बलभद्र का संस्मरण रमाकांत द्विवेदी 'रमता' : स्वराज से सुराज तक के लड़वइया-गवइया

रमता जी

संस्मरण हमें केवल किसी व्यक्ति के बारे में ही नहीं बताते बल्कि इनसे हम एक समूचे युग से परिचित होते हैं। साहित्य से जुड़ना अपनी संस्कृति से भी जुड़ना होता है। रमाकान्त द्विवेदी रमता भोजपुरी के ऐसे ही कवि थे जो लोक से गहरे तौर पर जुड़े हुए थे। इसके गवाह उनके वे गीत हैं जो लोगों की जुबान पर आज भी चढ़े हुए हैं। रमता जी पर बलभद्र ने एक आत्मीय संस्मरण लिखा है "रमाकान्त द्विवेदी 'रमता' : स्वराज से सुराज तक के लड़वइया-गवइया"।



रमाकांत द्विवेदी 'रमता' : स्वराज से सुराज तक के लड़वइया-गवइया 
             

बलभद्र
     

रमता जी के बारे में कुछ भी जानने से पहले उनके गीतों को जाना। वह 1988 का साल होगा जब पहली बार अपने गांव में भगेला यादव के चौपाल पर रमता जी का एक गीत सुना था। वह गीत था- 

"क्रांति के रागिनी हम त गइबे करब 
केहू का ना सोेहाला त हम का करीं।" 

इस चौपाल पर गांव के किसानों-मजदूरों की एक मीटिंग हो रही थी। कॉमरेड चंद्रमा प्रसाद आये थे। मेरे गाँव में अपने टाइप की यह पहली मीटिंग थी। लोगों से बातचीत के बाद चंद्रमा जी ने यह गीत सुनाया था। मेरे गाँव की ही नहीं मेरे लिए भी यह पहली मीटिंग थी। चंद्रमा जी ने तब कवि का नाम भी बताया था, लेकिन मैं तब कवि से बिल्कुल ही अपरिचित था। कविता भी उनकी पहली बार ही सुनने को मिली थी।                                                                           

उनका गीत दूसरी बार सुनने का अवसर अपने बगल के सिकरिया गांव में मिला। इस गांव के गरीब किसान-मजदूर (दलित) ढोल-झाल के साथ गा रहे थे - "हमनी गरीबवन के दुखवा अपार बा।" संत शिवनारायण की जयंती थी और शिवनारायनी की धुन में ही यह गीत है। गाने वालों को पता नहीं था कि यह किसका गीत है। वे तो गा रहे थे कि इसमें वे अपने को पा रहे थे। अपने दुख-तकलीफों को अपनी उपेक्षाओं को। बाद में पता चला कि यह रमता जी का गीत है। तब सिकरिया में राजेंद्र राम, विजय राम, उदय पासवान, बिलगू जी, साहेब जी आदि सक्रिय थे।


आर्थिक तंगहाली एवं पारिवारिक दबावों के कारण सिकरिया गांव के ये उभरते हुए कार्यकर्ता रोजी-रोजगार की तलाश में बाहर निकलते गए। ये गीत-गवनई में रुचि रखने वाले युवा थे। साहेब तो बाजा पार्टी भी चलाते थे। उदय और राजेंद्र भी उस पार्टी में थे। भर लगन ये शादी-विवाह में सट्टे पर जाते थे। इससे इन लोगों को कुछ कमाई हो जाती थी और खेती के मौके पर ये अपनी थोड़ी-सी खेती संभाल कर दूसरों के यहां मजदूरी भी किया करते थे। राजनीतिक कार्यों में भी बढ़-चढ़ कर भाग लेते थे। लगन के अवसरों पर ये लोग फूहड़-अश्लील गीतों को गाने-बजाने से बच-बचा कर चलते थे। फगुआ-चैता में जब ताल ठोका जाता था, तब भी ये सचेत रहते थे। गोरख पाण्डेय, रमता जी, विजेंद्र अनिल, दुर्गेन्द अकारी, कृष्ण कुमार निर्मोही के गीत इन लोगों खूब याद थे। ये अपने से भी गीत बनाना सीख चुके थे। ये इनके ही गीतों को गाया करते थे। फगुआ-चैता में भी, लगन के अवसरों पर भी, पार्टी-कार्यक्रमों के प्रचार-प्रसार में भी। तब इंडियन पीपुल्स फ्रंट का समय था। लेकिन इन लोगों को कौन गीत किसका लिखा हुआ है, यह नहीं मालूम था। इनको यह पता था कि इन्हें इन गीतों को गाना है। इसके चलते इनके गांव और आस पास के तथाकथित बड़े लोग, खासकर बड़ी जाति के, काफी नाराज रहा करते थे।
                          

ये लोग रमता जी के इस गीत को भी खूब गाते थे- '

'हमनी देसवा के नया रचवइया हई जा
हमनी साथी हई आपस में भइया हई जा।' 

गोरख के 'समाजवाद' और 'शुरू भइल हक के लड़इया' वाले गीत को भी जम कर गाते थे। इसमे थोड़ा अपनी ओर से संशोधन कर गाते थे थे। 'हक 'की जगह 'किसान' कर लेते थे। 1989 के लोकसभा चुनाव में 'अकारी' के गीत 

'चोर राजीव गांधी घुसखोर राजीव गांधी
बिदेसी सौदा में पकरईल कमीशन खोर राजीव गांधी।' 

बोफोर्स घोटाले पर यह लिखा गया था। उस चुनाव के समय का यह सुपर-डुपर हिट गीत था। 'ए बबुआ टोपी सियाल चुनाव में' भी खूब चला। यह विजेंद्र अनिल का गीत है। निर्मोही का 'जबले न रूकी भइया शोषण जुलुमवा कारवाँ बढ़ते रही' भी गया जाता था। इन गीतों के अलावे भी और कई गीत थे जो खूब गाये गये । आज कोई यकीन नही करेगा कि गांव-गांव में इन गीतों को गाने वाले थे। पार्टी के धुर विरोधी भी मन ही मन इन गीतों की लाइनों को गुनगुनाने को मजबूर थे। कभी-कभार तो बकझक करते या मजाक उड़ाते भी इन गीतों की एक-दो लाइनों को बोल जाते थे। ये गीत एक कार्यकर्ता की भूमिका में होते थे। एक मास्टर साहब थे हाई स्कूल जादोपुर के, ओझा जी, वे उस दौर के गानों और नारों को चिढ़ के कारण लोगों के बीच अक्सर सुनाया करते थे। बड़ी बड़ी रैलियों और जुलूसों में मंच से गीत होते थे। 10 मार्च 1989 की रैली जो पटना के गांधी मैदान में आयोजित थी, उसकी पूर्व संध्या पर मैंने नरेंद्र कुमार को गांधी मैदान के मंच से गाते देखा-सुना था। गीत था- 'माई गोहरवे मोर लालनव हो।' 1992 के बाद बनारस ए. बी. हॉस्टल कमच्छा में रहते इनसे निकटता बनी। आज वो इस धरा-धाम पर नहीं हैं। यह गीत उनके गीतों-गजलों के संग्रह 'कब होगी बरसात' में है। नरेंद्र को भी रमता जी और विजेंद्र अनिल के गीत याद थे। इन गीतों को लोग आज भी गाते हैं। 'हिरावल' पटना के गायक और रंगकर्मी बड़े मन से इन गीतों को गाते हैं। लेकिन क्या कि गांव-गांव गाने वाली बात अब नहीं रही। आंदोलन तो हैं, पर गीत कम हैं।
                   

सन 1989 के लोकसभा चुनाव में आरा लोकसभा क्षेत्र से आई. पी. एफ. के कॉमरेड रामेश्वर प्रसाद की जीत हुई थी। इसके बाद बिहार विधान सभा के लिए चुनाव था। शाहपुर विधान सभा क्षेत्र के आई. पी. एफ. के प्रत्याशी थे चंद्रमा प्रसाद। शाहपुर बाजार में एक आमसभा होने वाली थी। उस सभा को संबोधित करने आए थे तत्कालीन सांसद रामेश्वर प्रसाद और रमता जी। प्रत्याशी चंद्रमा जी को तो रहना ही था। मैं भी उस सभा में था और मेरे गाँव के कुछ युवक भी थे और पार्टी समर्थक अन्य गांवों के भी आए थे। इन वक्ताओं के संबोधन से पहले गीत गाये जा रहे थे। गीत सिकरिया के उदय गा रहे थे। एक पर एक और एक से एक। गोरख, रमता जी, विजेंद्र अनिल के लिखे। उदय अच्छा गाते थे। गोरख पांडेय की एक कविता मैने भी सुनाई थी। वह कविता थी 'हुआ यह है'। उसकी एक लाइन है-

 'जिनको हिरासत में होना चाहिये उनका इशारा संविधान है
और हम हैं कि खुली सड़कों पर कैद हैं'। 

है न यह आज पूरापुरी मौजूं। रामजी भाई ने इस लाइन को दो-तीन दिन हुआ, फेसबुक वाल पर डाला था। तो इस कविता को सुनने के बाद रमता जी ने सभा सम्पन्न होने पर मुझसे बातचीत की। उनके करीब बैठने औऱ बोलने-बतियाने का यह पहला अवसर था। मैंने इस सभा मे स्थानीय मुद्दों को केंद्रित करते एक छोटा-सा भाषण भी दिया था। शाहपुर से बिहिया आना था। यहां भी एक सभा होनी थी। यहां भी गीत गाये गये। गीत हमारे संगठन की पहचान बन गए थे। सभा के बाद हम लोग चाय पीने के लिये एक जगह बैठे। रमता जी से यहां भी कुछ बातें हुईं। बीच में आ कर चंद्रमा जी ने रमता जी से कहा कि ये साथी बलभद्र जी हैं, इस अंचल में पार्टी कामकाज में हैं। उन्होंने कहा कि ये संतोष सहर के बडे भाई हैं। यह सुन वे और प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा कि आरा पार्टी ऑफिस में हम लोग मिलते हैं। रामेश्वर जी से पहले से अच्छी जान-पहचान थी। रमता जी और रामेश्वर जी हाथ मिला जगदीशपुर के लिए रवाना हुए।
           

तो रमता जी और कामरेड रामेश्वर प्रसाद जी बिहिया से जगदीशपुर के लिये रवाना हुए। बिहिया से थोड़ी ही दूरी पर है जगदीशपुर, बाबू कुंवर सिंह वाला जगदीशपुर। बताते चलें कि बाबू कुंवर सिंह पर रमता जी ने भोजपुरी में एक बड़ी अच्छी कविता लिखी है। कुंवर सिंह पर लिखी गयी कविताओं में यह अपनी एक अलग विशिष्ट पहचान रखती है। शाहपुर की सभा को संबोधित करते रमता जी बहुत ही सहज के साथ साथ तथ्यों के विश्लेषण में सन्तुलित और धारदार लगे। कांग्रेसी हुकूमत की कारगुजारियों का सहज ढंग से विश्लेषण किया। आज मैं जितना याद कर पा रहा हूँ, भाषण को बातचीत की शैली में वे रखते थे, जैसे कि भोजपुरी की अपनी कोई कविता सुना रहे हों। एक हाथ की ताली को दूसरे हाथ की ताली से मासूम स्पर्श कराते हुए। धोती, कुरता गमछा और झोले वाले रमता जी। आज याद कर रहा हूँ सभा को सम्बोधित करते रमता जी को, एक हाथ की ताली को दूसरे हाथ की ताली से मासूम स्पर्श कराते, तो उनकी इस कविता की याद बारम्बार आ रही है- 


"खाके किरिया समाजवाद के खानदानी हुकूमत चले
जइसे मस्ती में हाथी सामन्ती निरंकुश झूमत चले
खाके गोली गिरल परजातन्तर कि मुसकिल इलाज हो गइल
चढ़के छाती पर केहू राजरानी, त केहू युवराज हो गइल।"  


यह 1984 की कविता है। इस कविता को सुनाने के अंदाज में वो सभा संबोधित कर रहे थे।  "हक-पद खोजे से फँसावे आपन गरदन , ऐंठत चले अत्याचारी"। कविता के इन्ही तथ्यों को कविता सुनाने की शैली के बिल्कुल आसपास सुना रहे थे। तब मैं इनकी कविताओं का पाठक नही बन पाया था। तो कहां से जानता रमता जी को कायदे से। मुझे याद है कि किसी कार्यक्रम में शामिल होने आरा गया था तो पुरबवारी रेलवे गुमटी के पास जो पार्टी आफिस (cpi-ml) है, भीतर रमता जी थे। उन्होंने पूछा कि "आप भी कुछ लिखते हैं, कविता, कहानी?" मैंने तब हाँ-ना कुछ भी नही कहा था। फिर पूछा बाबा ने कि नाम के साथ कुछ लिखते हैं। क्या जैसे मैं रमता लिखता हूँ, जैसे संतोष अपने नाम के साथ सहर लिखते हैं। मैंने कहा था कि ऐसा कुछ सोचा जरूर था, पर मन को भाया नही। फिर जितेंद्र जी ने चाय मंगा दी। भोजपुर के साथियों के बीच रमता जी के लिए जो प्यारा- सा संबोधन था वो बाबा था। साहित्य जगत में, खासकर हिंदी, नागार्जुन को बाबा कहाने का गौरव प्राप्त है।
                        

30 अक्टूबर 1917 रमता जी का जन्म दिन है। 24 जनवरी 2008 को उन्होंने अपने जीवन की आखिरी सांसें ली। इस तरह यह (2017) उनका जन्मशती वर्ष है। जन-सुराज के संघर्षों के सहयात्री कवि थे रमता जी। पूरा नाम-रमाकांत द्विवेदी 'रमता'। बिहार के भोजपुर जिला का महुली घाट (बड़हरा) उनका जन्म स्थान था। यह बाढ़ -बूड़ा वाला इलाका है। बाढ़ के चलते इसकी स्थिति काफी बदल चुकी है। बाढ़, सुखाड़ और अपने बड़हरा पर भी उन्होंने कविताएं लिखी हैं। उनके लिखे 

'गंगाजी के बाढ़ में डुबकियां मारेला खूब
जिला शाहाबाद भ में खाल बा बड़हरा।' 

पहले भोजपुर जिला शाहाबाद में था। शाहाबाद के दो भाग हुए- एक भोजपुर और दूसरा रोहतास। अब तो भोजपर और रोहतास के भी विभाजन हो गए हैं। इस कविता में कवि बड़हरा की भौगोलिक अवस्थिति बताने के साथ-साथ वहां की बदहाली के लिए बाढ़ जैसे प्राकृतिक प्रकोप के साथ-साथ आजादी के बाद की सरकारी नीतियों और अफसरशाही को जिम्मेवार मानता है। वह बड़हरा की बेहाली को गीत का विषय बनाता है।  जो तथाकथित भक्त (सत्ताभक्त) किस्म के लोग हुआ करते हैं, उनको ऐसी कविताएं क्योंकर पसंद आएंगी। वे तो आज की तारीख में और मुँहजोर हैं। कहेंगे कि देखो जहां जन्म लेता है, वहीं की शिकायत करता है। राष्ट्रद्रोही है। और खुद जा कर बी डी ओ से मिल-बतिया कर फण्ड का पैसा मजे में हजम करने में जरा भी नहीं शर्माएंगे। तभी तो किसी एक कार्यक्रम के दौरान बड़हरा में ही वहां जमीदारों और उनके लठैतों को रमता जी पर हाथ चलाने में जरा भी संकोच नही हुआ। नहीं संकोच हुआ कि यह आदमी आजादी का लड़ाका भी रहा है। आजादी के लिये इसे रन-वन छिछियाना भी पड़ा है। रमता जी स्वतंत्रता आंदोलन के विचारशील योद्धा थे। आजादी के बाद भी सत्ता-संरचनाओं की पेंचों को समझने और उसकी न केवल आलोचना करने वाले, बल्कि जन आंदोलनों के साथ होकर सच्चे सुराज को संभव करने हेतु जूझते रहने वाले योद्धा थे।                                                                                       

किसानों -मजदूरों और नौजवानों के साथ जुलूसों में चलते थे और जुलूसों के लिए गीत भी लिखते थे। बतियाते हुए गीत और ललकारते हुए गीत और चेत कराते हुए गीत। वे किसानों पर कविता लिखते हैं, पर किसान नहीं थे। कहना जरूरी है कि विजेंद्र अनिल भी इसी धारा के कवि हैं, किसान-मजूर उनकी कविताओं और कहानियों के पात्र और विषय हैं, पर वे भी किसान नहीं थे। दुर्गेन्द्र अकारी भी इसी धरती की उपज हैं। उन्होंने शुरू-शुरू में मजदूरी भी की थी। बाद में उन्होंने खुद कहा- "मत कर भाई बनिहारी तू सपन में"। अकारी जी पार्टी के हर कार्यक्रम में सक्रिय रूप में मौजूद रहते थे। जनता के बीच बिना माइक-बिना मंच स्वरचित गीतों को गाते-सुनाते दिख ही जाते थे। अकारी जी की एक काव्य पुस्तिका है 'चाहे जान जाये'। उसकी भूमिका रमता जी की लिखी हुई है। भोजपुर और भोजपुरी कविता की यह एक त्रयी है।
             

रमता, विजेंद्र अनिल और दुर्गेन्द्र अकारी की त्रयी को संग्रामी त्रयी कहना ठीक होगा। इनके बाद इस धारा में आते हैं निर्मोही। सुरेश काँटक, जितेंद्र कुमार,  निर्मोही, सुमन कुमार सिंह के साथ-साथ संतोष सहर की कविताओं और गीतों को इस त्रयी की नई कड़ी कहने या नया स्वर कहने में मुझे कोई हिचक या संकोच नहीं। सुरेश काँटक इनमें सबसे अधिक सक्रिय और पहले हैं। विजेंद्र अनिल के बहुत करीब के हैं। इस त्रयी पर अगर कोई बात होगी तो 'युवानीति', जो कि सांस्कृतिक मोर्चे पर सक्रिय युवाओं की एक टीम थी, और आज भी है, जिसकी धमक सुदूर गांव-देहातों से लेकर कस्बों और नगरों-महानगरों तक पहुंच चुकी थी, की चर्चा के बगैर बात पूरी नहीं हो पाएगी। युवानीति में तब सुनील सरीन, अजय, धनन्जय, नीरू, राजू, इश्तेयाक, अनुपमा, प्रीति, कृष्णेन्दू, संतोष सहर, सुधीर सुमन, शमशाद प्रेम, अरुण आदि कई पूरे प्राणपन से सक्रिय थे। नाटकों के साथ-साथ ये इनके गीतों को बड़े प्रभावशाली अंदाज में मंच पर और चौक-चौराहों पर प्रस्तुत किया करते थे। गोरख के गीतों को भी खूब गाते थे। केशव रत्नम के गीत 'हाथों में होगी हथकड़ियां' की याद तो होगी ही सुनील सरीन को। इन गीतों को जन-जन तक पहुंचाने का जरूरी काम युवानीति के साथियों ने किया। मुझे युवानीति के अनेक प्रोग्रामों को देखने का अवसर मिला है। टीम के साथ कई जगहों पर जाने का। टीम के अभ्यासों को भी देखने का। आज की तारीख में 'हिरावल' के साथी यह भूमिका निभा रहे हैं। अनिल अंशुमन , निर्मल नयन की भूमिका भी उल्लेखनीय है। इन लोगों के पास भी रमता जी और विजेंद्र जी की अनेक स्मृतियां होंगी। मुझे याद है कि आरा के कुछ मित्रों ने मिल-जुल कर भोजपुरी की एक पत्रिका निकाली थी, जिसका एक ही अंक आ पाया था। वह पत्रिका थी 'हिलोर'। उसमें रमता जी कविताएं छपी थीं और याद आ रहा है कि उसमें सुधीर सुमन का एक लेख भी था रमता जी पर। उस पत्रिका के संपादन से पहले चंद्रभूषण जी ने योजना के बारे में बताया भी था। कृष्णेन्दु, निलय उपाध्याय, चन्द्रभूषण, शमशाद प्रेम का उसमें  सहयोग था। शमशाद जी  ने बताया था कि इस पत्रिका की पूरी योजना कृष्णेन्दु की थी। पैसे की व्यवस्था में कृष्णेन्दु ही थे। पत्रिका की प्रति मुझे कृष्णेन्दु ने ही दी थी। मैं उनके पकड़ी, आरा वाले घर पर गया हुआ था। याद आ रहा है, झिलमिल-झिलमिल कि आरा  के नागरी प्रचारिणी के सभागार में  कोई एक कार्यक्रम आयोजित था। सभागार में रमता जी मौजूद थे। वे रामजी राय के साथ बतियाते बाहर निकले, नागरी प्रचारिणी के पूरब के गेट से। रामजी भाई उनकी एक कविता सुन रहे थे। गौर कर सुना था मैंने भी--

'सुलहा सुराज ई कुराज हो गइल/
रहे जेकरा प आसा-भरोसा ऊ नेता दगाबाज हो गइल।' 

रमता जी को अथवा इस त्रयी के किसी एक को याद करने का मतलब मेरे लिए इन सबको और इन तमाम बातों को याद करना है। मेरी स्मृतियों में ये लोग और यह सब एकमुश्त बसे हुए हैं। ढोलक-झाल, हारमोनियम, कैसियो, अपना गांव-जवार। वो चंदा मांगना, यहां-वहां भटकना। घर पर डँटाना।
                     

रमता जी से बातचीत करने हम लोग उनके घर भी गए थे दो बार। दोनों बार साथ में थे सुमन कुमार सिंह और राकेश दिवाकर। किसी एक बार शमशाद भाई भी थे। वहाँ जाने पर साथी भगीरथ यादव भी मिल गए। वे भी पूरा समय साथ रहे।  'समकालीन भोजपुरी साहित्य' के लिए उनसे बातचीत करनी थी। वह बातचीत पत्रिका में दो किश्तों में प्रकाशित है। शीर्षक है 'ऊ दिन परल इयाद'। राकेश के पास एक कैमरा था। राकेश ने हम सबों की तसवीर ली। रमता जी की जो तसवीर गूगल पर है, प्रचारित है, वह उसी समय की राकेश की ली हुई तसवीर है। रमता जी अपनी बेटी के यहाँ रहने लगे थे। एक मड़ई में सच्चे सुराजी की तरह रहते थे। मड़ई में एक बक्सा था और उसकी चाभी वे अपने पास रखते थे। उसमें बतासा, सत्तू आदि रखते थे। दूसरी बार जब हम लोग उनसे बात कर रहे थे तो उसी बीच गाँव का एक मजदूर जैसा आदमी आया और रमता जी से बेटी के गवना के लिए दिन देखने को कहा। रमता जी ने उसको बाद में आने को कहा। कहा कि अभी साथी लोग आए हैं। उन्होंने कहा कि इस तरह के लोग आ ही जाते हैं दिन बार जँचवाने। उनके पास एक 'पतरा' भी था। उन्होंने खुद इशारा कर वह 'पतरा' दिखाया। 
                          

आजादी के संघर्ष के दिनों की एक एक बात वे सुना रहे थे। ऐसे जैसे कल ही की बातें हैं। उन्होंने जेल-जीवन के अनुभवों को भी सुनाया। दो किश्तों में प्रकाशित वह लम्बी बातचीत है। बातचीत क्या, जानिए कि रमता जी बोल रहे थे और हम सब सुन रहे थे। टेप करने की सुविधा नहीं होने के चलते सब लिखना पड़ा था। रमता जी से जब एक कविता सुनाने का हम लोगों ने आग्रह किया तो वे जाँघ पर ताल दे सुनाने लगे- 'ना डूब जाई सारा हिंदुस्तान मितवा।' जब हम लोग चलने को हुए और हुआ कि फिलहाल जितना चाहिए उतनी सामग्री हो गई तो वे उठ खड़े हुए और हाथ मिलाने के लिए हाथ आगे बढ़ा दिया।


हम लोगों ने बाबा से हाथ मिला विदा लिया। रास्ते भर हम लोग बाबा की पंक्ति गुनगुनाते रहे - 

'हमनी देसवा के नया रचवइया हईं जा 
हमनी साथी हईं आपस में भइया हईं जा।' 

उनकी अधिकांश कविताएँ अप्रकाशित हैं। कई मूड की कविताएँ उनके पास हैं। क्रांति, परिवर्तन के साथ-साथ प्रकृति-सौंदर्य की भी। उनको पढ़ना एक सच्चे सुराजी को पढ़ना है। वे स्वराज से सुराज तक के लड़वइया-गवइया थे। गाँधी जी के विचारों और आंदोलनों से प्रभावित हो कर वे सुराजी हो गए थे। गाँधी जी के स्वदेशी के प्रचारक। चरखा चलाने का गीत लिखा - 'गाँवे-गाँवे चरखा चलइहे भारतवासिया।' आजादी की उनको लगन लग गई थी। फिर क्या? दो बार जेल गए। भारत आजाद हुआ, पर, रमता जी की वैचारिक यात्रा नहीं रुकी। 1952 में 'जनमभूईं' कविता लिखते हैं जिसमें मातृभूमि के प्रति एक सुराजी का आत्मीय प्रेम अभिव्यक्ति पाता है - 

"जवना धरतिया पियावत रहन चाना मामा
सोने के कटोरिया में दूध
जवना धरतिया प रा मो ग ति लिखलीं
गुरू जी सिखावत रहन बूध
जवना धरतिया प गिरलीं चटाक से ना
तूरत रहीं चुपे अमरुध
अतने अरज बाटे, रामजी से
भूले जनि ओही रे धरतिया के सूध।"

             

1942 के बाद रमता जी का झुकाव समाजवादी विचारधारा की तरफ होता गया। समाजवादी धारा से फिर वे वामपंथ की ओर मुड़ते हैं और ताजिंदगी वामपंथी विचाधारा से जुड़े रहते हैं। कुछ समय तक सी. पी. एम. के साथ रहते हैं। उसके बाद सी. पी. आई.- एम. एल. से जुड़ते हैं। वे आई. पी. एफ. के सम्मानित राष्ट्रीय अध्यक्ष भी रहे। आजादी के बाद के दिनों में वे गरीब-गुरबों के हक-अधिकारों और उनके मान-सम्मान के लिए आवाज उठाते रहे। उनको आजाद भारत में भी जेल यात्राएँ करनी पड़ी। उनका एक प्रसिद्ध गीत है - 'ऊ दिन पर इयाद नयन भरि आइल ए साथी।' आजादी की लड़ाई में शामिल एक संग्रामी उन दिनों की मुश्किलों और दीवानापन को याद को याद करता है। भारी मन से कि क्या सोचा था और क्या हो रहा है। रमता जी से मिलना एक जिंदादिल आदमी से मिलना था, जिनके पास सत्ता से लोहा लेने का हौसला पूरी तरह बरकरार था। वह हौसला ताल ठोक रहा था।


बलभद्र




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