मनोज कुमार झा की कविताएँ


मनोज कुमार झा




यह जीवन जितना ही सुंदर दिखता है उतनी ही जटिल इसकी संरचना है। कुदरत की इस जटिल संरचना को समझ पाना और भी मुश्किल काम है। एक कवि इसी मायने में अलग होता है कि वह इस समझ को जानने बूझने की कोशिश करता है। वह घटना के एक तार को देख सुन कर उसके तह में उतरने की गहन व्याकुलता से भरा होता है। इसी क्रम में उनके यहाँ वह प्रश्नाकुलता दिखायी पडती है जो एक मनुष्य होने के नाते होनी चाहिए। मनोज कुमार झा हमारे समय के एक चर्चित युवा कवि हैं। मनोज के कविता की एक पुस्तिका हम तक विचार तथा दो कविता संग्रह तथापि जीवन और कदाचित अपूर्ण प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी कविताओं में हम उन ध्वनियों को सहज ही सुन सकते हैं जो आम तौर पर अनसुनी रह जाती हैं। मनोज का शिल्प भी औरों से अलहदा है। हर पंक्ति एक रागात्मकता के साथ जैसे जीवन राग से संपृक्त हो। आज पहली बार पर प्रस्तुत है मनोज कुमार झा की कविताएँ।



 मनोज कुमार झा की कविताएँ




जलना अब एक जटिल क्रिया थी



लंका दहन के दिन मां जरूर ले जाती थी रामलीला
हम लोगों को लगता था कि कुछ बुरा जल रहा है।
रावण दहन के रोज पटाखों का फूटना
और मिठाई खरीद कर घर लौटना
जैसे जलने में कोई खुशखबर छुपी हो।
घूरे का जलना
बड़ों की गप्पें
और उसमें पकते हमारे आलू।

          

फिर एक दिन सुना कि सहजो की पत्नी जल गई
चुपके चुपके खबर कि जला दी गई
मुंहजोर थी
यह जलना कुछ अलग जलना था
हमारी समझ पर निशान बनाता।


रफ्ता रफ्ता तरह तरह के जलने की खबर सुने
किसी ने घर जला दिये, किसी ने गांव
किसी ने जंगल, किसी ने गरीबों के ठाँव।


लंका दहन से शुरु हो कर दोस्त के घर तक आई आग
जलना अब एक जटिल क्रिया थी
जटिल थी लंका, रावण जटिल
और हम भी अब बच्चे नहीं।


     






        क्या?




क्या जिसने घूँसे खाए
वह बच गया कि लिंचिग नहीं हुई?
क्या जिसे पति ने पीटा
वे बेहतर हैं उससे जिसे बाजार में बेच दिया गया?
क्या जिसे स्कूल में पीटा गया
वह उससे बेहतर जो कचड़ा चुन रहा?
क्या जो इस बार पानी की कमी से जूझे
वह उससे राहत में जो दस साल बाद झेलेंगे!
क्या वह बच गया जिसका दोस्त मारा गया!
क्या वह भाग्यवान जिसे आज भर भरी कटोरी दाल मिली!
क्या उस पर ईश्वर की कृपा जिसका आधा घर जला!
क्या छुरी से मरना बेहतर है एटम बम से मरने से!
कैसे पेंचदार चुनाव आते हैं जीवन में
कि अभी मरोगे या भाई के मर जाने के बाद!


 
       




खेल


इससे आगे मत दौड़ो
तुम्हारे दौड़ने पर किसी ने दांव लगा रखी है
यह दौड़ना तुम्हे बल देता है
मगर हारता कोई और है, जीतता कोई और।


तुम अब बाजार के खेल का प्यादा हो
रखी जा रही तुम्हारी हर चाल पर नजर
नजर तुम्हारे रुकने पर, नजर तुम्हारे चलने पर
सत्तू पीने पर, चाय पीने पर निगरानी।
वह जो मोबाइल पर फिल्म देखते हो
देखते हो समाचार
कुछ भी बेखटका नहीं।


पोखर को बचाओ इनकी निगाह से
इनकी निगाह से बचाओ खेल के मैदान को।
सोचने को कर रहा नियंत्रण में
नियंत्रण में खाने को।


आओ इसका खेल पलटे
सोचें कुछ सचमुच का अलग, कुछ नवल-निखोट।







घर और पीपल


हर बार निकलता हूँ घर से
हर बार रोक लेता है यह पीपल का पेड़
पक्षियों का कलरव
झूलने लगता हूँ इसके वायवीय जड़ो को पकड़ कर
कभी यहां आकर चांदनी में गायब हो जाती है बेचैनी
तो कभी अंधियारे में धुल जाता है अकारण क्रोध
तो कभी मन को शीतल कर देती है इसकी छाँह।


तो क्या घर से इस पीपल के लिए ही निकलता हूँ
निकलता तो हूँ कहीं सुदूर अज्ञात के लिये
लेकिन इतनी बार लौटा हूँ यहाँ से
कि कई बार शक होता कि यहीं तक के लिए तो नहीं निकलता!
एक ही तो रास्ता है बाहर जाने का
एक ही तो स्थान जहाँ बचपन में खेलते थे
एक ही तो इतने जीवों का बसेरा
एक ही तो पुल घर से अज्ञात यात्राओं तक।


क्यों लौट जाता हूं यहां से
कौन बांध देता है पांव में ऊखल
कौन फेर देता है सिर पर हाथ
कौन लिख देता है चित्त पर कि घर लौटो?

क्या हर आदमी के पास एक पीपल होता है
जहाँ से वह घर लौट जाता है?
हर आदमी के क्रोध कहीं आके थम जाता है
कहीं थिर हो जाती है बेचैनी
कितना अच्छा हो कि हर आदमी के पास हो एक पीपल
और उससे भी पहले सब के पास हो एक घर।

     
एकांत में मृत्यु



मुझे मरने देना अकेले
मेरी आत्मा की शांति भंग ना हो
मरदूत को नहीं आने देना।
मैं बड़बड़ाऊँ तो मुझे
अपने बड़बड़ के साथ छोड़ देना
इसका कोई अर्थ नहीं लगाना।
मैं कहूँ कोई कविता तो
उसमें विस्मृति के जो चिन्ह हों
उन्हें मत मिटाना।
एक कवि का कौन होता है!
अभी तुम हो तो कह रहा
मेरी मृत्यु कम से कम
उतना अकेला तो रहने देना
जितना मैं जन्म लेते समय था।



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



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