प्रकरण की याद दिलाई तो वे मुस्कराने लगे और कहा – समय–समय की बात है सर – आज तो आप हमारे अफसर हैं, आपकी कहीं भी पोस्टिंग हो मिलते रहिएगा। हमारे लायक कोई सेवा तो जरूर बताइएगा।
ट्रेनिंग एक हफ्ते चली। हमारे सीनियरों ने नियम-कानून के अलावा हमें कुछ दांव–पेच भी सिखाये जिसे समझने में मैं असमर्थ था। यह नाकाबिलियत अंत तक बनी रही। नौकरी में आदर्शवाद की कोई जगह नहीं होती, असली खिलाड़ी वे होते हैं जो नियम के बाहर खेल दिखाते हैं और दूसरों के कंधों पर पैर रख कर आगे बढ़ जाते है। जो नौकरी को एक व्यवसाय समझते है, उसमें निवेश कर मुनाफा कमाते हैं, उन्हें दुनिया की भाषा में कामयाब माना जाता - बाकी तो न घर के होते हैं न घाट के। वे बस अफसोस में गालिब का यह शेर जरूर याद करते है –
न खुदा ही मिला न विसाल-ए–सनम
न इधर के हुए न उधर के हुए।
जिंदगी एक रंग में नहीं, कई रंगों से मिल कर बनी है। हर एक व्यक्ति का मिजाज अलग होता है। किसी को पूंजी प्रिय होती है और कोई प्रेम और सम्वेदना को अपने जीवन में जगह देता है। इस मुकाम पर पहुंच कर मैं यही सोच रहा था। जिंदगी कहां से कहां पहुंच गयी है। हम स्वतंत्र नहीं रह गये थे, सरकार के नौकर बन गये थे। हमारे गले में पट्टा पड़ गया था। हमें सरकार के हुक्म की तामील करनी थी। जीवन-यापन के लिए हमें कुछ न कुछ करना पड़ता है। परिंदों को भी अपने चारे के लिए घोसले से बाहर जाना पड़ता है, हम तो मनुष्य थे।
हमारी पोस्टिंग के परवाने बटने वाले थे। यह एक तरह की लाटरी थी। सबका नाम बारी–बारी से पुकारा जा रहा था। सब लोग सोच रहे थे कि उनकी पोस्टिंग गृह जनपद के समीप हो। जिनकी तैनाती उनके जिले के पास हुई थी, उनकी खुशी चेहरे पर देखते ही बनती थी, जिसे मनचाही जगह नहीं मिली थी, उनके चेहरे उदास लग रहे थे। मैंने अपने कांपते हाथ से लिफाफा थामा और बढ़ती हुई दिल की धड़कनों के साथ उसे खोला – उसमें पिलखुआ, गाजियाबाद लिखा हुआ था। इस जगह का नाम मैंने सुना ही नहीं था। मेरा गृह जनपद बस्ती उत्तर प्रदेश पूर्वी छोर पर था और गाजियाबाद एकदम पश्चिमी किनारे पर अवस्थित था। दोनो के बीच की दूरी पांच सौ किमी से ज्यादा थी। घर के पास तैनात होने के सपने धराशायी हो चुके थे।
जिंदगी की नयी शुरूआत होने वाली थी। मन में थोड़ा बहुत उत्साह भी था। मै पहले से ही जिज्ञासु रहा हूं। आसपास के जीवन और उसकी गतिविधियों के बारे में जानने में गहरी रूचि रही है। मैं जहां भी रहा हूं वहां ठहर कर रहने की आदत नहीं थी, वहां मैं सैलानी की तरह घूमता रहता था। लोगों के लिए मैं एबनार्मल रहा हूं।
गाजियाबाद से दिल्ली पास थी – वह मेरे साहित्यिक गतिविधियों के लिए अच्छी जगह थी। यहां से पत्र-पत्रिकायें निकलती थी। हिंदी की कई सस्थाओं और प्रकाशको के दफ्तर दिल्ली में थे। दिल्ली भले ही कहीं से दूर रही हो लेकिन यहां से नजदीक थी। सुबह जाओ और दिन भर घूम–फिर कर लौट आओ। उन दिनों गाजियाबाद धीरे–धीरे बस रहा था। छिट–पुट कालोनियां बन रही थी। सड़कों पर भींड़ कम थी। रात के नौ बजे के बाद सन्नाटे बढ़ने लगते थे। ढ़ाबे जैसे होटल थे। कायदे के एक दो होटल थे।
जिन्दगी आहिस्ते-आहिस्ते अपना आकार ग्रहण कर रही थी। नयी–नयी घटनायें और पात्रों से जीवन आबाद हो रहा था। कुछ पीछे छूट रहा था तो कुछ आगे जुड़ रहा था। बहुत से लोग इसे नियति का नाम देते हैं, कुछ लोग इसे पूर्व जीवन का फल मानते थे। लोगों के विचार अलग–अलग थे। मुझे लगता था कि जो कुछ है वह वर्तमान है जिसकी जडें अतीत में हैं। यह सबक मैंने किताबों से सीखा था और उस पर अमल भी करता रहा। मां का वाक्य अक्सर याद आता रहा कि जो कुछ होता है, वह अच्छा होता है। लेकिन मां कहां थी, वह आठ–दस साल पहले ही मुझे छोड़ कर चली गयी थी। मेरे पास उसकी स्मृतियां थीं जो जीवन के कठिन दिनों में काम आती थीं। मां के दिये कुछ बहुमूल्य वाक्य थे जो पथ प्रशस्त करते रहते थे। पिता तो दुनियादार आदमी थे, वे मेरी भावुकता को नहीं समझ पाते थे। मां मेरे और उनके बीच एक पुल का काम करती थी –जो एक हादसे में टूट चुका था। जीवन की स्मृतियां हमें कहां से कहां भटका देती है –एक किस्से से दूसरा किस्सा याद आता फिर हम तीसरे से चौथे की तरफ मुड़ जाते हैं। जीवन में कुछ नहीं क्रमिक है, सब बेतरतीब हैं।
बहरहाल गाजियाबाद की कचहरी में टीन के बक्से और होल्डाल के साथ जब मैं उतरा तो मैं एक सिनेमाबाज के स्वर्णिम दिनों को अलविदा कर रहा था। अब यहां वे दिन कहां थे, जहां एक लड़का फिल्म के पहले दिन और पहले शो ठीक दस बजे टिकट की खिड़की के लाइन में लगा रहता था और टिकट मिलने पर अपने आपको विजेता समझता था। जो चीजें आसानी से मिल जाती हैं, उसमें न रहस्य रहता है न रोमांच। यहां से मेरी नयी भूमिका की शुरूआत होने वाली थी, जिसके पटकथा और सम्वाद पहले ही लिखे जा चुके थे। इस नाटक का निर्देशक हमारा वक्त था।
सम्पर्क
स्वप्निल श्रीवास्तव
510- अवधपुरी कालोनी – अमानीगंज
फैज़ाबाद – 224001
मोबाइल -09415332326
बहुत रोचक संस्मरण💐💐
जवाब देंहटाएंबेहतरीन संस्मरण
जवाब देंहटाएं- शरद
मैं पढ़ता गया और अतीत में खोता गया। आखिर मैं भी तो हमसफ़र था। और पढ़ने की जिज्ञासा बढ़ती जा रही है। आपकी व्यक्तिगत व विभागीय बातों से इत्तफाक है। जल्दी आगे पढ़ना चाहता हूं। ईश्वर आपकी लेखनी को संवेदनशीलता व गति प्रदान करें।
जवाब देंहटाएंbadmashi status
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