अरविन्द यादव की कविताएं
अरविन्द यादव |
परिचय
अरविन्द यादव
जन्मतिथि- 25/06/1981
शिक्षा- एम. ए. (हिन्दी), नेट, पीएच.-डी.
प्रकाशन - समाधान खण्डकाव्य
वागर्थ, पाखी, समहुत, कथाक्रम, अक्षरा, विभोम स्वर, सोचविचार, पुरवाई, सेतु, समकालीन अभिव्यक्ति, किस्सा कोताह, तीसरा पक्ष, ककसाड़, प्राची, दलित साहित्य वार्षिकी, डिप्रेस्ड एक्सप्रेस, विचार वीथी, लोकतंत्र का दर्द, शब्द सरिता,निभा, मानस चेतना, अभिव्यक्ति, ग्रेस इंडिया टाइम्स, विजय दर्पण टाइम्स आदि पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित
सम्मान- कन्नौज की अभिव्यंजना साहित्यिक संस्था से सम्मानित
अखिल भारतीय साहित्य परिषद् द्वारा सम्मानित
सम्प्रति- असिस्टेंट प्रोफेसर - हिन्दी
साहित्य ऐसी गम्भीर विधा है जिसका काम अपने समय के परिदृश्य की बारीकी से पड़ताल करना है। इस क्रम में उसे अपने समय की हकीकतों से वह धुंध भी हटानी पडती है जो अक्सर ऐसे भ्रम को सिरजती है जो मुख्यतया आधारहीन होती है। इस तरह साहित्य उन कमजोर लोगों की आवाज बन कर गुंजित होता है जो प्रायः उपेक्षित होते हैं। कोरोना महामारी ने पूंजीवादी चरित्रों को उजागर करने का कार्य किया है। मजदूर वर्ग जिसके श्रम से पूंजीवाद सिंचित होता है, को इस समय ने ऐसे सबक दिये हैं जिसे वह शायद ही भूल पाये। युवा कवि अरविंद यादव की कविताओं में वह प्रतिबद्धता दिखायी पडती है जो एक कवि के लिये आजीवन प्रतिमान की तरह होती है। अरविंद की कविताओं में उन मजदूरों की आवाज है जो इस दुनिया को जीवंत और रहने लायक बनाती है। इसी बिना पर वह उस प्रभु वर्ग को धिक्कारने का साहस कर पाते हैं, जो खुद को सर्वे सर्वा समझने लगता है। आज पहली बार पर प्रस्तुत है अरविंद यादव की कुछ नयी कविताएं।
अरविन्द यादव की कविताएं
खूबसूरत शहर
ऐसे ही नहीं छोड़ा था उन्होंने
वह खूबसूरत शहर
जिसकी सुन्दरता पर उन्होंने
गवाँ दीं थीं जीवन की आधी सांसें
ऐसे ही नहीं छोड़ीं थीं उन्होंने
आसमां छूने को मचलतीं
उन्मत्त अट्टालिकाएं
जिनकी पीठ पर चढ़ कर वह हुईं थीं इतनी बड़ीं
ऐसे ही नहीं छोड़ आए थे वह सड़क के किनारे की झुग्गियां
झुग्गियों में पड़ी चारपाईं और फूटे हुए वर्तन
जिन्हें जोड़ने में न जाने कितने दिन
लादीं थीं उन्होंने कितनी ही मंजिलें अपनी पीठ पर
ऐसे ही नहीं वह, टांग लाए थे अपनी पीठ पर
उदय होते, सौभाग्य के उस सूर्य को
निगलने को जिसका तेज
बढ़ रहा था धीरे-धीरे, भयावह अन्धकार
ऐसे ही नहीं घसीट लाए थे वह,नंगे पैरों
खूबसूरत शहर से उन अधूरे स्वप्नों को
जिनको पूरा करने लिए छोड़ आए थे वह
आंगन में सिसकती ममता और बचपन का सुख
क्यों कि वह नहीं चाहते थे मिट्टी होना
अपनी मिट्टी से सैकड़ों कोस दूर
उस खूबसूरत शहर में
लावारिस मिट्टी की तरह।
कविता धिक्कारती है तुम्हें
जूते के तल्ले की तरह उघड़ते तलवे
और पीठ पर भविष्य को लादे पथराई आंखें
जिनमें दम तोड़ती जिजीविषा व सांसें गिनते स्वप्न
जिन्हें देख यह कतई नहीं कहा जा सकता
कि उनकी पद यात्रा ठीक वैसी थी
जैसी होती है उन महानुभावों की
जिनके स्वागत में खड़े रहते हैं न जाने कितने चौराहे
लेकर फूलों के हार
सड़कें ओढ़ लेती हैं जिनके लिए मखमली अम्बर
पाकर आगमन की सूचना
फुटपाथ जिनके अभिवादन में हो जाते हैं पंक्तिबद्ध
करने को पुष्प वर्षा
गलियां दौड़ पड़तीं हैं नंगे पांव, ले कर षटरस व्यंजन
पाने को जिनकी कृपा दृष्टि
आज सूरज के थपेड़ों से उदास
क्रोधाग्नि में जलती वह सड़क
जिस पर आशा की एक बूंद और एक निवाले को मोहताज
अस्तित्व के लिए संघर्षरत जीवन
जिसे पत्थर बन देखता वह शहर
शहर की संवेदनहीन गलियां और फुटपाथ
जिन्हें लगता है मार गया लकवा
तो सुनो
तुम्हें कोई धिक्कारे
या न धिक्कारे
कविता धिक्कारती है तुम्हें
तुम्हारी संवेदनहीनता पर
तुम्हारे दोहरे चरित्र पर।
दृश्य
बड़ी मुश्किल से मिलते हैं आजकल
देखने को ऐसे दृश्य
जहाँ कोई नदी पिला रही हो पानी
प्यासे को, जो तोड़ रहा हो दम किनारे पर
कोई खेत जो ले जा रहा हो अनाज
उस घर तक जहाँ ठण्डे पड़े हों चूल्हे
या कहीं ऐसे हाथ जो बचा रहे हों
सड़क पर दम तोड़ती सांसों व ठिठुरते फुटपाथ को
राह चलते जब दिखाई देते हैं ऐसे दृश्य
तो जन्म लेती है एक उम्मीद
कि बचा रहेगा जीवन
बची रहेगी धरती।
अखबार
आज सूरज के जागने से पहले
किसी ने जोर से खटखटाया दरवाजा मेरे कमरे का
मैंने नींद, सोया था जिसके आगोश में
छोड़ कर, खोला कमरे का दरवाजा
अचानक मैं रह गया अवाक
देख कर उस निर्भय साथी को
जिसके साथ हम रोज
बतियाते थे, पीते हुए चाय
भय से काँप रहा था उसका शरीर
दिखाई दे रहे थे जगह-जगह स्याह चोट के निशान
इतना ही नहीं, दिखाई दे रहे थे अनगिनत घाव
जिनसे झलक रहा था खून कहीं-कहीं
हिम्मत बँधाते हुए, दे कर हाथों का सहारा
उठा कर ले गया कमरे के अन्दर
लेकर के गोद जब पूछा हाल-ए-दिल
वह बोला काँपते हुए लड़खड़ाती आवाज में
हत्यायें कर रहीं हैं साजिश, करने को मेरी हत्या
लुटेरे आतुर हैं लूटने को, मेरी सच की संचित पूँजी
कुर्सियाँ कर रहीं हैं कोशिश, करने को नतमस्तक
अपना कर, साम, दाम, दण्ड, भेद
क्योंकि कि मैं नहीं मिलाता हूँ, उनकी हाँ में हाँ
जैसे मिलाते हैं और, बेच कर अपना जमीर
इसलिए सब मिटाना चाहते हैं मेरा अस्तित्व
ताकि दबाया जा सके, स्वर प्रतिरोध का।
हाशिए पर खड़ा जीवन
आज इतनी लंबी यात्रा के बाद भी
दिखाई देते हैं बैसे ही काफिले
चमचमाती कारें
उनमें ठुसे हुए बैसे ही अनगिनत चेहरे
करते हुए बैसी ही बातें
जैसी सुनी थी बचपन में
बाबा के मुख से
बाबा भी कहते थे उनके बाबा भी
बताते थे यही कि
उनके सामने भी चमचमाती कार में भी
आते थे ऐसे ही लोग
गांव के वीच मुखिया की चौपाल पर
देखकर चमक उठती थी गांव भर की आँखें
भविष्य के सपनों से
पसीने की बदबू के वीच महक उठते थे गुलाब
और गूँज उठती थी चौपाल जयघोष से
परन्तु दुर्भाग्य
बदल गए चेहरे
बदल गईं गाडियां
और गाड़ियों पर लहराते झंडे
पर नही बदले तो वादे
दूर पनघट से आतीं घडों की कतारें
कच्ची सडकें
अंधेरों से आवृत्त टूटी झोपडियां
और हाशिए पर खड़ा जीवन
द्वापर से आज तक
द्वापर अद्यावधि के पूर्व वह काल खंड
जो अनीति, अन्याय, अनाधिकार व
कत्ल होते रिश्तों
सदियोंपरान्त स्त्री अस्मिता के हरण का उदाहरण
एवं मृत मानवीय संवेदनाओं से उपजे महायुद्ध
जैसे अनगिनत लांछनों को समेटे
दर्ज है इतिहास के पन्नों में
वह महायुद्ध जो अभिहित है इतिहास में
संज्ञा से धर्म युद्ध की
उसी के अनगिनत अधार्मिक, अमर्यादित कृत्य
चीख- चीख कर कह रहे हैं कहानी
राज्य लिप्सा के उस अन्धेपन की
जो विद्यमान थी दोनों ही पक्षों में
किसी में कम किसी में ज्यादा
खून से लथपथ कुरुक्षेत्र की वह धरती
जहाँ पाञ्चजन्यी महाघोष के साथ
उस महामानव की उपस्थिति में
अठारह दिन, अठारह अक्षौहिणी सेना
जिसकी नृसंशता व संहार
क्षत- विक्षत शवों पर अबलाओं की चीत्कार
दिखाती है मृत मानवीय संवेदनाओं की पराकाष्ठा
आज सहस्राब्दियों के बाद भी
सुनाई पड़ रही है उसकी पदचाप
दिखाई पड़ रही है पुनरावृत्ति उन वृत्तियों की
जो निमित्त थीं उस महायुद्ध कीं
जिसमें मानव ही नहीं कुचली गई थी मानवता
सत्ता की अन्धी दौड़ में
आज भी द्वापर की तरह
सिंहासन ही है प्रमुख अभीष्ट
शासकों का, येन, केन, प्रकारेण
आज भी बेपरवाह हैं शासक
उचितानुचित, धर्माधर्म, व नीति-अनीति से
सत्ता के मद में
आज भी चारों नीतियां, चारों स्तम्भ
खड़े हैं हाथ बाँधे सामने सत्ता के
करने को उसका पथ प्रशस्त
लगाकर अपनी अपरिमित सामर्थ्य
आज भी फेंके जा रहे पाशे
ताकि हराई जा सके मानवता
आज भी अश्वस्थामा
कर रहे हैं दुरूपयोग अपनी सामर्थ्य का
आज भी की जा रही है पुरजोर कोशिश
ताकि जलाया जा सके लोकतंत्र
भ्रष्टाचार के लाक्षागृह में
आज भी न जाने कितने दुशासन
रोज करते हैं चीर हरण
कितनीं ही द्रोपदियों का
और वह कौरवी सभा जिसमें बिराजमान
बड़े-बड़े महारथियों को सूँघ गया था साँप
दिखाई देती है होती हुई प्रतिबिम्बित
आज भी भीरु समाज में
इतना ही नहीं सत्ता के संरक्षण में
स्त्री अस्मिता के हरण की वह घृणित मानसिकता
चीर हरण को उद्यत वह क्रूर हाथ
और बेबस अबला के आंसुओं पर
मानवता को शर्मसार करती
वह निर्लज्ज हंसी
बदस्तूर जारी है द्वापर से आज तक
आज भी रचे जा रहे हैं साजिशों के चक्रव्यूह
ताकि लहराता रहे उनका ध्वज
बचा रहे उनका सिंहासन
इसलिए वह चाहते हैं उलझाना
आज के अभिमन्यु को
जाति, धर्म, सम्प्रदाय, भाषा, क्षेत्र और राष्ट्रवाद के अभेद द्वारों पर
आज भी न जाने कितने सूतपुत्र
अभिशप्त हैं पीने को अपमान का वह घूँट
जिसे श्रेष्ठ धनुर्धर व दानी होने के बावजूद
पीता रहा ताउम्र, सूतपुत्र नियति मान कर
आज भी मिल जाते हैं अनायास
गुरु द्रोण तथा एकलव्य
और उस परम्परा का अनुसरण करते पद चिह्न
पितामह भीष्म की वह असहायता
भरी सभा में कौरवी अनीति का वह मौन समर्थन
जिसे देख झुक जातीं हैं आँखें इतिहास की
आज भी शर्म से
दिखाई देती है सदियों के बाद भी
उन बेबस लाचार बूढ़ी आँखों में
लेटे हुए मृत्यु शैय्या के निकट
सभ्यता और प्रगति का ढिंढोरा पीटने वालों
हम खड़े हैं आज भी वहीं
जहाँ हम खड़े थे हजारों साल पहले
भविष्य जब भी कसेगा हमें, इतिहास की कसौटी पर
तब निश्चित ही खड़ा करेगा प्रश्न चिह्न
हमारी प्रगति पर
हमारे सभ्य होने पर।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स विजेंद्र जी की हैं।)
सम्पर्क
जे.एस. विश्वविद्यालय शिकोहाबाद (फिरोजाबाद), उ. प्र.
पता-
मोहनपुर, लरखौर,
जिला - इटावा (उ.प्र.)
पिन - 206130
मोबाईल - 9410427215
ई मेल - arvindyadav25681@gmail.com
कमाल की कविताएँ
जवाब देंहटाएंअच्छी कवितायें ... अरविंद जी को बहुत बधाई
जवाब देंहटाएंइधर अरविंद यादव ने जो भी लिखा है काबिल ए गौर है । उनकी कविताएं वर्गीय चेतना के साथ आम जन और सर्वहारा वर्ग के पक्ष में पूरी मजबूती लिए खड़ी है । उन्हें शुभकामना ।
जवाब देंहटाएंप्रिय अरविंद की कविताओं में गहरी मानवीय संवेदना के साथ मार्मिकता है, मानव हंता स्थितियों को लेकर गुस्सा है और सर्वोपरि गहरी जीवन आस्था है। अपनी इन्हीं विशेषताओं की वजह से अरविंद कविता में उम्मीद जगाते हैं और अंतर्निहित संभावना को सामने लाते हैं। पहली बार ने एक साथ उनकी कविताओं को पहली बार पढ़ने का मौका दिया इसके लिए संतोष चतुर्वेदी जी को आभार तथा अरविंद को अनंत शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंअच्छी कविताएं। चेतना को झंकृत करती हैं
जवाब देंहटाएं