विनोद तिवारी का आलेख ‘गाँधी और समकालीन हिंदी उपन्यास’।
महात्मा गांधी स्वतंत्रता आंदोलन के ऐसे अप्रतिम
सेनानी हैं जिनके नाम पर उस पूरे समय को इतिहासकारों द्वारा रेखांकित किया जाता है।
गांधी जी ने न केवल इस समूचे आंदोलन की कमान सम्भाली बल्कि इसे अपने अंदाज में आगे
बढाया। गांधी इस समय भारतीय जनता के दिलो दिमाग
पर पूरी तरह छाये रहे। ऐसा इसलिए भी सम्भव हुआ क्योंकि उनकी कथनी और करनी में फांक
नहीं थी। कहना न होगा कि अपने जीवन में ही गांधी जी किंवदंती बन गये थे। यह आलेख विनोद
तिवारी द्वारा महात्मा गांधी के जन्म के 150वें साल के अवसर पर गुजरात केंद्रीय
विश्वविद्यालय,
गांधीनगर में साहित्य अकादेमी,
दिल्ली द्वारा 10-11 मई,
2019 को आयोजित दो-दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी में दिए गए और ‘समकालीन
भारतीय साहित्य’
पत्रिका में प्रकाशित व्याख्यान का किंचित संशोधित और परिवर्द्धित रूप है। आज पहली
बार के पाठकों के लिये प्रस्तुत है विनोद तिवारी का आलेख ‘गाँधी
और समकालीन हिंदी उपन्यास’।
गाँधी
और समकालीन हिंदी उपन्यास
(जहाँ
सवाल जन्म लेना बंद कर देते हैं वहाँ न सत्य रहता है, न आजादी, न सपने)
विनोद
तिवारी
अपनी
बात गिरिराज किशोर के उपन्यास ‘पहला
गिरमिटिया’ के एक प्रसंग से शुरू करता हूँ। 1915 ईस्वी में गांधी दक्षिण अफ्रीका से लौट रहे हैं। जनवरी का महीना है। वे
पानी के जहाज में बैठे हुए गुमसुम कुछ सोच रहे हैं। उन्हें चिंतामग्न देख कर उनके सहयात्री
हाजी हबीब उनसे पूछते हैं कि ‘गांधी भाई आप चिंतित और कुछ उदास दिख रहे हैं। आपके अंदर कुछ चल रहा है क्या?’
गाँधी अपना सिर उठाते हैं और कहते हैं कि हाँ,
आपका अनुमान ठीक है। ‘मैं अपने अंदर उठने वाले कुछ सवालों से
जूझ रहा हूँ। मैं चिंतित हूँ हिंदुस्तान में
उठ रहे सवालों से। वे सब सवाल तीर की तरह मेरी तरफ आ रहे हैं। मैं ही पूछ रहा
हूँ और मुझे ही जबाब देने हैं। गुलाम देश का हर नागरिक एक सवाल होता है। उसे कभी न
कभी जबाब भी बनना पड़ता है। कोई भी सत्य का खोजी अपने सवालों से नहीं बच सकता। जहाँ
सवाल जन्म लेना बंद कर देते हैं वहाँ न सत्य रहता है, न आजादी
और न सपने।” यह 1915 ईस्वी के गांधी का, अपने अंदर उठ रहे झंझावातों से खुद की बातचीत का अंश है। गाँधी जिन सवालों
से चिंतित हैं आज सौ साल से अधिक समय बाद भी क्या वे सवाल ज़िंदा नहीं हैं वे हिंदुस्तान से, यहाँ
के आवाम से अपना जवाब आज भी नहीं माँग रहे हैं? समकालीन
संदर्भों में अगर आज गाँधी को खोजना और पाना है तो अतीत के उन सवालों से किनारा
करके नहीं बल्कि उन सवालों के आईने में खुद के अक्स को रख कर।
गांधी हिंदुस्तान, 9 जनवरी 1915 को पहुंचते हैं।
13 जनवरी को मुंबई के एक व्यावसायिक समूह के कुछ लोगों के
बीच ‘हीराचंद गुमानजी धर्मशाला’ में
उनका भाषण होता है। यह हिंदुस्तान की सरजमीं पर उनका पहला भाषण है। आप सभी को याद होगा
कि 4 फरवरी,
1916 को बी. एच. यू. की स्थापना के अवसर पर गांधी जी का हिंदुस्तान
में पहला सर्वजिनिक भाषण होता है। वह भाषण इसीलिए महत्वपूर्ण है कि वह भारत में अगले
30-32 सालों के गाँधी की कार्य-संस्कृति का बीज वक्तव्य है। प्रसिद्ध
इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने ‘फ्रंट लाइन’ में ‘दि बैटल और बनारस’ शीर्षक
अपने लेख में उस भाषण का विस्तार से विश्लेषण
किया है। उस स्थापना समारोह में, उस वक्त के वायसराय लार्ड हार्डिंग
उपस्थित हैं, ऐनी बेसेंट उपस्थित हैं, मदन
मोहन मालवीय खुद हैं और जिनके सहयोग से वह विश्वविद्यालय खड़ा हो रहा है देश भर के सभी
राजे-महाराजे वहाँ उपस्थित हैं। गांधी जब वहाँ पहुंचते हैं,
बी. एच. यू. में वायसराय के आने के लिए ब्रिटिश प्रशासन की जिस तरह की
तैयारी है, उससे उन्हें बड़ी पीड़ा होती है, वे आहत होते हैं कि ये सारे ताम-झाम क्यों हैं? किसके
लिए हैं? जब वह अपना भाषण देने के लिए आते हैं तो बुरी तरह से
वायसराय को लताड़ते हैं। फिर सामने उनकी नजर वहाँ जाती है जहाँ खूब सजे-सँवरे आभूषण
लादे राजे-महाराजे बैठे हुए हैं। वह उनकी खूब जम कर भर्त्सना
करते हैं और कहते हैं कि ‘इनकी जो ये आभूषणप्रियता है यह ऐश्वर्यता
है, विलासिता है अगर इसे हटा दिया जाए तो हमारे देश के जो किसान
और मजदूर हैं उनकी बदहाली दूर हो जाए।” एनी बेसेंट, मदन मोहन मालवीय गाँधी को इशारों में बरजने, रोकने
की खूब कोशिश करते हैं, पर गाँधी को जो कहना है निर्भय हो कर, खुल कर कहते हैं। महाराज अलवर और
महाराज दरभंगा समारोह बीच में ही छोड़ कर निकल जाते हैं। लेकिन गांधी रुकते नहीं, झुकते नहीं है। तो यह गांधी जी की दृष्टि है, भारत में
उनकी उस कार्य-संस्कृति (वर्क-कल्चर) की, जिसे वो आगे
1948 तक जीते हैं।
हिंदी में उपन्यासों की जो रचनात्मक
उपलब्धि है अगर उस पर नजर डालें तो दो-तीन से अधिक गाँधीवादी चरित्र हमें नहीं मिलते
हैं। जो पहला चरित्र है वह प्रेमचंद की ‘रंगभूमि’ के सूरदास का है। सूरदास एक गांधीवादी चरित्र
है। दूसरा चरित्र जो हमें मिलता है वह ‘मैला आँचल’ के बामन दास का है। तीसरा चरित्र जो हमें मिलता है वह ‘राग दरबारी’ के लंगड़ का है। ‘राग
दरबारी’ और ‘मैला आँचल’ में दस सालों का अंतर है। मैं सन् 80 के बाद के कुछ उपन्यासों पर ही बात करूंगा
। एक तो ‘पहला गिरमिटिया’ जो
1999 में प्रकाशित हुआ । दूसरा, अलका सरावगी का
उपन्यास ‘कलिकथा वाया : बाईपास’
जो 1998 में प्रकाशित हुआ । तीसरा उपन्यास मैं
लूंगा अमरकांत का ‘इन्ही हथियारों से’ जो
2002 में प्रकाशित हुआ और चौथा उपन्यास अखिलेश का ‘निर्वासन’ है जो 2017 ईस्वी में
प्रकाशित हुआ है। इन उपन्यासों के सहारे मैं संक्षेप में अपनी बात पूरी करूँगा।
गाँधी
का सम्पूर्ण व्यक्तित्व महासमुद्र की तरह है। वह एक ऐसा महाआख्यान है जिसे किसी एक
उपन्यास में वर्णित-चित्रित नहीं किया जा सकता। इधर के दिनों में एक प्रवृत्ति बढ़ी
है उपन्यास लेखन के लिए शोध करने और उसके तथ्यों निष्कर्षों को आख्यान की कला में
ढालने की। उपन्यास में शोध के लिए उपन्यासकार
जगह निकाल रहा है। हिंदी और अन्य भारतीय भषाओं में भी औपन्यासिक शिल्प की दृष्टि से
यह देखे जाने की जरूरत है कि शोध और उपन्यास कैसे अपने शिल्प और संरचना में एक साथ
विकसित हो सकते हैं। शोध को कैसे गल्प और आख्यान के शिल्प में ढाला जा सकता है।
गाँधी जैसे ऐतिहासिक व्यक्तित्व के बारे में जानकारी एकत्र करना आसान और कठिन
दोनों हैं। गिरिराज किशोर दक्षिण अफ्रीका, लंदन, मारिशस और भारत में उन सभी जगहों पर यात्राएं
करते हैं जो गाँधी से संबंधित हैं। क्योंकि ‘उनकी इच्छा है
कि सम्पूर्ण गाँधी पर वह एक उपन्यास लिखें’। पर जब लिखना
शुरू किया तो लगा कि ‘नहीं, यह तो एक
नहीं कई खंडों का उपन्यास होगा’। भूमिका में उन्होंने
स्वीकार किया है – “पर अंततः सागर में डूबने से अच्छा था कि
मैं उस पक्ष को लूँ जिससे गुजर कर मोहनदास, महात्मा गांधी
बनते हैं।” इसीलिए ‘पहला गिरमिटिया’
गाँधी के दक्षिण अफ्रीका प्रवास की कथा है। मोहन दास करमचंद की कथा है। मोहन दास
के उन संघर्षों की कथा है जिनकी नींव पर वे आगे ‘महात्मा
गाँधी’ बनते हैं – “इसमें कोई शक नहीं कि गाँधी हमारी आज़ादी
के संघर्ष पुरुष हैं लेकिन मोहन दास एक आदमी की संवेदना और अनुभूति के ज्यादा
नजदीक है।” यह उचित भी है। क्योंकि, हम सब जानते हैं कि
“उपलब्धि तो शिखर होता है जो दूर से नजर आता है। कथा हमेशा संघर्ष की ही होती है।”
एक
गुजराती व्यवसायी की कंपनी ‘अब्दुल्ला
एंड अब्दुल्ला’ की एक साल की वकालत की नौकरी पर बैरिस्टर
मोहन दास करमचंद गाँधी 1893 ईस्वी में दक्षिण अफ्रीका जाते हैं और 22 सालों तक वहीं रह जाते हैं। यह उपन्यास गांधी
के 20-22 साल के दक्षिण अफ्रीका के प्रवास का उपन्यास है। ‘पहला गिरमिटिया’ एक 23-24 साल के नौजवान की कहानी है
जिसमें अगले 22 सालों तक उसके व्यक्तित्व के निर्माण की कथा दर्ज है। महात्मा
गाँधी ने भारत की आज़ादी के लिए जो संघर्ष किया, उस संघर्ष के
सभी हरबा-हथियार उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में ही तैयार किए । गांधी के जितने भी प्रयोग
भारत में हुए सत्य, अहिंसा, सत्याग्रह,
नैतिकता वे सब दक्षिण
अफ्रीका में आजमाए जा चुके थे। डरबन, नटाल, जोहान्सबर्ग, ट्रांसवाल में गिरमिटियों के हक और
अधिकार के लिए जो गाँधी का संघर्ष है उसमें ये सभी हथियार ब्रिटिश सरकार से लड़ने
के लिए गाँधी उपयोग में लाते हैं। जो एक बात सबसे महत्वपूर्ण है, आज चाहे गांधी को जिस ढंग से भी भुला दिया जाए या 150वें साल में याद
किया जाय, लेकिन गांधी को कम से कम से कम इसीलिए याद किया जाएगा
कि गांधी ने कानून को इंसाफ के पर्याय के रूप में स्थापित किया। उन्होने पूरी
दुनिया को यह बताया कि कानून का मतलब इंसाफ होता है नियंत्रण नहीं। जब भी पूरी
दुनिया में इंसाफ के लिए संघर्ष की बात होगी गांधी अनिवार्य रूप से कानून और इंसाफ
के नाते जाने जाएंगे और उसको पाने के लिए उन्होंने ‘सत्याग्रह’ नाम का जो हथियार अपनाया उसकी जरूरत पड़ती रहेगी।
उपन्यास
की भूमिका में गिरिराज किशोर एक प्रसंग का उल्लेख करते हैं। उस प्रसंग का जिक्र करना
यहाँ जरूरी है। गिरिराज किशोर डरबन में,
वहाँ के मशहूर अटार्नी और गाँधी विचार व साहित्य के अध्येता श्री हासिम सीदात से
मिलते हैं। उन दोनों के बीच ढेर सारी बातें होती हैं। उपन्यासकार हासिम सीदात का
पुस्तकालय देख कर दंग रह जाता है। दुनिया में गाँधी पर जो भी किताब लिखी गयी है वह
सीदात के यहाँ मौजूद है। खुद उपन्यासकार को उस पुस्तकालय से बहुत मदद मिली है।
विदा के वक्त हासिम सीदात के एक कथन को गिरिराज किशोर ने उद्धृत किया है। वह कथन
आज और भी इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि आज के समय मे ‘पानीदार’
शब्द जैसे अपना अस्तित्व ही खो चुका हो । वह उद्धरण है, “किशोर भाई (गिरिराज किशोर)
मुझे इस बात का गर्व है कि संसार का सबसे बड़ा हीरा हमारे ही खानों से
निकला लेकिन हमने उससे भी बेशुमार कीमती और पानीदार हीरा गांधी के रूप में आप
लोगों को वापस किया। ‘चौकीदार’ जैसे
शब्दों के शोर के बीच अब यह ‘पानीदार’ शब्द
आपके लिए छोड़ कर मैं आगे बढ़ता हूँ।
इस
उपन्यास में राष्ट्र और धर्म को ले कर एक जगह चर्चा होती है,
धर्म और धार्मिक विश्वासों को ले कर चर्चा होती है। एक प्रार्थना सभा
हो रही है। गांधी वहां अपने एक मित्र का साथ उपस्थित हैं। उस प्रार्थना सभा में
चर्च के जो पादरी हैं वे कट्टर ईसाई हैं। वे ऐसे पादरी हैं जैसे धर्म के प्रचारक होते
हैं। पादरी महोदय ईसाई धर्म की सर्वोच्चता, उसकी आध्यात्मिकता
आदि का बखान कर रहे होते हैं। दूसरे धर्मों को हेय मान कर उनके संबंध में
अनौचित्यपूर्ण बातें की जा रही हैं। जब हिंदू-धर्म के बारे में वे कोई मर्म को चोट
पहुँचाने वाली बात बोलते हैं, गांधी खड़े हो कर पादरी महोदय मिस्टर
कोट्स से अपनी असहमति दर्ज़ करते हैं। मिस्टर कोट्स की नजर अचानक गाँधी के गले में
पड़ी माला पर पड़ती है। वह पूछते हैं कि ‘आपने गले में यह क्या
धारण किया हुआ है ?’ गाँधी कहते हैं कि ‘यह कण्ठी है। और हमारे यहां एक पौधा पाया जाता है तुलसी का उसी की लकड़ी से
यह बनता है।’ मिस्टर कोट्स फिर पूछते हैं कि ‘आपने इसे क्यों धारण किया है ?’ वह कहते हैं, ‘इससे किसी धर्म
का लेना देना नहीं है। दरअसल, आते हुए बा (कस्तूरबा) ने मुझे यह उपहार दिया था। और मैं बा के उस प्रेम को निभाने के लिए
इसे पहन रहा हूँ।’ मिस्टर कोट्स कहते हैं कि ‘आपको इसे नहीं पहनना चाहिए यह सब अंधविश्वासी लोग पहनते हैं। तो गाँधी पलट
कर कहते हैं कि ‘आपके गले में जो ये क्रॉस है यह क्या है?’
मिस्टर कोट्स निरुत्तर हो जाते हैं। तो यह जो डिबेट है धर्म की,
आइकन्स की, प्रतीक चिन्हों की, उसको लेकर जो विश्वास और मान्यताएं हैं, परस्पर जो नफरत और घृणा है, अंधविश्वास
हैं, गांधी जी उनको
मानने वालों में से नहीं थे। पर प्रेम को वह सर्वोपरि मानते थे। दूसरा जो उद्धरण उपन्यास
आता है राष्ट्र और धर्म को ले कर गाँधी की दृष्टि उस पर बहुत है। वह बताते हैं कि राष्ट्र
का अर्थ एक धर्म नहीं है। एक बात का जिक्र कर मैं ये प्रसंग समाप्त करूँगा। वहां की
(दक्षिण अफ्रीका की) वे संस्थाएं जो गांधी से संबंधित रहीं हैं,
गिरिराज किशोर उनका जिक्र करते हैं। जैसे कि फीनिक्स आश्रम, और हम सब जानते हैं कि गांधी जब दक्षिण अफ्रीका में रह रहे थे तो उस समय सेटलमेंट
के तौर पर जो जमीन मिली थी, उसी जमीन पर फीनिक्स आश्रम
स्थापित हुआ था। गिरिराज किशोर बहुत ही हताश और उदास मन से बताते हैं कि वह सन् 1995
में फीनिक्स आश्रम गए थे। उन्हें यह देख कर बहुत बड़ा धक्का लगा कि “उस
आश्रम का बस चबूतरा ही बचा हुआ है। आश्रम पर अंडरवर्ल्ड का कब्जा है। इसमें केवल
भू-माफिया भर नहीं शामिल हैं। नेता, अभिनेता सबने अपने-अपने
हिस्से की सेंधमारी यहाँ की है। अब वतनी लोगों का उस जमीन पर कब्जा है। अंडरवर्ल्ड
से संबंधित वहाँ सब कुछ होता है।...सेटलमेंट के समय जब इस आश्रम को नाम देने की बात
आयी तो गांधी से पूछा गया। गांधी ने कहा कि इसका नाम फीनिक्स रखा जाए। क्योंकि फीनिक्स
एक पक्षी है जो कभी मरता नहीं। वह अपनी राख से बार-बार जिंदा
हो जाता है।” काश! गांधी भी अपनी राख से हमारे समय में जिंदा होते?
अब मैं दूसरे उपन्यास
‘कलिकथा : वाया बाईपास’ पर
आता हूँ। यह उपन्यास तीन दोस्तों किशोर, अमोलक और शांतनु की कथा
के बहाने नब्बे के बाद बदलते भारत की कथा है जो उदार पूँजी,
भूमंडलीकरण, सांप्रदायिकता आदि के नए रूप और रंग के उभार का
भारत है। उपन्यासकार ने किशोर बाबू के माध्यम से जो इस भारत की तस्वीर पेश की है
वह बहुत ही हताशा और निराशा से भरी हुई है। जिन्होंने इस उपन्यास को पढ़ा है वो जानते
हैं कि इसमें उपन्यासकार ने कई तरह की कथा-युक्तियों का प्रयोग किया है – कभी
स्वप्न का यथार्थ में आवजाही तो कभी यथार्थ का स्वप्न के जरिए वर्णन फैंटेसी के
शिल्प का इतना बढ़िया उपयोग इस उपन्यास में किया गया है कि समकालीन यथार्थ भी केवल
खबर या वर्णन मात्र नहीं लगता। कविता के संदर्भ में तो फैंटेसी के शिल्प को हिंदी
साहित्य में खूब जाना-पहचाना जाता है लेकिन कोई ऐसा आरक्षित क्षेत्र नहीं है कि फैंटेसी
का उपयोग कथाकार नहीं कर सकता। स्वप्न से अतीत में जाना फिर अतीत से स्मृतियों को ले
आना और उस स्मृति के सहारे वर्तमान यथार्थ को रचने और समझने की प्रक्रिया और उसके सहारे
समकाल को पकड़ने व परिभाषित करने का रचनात्मक संघर्ष। किशोर बाबू का शुरू से ले कर
आखिर तक जो व्यक्तित्व और चरित्र है, वह स्वप्न और यथार्थ के
आवाजाही का सबसे सटीक उदाहरण है। अंत में तो घर वाले उन्हें पागल तक घोषित कर देते
हैं। उपन्यास में एक पागल पात्र है। वह कलकत्ते की सड़कों पर घूमता है। नेहरू की
तुलना चुने हुए हिटलर से करता है। उसके पास पत्र-पत्रिकाओं और अखबारों की तरह-तरह
की पुरानी कतरनें हैं। 30 जनवरी 1948 के ‘स्टेट्स मैन’ अखबार की एक कतरन को वह हमेशा सबसे ऊपर रखता है,
जिस पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा होता है – महात्मा गाँधी शॉट डेड। उपन्यासकार ने
सांकेतिक रूप से किशोर बाबू के चरित्र को इस पागल के चरित्र से जोड़ दिया है। किशोर
बाबू अक्सर उस पागल को देर तक देखते रहते हैं। उसकी नकल पर वह भी पत्र-पत्रिकाओं
और अखबारों की कतरनें इकट्ठा करने लगे हैं। एक फाइल में हर्षद मेहता, नरसिंह राव, चंद्रास्वामी,
सुखराम, लालू यादव और जयललिता की कतरने हैं। एक दूसरी फाइल
में बोस्निया का युद्ध, ईरान-इराक का युद्ध, रूस में पावरोटी के लिए लंबी लाइन, इथोपिया में भूख
से मरते बच्चों की कतरनें हैं। तीसरे लिफाफे में बेंगलोर की विश्व सुंदरी
प्रतियोगिता, माइकल जैक्सन, देवराला
सती कांड आदि की कतरनें हैं। वास्तव में ये तीन लिफ़ाफ़े भर नहीं हैं बल्कि इस
उपन्यास के मूल विषय-वस्तु हैं जिन पर इस उपन्यास का कथानक बुना गया है।
इस उपन्यास के लिए जो समय चुना गया है वह
सन् 1925 से सन् 2000 तक है। लगभग 75 सालों का समय । इन 75 सालों में यह उपन्यास एक बदले हुए भारत की तस्वीर प्रस्तुत करता है। तीनों
दोस्तो की पैदाइश 1925 ईस्वी की है। अमोलक एक गांधीवादी चरित्र है जो सत्य और
अहिंसा में विश्वास करता है। गाँधी की ही तरह साध्य के लिए साधन की शुचिता पर उसका
प्रबल आग्रह है। शुरू में शांतनु, सुभाष चंद्र बोष को अपना
आदर्श मानता है। वह अमोलक की अहिंसा संबंधी विचार से सहमत नहीं होता । दोनों में हिंसा और अहिंसा को ले कर खूब बहसें होती हैं। उपन्यासकार
ने स्कूल में एक भाषण प्रतियोगिता का आयोजन कराया है जिसका शीर्षक है – ‘अहिंसा : कितनी कारगर कितनी नाकाम’ । अमोलक और
शांतनु पक्ष-विपक्ष में बोलते हैं। इस भाषण की तैयारी के दौरान तीनों दोस्त शांतनु
के घर पर बैठे हुए हैं। शांतनु के पिता डॉ. राय से शांतनु की बहस होती है। सुभाष
बाबू की आलोचना सुन कर वह तिलमिला उठता है।
डॉ. राय समझाते हुए कहते हैं – ‘‘एकदम टिफिकल बंगाली चरित्र
है। वह अपने हीरो के खिलाफ कोई भी बात सुनने को तैयार नहीं । मैं कौन सा गाँधी का
भक्त हूँ। लेकिन आदमी सोच और विचार देख कर तो निर्णय लेगा । सुभाष बाबू बंगाली हैं
तो हम उनके चरित्र में कोई अवगुण न देखें? यही हमारा राष्ट्र
प्रेम है ?” । खैर, धीरे-धीरे तीनों
दोस्त बड़े हो कर पढ़ाई और काम-धंधे के सिलसिले में अलग हो जाते हैं। पर तीनों दोस्त
अलग होने से पहले 20 साल बाद फिर से कलकत्ता में मिलने का वादा करते हैं। अलका
सरावगी ने बीस साल बाद वाले इस प्रसंग को मशहूर अमेरिकन कहानीकार ओ. हेनरी की कहानी
‘आफ्टर ट्वेंटी इयर्स’ से उठाया है। इस कहानी
में दो दोस्त बॉब और जिमी 20 साल बाद मिलने का वादा करते हैं और मिलते हैं। जिमी
पुलिस अधिकारी बन चुका है और बॉब एक बड़ा क्रिमिनल । ‘कलिकथा
: वाया बाईपास’ में भी अमोलक तो एकदम नहीं बदलता पर शांतनु
पूरी तरह बदल जाता है। किशोर बाबू भी जस के तस हैं। शांतनु मुम्बई चला जाता है डॉक्टरी की पढ़ाई करने।
वहाँ वह चालीस साल रहता है। एक आदिवासी क्षेत्र में स्वास्थ्य संबंधी एक ‘एन. जी. ओ.’ खोल लेता है। देश सेवा के नाम पर खूब
पैसा कमाता है। अब वह एक दुनियादार और व्यवसायी डाक्टर बन गया है। उसके लिए अब
सारे संबंध और आदर्श केवल फायदे-नुकसान के गणित से चलते,
बनते हैं। अमोलक जिस गांधीवादी नजरिये से, साधन और साध्य की शुचिता
की बात करता था उस पर वह आज भी अडिग है। वह दिल्ली आ कर में जनांदोलनों के जरिए गांधीवादी
विचार और मूल्यों की लड़ाई लड़ता है।
मैं विस्तार में नहीं जाऊँगा। प्रसंग, बाबरी मस्जिद के विध्वंस का है। सन् 1992 में बाबरी
मस्जिद विध्वंस का जो प्रसंग है उससे हम सब वाकिफ़ हैं कि वह कितना भयानक और खौफनाक
था। उपन्यासकार ने इस पूरी घटना और उस सांप्रदायिक उन्माद को उपन्यास में रचा है। अमोलक
इस सांप्रदायिक उन्माद को रोकने के लिए अयोध्या जाता है। वह कार सेवकों को रोकने
की हर तरह कोशिश करता है। पर, सफल नहीं होता है और उन्मादी
भीड़ द्वारा मार दिया जाता है। आपको ‘मैला आँचल’ का बामनदास याद होगा। उस उपन्यास के आखिर में दुलार चंद कापरा नाम का जो व्यवसायी
है, अवैध तरीके से नमक की बोरियां लाद कर सीमा के उस पार ले जा
रहा है। बामन दास उन्हें रोकता है और कहता है किसी भी कीमत पर इसे जाने नहीं ले
जाने दूंगा। परंतु, नमक की बोरियों से लदी गाड़ियों को उसके
ऊपर से गुजार दिया जाता है और कुचल कर उसकी हत्या कर दी जाती है। हम लोग एम. ए. के विद्यार्थियों से सवाल पूछते हैं
कि ‘बामन दास की हत्या गाँधीवादी विचारों की हत्या है,
विवेचन कीजिए’। क्या अमोलक की हत्या गाँधीवादी
विचारों की हत्या नहीं है? आज गाँधी को उनके 150वें साल में
याद करने का अर्थ क्या हो सकता है? क्या गांधीवादी विचारों
और मूल्यों की हत्या अथवा उनको जीना और उन्हें बचना। आज तो न जाने कितने अमोलक रोज
मारे जा रहे हैं। धर्म के नाम आज जो हो रहा है गाँधी उसे कभी स्वीकार न करते। धर्म
की लड़ाई लड़ते हुए गांधी कट्टर सांप्रदायिकता के शिकार होते हैं और एक हिंदू द्वारा
ही उनकी हत्या कर दी जाती है। बहरहाल, बीमार होने के कारण किशोर
को अयोध्या में बाबरी मस्जिद ढहाए जाने की खबर नहीं है। एक स्वामी जी उसके पागलपन
के लिए जिम्मेदार भूत-प्रेत से उसे मुक्त कराने उसके घर आते हैं। उनके द्वारा
किशोर बाबू को यह खबर मिलती है। स्वामी जी ही बताते हैं कि कैसे अमोलक उस घटना में
मारा गया। किशोर को विश्वास ही नहीं होता वह
बौखला जाता है और स्वामी जी का गला पकड़ लेता है। इस प्रसंग में किशोर बाबू द्वारा
खुद से बातचीत का जो हिस्सा है वह हिस्सा मैं यहाँ पढ़ना चाहूंगा – “क्या आदमी की
एक के प्रति प्रतिबद्धता दूसरे के प्रति उसकी नफरत से तय होती है? राम जी से प्रेम मुसलमान से नफरत? क्या धर्म की
दीवार इतनी मजबूत है कि उसमें खिड़कियाँ नहीं खोली जा सकतीं?
तो क्या एक दुनिया ऐसी ही बनानी होगी जहाँ एक जैसे आदमी ही एक साथ रहें – एक जैसे
रंग वाले, एक जैसे धर्म वाले, एक जैसी
भाषा वाले – जैसे बदरिका चिड़ियों को अलग-अलग पिंजरे में ही रखा जाता है, वरना वे दूसरी चिड़ियों को मार डालती हैं या खुद ही मर जाती हैं।” ‘कलिकथा : वाया बाईपास’ यथार्थ के जिस भयावह चित्रण
से ख़त्म होता है वह प्रतीकात्मक भर नहीं है बल्कि खदबदा देने वाली सचाई है। क्या
मूल समस्याओं से बच कर, किनारा कर समय को बाईपास किया जा
सकता है? यह उपन्यास अपने पाठको से यही सवाल पूछता है।
‘इन्हीं हथियारों से’ हम सब जानते हैं कि प्रगतिशील
कथाकार अमरकांत का प्रसिद्ध उपन्यास है। यह उपन्यास 1942 के भारत
छोड़ो आंदोलन को अपनी कथा का केंद्र बनाता है और इसका लोकेल बलिया, उत्तर प्रदेश का
है। भारत छोडो आन्दोलन के दौरान, आप जानते हैं कि भारत में पहली स्वतंत्र सरकार बलिया
जिला में ही कायम हुई थी । अमरकांत उसी आन्दोलन को केंद्र में रखते हैं। उपन्यास गाँधी
के चरखा आन्दोलन के घर-घर गाये जाने वाले गीत : ‘कबो टूटे न चरखा के तार/चरखवा चालू
रहे। एहि चरखा से लेबों सुराज/चरखवा चालू रहे।। यहाँ चरखा दरअसल यंत्र का प्रतीक नहीं
है वह साम्राज्यवाद से लड़ने का एक निजी देशी हथियार है।
उपन्यास में सुरंजन शास्त्री और
सदाशय व्रत दोनों गांधीवादी चरित्र हैं। सुरंजन शास्त्री पर समाजवादी रंग भी चढ़ा
हुआ है। उपन्यास के नायक नीलेश का चरित्र बहुत ही सोच-समझ कर गढ़ा गया है। वह पूरे
उपन्यास में भगत सिंह और महात्मा गाँधी दोनों के ही विचारों और क्रियात्मक तरीकों के
अंतर्द्वंद्व से जूझता रहता है। पर इस संघर्ष में जीत अंततः गांधीवाद की होती है।
वह उपन्यास के आखिर में कहता है – “युगों से भयंकर हथियारों से लैस आततायियों और
क्रूर अन्यायी शासकों ने जनता पर जो जुल्म ढाए हैं, जनता ने अहिंसा, असहयोग,
स्वावलंबन, एकता, सत्याग्रह इन्हीं हथियारों से उनका मुकाबला किया है। अमरकांत
अपने एक साक्षात्कार में यह पूछे जाने पर कि, आप एक मार्क्सवादी रचनाकार के बतौर
हिंदी में पहचाने जाते हैं। आपने इस उपन्यास में मार्क्सवाद की जगह गांधीवाद को
महत्व दिया है, ऐसा क्यों? इस प्रश्न का जवाब देते हुए वह कहते हैं - “सन 42 में कम्युनिस्टों की भूमिका से मेरा विरोध है। ‘इन्हीं हथियारों से’
में मैंने गाँधी का महिमामंडन नहीं किया है बल्कि गाँधी को वर्तमान की दृष्टि से,
यथार्थपरक ढंग से देखने और पाने की कोशिश
की है। यथार्थ विरोधी ढंग से गांधी की बुराई करना उतना ही बुरा है जितना अकारण
उनका महिमामंडन करना। गांधी साम्राज्यवाद विरोधी लडाई के महान स्तम्भ थे। उन्होंने
साम्राज्यवाद को अपनी कार्य-संस्कृति से भारी चुनौती दी थी। मैं गांधीवादी नहीं
हूँ पर मैं यह अवश्य चाहूँगा कि गाँधी की भूमिका का सही मूल्यांकन हो।” नेल्सन
मंडेला की आत्मकथा ‘ए लांग वाक टू फ्रीडम’ का वह कथन याद आ रहा है – “मैं गाँधी के
सिद्धांतों से पूरी तरह सहमत नहीं हो सकता पर अपने देश को आज़ादी दिलाने के लिए
मेरे पास गांधी के रास्ते चलने के अलावा दूसरा विकल्प नहीं ।”
अब अखिलेश ‘निर्वासन’ की थोड़ी सी चर्चा कर अपनी बात समाप्त करूँगा। पूंजीवादी और नव-पूंजीवादी
उदार आर्थिक–राजनीतिक व्यवस्था और तंत्र में बनने-बिगड़ने
वाली नए ढंग की मध्यवर्गीय सामाजिक-सांस्कृतिक रहन और विकास को थोड़ा और व्यापक फ़लक
पर जानना समझना हो तो सन 2014 ईस्वी में प्रकाशित अखिलेश के उपन्यास ‘निर्वासन’ को लिया जा सकता है। ‘समय, समाज और भावनाओं की बेदखली का आख्यान’ है निर्वासन, ऐसा पंच लाइन के रूप में उपन्यास के
साथ लिखा गया है। इस पर बहुत कुछ न कहते हुए बस इतना ही कहना है कि, काश! शीर्षक पूरी रचना का भाग्य तय कर सकते? बहरहाल,
‘निर्वासन’ वर्षों की मेहनत से लिखा गया एक
महत्वाकांक्षी परियोजना वाला ऐसा उपन्यास है जिसमें उन्नीसवीं सदी (गिरमिटिया
भगेलू), बीसवीं सदी (संपूर्णानंद बृहस्पति, चाचा, पिता आदि) और इक्कीसवीं सदी (सूर्यकांत,
गौरी, राम अजोर पांडेय आदि) तीनों एक साथ ‘52 मेफेयर रजिस्टर’ (26 खुद सूर्यकांत के और 26
सुहाग रात के दिन उसकी पत्नी गौरी द्वारा भेंट किए हुए) में दर्ज़ अतीत, वर्तमान और भविष्य के सहारे विस्तार पाते हैं। अखिलेश को कथा कहने की कला
बहुत अच्छे से आती है। उसमें भी एक चीज अखिलेश के यहाँ सबसे भिन्न है- कथा को
हमेशा एक तीव्र स्फूर्ति और गति देते रहना, जिससे वह ठस्स,
बोझिल और उबाऊ न हो जाय । वह जिसे अंग्रेजी में कहा जाता है- ‘एक्सिलरेट दि टेम्पो ऑफ नैरेटिव’, वह कला। ‘निर्वासन’ उपन्यास का लोकेल उत्तर प्रदेश के
सुल्तानपुर जिले का एक गाँव गोसाईंगंज है जहाँ के भगेलू उन्नीसवीं सदी में गाँव से
गिरमिटिया मजदूर बन कर सूरीनाम चले चले गए थे जिनके वंश की ख़सरा-खतौनी ढूंढते हुये
उनके पोते राम अजोर पांडेय इक्कीसवीं सदी में गोसाईंगंज आते हैं। राम अजोर पांडेय
नव-उदारवादी वैश्विक पूँजी वाले दौर में पनपे एक ऐसे एन. आर. आई. पूँजीपति हैं
जिनके लिए पैसे के बल पर कुछ भी पा लेना दुर्लभ नहीं । पूँजी, राजनीति, धर्म और मीडिया इन चारों का जो सांगठनिक और
संस्थानिक महत्व (और टुच्चई भी) जिस तरह से उदारवादी अर्थव्यवस्था के तहत स्थापित
हुआ, राम अजोर पांडेय, संपूर्णानंद
बृहस्पति और विजयवीर बहुगुणा उसके प्रतीक हैं। ग्लोबलाइज़ेशन वाले विकास के माडल के
साथ जो ‘कार्य संस्कृति’ हमारे देश में
विकसित हुई उसके सटीक हवाले इस उपन्यास में मिलते हैं। उपन्यास में निर्वासन एक
नहीं कई हैं। भगेलू पाण्डेय का निर्वासन, सूर्यकांत-गौरी का
निर्वासन, चाचा का निर्वासन और भी कई अनदेखे अनचीन्हें
निर्वासन। ‘निर्वासन’ के एक प्रसंग की
थोड़ी सी चर्चा कर अपनी बात समाप्त करूँगा । इस उपन्यास में भी गिरमिटिया प्रथा का
विस्तार से वर्णन है। राम अजोर पाण्डेय का चरित्र इसी प्रथा के कथा-संदर्भों से
बुना गया है। वे इस कथा के केन्द्रीय चरित्र हैं। पर मैं उन प्रसंगों और वर्णनों
के विस्तार में नहीं जाऊंगा। इस उपन्यास में एक चरित्र हैं चाचा। उपन्यास के नायक
सूर्यकांत के चाचा। एन. आर. आई. राम अजोर पाण्डेय के विलोम । चाचा के पूरे चरित्र
का, उपन्यासकार ने जिस तरह से सृजन किया है उसको देख कर लगता
है कि चाचा के चरित्र में एक साथ आर्यसमाजी तर्कशीलता और गांधीवादी जीवन पद्धति का
मेल है। चाचा एक गांधीवादी चरित्र हैं। तथाकथित आधुनिकता, तकनीकी
विकास, यांत्रिकता और कृत्रिमता का जीवन-सम्बन्धों और
परिवारों में अनियंत्रित दखल, आस्था और विश्वास के नाम पर
धार्मिक भावनाओं के साथ राजनीतिक छल, इन सबके विपरीत और
विरोध में चलने वाला सजग और ईमानदार व्यक्ति का नाम है – चाचा
। चाचा ऐसे चरित्र हैं जो “हर बात में उल्टी गंगा बहाते हैं।
पंडितों, ठाकुरों की तुलना में नीची जातियों की तरफदारी करते।
हिंदू के बजाय मुस्लिम, सिख, इसाई
लोगों का साथ देते।” घर के लोग चाचा को सनकी, पागल, खिसका हुआ मान चुके हैं। कारण कि चाचा जमाने
की हवा के अनुकूल नहीं चलते हैं। ‘निर्वासन’ में एक अध्याय है ‘बतर्ज़ हिन्द स्वराज’ । यह पूरा
अध्याय चाचा पर है। आधुनिकता, सभ्यता, तकनीकी
विकास पर इस अध्याय में चाचा और सूर्यकांत के बीच खूब गंभीर बहसें होती हैं।
सूर्यकांत चाचा से तरह-तरह के सवाल पूछता है। चाचा के उत्तर बड़े बेढंगे हैं,
पर सच हैं। सूर्यकांत चाचा से सवाल करता है कि ‘आज आपके लिए खूबसूरती का मानी क्या है? जिसे हम
हिंदी वाले सौन्दर्य कहते हैं। जिसे प्रेमचंद ने कहा था कि अब मेयार बदलने होंगे’। चाचा का जो जवाब है वह सुनने लायक है– ‘‘अफसोस कि
बात है कि आजकल बहुत कम चीजें ये तासीर पैदा करती हैं। आज पार्लियामेंट, अदालतों, लीडरानों, स्कूलों,
मंदिरों, नदियों वगैरह को देख कर क्या इंसान
की आँखें चमकती हैं? नहीं! कोई ख़ुशी और और सुख महसूस करता है?
न्याय, स्वास्थ्य, शिक्षा,
राजनीति ये सब ऐसी चीजें हैं जो समाज को सुन्दर बनाने के लिए होती
हैं लेकिन देखो कैसा जमाना आ गया है यही इंसान को सबसे ज्यादा डरा रही हैं। ये
अपने मकसद के विलोम से भरी हुई हैं। काला कोट पहने वकील को देखते ही लगता है कि अब
न्याय का गला रेता जाएगा। पुलिस को देख कर लगता है कि कोई निर्दोष फँसाया जाएगा और
गुनाहगार की हिफाज़त होगी।” एक अन्य सवाल के जवाब में चाचा का
दृष्टिकोण देखने लायक है – “एक समय था जब मैं साइंस, नएपन और तरक्की को इंसान की बेहतरी के लिए प्रोत्साहन के नजरिए से देखता था।
पर अब लगता है कि नहीं मैं सही नहीं था।...असलियत यह है कि साइंस और नयेपन का
उद्देश्य बस जीतना हो गया है– कुदरत, ईश्वर,
चिड़िया, जानवर, इंसान
सबको जीतना ही उनका मकसद है। जीतना सही लफ्ज नहीं होगा, ये
सबको हराना चाहते हैं। जीतने की इच्छा में हिंसा भरी होती है, पर गुलाम बनाने की इच्छा में हिंसा के साथ-साथ घृणा और बेरहमी भी शामिल
होती है।” हमें, इस संदर्भ में दो पदों
‘अनुशासन’ और ‘नियंत्रण’
के अंतर को समझना चाहिए । मिशेल फूकों ने अपने सांस्कृतिक-राजनीतिक
अध्ययनों में इस अंतर को विस्तार से समझाया है। अनुशासन पूंजीवाद के प्रारम्भिक
दौर की प्रवृत्ति है, लक्षणिकता है, जिसमें
राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक संस्थाओं और एजेंसीज पर एक ‘सिस्टम’ के तहत निगरानी रखी जाय । इसे आधुनिकता के
शुरुआती दौर की भी प्रवृत्ति कह सकते हैं। पर, नियंत्रण की
जो मानसिकता है वह उत्तर-औपनिवेशिक प्रवृत्ति है, इसने आज
सभी तरह की संस्थाओं को अपने नियंत्रण में कर लिया है। इसलिए ‘राष्ट्र राज्यों’ की अवधारणा ही बादल गयी है। अब तो
स्थिति यह है कि राष्ट्र भी खुद के नियंत्रण में नहीं हैं। उनका कमांड कहीं और है।
इसलिए आज उनका कोई सामाजिक-नैतिक उत्थान और विकास की कोई वास्तविक योजना और लक्ष्य
नहीं हैं। चाचा का उपर्युक्त निष्कर्ष और उनका यह दृष्टिकोण उपन्यास को ‘सामयिक’ ही नहीं ‘समकालीन’
बना देता है। जो चोट, चिंता, क्षति और बेचैनी चाचा के अंदर है, वह इस उपन्यास का
मूल कथ्य है। सचमुच, यहाँ आ कर उपन्यास हमारे समय के समकालीन यथार्थ को रचने और व्यक्त करने में सफल
होता दिखता है। जो कथा अपने कथानक में ‘समकालीनता’ का सृजन नहीं कर पाती वह ‘निपट वर्तमान’ में सामयिकता के अनुवादों में रेड्यूस हो कर खत्म हो जाती है। चाचा के होने
से (काश! उनका होना उपन्यास में और अधिक होता) ‘बेदखली का
आख्यान’ प्रामाणिक आख्यान बन जाता है।
विनोद तिवारी |
संपर्क :
सी- 4/604, ऑलिव काउंटी, सेक्टर-5,
वसुंधरा, गाज़ियाबाद –
201012,
मोबाईल : 9560236569
बहुत बेहतरीन ढंग से आपने इन उपन्यासों के सहारे गांधी और गांधीवाद की वर्तमान अवस्थिति का मूल्यांकन किया है।
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