डी एम मिश्र की कोरोना काल की ग़ज़लें
डी एम मिश्र |
कोरोना के रूप में विश्व ने पहली बार ऐसी महामारी का साक्षात्कार किया जिसमें हर दूसरा व्यक्ति संदेहास्पद लगता है। 'सोशल डिस्टेंसिंग' टर्म ही यह बताने के लिए काफी है कि सबसे एक दूरी बना कर रखनी है। कोरोना ने हमारे समाज और संस्कृति सबको बदल कर रख दिया है। समूचा विश्व एकबारगी जैसे लॉकडाउन हो गया यानी कि थम सा गया। लेकिन उन भावातिरेकों का क्या जो किसी भी डिस्टेंसिंग का पालन नहीं करता। कविता कह लें या गज़ल अबाध इस समय में भी बहती रही। इसे कोरोना काल की रचनाओं का नाम दिया जा रहा है। डी एम मिश्र गज़ल के क्षेत्र में एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। उन्होंने कोरोना काल के मद्देनज़र कुछ उम्दा गज़लें कही हैं। हमारे यहाँ जिन परिस्थितियों में लॉक डाउन लगा और तमाम लोग तमाम जगहों पर फँसे पड़े रह गए, तमाम लोगों ने जैसा महसूस किया, उस त्रासदी को अपने अंदाज़ में गज़लकार ने इस तरह शब्दांकित किया है जैसे वे उसका एक शब्दचित्र हमारे सामने प्रस्तुत कर रहे हों। आज पहली बार पर प्रस्तुत है डी एम मिश्र की गज़लें।
डी एम मिश्र की कोरोना काल की ग़ज़लें
1
दाना डाल रहा चिड़ियों को मगर शिकारी है
आग लगाने वाला पानी का व्यापारी वह है
मछुआरे की नीयत खोटी तब वो समझ सकी
जब कंटिया में हाय फँसी मछली बेचारी है
लोग कबूतर बन कर खाली टुक-टुक ताक रहे
उसकी जुमलेबाज़ी में कितनी मक्कारी है
रंग बदलने वाली उसकी फ़ितरत भी देखी
वो गिरगिट सा मतलब से ही रखता यारी है
यारो मरने की ख़ातिर तो दहशत ही काफ़ी
मान लिया कोरोना इक घातक बीमारी है
काँटे अपने आप उगे हैं होगी बात सही
फिर भी माली की भी तो कुछ जिम्मेदारी है
दिल के भीतर ज़हर भरा हो यह भी हो सकता
लोग यही बस देख रहे हैं सूरत प्यारी है
2
यूं अचानक हुक्म आया लाकडाउन हो गया
यार से मिल भी न पाया लाकडाउन हो गया
बंद पिंजरे में किसी मजबूर पंछी की तरह
दिल हमारा फड़फड़ाया लाकडाउन हो गया
घर के बाहर है कोरोना, घर के भीतर भूख है
मौत का कैसा ये साया लाकडाउन हो गया
गांव से लेकर शहर तक हर सड़क वीरान है
किसने ये दिन है दिखाया लाकडाउन हो गया
किसकी ये शैतानी माया, किसने ये साजिश रची
किसने है ये जुल्म ढाया लाकडाउन हो गया
ज्यों सुना टीवी पे कोरोना से फिर इतने मरे
झट से दरवाजा सटाया लाकडाउन हो गया
कल लगाता था गले अब छू नहीं सकता उन्हें
मुश्किलों का दौर आया लाकडाउन हो गया
3
छूट गया घर तब जाना घर क्या होता है
कोरोना ने दिखलाया डर क्या होता है
सारे सपने मेरे भी हो जाते पूरे
चूक गया तब जाना अवसर क्या होता है
बचपन में मैंने भी मूरत पूजा की है
ठोकर खा कर जाना पत्थर क्या होता है
ठेकेदारों और कहीं जाओ तो अच्छा
मुझको है मालूम कि ईश्वर क्या होता है
भटक गया मंज़िल से तब एहसास हुआ
राह दिखाने वाला रहबर क्या होता है
आप नहीं समझेंगे भीतर की ज्वाला को
आग न बुझ पाये तो रोकर क्या होता है
साथ रहा वो जब तक उसकी कद्र नहीं की
बिछड़ गया तो समझा दिलबर क्या होता है
जिनके खेतों में उगती है सिर्फ निराशा
उनसे जा कर पूछो बंजर क्या होता है
4
पर्वत जैसे लगते हैं बेकार के दिन
हमने भी काटे हैं कारागार के दिन
रोशनदानों पर मकड़ी के जाले हैं
उतर गये हैं भीतर तक अंधियार के दिन
मैंने पूछा कब तक देखूं चांद तुझे
वो बोला जब तक हैं ये दीदार के दिन
चारों तरफ़ दिखे केवल कोरोना ही
कितने दर्दीले हैं ये संहार के दिन
लाशों के अंबार लगे हैं दुनिया में
देख लिये दुनिया ने हाहाकार के दिन
कान फटा जाता है झूठे बोलों से
याद बहुत आते हैं वो ऐतबार के दिन
मन में यह विश्वास हमारे है लेकिन
जल्दी ही लौटेंगे फिर से प्यार के दिन
5
परिंदे किस तरह पिंजरों में रहते होंगे अब जाना
सुबह से शाम तक केवल तड़पते होंगे अब जाना
न उनके पंख खुल सकते, न उड़ सकते हवाओं में
कई किश्तों में बेचारे वो मरते होंगे अब जाना
गुज़र जाती है सारी ज़िन्दगी बस जी हुजूरी में
गुलामी किस तरह वे लोग करते होंगे अब जाना
अगर वो उफ़ करें तो काट दी जाये जुबां उनकी
इसी डर से वे सब चुपचाप सहते होंगे अब जाना
सही है महफ़िलों में आ के दीवाने भी हंसते हैं
मगर तन्हाइयों में वे सिसकते होंगे अब जाना
ग़रीबों के जमाखातों में पैसे भी नहीं होते
ग़ुजारा किस मुसीबत में वो करते होंगे अब जाना
6
इधर भुखमरी, उधर कोरोना दुविधा में मजदूर
बीवी, बच्चे भी हैं संग में है कितना मजबूर
सुनने वाला कौन किसी की लेकिन करुण पुकार
भूखों मरते लोग, न पिघले सत्ता कितनी क्रूर
हम भी, तुम भी, तुम भी उसकी मौत के जिम्मेदार
खाये पिये अघाये हम सब मद में अपने चूर
और किसी के मन की पीड़ा को भी तो समझें
अपने मन की बातें बांच रहे सारे मगरूर
तीन दिनों से भूखा वो मजदूर रहा है पूछ
भैया मेरा गांव यहां से अब है कितनी दूरॽ
देश के सब करखाने उसके दम से हैं चलते
फिर भी वो खामोश है उसका सिर्फ़ है एक कसूर
यह उम्मीद अभी उसकी आंखों में तैर रही
उसकी रक्षा करने वाला होगा कोई ज़रूर
7
हो मालूम तुझे कुदरत के तिरस्कार की हद क्या है?
ऐ इन्सान समझ तू पहले अहंकार की हद क्या है?
कोरोना कुछ और नहीं है एक नसीहत भर केवल
बूझो इन्सानी फ़ितरत के अत्याचार की हद क्या है?
बेचारे चमगादड़ को नाहक बदनाम किया जाता
अपना दामन झांक के देखो पापाचार की हद क्या है?
रोज नया कानून बना कर दे देती सरकार हमें
आज तलक हम जान न पाये इस सरकार की हद क्या है?
पैसे के आगे सारे सम्बन्धों को बेबस देखा
कोई मगर बताए यह भी इस बाज़ार की हद क्या है?
रिश्ता हो या कविता हो निर्वाह ज़रूरी है लेकिन
मगर तनिक यह भी तो जानो संस्कार की हद क्या है?
गांव, शहर दोनों की हालत बिल्कुल इक जैसी दिखती
क्वारंटीन की मार झेलते पर इस मार की हद क्या है?
8
कोरोना से प्राण बचा कर भूखा मारो क्या मतलब
मेरे गांव की सीमाओं को सील कराओ क्या मतलब?
कैसे देश बचेगा, कैसे लोग जियेंगे यह सोचो
क़दम-क़दम पर ख़तरा कह कर सिर्फ़ डराओ क्या मतलब?
डूब रहा हूं दरिया में तो क्या इस तरह निकालोगे
मोटा रस्सा गर्दन में मेरी बंधवाओ क्या मतलब?
दे कर अपना वोट तुम्हें ही कुर्सी पर बैठाया है
बदले में अब उंगली पर दिन -रात नचाओ क्या मतलब?
मुंह में राम बगल में छूरी, यह अख़लाक़ तुम्हारा है
ऐसे में फिर अपना कह कर मुझे पुकारो क्या मतलब?
आज ज़रूरत मुझको थी, कल तुमको भी पड़ सकती है
माना मदद किये हो लेकिन ताना मारो क्या मतलब?
जो भी थोड़ा -बहुत कर सको यार करो लेकिन मन से
दिल में अपने नफ़रत भर कर प्यार जताओ क्या मतलब?
9
बहुत याद आते हैं गुज़रे हुए दिन
हवा हो गये वो महकते हुए दिन
मेरी याद आये तो यह सोच लेना
इधर भी वही हैं तड़पते हुए दिन
उठाओ नज़र तो शिकारी ही दिखते
परिंदों के जैसे हैं सहमे हुए दिन
ज़रा मेरे हालात पर गौर करना
बचे हैं विवशता के मारे हुए दिन
पता ही नहीं कौन तारीख़ है आज
कैलेंडर के पन्ने बदलते हुए दिन
सितारों से कैसे मुलाकात होगी
नज़रबंद घर में हैं उड़ते हुए दिन
ये मुमकिन नहीं बंद सब रास्ते हों
चलो याद करते हैं भूले हुए दिन
10
समर में चलो फिर उतरते हैं हम भी
ज़माने की सूरत बदलते हैं हम भी
अंधेरों ने बेशक हमें घेर रक्खा
शुआओं में लेकिन चमकते हैं हम भी
कोरोना के डर से भले घर में दुबके
बहादुर मगर घर में बनते हैं हम भी
हमें है पता वोट की अपने कीमत
नं भूलो सियासत बदलते हैं हम भी
भले वो हमारी हो या दूसरे की
मुसीबत में लेकिन तड़पते हैं हम भी
बताओ हमें जिसमें कमियां नहीं हों
शराबी नहीं, पर बहकते हैं हम भी
तेरी याद में वो ख़लिश है सितमगर
अकेले में अक्सर सिसकते हैं हम भी
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
सम्पर्क
मोबाइल : 9415074318
मिश्र जी की ग़ज़ल में इस समय के तनावों के साथ उनके जन-सरोकारों की जो प्रतिबद्धात्मक स्पष्टता है वह अदम की परंपरा को आगे ले जाती है।वे ग़ज़ल में आमतौर पर पाई जाने वाली रूपग्राही अमूर्तता की बजाय शायरी के मर्म की संप्रेषणीयता को तरजीह देकर चलते हैं। उनको हार्दिक बधाई और पहली बार को बहुत बहुत धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत आभार आदरणीय डा jeevan Singh ji
हटाएंबहुत ही उम्दा ग़ज़लें।
जवाब देंहटाएंपहली बार जैसे ब्लागस्पाट पर मेरी ग़ज़लों को स्थान देने के लिए आपका बहुत-बहुत आभार। वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी के बेहतरीन छाया चित्र हैं। इसके लिए उन्हें भी शुक्रिया अदा करता हूं।
जवाब देंहटाएंदुःखद सच को उजागर करती ,संवेदना से भरी हुई ग़ज़लें। इस त्रासदी से आज हर कोई जूझ रहा है । दुःख चतुर्दिक पसर गया है।क्या ही अच्छा होता जो सुख इस तरह चतुर्दिक पसर जाता ।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
हटाएंसारी रचनाओं ग़ज़लों को पढ़ गया वाह वाह वाह वाह वाह वाह वाह बधाई हो ग़ज़ब
जवाब देंहटाएंआदरणीय मित्र डा.डी एम मिश्रा जी नमस्कार ।
जवाब देंहटाएंबेहद खूबसूरत मनभावन सृजन। जन सरोकारों के प्रति प्रतिबद्धता आपकी ग़ज़लों की प्रमुख विशेषता है । भाषा और शिल्प विधान तो निश्चित ही श्रेष्ठ है । जन साधारण की विकलता और विवशता को बहुत सुन्दर प्रस्तुति प्रदान की है ।
आपके उज्जवल भविष्य की कामना करता हूं आदरणीय मित्र।
-डा. रवीन्द्र रघुवंशी
आज सारी दुनिया कोरोना की पीड़ा से व् व्यथित है, कष्ट ग्रस्त है. ऐसे में हमारे जाने पहचाने ग़ज़लकार डा. डी एम मिश्र जी भला कैसे चुप बैठेंगे.
जवाब देंहटाएंइस दौर में उनकी लिखी कुछ ग़ज़लें..
यूं अचानक हुक्म आया लाकडाउन हो गया,
यार से मिल भी न पाया लाकडाउन हो गया.
छूट गया घर तब जाना घर क्या होता है,
कोरोना ने दिखलाया डर क्या होता है.
पर्वत जैसे लगते हैं बेकार के दिन,
हमने भी काटे हैं कारागार के दिन.
सफर में चलो फिर उतरते हैं हम भी,
जमाने की सूरत बदलते हैं हम भी.
ऐसे फनकार, सुकवि एवं मंजे हुए ग़ज़लकार डा. मिश्र जी की रचनाएँ
देश और समाज के लिए प्ररेणादायक हैं,
गहन प्रभावपूर्ण और हृदयस्पर्शी हैं.
इस महान कृति के लिए उन्हें
मैं मंगलमय शुभकामनाएं एवं
बहुत बहुत बधाइयाँ प्रदान करता हूँ 🌹
बहुत-बहुत आभार मित्र
हटाएंबहुत सुंदर गजलों को उपयुक्त रूप से स्थान देकर डॉ चतुर्वेदी ने साहित्यिक कृतियों का उचित सम्मान किया है हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ।
जवाब देंहटाएंAjit Kumar Raiने इस पोस्ट पर यह लिखा है -बहुत अच्छी आनुभूतिक गजलें हैं लेकिन लाकडाउन तो अपरिहार्य ही था । बिडंबना यह है कि अब जबकि तीस हजार से अधिक लोग रोज शिकार हो रहे हैं तो कोई लाकडाउन नहीं है ।
जवाब देंहटाएंKiran Mishra लिखती हैं -
जवाब देंहटाएंकोरोना की भयावहता को लेकर कवि ने समसामयिक अच्छी गजलें कहीं । सभी गजलें एक से बढ़कर एक । कवि व इन गजलों को पोस्ट करने वाले संतोष चतुर्वेदी जी को बधाई ।
सारे अशआर बेशकीमती। किस ग़ज़ल को सर्वश्रेष्ठ कहूँ ये तय नही कर पा रहा क्योकि किसी एक को कह देना दूसरे के साथ बेमानी होगी। लेकिन खासकर 'क्या मतलब' में गज़ब का तंज है। एकदम बेबाक तेवर लिए हुए।
जवाब देंहटाएं"रोज नया कानून बना कर दे देती सरकार हमें
जवाब देंहटाएंआज तलक हम जान न पाये इस सरकार की हद क्या है?"
डी एम मिश्र जी सहज दिल में उतर जाने वाली ग़ज़लों का एक मुरीद मैं भी हूँ। असंवेदनशीलता की तमाम हदें पार करती सरकार और समाज से सवाल करती यहाँ प्रस्तुत मिश्र जी की ताज़ा ग़ज़लें बहुत अच्छी लगीं। इनमें से कुछ ग़ज़लों का मैंने पाठ भी किया है।
मिश्र जी को हार्दिक बधाई और साधुवाद। संतोष जी का आभार इस सुंदर प्रस्तुति के लिए।
डी.एम मिश्र अपने समय को पहचानने वाले गज़लकार हैं।उनकी ग़ज़लों में समय उनके कहन से और यथार्थ परक बन जाता है।उनकी ग़ज़लों को पढ़ने और उस पर लिखने की एक छोटी सी कोशिश मैंने भी की है।पहली बार ब्लॉग पोस्ट में प्रकाशित सभी गजलें उत्कृष्ट हैं।मिश्र जी को बधाई और संतोष चतुर्वेदी जी को हार्दिक आभार।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंMadan Mohan जी लिखते हैं -
जवाब देंहटाएंडी एम मिश्र जी की ग़ज़लें पढ़ गया । उनकी ग़ज़लों का कायल पहले से रहा हूं , ये ग़ज़लें भी काफी प्रभावित कीं । उम्मीद है , ये ग़ज़लें जनमानस को उद्वेलित और जागृत करने की भूमिका निभाने में भी कामयाब होंगी । मिश्र जी को बहुत-बहुत बधाई और शुभकामनाएं ।
Kiran Mishra जी लिखती हैं -
जवाब देंहटाएंकोरोना की भयावहता को लेकर कवि ने समसामयिक अच्छी गजलें कहीं । सभी गजलें एक से बढ़कर एक । कवि व इन गजलों को पोस्ट करने वाले संतोष चतुर्वेदी जी को बधाई । लिखती हैं -
Kavi Ajai Singh Bhadauria लिखते हैं -
जवाब देंहटाएंआदरणीय कविवर डाँ डी एम मिश्र जी , देशकाल की संवेदना को अभिव्यक्त कर रहीं बहुत अच्छी और जरुरी रचनाएं हैँ !
इन रचनाओं के बिम्ब -प्रतीकों में गहरी पीड़ा के बिम्ब प्रतिबिम्बित हुए हैँ ...
जब मजलूमों को जरूरी राहत नहीं मिली तो कवि का अन्तर्मन व्यथित हुआ तब व्यवस्था पर तीखे व्यंग्य और तंज किये हैँ जो देशकाल के लिए जरूरी भी थे !
सभी एक से बढ़ कर एक कुछ रचनाएं कालजयी बन गयीं हैँ !
तीसरी गजल का शेर बहुत ही मर्मस्पर्शी
और अनूठा अवतरित हुआ है ..
जिनके खेतों में उगती है सिर्फ निराशा ,
उनसे जा कर पूछो बंजर क्या होता है !
आपका साधुवाद एवम सादर बधाई ! आदरणीय
सुशील कुमार जी लिखते हैं -
जवाब देंहटाएंडाँ डी एम मिश्र की गजलों को लगाकर आपने बड़ी नेकनीयती का काम किया। इनकी गजलों में जनवाद का जो पुट है, वह बहुत तीक्ष्ण और हृदयग्राही है। मैं तो व्यक्तिगत तौर पर इस तरह की गजलों का मुरीद हूँ। दुष्यंत और अदम की परंपरा के मिश्र अत्यंत समृद्ध गजलकार हैं। शिल्प और वस्तु दोनों यहां देखने के लायक है। गजलकार औऱ आपको अनेकशः बधाइयां।
Neeraj Mishra जी लिखते हैं -
जवाब देंहटाएंमिश्र जी सही मायने में आमजन के गज़लकार हैं।उनको हार्दिक बधाई
kaushal Kishore जी लिखते हैं -
जवाब देंहटाएंबेहतरीन ग़ज़लें। हार्दिक बधाई मिश्र जी और पहली बार को।
Kumar Sushant ने लिखा है -
जवाब देंहटाएंकोरोना काल पर केंद्रित गजलों के लेखक डाँ डी एम मिश्र की गजलों को ब्लॉगस्पोट पर जगह दी गई है उन्हें बधाई । सभी गजलें समसामयिक और उम्दा है।