रामजी राय का आलेख



 
मुक्तिबोध ऐसे कवि हैं जिनके बिना हिन्दी कविता की बात पूरी ही नहीं हो सकती। उनकी कविता को कठिन, दुर्गम कहा जा सकता है लेकिन एक बार उसे पढ़ने के बाद उसके सहज आकर्षण से बचा नहीं जा सकता। हम सब यह जानते हैं कि वे मूलतः मराठीभाषी थे, बावजूद इसके उन्होंने हिन्दी में कविता लिखना शुरू किया। और महज लिखा ही नहीं, यह साबित कर दिया कि हिन्दी कविता उनके बिना अधूरी अधूरी सी दिखेगी। अपनी कुशलता से उन्होंने कठिन से कठिन गद्य को भी कविता की भाषा बना दिया। हालांकि एक लय उनकी कविताओं में लगातार बरकरार रहता है। उनकी कविता को पढ़ कर किंचित भी ऐसा नहीं लगता कि ये कविताएँ आज से लगभग साठ साल पहले लिखी गयी थीं। आज भी जैसे हमारे इस त्रासद समय की पड़ताल करती ये कविताएँ मन को जैसे उद्वेलित कर देती हैं। मुक्तिबोध को किस तरह के उद्वेलन से गुजरना पड़ा होगा, हम इसकी कल्पना ही कर सकते हैं। रामजी राय मुक्तिबोध की कविताओं के गहन अध्येता हैं। मुक्तिबोध की कविताओं की तह में जा कर वे इन दिनों उन पर लिखने का काम कर रहे हैं। पहला आलेख एलिअनेशन पर है। यह लेख मूलतः इलाहाबाद की चर्चित पत्रिका 'कथा-22' में प्रकाशित हुआ था। किंचित परिवर्द्धित रूप में हम इसे पहली बार पर प्रकाशित कर रहे हैं। तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं रामजी राय का आलेख आत्म-अलगाव (एलिअनेशन) का प्रश्न और मुक्तिबोध





आत्म-अलगाव (एलिअनेशन) का प्रश्न और मुक्तिबोध


रामजी राय




क्या मुक्तिबोध आत्मनिर्वासन (सेल्फ़ एलिअनेशन) की समस्या को आाधुनिक मानव जीवन की केंद्रीय समस्या के रूप में देखते हैं? आचार्य नामवर सिंह ऐसा मानते हैं लेकिन आत्मनिर्वासन को आत्म विभाजन, फिर अस्मिता का लोप ठहराते हुए उसे अपने समय के चालू अस्तित्ववादी मुहावरे में फिट कर देते हैं और मुक्तिबोध की कविता अंधेरे मेंको अस्मिता की खोज करार देते हैं। दूसरे आचार्य रामविलास शर्मा शोषण को वर्तमान युग की सबसे ज्वलंत समस्या मानते हुए मुक्तिबोध को पूरी तरह से विभाजित व्यक्तित्व और मानसिक असंतुलन वाला ठहराते हुए कहते हैं - ‘‘व्यक्तित्व-विभाजन मुक्तिबोध की अनेक कविताओं का विषय है। यह ऐसी स्थिति है जिससे उनका निकटतम संबंध है। इस पर बात आगे की जायेगी। लेकिन  अगर रामविलास जी मान भी लेते कि मुक्तिबोध आत्मविभाजन के शिकार नहीं थे और उनकी कविताओं में एलियनेशन का प्रश्न केंद्रीय रूप से मौजूद है, फिर भी वे इसे यह कह कर खारिज कर देते कि यह युवा मार्क्स की ‘1848 की आर्थिक और दार्शनिक पांडुलिपि’  में था, प्रौढ़ मार्क्स में तो वर्तमान युग की केंद्रीय समस्या शोषण है। वैसे शोषणशब्द मुक्तिबोध की कविताओं में बारहा और विभिन्न रूपों में आता है, केंद्रीय प्रश्न के रूप में भी-

‘‘सारे प्रश्न छलमय
और उत्तर और भी छलमय....
समस्या एक
मेरे सभ्य नगरों और ग्रामों में
सभी मानव सुखी, सुंदर व शोषण-मुक्त कब होंगे”


खैर! विभाजित व्यक्तित्व, एलिअनेशन और शोषण में प्रमुखता का प्रश्न, अस्मिता की खोज’ आदि पर अलग से विचार किया जाना बेहतर होगा। फिलहाल मुक्तिबोध की कविताओं में एक अपरूप शून्य के प्रति, ‘चुप रहो मुझे सब कहने दो’ ब्रह्मराक्षसकविता की पंक्ति- ‘‘किंतु युग बदला व आया कीर्ति व्यवसायीसे लेकर अंधेरे मेंकविता की पंक्ति- ‘‘शुनःशेप के पिता अजीगर्त समान ही/ व्यक्तित्व वह अपने से खोया हुआ/ वही उसे मिलता था रात में/ दिन में था पागलतक ऐसी बहुत सारी पंक्तियां बिखरी पड़ी हैं, जो यह बताती हैं कि मुक्तिबोध एलिअनेशन की आधुनिक स्थिति, व्यक्तित्व विभाजन और व्यक्तित्व के विघटन आदि से बहुत अच्छी तरह परिचित थे, उसके ऐतिहासिक, सामाजिक, मनोवैज्ञानिक मार्क्सवादी परिप्रेक्ष्य के साथ।


अंग्रेजी शब्द एलिअनेशन के लिये हिंदी में कई शब्द चलन में हैं। अजनबीपन’  से लेकर अलगाव’, वियोजन’, आत्मनिर्वासन आदि। आप कोई एक शब्द अपने लिये चुन सकते हैं।



एलिअनेशन है क्या बला?


कहते हैं कर्म की गति न्यारी है। मार्क्स के अनुसार मानव समाज के इस गहन गति का इतिहास द्विआयामी है। एक तरफ यह इतिहास मनुष्य के प्रकृति पर नियंत्रण का इतिहास है तो ठीक उसी के साथ यह मनुष्य के खुद से अलगाव के बढ़ते जाने का भी इतिहास है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि अलगाव एक ऐसी परिस्थिति है, जिसमें आदमी अपने ही उत्पाद के, रचना के अधीन हो जाता है, और कि जिनसे उसका सामना एक दुश्मन की तरह होता है। वह अपने ही द्वारा सृजित संसार को पराया पाता है, जैसे यह उसकी न हो कर कोई और दुनिया हो। पूंजीवादी समाज की जितनी भी संस्थाएं हैं- धर्म, राज्य और राजनीतिक अर्थशास्त्र - उन सब पर एलिअनेशन की परिस्थति की छाप होती है यानीं वे सब उससे ग्रसित होती हैं। ये संस्थाएं आपस में अंतरसंबंधित और अंतरनिर्भर होती हैं। जैसे मनुष्य जब तक धर्म की काल्पनिक दुनियां का वाशिंदा बना रहता है, तब तक वह अपने सार को किसी ईश्वर, ब्रह्म या ऐसी ही किसी परा-शक्ति की दी हुई एक वस्तु के रूप में समझता है- ‘त्वदीयं वस्तु गांविंद् तुभ्यमेव समर्पयामि।‘ उसी तरह अपनी आत्मकेंद्रित जरूरतों के तहत वह व्यवहार में अपने श्रम के उत्पाद और अपनी क्रियाओं को किसी परायी शक्ति- धन वा मुद्रा- के अधीन कर देता है और उसे प्राकृतिक मानता हुआ उसी का उत्पाद और क्रिया मानता है। ‘‘धन वा मुद्रा अपने आप में क्या है? कुछ नहीं। वह मुनुष्य के कार्य का उत्पाद है उसके ही अस्तित्व का एलिअनेटेड (अलगाया) सार है।  वही सार मनुष्य को अपने अधीन कर लेता है। अपने अनुभव में यह कहते हुए भी कि पैसा तो आदमी के हाथ का मैल है, मनुष्य उस ‘लक्ष्मी’ की पूजा करने लगता है। और जिस तरह पंडे-पुरोहित, मुल्ला-मौलवी, पादरी, साधू-संत, पीर-पैगंम्बर उस ईश्वर, खुदा, गॉड के बीच मध्यस्थ बन जाते हैं, जिन्हें मनुष्य अपनी सारी अद्भुत उच्च आत्मिक शक्तियां और सभी तरह के धार्मिक विश्वासों को समर्पित कर देता है, उसी तरह राज्य मनुष्य और मानवी आज़ादी के बीच मध्यस्थ बन कर आता है, जिसे मनुष्य अपनी गैर दैवी और मानवी आज़ादी सौंप देता है। बेशक, पूंजीवाद के अंतरगत एलिअनेशन मनुष्य के रोज़मर्रे के कामकाज से गहरे जुड़ा हुआ रहता है, महज़ उसके मानसिक क्रियाकलापों से ही नहीं जैसा कि एलिअनेशन के अन्य रूप हो सकते हैं। मसलन जैसा कि मार्क्स का कहना है- धार्मिक अलगाव मूलतः मनुष्य के चेतना जगत में उत्पन्न होता है, मनुष्य के आत्मिक दुनिया में, लेकिन आर्थिक अलगाव वास्तविक जीवन में उत्पन्न होता है.... इसलिए वह भौतिक और आत्मगत संसार दोनों को प्रभावित करता है।


एलिअनेशन अनिवार्यतः एक ऐतिहासिक अवधारणा है। अपनी ऐतिहासिक प्रक्रिया में मानवी अलगाव सभी चीजों को स्वयं से जुदा और बेचने वाली वस्तु में बदलने के साथ पूरी हो गई है।’‘बिक्री अलगाव का व्यवहार है। अलगाव ‘‘बिक्री योग्य”  के सार्वभौमिक विस्तार के रूप में आया, सभी चीजों को- मनुष्य के व्यक्तित्व, उसके नैसर्गिक गुणों तक को- माल के रूप में बदल देने के बतौर। जिसे लक्षित करते हुए मुक्तिबोध ने कहा- यह व्यक्तित्व के व्यवसायीकरण का युग है।‘ एक ऐसा युग जिसमें मनुष्य को उसके श्रमशक्ति समेत सभी गुणों सहित वस्तु रूप में बदल दिया गया, जो अपने को माल की तरह बेचने के लिये बाजार में खड़ा है। अब मनुष्य के बीच के रिश्ते वस्तुओं के बीच के रिश्ते में बदल गये। इसे ही री-इफिकेशन (वस्तुकरण) कहते हैं।


अपने श्रम के उत्पाद और उत्पादन प्रक्रिया से आदमी के अलगाव की यह परिस्थिति आदमी का खुद से भी अलगाव का बायस बनती है। ऐसे में वह महसूस ही नहीं कर सकता कि वह अपने व्यक्तित्व का आत्मसंभवा पूर्ण विकास कर सकता है। ‘काम तो उसके लिये बाहरी चीज लगती है। वह उसे अपने स्वभाव का हिस्सा लगता ही नहीं। उसे अपने काम से कभी खुशी नहीं मिलती। फलतः वह अपने काम में कभी संतुष्टि नहीं पाता बल्कि अपने को नकारता है। अपने को कभी महसूस भी करता है तो अवकाश के समय जब वह घर पर होता है बाकी काम के समय वह अपने को गृहहीन महसूस करता है। श्रम करते हुए वह अपने को किसी अन्य के लिये श्रम करता पाता है, जो उसके लिये नहीं है। उसे अपना श्रम दुख, अपनी शक्ति शक्तिहीनता, अपना ही सृजन बांझपन कुल मिला कर उसकी अपनी व्यक्तिगत, शारीरिक, मानसिक ऊर्जा, उसका निजी जीवन... एक ऐसी क्रिया की तरह लगता है जो उससे स्वतंत्र है और उसके लिए नहीं है, बल्कि उसे उसी के खिलाफ निर्देशित कर दिया गया है।


ऐसा मजदूर को ही नहीं एक भिन्न तरह से कवि को भी महसूस होता है, (अन्यथा जिसे लगता है कि वह स्वतंत्र रूप से और अपने मन का काम कर रहा है, स्वान्तः सुखाय) जब किसी क्षण में वह कहता है- हो इसी कर्म पर वज्रपात! (निराला)

खुद से अलगाव में पड़ा मनुष्य मानव समाज से भी अलगाव में पड़ जाता है, यहां तक कि अपनी मनुष्य प्रजाति मात्र से। देखिए तो आज हर मनुष्य दूसरे मनुष्य से अलगाव में होता है। जब वह खुद के खिलाफ होता है तो वह दूसरे के भी खिलाफ जा खड़ा होता है। प्रत्येक आदमी दूसरे आदमी से अलगाव में खड़ा जैसे मानव जीवन से ही अलगाव में जा खड़ा होता है। आधुनिक नागरिक समाज हमारे सामने इसी रूप में आता है। –


प्रसाद ने कामायनीमें मानसिक अलगाव को, इन्द्रियों तक के एक-दूसरे के अलगाव में जा खड़े होने को चित्रित करते हुए लिखा-


ज्ञान दूर कुछ, क्रिया भिन्न है
इच्छा  क्यों पूरी हो मन की;
एक दूसरे से न मिल सके
यह विडंबना है जीवन की।

(कामायनी : जयशंकर प्रसाद)


निराला ने मनुष्य का मनुष्य से और मनुष्य के मानव समाज से अलगाव की परिस्थिति को महज मानसिक स्तर और विडंबना के रूप में ही नहीं; उससे कहीं गहरे जा कर भौतिक स्तर पर, एक हद तक उसके कारण ‘स्वार्थ’, उसके वस्तु-ग्रस्ति (घेर कर खड़ी जड़ की दीवार) को भी पकड़ने की कोशिश की। वे इसे ज्ञानात्मक संवेदना तक भले न उठा पाये हों लेकिन इसका गहरा घनीभूत संवेदनात्मक ज्ञान उन्हें था –


गहन है यह अंध कारा
स्वार्थ के अवगुंठनों से
हुआ है लुंठन हमारा
खड़ी है दीवार जड़ की घेर कर
बोलते हैं लोग ज्यों मुंह फेर कर
इस गगन में नहीं दिनकर
नहीं शशधर नहीं तारा

कल्पना का ही अपार समुद्र यह
गरजता है घेर कर तनु रूद्र यह
कुछ नहीं आता समझ में
कहां है श्यामल किनारा
प्रिय मुझे वह चेतना दो देह की
याद जिससे रहे वंचित गेह की
खोजता-फिरता न पाता
हुआ मेरा हृदय हारा


इसी तरह अर्चनामें संकलित एक गीत की इन पंक्तियों को भी देखिए -


गीत गाने दो मुझे तो
वेदना को रोकने को।

..........

भर गया है जहर से
संसार जैसे हार खा कर,
देखते हैं लोग लोगों को
सही परिचय न पाकर,
बुझ गयी है लौ पृथा की,
जल उठो फिर सींचने को


इन गीतों या अन्य और गीतों व कविताओं को इस नुक़्ते नज़र से देखें तो हमें इनमें व्यक्त संवेदनात्मक तीव्रता, विकलता, अवसाद को गहरे जा कर समझने में बहुत मदद मिल सकती है। तब हम निराला के संवेदनात्मक उद्देश्यों- कहां है श्यामल किनारा,’ देह की वह चेतनाजो वंचित गेह की याद बनाए रखे- से संगति बनाने, इसे हासिल करने, पा लेने की चुनौती को स्वीकार करने, उसके हमारे लिये महत्व को आत्मसात करने की बेचैनी से और गहरे स्तर पर भर जाएंगे। कहिए तो इन गीतों का यही संवेदनात्मक उद्देश्य-लक्ष्य है। कहा जाये तो स्वयं निराला और उनके रचनाओं की और बेहतर और नई समझ के लिये भी एलियनेशन की समस्या की समझ का भारी महत्व है।


मुक्तिबोध के यहां भी यह विकलता, अवसाद, हार की पीड़ा उसी तीव्रता के साथ मिलती है। उनकी नगरी के गगन में भी चांद नहीं है, सूर्य नहीं है, ज्वाल नहीं है/ सिर्फ धुएं के बादल-दल हैं/... छाये हुए धूम की मानो हजार आंखें/ द्वेषभरी चिनगियां हजारों/ जहरीली हैं।मुक्तिबोध यह सब देख कर विकल और संतप्त जरूर होते हैं लेकिन वे यहीं तक नहीं रुकते, आगे जाते हैं। अलगाव की इस वस्तुस्थिति को ज्ञानात्मक संवेदना की ऊंचाई तक ले जाते हैं और फिर इसे गहरी संवेदना के साथ चित्रित करते हैं-


“इस भीषण अप्राकृतिक जगत में तुम जागे
इस वस्तुस्थिति से सामंजस्य-यत्न जितना भी अधिक किया
इस जग को और-और अज़ीब पाया
जिसमें तुम और-और ज़्यादा अज़नबी बने
अपने को बदनसीब पाया।
जितनी ही अधिक मित्रता की
उतनी ही अधिकाधिक शत्रुता रखी
अपने ही से।
अपने से जुदा हुए
निज की छाया दो भागों में बंट गयी
अपना सिर अलग-अलग दो एंगल में तन गया
हाथों के भीतर से फूटे दो नये हाथ
उग आये नये अज़नबी पंजे खतरनाक
जीने के लिये, स्वयं से पृथक भिन्न हो कर...
अस्तित्व-मात्र की रक्षा की इस उलझन पर
तब आत्म-ग्लानि की लहर न क्योंकर फूट पड़े।
फिर आत्म-व्यर्थता भाव नहीं क्योंकर उमड़े
फिर क्यों न रहे अस्तित्व
भीती से ग्रस्त
और फिर क्यों न बने ज़िन्दगी
दुश्चिंता की फैंटेसी
तब क्यों न यहाँ ज़िन्दापन
अनसधा अनफला थका इरादा हो
दिल भरे खयालों का बारीक बुरादा हो।  

(चुप रहो मुझे सब कहने दो)


यहाँ स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न उठ सकता है कि मुक्तिबोध इस जगत को ‘भीषण अप्राकृतिक’ क्यों कहते हैं? ऊपर हम एलियनेशन के कारणों पर एक हद तक चर्चा कर आये हैं। दरअसल, पूंजीवादी उत्पादन-प्रक्रिया ‘सभी तरह के स्वाभाविक, प्राकृतिक और बुद्धिसंगत संबंधों को सर के बल खडा कर देती है, उसे अप्राकृतिक और अबुद्धिसंगत बना देती है। इस नाते अन्यथा मनुष्य जो कि चेतन प्राणी है, उसकी इस दशा को “मनुष्य की अचेतन अवस्था कहा जा सकता है। फिर होता यह है कि श्रम जो उत्पादन की क्रिया है और जो मनुष्य-जीवन का प्राकृतिक रूप है, उसे लाभ-लोभ की अर्थवादिनी उत्पादन-प्रक्रिया - श्रम-विभाजन, अदला-बदली यानी विनिमय और निजी-संपत्ति की व्यवस्था - मनुष्य-श्रम की प्रकृति को आच्छादित कर लेती है। मनुष्य को अपने कर्म से संतोष और सुख नहीं अनुभव करने देती और उसे श्रम के फल पर अपने अधिकार से वंचित रखती है। इस तरह ‘आच्छादित किये हुए समस्त नभ को’, जो खुद अप्राकृतिक है, खुद को प्राकृतिक रूप में प्रस्तुत करती है। यही ‘वस्तुस्थिति’ है।




ब्रह्मराक्षस


अब मनुष्य या किसी चीज का अगर अलगाव हुआ है तो ज़ाहिर है उसका यह अलगाव निश्चित चीज से हुआ है और यह किसी निश्चित कारणों का परिणाम है- अलगाव के विषय हैं मनुष्य से संबंधित घटनाओं और परिस्थितियों के आपसी संघात - जो अपने को ऐतिहासिक ढांचे, फ्रेमवर्क में ज़ाहिर करते हैं। मुक्तिबोध की कविता ब्रह्मराक्षस’ की पंक्ति किंतु युग बदला व आया कीर्ति व्यवसायी.... - को इस संदर्भ और अर्थ में सही तौर पर समझा जा सकता है। यहां यह पंक्ति एलियनेशन के बारे में ऊपर जो कुछ भी कहा गया है उन सभी बातों को अपने में समेटे हुए है। यानी कि एलिअनेशन अनिवार्यतः एक ऐतिहासिक अवधारणा है और कि अपनी ऐतिहासिक प्रक्रिया में मानवी अलगाव अब सभी चीजों को स्वयं से जुदा और बेचने वाली वस्तु में बदलने के साथ पूरी हो गई है। वह अब कीर्ति तक का व्यवसाय करने लगी है। इन अर्थों में यह पंक्ति समूची कविता को समझने की कुंजी है। वह बात जो अन्यथा है तो गहरी लेकिन जिसका आधार समझ में न आ सकने लायक है, उसे समझने का आधार मिलने लगता है, उस बावड़ी और उसके घिरे पानी में डूबी अनेकों सीढियों का भी अर्थ जैसे खुलने लगता है।



‘कामायनी : एक पुनर्विचार’ में मुक्तिबोध लिखते हैं- “सर्वशक्तिशाली ब्रिटिश साम्राज्यवाद के भीतर भारतीय औपनिवेशिक पूंजीवाद का उदय हुआ। विश्व-पूंजीवाद के भीतर अखिल भारतीय अर्थ-तंत्र भी पूंजीवादी हो गया था, किन्तु विशाल सामंती ध्वंसावशेष अभी भी सीना ताने खड़े हुए थे। औद्योगिक पूंजीवाद भी जोरों से बढ़ रहा था। यद्यपि समाज-सुधार का आन्दोलन बहुत जोरों पर था, किन्तु वह भारतीय मध्यवर्गीय परिवारों की सभी सामंती श्रृंखलाओं को छिन्न-भिन्न न कर सका। ...सामंती प्रभाव-श्रृंखलाओं से जनता का उद्धार-कार्य अधूरा रह गया था। ....उन सामंती प्रभावों की रूपांतरित आदर्श-छायाओं ने स्थित्यात्मकता को जन्म दिया। इसमें व्यक्ति मन छटपटाने लगा। यह छटपटाहट तभी दूर हो सकती थी जब उसको क्रांतिकारी सामाजिक दर्शन प्राप्त होता... किन्तु उन दिनों ऐसा नहीं हो सकता था।” वास्तविकता यह है कि वह बाद को भी नहीं हुआ। ‘एक साहित्यिक की डायरी’ में मुक्तिबोध ने ‘नये की जन्म कुंडली’ नाम से दो हिस्सों में लिखे लेख में उसका विश्लेषण किया है।



मुक्तिबोध फैंटेसी के प्रयोग की सुविधाओं - वास्तविकता के प्रदीर्घ चित्रण से बचते हुए, जीवन की वास्तविकताओं के सारभूत निष्कर्षों अर्थात जीवन-ज्ञान को कल्पना के रंगों में प्रस्तुत करते हुए, ज्ञान-गर्भ फैंटेसी द्वारा सार रूप में जीवन की पुर्रचना करने और फैंटेसी की कतिपय असुविधाओं - प्रस्तुत जीवन तथ्यों की पहचान के मुश्किल हो जाने, गौड़ पड़ जाने, उनके क्रम स्थापित करने में अड़चनें आने आदि- से बचाते हुए अपने देश-काल की सामाजिक-संरचना को भी कविता में चित्रित करते हैं, जिसमें हमारा जीवन अवस्थित है।



ब्रह्मराक्षस कविता में शहर है और उससे सटी हुई अभी भी सीना ताने खड़े हुए विशाल सामंती ध्वंसावशेष को प्रतीकीकृत करती, उस ओर उलझी डालें लिए वृक्षों से घिरी परित्यक्त सूनी बावड़ी है। जहां हवा में किसी अजानी बीती हुई उस श्रेष्ठता (सत युग, रामराज्य, स्वर्ण युग) के शत पुण्य का आभास तैर रहा है, जो दिल में एक खटके सी लगी रहती है, आज भी-


“विगत शत पुण्य का आभास
जंगली हरी कच्ची गंध में बस कर
हवा में तैर
बनता है गहन संदेह
अनजानी किसी उस श्रेष्ठता का जो कि
दिल में एक खटके सी लगी रहती।



सामंती प्रभाव श्रृंखलाओं से घिरी नवीन पूंजीवादी प्रवृत्तियों को समस्तता में लिए यह ब्रह्मराक्षस किसी वेदकालीन अतीत का चरित्र नहीं है। बल्कि उसको साथ लिए वह हमारे वर्तमान में मौजूद व्यापक बौद्धिक जगत का रूपक, प्रतीक, प्रतिनिधि चरित्र बन जाता है। वह-



“गहन अनुमानिता
तन की मलिनता
दूर करने के लिए प्रतिपल
पाप छाया दूर करने के लिए, दिन-रात
स्वच्छ करने घिस रहा है देह
हाथ के पंजे, बराबर,
बांह-छाती-मुंह छपाछप
खूब करते साफ़,
फिर भी मैल
फिर भी मैल!!


मुक्तिबोध की कविताएँ शब्द-शब्द और वाक्य-वाक्य को बहुत गौर से पढ़े जाने की मांग करती हैं वरना अर्थ छूट जा सकता है। मसलन जो ‘तन की मलिनता’ है वह ठोस, निश्चित नहीं ‘गहन अनुमानिता’ है, उस पाप छाया को दूर करने, स्वच्छ करने के लिए अंतर्मन नहीं ‘देह’ घिस रहा है आदि। मैल अंदरूनी हो और सफाई बाहर की की जा रही हो तो फिर नतीजा यही निकलना है- ‘फिर भी मैल, फिर भी मैल!!’
इस प्रक्रिया में वह-

“सुमेरी-बैबिलोनी जन-कथाओं से
मधुर वैदिक ऋचाओं तक
व तब से आज तक के सूत्र
छन्दस, मन्त्र, थियोरम,
सब प्रमेयों तक
कि मार्क्स, एंजेल्स, रसेल, टाएन्बी
कि हिडेग्गर व स्पेंगलर, सार्त्र, गांधी भी
सभी के सिद्ध-अंतों का नया व्याख्यान करता वह
नहाता ब्रह्मराक्षस, श्याम
प्राक्तन बावड़ी की
उन घनी गहराइयों में शून्य।


यहाँ तीन बातों -‘पाप-छाया’, ‘नया व्याख्यान’ और वह ‘सिद्ध अंत’ जिसका नया व्याखान किया जा रहा है- को समझ लेना जरुरी है।



पहला- पाप-छाया क्या है? आचार्य प्रवरों ने इसे व्यक्ति मुक्तिबोध केन्द्रित मानते हुए उसे उनकी पापस्मृति ठहराया है जो ‘दु:स्वप्न के भय-सी उनका पीछा नहीं छोड़ती।‘ पाप शब्द पुराना है लेकिन मुक्तिबोध ने इस पुराने शब्द में नये अर्थ अनुषंग भरते हुए इसका कई जगह, कई रूपों में प्रयोग किया है। उनमें से एक है ‘शोषण-पाप का परम्परा-क्रम’-



“दस्यु-पराक्रम
शोषण-पाप का परंपरा-क्रम
वक्षाशीन है,
जिसके की होने में गहन अंशदान
स्वयं तुम्हारा!!
इसलिए जब तक उसकी स्थिति है,
मुक्ति न तुमको।
याद रखो,
कभी अकेले में मुक्ति नहीं मिलती,
यदि वो है तो सबके साथ है।“

(चम्बल की घाटी में)



कई जगह यह ‘पाप’ अवसरवाद के रूप में भी है तो कई जगह अपने अनुभव-शिशु की हत्या करने के रूप में। यहाँ वक्षाशीन ‘दस्यु के पराक्रम को ‘शोषण-पाप का परंपरा-क्रम’ बताया गया है, जो अब तक चला आ रहा है। वर्मान में उस परम्परा-क्रम में अवसरवाद का भी मेल हो गया है। यहाँ ‘शोषण पाप’ में ‘स्वयं के गहन अंशदान’ का व्यक्ति के रूप में नहीं समूचे मध्यवर्ग के रूप में बात कही गई है, जिस वर्ग में मुक्तिबोध खुद को भी शामिल मानते हैं। इन अर्थों में अगर वे पाप-छाया को अपना व्यक्तिगत पाप भी मानते हैं और उससे मुक्ति चाहते हैं और इसे लेकर बेचैन रहते हैं तो दिक्कत क्या है? ऊपर से अस्तित्ववादी लगती भाषा-शैली और शब्दावली में मुक्तिबोध लिखते हैं- “लक्ष्य की ओर प्रधावित होने वाले जीवन की वस्तुस्थिति घटित करने के लिए, सबसे पहले व्यक्तिगत जीवन पर ही कठोर अनुशासन चाहिए। माना कि परिस्थितियाँ सारी की सारी हमारी बनायी नहीं हैं, यद्यपि व्यक्तिगत दायित्व उन्हीं परिस्थितियों का हमीं पर है। माना कि सर्वान्शतः खुद भी हम अपने बनाये नहीं हैं, यद्यपि अपने वर्तमान आत्म-रूप का बहुत-कुछ दायित्व हमीं पर है। मैं अपना ही एक भिन्न विकल्प हो सकता था, किन्तु नहीं हुआ, इसका भी दायित्व मुझी पर है। मेरे विकास और मेरी मुक्ति का दायित्व स्वयं पर है, यह मान लेना गलत नहीं। फिर भी अपने जीवन को निर्मित करना एक दुष्कर कार्य है। सिर्फ़ हम इतना ही कर सकते हैं कि ऊपर से नोंच-खरोंच करें, इधर या उधर अपना संशोधन कर लें। फिर भी अपने विकास की अनंत एक-दिशात्मक सम्भावनाओं पर आस्था न रखना और तदनुकूल कार्य न करना मुर्खता है।”  (अकेलापन और पार्थक्य- मुक्तिबोध रचानावली, खंड 4, पेज 101) लेकिन वे जानते हैं और सबको चेताते भी हैं कि यह मुक्ति अकेले में नहीं मिलती, मिलती है तो सबके साथ में। मुक्तिबोध की बेचैनी का स्रोत ‘अपने विकास की अनंत एक-दिशात्मक सम्भावनाओं पर आस्था रखते हुए उसके लिए प्रयास करने और सबको साथ ले कर सबसे पहले इस ‘शोषण-पाप के परम्परा-क्रम’ को ख़त्म करने में निहित है।



निश्चय ही ‘मुक्तिबोध जिस मानव-मुक्ति का स्वप्न देखते हैं, वह कोई सामान्य वर्ग-शोषण से मुक्ति नहीं है, वह मनुष्य की साधारण सम्भावनाओं और क्षमता का विकास भी नहीं है’ इससे अभिन्न रूप से जुड़ी है मनुष्य के अलगाव (एलियनेशन) के समाप्त होने की प्रक्रिया -जिसके चलते वह खुद से, दूसरे मनुष्यों से, समाज से, अपने सार - मनुष्य प्रजाति - और प्रकृति से अलगाव में जा पड़ा है –ताकि मनुष्य की खुद में पूर्ण वापसी संभव हो सके। मुक्तिबोध के लिए ‘मानव आत्मा की पूर्ण सत्ता’ का यही अर्थ है। ऐसा नहीं है कि यह ‘उन्हें रहस्यवादियों की पंक्ति में ला खडा करती है’। यह मार्क्स द्वारा कल्पित साम्यवादी समाज में संभव है। जिसके बारे में मार्क्स कहते हैं: “साम्यवाद निजी संपत्ति का सकारात्मक निषेध है जो मनुष्य की आत्म-विच्छिन्नता का साकार रूप होती है और इसीलिए मनुष्य द्वारा, मनुष्य के लिए मानव सार की वास्तविक प्राप्ति है। इस तरह साम्यवाद सामाजिक (अर्थात् मानवीय) प्राणी के रूप में मनुष्य की अपने आप में पूर्ण वापसी है। यह लक्ष्य सचेतन रूप से हासिल किया जाता है और पूर्ववर्ती विकास की संपूर्ण समृद्धि को आत्मसात करके किया जाता है। यह साम्यवाद, जो पूर्ण विकसित भौतिकवाद है, प्रकृतिवाद के समान है। यह मनुष्य और प्रकृति तथा मनुष्य और मनुष्य के बीच टकराव का वास्तविक समाधन है। यह सत्ता (अस्तित्व) और सार (मनुष्य प्रजाति) के बीच, वस्तुकरण और आत्म-पुष्टि के बीच, स्वतंत्रता और अनिवार्यता के बीच, व्यक्ति और प्रजाति के बीच संघर्ष का सच्चा समाधान है। साम्यवाद इतिहास की गुत्थी का हल है और यह अपने आप को इस हल के रूप में जानता है।“ (इकोनामिक एण्ड फिलोसाफिकल मैनुस्क्रिप्ट- 1844-48)



मुक्तिबोध के लिए यही नवीन क्रांतिकारी सामाजिक दर्शन है जो आज़ादी के संघर्ष के बीच सामंती प्रभाव-श्रृंखलाओं से जनता का उद्धार-कार्य अधूरा रह जाने को पूरा करता लेकिन ‘तब ऐसा नहीं हो सकता था। क्यों नहीं हो सकता था? ‘कामायनी : एक पुर्विचार’ में मुक्तिबोध लिखते हैं- “वह युग था अद्वैत-रहस्यवादी दार्शनिक विचारों तथा नवीन परिष्कृत धर्म-सम्प्रदायों और समाज-सुधार का। किन्तु सुधार केवल उपरी ही रहे। भारतीय परिवारों की वास्तविक सामंती प्रभाव-श्रृंखलाएं घनीभूत ही रहीं।..... फलतः नवीन व्यक्तिवाद से संपन्न हो कर धर्म एक नये रूप में आया, समाज-सुधार की बात केवल शाब्दिक हो गयी, और लोग सामंती प्रभावों का आदर्शीकरण करने लगे। केवल यत्र-तत्र उनका रूप बदल दिया गया, अर्थात उन प्रभाव-छायाओं की नए ढंग से व्याख्या की जाने लगी।”



इस कविता में जितने नाम आये हैं, जिनके ‘सिद्ध अंतों’ का नया व्याख्यान ब्रह्मराक्षस कर रहा है, उनके बारे में मुक्तिबोध के शब्दों में जान लेना शायद बेहतर होगा- “यूरोप में हेगेल के बाद उसका विशुद्ध द्वंद्वात्मक-भौतिकवादी रूप मार्क्स-एंगेल्स ने प्रतिष्ठित किया। किन्तु व्यक्तिवादी-आत्मवादी विचारकों ने सत्य के ज्ञान की प्रक्रिया में बुद्धि को मार गिराया। बुद्धि से हम अंतिम सत्य नहीं जान सकते यह निश्चित किया गया, और दार्शनिक धरातल पर अबुद्धिवाद को स्थापित किया गया। इस अबुद्धिवाद (इर्रेशनलिज्म) का सर्वप्रथम समर्थक प्रचारक शापनहार था। यह आकस्मिक बात नहीं है कि इस जर्मन दार्शनिक ने प्राचीन भारतीय दर्शन से प्रेरणा प्राप्त की। यह आकस्मिक बात नहीं है कि हेडेगर से लगा कर आधुनिक अस्तित्ववादी फ्रेंच विचारक-उपन्यासकार ज्याँ पाल सार्त्र तक अबुद्धिवादी ‘अनुभूति’ के प्रचारक रहे। निश्चय ही इस अबुद्धिवाद ने भारत में एक नवीन संस्करण प्राप्त किया।.... पश्चिम के व्यक्तिवादी विचारकों ने पूंजीवादी सभ्यता की जो आलोचना की, वह न केवल अवैज्ञानिक है, वरन जनवादी मुक्ति-संघर्षों का भयानक शत्रु भी है। स्पेंगलर आदर्श समाज का कोई चित्र प्रस्तुत न कर सका था।... हमारे भारत में उन दिनों वैज्ञानिक रूप से शोषण-विहीन समाज की कल्पना को प्राथमिकता नहीं दी जा रही थी। साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष ही जोरों पर था।... उन दिनों कुछ महत्वपूर्ण अपवादों को छोड़ कर शेष सब मध्यवर्गीय सांस्कृतिक लोग रूस के समाज को विश्वेतिहास में एक अत्यंत वांछनीय स्वागत-योग्य सामाजिक-राजनीतिक प्रयोग मानते थे। किन्तु मानते थे उसे प्रयोग ही।... सन अड़तीस तक मध्यवर्गीय समाज में ऐतिहासिक समाजशास्त्रीय विचारधारा के रूप में मार्क्सवाद का व्यापक प्रभाव न था।”





जहां तक गांधी की बात है तो उनके ‘हिन्द स्वराज्य’ में पश्चिम के अधिकाँश पूंजीवादी राष्ट्रवाद के आलोचकों की तरह, आधुनिक युग को, पूंजीवादी व्यवस्था का युग न कह कर केवल ‘यंत्र युग’ मान कर ही उसकी आलोचना की गई है। ज़ाहिर है फिर तो गांधी भी इसकी बुराइयों के खिलाफ़ समाधान के बतौर एक ‘अ-यंत्र-युग की कल्पना करते हैं, जिसमें आधुनिक युग की उलझनों का अभाव हो। और वह कल्पना पुरातन ग्रामीण पंचायती समाज के नमूने का आधुनिक आवश्यकताओं के अनुसार परिष्कृत रूप ही है। वह सामंती अथवा उससे पूर्वकालीन ग्राम-संस्कृतियों के जीवन का आदर्शीकृत रूप है, (जिसका कोई ऐतिहासिक आधार नहीं है) जिसने हमारी सभ्यता को हजारों सालों तक सामंती शिकंजे में जकड़े रखा। भारतीय सामंतवाद की एक बड़ी विशेषता यह रही आई कि “उसकी ग्राम-व्यवस्था, जो आदिम साम्यवादी पंचायती व्यवस्था के (अपने अनुकूल) भग्नावशिष्ट रूपों को ले कर चली। पूंजीवाद की स्थापना के अनंतर भी.... ग्रामीण अंचलों में सदियों पुरानी छायाएं चलती रहीं। शहरों में बसने वाले उच्चवर्गीय परिवार अभी सामंती प्रभाव-छायाओं को हटा न पाए थे कि पूंजीवादी सभ्यता के भीतर आत्मविरोधों की अनुलन्घनीय खाइयों का न पाटा जा सकने वाला कठोर अस्तित्व अपनी वास्तविक सामाजिक स्थिति बन कर सामने आया। फलतः आदर्श समाज के कल्पना-स्वप्न लोगों की आँखों में तैरने लगे। सुखी, सरल, श्रम-सिक्त, उदार, स्वावलंबी, आत्म-तृप्त ग्रामीण समाज ही उनके आदर्श समाज का नमूना बना। निश्चय ही, ऐसे ही ग्राम अब भारत में न थे। किन्तु गांधीवाद ने ऐसे ग्राम-समाज की कल्पना जनता के मन में स्फुटित कर रखी थी।“ (कामायनी : एक पुनर्विचार) और ब्रह्मराक्षस इन्हीं सबके ‘सिद्ध अंतों’ का नया व्याख्यान करता इतिहास की ‘प्राक्तन बावड़ी की घनी गहराइयों में’ नहा रहा था। फलतः – ‘उद्भ्रांत शब्दों के नए आवर्त में, हर शब्द अपने ही प्रति शब्द को काटता, रूप अपने बिम्ब से जूझता, विकृताकार-कृति बन रहा था।’ 



और मुश्किल यह भी थी कि युग बदल गया है। बाहरी जगत और उससे बनते अंतरजगत का, उसके बनने की प्रक्रिया को एक साथ चित्रित करते मुक्तिबोध बेजोड़ बिम्ब निर्मित करते हैं, जो मनुष्य के खुद से एलियानेट होते जाने की खूबसूरत बानगी भी है -


“किन्तु युग बदला व आया कीर्ति-व्यवसायी
...लाभकारी कार्य में से धन,
व धन में से हृदय-मन,
और, धन-अविभूत अंतःकरण में से
सत्य की झाईं
निरंतर चिलचिलाती थी।”




शब्दों पर गौर करिए- अंतःकरण धन अविभूत हो चला है, उसमें अब सत्य की आग नहीं दहक रही, सत्य की झाईं चिलचिलाती है। संकलित रचनाएं, खंड – 4 में ‘एक साहित्यिक की डायरी’ के अंतर्गत ‘अकेलापन और पार्थक्य’ शीर्षक से एक निबंध है, जो इससे पहले अप्रकाशित था। इसमें ‘पार्थक्य’ का अर्थ तकरीबन एलियनेशन ही लिया गया है। उसमें अकेलापन को प्रार्थक्य से अलगाते हुए मुक्तिबोध ने लिखा है- “...’सुख-सुविधापूर्ण जीवन’ (गुड लिविंग) के फेर में, लोग अपनों को भूल गए! एक भयानक पार्थक्य की अंधियारे-भरी खाई मुंह-बाये फैली हुई है। गरीब जनता में से निकले हुए साहित्यिक भी उच्च-मध्यवर्गीय मनोहर दीप्ति के सम्मोह में स्वजनों-परिजनों को बिसार गये। महत्व के लिए, उन्होंने पार्थक्य को स्वीकार किया।...... आज हम देखते हैं कि जीवन-जगत में, गहरा असंतोषपूर्ण वातावरण है। किन्तु इस असंतोष के तत्व सामाजिक होते हुए भी, उस असंतोष का स्तर केवल आत्म-क्षेत्र-बद्ध है। चिंगारियां हैं—राख में पड़ी हुई, उसमें सनी हुई चिंगारियां — जो ज़रा हवा लगते ही चमक उठती हैं और तुरंत ही नष्ट हो जाती हैं। वह असंतोष निष्फल है, क्योंकि वह किसी व्यापक से संपृक्त नहीं है। इस असंतोष को व्यापक प्रेरणा का रूप तब दिया जा सकता है, जब किसी मानवीय लक्ष्य की ओर हम प्रधावित हों। सार्थक जीवन की अभिलाषा रखना एक बात है, उसके अनुसार जीवन निर्मित करना दूसरी बात।“



यहाँ देखने की बात यह है कि मुक्तिबोध की अन्य कई कविताओं में भी ब्रह्मराक्षस का बिम्ब आता है लेकिन वे सब नकारात्मक चरित्र जैसे हैं- ‘मानव-मस्तक में से निकले/ कुछ ब्रह्मराक्षसों ने पहनी गांधीजी की टूटी चप्पल।’ लेकिन इस कविता में ब्रह्मराक्षस सकारात्मक चरित्र के रूप में आता है या कम से कम पूरी तरह नकारात्मक चरित्र नहीं लगता। ‘मुक्तिबोध रचानावली, खंड 2’ में संकलित ‘ब्रह्मराक्षस’ कविता का रचना काल की सूचना इस तरह दी गई है- ‘1956 में लिखी गई और 1957 में ‘कृति’ पत्रिका के अप्रैल अंक में छपी लेकिन उसमें अंतिम संशोधन 1962 में हुआ।‘ ‘सिद्ध अंतों के व्याख्यान’ की बाबत ऊपर दिए गए सन्दर्भों को ध्यान में रखते हुए देखा जाये तो यह ‘ब्रह्मराक्षस’ स्वतंत्रता आन्दोलन खासकर गांधीजी के नेतृत्व में चले स्वतंत्रता आन्दोलन के, उसमें भी खासकर 20-40 के बीच के काल के बौद्धिकों-समाजसुधारकों-साहित्यिकों का प्रतिनिधि चरित्र ठहरता है, यहाँ यह समझना भी जरुरी है कि उन ‘सिद्ध अंतों’ का ‘नया व्याख्यान’ करते हुए ब्रह्मराक्षस उसके अंतिम निष्कर्षों को नहीं जानता था। वह नहीं जानता था कि ये विचार अंतिम तौर पर प्रतिक्रया के हाथ ही मजबूत करेंगे। कविता में ब्रह्मराक्षस का जिस तरह का व्यक्तित्व उभरता है, वह भी इसी ओर इशारा करता है-



आत्मचेतस किन्तु इस
व्यक्तित्व में थी प्राणमय अनबन....
विश्वचेतस बे-बनाव!!
महत्ता के चरण में था विषादाकुल मन!


यही ब्रह्मराक्षस की ‘ट्रैजडी’ है। यही वे बाहरी-भीतरी दो कठिन पाट हैं – कीर्ति-व्यवसायी युग और सत्य की निरंतर चिलचिलाती झाईं लेकिन साथ ही महत्ता के चरण में विषादाकुल मन - जिनके बीच वह पिस गया। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि मुक्तिबोध क्यों उस ब्रह्मराक्षस का सजल-उर शिष्य होना चाहते हैं। वे यह जान गए हैं कि-

“इस दुनिया की हड्डियां खोल कर भी
समस्या सुलझ नहीं सकती
यह लाभ-लक्ष्य की अर्थावादिनी सत्ता की
अनिवार समस्या है”      
(चुप रहो मुझे सब कहने दो)


इसे बदले बगैर मुक्ति संभव नहीं। यह लक्ष्य पूर्ववर्ती विकास की संपूर्ण समृद्धि को आत्मसात करके हासिल किया जा सकता है। और ब्रह्मराक्षस के किये सारे प्रयत्न, कार्य बेकार नहीं, बल्कि महत्व के हैं। इसलिए उसके अधूरे कार्य को संगत, पूर्ण निष्कर्षों तलक पहुंचाना जरुरी है। बेशक, जो उसके ‘भाव-संगत तर्क-संगत और कार्य सामंजस्य-योजित समीकरणों के गणित की सीढियां हैं हम उसे छोड़ दें। यहाँ प्रश्न उठ सकता है कि मुक्तिबोध उसे क्यों छोड़ देने की बात करते हैं? इसका उत्तर उन भीतरी औ बाहरी दो कठिन पाटों के बीच सामंजस्य बैठाने वाली- सामंजस्य-योजित समीकरणों के गणित की सीढियां हैं, जो वस्तु-स्थिति के जड़ तक, सत्य तक पहुँचने नहीं देतीं और उसके मौत की ‘नीच ट्रेजडी’ का बायस बनती हैं-

इस वस्तुस्थिति से सामंजस्य-यत्न जितना भी अधिक किया
इस जग को और-और अज़ीब पाया....
और फिर क्यों न बने ज़िन्दगी
दुश्चिंता की फैंटेसी.....।


मुक्तिबोध के रचना ससार में सामंजस्य, समझौता, समरसता आदि से अमूमन इनकार का स्वर मिलता है- ‘सामंजस्य है शिलीभूत, समझौते भयानक आदि। हमें सत्य तक पहुँचना है तो ब्रह्मराक्षस के ‘‘भाव-संगत तर्क-संगत और कार्य सामंजस्य-योजित समीकरणों के गणित की सीढियों को छोड़ना ही होगा और ब्रह्मराक्षस के अधूरे काम को संगतपूर्ण निष्कर्षों तक पहुंचाने के लिये अलग राह चुननी ही होगी।



प्रसंगवश यहाँ यह संकेत करना भी जरुरी लग रहा है कि ‘ब्रह्मराक्षस’ कविता का ब्रह्मराक्षस आज के मध्यवर्गीय बौद्धिक समाज के उस हिस्से का भी प्रतिनिधि चरित्र है, जिसके भीतर आज की त्रासद स्थितियों से त्राहि-त्राहि मची हुई है। वह उससे मुक्ति की राह गांधी के ‘सिद्ध अंतों’ का ‘नया व्याख्यान’ करने में ही देख रहा है। उसे लगता है कि ’74 के आपातकाल से भी कहीं अधिक आज आतंक की तरह छाती जा रही साम्प्रदायिक आतताई सत्ता से गांधी के जरिये ही निपटा जा सकता है। वे गांधी से मुक्तिबोध के संवाद की भी याद कर रहे हैं। यह स्वाभाविक है। मुक्तिबोध भी ‘अँधेरे में’ कविता में कुछ ऐसी ही स्थितियों- ‘किसी जन-क्रान्ति के दमन निमित्त लगे मार्शल ला की स्थितियों- में गांधी से संवाद करते हैं। मुक्तिबोध का गांधी से संवाद मुक्तिबोध को नई चुनौतियों से मुक्ति के लिये नए रास्ते पर ले जाता है, लेकिन ये बुद्धिजीवी खुद गांधी के ‘सिद्ध अंतों का नया व्याख्यान’ करने और मुक्तिबोध को भी गांधी के विचार-प्रभाव के अंतर्गत देखने-दिखाने में ही लगे हुए हैं।



ऊपर हम गांधी द्वारा पूंजीवाद को ‘यंत्र युग’ कह, उसके प्रकट हो रहे अंतरविरोधों को अ-यंत्र युग की, भारत की प्राचीन ग्राम संस्कृतियों के आधार पर निर्मित ‘ग्राम-पंचायत व्यवस्था’ की कल्पना से हल करने के विचार की मुक्तिबोध द्वारा की गई आलोचना की बात कर आये हैं। मुक्तिबोध उस कल्पना की न केवल आलोचना करते हैं बल्कि उसे अबुद्धिवाद को बढ़ावा देने वाला और अपने अंतिम निष्कर्षों में प्रतिक्रया का हाथ मजबूत करने वाला बताते हैं-


“सुकोमल काल्पनिक तल पर
नहीं है द्वंद्व का उत्तर
तुम्हारी स्वप्न-वीथी कर सकेगी क्या
बिना संहार के सर्जन असंभव है
समन्वय झूठ है
सब सूर्य टूटेंगे व उनके केंद्र फूटेंगे
उड़ेंगे ब्रहमांड में सर्वत्र
उनके नाश में तुम योग दो।”



आज़ाद भारत की सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक संरचना उसी सामंती अथवा उससे पूर्वकालीन ग्राम-संस्कृतियों के जीवन का आदर्शीकृत रूप ‘पंचायती व्यवस्था’ के आधार पर हुई। वैसे आदर्श ग्राम तब भी नहीं थे, आज तो हैं ही नहीं। विकृत पूंजीवाद का प्रवेश गाँव-गाँव तक हो गया है। गाँव अब सामंती अवशेषों के साथ पूंजीवादी विकृतियों के दुहरे भार से कराह रहा है। अब तो यह और भी दिन के उजाले की तरह साफ़ है कि “दार्शनिक क्षेत्र में पूंजीवादी समाज की अवैज्ञानिक आलोचना के उपरांत वह उसी शोषक वर्ग की अतिचारिता के अपराधों के प्रति क्षमापूर्ण हो कर, वस्तुतः जनता के मुक्ति-लक्ष्यों और उससे सम्बंधित मुक्ति-संघर्षों से विमुख तथा विरोधी है।“ (कामायनी : एक पुनर्विचार) –


“जन-राष्ट्र-लोकायन
जन-मुक्ति-आन्दोलन
के सिद्धहस्त विरोधी
ये साम्राज्यवादियों की पांत में ही बैठे हैं,
जनता के विरुद्ध घोर अपराध कर
फांसी के फंदे की रस्सी-से ऐंठे हैं!!”  

(ज़माने का चेहरा)



गांधी के राष्ट्र-निर्माण के आधार के रूप में ‘ग्राम-स्वराज्य’ के विचार की आलोचना का अर्थ यह नहीं कि मुक्तिबोध गांधी को सिरे से खारिज करते हैं। मुक्तिबोध गांधी जी को आज़ाद भारतीय राष्ट्र का संस्थापक मानते हैं। ‘अँधेरे में’ कविता में आतताई सत्ता के सम्मुख खड़े वे गांधी से संवाद करते हैं। ‘जिसे खूब देखा था, निरखा था कई बार पर, पाया नहीं था।‘  वे उन्हें पाते हैं तो क्या पाते हैं? पाते हैं- “अरे, वह मुख, वे गांधी जी!! इस तरह पंगु!! आश्चर्य!!...” जैसे वह आज़ादी आई ही नहीं, आने के साथ ही जैसे कहीं रुक या सो गई। गांधी की मूर्ति के पास खड़े काव्य नायक को-


“बिजली का झटका
कहता है- “भाग जा, हट जा
हम हैं गुज़र गए ज़माने के चेहरे
आगे तू बढ़ जा।”


किसी को यह दुःख-क्षोभ-क्रोध में कहा गया लग सकता है लेकिन अगली पंक्तियाँ बताती हैं कि ऐसा नहीं है, वह समझ कर बोला गया है-

“किन्तु, मैं देखा किया उस मुख को।
गंभीर दृढ़ता की सलवटें वैसी ही,
शब्दों में गुरुता।”


फिर तो ‘हम हैं गुज़र गए ज़माने के चेहरे, आगे तू बढ़ जा में ‘आगे तू बढ़ जा,   यह वाक्य अर्थ-गर्भी हो जाता है। एक स्तर पर गांधी जी की खुद की आत्मालोचना जैसा।

कविता में आगे जो बच्चा मिलता है, वह उस आज़ादी का प्रतीक है जो आई तो लेकिन अब तक पाई ही न गई। वह बच्चा गांधी जी के पास ही रह गया था, बच्चे के रूप में वह गांधी से ही काव्य-नायक को मिलता है। गांधी जी काव्य-नायक को यह कहते हुए बच्चे को देते हैं-


“मेरे पास चुपचाप सोया हुआ यह था।
संभालना इसको, सुरक्षित रखना।”

वही आज़ादी आज असुरक्षित है। हमारे समय का सबसे बड़ा संकट यही है। तो क्या करना होगा? उन्हीं ‘सिद्ध अंतों’ का ‘नया व्याख्यान’ या किसी नये क्रांतिकारी सामाजिक दर्शन, नये रास्ते का अनुसंधान?



कविता में आगे “वे कह रहे हैं----“ से ले कर “वाह वा!! वज़नदार रायफल, भई खूब!!” यानीं यह पूरा प्रसंग बहुत ही ख़ूबसूरती से उन “शब्दों की गुरुता” का अर्थ-उद्घाटन करता आगे बढ़ता है। काव्य-नायक को आतताई सत्ता से बालक रूपी आज़ादी को ‘संभालने, सुरक्षित रखने’ के भार की गंभीरता का अनुभव हो रहा है-


“छाती से कंधे से चिपका है नन्हा-सा आकाश
स्पर्श है सुकुमार प्यार भरा कोमल,
किन्तु है भार का गंभीर अनुभव।
भावी की गंध और दूरियाँ अँधेरी
आकाशी तारों को साथ लिये हुए मैं
चला जा रहा हूँ
घुसता ही जाता हूँ फासलों की खोहों की तहों में।”


यहाँ “तहों में” शब्द समाज में जो तरह-तरह के फासले बन गए हैं, - आदमी का खुद से, आदमी का एक-दूसरे आदमी और इस तरह आदमी का पूरे समाज और प्रकृति से- उन फासलों की खोहों की तहों में जाने को द्योतित करता है, जिस पर ऊपर बात की जा चुकी है- क्योंकि “जनता के गुणों से ही संभव है भावी का उद्भव।”

कविता में आगे- ‘सहसा रो उठा कंधे पर वह शिशु’ और काव्य-नायक उसका स्वर सुन चौंक-सा जाता है-


“अरे, अरे वह स्वर अतिशय परिचित!!
पहले भी कई बार कहीं तो भी सुना था,
उसमें तो स्फोटक क्षोभ का आवेग,
गहरी है शिकायत,
क्रोध भयंकर।”


ऊपर की दो पंक्तियों पर गौर से विचार करिए तो लगता है कि इनमें कांग्रेस यानी गांधी जी के नेतृत्व में चले आज़ादी के आन्दोलन से इतर -भिन्न राजनीतिक-सामाजिक आन्दोलनों- ग़दर पार्टी, भगत सिंह आदि क्रांतिकारियों के, सुभाषचन्द्र बोस की आज़ाद हिन्द फ़ौज, नौसेना के सशस्त्र विद्रोहों से ले कर, आदिवासियों के उलगुलान आन्दोलन, अम्बेडकर का दलित आन्दोलन, समाजवादियों का आन्दोलन, किसानों के, तेलंगाना आदि कितने ही आन्दोलनों की अनुगूँज है। इन अर्थों में वह स्वयं मुक्तिबोध का शिशु भी है. मुक्तिबोध की कविता में एक जगह आता है- ‘सर पर टोकरी में बालक/ कोई यीशु/ अपना ही शिशु.’ फिर तो उस स्वर का अतिशय परिचित लगना, कई बार का सुना हुआ लगना स्वाभाविक है। उस स्वर में स्फोटक क्षोभ का आवेग, गहरी शिकायत, भयंकर क्रोध इसलिए कि हमारे आज़ादी के नेताओं द्वारा दिए गये सुन्दर वचन कालान्तर में अपने ही व्यंग्य-चित्र में बदलते गए, जनता की दुरवस्था भीषण रूप से बढ़ती गई, पहले से भी छटपटाता आ रहा उसका मन और भी छटपटाने लगा।


शिशु के रोने से काव्य-नायक को डर कि- यदि कोई ‘वह स्वर’ सुन ले, हम दोनों फिर कहीं न रह सकेंगे।’ बच्चे को चुप कराने के लिए हलराने-दुलराने, समझाने, लोरी गाने आदि से जीतनी भी कोशिश की जाती है ‘वह शिशु और-और चीखता है क्रोध से लगातार!!/ गीले-गीले अंगार टपकते हैं मुझ पर।“ जैसे मनाने के अब तक के सारे परम्परागत तरीके अब काम आने वाले नहीं। शिशु की ‘गहरी शिकायत, भयंकर क्रोध’ जैसे किसी नये, वैकल्पिक रास्ते की मांग हो। आगे की कविता पंक्तियां बहुत कुछ कहती हैं-


“(जिसको न मैं इस जीवन में कर पाया,
वही कर रहा है)
मैं शिशु-पीठ को थपथपा रहा हूँ,
आत्मा है गीली।
पैर आगे बढ़ रहे, मन आगे बढ़ रहा।”


शिशु का यह पीठ थपथपाना उसे चुप कराना नहीं, गीली हो आई आत्मा से उसे शाबाश! कहना है। यह शाबाश कहना; कहना भर नहीं, क्रियात्मक है- पैर आगे बढ़ रहे, मन आगे जा रहा। एक नई दिशा, एक नये रास्ते की ओर। आगे शिशु के स्थान पर ‘सूरजमुखी फूल के गुच्छे’ का आ जाना और फिर उससे आगे सूरजमुखी फूल के गुच्छे की जगह ‘वज़नदार रायफल’ का ले लेना सब कुछ बहुत अर्थगर्भी है। जनक्रांति को और उसमें बा-जरुरी शांतिपूर्ण और बा-जरूरी सशस्त्र संघर्ष का स्पष्ट संकेत करता हुआ। बकौल नागार्जुन-


“हिंसा और अहिंसा दोनों
बहनें इसको प्यार करेंगी
इसके आगे आपस में वे
कभी नहीं तकरार करेंगी।” 

(‘हरिजन गाथा’ कविता से)
  
‘सिद्ध अंतों’ का किसी किस्म का ‘नया व्याख्यान’ नहीं, सर्वथा नई दिशा, नया रास्ता- ‘हम हैं गुज़र गये ज़माने के चेहरे, आगे तू बढ़ जा। इसके बगैर नये भारत का स्वप्न नहीं देखा जा सकता। उसकी खोज और स्थापना नहीं की जा सकती। ‘सिद्ध अंतों’ का ‘नया व्याख्यान’ तदर्थ (एडहाक) कार्यवाही का ही दूसरा नाम है। जैसा कि इस सन्दर्भ में ग्राम्सी ने कहा है- ‘तदर्थ कार्यावाही अपनी प्रकृति की वज़ह से दीर्घगामी और जैविक चरित्र की नहीं होती। यह लगभग सभी मामलों में पुनर्स्थापन, पुनर्संगठन के लिए उपयुक्त होती है लेकिन यह नए मूल्यों, नए विमर्शों और नए सामाजिक ढांचों की स्थापना के लिए उपयुक्त नहीं होती। वह बुनियादी तौर पर रक्षात्मक हो जाती है और किसी भी तरह मौलिक रचना में सक्षम नहीं होती। ज़ाहिर है तब उसकी अन्तर्निहित मान्यता होगी कि पहले से अस्तित्वमान सामूहिक इच्छा कमजोर और अस्त-व्यस्त हो गई है। उसका पतन हो रहा है। यह खतरनाक और डरानेवाला तो है लेकिन यह निर्णायक और विपदाजनक नहीं है। उसे फिर से संकेंद्रित और शक्तिशाली बनाया जाना भर जरुरी है।‘ उसमें यह कल्पनाशीलता, साहस और संकल्प नहीं होता, न इसकी वह जरुरत ही महसूस करता है कि ‘एक नवीन सामूहिक इच्छा का बिलकुल शुरुआत से सृजन किया जाए और उससे उन लक्ष्यों के प्रति प्रेरित किया जाए जो मूर्त और युक्तिसंगत हैं लेकिन जिसकी मूर्तता और विवेकपरकता को अभी तक एक वास्तविक और सार्वभौम रूप से विदित ऐतिहासिक अनुभव के द्वारा आलोचनात्मक ढंग से परखा नहीं गया है। (ग्राम्सी)



गांधी जी से प्राप्त शिशु-आज़ादी को संभालने, सुरक्षित रखने और उसका विस्तार करने का गुरुतर भार लिये और उनसे सकर्मक जीवन की प्रेरणा लेते आतताई सत्ता के सम्मुख खड़े मुक्तिबोध का ‘शक्ति की सर्वथा मौलिक कल्पना करना’--- गांधी जी से उनके संवाद का यही निहितार्थ है।
    
.............




‘एक अपरूप शून्य के प्रति’


‘अलगाव की वह अवधारणा जो महज ऐतिहासिकता का आभास देती है समस्या का रहस्यीकरण करने की तरफ ले जाती है। मसलन मिथकों का एक अनिवार्य कार्य मानव विकास की मूलभूत सामाजिक ऐतिहासिक प्रक्रिया को अलौकिक में बदल देना है। या कि ‘‘वैश्विक अलगाव’सच्चे ऐतिहासिक निर्धारकों को नकारना और समस्या का रहस्यीकरण करना है। वास्तव में अगर एलियनेशन की समस्या और उससे बनने वाले मनोमय जगत को ठोस सामाजिक-आर्थिक प्रक्रिया से अलग-थलग कर दिया जाये तो ऐतिहासिक प्रक्रिया में निहित जटिल कारकों की सही समझदारी की जगह महज इतिहासाभास ले लेगा।  मुक्तिबोध की कविताएं ‘अलगाव’ की इन दोनों तरह की अवधारणाओं के भेदन, खंडन और निषेध की कविताएं भी हैं।


अपरूप शून्य यानीं ब्रह्म का बिम्ब मुक्तिबोध की कई कविताओं में है लेकिन ‘एक अपरूप शून्य के प्रति’ कविता में इस मिथ का सुसंगत निषेध अपनी सम्पूर्णता में मिलता है। ‘ब्रह्मराक्षस’ में आई इस पंक्ति ‘किन्तु युग बदला...’ में ‘किन्तु’ शब्द से यह भी स्पष्ट होता है कि आधुनिक युग के आने से पहले इस अलगावका ढांचा और तरह का रहा होगा। ‘एक अपरूप शून्य के प्रति’ कविता उस और तरह के ढाँचे को रूपायित करती उसके वर्मान रूप को भी अपने में समेटती है।


क्रांतिकारी होने का अर्थ है चीजों को उसकी जड़ में समझना, बिना जड़ में समझे आप क्रांतिकारी नहीं हो सकते। और मनुष्य के लिए जड़ मनुष्य है। दर्शन या दृष्टि की क्रांतिकारिता और उसकी ऊर्जा इसमें निहित है कि वह धर्म का सकारात्मक निषेध, समाप्ति करे। धर्म की आलोचना का अंतिम निष्कर्ष यह सिद्धांत है कि “मनुष्य सबसे ऊपर है, उससे ऊपर कुछ भी नहीं।“


एक अपरूप शून्य के प्रतिकविता चीजों को जड़ में समझने, मनुष्य के लिए मनुष्य को जड़ मानने की दृष्टि से ब्रह्म और धर्म के सकारात्मक निषेध की कविता है। मुक्तिबोध की अपरूप ब्रह्म की आलोचना दुनिया की आलोचना, धर्म की आलोचना नियमों-कानूनों की और ब्रह्मविद्या की आलोचना राजनीति की आलोचना में परिवर्तित हो जाती है। इसे समझने की जगह रामविलास जी इसके जरिए मुक्तिबोध के व्यक्तित्व को जांचने और उसका मजाक उड़ाने में अपनी बुद्धि और श्रम खर्च करते हैं। वे कहते हैं- “जिसका अस्तित्व ही नहीं है, उसे इतना कोसने की जरुरत क्या है?” और खुद इसका जवाब देते हुए कहते हैं कि “कारण यह है कि उसके अस्तित्व पर विशवास है पर मन चाहता है कि उसका अस्तित्व न हो।”  (नयी कविता और अस्तित्ववाद : नयी कविता और मुक्तिबोध का पुनर्मूल्यांकन, पृष्ठ : 183) क्या यह सच नहीं; कि है तो वह अनस्तित्व फिर भी आज की दुनिया में भी उसका इतना बड़ा अस्तित्व है। तो फिर क्या इसके सकारात्मक निषेध की जरुरत नहीं रह गई? ज़ाहिर है उसके सकारात्मक निषेध की ज़रूरत आज पहले से भी कहीं अधिक है। 


मनुष्य जब तक धर्म की काल्पनिक दुनिया का वाशिंदा बना रहता है, तब तक वह अपने सार को किसी ईश्वर, ब्रह्म या ऐसी ही किसी परा-शक्ति की दी हुई एक वस्तु के रूप में समझता है। जबकि असल में वह निराकार शून्य है, मनुष्य के गुणों, शक्तियों का ही अलगाया हुआ सार-

“ओ रे निराकार शून्य!
महान विशेषताएं मेरे सब जनों की
तूने उधार ले
निज को संवार लिया
निज को अशेष किया....”


इसी के चलते जो निरा अनस्तित्व है उसका इतना बड़ा अस्तित्व है। यही ‘सृजन के घर में एक मनोहर विश्वात्मक फैंटेसी’ बन जाता है। अपने समय के जीवन-जगत को ध्यान में रखिये और देखिये कि कविता में इस निराकार ब्रह्म की आलोचना किस तरह दुनिया की आलोचना में बदल जाती है-

“देखो तो-
प्रतिपल तुम्हारा ही नाम जपती हुई
लार टपकाती हुई आत्मा की कुतिया
स्वार्थ-सफलता के पहाड़ी ढाल पर
चढ़ती है हांफती,
आत्मा की कुतिया
राह का हर कोई कुत्ता जिसे छेड़ता है, छेंकता
लेकिन तुम खूब हो
सूनेपन के डोह में अंधियारी डूब हो।”


और देखिए कि ब्रह्म-विद्या की आलोचना कैसे राजनीति की आलोचना में बदल जाती है-

“...ओ नट-नायक
सारे जगत पर रौब तुम्हारा है!!
तुमसे जो इनकार करेगा
वह मार खायेगा...”
लेकिन ‘तुम्हारी यह सठियायी हुई कीर्ति बिलकुल झूठी है।’


इसी तरह धर्म की आलोचना नियमों-कानूनों की आलोचना में बदल जाती है-

“और तुम भी खूब हो,
दोनों ओर पैर फंसा रक्खे हैं,
राम और रावण को खूब खुश,
खूब हंसा रक्खा है।
.......
विपरीत दोनों दूर छोरों द्वारा पुजकर
स्वर्ग के पुल पर
चुंगी के नाकेदार
भ्रष्टाचारी मजिस्ट्रेट, रिश्वतखोर थानेदार!!


लेकिन कवि मंदिर के चबूतरे पर बैठा जब कभी देखता है इस अपरूप शून्य को, उसे याद आते हैं ‘भयभीत आँखों के हंस, घाव भरे कबूतर, अपने सारे लोग, उनके सब हृदय-रोग, घुप्प अँधेरे घर और अपना प्यारा-प्यारा देश, उसका लाल-लाल सुनहला आवेश और कवि कह उठता है-

“मेरे इस सांवले चहरे पर कीचड़ के धब्बे हैं,
दाग हैं,
और इस हथेली पर जलती हुई आग है
अग्नि-विवेक की।
नहीं, नहीं वह तो है ज्वलंत सरसिज!!
ज़िन्दगी के दलदल-कीचड़ में धंसकर
वक्ष तक पानी में फंसकर
मैं यह कमल तोड़ लाया हूँ---
भीतर से, इसीलिए, गीला हूँ
पंक से आवृत
स्वयं में घनीभूत
मुझे तेरी बिलकुल जरुरत नहीं है।“


आप चाहें तो इन अंतिम पंक्तियों के साथ निराला की कविता की पंक्ति याद कर ले सकते हैं-

“बाहर मैं कर दिया गया हूँ
भीतर पर, भर दिया गया हूँ”


अलगाव से मुक्ति पाना भी अंतरनिहित तौर पर ऐतिहासिक अवधारणा है, जो इस बात का ख़याल रखती है कि यह प्रक्रिया सफलता पूर्वक संपन्न हो जो एक गुणात्मक रूप से भिन्न स्थितियों की ओर ले जा रही है- पूंजीवादी समाज, उपभोक्ता समाज के ध्वंस और समाजवाद के निर्माण की ओर।

आज के समय में वह ‘लाल-लाल सुनहरा आवेश’ नहीं दिख रहा। तमाम मुश्किलों के बाद भी मुक्तिबोध के जीवन काल में यह स्थिति नहीं थी जो आज है।




 
“दूसरे महायुद्ध के बाद अनेक देशों में वामपक्षी विचारधारा का प्रवाह तेजी से फैला। भारत जैसे पराधीन देशों में यह विचारधारा स्वाधीनता आन्दोलन को प्रभावित करने लगी। भारत में कांग्रेस के कुछ नेताओं ने जेल से बाहर आने के बाद जोर-दार कम्युनिस्ट-विरोधी अभियान शुरू किया। ऊपर से देखने में यह अभियान केवल ‘42 में कम्युनिस्टों की ग़लत नीति के विरोध में था। वास्तव में वह विश्वव्यापी मार्क्सवाद-विरोधी अभियान का अंग था। मार्क्सवाद एकांगी है और मार्क्सवाद अभारतीय है, ये दो बातें इस अभियान के दौरान जोरों से कही जाती थीं। दोनों बातें नकारात्मक थीं। मार्क्सवाद के बदले किसी सुनिश्चित विचारधारा को स्थापित करना जरुरी था। किसी समय पूंजीवादी विचारक मार्क्स के मुकाबले फ्रायड को स्थापित करते थे। वह बात अब पुरानी हो चुकी थी। विश्व पूंजीवाद ने दूसरे महायुद्ध के बाद जिस विचारधारा का व्यापक रूप से प्रचार किया, वह अस्तित्ववाद की विचारधारा थी। भारत में उसका प्रवेश कुछ विलम्ब से हुआ लेकिन जब हुआ तो बड़े पैमाने पर हुआ। 1953 के बाद प्रगतिशील आन्दोलन में जो विसर्जनावादी प्रवृत्तियाँ शक्तिशाली बनीं, उनसे, विशेषतः हिंदी प्रदेश में, मार्क्सवाद को हटा कर अस्तित्ववाद को प्रतिष्ठित करने में लेखकों के एक विशेष समुदाय को सुविधा हुई और सफलता भी मिली।“ (रामविलास शर्मा : नयी कविता और अस्तित्ववाद, पृष्ठ : 170)


प्रगतिशील आन्दोलन के भीतर ‘विसर्जनवादी प्रवृत्तियों’ वाली बात को छोड़ दिया जाए, जो प्रगतिशील आन्दोलन की अंदरूनी बहसों पर रामविलास जी की अपनी निजी राय है, तो ऊपर कही गईं उनकी बातें तथ्य के स्तर पर सही हैं। उतना ही यह भी सही है कि उस समय हिंदी प्रदेश में मुक्तिबोध को छोड़ कर और कोई दूसरा नहीं था जो उसके खिलाफ सुसंगत तरीके से पूरी ताकत और समग्रता में जूझ रहा था, न रामविलास जी, न नामवर सिंह और न समूचा प्रगतिशील आन्दोलन। इस बात को लेकिन, किन्तु-परन्तु के साथ ही सही, या नामवर सिंह के साथ अपनी बहस में मुक्तिबोध का उपयोग कर लेने के लिए ही, रामविलास जी भी स्वीकारते हैं।



रामविलास जी के ऊपर दिए गए उद्धरण को अगर गौर से देखा जाए तो मार्क्सावाद के खिलाफ अभियान को जो भी और जीतनी भी सफलता मिली उसके लिए वे मूलतः बाहरी कारणों को ही प्रधानता देते हैं। उनकी नज़र भारत के भीतर मौजूद अंदरूनी आधारों की ओर नहीं जाती। मुक्तिबोध की ऐतिहासिक-भौतिकवादी-द्वंद्वात्मक नज़र लेकिन उन सामाजिक-सांस्कृतिक आधारों की तरफ़ जाती है। मुक्तिबोध ‘एक साहित्यिक की डायरी’ में अपने ‘नए की जन्मकुंडली : एक’ नामक निबंध में लिखते हैं - “पुराने सामंती अवशेष बड़े मज़े में हमारे परिवारों में पड़े हुए हैं। पुराने के प्रति और नए के प्रति इस प्रकार एक बहुत भयानक अवसरवादी दृष्टि अपनायी गयी है। इसलिए सिर्फ़ एक सप्रश्नता है। प्रश्न है, वैज्ञानिक पद्धति का अवलंबन करके उत्तर खोज निकालने की न जल्दी है, न तबीयत है, न कुछ। मैं मध्यवर्गीय शिक्षित परिवारों की बात कर रहा हूँ।"


“जो पुराना है, वह अब लौट कर नहीं आ सकता। लेकिन नये ने पुराने का स्थान नहीं लिया। धर्म-भावना गयी, लेकिन वैज्ञानिक बुद्धि नहीं आयी। धर्म ने हमारे जीवन के प्रत्येक पक्ष को अनुशासित किया था। वैज्ञानिक मानवीय दर्शन ने, वैज्ञानिक मानवीय दृष्टि ने, धर्म का स्थान नहीं लिया। इसलिए केवल हम अपनी अन्तःप्रवृत्तियों के यंत्र से चालित हो उठे। उस व्यापक, उच्चतर, सर्वतोमुखी मानवीय अनुशासन की हार्दिक सिद्धि के बिना, हम ‘नया-नया’ चिल्ला तो उठे, लेकिन वह ‘नया’ क्या है---हम नहीं जान सके! क्यों? नया जीवन, नये मान-मूल्य, नया इंसान, परिभाषाहीन और निराकार हो गये। वे दृढ़ और व्यापक मानसिक सत्ता के अनुशासन का नया रूप धारण न कर सके। वे धर्म और दर्शन का स्थान न ले सके।” वज़ह आज़ाद भारत में “राजनीति के पास समाज-सुधार का का कोई कार्यक्रम न होना। साहित्य के पास सामाजिक सुधार का कोई कार्यक्रम न होना। सबने सोचा कि हम जनरल (सामान्य) बातें करके सिर्फ़ और एकमात्र राजनीतिक या साहित्यिक आन्दोलन के जरिए, वस्तुस्थिति में परिवर्तन कर सकेंगे। फलतः सामाजिक सुधार का कार्य केवल अप्रत्यक्ष प्रभावों को सौंप दिया गया।... सामाजिक सुधार का कार्य केवल अप्रत्यक्ष प्रभावों को सौंप देने के कारण ही साहित्य में भी गड़बड़ है” (नये की जन्म-कुंडली : एक) आज भी क्या यह सही नहीं है?



उसी समय में राजनीतिक-आर्थिक क्षेत्र में क्या चल रहा था? कहा यह जा रहा था कि दूसरी पंचवर्षीय योजना के तहत सरकारी तत्वावधान में औद्योगिक क्षेत्र का विकास किया जाएगा, कि जिससे प्राप्त मुनाफ़ा जनकल्याणकारी कार्यों में लगाया जायेगा, और देश के अर्थतंत्र पर पूंजीपति का अधिकार न हो कर जनता द्वारा चुनी सरकार का कब्जा होगा। इस तरह देश के अर्थतंत्र पर बहुमत का अधिकार बना रहेगा। प्रगतिशील तत्वों ने इसका स्वागत भी किया। लेकिन लोगों में यह भ्रम भी पैदा हुआ कि देश समाजवादी बन रहा है। मुक्तिबोध ने 1954 में और 1955 में इस सम्बन्ध में दो लेख लिखे। छद्म नाम ‘यौगंधरायण’ से ‘सारथी’ में- “अंग्रेज गये, परन्तु इतनी अंग्रेजी पूंजी क्यों” और एक बिना नाम के ‘नया खून’ में लिखा- “समाजवादी समाज या अमरीकी-ब्रिटिश पूंजी की बाढ़”। ‘सारथी’ वाले में लिखा- “....पंडित नेहरू की पंचवर्षीय योजना के नाम पर औद्योगिक क्षेत्र में भारतीय पूंजीपति, विदेशी पूंजीपतियों (अंग्रेजों और अमरीकियों) से सांठ-गांठ किये हुए हैं।.... एकाधिकारवादी स्वदेशी पूंजी विदेशी आर्थिक स्वार्थों से बहुत हद तक बंध गयी है। जिसका फल यह हुआ है कि भारत में अन्य विदेशी पूंजी तथा ब्रिटिश पूंजी का शिकंजा ढीला होने के बजाय और अधिक कड़ा हो गया है।..... स्पष्ट बात यह है कि ये कल के राष्ट्रवादी पूंजीपति आज भारत को केवल औपनिवेशिक क्षेत्र बनाये रखने की ओर ही कदम बढ़ा रहे हैं, न कि उसके वास्तविक औद्योगीकरण की ओर.... कहना न होगा कि भारतीय आर्थिक स्थिति, सच्ची आर्थिक स्वाधीनता, और साम्राज्यवाद से मुक्ति हमें तभी प्राप्त हो सकती है जब हम भारतीय बाज़ार का विदेशी शोषण बंद कर दें।” आगे ‘नया खून’ में निष्कर्ष निकालते हुए लिखा- “इससे एक बात तो सिद्ध होती ही है। वह यह कि आगामी पच्चीस-तीस वर्षों के लिये समाजवादी ढंग टाल दिया गया है। तब तक भारत और दुनिया में क्या परिस्थिति होती है, यह आगे देखने की बात है।”


भारत की अंदरूनी सामाजिक-आर्थिक स्थिति के बाद हिंदी साहित्य और प्रगतिवाद की अंदरूनी दशा पर एक उड़ती निगाह डाल लेना प्रासंगिक होगा। प्रगतिशील आन्दोलन की जगह प्रयोगवाद-नयी कविता का आन्दोलन आ गया था। प्रगतिवाद ने इसे महज़ आज़ादी के बाद मध्यवर्ग-शिक्षित मध्य वर्ग के भीतर आये अवसरवाद की उपज मानते हुए, इसे प्रगतिवाद के खिलाफ आन्दोलन माना और उसका विरोध किया। मुक्तिबोध की इससे सहमति नहीं थी। वे लिखते हैं- “साहित्य क्षेत्र में किसी प्रवृत्ति का प्रभाव... बढ़ने का या घटने का एक कारण, निःसंदेह सामाजिक-राजनीतिक है। यद्यपि वह एक अत्यंत महत्वपूर्ण कारण है, हम यहाँ यह कहना चाहते हैं कि, अलावा सामाजिक-राजनैतिक कारण के, साहित्य क्षेत्र में किसी प्रवृत्ति-विशेष की प्रभाव-हानि का एक कारण और होता है। वह है, उस प्रवृत्ति-विशेष के भीतर की कमजोरियां।“ बहुतेरी कमजोरियों और कारणों को चिह्नित करते हुए वे मूल प्रश्न उठाते हैं- “अपने साहित्य-चिंतन में प्रगतिवादियों ने तटस्थ और वैज्ञानिक दृष्टि से इस बात पर प्रकाश डालने की कोशिश नहीं की कि आखिर वे कौन-से तत्व हैं, वे कौन-सी मूल शक्तियां हैं जिन्होंने काव्य-रूप बदला।... क्या पहली बार हमारे भारत में काव्य-रूप बदला है? और क्या जब-जब वह बदला है, समाज की अंध न्यस्त-स्वार्थवादी शक्तियों के बढ़ते प्रभाव के कारण बदला है?”

“काव्य-रूप में परिवर्तन की मूल कारक शक्ति क्या है? उसका स्वरूप क्या है? और क्या केवल काव्य-रूप बदल जाने से कोई काव्य प्रगतिशील या प्रतिक्रियावादी हो जाता है?....”

“हमारे प्रगतिशील समीक्षकों ने यह नहीं देखा कि इस प्रयोगवादी नयी कविता के क्षेत्र में विभिन्न प्रकार की भाव-प्रवृत्तियाँ और विचार-प्रवृत्तियाँ विद्यमान हैं।  उन्होंने तो एक काव्य-प्रणाली ही को, ---उसके अंतर्गत किसी विशेष प्रवृत्ति को नहीं---- पूर्णतः विकृत और प्रतिक्रियावादी चित्रित किया।...”


सारांश यह कि समीक्षा--- कोई भी समीक्षा पद्धति--- जब-जब जीवन-यथार्थ के स्पंदनों का अपमान करती है, उसके स्वरूप का तटस्थ, वैज्ञानिक और नम्र भाव-गंभीर विश्लेषण नहीं करती है, जब-जब वह लदने और खुद को थोपने का प्रयास करती है, जब-जब वह एकपक्षीय विचारणा के फलस्वरूप उत्पन्न असफलताओं के कारणों को दृष्टि से ओझल कर देती है, अपने प्रतिपक्षियों द्वारा उपस्थित विचार प्रणाली में इधर-उधर बिखरे हुए सत्य के अणु-परमाणुओं को बीनने से इनकार कर देती है, तब-तब वह सिद्धांतों और तर्कों के आयवरी टॉवर में बैठ कर अपनी अकाल मृत्यु के क्रमशः उपस्थित कारणों को स्वयं संवर्धित और परिपुष्ट करती जाती है।” (मुक्तिबोध रचनावली : खंड 5 : समीक्षा की समस्याएँ)


कभी-कभी ऐसा होता है कि “यथार्थ बहुत आगे बढ़ जाता है, विकास-क्रम में। बौद्धिक उपादान पीछे छूट जाते हैं, कभी-कभी। इसलिए बौद्धिक उपादानों के निरंतर विकास की भी आवश्यकता होती है।” मुक्तिबोध प्रगतिशील आलोचकों के सैद्धांतिक रूप से पिछड़ जाने की ओर ध्यान दिलाते हैं - “कोई भी विचारधारा मात्र एक बौद्धिक उपादान है---- यथार्थ के स्वरूप उसकी गतिविधि, उसकी वर्तमान अवस्था, उसकी दिशा को जानने का। जिस प्रकार सुदूरतम को और सूक्ष्मतम को पाने के लिये नव-नवीन यंत्रों का विकास होता आया है, पुराने ज्ञान में नवीन ज्ञान को जोड़ कर, ठीक उसी प्रकार हमारी सिद्धांत-व्यवस्था का भी विकास आवश्यक है। और वह किया भी जाता है। सिद्धांत-विकास और सिद्धान्तहीनता (अथवा सिद्धांत-विरोध) अलग-अलग बाते हैं।” (मुक्तिबोध रचानावली : खंड 5 : समीक्षा की समस्याएँ)


मुक्तिबोध ये दोनों काम करते हैं - प्रतिपक्षियों द्वारा उपस्थित विचार प्रणाली में इधर-उधर बिखरे हुए सत्य के अणु-परमाणुओं को बीनने, और अपने समय में जीवन के हर क्षेत्र में हुए अद्यतन अध्ययनों का अनुशीलन करते हुए मार्क्सवादी साहित्य-समीक्षा सिद्धांत-व्यवस्था को विकसित करने का, मार्क्सावाद की किसी सीमा का अतिक्रमण करने का नहीं, जैसा नामवर सिंह और उनके साथ बहस में डॉ. शर्मा को लगता है। अपनी इसी ज़मीन (मार्क्सवाद) पर खड़े हो कर उन्होंने नयी कविता के आचार्यों की खूबियों और उनके मार्क्सवाद-विरोध के उद्देश्यों की भी गहरी और सुसंगत आलोचना की- “प्रगतिवादियों की तुलना में निःसंदेह ये नए लोग अधिक कला-मर्मज्ञ थे। किन्तु साहित्यिक प्रवृत्तियों को वे एक भिन्न प्रकार की दिशा देना चाहते थे। वे साहित्यिक-सांस्कृतिक क्षेत्र में, एक विशेष प्रेरणा से, अपने प्रभाव का विस्तार करना चाहते थे। और वह प्रेरणा अपना एक राज दर्शन, अपनी एक राजनीति, रखती थी। विश्व में चलते हुए शीतयुद्ध से और और शीतयुद्ध की भावनाओं से वे प्रेरित थे।..... उन्होंने कलाकार-व्यक्तित्व को अनेक प्रकोष्ठों में विभाजित कर दिया, मानो उन प्रकोष्ठों के बीच कोई द्वार-मार्ग न हो, ऐसे द्वार मार्ग जो प्रकोष्ठों में परस्पर-संपर्क स्थापित न करते हों, और इस तरह एक प्रकोष्ठ का दूसरे प्रकोष्ठ पर सघन और स्थायी परस्पर-प्रभाव उपस्थित न करते हों। इस प्रकार उन्होंने कलाकार-व्यक्तित्व का विभाजन कर डाला।


इसे एक बड़ा आयाम और ठोस सन्दर्भ देते हुए मुक्तिबोध की एक कविता का अंश-



ऋण-एक राशि के वर्गमूल में डलवा-गलवा कर
उसको शून्यों से शून्यों में विभाजिता करवा
चलवा डाला है स्याह स्टीमरोलर
इस जीवन पर!!
वह कौन?
अरे वह लाभ-लोभ की अर्थवादिनी सत्ता का
विकराल राष्ट्रपति है!!
जिसके बंगले की छाया में तुम बैठे हो।
हाँ, यहाँ, यहाँ!! 

 
मुक्तिबोध ने प्रगतिवादी आचार्यों की भूलों, उनके सैद्धांतिक रूप से पिछड़ जाने, उसको अद्यतन न बनाने और उनके द्वारा एक काव्य-प्रणाली मात्र को प्रतिक्रियावादी ठहराने की आलोचना की लेकिन नयी कविता के आचार्यों की, कलाकार के सामाजिक अनुरोध, राजनैतिक अनुरोध, नैतिक अनुरोध--- इन सारे अनुरोधों को कला-वाह्य अनुरोध ठहरा देने, जिनका वास्तविक सृजन-प्रक्रिया से कोई सम्बन्ध नहीं होता कह कर खारिज कर देने की कड़ी आलोचना करते हुए कहा- “...इस प्रकार के आग्रह करना कलाकार को उसके धर्म से गिराना है, कलाकार के सृजन-प्रक्रिया पर विजातीय तत्वों को लादना है, कलाकार की सृजन-प्रक्रियात्मक मानसिक स्वतंत्रता को नष्ट करना है, उसके सृजन-प्रक्रिया के भीतर संन्निविष्ट जीवन-विवेक की, उसकी स्वतन्त्र निर्णय-शक्ति की हत्या करना है, उसके आत्म-स्वातंत्र्य को भ्रष्ट करना है।”  ऐसा इसलिए कि “उनकी मुख्य लड़ाई साम्यवाद-प्रगतिवाद से थी।” जीवन में बढ़ते अलगाव और ऊपर उद्धृत सिद्धांतों के शिकार हो रहे रचनाकारों के मनोजगत को और इसके माध्यम से मध्यवर्गीय मनोजगत को भी संबोधित करती मुक्तिबोध की एक लम्बी कविता ‘चुप रहो मुझे सब कहने दो’ का एक मार्मिक लेकिन भीषण अंश देखने लायक है-


“...तुम उठते हो अंधियारे में
भीतर के कमरे का सब फर्श खोदते हो,
उस भूमि-विवर के अतल अँधेरे में रखते
सुन्दर सस्मित मूर्तियाँ सुकोमल भावों की
जो प्राप्त हुई थीं सहसा जीवन-यात्रा में।
फिर मिट्टी से वह गड्ढा पुर, एक-सा कर
सारी ज़मीन, छाबते उसे।
पत्थर का फर्श जमा देते हो उस पर फिर।
फिर ठीक उसी गड्ढे पर पलंग डाल लेटते
बदलते रहते हो करवटें।
मूर्तियाँ भूमि में गड़ी-धंसी
पर धड़कन में आ फंसी!!
अपनी खुद की मातमपुर्सी
तुम करते रहते हो।
आगे चल कर, आदतन भूल जाते अपनी वे सब निधियां---
विस्मरण भूमि है शिलामयी।
पर जब-जब उस भू के उर से
वेदना उठी
उसके सारे सम्बन्ध-सूत्र
सन्दर्भ-सूत्र काटे।
वेदना-चित्र तब सिर्फ़ अधर में लटक गया
संवेदन के परिपार्श्व सभी मिट गये
उसके अनंत कारक-कारण
भूमिगत हुए
मन भटक गया।” ....



आप देखें तो अपने सारे सम्बन्ध और सन्दर्भ-सूत्रों, अंतर-बहिर्जगत, चेतन-अवचेतन, उनके द्वंद्वात्मक सम्बन्ध के साथ यह ‘शिलामयी विस्मरण भूमि’ ‘चम्बल की घाटी में’ कविता की कथ्य-भूमि के रूप में ढलती हुई नज़र आएगी, अपनी सम्पूर्णता के साथ। 


अलगाव और आधुनिक राज्य



एलियनेशन और आत्मकेंद्रित आधुनिक राज्य के बीच नाभिनाल का संबंध है। आधुनिक राज्य अलग-थलग, नितांत अपने तक सीमित वैयक्तिकता और अमूर्त वैयक्तिकता के आधार पर खड़ा और उसी का हिमायती है।


आधुनिक समाज व्यक्ति को उसके समाज से, मनुष्य जाति मात्र से संबद्ध नहीं करता, उससे उच्छिन्न करता है। पूंजीपति वर्ग तो अलगाव को अपनी शक्ति समझता है। इसी के बल पर वह अपार संपत्ति और शक्ति का स्वामी है। सर्वहारा को छोड़ दें, जिसे अपने अस्तित्व के लिए हर वक्त ही संघबद्ध रहना पड़ता है, मध्यवर्गी व्यक्ति के लिए अब यह अंशतः संयोग पर और अंशतः अपनी समझ बढ़ाने और गरीब-उत्पीड़ित-शोषित जनता के अपने मुक्ति-प्रयासों से जुड़ने पर निर्भर करता है कि वह अपने को समाज से जोड़े रखे। व्यक्तिवाद, वैयक्तिक अस्तित्व ही वर्तमान बुर्जुआ समाज का अंतिम सत्य और लक्ष्य है। वह इस अहसास को मुसलसल प्रत्यक्ष करता रहता है। अर्थात ‘वास्तविक मनुष्य, आज के राजनीतिक संविधान का, निजी व्यक्ति है।‘ (दि रीयल मैन इज द प्राइवेट इन्डिविजुअल ऑफ प्रेजेन्ट डे पोलिटिकल कास्टिट्यूशन - मार्क्स) वह मनुष्य का अपनी मनुष्य जाति से संबंध विच्छेद करता है। अर्थात वर्तमान समाज का अंतरविरोध यह है कि ‘‘मनुष्य का अपने सार (मनुष्य जाति) से अलगाव हो गया है’’- मार्क्स)। मुक्तिबोध की कविता पंक्तियां - ‘‘व्यक्ति स्वातंत्र्य का वादी छल नहीं सकता/ मुक्ति के मन को/ जन को” या कि ‘‘कविता में कहने की आदत नहीं/ पर कह दूं/ वर्तमान समाज चल नहीं सकता/ पूंजी से जुड़ा हृदय बदल नहीं सकता” या कि ‘‘अपनी मुक्ति के रास्ते/ अकेले में नहीं मिलते/ यदि वह है तो सबके साथ है” आदि इस स्थिति का बयान और प्रत्याख्यान एक साथ करती हैं।



यहाँ इतनी बात और करनी जरुरी है कि मुक्तिबोध ‘व्यक्ति-स्वातंत्र्य’ के विरोधी नहीं हैं। लेकिन जहां सब कुछ बेचा जाता है, अंतरात्मा तक, ऐसे पूंजीवादी समाज में व्यक्ति-स्वातंत्र्य एक अच्छा-खासा मुहावरा है। व्यक्ति-स्वातंत्र्य को एक महत्वपूर्ण आदर्श, मानव-गौरव की आधार-शिला, जो भीख में नहीं बल्कि जनता के पुत्रों के अनगिनत बलिदान से हासिल हुआ है, मानते हुए मुक्तिबोध लिखते हैं- “... मुनाफाखोरों और उत्पीड़कों के व्यक्ति-स्वातंत्र्य के लक्ष्य और जनता के व्यक्ति-स्वातंत्र्य के लक्ष्य में अंतर है। जी नहीं, केवल अंतर ही नहीं, विरोध-भाव है। केवल विरोध-भाव ही नहीं, विपरीत दिशाएं भी हैं।.... किन्तु व्यावहारिक रूप से देखा जाये तो समाज में ऐसी आर्थिक और सामाजिक परिस्थिति पैदा हो गयी है कि जिसके कारण व्यक्ति-स्वातंत्र्य केवल व्यक्ति-केन्द्रिता का दूसरा नाम बन गया है.” इसीलिए ये सब पंक्तियाँ- ...छल नहीं सकता, पूंजी से जुड़ा हृदय बदल नहीं सकता, इसलिए व्यक्ति-स्वातंत्र्य यदि है भी तो वह अकेले में नहीं, सबके साथ इस पूंजीवादी समाज से मुक्ति हासिल किये बगैर नहीं मिलाने वाला।


आप पायेंगे कि मुक्तिबोध क्रमशः आजाद भारत की सत्ता-समाज संरचना के प्रतिनिधि लक्षणों को पहचानते और उसके बुनियादी अंतरविरोध व जिस रूप में वह अपने को अभिव्यक्त कर रहा था या अभिव्यक्त कर रहा है, उन स्थितियों के खिलाफ हर संभव तरीके से युद्ध की घोषणा तक पहुंचते हैं, उन स्थितियों के खिलाफ जिसमें मनुष्य लांक्षित, गुलाम, निरुद्ध, तिरष्कृत घृणित जीव जैसा बना दिया गया है।


मार्क्स मानते थे कि ‘मनुष्य की सारभूत शक्तियां और उसकी प्रजातिगत प्रकृति अब तक के इतिहास में अपनी परिपूर्ण अभिव्यक्ति नहीं प्राप्त कर सकी है, क्योंकि उसकी सारी गतिविधि पिछले तमाम समाजों से अधिक उन्नत पूंजीवादी समाज में भी आत्म-अलगाव की गतिविधि है


‘अंधेरे में’ कविता में जो जनक्रांति का स्वप्न है वह महज एक फासीवादी सत्ता को हटा देने मात्र का स्वप्न नहीं है। वह इस ‘भीषण अप्राकृतिक जगत’ को, जिसमें हमने आँखें खोली हैं, जड़ से उखाड़ देने का स्वप्न है। वह मनुष्य जीवन का पुनः अपने आप में लौटने, उसके अपने सार रूप में उसकी वापसी, उसका संभव पुनः एकीकरण, वास्तविक संसार में परम अभिव्यक्ति की खोज - दरअसल, उस नये मनुष्य के निर्माण का, जो एक नये भारत, नई दुनिया के निर्माण से अभिन्न रूप से जुड़ी हुई है -  के स्वप्न में बदल जाती है। जहां वह अपनी समस्त अंतरनिहित शक्तियों और संभावनाओं का पूर्ण विकास और उसकी अभिव्यक्ति पा सके या कर सके। यह कल्पना, दिवा-स्वप्न या यूटोपिया नहीं, अनिवार और आत्मसंभवा है। क्या यहां आप आत्मसंभवा का अर्थ मुक्तिबोध संभवा कर सकते हैं? नहीं न! लेकिन करने वाले आलोचक तो यह करने तक से न चूके न हिचके।


कुछ तो मुक्तिबोध की खिल्ली उड़ाते यहाँ तक चले जाते हैं कि कविता (‘अँधेरे में’) तो ख़त्म हो जाती है लेकिन उन्हें अपनी अनिवार आत्मसम्भवा परम अभिव्यक्ति फिर भी नहीं मिलती, वे उसे खोजते ही रह जाते हैं।


बेशक, ऐसा कहने वाले लोगों से पूछा जाना चाहिए कि क्या मानव-समाज के इतिहास में कोई ऐसा बिंदु भी आयेगा जहां इतिहास का अंत हो जाएगा? मार्क्स के अनुसार तो ऐसा नहीं होगा। पूंजीवादी मध्यस्तताओं को तोड़ जब मनुष्य खुद मध्यस्तता करने लगेगा तब भी, यानी साम्यवाद के बाद भी। मार्क्स के अनुसार सभी अनिवार्यता “ऐतिहासिक अनिवार्यता” होती है, “अदृश्य होती जाने वाली, मिटती जाने वाली अनिवार्यता।” यह अवधारणा ऐतिहासिक अनिवार्यता के सन्दर्भ में सामाजिक परिघटना के अनेकशः परिवर्तनों और संक्रमणों को न केवल बोधगम्य बनाती है बल्कि साथ ही मनुष्य-समाज के भावी विकास के हक़ में दरवाजे को पूरी तरह खुला छोड देती है..... मार्क्स द्वारा मनुष्य इतिहास के “लक्ष्य” को मानवी विकास की अंतरवर्ती अवस्था के सन्दर्भ में परिभाषित किया गया है। “मनुष्य सार”, “मानवीयता”, “विशिष्टतः मानवी” तत्व, “मनुष्य की सार्वभौमिकता और आज़ादी” की प्राप्ति के रूप में..... इतिहास में कोई ऐसा बिंदु नहीं हो सकता जहां पहुंच कर हम कह दें कि अब मानवी सार को पूरी तरह पा लिया गया। इस तरह कोई बिंदु तय कर देना मनुष्य मात्र को उसके सारभूत गुण : उसके “आत्म-मध्यस्तता” और “आत्म-विकास” की शक्ति से ही वंचित कर देना होगा। (According to Marx all necessity is “historical necessity”, namely “a disappearing necessity” (“eine verschwindende Notwendigkeit”).  This concept not only makes intelligible the multiple transformations and transitions of social phenomena in terms of historical necessity but at the same time it leaves the doors wide open as regards the future development of human society......The “goal” of human history is defined by Marx in terms of the immanence of human development (as opposed to the a priori transcendentalism of theological teleology), namely as the realisation of the “human essence”, of “humanness”, of the “specifically human” element, of the “universality and freedom of man”, etc......Nor can there be a point in history at which we could say: now the human substance has been fully realised”. For such a fixing would deprive the human being of his essential attribute: his power of “self-mediation” and “self-development”.) (István Mészáros, 1970 : Marx’s Theory of Aienation). अगर इतिहास में कोई ऐसा बिंदु नहीं हो सकता जहां पहुंच कर हम कह दें कि अब मानवी सार को पूरी तरह पा लिया गया तो मानव इतिहास में भी ऐसा कोई बिंदु नहीं आ सकता जहां जा कर यह कहा जा सके की यहाँ आ हमने ‘अनिवार आत्मसम्भवा परम अभिव्यक्ति पा ली। मुक्तिबोध यूँ ही नहीं कहते कि - ‘नहीं होती कहीं भी ख़त्म कविता/ नहीं होती... ।’ ‘अँधेरे में’ कविता की अंतिम पंक्तियां ‘अस्मिता की खोज’ की ओर संकेत’ नहीं करतीं बल्कि मानव-समाज के इतिहास की इस गति के साथ जारी मनुष्य के “आत्म-विकास” की न ख़त्म होने वाली संभावना की ओर इशारा हैं।  



उज्ज्वल मन गहरे डूब रहे क्यों गटरों में?


मुक्तिबोध को नेहरू की पंचवर्षीय योजना में भी भारत में विदेशी पूंजी की बाढ़ और अपने देश के पूंजीपतियों की उससे सांठ-गांठ देख कर लगा था कि अब ‘आगामी पच्चीस-तीस वर्षों के लिये समाजवादी ढंग टाल दिया गया है। उनकी मृत्यु ’64 में हुई और 90 के दशक में सोवियत संघ के पतन के साथ ‘इतिहास के अंत’ की घोषणा के बीच ‘उदार लोकतंत्र’ और बाज़ार अर्थव्यवस्था को अजर-अमर ठहराया गया। ग्लोबलाइजेशन (भूमंडलीकरण) को एक नए युग के सुत्रपात के रूप में खूब प्रचारित किया गया। कहा गया अब मार्क्सवाद अप्रासंगिक हो गया है। दरअसल, साम्राज्यवादी रणनीति के अंग के बतौर यह सब विचारधारा के रूप में मार्क्सवाद और सामाजिक व्यवस्था के रूप में साम्यवाद के खिलाफ विश्वव्यापी अभियान ही था। जल्दी ही पूंजीवाद मंदी के संकट में फंसने लगा और वह अब भी उससे उबरने के लिए हाथ-पाँव मार रहा है। पूंजी के बढ़ते संकेन्द्रण ने अमीरी-गरीब के बीच की खाई को बढ़ाने के साथ-साथ पर्यावरण के विनाश और लोकतंत्र के अपहरण का संकट भी खड़ा कर दिया। इन सब के खिलाफ दुनिया भर में नए-नए आन्दोलन शुरू होने लगे और इनके दमन के निमित्त दुनिया भर में फासीवादी प्रवृत्तियों का नए सिरे से उभार भी शुरू हुआ। इतिहास फिर चलने लगा, उसका अंत नहीं हुआ था, बस जैसे कुछ क्षण के लिए वह ठिठक भर गया था। संकट से निजात पाने के लिए दुनिया के बौद्धिक जगत ने एक बार फिर मार्क्स की ओर देखना शुरू किया। नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री सर जॉन हिक्स के शब्दों में: वे लोग जो इतिहास की गति को एक निश्चित स्वरूप देना चाहते हैं उनमें से अधिकांश मार्क्स के प्रवर्गो अथवा इन प्रवर्गो के किंचत संशोधित रूपों का प्रयोग करना चाहेगें क्योंकि कोई अन्य विकल्प उपलब्ध है ही नहीं। (इतिहासकार इरिक हाब्सवाम : हाउ टु चेंज द वर्ल्ड, (2011) से)


अपने देश में भी अमेरिकी हिसाब की नई नवउदार आर्थिक नीतियों के लागू होने के साथ पूंजीवाद के मुनाफे में भारी वृद्धि होनी शुरू हुई। उसका कारपोरेटीकरण हुआ। अमीरी-गरीबी के बीच का फासला बड़े पैमाने पर बढ़ा। अवसरवाद, भ्रष्टाचार की जैसे सुनामी आ गयी। आदमी के अन्दर-बाहर अलगाव और भी बढ़ता गया एक वाक्य में कहा जाए तो आज़ादी के दौरान के सारे सुन्दर वचन अपने व्यंग्य-चित्र में बदल गए-

“वह आदर्शों का पर्वत है,
वह एक राष्ट्रपति----जिसके प्रांगण में
है महत-जनों का भोज, हर्ष-वन में।
फिर, उसी राष्ट्रपति द्वारा ही अंत में
भव्य भाषण
परितृप्त उदर को
उपदेशात्मक प्रवचन है
अगले क्षण जिसको भूलना है।”


‘हर्ष-वन’ के भोज में शामिल उन ‘महत-जनों’ का चित्र भी देख लेना शायद अतिरिक्त या अप्रासंगिक न होगा-
.......
वे स्निग्ध, सुपोषित, संस्कृत मुख
अपने झूठे प्रतिबिम्ब गिराते हैं।
लाखों आंखों से उन्हें देखता रहता हूं।
उनके स्वप्नों में घुस कर मुझे स्वप्न आते।

हैं बंधे खड़े,
ये महत्, बृहत,
......
मशहूर करिश्मों वाले गहरे स्याह तिलस्मी तेज बैल
तगड़े-तगड़े
अपने-अपने खूंटों से सारे बंधे खड़े
यह खूंटा स्वर्ण-धातु का है
रत्नाभ दीप्ति का है
आत्मैक ज्योति का है
स्वार्थैक प्रीति का है।
....
वे बड़े-बड़े पर्वत अंधियारे कुंए बन गए
जो कल थे कपिला गाय आज तेंदुए बन गए।
हाय हाय, यह श्याम कथानक है
आदमी बदल जाने की यह प्रक्रिया भयानक है।"


(यहाँ मुक्तिबोध की फैंटेसी को समझने का एक सूत्र भी मौजूद है- ‘उनके सपनों में घुस कर मुझे स्वप्न आते’- यानीं प्रति-स्वप्न, जिसके जरिये मुक्तिबोध कविता का अपना प्रति-संसार रचते हैं।)


इन स्थितियों का फ़ायदा उठा कर साम्प्रदायिक-फासीवादी विचारधारा की पार्टी सत्ता में आई। ‘नए युग में शत्रु’ के बतौर देश के अन्दर ही नये-नये शत्रुओं की तलाश की जा रही है। लोगों को अतीत के पालने में झुलाते हुए ‘किसी स्वर्णिम अतीत’ की लोरी सुनाई जा रही है। जन-जीवन में बढ़ते बाहरी-भीतरी अलगाव का रेजिमेंटेशन किया जा रहा है। उसे नफ़रत और उन्माद की धार दे कर एक ख़ास साम्प्रदायिक दिशा में मोड़ दिया गया है। लोक-तंत्र को एक हत्यारे भीड़-तंत्र में तब्दील करने और इस तरह लोकतंत्र के अपहरण का अन्दर-खाते षडयंत्र जारी है


“किसी अंगिरस, वशिष्ठ की स्थापित संस्था
में एकाएक आलमारी पर टेबल कुर्सी पर
खुली खिड़कियों में से सहसा आ धमकी
पुच्छल सेना
है गज़ब चांदमारी अजीब हाथों
हर रोज़ धड़ाके खतरनाक
किसको डांटो, किसको निकाल दो, किसे रखो
.........
नैतिक शब्दावलि?
मंदिर-अंतराल में भी श्वानों का सम्मलेन
तो आत्मा के संगम का प्रश्न नहीं उठता
यह है यथार्थ की चित्रावलि।“”

(चुप रहो मुझे सब कहने दो)    


मुक्तिबोध के समय में जो दु:स्थितियां विकसित हो रही थीं, इसे ले कर जन-मन में जो प्रश्न-चिह्न बौखला रहे थे और उनके दमन के निमित्त जो कुछ अँधेरे में चल रहा था, उसका स्वप्न-चित्र ‘अँधेरे में’ कविता में आया। और कि जो ‘67 के राजनीतिक उथल-पुथल, संविद सरकारों के बनने और नक्सलबाड़ी के सशस्त्र आन्दोलन के उभार, उसके दमन और अंततः ’75 के आपातकाल के रूप में वास्तव हुआ। आज स्थिति उसके मुकाबले न केवल मात्रात्मक बल्कि गुणात्मक रूप से भिन्न और भीषण रूप में हमारे सामने मौजूद है। आज जो कुछ हम देख-झेल रहे हैं वह फासीवाद ही है।


मुक्तिबोध ने ‘एक साहित्यिक की डायरी’ में ‘नए की जन्मकुंडली : एक’ नामक निबंध में जो लिखा- “पुराने सामंती अवशेष बड़े मज़े में हमारे परिवारों में पड़े हुए हैं। पुराने के प्रति और नए के प्रति इस प्रकार एक बहुत भयानक अवसरवादी दृष्टि अपनायी गयी है। इसलिए सिर्फ़ एक सप्रश्नता है। प्रश्न है, वैज्ञानिक पद्धति का अवलंबन कर के उत्तर खोज निकालने की न जल्दी है, न तबीयत है, न कुछ।”- लगता है वही स्थिति विकसित होती चली आई और आज एक नई परिस्थिति में प्रतिक्रियावादी शक्तियों का हथियार बन कर हमारे सामने आ रही है। प्रतिक्रियावादी शक्तियाँ इस स्थिति का भरपूर उपयोग करते हुए, जो, जितना और जैसा भी ‘नया’ है उसके खिलाफ प्रतिक्रान्ति करने पर आमादा हैं। इन शक्तियों का छिपा रूप- छलनाओं के रूप में- मुक्तिबोध ने देखा था और सावधान किया था-

लेकिन, यह सच है कि
छलनाएँ असफल होते हुए देख कर
इंद्रजाल त्याग, वह
खुलकर काम करे,
कभी-कभी सामने भी आ जाय,
दस्यु ही बन जाय,
हथियार-कारखाने चुपचाप
कायम करे, गिरोह बनाये
और आतंक फैलाये!!  

(चम्बल की घाटी में)


लेकिन समर शेष है - दुनिया में भी और देश में भी- ‘जीवन के प्रबल समर्थक प्रश्न बौखला रहे हैं’ और नये-नये आन्दोलनों की शक्ल में फूट रहे हैं-

“चाहे जितनी उजाड़
उचाट-सी लगे भूमि,
कुशल व चाहे जितना बलवान
वह यातुधान हो,
लोग अभी ज़िंदा हैं, ज़िंदा!!
यहीं कहीं, वे भी।”

(चम्बल की घाटी में)    
    
अपने रंगों को खोजो

इस नज़रिए से इसका निष्कर्ष यह निकलता है कि हम ऐसी सारी स्थितियों को उखाड़ फेंके जिसने मनुष्य को गुलाम, लांक्षित और बंधुआ बना रखा है। लेकिन यह यूँ ही नहीं हो जाने वाला। इसके लिए सिर्फ़ वेदना ही नहीं ‘क्रियावान वेदना’ जरुरी है। बल्कि इससे भी आगे क्रियावान वेदना से प्राप्त विचारों को आचारों में परिणत करने की भी दरकार होगी और इसके लिए-

“नैतिक स्व-भान और विश्व-भान में हो कर रत
तुम उलझोगे दुनिया के उन
लोहे के काले पुर्जों-जैसे सटर-पटर
असबाब-अटाले-जैसे प्यारे नारी-नर
तुम उन्हें जोड़ना और मोड़ना चाहोगे!!
तुम उसी उपेक्षित मानवता की काल-कोठरी में
रोना भी चाहोगे।
पर अपने वर्ग-काबिले से तुम बिछुड़ोगे!!
..........
अपने रंगों को खोजो,
हरिया-तूता, आक, धतूरा काम आयेंगे
.........
करो रंग-उत्पादन मिश्रण!!
तुम मिश्रण के रासायनिक सूत्र भी खोजो
उत्पादन की पद्धति आवश्यक है
धूल-ईंट के सस्ते रंग भी बहुत काम के
कलाकार से वैज्ञानिक फिर वैज्ञानिक से कलाकार
तुम बनो यहाँ पर बार-बार
........
करो प्रयास भयंकर,
आत्म-निपीड़नकारी वे ग़लतियाँ
कि भाव-प्रवर्तनकारी भव्य सुधार प्रभास्वर
के संयुक्त प्रयास-मार्ग से गुज़र चलो तुम
अग्नि-परीक्षाओं से गुज़रे यह परम्परा”

(भविष्य-धारा कविता, मुक्तिबोध रचनावली)





(इस पोस्ट में प्रयुक्त तस्वीरें गूगल इमेज से साभार ली गयी हैं।)



रामजी राय








सम्पर्क


मोबाइल : 9453087982

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं