'मार्कण्डेय की कथा का सम्पादकीय'।



 

किसी भी पत्रिका का सम्पादकीय उस पत्रिका की आत्मा के समान होती है। संपादकीय से ही पत्रिका की दृष्टि और उसकी बनक के बारे में पता चलता है। वैसे यह सम्पादकीय लिखना कभी भी आसान नहीं होता। प्रख्यात कथाकार मार्कण्डेय 'कथा' जैसी सुविख्यात पत्रिका निकालते थे। 1969 ई. में कथा का पहला अंक प्रकाशित हुआ। यह क्रम आजीवन चलता रहा। अक्टूबर 2009 में कथा का 14वां अंक छपा। कुल 42 सालों के बीच मात्र 14 अंक। एक अंतराल के बाद छपने पर भी पाठकों को 'कथा' की प्रतीक्षा रहती थी। आज हम मार्कण्डेय के सम्पादन में प्रकाशित 'कथा' के अंकों के सम्पादकीय को अपने पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं। 'कथा' के पहले दो अंकों के हाल फिलहाल उपलब्ध न होने से उनकी सम्पादकीय हम नहीं दे पा रहे हैं। यहाँ पर तीसरे अंक से 14वें अंक तक की सम्पादकीय को यथारूप प्रस्तुत किया गया है। इस सम्पादकीय से हमें उस समय और समय के प्रति सम्पादकीय चिन्ता की प्रतिध्वनि सुनायी पड़ती है। आज मार्कण्डेय की ग्यारहवीं पुण्यतिथि के अवसर पर उन्हें नमन करते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं 'मार्कण्डेय की कथा का सम्पादकीय'

 

 

कथा अंक-3, मई 1971

 

प्रवेश

 

संसार भर का प्रगतिशीलत मानस एक बार फिर सहम कर ठिठक गया है। अपने देश का तो और भी क्योंकि घटनाओं की चमक ठीक हमारे सिरहाने हुई है। पूर्व बंगाल की शस्य-श्यामला धरती बेगुनाह इन्सानों के रक्त में डूब गयी है। पाकिस्तान अपने ही देशवासियों का विध्वंस कर रहा है। हम आंसू बहा सकते हैंसो सारा देश आंसू बहा रहा है आगे बढ़ कर संघर्षरत जनता की अस्थायी सरकार को मान्यता देने का सवाल धीरे-धीरे खटाई में पड़ गया है। क्योंकि रूस धीरे से एक कदम पीछे हट गया है और अमेरिका ने इसे पाकिस्तान का आन्तरिक मामला मान लिया है। इसीलिए राष्ट्रों का विश्व-संगठन संयुक्त राष्ट्र जो इन शक्ति-सम्पन्न राष्ट्रों के इशारे पर सफलतापूर्वक नाचने का काम करता रहा है, इस अभूतपूर्व नर-संहार के मामले में चुप रह गया है। दलित-शोषित इन्सानों का समर्थक चीन क्रूर फौजी शासक याह्या खाँ की सरकार का समर्थक और निकटतम सहायक बना हुआ है। उसने इस कूटनीतिक संघर्ष में पहल करके पूरी स्थिति को इतना घाल-मेल कर दिया है कि अन्य बड़े राष्ट्रों के मनसूबे ध्वस्त हो गये हैं और अब वे पाकिस्तान में अपनी बची-खुची साख समाप्त नहीं करना चाहते। हमारे इस उपमहाद्वीप में राजनीतिक पैंतरेबाजी के दौर के पीछे उत्पीड़न और नर-संहार की यह भयंकर और लोमहर्षक कहानी इस माने में अनसुनी रह गयी है कि उसकी प्रतिक्रिया सहानुभूति और दयाभाव के दायरे में उलझ कर रह गयी है जो तथास्थितिवादी प्रकृति का खास गुण है और यथास्थिति की प्रकृति इतिहास की प्रगति की विरोधी है। स्पष्ट है कि जन-संघर्षों में अटूट विश्वास रखने वाली संघर्षशील जनता पर यह एक बड़ा धक्का है जो द्वन्द्वात्मक विकासवादी दृष्टि की वैज्ञानिक पद्धति को मात्र रणनीति के आश्रित होते देख कर हतप्रभ है।

 

इस धारणा को इस कारण और भी बल मिला है, जब श्रीलंका के युवा क्रान्तिकारियों को कुचलने के लिए भारत की जनप्रिय सरकार ने सबसे पहले हेलीकाप्टर भेजे। पाकिस्तान के हेलीकाप्टर वहां पहले ही पहुंच गये थे। किसी देश के आंतरिक जन-संघर्ष के विरुद्ध श्रीमती गांधी और याह्या खाँ का यह सहयोग विचित्र है। इतना ही नहीं एक ओर बंगलादेश के लिए सहानुभूति-प्रस्ताव और दूसरी ओर बंगलादेश की जनता की हत्या के लिए पाकिस्तानी फौजों को यातायात की हर तरह की सुविधा देने वाली श्रीलंका की सरकार की सहायता भारत सरकार के वास्तविक चरित्र को उद्घाटित करती है।

 

अब तो अस्त्र-शस्त्र से लदे रूस के विमान श्रीलंका की सरकार को बचाने के लिए वहां पहुँच गये हैं। इसे किसी ने, किसी सरकार का आन्तरिक मामला नहीं माना है। सरकारें सरकारों के साथ है चाहे उनका जैसा भी स्वभाव हो और जन-आन्दोलन, चाहे वह जिस भी झंडे के नीचे हो रहे होंकुचले जाने हैं। स्पष्ट है कि सत्ताओं के इन पैतरों में अपने निजी राष्ट्रीय हित और व्यापारिक लाभ प्रधान हो गये हैंदलित-शोषित जनता का हित और सर्वहारा को क्रान्ति गौण। क्रान्तिकारी जन-मानस का यह निर्वासन हमारे गये दौर के इतिहास की खास घटना है जो साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में काम करने वाले सजग एवं परिवर्तनकामी लोगों को एक नये सवाल के सामने ला खड़ा करती है और सिद्धान्तविहीन समझौतों, हेर-फेर तथा निजी हित में समाहित हो कर, व्यक्ति केन्द्रित होने को प्रेरित करती है।

 

साहित्य और कला के क्षेत्र में काम करने वाले लोगों का एक भाग सुख-सुविधा की तलाश में जन-मानस की सच्चाइयों के निर्माण का मार्ग छोड़ कर ऐसे कार्यों में पहले से लगा हुआ जिससे वास्तविकतामूलक दृष्टि गौण हो जाये और लेखन को व्यापक जीवन और समाज के कार्यकलापों से हटा कर लेखक की व्यक्तिपरक आकांक्षाओं में केन्द्रित कर दिया जाये। अब नयी स्थितियाँ उन लेखकों की दृष्टि को भी धुँधला कर देने की सम्भावना पैदा कर रही हैं जो जन-संघर्षों में ही मानवीय विकास की दिशा देखते रहे हैं। विचारणीय है कि अब से क्या मार्क्सवादी लेखकों के लिए मात्र रणनीति ही वास्तविकता के अंकन का आधार बनेगी और सिद्धान्त की वैज्ञानिक पद्धति सच्चाइयों की तलाश और परिभाषा के लिए गौण ही जायेगी?

 

सम्पादक

 

 

कथा, अंक-4, अगस्त 1974

 

क्या करें

 

आज यह बात किसी से छिपी नहीं है कि शासन ने अंतत: देश के धनिक वर्ग के सामने घुटने टेक दिये हैं और उसके तमाम वैधानिक दांव-पेंच प्रभावहीन और अर्थहीन हो गये हैं। जनता के नाम पर रचे गये सारे आदर्शवादी वाक्यों का विन्यास टूट कर खोखला हो गया है और उसकी निरर्थकता उजागर हो गयी है। जनता के न्याय-संगत आन्दोलनों को लगातार कुचलने के कारण सरकार उस प्रमुख शक्ति पर से विश्वास खो चुकी है जो किसी भी संकट में उसके पास सबसे सबल हथियार सिद्ध हो सकता था। शायद शासकों को इस बात का भी भ्रम हो गया है कि जन-समर्थन बाजार में हमेशा किराये पर मिलता रहेगा और जनता का गला घोंट कर धन कमाने वाले एकाधिकारी इसी तरह उसे चुनाव जीतने के लिए चन्दा देते रहें। बेशक वे चन्दा बढ़ाते जायेंगे लेकिन उसी मात्रा में सरकार पर उनकी पकड़ भी मजबूत होती जायेगी। आगे अंधेरा ही अंधेरा है।

 

शासकों की गलत नीति के कारण देश भंयकर संक्रांति में फंस चुका है जिससे बाहर निकलना अब आसान नहीं है। जनता का मनोबल टूट चुका है। निरन्तर मानसिक तनाव ने उसे अर्द्धविक्षिप्त बना दिया है और अब वह दैनिक इस्तेमाल की चीजों की खोज से उबर नहीं पा रही है। यह उदासीनता किसी भी जनप्रिय सरकार की प्रमुख चिन्ता होनी चाहिए थी लेकिन सरकार इसे बढ़ाने पर तुली हुई है और जनउभारों को दबाने वाले सारे कानून तथा पुलिस, पी.ए.सी. ले कर खड़ी है। देश के बुद्धिजीवी अवाक हैं। संस्कृति और कला के विकास को पूरी तरह गैरजरूरी मान लिया गया है और सांस्कृतिक विकास के कार्यक्रम रद्द किये जा रहे हैं। राष्ट्र की स्वतंत्र चेतना और मानसिक रचना को विकसित करने का मुख्य साधन पुस्तकेंअब कागज के अभाव में एक चौथाई भी नहीं छप पायेंगी क्योंकि कागज के उत्पादकों से थोड़ा कागज अपने लिये निश्चित मूल्य पर सुरक्षित करा कर सरकार ने उन्हें पूरी सट्टेबाजी की छूट दे दी है और चार सौ प्रतिशत मूल्य पर भी कागज खुले बाजार में उपलब्ध नहीं हैं। क्यों न इसे भी जन-भावनाओं को व्यक्त होने पर रुकावट की एक साजिश भरी कार्यवाही माना जाये। कागज का मूल्य साधारण जनता की खरीद की क्षमता से पूर्णत: बाहर चला गया है और वह भी एक ऐसे जनतंत्र में जहां अभी तक तीस प्रतिशत से ज्यादा लोग साक्षर नहीं हो पाये हैं।

 

ऐसी परिस्थितियों में क्या करेंके प्रश्न के साथ, कथा का एक अरसे से रुका हुआ प्रकाशन फिर से शुरू किया जा रहा है। यह अंक एक अरसे से छपा पड़ा था और हम अनेक बाधाओं में घिरे हुए थे और आज भी वैसे ही घिरे हुए हैं, फिर भी हमें आशा है कि आगामी अंकों में हम अपने सहयोगियों, मित्रों तथा पाठकों की अपेक्षाएं पूरी कर सकेंगे। फिलहाल कथा के आगामी अंक में राष्ट्रीय पैमाने पर इसी प्रश्न पर बहस होगी कि वर्तमान परिस्थितियों में क्या करें। 

 

सम्पादक

 

 

कथा, अंक-5

 

प्रवेश

 

रचना के सन्दर्भ में आविष्कार की बात करना अन्यथा नहीं हैखासकर उस समय जब समूची रचनाशीलता के सामने अस्तित्व का प्रश्न हो। पाठक अनमने हों, बाजार सस्पेन्स, अपराध, मार-धाड़ जैसी चटपटी सामग्री से पटा हुआ हो, रचना अथवा आलोचना के मानदंड किन्हीं व्यक्तिगत कुण्ठाओं के आधार पर टूट-बन रहे हों और प्रसार तथा प्रकाशन के माध्यमों के नियंता मानदण्डों के नियामक बनने का भ्रम पाल रहे हों।

 

द्वंद्वात्मक प्रक्रिया की स्वीकृति के बाद इतिहास ऐसे प्रसंगों पर मूक नहीं है। भेद सिर्फ इतना है कि उसकी अनुभव-सिद्धि इस प्रसंग पर परिणाम को प्राप्त नहीं कर पायी है इसलिए प्रायोगिक दौर में वह टटोल-टटोल कर उढ़कता हुआ आगे बढ़ रहा है और कई बार ठोकरें खा कर गिरता हुआ भी देखा जा रहा है। सत्ता और विचार की इस सहयात्रा में रणनीति सदा यह होगी कि सत्ता रहेगी तभी विचार बचेगा। अन्यथा वह काल-कवलित हो जायेगा। विचार में संशोधन की शुरुआत इसी धारणा से होती है और वह रणनीति के आश्रित हो कर वास्तविकता के खरेपन से वंचित हो जाता है महत्तर दिशा-बोध का आइना धुँधला पड़ जाता है।

 

रचना के सन्दर्भ में विचारों की बात इसलिए भी प्रमुख हो उठी है कि हमारे गुण में विचारमुक्त रचना की सोच सम्भव नहीं इसलिए बाह्य नियमन और विधि-विधान रचना की सुरक्षा एक कठिन समस्या है खासकर वास्तविकतावादी रचना की जिसे रणनीति के दबाव में संशोधित करना उसे रोमानी अथवा निर्जीव बना देना होगा। निश्चय ही ऐसी रचना न तो समय के ताप को सह सकती है, न अधिक गहरी मानवीय सच्चाइयों को अभिव्यक्त कर सकती है। इसलिए यथार्थ की अभिव्यक्ति के लिए लीक से हटना होगा। उसकी संश्लिष्ट चेतना को सहज मुहावरों में पकड़ने के लिए आविष्कार का मार्ग अपनाना पड़ेगा ऐसा मार्ग जो बिना वैचारिक संशोधन के वास्तविकता के सृजन में सहायक होने के साथ ही रचना की एक पहचान स्थापित करने में समर्थ हो सके, उसे आज के ऊहापोह भरे जंगल से बाहर निकाल कर अलग कर सके।

 

सम्पादक

 

 

कथा, अंक-6, मार्च 1990

 

अपनी बात

 

जीवन और समाज से जुड़ी हुई प्रगतिशील साहित्य-चिन्तन-दृटि में विसंगतियाँ कोई अनहोनी बात नहीं है। विकास और परिवर्तन की प्रक्रिया मानवीय चेतना और संवेदना में ऐसे बदलाव का कारण बनती रही है जो कई बार मुड़ कर देश-काल की व्यवस्था पर मजबूर करती हैं। समाज की वस्तुगत स्थिति पर दृष्टि रखने वालों के लिए ऐसे बदलाव स्वाभाविक हैं क्योंकि इसी वैज्ञानिक दृष्टि के उपयोग से कालांतर में, किसी काल-विशेष की रचना द्वारा उस समय के जीवन और समाज का अध्ययन सम्भव है। अभिप्राय यह कि समकालिक सामाजिक स्थितियाँ ही रचना के मूल्य तथा प्रक्रिया की अवधारक हैं। व्यतिक्रम होगा तो रचना का मर्मच्युत होगा और काल्पनिकता तथा अतिशयता के कारण या तो वह वायवीय हो उठेगी अथवा काल्पनिक।

 

रचना का यह संघर्ष नया नहीं है। सामाजिक संदर्भों के प्रतिश्रुति की अवधारणा के साथ श्रेष्ठ कृतियों के सृजन का एक इतिहास है। वस्तुत: हमारे समय का अर्थवान सृजन असहमति द्वारा ही सम्भव हुआ है। बाह्य मान्यताओं के दबाव से मुक्त के कारण उच्चतर सृजनात्मक उपलब्धियों और श्रेष्ठ सर्जक व्यक्तित्वों के उदय की संभावनाएँ भी बनी हैं।

 

लेकिन खुलेपन के नाम पर वैयक्तिक कुण्ठा, भाववाद, अनुभववाद और प्रकृतवाद के प्रत्यावर्तन के ये खतरे भी सामने हैं जो समय-समय पर सृजनात्मक प्रक्रिया के दौरान उच्छिष्ट मान कर त्याग दिये गये थे। क्योंकि त्याग तो धर्म के अन्धविश्वासी, रूढ़ और कर्मकाण्डी रूप का भी हुआ था जो बड़े जोर-शोर से आज नये मनुष्य के त्राण के लिए आगे आया है और उसके भावलोक के लिए मुक्ति के नये मार्ग खोल देने की बात कह रहा है। स्त्री की मात्र भोग्या और शरीर मान लेने की सामंती प्रवृत्तियों के त्याग की लड़ाई भी लड़ी गयी थी और तय पाया था कि समाज में उसका बराबरी का हिस्सा रहेगा। लेकिन सहसा उसका नंगापन ही प्रीतिकर होता दिखाई पड़ रहा है। विचारधारा मात्र का यह विसर्जन मृत्युगामी और पशुवृत्ति की शुरुआत का कारण बन सकता है। मानवीय उपलब्धियों का क्षणिक नकार सम्भव है लेकिन स्मृति और इतिहास का क्या होगा जो नकार की दरकिनार कर परम्परा को फिर सीधा कर लेगा और मानवीय संवेदनाओं की अनुक्रमिकता उच्चतर सामाजिक आदर्शों के लिए नयी यात्राएँ शुरू करेगी।

 

उल्लेखनीय है कि वस्तुगत सामाजिक संदर्भों के यथार्थ को सार्थक रचना के लिए आवश्यक मान कर एक गम्भीर वैचारिक संघर्ष के आसपास के वर्षों में हमारे यहाँ भी हुआ था। हिन्दी कविता सृजनात्मक स्वतन्त्रता के नाम पर मृत्युबोध से ग्रस्त यूरोपीय विचारधारा के प्रभाव में वैयक्तिक कुण्ठाओं की अभिव्यक्ति के लिए प्रयोग कर रही थी। यशपाल तथा अन्य प्रगतिशील लेखक, मात्र वैचारिक मान्यताओं को सृजन का मूल मंत्र मान कर काल्पनिक सामाजिक संदर्भों में नकली चरित्रों की सृष्टि कर रहे थे। दोनों की रचना-प्रक्रिया में अद्भुत साम्य था। कल्पना और भाववाद से ग्रस्त साहित्यिक पृष्ठभूमि में नई कहानी के लेखकों ने यथार्थ के साक्ष्य की बात उठा कर आधुनिकतावादियों की मृत्युगामी रचनात्मक दृष्टि और प्रगतिवादियों की काल्पनिक क्रान्तिधर्मिता से दोहरा संघर्ष किया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के भारत की एक वास्तविक तस्वीर इस समय लिखी गयी कहानियों में देखी जा सती है। ध्यान देने की बात तो यह है कि नई-नई स्थापित स्वदेशी व्यवस्था का समर्थन इस काल की रचनाओं में देखने को नहीं मिलता। असहमति और यथार्थ का यह योगायोग भारतीय रचनात्मक विकास में रेखांकित करने लायक और हिन्दी-साहित्य की संघर्षशील परम्पराओं को आगे बढ़ाने वाला है। जनवादी संस्थानों की सुरक्षा, सम्प्रदायवाद तथा जातिवाद के विरुद्ध संघर्ष भारतीय रचनाशील प्रवृत्ति का प्रमुख अंग रहा है इसलिए विचलन अथवा पुनर्विचार का सवाल हमारे सामन नहीं है। कथाका प्रकाशन एक सुदीर्घ अन्तराल के बाद ऐसे समय हो रहा है जब हम अपने समय की सच्चाइयों और संवेदनाओं के साथ उच्चतर सामाजिक बोध और परिवर्तन की आकांक्षा के हामी हैं। वास्तविकताओं का निमित्त ही कथा के लिए विश्लेषित ज्ञान, विज्ञान, कला और साहित्य का आधार रहेगा।

सम्पादक

 

 

 

कथा, अंक-7, अक्टूबर 1992

 

सम्पादकीय के बहाने

हमें आप से बहुत-सी बातें कहनी थींप्रिय कम, अप्रिय ज्यादा और यह तब मालूम हुआ जब उन्हें लिखने बैठा। उत्तर आधुनिकता और जादुई यथार्थ की पहली छलाँग में ही मैं पूर्व आधुनिकता के गड्ढे में भहरा पड़ा, जहां कटु और मूर्त यथार्थ के घेरे में देश की अस्सी प्रतिशत जनता बिलबिलाती हुई हाय-हाय कर रही थी। साम्प्रदायिकता, धर्म, अन्धविश्वास और अशिक्षा जैसे बेपनाह रोग-शोक से ग्रस्त। मन में आया, क्यों न जादुई यथार्थ का सहारा ले कर इसे एक फैण्टेसी में बांध दूँ, तभी एक मित्र की आवाज कान से टकराई जो अभी-अभी आ कर सामने बैठ गये थे। बिना किसी प्रसंग के बोले, दिल्ली में अब दूरदर्शन, ‘आउट हाउसे़जऔर झुग्गी-झोपड़ियों की चीज बन कर रह गया है क्या हैरत्ती भर का भी मनोरंजन नहीं। साहब, अब तो लोग अमित टी. वी. देखेंगे। स्टार टी. वी. और ऐसे दूसरे अनेक चैनेल उपलब्ध होंगे जिन पर ब्लू फिल्में दिखेंगी, नंगे नाच होंगे। भला ऐसे में साहित्य...। और वे हो-हो कर हंसते रहे। उपन्यास’! और वो भी हिन्दी के, उन्होंने अपने होठों को विकृत करते हुए कहा, सब खत्म हो चुका है। लेकिन मेरे कान उनकी बातों के दौरान कब के सुन्न हो चुके थे। मुझे लग रहा थाजैसे इनके लिए सारा हिन्दुस्तान दिल्ली ही है, जहां से मित्र अभी-अभी लौट थे और लगातार बोलते जा रहे थे, लेखक रेस के घोड़ों की तरह दौड़ पड़े हैं तीस-चालीस, पचास हजार की बोली पर जान छोड़ कर बेतहाशा भाग रहे हैं। सेठों के रंगीन अखबार, टी.वी. सीरियल और न जाने कितने ही ऐसे बाजार खुल गये हैं जहां रोज बोली चढ़ती रहती है। जरूरत नान सीरियस हो जाने की है विदेशी पत्र-पत्रिकाओं से कुछ नये आन्दोलनों की चर्चा और कला-साहित्य सम्बन्धी व्याख्याओं को उठा लेने की है।उन्होंने दुख के साथ आक्रामक हो कर कहा, साहब आपको पूछता कौन है। इससे अच्छे तो वे लोग हैं जो पौराणिक आख्यानों का उल्था करने में जुट गये हैं। देवी-देवताओं की कहानियाँ लिख रहे हैं...। तभी चाय आ गयी। मैंने कहा, बहुत घायल हो कर लौटे हुए जान पड़ते हो।

 

दो घूँट चाय पी कर बोले, ‘‘और भाई साहहब कथाका क्या हुआ; वह तो कब की छप गयी थी। हां, छप तो गयी थी लेकिन बीच में एक पन्ना सम्पादकीय के लिए छूट गया था।

 

अरे आप भी...!उन्होंने फिर मुंह बिगाड़ा, देख नहीं रहे हैं, लोग नीम पागल हो चुके हैं। अब किसी की नौकरी-चाकरी मिलने वाली है? स्वाभिमान, अस्मिता का राग अलापते हम बूढ़े हो गयेव्यक्तियों की तो बात छोड़िए, राष्ट्रों के पास भी वह कहां रहा! जो अमेरिका की बात नहीं मानेगा, उसे जिबह कर दिया जायेगा। अब तो वह आपके चौके की रोटियां गिनने तक पहुंच रहा है। लेनिन ने कितना सच कहा था, साम्राज्यवाद पूँजीवाद की अन्तिम परिणति है।

 

निश्चय ही ऐसी आहटें आपके कानों तक भी पहुंच रही होंगी।राज्य का काम जन-सेवा नहीं, वह मात्र व्यवस्थापन के लिए है। वह दरिद्र नारायण की धाय मां नहीं, जो अपनी छातियाँ उसके मुंह में लगाये फिरे। अर्थ यह कि मनुष्य गौड़ होगा। उसे बताया जा रहा है कि तुम्हें दाम दिया जायेगा। उसे लो और संस्थान से बाहर निकल जाओ।

 

प्रेमचन्द और जैनेन्द्र ने पूँजीवाद के शैशव को एक आशा भरे विकल्प के रूप में देखा था। तब लोकतन्त्र की चेतना और व्यक्तिबोध आया था उसके साथ, लेकिन वह शिशु अब भयावह अर्थपिशाच बन गया है। उसके पास विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोश जैसी विशाल सम्पदा-शक्ति है। इसलिए भारतीय समाज के सामने संक्रमण का एक ऐसा दौर है जिसकी प्रतीति न उसकी परम्परा में है, न प्रकृति में। फिलहाल इस संक्रमण का यथार्थ हमारे अनुभव का हिस्सा नहीं है लेकिन एक सत्याभास तो है। हमें विश्वास है कि सामाजिक सन्दर्भों के प्रति जागरूक लेखक उसे जरूर देख रहे होंगे।

 

इस अंक में धर्म पर एक पुरानी परिचर्चा दी गयी है। उसमें हिस्सा लेने वाली विभूतियों के परिचय यह मान कर नहीं दिये गये हैं कि पाठकों का इतिहास-बोध इतना क्षीण नहीं है। अनिल कुमार सिंह की अनेक कविताएँ उनकी प्रखर रचनाशीलता और संवेदनाओं के सर्वथा नये काव्य-बोध को रेखांकित करने के लिए प्रकाशित हैं। कवि के रूप में जाने जानेवाले हरीश चन्द्र पाण्डे की यथार्थ को एक नया आयाम देने वाली एक कहानी दी जा रही है। इन पर आपके अभिमत का स्वागत रहेगा।

संपादक


 

कथा, अंक-8, मार्च 1997

 

दो शब्द

 

बहुत दबाव हैंसंस्कृति के समूचे ताने-बाने पर। साहित्य पर तो और भी। सच्चाइयों का मोहरा पूंजीपतियों, साम्राज्यवादियों, उनके दलालों और पिट्ठुओं की चपेट में है। अब तो वे उसे बेधड़क अपनी चालों में इस्तेमाल कर रहे हैं। सीना ठोंक कर लोकतान्त्रिक संस्थाओं की खिल्लियाँ उड़ाने पर उतर आये हैं उनका इरादा इस महादेश की मान्य, जनवादी लोक-नीति को बदल देने का है। मुट्ठी भर नकाबपोश तन्त्र का संचालन कर रहे हैं, सरकार चाहे जिस किसी की हो।

 

अब यथार्थ की अभिव्यक्ति के सामने, चेतना के स्तर पर एक दीर्घ और भयावह, अप्रत्यक्ष युद्ध का बिगुल बज चुका है। सच्चाइयों के पुरोधाओं की जुबान में भी पक्षधरता के असर साफ जाहिर हो रहे हैं जैसे वे कहीं भीतर से निरंतर लाचार होते जा रहे हों। वे अभी मल्टीनेशनल की वकालत तो नहीं कर रहे हैं, लेकिन उनके स्वागत के लिए हाथ में तख्तियाँ लिये खड़े लोगों की कतार में, शरीक होने में शर्म महसूस करना छोड़ रहे हैं।

 

ऐसे में उन्हें, जो सच की जीन पर टिकना चाहते हैं और उसी को कला एवं साहित्य की वास्तविक आधार-भूमि मानते हैं, निरंतर फेंक होते हुए सृजन-कर्म के प्रदूषण के बारे में समाज को सचेत करते रहना होगा, क्योंकि वह आज की बाजारू संस्कृति के बनावटीपन और झूठ उपज कर आने वाली पीढ़ी में कैंसर का बीज बो रहा है। उसके सिद्धान्तकार झूठ को सच और सच को झूठ बना रहे हैं। वे साहित्य और अन्य कलाओं के नये प्रतिमान की चेष्टा में लग गये हैं और एक नयी अवधारित सूचिका को लोक-सम्मत मुख्यधारा में, पाश्चात्य आलोचना की मिथ्या पतनशील उक्तियों की आड़ लेकर समेकित करना चाहते हैं। वे सामाजिक सच्चाइयों की सोच के रास्ते को खुरचने की मूसक-वृत्ति में लग गये हैं। समाज एवं जीवन-मूल्यों की किसी भी भूमिका को स्वीकार करने वालों में वे अब अपनी शिरकत की पुरानी लालच छोड़ चुके हैं। वे अब अपनी प्रच्छन्न, दलाल प्रकृति को छिपाने में दिलचस्पी नहीं रखते।

 

कुछेक लेखकों के बदले हुए चेहरे अब अनायास पहचान में आने लगे हैं। वे इनाम अकराम की आन्तरिक लिप्सा के कारण नयी सूचीबद्धता का अधीरतापूर्वक इंतजार कर रहे हैं। वैसे भिन्न चेहरा लगा कर इंतजार करने का समय बीत चुका है। वे भूते हैं कि सहसा बीते हुए आध्यात्मक का भाववादी आभास प्रदर्शित करना, अब पुराना कोढ़ साबित हो चुका है। उन्हें तो अब करुणा, संवेदना, दया जैसे मानक शब्दों को प्रत्यक्ष करने वाली नयी राह का ईजाद करना होगा लेकिन दुख की बात तो यह है कि इन शब्दों का मुलम्मा भी काफी हद तक उतर चुका है। अब भाषा की ओट में इनका व्यापार भी संकट में है। अब तो उपभोक्ता-बाजार में यह खरीद-फरोख्त की वस्तु बन चुके हैं। सम्प्रति इतना ही।

 

कथा का यह अंक आपके पास बहुत देर से पहुंच रहा है। हमारी कोशिश होगी कि अगली बार हम जल्दी ही आपसे मिलें।

मार्कण्डेय

 

 

कथा, अंक-9, जनवरी 1999

 

दो शब्द

 

पिछले दिनों के असंगत वैचारिक झटकों के बावजूद साहित्य की मंथर गति और बेमिसाल उदास छवि में कोई परिवर्तन नहीं आया है। यह भी कि उपभोक्तावाद और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के ऊलजलूल प्रलाप अथवा बेमानी हास्य जैसी सस्ती प्रकृति का उस पर प्रभाव लक्षित नहीं हो रहा है। कुछ बिचौलिए जो साहित्य की चर्चा से अखबारों का कारोबार चलाते हैंवे भी अब मौके-बेमौके खासकर बड़े-बूढ़े लेखकों की मौत पर ही मुंह खोल रहे हैं।

 

ऐसा क्यों है? शायद इसलिए कि रचना का साक्ष्य उन्हें नहीं मिल रहा है। इसलिए पाश्चात्य सामाजिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों से उधार लिए हुए विचार हमारे जैसे बदहाल देश में नहीं चल पा रहे हैं। गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी ने आज अनेक लेखकों को सामाजिक परिस्थितियों के यथार्थ की ओर आकर्षित किया है। एक बार फिर वे देश के तात्कालिक हालात पर गहराई से सोच-विचार कर रहे हैं। इधर खासकर कविताओं, कहानियों और उपन्यासों पर ऐसे प्रभाव लक्षित हो रहे हैं, जो हमें आज के जीवन की सच्चाइयों से रूबरू करते हैं।

 

चकित करने वाली बात तो यह है कि कुछ पुराने मार्क्सवादी जो किसी समय जनता के भीतर बैठे अंधकार और अंधविश्वास के ऊपर क्रान्ति का मुलम्मा चढ़ाया करते थे, आज भी वास्तविकताओं को उसी तरह झुठलाने का काम कर रहे हैं। कथा-प्रसंगों की जगह तकनीक और वाचन-प्रकृति की हिमायत कर रहे हैं। सभी जानते हैं कि वे अनजाने ऐसा नहीं कर रहे हैं, लेकिन रोज-ब-रोज नंगे होते जाते पूंजीवादी समाज के प्रति नयी-नयी आशाओं और प्रलोभनों ने उन्हें अंधा बना रखा है।

 

कथा के इस अंक में कुछेक उपन्यासों की चर्चा इन्हीं वैचारिक अवधारणाओं का परिणाम है। हम भविष्य में भी इस चर्चा को आगे बढ़ायेंगे।

 

कथा में इस बार विद्यासागर नौटियाल और नासिरा शर्मा की रचनाएं आप पहली बार पढ़ेंगे। हम उनके सहज सहयोग के लिए आभारी हैं। कृष्णमोहन और इलाहाबाद विश्वविद्यालय हिन्दी विभाग के प्रध्यापक प्रणय कृष्ण भी कथा में पहली बार छप रहे हैं।

 

हम आशा करते हैं कि कथा के पाठक सदा की भांति हमें अपनी राय से अवगत करायेंगे।

मार्कण्डेय

 

 

 

कथा, अंक-10, फरवरी 2000

 

दो शब्द

 

एक बार फिर कथाआपके सामने हैनये-पुराने कई तरह के विचार-विमर्श तथा रचनाओं के साथ। इसे तो कब का आपके हाथों में होना था। अंक तैयार भी था लेकिन प्रेस और अन्य प्रकाशकीय झंझटों को स्वास्थ्य के चलते सुलझा नहीं पाया और इतनी देर हो गयी। साथ ही वह बहुत कुछ जो इस अंक के द्वारा आप तक पहुंचाना चाहते थे, वह भी इस अंक में जाने से रह गया।

 

जैसा कि आप बेहतर जानते हैं कि रचनाएं ही वह माध्यम हैं, जिन पर साहित्य की पत्रिका की नींव खड़ी होती है। हम साहित्य से सम्बन्धित प्रतिमानों के लिए बाह्य प्रत्यारोपणों पर विश्वास नहीं करते।

 

इस बीच साहित्य में नकली तथा बनावटी चेहरों की उपस्थिति में वृद्धि हुई है। यह सब कथाकी निगाहों से कभी भी ओझल नहीं होता। उदाहरण के लिए उत्तर आधुनिकता की बात करने वालों से जरा लौट कर पूछिए कि भाई, किसी उत्तर आधुनिक कहानी, कविता, नाटक अथवा उपन्यास का उल्लेख भी कीजिए, अपने अनमोल विचारों के परिप्रेक्ष्य में। वे बगलें झांकने लगेंगे। वे कथा के संदर्भ में कभी-कभी आख्यान की चर्चा करेंगे। समाज को साहित्य के बाहर आसमान की गोद में डालने का उनका अभिप्राय लेखक को किसी भी सामाजिक जिम्मेदारी से मुक्त कर देना है।

 

लेकिन इस सारे मिथ्यात्व के बावजूद कथा सजीव पात्रों के द्वार खटखटा रही है। ऐसे जीवन संदर्भों की खोज में है जो अछूते हैं। देश भर में लेखक आधारभूत कथा स्रोतों की ओर उन्मुख हो रहे हैं। और यही एक सूत्र है जो एशिया, अफ्रीका तथा अन्य पिछड़े देशों में कथा की नयी दिशा देने में समर्थ हो रहा है। अपने देश में भी बहुत सारे लेखक इस व्यापक और विविध सन्दर्भों के महत्त्व को पहचान रहे हैं। वे समझ रहे हैं कि विकसित देशों की तरह कथा-तत्त्व, भाषिक नवीनता, चरित्र सम्पदा और बहुआयामी जीवन सन्दर्भों का अकाल हमारे यहां नहीं है। हमारे पास तो अभी अछूते कथा प्रसंगों का विपुल भण्डार है।

 

अनेक ऐसे उपन्यास आये हैं और निश्चय ही यह लहर रुकने वाली नहीं है। हम बड़ी आशा और विश्वास के साथ यह कहना चाहते हैं कि अगली सदी भारतीय उपन्यास के विकास की सदी होने जा रही है।

 

बात कुछ दूसरी तरफ मुड़ गयी। बहरहाल कथाका प्रस्तुत अंक आपके सामने है।

मार्कण्डेय

 



 

कथा, अंक-11, दिसम्बर 2006

 

दो शब्द

 

देर से ही सही कथा का एक अंक लेकर हम आपके सामने आये हैं। अनेक तरह की परेशानियाँ जिनमें स्वास्थ्य प्रमुख है, इस देर का कारण है। कई मित्रों का कहना है कि देर से प्रकाशित होने के बाद भी उन्हें लगता है कि कथा उनके साथ बनी रहती है। उनकी सहृदयता के लिए हम आभारी हैं और उनके भी जो कथा के लिए अपना रचनात्मक एवं आलोचनात्मक सहयोग हमें देते रहे हैं।

 

हमारा ऐसा मानना है कि आज हमारी सारी रचनात्मक ऊर्जा संकटग्रस्त है। बावजूद इसके कि बहुत सारा लेखन हो रहा है और यह भी एक बड़ा सच है कि कलमें कैद नहीं की जा सकतीं। लेकिन हमारे सामाजिक सन्दर्भ ही नहीं बल्कि शासन और सत्ता भी एक ऐसे दौर से गुजर रही है जो फासिस्ट शक्तियों के दबाव से मुक्त नहीं है। बाजारवाद ने हमें आदमी की जगह ग्राहक बना दिया है और हमारा लोकतन्त्र जैसे झूठा होता जा रहा है। भूख और बेरोजगारी से सारा देश त्रस्त है। किसान जो इस देश का प्रथम नागरिक है आत्महत्या करने पर मजबूर हो रहा है। निश्चय ही हमारे समय का यथार्थ बदल गया है। मुझे दु:ख के साथ कहना पड़ रहा है कि हमारे समय का रचनाकार अपनी रचनाशीलता में इस भयावह सच को व्यक्त नहीं कर पा रहा है।

 

कुछ लोग विमर्शों के कुहासे में लोगों को दिग्भ्रमित कर रहे हैं। हम कथा के अगले अंक में इन सन्दर्भों पर व्यापक चर्चा करना चाहते हैं। यदि आप हमें इस सिलसिले में कोई पत्र लिखेंगे तो हम उसे जरूर प्रकाशित करेंगे।

 

इस अंक में प्रकाशित अनन्ता सिंह एकमात्र कवयित्री हैं जो कभी किसी पत्रिका में पहली बार प्रकाशित हो रही हैं। वैसे वे अब इस संसार में नहीं हैं, लेकिन उनकी डायरी से कुछ कविताएँ ले कर व्यक्तिगत वितरण के लिए एक पुस्तक छापी गयी है। वे चित्रकला, शास्त्रीय संगीत और सामाजिक कार्यों में दिलचस्पी लेती रही थीं।

 

हम आज के समय को रेखांकित करने वाली रचनाओं की माँग भी आपसे कर रहे हैं। आपके पत्रों की हमें प्रतीक्षा रहेगी।

मार्कण्डेय

 

 

कथा, अंक-12, अक्टूबर 2007

 

दो शब्द

 

बार-बार लोग पूछते हैं कि आज की रचना को कोई नाम क्यों नहीं देते।

 

विमर्शों से तो कुछ बना नहींवे तो अवसाद की तरह आ जा रहे हैं। बैठते भी हैं तो समईराम और सिताबिन धोबिन बहुत देर तक उनका साथ नहीं देतीं और दूसरों से ऩजरें मिलाने लगतीं हैं।

 

भूमण्डलीकरण, बाजारवाद और आधुनिकतावाद भी समाज और समय के साथ अपने खेल से बाज आने वाले नहीं हैं। लेकिन बेचारे करें क्या, रचना के साक्ष्य के अभाव में साहित्य का दरवाजा खटखटाते हैं।

 

लेकिन खास बात यह है कि रचना के प्रवाह में कोई कमी नहीं... कविताएँ, कहानियाँ, उपन्यास उस प्रवाह में एक-दूसरे से आगे निकल जाने की होड़ में जुटे हुए हैं और मजेदार बात तो यह है कि उन्हें किसी नाम की दरकार नहीं है, न उनकी कोई मांग है। जैसे नयी कहानी आन्दोलन के बाद समान्तर कहानी, अकहानी के नये-नये प्रवक्ता उठ खड़े हुए थे।

 

मतलब यह कि रचना किसी संगठित प्रयास से रोज-रोज दूर होती जा रही है। लेकिन वह बोल भी रही है, बयान भी दे रही है....

हम प्रतिगामी नहीं हैं...

हम एक निष्करण से स्वत: दूर हैं।

तो क्या आप प्रकृतिवादी हैं?...

नहीं, यह हमारी रचना का लोकतन्त्र है।

यह क्या होता है?

यह समयबद्ध नहीं होता। यह समय संदर्भित तो होता है लेकिन बद्ध नहीं होता।

फिर अन्याय, अनाचार, भूख और गरीबी का क्या होगा?

प्रतिरोध होगा। इसी लोकतन्त्र से प्रतिरोध उठेगा। रचना तो लड़ना जानती है। सारे दांव-पेंच में माहिर हैं। लड़ती रही है और लड़ती रहेगी।

कृपया फिजूल बातें न बढ़ाइये। खुद आंखें खोल कर चलिए। रास्ते को सहज और सतर्क दृष्टि से देखिए तो बात समझ में आ जायेगी।

अब रही कथा के इस अंक की बात, तो हमारे प्रयत्नों के आयाम पर आप ध्यान जरूर देंगे। हम इस अंक की तह में बहुत दूर तक आये-गये हैंसाहित्य की मुख्य धारा से भी जुड़े रहने का संदर्भ हमारे मन में सदा बना रहा है।

 

मित्रों ने जो सहयोग दिया है, उसे भुलाया नहीं जा सकता।

 

निवेदन है कि अपनी प्रतिक्रिया आप पत्र द्वारा देंगे। पत्र साहित्य की एक अत्यन्त संवेदनशील विधा है। इसके द्वारा दूरगामी राह को छोटा किया जा सकता है, पलट कर देखा जा सकता है।

 

आभार सहित,

मार्कण्डेय




 

कथा, अंक-13, नवम्बर, 2008

 

दो शब्द

 

कथा का नया अंक आप को विदर्भ के किसानों के पास ले जा रहा है। वहां वे आत्महत्याएँ कर रहे हैं। जरूरी है कि हम उनके बारे में जानें।

 

किसान ही हमारी संस्कृति और परम्परा के मूल-स्रोत हैं। वे ही हमारे जीवन-सन्दर्भों और सामाजिक परिवेश के निर्माता भी हैं। मध्य वर्ग तो विदेशी प्रभाव में अप-संस्कृति और भूमण्डलीकरण की चपेट में बेहाल है और धीरे-धीरे अपनी अस्मिता और पहचान से विच्छिन्न होता जा रहा है। जाति-धर्म के झूठे भुलावे में डालकर हमारे नेता उन्हें बर्बादी के कगार पर ले जा रहे हैंउनके हित के लिए नहीं, बल्कि स्वयं के लाभ की चिन्ता उन्हें चारों ओर से घेरे हुए है।

 

ऐसे में सृजनशीलता की राह पर धुँधलका छा जाना स्वाभाविक है। नया लेखक जो अपने समय के सन्दर्भों और बदलती संवेदनाओं द्वारा अपने परिवेश में नये टाइपचरित्रों को पकड़ कर अपनी पहचान बनाता है, आज शायद अभूतपूर्व संकट में है।

 

कथा आज की स्थितियों की सच्चाइयों को उजागर करने के लिए ही सम्पादित होती है और देर-देर से प्रकाशित होने पर भी पाठक उसे हमेशा अपने साथ पाते हैं। हमें पत्र लिख कर बताते भी रहते हैं।

 

कथा कला और साहित्य की पुरानी और नयी धारा को हमेशा जोड़ती है। वह जायसी पर विशिष्ट अध्ययन छापने के साथ ही दृष्टिगत नाम के एक स्तम्भ में हिन्दी-उर्दू के अनेक लेखकों पर समालोचनाएँ छापती रही है।

 

अपनी इसी सोच के साथ एक बार फिर हम आपके सामने हैं। इस अंक को पढ़ें और हमें बतायें। आपकी सलाह का स्वागत है।

मार्कण्डेय




 

कथा, अंक-14, मार्च 2009

 

अपनी बात

 

किसी भी पत्रिका की आंतरिक संरचना के बारे में कोई सुनिश्चितता प्रायः नहीं होती और पाठक उसमें कहानी, कविता जहां छुपी हुई होती है उसे पढ़ता चला जाता है, लेकिन 'कथा' का रूप कुछ दूसरा ही है। जो विज्ञ पाठक उसे जानते हैं, पत्रिका हाथ में लेते ही उन विशेष स्तंभों को खोजने लगते हैं जिनके बारे में उनकी ज्यादा अभिरुचि होती है। लेकिन इस बार एक सज्जन ने कुछ अजीब तरह की बातें उठाईं। 

 

उन्होंने लिखा कि 'दृष्टिगत' तक तो बात समझ में आती थी। किसी लेखक का विशेष अध्ययन किया जाता था और वह सचमुच प्रशंसा के योग्य हुआ करता था। लेकिन यह पूर्व संपादकीय तो एक अजीब सोच का नमूना है। कभी 'जायसी' कभी 'सर सैयद अहमद खान'। इसी बीच दिखाई पड़ता है 'विदर्भ के किसानों की आत्महत्या'। एक साहित्यिक पत्रिका में किसानों की आत्महत्या घुसेड़ना कहां तक वाजिब है। शायद उन्हें लगता है कि साहित्य में सामाजिक संदर्भों को इस तरह को घुसेड़ना, उसे भ्रष्ट करना है। 

 

यही कारण है कि दो शब्द लिखने की बजाए इतने विस्तार से उसकी बात करनी पड़ी। मुट्ठी भर खाते पीते लोगों के बीच बाजारवाद की बात उठाना और नए साहित्यकारों की बात करना छोड़ कर ऐसे प्रसंग उठाना समझ में नहीं आता है। आज देश सूखे की चपेट में है। लगता है इसके कारण सारा देश विपत्ति में फंस जाएगा। निरंतर बढ़ती महंगाई आगे आने वाले दिनों के लिए भयंकर संकेत है। 

 

और चलते-चलते आपसे यही कहना चाहता हूं कि एक बार मुड़ कर अपनी परंपरा पर भी ध्यान दें। 

 

स्वतंत्रता के इतने दिनों बाद भी सामंतवाद सारे संस्थागत परिवर्तनों को रोक कर पहाड़ की तरह खड़ा है। भूमि सुधार का सपना आज तक पूरा नहीं हुआ। जातिवाद दिन पर दिन बढ़ता ही जा रहा है। अब तो लोग दिन-ब-दिन उसका साथ दे कर लोकतंत्र को जातिवाद का औजार बना चुके हैं। हम हम थोड़ी और गहराई से देखें तो अब वह हमारे देश की राजनीति में अगुआ की भूमिका अदा कर रहे हैं।

 

मुझे कहना है रचनाकार को सब कुछ समझना है। आगे और पीछे दोनों को भलीभांति समझे बिना वह कृतियों का निर्माण नहीं कर सकता। 'कथा' में हम सदा उसके लिए वह जमीन तैयार करते रहते हैं। अब तो कहा भी जाने लगा है कि 'कथा' अकेली पत्रिका है जो भारतीय रचनाशीलता की संपूर्णता के लिए इन परिवर्तनों की घोर हामी है।

 

फिर भी निःसंकोच आप अपने विचार लिखें। कथा में हम आपके विचारों को यथेष्ट स्थान देंगे। हमें उनका इंतजार रहेगा।

 

मार्कण्डेय

 

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